सोमवार, अगस्त 29, 2005

एक रुपइया बारह आना

कल कार में "चलती का नाम गाड़ी" फिल्म का यह गीत सुन कर मन में उन दिनों की याद आयी जब पैसों के नाम पाई, धेला, टका और आने होते थे. आज भी कितने पुराने तरीके हैं बोलने के जिनमें वो दिन अभी भी जिंदा हैं. "मैं तुम्हारी पाई पाई चुका दूंगा" या फिर "दो टके का आदमी" और "बात तो सोलह आने सच है", जैसे वाक्य शायद अब लोग कम ही समझते होंगे ?

क्या कभी कभी कोई पूछता भी है कि इस तरह के शब्द कहां से आये ? पाई, धेला और टका में से कौन सा बड़ा है और कौन सा छोटा, मुझे नहीं याद. मेरे ख्याल से १९६० के आसपास भारतीय प्रणाली बदल कर रुपये और पैसे वाली बन गयी थी. मुझे कथ्थई रंग का सिक्का जिसके बीच में छेद था और एक आने के चकोर सिक्के की थोड़ी सी याद है.

एक आना यानि ६ पैसे, चवन्नी यानि चार आने, अठन्नी यानि आठ आने और सोलह आने का रुपया जिसमें ९६ पैसे होते थे. शायद अब ये शब्द केवल पुराने फिल्मी गानो में ही रह गये हैं, जैसे एक रुपइया बारह आना, आमदन्नी अठन्नी खर्चा रुपइया. हां मन में एक शक सा है. लगता है कि पाई, धेला, टका पंजाब के या उत्तर भारत के शब्द हैं. इन्हें दक्षिण भारत में क्या कहते थे ?


आज की तस्वीरे एक बार फिर फैरारा शहर से, जिनका विषय है मूर्तियां.


रविवार, अगस्त 28, 2005

छोटी सी पुड़िया

कल रात को टीवी पर समाचार में बताया कि स्विटज़रलैंड में एक नये शोध कार्य ने साबित कर दिया है कि होम्योपैथी सिर्फ धोखा है. इस शोध कार्य के अनुसार, लोगों को अगर होम्योपैथी की गोलियों के बदले सिर्फ चीनी की गोलियां दी जायें तो भी उतना ही असर होता है, यानि कि होम्योपैथी में दवाई का असर नहीं केवल मन के विश्वास का असर है.

इस समाचार से एक पुरानी बात याद आ गयी. करीब बीस बरस पहले एक बार मेरे कंधे में दर्द हुआ. तब डाक्टरी की पढ़ाई पूरी कर चुका था, तो अपने लिए दवाई खुद ही चुनी. चार पांच दिन तक ऐंटी इन्फलेमेटरी दवा की गोलियां खा कर पेट में दर्द होने लगा था पर कंधा का दर्द कम नहीं हुआ. फूफा तब रिटायर हो गये थे और होम्योपैथी की दवा देते थे, मुझसे सवाल पूछने लगे. पूछताछ कर के उन्होंने मुझे तीन पुड़िया बना दी. पहली पुड़िया मैंने वहीं खायी और उस दिन घर वापस आते आते, दर्द बिल्कुल गुम हो गया. मैंने बाकी की दोनो पुड़ियां सम्भाल कर पर्स में रख लीं. वे पुड़ियां मेरे साथ इटली आयीं. करीब सात आठ साल पहले, एक बार फिर कंधे में दर्द हुआ, तो उनमें से एक पुड़िया मैंने खा ली और दर्द तुरंत ठीक हो गया. आखिरी पुड़िया मैंने खो दी.

सोचता हूं कि हमारा सारा जीवन ही एक विश्वास प्रणाली के धरातल पर बनता है. आज की आधुनिक चिकित्सा विश्वास प्रणाली शरीर के विभिन्न हिस्सों की बनावट और काम के विश्वास के धरातल पर टिकी है. सभी इलाज और शोध कार्य भी इसी विश्वास के ऊपर टिके हैं.

पर मैं सोचता हूँ कि इस दुनिया में सभी चीज़ें, धरती, पानी आग, हवा, मानव, पशु, पंछी, पत्थर, पेड़, सब कुछ अंत में देखा जाये तो एक जैसे अणुओं का बना है, जिसके अंदर अल्फा, बीटा, गामा इत्यादि कण हैं. यही अणु दवा में भी हैं, शरीर में भी, हवा में भी, जीवित में भी, मरे हुए में भी. हम शरीर के भीतर जा कर माइक्रोस्कोप से देख कर, यंत्रों से माप कर, सोचते हैं हमने सब समझ लिया पर डीएनए में भी, जीनस में भी यही अणु हैं. जीवन ही एक रहस्य है जो अणुओं के बीच साँस भर देता है.

क्या मालूम कल एक और नयी विश्वास प्रणाली आ जाये और नयी दवाईयाँ बन जायें. तब तक मैं अपनी ब्लड प्रैशर की दवा तो लेता रहूँगा और जरुरत पड़े तो होम्योपैथी भी ले सकता हूँ, कोई भी शोध कार्य कुछ भी कहे, यही मेरे विश्वास हैं.

कुछ और तस्वीरें फैरारा के बस्कर फैस्टीवल की.

शनिवार, अगस्त 27, 2005

सड़क के कलाकार

हर शहर में आप को सड़क के कलाकार यानि बस्कर मिल जायेंगे. रेलगाड़ी में या मेट्रो में या फिर सड़क के किनारे, अपनी कला से आप का मन जीत कर कुछ पैसे कमाने के लिए. यूरोप में कई जवान लड़के लड़कियाँ, यात्रा के दौरान अगर पैसे कम पड़ जायें तो गिटार बजा कर या गाना गा कर भी पैसे कमाने की कोशिश कर सकते हैं.

शायद कुछ लोग सोचते हों कि ये लोग भिखारी हैं कलाकार नहीं, पर मुझे कई बार यह सड़क के कलाकार बहुत अच्छे लगते हैं. लंदन में पिकादेली सर्कस के मेट्रो स्टेशन पर एसकेलेटर करीब सौ मीटर तक नीचे जाते हैं, और जब आप नीचे जा रहे हों तब नीचे खड़े हो कर वाद्य बजाने वालों की आवाज़ सुनायी देती है जो मुझे बहुत प्रिय है. एक बार वहाँ रावेल के "बोलेरो" को सुना था, जिसे आज तक नहीं भुला पाया.

बोलोनिया से करीब ५० किलोमीटर दूर एक शहर है फैरारा, जहाँ हर साल एक बस्कर फैस्टीवल लगता है. दूर दूर से सड़क के कलाकार यहाँ इस फैस्टीवल में अपनी कला दिखाने आते हैं. कल शाम हम भी इस फैस्टीवल को देखने गये. फैरारा वैसे भी, यानि बिना फैस्टीवल के भी देखने लायक है. शहर के बीचो बीच बाहरँवीं शताब्दी का किला है, कस्तैलो एसतेन्से और शहर के इस सारे भाग को युनेस्को ने विश्व सास्कृतिक धरोहर घोषित किया है. पर बस्कर फैस्टीवल की वजह से और भी दर्शनीय हो गया था.

कहीं अजीब सी लम्बी पाइप जैसा वाद्य बजाने वाला, कहीं ओरकेस्ट्रा, कहीं नाचने वाले, कहीं जादू वाले, स्पेन के फ्लामेंको नृत्य करने वाली लड़कियाँ, फ्राँस की गाना गाने वाली माँ बेटी, मूर्ती की तरह सजधज और बन कर खड़े लोग, ब्राज़ील के नाचने वाले. एक सुंदर सी लड़की आँखों पर मुखोटा लगाये बैठी थी, साथ में बोर्ड पर लिखा था "आप की आखौं में देख कर आप के बारे में बतायेगी" और उसके सामने आँखों मे झँकवाने के लिए लम्बी लाइन लगी थी.

हम लोग तो घूम घूम कर थक गये, पर सभी कलाकारों को देख पाना असंभव था. हर दस मीटर पर एक नया कलाकार, चार घंटे में जाने कितने देखे, पर मजा आ गया.

आज की तस्वीरें फैरारा के बस्कर फैस्टीवल से.

शुक्रवार, अगस्त 26, 2005

चाय, काफी या फिर ..

पिछली बार मुम्बई गया तो भाभी ने खाने के समय पूछा "तो साथ क्या लोगे पीने के लिए ? वाइन चाहिये ?" "नहीं भाभी, पानी ही ठीक है", मैंने कहा क्योंकि गोलकुंडा वाइन एक बार चखी थी पर खास नहीं भायी थी.

"वहाँ तो सुना है वाइन बड़े डिब्बे में है, तुम्हारी रसोई में! बस उसका नल खोलो और वाइन भर लो गिलास में." भाभी ने ऐसे कहा मानो अब मेरे शराबी हो कर मरने में कुछ अधिक देर नहीं. यह सब खुराफात भतीजी की थी जो यूरोप में छुट्टियाँ मनाने आयी थी और हमारे साथ कुछ दिन रुकी थी. उसी ने यह समाचार भाभी को दिया था कि चाचा की रसोई में वाइन का ढ़ोल रखा है. क्या कहता कि भाभी वह तो सिर्फ इस लिए क्योंकि ढ़ोल में लेने से बहुत सस्ती पड़ती है ?

भाभी को क्या कहता कि लेटिन सभ्यता में वाइन का क्या महत्व है ? बिना वाइन के भी कोई खाना होता है क्या ? यहाँ तो डाक्टर भी कहते हैं कि आधा गिलास वाइन खाने के साथ खाने से दिल की बिमारी कम होती है और लाल वाइन में तो लोहे और अन्य मिनरल पदार्थ हैं जिनसे खून बनता है. यानि कि मजा का मजा और साथ में मुफ्त स्वास्थ्य भी.

मेरी एक मित्र उत्तरी इटली में पहाड़ों में एक स्कूल में पढ़ाती है, कहती है कि कुछ बच्चे सुबह सुबह वाइन में रोटी भिगो कर खाते हैं, फिर कक्षा में आ कर सोये सोये रहते हैं. मैंने पत्नी से पूछा तो उसने भी स्वीकारा कि गँवार परिवारों में अभी भी ऐसा हो सकता है पर अब यह प्रथा बहुत कम हो गयी है, पहले बहुत प्रचलित थी.

यहाँ सब बच्चे चाय पीते हैं. चाय तो प्राकृतिक पदार्थ है, कहते हैं. जब छोटा था तो कभी चाय पीने को नहीं मिलती थी, सब कहते थे कि वह तो बड़ों के पीने की चीज़ है. और चाय पीने से रंग काला पड़ जाता है, यानि जितनी काली चाय, उतना ही रंग काला, इसलिए खूब दूध डालिये उसमें. यहाँ की चाय अपनी भारतीय चाय से बहुत हल्की है, जिसे नींबू के रस के साथ ही पीते हैं, अगर उसमें दूध डालेंगे तो बिल्कुल अच्छी नहीं लगती. यह चाय यहाँ अलग अलग फलों के रसों के साथ कई स्वादों में भी मिलती है और छोटे छोटे बच्चे इसे निप्पल वाली बोतल से भी पीते हैं. यहाँ चाय बच्चों की और वाइन बड़ों के पीने की चीज़ है, छोटे बच्चे अगर बहुत जिद करें तो उन्हें एक चुस्की मिल सकती है.

यहाँ की काफी भी बिल्कुल अलग है. छोटे से बित्ती भर प्याले में जरा सी एसप्रेसो काफी. बार में काफी पीने जायेंगे तो पहले एक छोटे गिलास में पानी देंगे ताकि आप काफी का सही स्वाद लेने के लिए पहले अपने मुख को पानी से साफ करलें. प्याले में काफी इतनी कि बस जीभ भीगती है, पर स्वाद तेज होता है. पहले सोवता था कि इतनी गाढ़ी काफी यानि कि शुद्ध जहर, पर बाद में कही पढ़ा इस काफी में केवल स्वाद ही तेज होता है, केफीन जैसे अन्य पदार्थ आम काफी से कम होते हैं.

जब भी कोई भारत से आता है तो न तो यहाँ की चाय को पसंद करता है और न ही काफी को. और इतालवी लोग जब बाहर जाते हैं तो अपनी काफी को बहुत याद करते हैं. अमरीका में जैसे एक लिटर या आधा लिटर के गिलास में काफी देख कर अपना सिर पीट लेते हैं. मेरी एक इतालवी डाक्टर मित्र पिछले वर्ष हैदराबाद गयी वहाँ के अस्पताल में छह महीने के लिए काम सीखने के लिए. मेरा तभी हैदराबाद जाने का प्रोग्राम बना तो उसके घर टेलीफोन किया, यह पूछने के लिए कि उसे किसी चीज की आवश्यकता हो तो साथ ले जाऊँगा. उन्होंने कहा, "मोका (इतालवी एसप्रेसो बनाने वाली मशीन) के लिए दो तीन किलो काफी ले जाओ, वह बेचारी पानी जैसी काफी पी कर परेशान है".

अनूप जी तारीफ के साथ साथ चिट्ठा विश्व के पन्ने पर मेरे कल के चिट्ठे का उल्लेख भी किया है, धन्यवाद. कल जितेंद्र से "गूगल टाक" के द्वारा भी संपर्क हुआ, बस बात नहीं कर पाया क्योंकि यहाँ बहुत सुबह थी और मुझे डर था कि अगर बातें करने लगूँ तो करीब सोई पत्नी की नींद खराब हो जायेगी.

आज बलोगर होम के पन्ने में कुछ खराबी लग रही है, तस्वीरें अपलोड नहीं हो सकती हैं इसलिए आज कोई तस्वीर नहीं है.

गुरुवार, अगस्त 25, 2005

स्त्री, पुरुष या विकलांग ?

यह कैसा सवाल हुआ, विकलांग लोग क्या स्त्री या पुरुष नहीं होते?
मेरी एक मित्र है, अफ्रीका में डाक्टर है. वहीं एक कार दुर्घटना में उसका दाहिना हाथ और बाजू चले गये. उसने मुझे कहा, "जब मैंने बाजू खोयी तभी अपना स्त्री होना भी खो दिया. लोगों के लिए मैं अब औरत नहीं केवल विकलांग हूँ."
उसकी इसी बात से, मैंने अपने शौध का विषय चुना कि विगलांग होने का सेक्सुएल्टी यानि यौन जीवन पर क्या असर पड़ता है. इस शोध के लिए यौन जीवन का अर्थ केवल मेथुन क्रिया नहीं थी बल्कि दो व्यक्तियों के बीच आपस में जो भी सम्बंध, यानि स्पर्श, प्यार, दोस्ती, बातें, फैंटेसी, आदि सब कुछ था.
शौध के बारे में मैंने ई‍ग्रुप्स में विज्ञापन दिये और बालिग विकलांग व्यक्तियों को शोध में भाग लेने का निमंत्रण दिया. प्रारम्भ में 32 लोगों ने शौध में भाग लेने में दिलचस्पी दिखायी. अंत में करीब 20 लोगों ने भाग लिया. हर एक व्यक्ति से ईमेल के द्वारा बात होती थी. हर एक से बात कम से कम तीन चार महीने चली, किसी किसी से तो और भी लम्बे चली. सवाल मैं ही नहीं करता था वह भी मुझ से सवाल कर सकते थे.
सेक्स का हमारे जीवन में क्या अर्थ है? सोचता था कि अपने बारे में सब कुछ जानता हूँ पर दूसरों से बात करके ही मालूम पड़ा कि कितने अंधेरे कमरे छिपे हैं अपने मन के भीतर, जिनको मानना नहीं चाहता था क्यों कि वे मेरे अपने अस्तित्व की छवि से मेल नहीं खाते थे. आसान नहीं था पर मैंने कोशिश की कि अपनी हर बात को बिना किसी शर्म या झिझक से औरों से कह सकूं. शायद इसी लिए लगा कि शौध में भाग लेने वाले लोगों ने भी ईमानदारी से अपनी बातें कहीं.
कई बार शौध की आयी ईमेल पढ़ कर रोना आ जाता. कभी कभी पूरा संदेश नहीं पढ़ पाता था, क्मप्यूटर बंद कर के बाहर बाग में चला जाता. विश्वास नहीं होता कि लोग इतने अमानुष भी हो सकते हैं. शौध के एक वर्ष में उनमें से कई लोगों के साथ मित्रता के ऐसे बंधन बन गये जो आज भी बने हुए हैं. शौध के दौरान हुई बातों का एक छोटा सा भाग ही शौध की थीसिस में प्रयोग किया. लोगों ने अपनी भावनाओं और अनुभवों में जिस तरह मुझे देखने का मौका दिया था, उसे थीसिस में लिखना मुझे ठीक नहीं लगा. इस अनुभव ने मुझे हमेशा के लिए बदल दिया.
शौध का निष्कर्ष था कि विकलांग लोगों के जीवन रुकावटों से घिरे हुए हैं. ये रुकावटें भौतिक भी हैं जैसे सीड़ियां, लिफ्ट न होना, इत्यादि, और विचारों की भी हैं. ये समाज के विचारों की रुकावटें ही सबसे अधिक जटिल हैं, जिनको पार करना आसान नहीं.
यौन संपर्कों और यौन जीवन के बारे में बात करना आसान नहीं और विकलागंता के बारे में भी बात करना आसान नहीं है. जब दोनो बाते मिल जाती हैं, तो उसके बारे में तो कोई भी बात नहीं हो पाती.
मेरी थीसिस इस अनुभव के छोटे से भाग को अध्यापन की गम्भीर भाषा में घुमा फिरा कर व्यक्त करती है, पर अगर आप इसे पढ़ना चाहें तो यहाँ पढ़ सकते हैं.
***
आज की तस्वीरें हैं दक्षिण इटली के शहर ओस्तूनी से, इस शहर को श्वेत शहर भी कहते हैं क्योंकि यहां के सब घर सफेद रंग के हैं.


बुधवार, अगस्त 24, 2005

हिंदी में लिखना

दिल्ली से एक मित्र कुछ किताबें ले आये हैं जिनमे मुणाल पांडे की किताब "परिधि पर स्त्री" (राधाकृष्ण प्रकाशन, १९९८) भी है. मुणाल पांडे जी सुप्रसिद्ध लेखिका दिवंगत शिवानी जी की पुत्री हैं और अंग्रेजी में एम.ए. हैं पर अधिकतर हिंदी में ही लिखती हैं. उनके बहुत से कहानी संग्रह, लेख संग्रह तथा उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं.

इस पुस्तक में मृणाल जी ने नारीवाद के विभिन्न पहलुओं के बारे में लिखा है. पढ़ते पढ़ते मैं कई बार रुक कर सोचने के लिए मजबूर हो जाता हूँ. उनकी कलम में तलवार की धार छिपी है जो ऊपर से बिठाये सुंदर मुखौटे को चीर कर अंदर छुपे धाव को नंगा कर के दिखाती है.

देश के विश्वविद्यालयों में स्त्री समस्याओं पर हो रहे शोध कार्य पर वह लिखती हैं, "यह हमारे देश के वर्तमान अकादमिक क्षेत्र की एक केंद्रीय विडंबना है कि गरीबी, असमानता तथा स्त्रियों की विषम स्थिति पर बड़े बड़े विद्वानों द्वारा जो भी बड़िया काम आज हो रहा है, उसके बुनियादी ब्यौरे तो वे अपने शोध सहायकों की मार्फत भारतीय भाषाओं में संचित करा रहे हैं, पर उनका अंतिम संकलन, माप जोख तथा विश्लेषण वे अंग्रेजी में ही प्रस्तुत करते हैं और उन्हें भी वे प्रिंसटन, हारवर्ड, आक्सफोर् अथवा येल जैसे विख्यात पश्चिमी विश्वविद्यालयों के अकादमिक पत्रों में छपवाने को ही वरीयता देते हैं जबकि उनके पैने विश्लेषणों और तर्कसंगत वैज्ञानिक सुझावों के मार्ग के मार्गदर्शन की सर्वाधिक दरकार भारत के उन समाजसेवी संगठनों को है जो इन ऊँचे शोध केंद्रों और अंग्रेजी भाषा से बहुत दूर चुपचाप अपना काम कर रहे हैं."

सच बात तो यह है कि अगर आप अंग्रेजी में नहीं लिखते तो दुनिया में आप का कोई अस्तित्व ही नहीं है. कितने लोगों ने सुना है मुणाल पांडे का नाम ? मुक्तिबोध जैसे कवि का नाम, भारत के बाहर की बात तो छोड़िये, अपने भारत में ही कितने लोग जानते हैं ?

अरुंधति राय कुछ लिखती हैं तो १० दिन के अंदर ही मैं उस लेख को इतालवी भाषा में पढ़ सकता हूँ. मृणाल जी का लिखा कभी कुछ नहीं आया इतालवी भाषा में. इतालवी गूगल से ढ़ूंढ़िये तो १० लाख पन्ने मिल जायेंगे अरुंधति राय के बारे में. मेरे नाम से ढ़ूंढ़िये तो भी कम से कम दो हजार पन्ने मिल जायेंगे. २० साल से लिख रहीं हैं मृणाल जी, उनके नाम से इतालवी गूगल से खोजो तो उत्तर आता है कि इस नाम से कुछ नहीं है.

मेरे कहने का यह अर्थ नहीं कि अरुंधति राय की प्रसिद्धि गलत है, वे बहुत बढ़िया लिखती हैं और मैं उनका प्रशंसक हूँ. न ही यह कहना चाहता हूँ कि गूगल की खोज में आना ही लेखक या पत्रकार के लिए सफलता का अकेला मापदंड है. मैं तो सिर्फ इतना कहना चाहता हूँ कि आज भी हिंदी चुनने वालों के लिए दुनिया में कोई जगह नहीं, अपने भारत में भी नहीं, लोग उन्हें दूसरी श्रेणी का समझते हैं.

ये दो तस्वीरें एक भारत यात्रा से.

मंगलवार, अगस्त 23, 2005

कोई लौटा दे मेरे ...?

कल जितेंद्र जी का लम्बा चिट्ठा, उनकी पुरानी रेडियो और टीवी से जुड़ी यादों के बारे में पढ़ा तो तुरंत उत्साह से टिप्पड़ीं लिखी. टिप्पड़ीं भेजने का बटन दबाया तो एक अजीब सा लम्बा संदेश आया, जिसका सार में अर्थ था कि हमारी कूड़े जैसी टिप्पड़ीं को वो कूड़ेदान में डाल रहे थे. तो पहले तो कुछ परेशानी हुई, क्योंकि बहुत समझदारी की बातें न भी हों, पर ऐसी तो कोई बात नहीं थी कि उसे नाराज हो कर इस तरह ठुकरा दिया जाये. फिर सोचा कि इस विषय पर अपना भी एक चिट्ठा बन सकता है.

जितेंद्र जी ने लिखा तो खूब, बस उनकी एक बात पसंद नहीं आयी जो उन्होंने शास्त्रीय संगीत और कर्नाटक संगीत सभा के चाहने वालों के बारे में लिखी है. क्यों भाई, आप भारत के पारमपरिक संगीत के बारे में ऐसा क्यों सोचते हैं कि उसे सच्चे मन से चाहने वाले नहीं हो सकते ? खैर, शास्त्रीय संगीत के बारे में अपने प्रेम और अन्य धारणाओं के बारे में फिर कभी, इस बार बात रेडियो और टीवी से जुड़ी यादों की है.

हमारे घर में तब बिजली नहीं थी. लैम्प की रोशनी से ही सब काम होते थे. शाम को ६ बजे के आसपास लैम्प जलाया जाता और ८ बजे तक सब बच्चे सोने के लिए तैयार हो जाते. तारों के नीचे, छत पर दरियां बिछतीं, अँधेरे में कहानियाँ और किस्से सुनते सुनते नींद आ जाती. रेडियो एक मौसी के यहाँ देखा था और शादियों में गाने लायक कुछ गाने भी आते थे. राजकपूर की फिल्म "छलिया" आयी थी, उसमें गाना था "तुम जो हमारे मीत न होते .." जो मुझे बहुत भाता था और जरा सा मौका मिलते ही मैं शुरु हो जाता. बिजली की रोशनी और रेडियो पहले हमारे नीचे वाले घर में आये. छत पर लेटे लेटे हम लोग जलन से नीचे देख रहे थे, आँगन में जली बत्ती और रेडियो पर आता "हवा महल". उन दिनों "बहुत रात हो गयी" का मतलब था कि हवा महल का समय हो गया. तब से रात को जल्दी सोने और सुबह जल्दी उठने की जो आदत पड़ी वो अभी तक नहीं गयी. सुबह सुबह चार बजे उठ कर दूध के डीपो के बाहर लाईन जो लगानी होती थी. क्या धक्का मुक्की होती दूध लेने के लिए जो शीशे की बोतलों में आता था.

फिर अपना भी ट्रांजिस्टर आया. कमरे में बीचों बीच उसे प्रतिष्ठत मेहमान की जगह मिली. रोज़ रेडियो सीलोन का स्टेशन ढ़ूंढ़ने की झंझट. शोर्ट वेव के २५ नम्बर के पास, सूई को धीरे धीरे घुमा कर रेडियो सीलोन ढ़ूढ़ते क्योंकि तब आल इंडिया रेडियो फिल्मी संगीत में विश्वास नहीं करता था. नयी फिल्मों के गाने, विषेशकर अमीन सयानी का बिनाका गीतमाला, हमारे मन पसंद प्रोग्राम थे. जब तक आल इंडिया रेडियो ने विविध भारती नहीं शुरु किया, तब तक यही सिलसिला चला.

१९६५ में जब पहली बार अपने स्कूल के मित्र के घर टीवी देखा. कई वर्षों तक यूं ही मित्रों पड़ोसियों के घर टीवी देखने जाते रहे. एक बार चित्राहार देखने और रविवार को हिंदी फिल्म देखने. सलमा सुलतान, प्रतिमा पुरी के दिन थे वे. मेरे पिता पत्रकार थे और कई बार दूरदर्शन पर साक्षात्कार के प्रोग्राम करने के बुलाये जाते. पर घर में टीवी नहीं था इसलिए कभी उनका प्रोग्राम नहीं देखा. एक बार अजमल खान रोड पर एक दुकान में लगे टीवी पर देखा, पापा किसी विदेशी युवती जो भरतनाट्यम की नर्तकी थीं, का साक्षात्कार ले रहे थे. साथ में चार साल की छोटी बहन थी, रोने लग गयी कि पापा उस डब्बे से बाहरे कैसे आयेंगे.

दूरदर्शन के सबसे बढ़िया दिन मेरे विचार में तब आये जब "हम लोग" और "बुनीयाद" जैसे सीरयल आये. एक ही चैनल थी और सारा हिंदी बोलने समझने वाला भारत सिर्फ वही देखता था, और सभी साथ ही वाह वाह कहते थे. आज की डीवीडी पर सोफे पर बोरियत से पसर के देखी हुई फिल्मों से वे दिन, पड़ोसियों के यहाँ सामने दरी पर बैठ कर देखी फिल्मों के दिन, ज्यादा अच्छे लगते थे. ये अच्छाई उन दिनों की फिल्मों या सीरयल में अच्छाई की वजह से नहीं थी, हमारी नादान और अनुभवहीन कल्पना में थी. इसी लिए जब कोई कहता है कि "कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन", हम वह नहीं कहते. वो बीते हुए दिन, यादों में ही अच्छे लगते हैं.

आज फिर दो तस्वीरें पुरानी चीन यात्रा से.


सोमवार, अगस्त 22, 2005

दिल्ली १९८४

इन दिनों नानावती रिपोर्ट के बाद १९८४ में दिल्ली में हुई घटनाओं के घाव फिर से खुल गये हैं. मैं उन दिनों इटली से अपनी पत्नी और कुछ महीने के बेटे के आने की प्रतीक्षा कर रहा था.

जहाँ हम रहते थे वहां ६ सिख परिवार थे, एक मुस्लिम और एक ईसाई, बाकी के घर हिंदु थे. जब शहर से दंगों के समाचार आये, हम सब लड़कों ने मीटिंग की और रक्षा दल बनाया, बाहर से आने वाले दंगा करने वालों को रोकने के लिए. हांलाकि छतों से शहर में उठते जलते मकानों के धूँए दिख रहे थे, पर सचमुच क्या हुआ यह तो हमें पहले पहल मालूम नहीं हुआ. वे सब समाचार तो कुछ दिन बाद ही मिले.

आज प्रस्तुत है अर्चना वर्मा की कविता "दिल्ली ८४" के कुछ अंश, उनके कविता संग्रह "लौटा है विजेता" से (१९९३). अगर पूरी कविता पढ़ना चाहें तो यहां क्लिक कीजिये.

दिल्ली ८४
दिन दहाड़े
बाहर कहीं गुम हो गया
सड़कों पर
जंगल दौड़ने
लगा.

उसके घर में
आज चूल्हा नहीं जला
चूल्हे में आज
घर
जल रहा था.

ऐन दरवाजे पर
मुहल्ले के पेट में
चाकू घोंप कर
भाग
गया था कोई.
रंगीन पानी में नहाई पड़ी थीं
गुड़ीमुड़ी गलियाँ, खुली हुई
अँतड़ियाँ.

और आज दो तस्वीरें एक चीन यात्रा से.

रविवार, अगस्त 21, 2005

अरुंधति राय या मेधा पटकर ?

आऊटलुक में अरुँधति राय का लेख पड़ा, जिसमें अंत में वे एक गाँव की बात करती हैं जहाँ गाँव वालों ने बिना किसी परेशानी के, दो औरतों को आपस में शादी करने दी. मैं सोचता हूँ कि अगर दो पुरुष या दो स्त्रियाँ एक दूसरे से प्रेम करते हैं और साथ जीवन गुजारना चाहते हैं तो उनको इस बात का पूरा हक होना चाहिये. ऐसी ही एक अपील मुम्बई से मेरे पास आयी है जो माँग करती है भारतीय कानून की धारा ३७७ को बदलने की. धारा ३७७ पुरुष या स्त्रियों में कुछ सेक्स सम्बंधों को जुर्म मानता है. मेरे विचार में जो बात जबरदस्ती से किसी से की जाये या फिर नाबालिग बच्चों के साथ हो, उसी को जुर्म मानना चाहिये. अगर बालिग लोग अपनी मर्जी से, अपनी प्राईवेसी में कुछ भी करते हैं तो यह उनका आपसी मामला है.

मुझे अरुँधति राय का लिखना बहुत अच्छा लगता है. हाँलाकि उनकी हर बात से मैं सहमत नहीं पर यह तो मानना ही पड़ेगा कि उनके लिखने का अन्दाज़, शब्दों और उपमाओं का चुनाव, हर बात के पीछे शौध से खोज कर निकाली हुई बातें, सभी उनके लेखों को पढ़ने योग्य बनाती हैं. कुछ वर्ष पहले मेरी उनसे मुलाकात दिल्ली के हवाई अड्डे पर हुई थी. दो मिनट बात की, नर्मदा के बारे में उनके लेखों की प्रशंसा की, अपना परिचय दिया और एक फोटो खींचा.

उस समय तो विचार ही नहीं किया पर बाद में सोचा कि उनके साथ उनके पति भी तो थे, जिनकी तरफ न मैंने देखा और उन्हें न ही नमस्ते की. उन्होंने भी सोचा होगा कि मुझे शिष्टता के नियम नहीं आते या फिर प्रसिद्ध पत्नी के प्रशंसकों के ऐसे ही व्यवहार के आदी हो गये हों.

समाज और परिवार हम पुरुषों को इस तरह पला बड़ा करते हैं जिसमें पत्नी को पति से कुछ कम ही होना चाहिये या फिर बहुत हो तो बराबरी हो. जब पत्नी पति से अधिक हो जाती है तो इसे स्वीकार करना आसान नहीं और मेरे विचार में इसके लिए पुरुष में गहरा आत्मविश्वास और आत्मसम्मान चाहिए. अगर पुरुष में पूरा आत्मविश्वास न हो तो अपने से प्रसिद्ध पत्नी के साथ नहीं निभा पाता. अरुंधति राय जितनी भी प्रसिद्ध हों, कम से कम सड़क पर लोग तो उनके पीछे न ही दौड़ेंगे और उनकी प्रसिद्धी एक छोटे से पढ़े लिखे वर्ग में ही सीमित रहेगी. उनके पति पर उतना दबाव नहीं होगा जितना किसी फिल्म अभिनेत्री के पति पर हो सकता है ?

मुझे कुछ साल पहले मेधा पटकर से भी मिलने का मौका मिला था जब वह रोम में हमारी एक सभा में आयीं थीं. मेधा जी के बोलने में आग और तूफान है. सोच सकता हूँ कि जब वह जनता से बोलती होंगी तो बहुत प्रभावित करती होंगी.

जहाँ अरुंधति की पढ़ी लिखी शहरी सभ्यता की छवि है, मेधा जी में गाँव की मिट्टी की सुगंध है. जब कभी लोगों से उनकी तुलना या किसी एक को ऊँचा नीचा दिखाने की बातें सुनता हूँ तो हँसी आती है. कोई भी बड़ा जन संघर्ष हो, जैसा कि नर्मदा संघर्ष है, तो उसमें हजारों लोगों के साथ काम करने से ही आंदोलन चल सकता है. ऐसे संघर्ष को मेधा और अरुँधति जैसे सभी योगदानों की आवश्यकता है. बेमतलब तुलना और छोटा बड़ा सोचना, केवल हमें कमज़ोर करता है.

दिल्ली हवाई अड्डे पर अरुंधति राय

रोम में मेधा पटकर और अन्य मित्र

शनिवार, अगस्त 20, 2005

त्रुल्लीप्रदेश के त्रुल्लो

इटली के दक्षिण पूर्व में है पूलिया राज्य जहाँ की राजधानी है बारी. करीब ही ब्रिन्देसी का प्रसिद्ध बंदरगाह है. इसी राज्य में कुछ छोटे छोटे शहर हैं, एक वादी के आसपास, जिन्हें "तैर्रा देई त्रुल्ली" यानि के त्रुल्लीप्रदेश कहा जाता है. यह नाम यहाँ के पारमपरिक घरों की बजह से है क्योंकि इन घरों को त्रुल्लो कहते है (एक घर त्रुल्लो और अनेक हों तो त्रुल्ली).

यह घर वहाँ के आसपास पाये जाने वाले एक विषेश तूफो पत्थर से, जो कि लाइमस्टोन जैसा पत्थर है, बनाते हैं और इन घरों को बनाने की कला करीब दो हजार साल पुरानी है. पत्थरों को खूबी से काट कर ऐसे एक के साथ दूसरा रखा जाता है कि बिना रेता या सीमेंट के पूरा त्रुल्लो बस सिर्फ पत्थरों से ही बनता है. घरों का विशिष्ट आकार ऐसा है कि धूँआ और गर्मी दोनो से ही बचाता है.

पाओलो, मेरे मित्र और इस यात्रा में मेरे साथी, कहते हैं कि त्रुल्लों को बनाने की कला अब धीरे धीरे लुप्त हो रही है. किसके पास इतना समय है कि पत्थर काट कर धीरे धीरे अपने लिए यह घर बनाये. इसलिये इस्तरिया की वादी में लोग त्रुल्लियां तोड़ कर साधारण घर बना रहे हैं.

लेकिन इस कला को खोने से बचाने के लिए आ पहुँचे हैं बाहर के लोग, जो यहाँ पुराने त्रुल्लों को खरीद कर, उन्हें अन्दर से आधुनिक घरों की तरह सब सुविधाओं से भर देते हैं पर बाहर से घर का
कुछ पारमपरिक रुप बनाये रखते हैं, और इन घरों का छुट्टियों में इस्तमाल करते हैं.

आज की तस्वीरें में देखिये इस्तरिया वादी के आधुनिक त्रुल्लों को और मेरे मित्र पाओलो को.


शुक्रवार, अगस्त 19, 2005

बेतुके शीर्षक का रहस्य

कल सुबह हड़बड़ी में लिखा था चिट्ठा, इसलिए गड़बड़ हो गयी. चिट्ठे का शीर्षक लिखा "कैसे आऊँ पिया के नगर" पर उसमें बातें कम्प्यूटर, मोडम, सर्वर और कुत्तों की थीं, पिया के नगर का कोई नामोनिशान ही नहीं था. शायद ऐसा होने का कारण है कि कुछ सोच कर शीर्षक लिखता हूँ कि आज का चिट्ठा इस बारे में होगा, पर फिर जब लिखने लगता हूँ तो विचार कभी कभी किसी अन्य दिशा में चले जाते हैं. अगर हड़बड़ी न हो, तो अंत में कोई नया शीर्षक ढ़ूंढ़ा जाता है और चिट्ठा तैयार हो जाता है.

पर क्या सब बात केवल हड़बड़ी की थी ? अगर आप मनोविज्ञान जानते हैं तो समझ गये होंगे कि जल्दबाजी में की हुई गलती में मन की छुपी हुई बातें भी कई बार निकल कर आ सकती हैं. अगर इस दृष्टि से देखें तो इस शीर्षक से सपष्ट समझ में आता है कि शादीशुदा होने के वावजूद मेरी कहीं कोई छिपी हुई प्रेमिका है जिससे मैं मिलने को बेताब था. क्या खयाल है आप का ? या फिर इस शीर्षक में भक्त्ती भाव भी ढ़ूंढ़ा जा सकता है जैसे मन्नाडे जी के गीत "लागा चुनरी में दाग, छुपाऊँ कैसे" में था. यानी कि जिस "पिया" से मैं मिलने को बेचैन हूँ, वह इश्वर है. राम नाम सत्य!

कुछ वर्ष पहले मैंने एक कोर्स किया था कि कैसे हाथ कि लिखाई से लिखने वाले के व्यक्तित्व को समझें. यानी आप अगर कागज़ के दाहिने हाशिये की तरफ खाली जगह छोड़ देते हैं तो इसका अर्थ है कि आप को भविष्य से डर है और आप उसका सामना नहीं करना चाहते. अगर आप बायें हाशिये पर जगह छोड़ देते हैं तो आप अपने बीते हुए कल से भागने के चक्कर में हैं. अगर बिना लाइन के कागज पर आप सीधा एक लकीर में लिखते हैं तो, आप में भयंकर आत्मसंयम है, अगर शब्द ऊपर की ओर जा रहे हैं तो आप आशावादी हैं और अगर शब्द नीचे जा रहे हैं तो निराशावादी. इस कला के विशेषज्ञ तो केवल हाथ की लिखाई से पहचान लेते हैं कि आप असली खूनी हैं या नहीं. अगर आप सोचते हैं कि मैं यूँ ही लम्बी हाँक रहा हूँ तो पढ़िये इस बारे में. अमरीका में लिखाई विशेषज्ञ की गवाही कानून में भी स्वीकार की जाती है.

मेरे इस चिट्ठे से तो आप समझ ही गये होंगे कि मुझमें भयंकर आत्मसंयम है. तो इन कम्प्यूटर, एस एम एस, आदि की दुनिया में यह विशेषज्ञ शायद बेकार हो रहे होंगे ? नहीं, अब यह देखते हैं कि आप कौन सा फौंट इस्तेमाल करते हैं, छोटा फौंट पसंद करते हैं या बड़ा, इत्यादि. अगर आप यूनीफौंट में विश्वास रखते हैं तो आप प्रगतिवादी हैं ...

अगर आप के पास कोई नये विचार हों कि कैसे चिट्ठे से उसके लिखने वाले की बेवकूफी को मापा जाये तो मुझसे संपर्क करें. तब तक, आज की तस्वीरों से आप यह समझने की कोशिश कीजिये कि मैंने इन्हें क्यों चुना ?


गुरुवार, अगस्त 18, 2005

कैसे आऊँ पिया के नगर?

सोचा है कि अगर घर पर ही हूँ तो प्रतिदिन चिट्ठे में कुछ न कुछ तो अवश्य लिखने की कोशिश करनी चाहिये. इसलिए सुबह उठते ही पहला काम होता है कम्प्यूटर जी का बटन दबाना और कुछ देर तक सोचना कि क्या लिखा जाये. पर कभी कभी इसमें कुछ अड़चन भी आ सकती हैं, जैसे आज सुबह पाया कि मोडम जी को कुछ परेशानी थी और हमारे अंतरजाल के सर्वर जी उन्हें अपने से जुड़ने की अनुमति ही नहीं दे रहे थे.

शुरु शुरु में तो थोड़ी मायूसी हुई. फिर सोचा कि भाई आज अगर चिट्ठे से छुट्टी है तो कुछ और काम ही किया जाये. कई काम पिछले दिनों से रुके थे क्योंकि हमें चिट्ठा लिखने से ही फुरसत नहीं थी. कुछ देर काम किया फिर सोचा क्यों न काम पर जाने से पहले, कुत्ते को ही घुमा लाया जाये, इससे पत्नि जिसे कमर का दर्द हो रहा है, उसे कुछ आराम ही मिलेगा. अच्छा ही हुआ कि आज इसने हमें छुट्टी दे दी सोचते हुए हमने कहा बस एक बार और कोशिश कर के देख लेते हैं, शायद सर्वर जी का मिजाज़ अब ठीक हो गया हो. और यूँ ही हुआ.

बस हो गयी मुश्किल. क्या करें हम, आप ही कहिये ? अब हमें अपने कुत्ते के साथ सैर को जाना चाहिये या यहाँ बैठ कर चिट्ठा लिखना चाहिये ? दोनो काम तो हो नहीं सकते क्योंकि काम पर भी तो जाना है.

शाम को बेटे को डाँट रहा था. सारा दिन इस कम्प्यूटर के सामने. कुछ बाहर जाओ, छोड़ो इस मिथ्या दुनिया के मोह को, सच्ची दुनिया में जीना सीखो. बच्चों को उपदेश देना आसान है पर आप क्या सोचते हैं, क्या फैसला किया मैंने ?

आज की तस्वीर, कल रात को निकला चाँद.

बुधवार, अगस्त 17, 2005

दे दाता के नाम

इटली की सड़कों पर कुछ नये भिखारी आये हैं. पूर्वी यूरोप से आये इन भिखारियों के बारे में अखबार में निकला था कि इन्हें बसों द्वारा हर सप्ताह लाया जाता है और हर सप्ताह नये लोग आते हैं, भीख मांगने. काम पर जाते समय एक चौराहे पर आजकल एक जवान महिला दिखती हैं भीख मांगते हुए. करीब २५ या २६ वर्ष की उम्र होगी, सुनहरे बाल और सुंदर चेहरा. कल वे गुलाबी और सफेद धारियों वाली टी शर्ट और नीचे कसी हुई जीनस् पहने थीं. देख कर लगा कि अगर इन्हें दिल्ली के भिखारी देख लें तो कभी माने ही न कि यह भी भिखारी हैं.

आम तौर पर मैं पैशेवर भिखारियों को कुछ नहीं देना चाहता पर कैसे मालूम चले कि कौन पैशेवर है और कौन मुसीबत का मारा, जिसे सचमुच जरुरत है ? रेल के डिब्बे में अक्सर नवजवान युवक और युवतियां यह कह कर पैसे मांगते हैं कि उनका पर्स खो गया है और वह घर जाने का किराया इकट्ठा कर रहे हैं. डर लगता है कि शायद यह नशे के लिए पैसे जमा कर रहे हों. पर शायद कभी कभी उनमें कोई सचमुच ऐसा भी होगा जिसका पर्स खो गया हो ? कुछ वर्ष पहले, एक बार रेल में चढ़ने के बाद मैंने पाया कि जल्दी में अपना पर्स घर ही छोड़ आया था. उस दिन डर डर कर बिना टिकट ही यात्रा की और फिर जान पहचान के किसी से पैसे मांगे, घर वापस जाने के लिए. इसलिए लगता है कि अगर कोई बेझिझक, बिना शर्म के पैसे मांग रहा हो तो अवश्य ही पैशेवर भिखारी होगा.

कभी कभी पैशेवर भिखारियों पर भी दया आ जाती है. बोलोनिया रेलवे स्टेशन पर कुछ साल पहले तक एक वृद्ध इतालवी महिला दिखती थीं. उन्हें कई मैं रेलवे स्टेशन के रेस्टोरेंट में खाना खिलाने ले गया. उन पर दया इस लिए आती थी क्योंकि उन्हें देख कर मुझे अपनी दादी की याद आ जाती थी.

आप ने अगर नोबल पुरस्कार विजेता मिस्र के लेखक नगीब महफूज़ की किताब "मिदाक गली" पढ़ी हो तो भिखारियों को देखने का तरीका ही बदल जाता है. इस किताब में उन्होंने पैशेवर भिखारियों की दुनिया का बहुत अच्छा विवरण दिया है.

कभी कभी लगता है कि भीख मांगना भी एक काम है, अन्य कामों के सहारे. समृद्ध यूरोपीय जीवन में, वयस्त जीवनों में कभी कभी बहुत सूनापन सा लगता है. अनीता देसाई ने अपनी पुस्तक "फास्टिंग, फीस्टिंग" में उपभोक्तावादी जीवन के सूनेपन को बखूबी दिखाया है. इस सूनेपन में किसी भिखारी को पैसे दे कर लगता है कि हाँ हम भी अभी मानव है, दूसरों का दर्द महसूस कर सकते हैं.

आज की तस्वीर में मुम्बई में काम करने वाली डा. उषा नायर की (बीच में हरे कुर्ते में). यह तस्वीर चीता कैम्प स्लम से है. उनके दाहिने ओर हैं उनकी दो साथी, बीबीजान और वहां के पुजारी की बेटी, वसंती. यह तस्वीर मैंने इस लिए चुनी क्योंकि, गरीबी केवल भीख नहीं, विकास की इच्छा भी हो सकती है जिसमें बिना हिंदु मुसलमान के भेद के, हम साथ काम भी कर सकते हैं.

मंगलवार, अगस्त 16, 2005

पतझड़ के बसंती रंग

कल की बारिश से थोड़ी सर्दी आ गयी है. सुबह खिड़की से बाहर देखा तो सामने मेपल के पेड़ के पीले होते पत्ते दिखायी दिये. मन कुछ उदास हो गया. शामें भी छोटी होने लगीं हैं. जून में रात दस बजे तक सूरज की रोशनी रहती थी पर अब तो ८ बजते बजते अँधेरा सा होने लगता है. कुछ ही दिनों में, पेड़ों के सारे पत्ते पीले या लाल हो कर झड़ जायेंगे.

पतझड़ के रंग बसंत के रंगों से कम नहीं होते. घर के नीचे एक बाग है जहाँ होर्स चेस्टनट, मेपल, पलेन, इत्यादि के पेड़ हैं, सभी रंग बदल कर लाल पीले पत्तों से ढ़क जाते हैं, जिन्हें हवा के झोंके गिरा देते हैं. जमीन पर गिरे इन पीले या भुरे पत्तों पर चलना मुझे बहुत अच्छा लगता है. पतझड़ के इन रंगों से दिल्ली के बसंत की याद आती है जब सड़क के दोनों ओर लगे अमलतास और गुलमोहर खिलते हैं और लगता है कि पेड़ों में आग लगी है.

रंग बदलने में मेपल के पेड़ जैसा शायद कोई अन्य पेड़ नहीं. इन पेड़ों से ढ़की बोलोनिया के आस पास की पहाड़ियाँ बहुत मनोरम लगती हैं. अमरीका और कनाडा में मेपल के पेड़ के रस के साथ पेनकेक खाने का चलन है. कुछ कड़वा सा, कुछ शहद जैसा, यह रस मुझे अच्छा नहीं लगता पर बहुत से लोग इसे पसंद करते हैं. इटली के मेपल उन अमरीकी मेपल से भिन्न हैं, और इनमें से कोई रस नहीं निकलता.

मेपल को हिंदी में क्या कहते हैं ? लिखते लिखते ही शब्दकोश में देखने गया तो पाया कि इसे हिंदी में द्विफ़ल कहते हैं. शायद इसके बीजों की बजह से ? छोटा सा हवाई ज़हाज लगते हैं इसके बीज. बीच में दो उभरे हुए इमली के बीज जैसी गाँठें और उनसे जुड़े दो पँख.

आज की तस्वीरें हैं समुद्री चीड़ों की, जिनके पत्ते पतझड़ में भी यूँ ही हरे रहते हैं.

सोमवार, अगस्त 15, 2005

पहेलीः लोक कथा और सामाजिक सच्चाईयां

अगर आप समाज की किसी बात से सहमत नहीं हैं तो आप बात लोक कथाओं या लोक गीतों से कह सकते हैं. ऐसा ही कुछ अभिप्राय था मानुषी की संपादक मधु किश्वर का जिन्होंने अपने एक लेख में, गाँव की औरतों का अपने जीवन की विषमताओं का वर्णन और विरोध रामायण से जुड़े गीतों के माध्यम से करने, के बारे में लिखा था. अमोल पालेकर की निर्देशित "पहेली" देखी तो यही बात याद आ गयी.

क्योंकि "पहेली" भूत की बात करती है, एक लोक कथा के माध्यम से, इसलिए शायद अपने समाज के बारें कड़वे सच भी आसानी से कह जाती है और संस्कृति के तथाकथित रक्षकों को पत्थर या तलवारें उठा कर खड़े होने का मौका नहीं मिलता. फिल्म की नायिका, पति के जाने के बाद स्वेच्छा से परपुरुष को स्वीकार करती है और जब पति वापस आता है तो वह उसे कहती है कि वह परपुरुष को ही चाहती है. फिल्म की कहानी ऐसे बनी है कि पिता का आज्ञाकारी पुत्र ही खलनायक सा दिखायी देता है. यही कमाल है इस फिल्म का कि लोगों की सुहानभूती विवाहित नायिका और उसके प्रेमी की साथ बनती है, पति के साथ नहीं. सुंदर रंगों और मोहक संगीत से फिल्म देखने में बहुत अच्छी लगती है.

इस कहानी में अगर भूत की जगह हाड़ माँस का आदमी होता तो कहानी कुछ और ही हो जाती.

कल शाम को दुबाई से प्रसारित हम रेडियो सुनने लगा तो नुसरत फतह अली खान का गाया गीत "पाकिस्तान पाकिस्तान" सुन कर अच्छा नहीं लगा. कल उनका स्वतंत्रता दिवस था. ऐसा क्यों होता है कि जब रहमान जी "माँ तुझे सलाम" गायें तो अच्छा लगे और दूसरे "पाकिस्तान पाकिस्तान" गायें तो बुरा लगे ?

आज १५ अगस्त के अवसर पर, दो तस्वीरें फ़ूलों कीः


रविवार, अगस्त 14, 2005

छुट्टियों की थकान

छुट्टियों में मज़े उड़ाना कितना थका देता है. अभी तो इन तीन दिनों की छुट्टियों का केवल एक ही दिन बीता है पर अभी से थकान हो रही है. कल सारा दिन रिमिनी में बिताया. रिमिनी बोलोनिया के पूर्व में करीब १०० किलोमीटर पर स्थित है.

अगर आप इटली का नक्शा देखें तो सारा देश ही समुद्र तट से जुड़ा लगता है, पर पश्चिम समुद्र तट अधिक पथरीला है और रेत वाले बीच कहीं कहीं पर हैं. लेकिन, पूर्वी समुद्र तट, उत्तर में वेनिस से दक्षिण में बारी तक करीब एक हज़ार किलोमीटर तक रेत वाला बीच है, जहाँ समुद्र की लहरें अधिकतर शांत ही रहती हैं. इसलिए पूर्वी समुद्र तट छोटे छोटे शहरों से भरा है जहां गरमियों से पूरे उत्तरी यूरोप से पर्यटक छुट्टियां मनाने आते हैं.

रिमिनी को इन सब शहरों की रानी कहते हैं. महीन सफेद रेत वाले समुद्र तट के अतिरिक्त यहां छुट्टियों में मज़े करने के सभी साधन उपलब्ध हैं. सारी रात खुले रहने वाले डिस्को, सिनेमा, दुकाने, जलपार्क, थीमपार्क, डोलफिनारियम, और जाने क्या क्या. पूरा शहर एक मेला सा लगता है.

अगर आप कुछ और नहीं करना चाहते बस समुद्र तट पर ही आराम करना चाहते हैं, तो उसमें भी बहुत कुछ हैं करने और देखने के लिए. जगह जगह सुंदर लड़कियां आप को नाच सिखाने के लिए, संगीत की धुन पर कसरत करने को या खेलने के लिए प्रेरित करने के लिए नगरपालिका की तरफ से रखी गयीं हैं. पर शायद आप इस तरह समय बरबाद करने में विश्वास नहीं करते, बस आराम से आस पास देखना चाहते हैं ? हम समझ गये आप की बात. पिछले कुछ सालों से यहां समुद्र तट पर टोपलैस होने का फैशन है, इसलिए आस पास देखने का भी अपना आनन्द हैं. लगता है जैसे आप विश्वामित्र हों और मेनकांए आप की तपस्या को भंग करने की कोशिश कर हीं हों.

प्रस्तुत हैं दो तस्वीरें कल की रिमिनी यात्रा से.


शनिवार, अगस्त 13, 2005

कोई वहाँ है, ऊपर

कल दोपहर को काम से छुट्टी ले कर जल्दी घर आ गया, क्योंकि अपने डेंटिस्ट से बात करना चाहता था. उसके क्लीनिक कई जगह हैं, जिनमें से एक घर के पास ही है, पर मुझे कभी याद नहीं रहता कि किस दिन कितने बजे हमारे घर के पास वाले क्लीनिक में रहता है. उसके कार्ड पर देखा, "शुक्रवार को शाम को ५ से ७ बजे", तो पौंने पाँच बजे घर से निकला. क्लीनिक पहुँचा तो मालूम चला कि मैंने कार्ड देखने में गलती कर थी, शुक्रवार को हमारे वाले क्लीनिक में वह शाम को साढ़े चार बजे तक ही रहता है. अब तीन दिन की छुट्टी है (१५ अगस्त इटली में राष्ट्रीय छुट्टी होती है), तो मंगलवार तक उससे मिलने के लिए इंतजार करना पड़ेगा. खुद को कोसा, की कार्ड को ठीक से क्यों नहीं देखा और मायूस हो कर घर लौटा.

सोचा अब घर जल्दी आ ही गया हूँ तो पुस्ताकालय की किताबें ही लौटा आँऊ. किताबें उठायीं और बस स्टाप पर आ खड़ा हुआ. जहाँ पुस्तकालय है वह जगह सिर्फ पैदल चलने वालों के लिए है और वहाँ कार से जाना संभव नहीं है. जाने क्या सोच रहा था, गलत बस में चढ़ गया जो बहुत लम्बा चक्कर लगाती है. खुद को और कोसा, और करता भी क्या. इन गरमियों की छुट्टियों की वजह से बसें भी कम ही हैं, और उस बस से उतर कर वापस बस स्टाप पर आने की कोशिश करता तो और भी समय बरबाद होता.

एक घंटा बस में बिता कर पुस्तकालय पहुँचा तो पाया कि पुस्तकालय बंद है और २५ अगस्त को खुलेगा. समझ में आ गया कि आज मेरा दिन नहीं है, वापस घर ही जाना चाहिये! और बस स्टाप पर इंतजार कर के आखिरकार बस आयी. घर के पास ही थे, जब बारिश शुरु हो गयी. जब घर से चला था, सूरज चमक रहा था, इसलिए छतरी साथ लेने का विचार ही नहीं आया था. घर का बस स्टाप आया तो लगा बारिश और भी तेज हो गयी है. बस स्टाप से घर तक के पाँच मिनट के रास्ते में पूरी तरह से भीग गया. सिर उठा कर ऊपर आसमान की ओर देखा. आसमान में, दायें और बायें तरफ साफ नीला आसमान था सिर्फ बीच में थे कुछ काले बादल, वही बरस रहे थे.

घर में कपड़े बदल रहा था तो धूप फिर से निकल आयी थी. सोचा कि लोग कैसे कहते हैं कि भगवान नहीं है. मुझे तो लगा कि है, वहाँ ऊपर कहीं कोई है जो मेरा उल्लु बना कर जोर जोर से हँस रहा था.

आज की तस्वीरे मैसूर के पास के शहर मँडया से हैं.

शुक्रवार, अगस्त 12, 2005

तुम मुझे खून दो...

कल रात को श्याम बेनेगल के नयी फिल्म जो उन्होंने सुभाष चंद्र बोस पर बनायी है, देखी. श्याम बेनेगल का मैं अंकुर, जुनून के दिनों से प्रशंसक रहा हूँ हालाँकि पिछले कुछ वर्षों में उनकी बनायी कोई फिल्म नहीं देखी सिवाय जुबैदा के. नेता जी पर बनी यह फिल्म बहुत दिलचस्प लगी और यह भी लगा कि शायद भारत ने सुभाष बाबू के अनौखे व्यक्तित्व पर ठीक से विचरण नहीं किया और न ही उसे समाजशास्त्रियों और राजनीतिकशास्त्रों से भारत के इतिहास में सही स्थान मिला.

एक व्यक्ति का राजनितिक नेता से लड़ाई का जनरल बन जाना आम बात नहीं है. लड़ाई के समय में नेताओं को अपना मानसिक संतुलन बनाये रखना होता है, पर बिना जनरलों और कर्नलों के नेता यह लड़ाई अपने आप नहीं संचालित कर सकते. चर्चिल, हिटलर इत्यादि रणनीति जानने वाले जनरलों के सहारे से लड़ाईयां लड़ते थे, स्वयं रणनीति नहीं बनाते थे, पर सुभाष बाबू राजनीति के साथ साथ खुद ही रणक्षेत्र में रणनीति भी बना रहे थे. फिर भी उनके सिपाही साथी फिल्म में उन्हें कमांडर साहब या जनरल नहीं बुलाते, नेता जी ही बुलाते हैं, क्यों ? क्योंकि शायद वे उन्हें लड़ाई का कमाडंर नहीं राजनीतिज्ञ रुप में ही देखते थे ?

फिल्म में उनका काबुल निवास और बरलिन निवास लम्बे तौर से दिखाया गया है. और बरलिन में उनका एमिली शैंकर से सम्बंध और बच्चे (अनीता बोस) का होना भी लम्बे तौर से दिखाया गया है जो मुझे अच्छा लगा क्योंकि इससे उनकी साधारण मानवता स्पष्ट होती है, कि उनमें मन में देश प्रेम के साथ साथ सामान्य मानव भावनांए भी थीं.

जब आज़ाद हिंद फौज द्वारा भारत के उत्तरी भाग से आक्रमण होने की तैयारी हो रही होती है तो वह कहते हैं कि उन्हें ७०,००० सिपाहियों की फौज चाहिये और उनका विचार था कि जब उनके सैनिक भारत में घुसेंगे तो अंग्रेज सैना के भारतीय सिपाही बगावत कर के उनके साथ हो जायेंगे. पर जब उनकी सैना ने आक्रमण प्राम्भ किया तो वे केवल ८,००० ही थे पर भारतीय सिपाहियों ने बगावत नहीं की और न ही अंग्रेजी फौज छोड़ कर वे आजाद हिंद फौज के साथी बने. आदेश मानने वाले अंग्रेजों के वफादार भारतीय सिपाही अपने देश की आजादी चाहने वाले अपने भाईयों से कैसे लड़ते रहे, इस बारे में मेरे मन में बहुत से प्रश्न हैं जिनका कोई उत्तर नहीं मिला.

जापान पर एटम बम्ब गिरने के साथ ही नेता जी का भारत को लड़ाई से स्वतंत्र कराने का सपना अधूरा ही रह गया इसलिए भी क्योंकि उन्होंने इस लड़ाई में अपने साथी देश वो चुने थे (इटली, जरमनी और जापान) जिन्हें द्वितीय महायुद्ध में हार मिली थी. लेकिन उनका सपना इसलिए भी अधूरा रह गया क्योंकि भारतीय सिपाहियों ने स्वतंत्रा से पहले अपनी रोजीरोटी का सोचा था. क्या कारण थे इसके ? भारत की स्वतंत्रा के बाद, जहाँ तक मुझे मालूम है वही अंग्रेजों के साथ काम करने वाली सैना, स्वतंत्र भारत की सैना बन गयी. कितने कैपटेन, सारजैंट होंगे जिन्होंने आजाद हिंद फौज के सिपाहियों पर गोली चलायी होगी, जिन्हें आजादी के बाद अपने आचरण पर कोई उत्तर नहीं देना पड़ा और शायद जिन्होंने स्वतंत्र भारत में तरक्की पायी.

बात केवल आजाद हिंद फौज की नहीं. क्या भारतीय सेना ने कभी उन सिपाहियों की जांच की जिन्होंने जलियावाला बाग में डायर के आदेश को मान कर अपने देश की औरतों, बच्चों पर गोली चलायी थी ? शायद हम लोग बहुत प्रक्टिकल हैं, सोचते हें जिस बात से कोई फायदा नहीं होना हो उसके बारे में क्या सोंचे, जो होना था तो वो तो हो ही गया है, चलो अब आगे की सोचें ? या फिर गलती सिर्फ गलत आदेश देने वाले अंग्रेजों की थी, गलत आदेश मानने वालों की नहीं ? क्या कहते हैं आप ?


फिल्म से यह भी पता चला कि काबुल से जरमनी जाने के लिए जब कोई रास्ता नहीं बन रहा था और नेताजी करीब एक साल तक वहां कोई रास्ता ढ़ूंढ़ रहे थे, तब इटली ने उन्हें एक झूठा इतालवी पासपोर्ट दिया था, काऊंट ओरलांदो मात्जेता के नाम से. जरमनी में भी, नेता जी इसी नाम से इतालवी नागरिक बन कर रहते थे. चाहे यह मुसोलीनी की फासिस्ट सरकार ने अपने ही फायदे के लिए किया हो पर यह जान कर मुझे प्रसन्नता हुई कि जिस देश में रह रहा हूँ उसने कभी नेता जी की सहायता की थी.

आज की तस्वीरें फिर से पिछले जून में हुए बोलोनिया के "पेर तोत" जलूस से हैं.

गुरुवार, अगस्त 11, 2005

रात के अनौखे यात्री

कुछ वर्ष पहले तक हम लोग बोलोनिया से करीब ४० किलोमीटर दूर, इमोला शहर में रहते थे जो अपने ग्रांड प्री फोरमूला १ की कार रेस के लिए प्रसिद्ध है. तभी, कई बार देर रात को इमोला से बोलोनिया जाने वाली रेलगाड़ी में अनौखे यात्रियों को देखने का मौका मिलता था. वे अनौखे यात्री थे वेश्याएँ, औरतें भी और पुरुष भी.

अधिकतर वेश्याएँ अफ्रीका और पूर्वी यूरोप से आयीं जवान लड़कियाँ होती हैं. उनमें से कुछ तो बहुत कम उम्र की लगती हैं, बालिग नहीं लगती. जब रेल पर चढ़तीं तो आम लड़कियों की तरह ही लगतीं, आपस में हँसी मज़ाक से बातें करती हुईं. फ़िर रेल पर चढ़ते ही सभी काम के लिए तैयार होने लग जाती थीं. डिब्बे के बाथरुम की ओर भागतीं. कुछ तो वहीं डिब्बे में ही कपड़े बदलने लगतीं. साधारण रोजमर्रा के कपड़े उतार, छोटी चमकीली पौशाकें, जिनको पहनने से उनके वक्ष और जांघों के बारे में किसी कल्पना की आवश्यकता न रहे. फिर मेकअप की बारी आती. छोटे छोटे शीशों में झांक कर भड़कीली लिपस्टिक और आँखों के ऊपर लगाने के लिए नीले और लाल रंग. २० मिनट में जब रेल बोलोनिया पहुँचती, वे सभी तैयार हो चुकी होतीं थीं. लगता उनका सारा व्यक्त्तिव ही बदल गया हो. हँसी मजाक के बदले में उनके चेहरे पर गम्भीरता आ जाती.

पुरुष वैश्याओं में अगर पुरुष बन कर काम करने वाले युवक होते थे, तो मुझे मालूम नहीं क्योंकि शायद उन्हें इस तरह तैयार नहीं होना पड़ता. पर स्त्रिरुप धारण करने वाले पुरुष उन लड़कियों से किसी बात में कम नहीं थे. वह रेल में पहले से ही तैयार हो कर आते. शायद उन्हें घर से निकलते समय, अड़ोसी पड़ोसियों के कहने सुनने का कुछ भय नहीं होता ? उनके कपड़े और भी भड़लीले, मेकअप और भी चमकीला और रंगबिरंगा होता. आपस में इतनी जोर जोर से बातें करते और हँसते. देख कर लगता मानों शीशे के बने हों, जोर से कोई चोट लगे तो टूट कर बिखर जायेंगे. लगता वह शोर उनकी अपनी उदासी छुपाने का तरीका था. ऐसा बच्चा बन कर, पुरुष शरीर में स्त्री मन वाला बच्चा बन कर, बड़े होना कितना कठिन होता होगा, लोगों के खासकर अपने साथियों के मज़ाक और व्यंग के बीच, अपने घर वालों की शर्म और ग्लानी के बीच.

अपने आस पास के वातावरण से भिन्न होना कभी आसान नहीं होता. अगर कोई अंत में उनकी तरह इतना भिन्न हो जाता है कि लोग उसे समाज के हाशिये पर जगह देते हैं तो शायद उसके पास भिन्न होने के सिवा कोई अन्य चारा नहीं होता ? भारत में हिजँड़ों का भी तो यही हाल होता है.

यह सब बातें मैं मन में ही सोचता. कभी किसी अनौखे यात्री से कुछ बात करने का साहस ही नहीं जुटा पाया.

आज कि तस्वीरें जितेंद्र के भारत यात्रा ब्लोग से प्रेरित हैं, मसूरी की १९८७ में की एक यात्रा से.

बुधवार, अगस्त 10, 2005

एक और कहानी

पत्नि और बेटा छुट्टियों के लिए एक सप्ताह के लिए बाहर गये हैं. शाम को, काम से लौट कर घर में अकेला होने से, एक फायदा यह हुआ है कि लिखने के लिए समय अधिक मिल रहा है. न कुत्ते को घुमाने ले जाने का काम, न किसी से बात करने की सम्भावना. इसीलिए कल शाम को अपनी दूसरी कहानी पूरी कर डाली.

यह सब हिंदी चिट्ठे के कारण ही हुआ है जिसने मेरे लिए भूलती हुई हि्दी के और सृजन के, द्वार खोल दिये. पहले जुलाई में लिखी "अनलिखे पत्र". इससे पहले अंतिम हि्दी की कहानी लिखी थी सन् १९८३ में, जो धर्मयुग नाम की पत्रिका में "जूलिया" नाम से छपी थी. तब इटली में आये बहुत समय नहीं हुआ था. इन वर्षों में सब कुछ बदल गया. धर्मयुग को बंद हुए भी बरसों हो गये.

"क्षमा" नाम है नयी कहानी का और आज उसी का एक छोटा सा अंश प्रस्तुत हैः

"...वह आगे बढ़ ही रहीं थीं, जब नयी आयी लेडी डाक्टर उनकी तरफ मुड़ी. वसुंधरा को देख कर एक क्षण में ही उसके चेहरे का रंग उतर गया, और वसुंधरा भी पत्थर की तरह खड़ी रह गयी. इतने वर्षों के बाद मिलने के बाद भी दोनों ने एक दूसरे को तुरंत पहचान लिया था. इस तरह अचानक इतने सालों के बाद ऐसे मिलना होगा मिरियम से, यह तो कभी नहीं सोचा था.

पहले मिरियम ने ही स्वयं पर काबू किया. गंभीर मुख से बिना कुछ कहे, मुड़ कर मेज पर रखे कागज उठा कर उन्हें पढ़ने लगी, मानो उन्हें जानती ही न हो. "प्लीज सिट डाऊन मिसिज वडावन", नर्स फिर बोली तो वह चुप चाप कुर्सी पर बैठ गयीं. मिरियम यहाँ है, इस अस्पताल में! अब क्या होगा ? अगर मधुकर ने उसे देख लिया तो क्या होगा ? उनके मन में तूफान सा उठ आया था. सिर घूम गया. लगा चक्कर खा कर गिर जायेंगी.

"डाक्टर थोमस हमारी एन्स्थटिस्ट हैं, अंतिम निर्णय इनका ही है कि हम आप का आप्रेशन कर सकते हैं या नहीं !" एक डाक्टर ने हँस कर मिरियम की तरफ इशारा कर के कहा, पर वसुंधरा कुछ सुन समझ नहीं पा रही थी. बार बार एक ही विचार आता मन में, मिरियम यहाँ है, अगर मधु ने देख लिया तो अनर्थ हो जायेगा.

मिरियम ने उनकी तरफ एक बार भी नहीं देखा. कुछ देर बाकी डाक्टरों से बात कर बोली कि दाखिल होने के बाद वार्ड में जा कर देखेगी क्योंकि अभी उसे एक जरुरी काम था, और फिर चली गयी. जाते जाते भी उनकी तरफ नज़र उठा कर नहीं देखा..."

अगर कहानी को पूरा पढ़ना चाहें तो इसे कल्पना पर मेरे पृष्ठ पर पढ़ सकते हैं.

आज की तस्वीरें हैं दक्षिण अफ्रीका के केप टाऊन के टेबल माऊंटेन यानि मेज़ पहाड़ की. दूर से देखो तो सचमुच मेज़ जैसा ही लगता है हालाँकि अधिकतर इसकी सतह बादलों से ढ़की रहती है और स्पष्ट दिखायी नहीं देती.

मंगलवार, अगस्त 09, 2005

उकियो-ए का तैरता संसार

उकियो-ए यानि वैश्याओं, अभिनेताओं, कलाकारों, नटों, आदि का संसार जिसे सोलहवीं शताब्दी के एडो (आज का टोकियो) से शहर निकाला मिला था और वह लोग शहर के किनारे नदी पर नावों में रहने को मजबूर थे. कहते थे कि वे लोग शहर में गंदगी फैला रहे थे और जिनकी बजह से शहर में कानून और व्यवस्था बनाये रखने में कठिनाई हो रही थी. जापानी बादशाह का तो सिर्फ नाम था जबकि असली ताकत थी शोगुनों की जो अपने समुराईयों की तलवारों की शक्ती से राज करते थे. जापान के मध्यम युग के इस इतिहास के लिए मेरे मन में बहुत आकर्षण है. उकियो-ए में ही विकास हुआ गैइशा जीवन और काबुकी नाटक कला का. उकियो-ए कला इसी जीवन का चित्रण करती है. अगर आप उकियो-ए कला और जीवन के बारे में जानना चाहते हैं तो अमराकी संसद के पुस्तकालय के अंतरजाल पृष्ठ पर लगी एक प्रदर्शनी अवश्य देखिये, यहाँ क्लिक करके.

बचपन में बुआ के यहाँ एक विवाह में मेरी मुलाकात हुई थी एक जापानी छात्र श्री तोशियो तनाका से, जो भारत में हिंदी सीखने आये थे. बुआ दिल्ली विश्व विद्यालय में हिंदी की प्रोफेसर थीं. चालिस वर्ष पहले हुई उस मुलाकात की बहुत सी बातें मुझे आज भी याद हैं और शायद वहीं से प्रारम्भ हुआ था मेरा जापान के लिए आकर्षण. तोशियो ने बताया था सूशी के बारे में, चावल और कच्ची मछली का बना. कच्ची मछली ? सोचने से ही, मितली सी आने लगी थी. आज भी जब कभी सूशी खाने का मौका मिलता है, तो वह बात याद आ जाती है.

कुछ वर्षों के बाद पिता के एक जापानी बौद्ध भिक्षुक मित्र से मिलना हुआ. बौद्धगया में रहते थे वो और जब भी दिल्ली में घर पर आते, जापान के बारे में मेरे कौतुहल को जान कर, मुझे जापान के बारे में बताते.

देश विदेश बहुत घूमा पर कभी जापान जाने का मौका नहीं मिला. फ़िर दो वर्ष पहले जापान से एक निमंत्रण मिला भी तो मैंने बहाना बना कर मना कर दिया. मुझे प्रिय है मध्यम युग का जापान, लगा कि गगनचुंबी भवनों के आज के जापान को देख कर कहीं यह सपना न टूट जाये. कुछ बातों के लिए कल्पना में ही रहना अच्छा है.

आज प्रस्तुत है उकियो-ए की कला का एक नमूना.

सोमवार, अगस्त 08, 2005

गिरते तारों की रात

कई दिनों से अखबारें और टेलीविजन याद दिला रहे थे कि 6 और 7 अगस्त को रात को आसमान पर गिरते तारों को देखना न भूलिये. पर दोनों ही दिन, रात को बादलों ने आसमान को ढ़क दिया था, तो तारे क्या देखते!

आप को "कुछ कुछ होता है" का वह दृश्य याद है जिसमें शाहरुख और काजोल गिरते तारों को देख कर पूछते हैं कि तुमने क्या मांगा ?

क्या आप ने कभी गिरते तारों को देखा है ?

सच पूछिये तो मैंने पहले कभी गिरते तारों को नहीं देखा था. कभी देखा भी हो तो ख़ास ध्यान नहीं दिया था. पर पिछले साल इन्हीं दिनों में एक शाम अपने दो मित्रों को घर पर खाने पर बुलाया था, ज्योवानी जो मेरे साथ काम करता है और उसकी साथी, मारिया लूसिया, जो बाज़ील की हैं. पत्नी और बेटा छुट्टियों में बाहर गये थे और मैं घर में अकेला था. खाना खा कर गप्प मार रहे थे कि मारिया लूसिया ने कहा कि चलो गिरते तारों को देखें. मैं भी उनके साथ बाहर बालकनी पर गया हालाँकि मन में सोच रहा था कि क्या तारे दिखेंगे.

"वो देखो, एक वहाँ...वो देखो एक वहाँ.." दो, तीन बार सुना तो मैंने भी आसमान को ध्यान से देखना शुरु किया. तब देखा अपना पहला गिरता सितारा, फिर एक और, एक और.. पहली बार महसूस हुआ कि गिरते तारों को देखने में एक जादू सा है. इसीलिए इस बार जब गिरते तारों के बारे में सुना था तो सोचा था कि इस बार उन्हें जरुर देखूँगा.

तारों की बात से याद आती है श्रीरुप की, जो दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में मेरे साथ काम करता था. रात की ड्यूटी पर कभी बाहर निकलते तो आसमान में तारों को देख कर उनके नाम बताता. "वो वाले तीन तारे जो एक लाईन में हैं, वे ओरियोन की पेटी है, उनमें से एक तारा बूढ़ा है मर रहा है, बीच वाला नया तारा है, बादल जैसा, अभी पूरा बना नहीं है और वह दूसरे कोने वाला लाल सितारा ...". तब लगता कि तारे सिर्फ तारे नहीं, जीवन दर्शन की किताब हों.

अब रात को कभी बाग में घूमते समय कभी ओरियोन की पेटी पर नजर पड़ती है तो श्रीरुप और अन्य बिछुड़े साथियों की याद आ जाती है. कुछ वो जो अब नहीं रहे और कुछ वो जिन्हें जीवन न जाने कहाँ ले गया.

जलन होती है उन लोगों से जो जहाँ पैदा होते हैं, वहीं बड़े होते है, वहीं रहते हैं, जाने पहचाने लोगों और मित्रों के बीच. जिनका कभी कोई नहीं खोता.

***
बिछुड़े हुए लोगों की बात निकली है इसलिए आज की तस्वीरें हैं मिस्र (इजिप्ट) की एक यात्रा से, कैरो शहर की. इस यात्रा में मेरे साथ था मेरा इतालवी मित्र फ्रांको, जो अब इस दुनिया में नहीं है.

रविवार, अगस्त 07, 2005

बच्चों की रोटीः एक सुबह बोलोनिया में

मोनतान्योला की पहाड़ी टूटे घरों, दीवारों आदि से बनी है. बहुत सा मलबा बोलोनिया की प्राचीन दीवार के तोड़ने से आया था. ऊपर जाने की सीड़ियाँ श्री पिनचियो ने बनायी थीं और पहाड़ी के ऊपर बना एक बाग. नये बाग और भव्य सीड़ियों का उदघाटन करने, सन् १९३८ में इटली के राजा विक्टोरियो ऐमनूएले और तत्कालीन प्रधानमंत्री मुसोलीनी. प्रधानमंत्री की खुली कार पर चलायी गोली एक १४ वर्षीय बालक ने, सड़क के किनारे एक घर की खिड़की से पर मुसोलीनी जी बच गये और बालक को लगी फाँसी शहर के मुख्य चौबारे में, नैपच्यून की मूर्ती के सामने. मुसोलीनी की मौत को अभी ५ साल बाकी थे, उन्हें तो द्वितीय महायुद्ध के बाद इटली के फाशिस्ट शासन से लड़ने वाले स्वतंत्रता सैनानियों के हाथों मरना था.

८ अगस्त चौबारा यानि स्क्वायर ठीक मोनतान्योला के पीछे है और यहाँ पिछले तीन सौ सालों से एक बाजार लगता है. आजकल इस बाजार का दिन है शनिवार. सुबह सुबह दूर दूर से बेचने और खरीदने वाले यहाँ आ जाते हैं. बाजार का अर्थ है शोर, संगीत, विभिन्न रंग और भीड़. करीब दो साल के बाद यहाँ आया हूँ, पर इन दो सालों में इस बाजार में बहुत बदलाव आ गया है. हर तरफ भारतीय, चीनी, पाकिस्तानी, बंगलादेशी लोगों का बोलबाला है. बिकती हुई चीज़े भी बदल गयीं हैं, कहीं अफ्रीकी बाटिक और ढ़ोल, कहीं भारतीय कपड़े, कहीं तुर्की की बनियाने, कहीं चीन से स्वेटर, खिलौने और जूते. एक जगह से, जहाँ कुछ पाकिस्तानी दुकाने थीं, "चुरा के दिल मेरा, गोरिया चली" के संगीत की आवाज़ आ रही थी और उनके करीब ही बंगलादेशी दुकान बंगाली संगीत सुनवा रहे थे. एक पल के लिए लगा मानो दिल्ली के करोलबाग में हूँ.

दुकानों के बीच अचानक एक बोर्ड दिखा जिस पर एक बच्चे की तस्वीर है, हाथ में लम्बी स्थानीय रोटी और नीचे लिखा है "हमारे काम करने वालों की रोटी न छीनिये, कृपया इतालवी चीज़े ही खरीदये". कैसे बचायेंगे ये लोग अपनी रोटी ? जहाँ इतालवी स्टाल पर जो चीज़ ६ या ८ यूरो की मिलती है, पाकिस्तानी, चीनी और भारतीय उसे १ या २ यूरो में बेचते हैं. सवाल केवल रोटी का नहीं, सारा जीवन बिताने का अंदाज़ ही बदल रहा है. इतालवी दुकानदार, छुट्टी और आराम से काम करने में विश्वास करते हैं, जब पूर्व से आये नये दुकानदार सारा दिन दुकान खोले रखते हैं, कोई छुट्टी नहीं लेते, दुकान में ही सो जाते हैं, तो कैसे मुकाबला करेंगे ये लोग ?

अगर आप नैपच्यून की मूर्ती के क्लोसअप देखना चाहें या बोलोनिया के बारे में कुछ और पढ़ना चाहें तो यहाँ क्लिक कीजिये.


मोनतान्योला

शनिवार का बाजार मोनतान्योला से

शनिवार, अगस्त 06, 2005

लोकारनो में मंगल पांडे

स्विटज़रलैंड तीन भाषाओं का देश है. देश के एक हिस्से में बोलते हैं फ्रांसिसी भाषा, दूसरे में जर्मन और तीसरे में इतालवी. लोकारनो का शहर इतालवी भाषा क्षेत्र में आता है जहाँ दो दिन पहले लोकारनो फिल्म फैस्टीवल प्रारम्भ हुआ और पहले दिन की फिल्म थी केतन मेहता की "मंगल पांडे". इस अवसर पर वहाँ के इतालवी भाषी टेलीविजन ने फिल्म निर्देशक और आमिर खान से साक्षातकार तो दिखाये ही, फिल्म के कई दृश्य भी दिखाये. उस पूरे समाचार को अगर आप चाहें तो यहाँ क्लिक कर के देख सकते हैं (उस पन्ने पर सबसे नीचे SFI1 का एक लिंक है उसमें ३ अगस्त की लिंक पर क्लिक कीजिये. रियल मीडिया की फोरमेट है. पहले इस फिल्म समारोह की एक सदस्य का साक्षातकार है, अगर उसे न देखना चाहें तो माउस की मदद से आप क्लिप को आगे बढा सकते हैं. फिल्म के बारे में पूरा समाचार, करीब दस मिनट का है और इतालवी भाषा में है केवल फिल्म के दृश्यों को नहीं डब किया गया है.)

ईस्वामी ने अपने ब्लाग में एक नये सर्च इंजन "सीक" के बारे में आज़माने की सलाह दी है, जिसके बारे में कहते हैं कि शायद यह गूगल से भी बेहतर है. बेहतर है या घटिया यह तो समय ही बतायेगा पर आजंमाने में बढिया लगा. गूगल से ही जुड़ी एक और बात है जिसकी कुछ चर्चा यूरोप में हो रही है. कहते हैं कि गूगल विभिन्न विश्वविद्यालयों से सम्पर्क कर के उनकी सभी पुस्तकों और दस्तावेज़ों को डिजिटल रुप में बदल रहा है और उनका उद्देश्य है कि कम से कम डेढ करोड़ पुस्तकें इस तरह अंतरजाल पर उपलब्ध करादें. इस बात से यूरोप के कुछ देशों में चिंता हो रही है कि एक बार फ़िर इस तरह से अंग्रेज़ी में लिखी किताबों को ही प्रमुखता मिलेगी और यूरोपीय भाषाँए पीछे रह जायेंगी. इसलिये फ्राँस, इटली आदि देशों ने एक नया समझोता किया है, अपनी भाषाओं की पुस्तकों को डिजिटल रुप में अंतरजाल पर उपलब्ध कराने के लिए. गूगल के इस पुस्तक संग्रह में हिंदी की किताबों को क्या कोई जगह भी मिलेगी ?

आज की तस्वीरें दक्षिण अफ्रीका से, उस जेल की जहाँ नेलसन मंडेला १८ वर्ष तक कैद रहे. इस जेल में ही मेरा परिचय हुआ एउजेनियो से, जो केवल सोलह वर्ष का था जब जेल में कैद हो कर आया था. उसकी सुनायी जेल जीवन की कहानियों ने मेरे रौंगटे खड़े कर दिये थे. ऊपर वाली तस्वीर में एउजेनियों जेल के बारे में समझा रहा हैं.

शुक्रवार, अगस्त 05, 2005

गाँधी जी और कम्प्यूटर

पिछले दिनों इटली की टेलीफोन कम्पनी "टेलीकोम" का यहाँ के टेलीविजन पर नया विज्ञापन आया जिसने कुछ हलचल सी मचा दी है और उसके बारे में बहुत सी बहसे हुई हैं.

विज्ञापन के शुरु का दृश्य है कि गाँधी जी धीरे धीरे चल कर अपनी कुटिया की ओर जा रहे हैं. कुटिया में वह पालथी मार कर बैठ जाते हैं और बोलना शुरु करते हैं.

गाँधी जी के सामने एक वेबकैम उनकी वीडियो तस्वीर ले कर उसे सारी दुनिया में दिखा रहा है. फिर दिखाते हैं कि सारी दुनिया में लोग गाँधी जी की बात को सुन और देख रहे हैं. न्यू योर्क और क्रैमलिन में विशालकाय पर्दों पर, इटली और चीन में मोबाईल टेलीफोन पर, अफ्रीका में रेगिस्तान में एक कम्प्यूटर पर. विज्ञापन के अंत में यह वाक्य उभरते हैं "अगर सारी दुनिया ने यह संदेश सुना होता तो आज यह दुनिया कैसी होती ?"

इस विज्ञापन में गाँधी जी को अंग्रेज़ी में बोलते दिखाया गया हैं. 2 अप्रैल 1947 को दिल्ली में दिया गये उनका यह भाषण "एशिया में आपसी संबध" नाम की अंतरराष्ट्रीय सभा में दिया गया था. जो अंश विज्ञपन में दिया गया है उसमें गाँधी जी कहते हैं "अगर आप दुनिया को कोई संदेश देना चाहते हैं तो प्रेम का संदेश दीजिये, सत्य का संदेश दीजिये. मैं आप के दिलों से माँग कर रहा हूँ. अपने दिलों की धड़कनों को मेरे शब्दों के साथ एक हो कर बजने दीजिये. एक मित्र ने मुझसे पूछा कि क्या मैं "एक दुनिया" की बात में विश्वास करता हूँ? यह कैसे हो सकता है कि मैं "एक दुनिया" के सिद्धांत से अलग कुछ और सोचूँ? मैं "एक दुनिया" में विश्वास करता हूँ."

विज्ञापन के बारे में कई सारी बहसे हो रही हैं.

एक बहस तो यह कि अगर गाँधी जी का संदेश अहिंसा का संदेश था तो फिर इस विज्ञापन को बनाने का काम होलीवुड के प्रसिद्ध निर्देशक स्पाईक ली को क्यों सौंपा गया जिन्होंने "मैलकोम एक्स" जैसी हिंसावादी फिल्में बनायी हैं?

दूसरी बहस यह है कि गाँधी जी तो उपभोक्तावादी (कोनस्यूमिस्टिक) संस्कृति के खिलाफ़ थे. इसलिए उनकी छवि और शब्दों को एक विज्ञापन में कम्प्यूटर और टेलीफोन बेचने के लिए उपयोग करना उनका अपमान करना हैं.

तीसरी बहस है इस विज्ञापन के संदेश की, जो कहता है कि अगर इस दुनिया के लोगों ने गाँधी जी की बातें सुनी होती तो शायद आज यह दुनिया भिन्न होती. लोग कहते हैं कि अगर गाँधी जी को स्वयं बन्दूक की गोली से मरना पड़ा तो उनके शब्द सुनने मात्र से दुनिया में हो रही हिंसा को कैसे रुकती?

इस बहस में आप कुछ भी कहिये या सोचिये, यह तो मानना ही पड़ेगा कि यह विज्ञापन बहुत सुंदर है. अगर आप इसे देखना चाहें तो यहाँ देख सकते हैं.



***

गुरुवार, अगस्त 04, 2005

बंदर के बच्चे सा शहर

दो दिन के लिए काम से कोरतोना गया. कोरतोना एक छोटा सा शहर है रोम से करीब १०० किलोमीटर उत्तर में. कुछ अजीब सा नाम लगता है मुझे कोरतोना. "कोरता" का इतालवी भाषा में अर्थ है "छोटी". इतालवी भाषा में अगर आप किसी शब्द के साथ "ओना" जोड़ देते हैं तो उसका अर्थ होता है "बड़ी" या "मोटी". उस हिसाब से कोरताना का अर्थ हुआ "छोटी बड़ी" या "छोटी मोटी".

पूरे यूरोप में ऐसे कई शहर हैं जो मध्यम युग (तेहरंवी से सोलहंवी शताब्दी का युग) में पहाड़ियों पर किले की तरह बनाये गये थे ताकि बाहर से कोई हमला न कर सके. इटली में रोम से फ्लोरेंस के रास्ते में सड़के के दोनो तरफ ऐसे कई पुराने शहर हैं जहाँ पर ३००-४०० वर्ष पहले के घर, सड़कें इत्यादि सब कुछ अपने पुराने रुप में अभी भी बिल्कुल वैसे ही हैं. बहुत से ऐसे शहर आज भारत के फतह पुर सीकरी की तरह खाली शहर हैं जहाँ कोई नहीं रहता अब.

कोरतोना भी ऐसा ही शहर है, फर्क सिर्फ इतना है इस शहरवासियों को अपने शहर में देशी विदेशी पर्यटकों को घूमने के लिए बुलाने में सफलता मिली है, इसलिए यह शहर अभी भी आबाद है, खाली नहीं हुआ. जब कार से पहाड़ी के पास पहुँचो तो लगता है जैसे पहाड़ी के ऊपर बने घर पहाड़ी के कोने से कभी भी नीचे लुड़क सकते हैं. जाने क्यों उन घरों को देख कर मन में माँ के पेट से चिपके हुए बंदर के बच्चों की छवि उभर आती है. पहाड़ी के उपर पहुँच कर भी ऐसा ही लगता है, जैसे माँ के पेट से चिपका बच्चा हो जिसकी माँ पेड़ों के शाखाओं में, एक शाखा से दूसरी शाखा पर कूद रही हो. जिधर देखो घरों के बीच में से, पत्तों के बीच में से नीचे की वादी झलकती नजंर आती है.

नेपच्यून की मूर्ती का किस्सा अभी समाप्त नहीं हुआ लगता है. सुमात्रा से राजेश पूछते हैं कि क्या मूर्ती का क्लोसअप नहीं दिखा सकते. मेरे ख्याल से राजेश शायद शिवभक्त्त हैं इसलिए ऐसा पूछ रहे हैं. लगता है इस बार इतवार को इस मूर्ती की कुछ तस्वीरे लेने जाना ही पड़ेगा.

कुछ दिनों से कोई कविता नहीं प्रस्तुत की तो लीजिये आज महादेवी वर्मा की एक कविता की कुछ पंक्त्तियाँ:


"बीन भी हूँ तुम्हारी रागिनी भी हुँ.
नींद थी मेरी अचल निस्पंद कण कण में,
प्रथम जागृति थी जगत के प्रथम स्पंदन में.
प्रलय में मेरा पता पदचिन्ह जीवन में,
शाप हूँ जो बन गया वरदान बंधन में.
कूल हूँ मैं कूलहीन प्रवाहिनी भी हूँ."

आज की दो तस्वीरे हैं कोरतोना की.

मंगलवार, अगस्त 02, 2005

हँस कर कही बात

कुछ समय पहले फ्राँस में जनमत (रेफेरेंडम) हुआ था यूरोपीय संविधान के बारे में. इसमे जीत हुई संविधान को न कहने वालों की. जनमत से पहले कई हफ्तों तक बहुत बहस हुई फ्राँस में, यूरोप के बारे में. उनका सोचना था कि पूर्वी यूरोप में पोलैंड, हंगरी, रोमानिया, स्लोवाकिया जैसे देशों से गरीब यूरोपी लोग पश्चिम यूरोप के अधिक अमीर देशों में आ कर मुसीबत कर देंगे. कई बार उदाहरण देने के लिए कहा गया कि पोलैंड के कम पैसों में नल और पाईप ठीक करने वाले फ्राँस में आ कर फ्राँस वासियों से काम छीन लेंगे.

उस समय तो पोलैंड वालो ने अपने बारे में ऐसी बातें सुन कर कुछ नहीं कहा पर कुछ सप्ताह पहले वहाँ के पर्यटक विभाग ने इस बात पर एक नया इश्तहार निकाला जो नीचे प्रस्तुत है. इसमें नल ठीक करने वाले कपड़े पहना एक युवक कहता है "मैं तो पोलैंड में ही रहूँगा, आप भी यहाँ आईये".

बजाये गुस्सा हो कर लड़ाई करने के, इस तरह से हँस कर चुटकी ले कर अपनी बात समझाना कँही बहतर है.

अनूप ने परसों के ब्लाग में तुरंत टिप्पड़ी की कि बिना मूर्ती की तस्वीर के उसके बारे में बात करना अधूरा है. क्या करता, पास में उस मूर्ती की कोई फोटो नहीं थी. आज इंटरनैट से खोजी इस मूर्ती की एक तस्वीर प्रस्तुत है. १५६५ में बनी यह मूर्ती जानबोलोनिय ने बनायी थी, जिन्हें बोलोनिया के लोग प्यार से जानबोलोनिया कहते हैं और मूर्ती को प्यार से "फोरकेतोने" यानि बड़े फोर्क वाला (हाथ में पकड़ा त्रिशूल, फोर्क जैसा ही है) कहते हैं.



पोलैंड का बदला
बोलोनिया की नैपच्यून की मूर्ती

हमारी भाषा कैसे बनी

कुछ दिन पहले मैंने जाने-माने डॉक्यूमैंट्री फ़िल्म निर्देशक अरुण चढ़्ढ़ा की १८५७ के लोक-गीतों पर बनी फ़िल्म के बारे में लिखा था। आज उन्हीं की ए...

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