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बुधवार, जनवरी 15, 2014

घड़ी की टिकटिक और सपने

स्वीडन के आविष्कारक फ्रेडरिक कोल्टिन्ग ने क्राउडसोर्सिन्ग के माध्यम से पैसा इक्टठा किया और एक नयी तरह की घड़ी बनायी है जिसमें आप देख सकते हैं कि आप के जीवन के कितने वर्ष, दिन, घँटे व मिनट बचे हैं. इसका यह अर्थ नहीं कि आप उस निर्धारित समय से पहले नहीं मर सकते या आप की आयु घड़ी की बतायी आयू से लम्बी नहीं हो सकती. जिस तरह जीवन बीमा करने वाली कम्पनियाँ आप के परिवार में बीमारियों का इतिहास देख कर, आप को रक्तचाप या मधुमेह जैसी बीमारियाँ तो नहीं हैं जाँच कर, खून के टेस्ट करके, इत्यादि तरीकों से अन्दाज़ा लगा सकती हैं कि आप जैसे व्यक्ति की औसत जीवन की लम्बाई कितनी हो सकती है, इस घड़ी की भी वही बात है. यानि घड़ी आप के औसत जीवन की लम्बाई देख कर आप को बतायेगी कि आप के जीवन का कितना समय बाकी बचा है.

एक साक्षात्कार में कोल्टिन्ग ने बताया कि उनका इस आविष्कार को बनाने का ध्येय था कि लोग अपने जीवन की कीमत को पहचाने, हर दिन को पूरा जियें. वह कहते हैं, "इस घड़ी ने मुझे स्वयं भी सोचने को मजबूर किया. मैंने निर्णय किया कि मैं ठँडे व अँधेरे स्वीडन में जीवन नहीं बिताना चाहता और इस तरह मैं स्वीडन छोड़ कर अमरीका में लोस एँजल्स में आ कर बस गया. अब मैं वह करने की कोशिश करता हूँ जिससे मुझे सचमुच की खुशी मिले."

मेरे पास कोल्टिन्ग की घड़ी नहीं, न ही मैं उस घड़ी को पाना या पहनना चाहता हूँ. मुझे नहीं लगता कि उस घड़ी के पहनने भर से मैं आज और अभी के पल में जीने लगूँगा, और वही करूँगा जिससे मुझे सचमुच खुशी मिले. लेकिन आजकल मैं भी अपने जीवन की घड़ी की टिकटिक को ध्यान से सुन रहा हूँ और बदलते हुए जीवन के बचे हुए क्षण गिन रहा हूँ.

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करीब तीस वर्ष हो गये इटली में रहते. जब माँ थी तो उसने एक बार मुझसे पूछा था कि क्या तू भारत कभी वापस लौट कर आयेगा, तो मैंने कहा था कि हर साल तो आता हूँ. तो माँ ने कहा था कि इस तरह नहीं, यहाँ आ कर, यहीं रह कर, यहाँ के लोगों के लिए काम करने? तो मैंने कहा था कि जब सठियाने लगूँगा, यानि साठ साल का हो जाऊँगा तो वापस आ जाऊँगा. इस बात पर बहुत सोचा था और फ़िर इस विषय पर अपनी छोटी बहनों से भी बातें की थीं. चार साल पहले जब माँ गुज़री तो यह सब बातें अचानक मन में गूँजने लगीं.

अब भारत वापस लौटने का वह सपना पूरा होने वाला है. भारत वापस जाने की तैयारी प्रारम्भ हो चुकी है. कुछ ही महीनो में साठ साल का हो जाऊँगा. उसके बाद मैं चाहता हूँ कि मेरा बाकी का बचा जीवन भारत में गाँव में या किसी छोटे शहर में सामुदायिक स्तर पर डाक्टर के काम में निकले, साथ साथ कुछ सामाजिक स्तर पर शोध कार्य कर सकूँ.

पिछले चार वर्षों में इस विषय पर पत्नी, बेटे, बहनों और कुछ मित्रों से घँटों बातें की है, जिनसे मैं जीवन के इस अंतिम पड़ाव में मैं सचमुच क्या चाहता हूँ, इसकी समझ स्पष्ट हुई है. एक जुलाई 2014 से जहाँ काम करता हूँ वहाँ से मेरी एक वर्ष की छुट्टी मँज़ूर हो गयी है, इसलिए मानसिक रूप से कोई तनाव भी नहीं है. पर साथ ही मन में यह निश्चय भी है कि एक साल की छुट्टी समाप्त होने पर वापस नहीं आऊँगा, यहाँ के काम से इस्तीफ़ा दे दूँगा (इटली में रिटायर होने के लिए पुरुषों को कम से कम 68 वर्ष का होना चाहिये).

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भारत में क्या करेगा, कहाँ काम करेगा? बहुत से लोग जो करीब से जानते हैं वह मुझसे यह सवाल पूछते हैं, तो मैं उत्तर देता हूँ कि अभी कुछ तय नहीं किया है. अभी तक केवल सोचा है और सपने देखे हैं. सोचा है कि भारत वापस जा कर कुछ जगह घूमूँगा और नियती अपने आप रास्ता दिखायेगी कि मुझे कौन सा काम करना चाहिये.

सपने भी बहुत सारे हैं. जैसे कि ऐसा काम हो, जिससे मैं गरीब या जनजाति के लोगों के लिए काम भी करूँ पर साथ ही सामुदायिक स्तर पर काम करने वाले स्वास्थ्य कर्मचारियों को पढ़ाने का अवसर भी मिले, सामुदायिक स्तर पर शोध का भी मौका मिले. पिछले तीस वर्षों में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर विकलाँगता, कुष्ठ रोग, यौनिकता, हिँसा, सामाजिक समशक्तिकरण जैसे विषयों पर काम करने का अनुभव है, तो यह आशा भी है कि उस अनुभव को उपयोग करने का मौका भी मिले.

यह भी सोचता हूँ कि किसी नयी जगह पर अकेला कुछ नया प्रारम्भ करना ठीक नहीं होगा, बल्कि कोई आदर्शवादी लोग मिलें जो पहले से ही जनविकास क्षेत्र में मन और आदर्शों से काम कर रहे हों तो उनके साथ जुड़ कर काम करूँ. इनमें से कौन सा सपना पूरा होगा, उसका निर्णय समय और नियती ही करेंगे.

भविष्य क्या होगा, इसकी चिन्ता नहीं है, बल्कि मन भारत जा कर रहने के विचार से, केवल काम के ही नहीं, अन्य भी तरह तरह के सपने देखने लगा है. खूब  और नया लिखूँगा. भारतीय शास्त्रीय संगीत विषेशकर गायन सीखूँगा. उर्दू, बँगाली, कन्नड़, या कोई अन्य भारतीय भाषा सीखूँगा.  गोवा से पश्चिम में मालाबार सागर तट पर घूमूँगा. पश्चिम बँगाल में, राजस्थान में,गुजरात में भी घूमूँगा. मित्रों से चाय के प्यालों पर बहसें होगी. फ़िर सोचता हूँ कि क्या साधू बन कर, जगह जगह घूमते हुए भी डाक्टरी का काम कर सकते हैं? अगर अपने झोले से कोई साधू स्टेथोस्कोप निकाल कर कहे कि आईये आप की जाँच कर दूँ तो क्या आप उस पर भरोसा करेंगे?

हर दिन एक नया सपना मन में आता है, लगता है कि फ़िर से लड़कपन के द्वार पर आ कर खड़ा हो गया हूँ जब लगता था कि सब कुछ कर सकता हूँ. फ़िर लगता है कि यह सब ख्याली पुलाव पूरे करने का समय कहाँ मिलेगा, अगर एक बार डाक्टरी के काम में जुटा तो कुछ और करने का समय नहीं मिलेगा.

जाने की तैयारी में अपनी सारी हिन्दी की किताबें यहाँ के एक पुस्तकालय को दे दी हैं, जहाँ भारतीय प्रवासियों के लिए, वह नया हिन्दी सेक्शन बनायेंगे. पिछले दशकों में जोड़ी हर अपनी वस्तू के लिए सोच रहा हूँ कि इसको किसको दूँ.

क्या होगा, यह तो समय ही बतायेगा. तब तक घड़ी की टिक टिक सुनते हुए, हर दिन कैलेण्डर से एक दिन काट देता हूँ. वापसी और करीब आ जाती है. और नये सपने देखने लगता हूँ.

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गुरुवार, अप्रैल 11, 2013

इतिहास के धागे


आन्यो (Agno) नदी के किनारे एक छोटा सा शहर बसा था, वल्दान्यो (Valdagno). वल्दान्यो माने "आन्यो की घाटी". वल्दान्यो से करीब पाँच किलोमीटर दूर, दक्षिण पूर्व में, जहाँ पहाड़ शुरु होते हैं, वहीं के एक छोटे से गाँव कोरनेदो (Cornedo) में सन् 1880 के आसपास एउजेनियो को जन्म हुआ था.

तब कोरनेदो गाँव के बीच में एक गिरजाघर, एक पानी लेने और कपड़े धोने की जगह, कुछ दुकाने और दो चार घर थे, बस. गाँव के बाकी लोग अपने अपने "कोन्त्रा" (contrà) में रहते थे. कोन्त्रा यानि कुछ घरों के झुरमुट. एक कोन्त्रा में एक परिवार का सारा खानदान साथ रहता, और उसके आसपास उस परिवार के खेत और जानवरों को चराने की जगहें होती. किसान परिवारों के आठ-दस-बारह बच्चे होते, जो जब बड़े होते तो उनके घर वहीं आसपास बन जाते, कुछ बच्चे बड़े हो कर जीवनी खोजने शहरों की ओर निकल जाते.

आज कोरनेदो छोटा शहर है. आसपास के पहाड़ों में, शहर से दूर, कुछ पुराने कोन्त्रा अब भी बचे हुए हैं. लेकिन अब छोटे परिवार होते हैं इसलिए अब एक कोन्त्रा में एक खानदान नहीं रहता, घरों में अलग अलग परिवार रहते हैं.

जहाँ एउजेनियो का परिवार रहता था उसका नाम था "कोन्त्रा ज़ारानतोनेल्लो". एउजेनियो का एक बड़ा भाई था, ज्योवानी और एक बहन, एम्मा. उनके पारिवारिक नाम ज़ारानतोनेल्लो के "ज़ारा" शब्द के अर्थ पर कुछ विवाद था. कोई कहता कि यह नाम किसी पूर्वी यूरोप से आने वाले पूर्वज़ की वजह से था. कोई कहता कि रूस के राजपरिवार ज़ार की वजह से यह नाम मिला था. इतिहास कुछ भी था, उसे जाँचने का कोई तरीका नहीं था. लेकिन इतिहासकारों के अनुसार, उत्तरी इटली के इस इलाके में पहले परिवार सन 900-1000 ईस्वी के आसपास बसे जब दक्षिण जर्मनी से परिवार यहाँ रहने आये.

1894 के आसपास एउजेनियो ने अपना गाँव छोड़ा और 16 किलोमीटर दूर लेओग्रा (Leogra) नदी पर बसे छोटे से शहर स्कियो (Schio) में आ गया. जहाँ ऊन बनाने की एक फैक्टरी में कारीगरों की आवश्यकता थी. तब वल्दान्यो तथा स्कियो के बीच पक्की सड़क नहीं थी. दोनो शहरों के बीच में ऊँचा पहाड़ था, मग्रे (Magré). एक शहर से दूसरे शहर जाने के लिए घोड़े या टट्टू की आवश्यकता होती, पर अधिकतर लोग पैदल ही जाते. पहाड़ पार करने में पूरा दिन लग जाता था.

ऊन की फैक्टरी में काम करने वालों के लिए लेओग्रा नदी के किनारे घर बनवाये गये थे. वहीं एक घर एउजेनियो को भी मिला. मासिक पगार में से कुछ पैसे घर के लिए कट जाते, इस तरह से कुछ दशकों में वह घर एउजेनियो ने खरीद लिया. फैक्टरी में विभिन्न स्तरों पर काम करने वाले लोगों के अलग अलग तरह के घर थे - मजदूरों के लिए छोटे घर, और मशीनों को चलाने वाले या सुपरवाइज़रों के लिए, कुछ बड़े घर. फैक्टरी का नाम था लानेरोस्सी (Lanerossi) यानि "रोस्सी की ऊन", जिसका मालिक रोस्सी परिवार था.

पर लानेरोस्सी ऊन फैक्टरी के मालिक सोचते थे कि सब लोगों को मिल जुल कर रहना चाहिये, पगार या काम की वजह से, लोगों के बीच में ऊँच नीच नहीं होनी चाहिये. इसलिए छोटे और बड़े घर साथ साथ बने मिलजुल कर बनाये गये थे. यानि घरों की एक कतार में, एक दो घर बहुत बड़े बनाये गये थे, बीच में कुछ घर मध्यम बड़े बने थे, जबकि मजदूरों वाले घर छोटे थे.

एउजेनियो को मज़दूरी का काम मिला था, इसलिए उसका घर छोटा था. दो कमरे थे, एक कमरा नीचे और एक ऊपर. घर के आगे पीछे कुछ फ़ल सब्ज़ी लगाने की जगह थी. पीछे आँगन में टीन की छत का कच्चा पाखाना बना था. नीचे वाले कमरे में एक दीवार में आग जलाने की जगह थी जहाँ खाना बनता. नहाने की कोई अलग जगह नहीं थी, बस आँगन में पानी का पम्प था. सर्दी में जब बर्फ़ जमती और तापमान शून्य से नीचे जाता तो लोग गीले कपड़े से बदन पोछ लेते, नहाना तो सम्भव नहीं था.

एउजेनियो ने अपने गाँव की लड़की एम्मा से विवाह किया, पर बहुत देर से. शायद पहले किसी युवती से प्रेम था, जो सफ़ल नहीं हुआ था. तीन बच्चे हुए, एक बेटा मारियो, और दो बेटियाँ -  लीना और एम्मा. इस तरह घर में तीन एम्मा थीं, एउजेनियो की बहन एम्मा, पत्नी एम्मा और छोटी बेटी भी एम्मा.

उस समय घर में दस बारह लोग रहते थे. रिश्तेदारों में किसी को भी आवश्यकता होती तो यहीं आ कर रहता. एक कमरे में चार पाँच लोग सो जाते, एक दो लोग बाहर से आते तो बाकी लोग उनके लिए जगह बना देते.

1914-18 में प्रथम विश्व युद्ध हुआ तो उसका एक मोर्चा शहर से थोड़ी दूर, उत्तर में पासूबियो पहाड़ पर था. मारियो छोटा था, युद्ध में जाने से बच गया. घर के पास ही युद्ध में घायल सिपाहियों का अस्पताल बना था, जहाँ अमरीका से आये सिपाहियों में से अर्नेस्ट हेमिंगवे (Ernest Hemingway) नाम का एक नवयुवक भी था, जो अस्पताल की एमबुलेन्स में काम करता था, और बाद में प्रसिद्ध अमरीकी लेखक बना. उस पुराने अस्पताल की दीवार पर हेमिंगवे का नाम लिखा गया है.

49 वर्ष के थे एउजेनियो, जब दाँत निकलवाने गये और वहीं डैंटिस्ट की कुर्सी पर ही दम तोड़ दिया. तब तक छोटी बेटी एम्मा की मृत्यू हो चुकी थी. उस समय तक स्कियो के ऊन उद्योग इतना सफ़ल हुआ था कि शहर में कई ऊन की फैक्टरियाँ बन चुकी थीं. स्कियो की बढ़िया ऊन की चर्चा देश विदेश में होती.

एउजेनियो के बेटे मारियो को मोटरसाइकल का बहुत शौक था, उन्होंने मेकेनिक की नौकरी कर ली, जबकि बेटी लीना प्राथमिक स्कूल में पढ़ाने लगी.

मारियो मेरे ससुर थे. मैं उनसे कभी नहीं मिला, क्योंकि हमारे विवाह के कुछ वर्ष पहले ही उनका देहाँत हो गया था. उनकी पत्नी, यानि मेरी सास मारिया, स्कियो शहर के उत्तर में एक अन्य छोटे से गाँव से थीं, लेकिन उनका जन्म जर्मनी में हुआ था, जहाँ उनके पिता एक कोयले की खान में मज़दूर थे.

जिस घर में एउजेनियो 120 साल पहले रहने आये थे, उसी घर में बैठ कर मैं यह आलेख लिख रहा हूँ. जिस कमरे में मैं बैठा हूँ, यहाँ द्वितीय विश्व युद्ध में दो जर्मन सिपाही रहते थे. इन सभी घरों को जर्मन फौज ने ले लिया था, और रहने वाले परिवारों को छत के नीचे या बेसमैंट में रहना पड़ता.

समय के साथ, घर में और कमरे जुड़े, पानी आया, बिजली आयी, गैस आयी. इसी घर में मेरे ससुर पैदा हुए थे. मेरी पत्नी भी इसी घर में पैदा हुई थी. करीब ही वह घर है जहाँ मेरी पत्नी को पैदा करवाने वाली दायी रहती थी, अब वहाँ उस दायी का पोता रहता है. हमारा बेटा अस्पताल में पैदा हुआ था, पर दो दिन के बाद उसे भी इसी घर में ले कर आये थे. पिछले कुछ सालों से यहाँ मेरी पत्नी के सबसे बड़े भाई अकेले रहते थे. उनकी मृत्यू के बाद यह घर हमारा हो गया है, और हम लोग यहाँ छुट्टियों में रहने आते हैं.

यह शहर पहाड़ों से घिरा है. पहले कुछ छोटे पहाड़ हैं जैसे सुम्मानो, नवेन्यो, वेलो, मग्रे और रागा. उनके पीछे ऊँचे पहाड़ हैं जो सारा वर्ष बर्फ़ से ढके रहते हैं, जैसे कोर्नेत्तो, बाफेलान, करेगा, पासूबियो, आदि. घर से बाहर निकलते ही लोगों से नमस्ते शुरु हो जाती है. हालाँकि पिछले दशकों में यहाँ रहने वाले बहुत लोग बदले हैं, पर बहुत से पुराने परिवार अब भी वही हैं, जो एक दूसरे की पुश्तों को जानते हैं. पत्नी साथ न हो तो मैं उन्हें नहीं पहचान पाता लेकिन वे मुझे पहचानते हैं.

मेरी पत्नी के मौसेरे, चचेरे, ममेरे परिवारों के रिश्तों का जाल फ़ैला है हमारे घर के चारों ओर, हालाँकि उनमें से किसी के घरों में आने जाने का रिवाज़ नहीं है. मेरी पत्नी से कभी कभी किसी रिश्तेदार की टेलीफ़ोन पर बात होती है, पर उसके अतिरिक्त शादी ब्याह पर भी नहीं बुलाये जाते. पहले ऐसा नहीं था. मेरे बड़े साले बताते थे कि जब वह छोटे थे तो परिवार के लोगों के यहाँ आना जाना नियमित होता था, विवाह या त्योहारों पर सब लोग मिलते थे. बदलाव 1950-60 के दशकों में आया जब समृद्धी बढ़ी, परिवार छोटे होने लगे. अब अपने विवाह में बच्चे कभी कभी अपने माता पिता तक को नहीं बुलाते. जब मेरी सास जीवित थीं तब उनकी बहनों, तथा उनके परिवारों से कुछ मुलाकात हुई थी.

हमारे इन पुराने फैक्टरी के घरों को स्कियो शहर के उद्योगिक इतिहास का हिस्सा मान कर शहर की  "साँस्कृतिक धरौहर" कहते हैं. इसलिए इन घरों को बाहर से बदला नहीं जा सकता, न ही बाहर कुछ नया बना सकते हैं, न ही घरों के रंग बदल सकते हैं. जिस तरह के यह घर बने थे, बाहर से आज भी वैसे ही दिखते हैं. उस समय के हिसाब से इन घरों के सामने की सड़क चौड़ी रही होगी, हालाँकि आजकल कारों के खड़े रहने थे, छोटी लगती है.

"वह खिड़की देखो", मेरी पत्नी ने मुझसे कहा. हम लोग शाम को सैर को निकले थे. पुरानी गिरती हुई इमारत थी, जहाँ किसी ज़माने में ऊन की फैक्टरी होती थी. वह फैक्टरी तो अब कुछ दशकों से बन्द पड़ी है. "वहाँ काम करती थी मेरी माँ", मेरी पत्नी ने मुझे इशारा करके बताया, "मैं स्कूल से आती तो माँ को उस खिड़की पर देखती थी, कुछ कहना होता तो माँ मुझे इशारा कर देती थी."

हम दोनो जब भी सैर को निकलते हैं तो हर बार मेरी पत्नी बीते कल की बातें बताती रहती है. जब वह कहती है कि "यहाँ हम साइकल से आते थे" तो कभी कभी विश्वास नहीं होता, इतनी दूर ऊँचे पहाड़ पर साइकल चला कर आना कैसे हो सकता था? आजकल के बच्चे बड़े तो ऐसा नहीं करते!

इक्का दुक्का छोड़ कर, यहाँ की ऊन की सभी फैक्टरियाँ कब की बन्द हो चुकी हैं. अब यहाँ ऊन चीन या भारत आदि देशों से आयात करते हैं. कार से जाओ तो, हमारे घर से, मेरे ससुर के पिता एउजेनियो के गाँव कोरनेदो जाने में करीब आधा घँटा लगता है. पिछले कुछ दशकों तक यहाँ विभिन्न तरह के नये उद्योग बने थे. लुक्सओटिका और बेनेटोन जैसी फैक्टरियों ने विश्व भर में सफलता पायी थी. लेकिन थोड़े ही समय में वैश्वीकरण से वह सब बदलने लगा है. उद्योगपति यहाँ की फैक्टरियाँ बन्द करके विकासशील देशों में फैक्टरियाँ लगा रहे हैं. लोग यह छोटा शहर छोड़ कर, बड़े शहरों की ओर प्रस्थान कर रहे हैं.

अब यहाँ शहर में पिछले बीस वर्षों में उत्तरी अफ्रीका, मध्यपूर्व और एशिया से बहुत से प्रवासी आ गये हैं. बँगलादेशी दुकान में सब मिर्च मसाला मिल जाते हैं. आसपास के पहाड़ी गाँवों में भी कभी कभी बुर्का पहने या शाल से सिर को ढकने वाली औरतें दिख जाती हैं. दुनिया बदल रही है, यह शहर भी बदलने को मजबूर हैं.

Agno river, Valdagno, family story - S. Deepak, 2011-13
Schio, family story - S. Deepak, 2011-13
Schio, family story - S. Deepak, 2011-13
Schio, family story - S. Deepak, 2011-13
Schio evening - S. Deepak, 2011-13

ऐसे ही सदियों से एक धारा में चलने वाले जीवन बदल रहे हैं. पुरानी जीवन धारा बदल कर नयी धाराएँ बन रही हैं. समय के साथ बदलते शहर और घर, और बदलते हम, हमारे इतिहास और शहरों के इतिहास. सारे धागे आपस में जुड़े, मिले हुए हैं. जब तक हम हैं तो सब कुछ महत्वपूर्ण लगता है, पर जाने के बाद कुछ साल दशक बीत जाते हैं और धीरे धीरे सब गुम हो जाता है.

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शुक्रवार, अक्तूबर 12, 2012

बालों का रंग


करीब तीस-बत्तीस साल के बाद मिल रहे थे. इस बीच में हमारे बीच कोई भी सम्पर्क नहीं रहा था.

साथ साथ मेडिकल कालेज में पढ़े थे पर मेडिकल कालेज के दिनों में हमारे बीच कोई विषेश दोस्ती नहीं थी. हमारी विषेश दोस्ती बनी थी पढ़ायी के समाप्त होने पर जिस समय नये स्नातक डाक्टरों को, एक साल के लिए अस्पताल में काम करके चिकित्सा विज्ञान का प्रेक्टिकल अनुभव प्राप्त करना होता है, जिसे इन्टर्नशिप कहते हैं. उस दौरान हम दोनो की कई पोस्टिंग साथ साथ हुईं थीं. इन्टर्नशिप के दौरान नये डाक्टरों से खूब दिन रात काम लिया जाता है, साँस लेने कि फुरसत मुश्किल से मिलती थी. उन दिनों में जब भी कुछ समय मिलता, अक्सर हम दोनो दिल्ली में कश्मीरी गेट से आगे जा कर यमुना तट पर बने तिब्बती रेस्टोरेंट में खाना खाने जाते और घँटों बातें करते.

वह इन्टर्नशिप का वर्ष समाप्त हुआ, डिग्री मिली और हम दोनों के रास्ते अलग दिशाओं में मुड़ गये. सुना कि उसका विवाह अमरीका में कहीं हुआ है. फ़िर सुना कि जहाँ विवाह हुआ था वहाँ कुछ झँझट थे, पर कुछ अधिक नहीं पता चला. बस उसके बाद कोई अन्य बात नहीं सुनी, न ही मालूम हुआ कि वह कहाँ है, क्या करता है?

अब कुछ समय पहले फेसबुक और मेडिकल कोलिज में साथ में हमारे साथ पढ़ने वाले लोगों की वजह से उससे फ़िर से सम्पर्क हुआ. मालूम चला कि वह इँग्लैंड में रहता है. उसके शहर में जाने का मौका मिला तो उससे मुलाकात भी हुई. एक पब में मिले और बीयर पीते पीते पुरानी बातों की बात हुई.

वह छरहरा सा लड़का जो मेरी यादों में था, अब अच्छे खासे खाते पीते घर के तँदरुस्त व्यक्ति में बदल गया था, जिसे अगर सड़क पर मिलता तो पहचान ही नहीं पाता. जब बीते दिनों की बातें चुक गयीं तो कुछ समझ नहीं आया कि क्या बात करें. इतने सालों में हमारे जीवनों में जो कुछ हुआ था, उससे हमारे बीच की बातें कुछ कम हो गयी थीं.

अचानक वह बोला,"तू तो बिल्कुल अँकल टाइप लगता है इन सफेद बालों में. बालों को डाई क्यों नहीं करता?"

उसके बाल घने और गहरे काले थे. मुझे हँसी आ गयी, मैं बोला, "बेटा, तू चाहे तो तू भी मुझे अँकल बुला ले, मैं बुरा नहीं मानूँगा."

वह पहला व्यक्ति नहीं था जिसने बाल रँगने करने के लिए मुझे कहा था. पहले भी कुछ लोगों से यही बात सुन चुका था.

यह सच है कि मैंने कई बार सोचा है कि अपने बालों का एक लच्छा जामुनी या हरे रंग में रंगवा लूँ, लेकिन उनको काला करके अधिक जवान दिखने की मेरी कभी कोई इच्छा नहीं हुई. एक बार मँगोलिया में यात्रा के दौरान एक लड़का मिला था जिसने अपने बाल हलके भूरे रंग में रँगवाये थे, जो मुझे बहुत अच्छा लगा था और मन में आया था कि अपने बाल वैसे ही भूरे रँगवा लूँ.

अपने बालों को जो काला नहीं रंगवाना चाहता, इसके पीछे बात है मेरे पिता के परिवार के इतिहास की.

मेरे दादा द्वारका प्रसाद छोटे से थे जब उनके पिता का देहाँत हुआ था. वह अपने बड़े भाई बेनी प्रसाद की छत्रछाया में बड़े हुए. द्वारका प्रसाद 33 वर्ष के थे, जब उनका देहाँत हुआ था. उस समय मेरे पिता ओम प्रकाश तीन साल के थे. मैं स्वयं बीस साल का था जब मेरे पिता का देहाँत हुआ था.

बचपन से ही मेरे मन में यह बात घर कर गयी थी कि हमारे परिवार में पिताओं को अपने बच्चों को ठीक से बड़ा होते देखना नसीब नहीं होता. बहुत सालों तक मेरे अपने मन में भी डर था कि अपने बेटे को ठीक से बड़ा होते देखने का मुझे भी मौका नहीं मिलेगा. पर ऐसा नहीं हुआ. मुझे अपने बेटे का बड़ा होना, उसका नौकरी करना, उसका विवाह, सब कुछ देखने को मिला.

इसलिए मुझे लगता है कि बहुत किस्मत से इतनी पुश्तों के बाद हमारे परिवार में मेरे बेटे को सफेद बालों वाला पिता मिला है. जब हम दोनों शाम को कभी बाग में बाते करते हुए घूम रहे होते हैं तो कभी कभी सोचता हूँ कि मेरे पिता, दादा, परदादा, सभी हम दोनो के साथ साथ ही घूम रहे हैं, हमारी बातें सुन रहे हैं और खुश हो रहे हैं.

आप ही कहिये, इतनी किस्मत से मिले सफ़ेद बाल, इनको कैसे रँगा जा सकता है?

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हमारी कुछ पुरानी तस्वीरें:

Sunil & Marco Tushar

Sunil, Nadia & Marco Tushar

Sunil & Marco Tushar

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सोमवार, सितंबर 17, 2012

फ्राक पहनने वाले लड़के


आप का दो या तीन साल का बेटा फ्राक पहनने या नेल पालिश लगाने की ज़िद करे या खेलने के लिए गुड़िया चाहे, तो आप क्या करेंगे? और आप कुछ न भी कहें, आप के मन में क्या विचार आयेंगे? अगर पाँच-छहः साल का होने पर भी आप का बच्चा इसी तरह की ज़िद करता रहे तो आप क्या करेंगे?

अगर आप की उसी उम्र की बेटी इसी तरह से पैंट या निकर पहनने की ज़िद करे, लड़कों के साथ मार धाड़ के खेलों में मस्त रहे तो आप क्या सोचेंगे?

आज के समाज में लड़कियाँ का पैंट या जीन्स पहनना आसानी से स्वीकारा जाने लगा है. शायद ही ऐसा कोई काम बचा हो जिसे केवल लड़कों का काम कहा जाता हो. डाक्टर, वकील से ले कर पुलिस और मिलेट्री तक हर जगह अब लड़कियाँ मिलती हैं. कोई युवती पुलिस में हो या मिलेट्री में, यह भी स्वीकारा जाता है कि उस युवती का विवाह होगा, बच्चें होगें और परिवार होगा, यह आवश्यक नहीं कि उस युवती को लोग समलैंगिक ही माने.

लेकिन शायद लड़कों के लिए समाज के स्थापित लिंग मूल्यों की परिधि से बाहर निकलना, अभी भी आसान नहीं है. पति घर में झाड़ू या सफ़ाई करे, खाना बनाये या बच्चे का ध्यान रखे, तो अक्सर लोग सोचते हैं कि "बेचारे को कैसी पत्नी मिली!" या फ़िर सोचते हैं कि उसमें पुरुषार्थ की कमी है. लड़के फ्राक पहनना चाहें, मेकअप करना चाहें या गुड़िया से खेलना चाहें, तो तुरंत ही माता पिता दोनो बिगड़ जाते हैं. खेल के मैदान में साथ खेलने वाले साथी और विद्यालय में साथ पढ़ने वाले उसका जीवन दूभर कर देते हैं.

कुछ सप्ताह पहले ऐसे लड़कों और उनके माता पिता के बारे में अमरीकी प्रोफेसर रुथ पाडावर का लिखा, न्यू यार्क टाईमस मेगज़ीन पत्रिका में एक आलेख छपा था.

Cover New York Times Magazine

इस आलेख में उन्होंने बताया है कि कुछ दशक पहले तक लड़कों के इस तरह के व्यवहार को बीमारी के रूप में देखा जाता था. डाक्टरों का कहना था कि इस तरह के व्यवहार को तुरंत न रोका गया तो बच्चा बड़ा हो कर समलैंगिक बनेगा, नारी बन कर जीना चाहेगा. इसलिए तब इन लड़को को जबरदस्ती "लड़कों जैसे रहो और बनो" के लिए मजबूर किया जाता था. आज इस बारे में डाक्टरों और मनोवैज्ञानिकों की सोच बदल रही है.

आलेख पढ़ते हुए मुझे अंग्रेजी फ़िल्म "बिल्ली एलियट" (Billy Elliot) याद आ गयी जिसमें खान में काम करने वाले मजदूर पिता के बेटे की कहानी थी जो नृत्य सीखना चाहता है और उसके पिता को यह जान कर बहुत धक्का लगता है.

मेरी एक इतालवी मित्र जो पहले पुरुष थी और जिसने लिंग बदलवा कर नारी बनने का आपरेशन करवाया था, मैंने उसके विषय में एक बार इस ब्लाग पर लिखा था. एक बार उसने मुझे बताया था कि उसके छोटेपन में उसके लिए सबसे अधिक कठिन था अपने परिवार की शर्म को स्वीकार करना, "अगर तुम युवक हो और युवतियों के कपड़े पहनो, युवतियों जैसा व्यवहार करो, तो दुनिया तुम्हारा तिरस्कार करती है. तुम्हारे साथ के मित्र तुम्हारे साथ नहीं दिखना चाहते, सोचते हैं कि तुम्हारे साथ रहने से लोग उनके बारे में भी गलत सोचेंगे. कुछ तथाकथित मित्र इतनी क्रूर बातें करते हैं और कहते हैं कि तुम्हारा दिल टूट जाता है. तुम कोशिश करते हो कि इसको छुपा कर रखो. घर में माता पिता, इसे मान भी लें, वे कहते हैं कि घर के अन्दर जैसा चाहो वैसे रह लो, पर घर से बाहर लड़कों जैसे रहो, नहीं तो लोग हमारा मज़ाक उड़ायेंगे, हमारा जीना दूभर हो जायेगा."

करीब एक दशक पहले मैंने यौन पहचान, व्यक्तित्व और यौनिक इच्छा विषय पर शौध किया था. उस शौध के दौरान, एक युवक ने इससे कुछ कुछ विपरीत समस्या बतायी थी. वह विवाहित था और उसके तीन बच्चे थे. उसने बताया था कि "जब मैं छोटा था तो मुझे गुड़िया से खेलना अच्छा लगता था, लड़कियों के कपड़े पहनना चाहता था. कुछ बड़ा हुआ तो लड़कियों के कपड़े पहनने की इच्छा अपने आप लुप्त हो गयी, लेकिन मेरे शौक लड़कियों जैसे थे. मुझे प्रेम कहानियाँ पढ़ना, घर में खाना बनाना, कढ़ायी बुनायी करना अच्छा लगता था. आज भी मेरे वही शौक हैं. मेरे साथी मित्रों में कुछ अपेक्षा सी हो गयी कि मैं समलैंगिक हूँ. सब यही कहते थे कि मैं ऐसा हूँ तो अवश्य समलैंगिक होऊँगा. मैंने कुछ समलैंगिक सम्बन्ध भी किये, पर कुछ मज़ा नहीं आया, मुझे लड़कों से गहरी दोस्ती पसंद थी लेकिन मुझे लड़कों के साथ सेक्स में वह आनन्द नहीं मिला जो लड़कियों के साथ सेक्स में मिला. मेरे कुछ समलैंगिक मित्र कहते थे कि मैं भीतर से समलैंगिक हूँ लेकिन मैं उसे स्वीकारना नहीं चाहता. मेरे विचार में किसी पर यह ज़ोर नहीं होना चाहिये कि अगर किसी के शौक लड़कियों जैसे हैं तो उसे समलैंगिक ही होना चाहिये."

अपने शौध की वजह से मेरी सोच और समझ में बहुत अन्तर आया था लेकिन यह भी सच है कि मैं अपने भीतर इमानदारी से देखूँ तो जानता हूँ कि मन में गहरे मूल्य आसानी से नहीं बदलते. हाँ इतनी समझ आ गयी है कि मानव की यौन पहचान और यौनता को आसानी से श्रेणियों में बाँटा नहीं जा सकता.

रूथ ने अपने आलेख लिखने के बारे में एक ब्लाग में बताया है कि आज के बहुत से माता पिता जब यह जान जाते हैं कि उनका बेटा लड़कियों जैसे कपड़े पहनना चाहता है या गुड़िया से खेलना चाहता है तो वह उन बच्चों पर कोई ज़बरदस्ती नहीं करना चाहते, वह चाहते हैं कि बच्चा अपनी प्रकृति के अनुसार ही व्यवहार करे और बड़ा हो. पर ऐसा करना आसान नहीं क्योंकि समाज का, साथ के अन्य बच्चों का व्यवहार उनसे कहते है कि उनके बच्चे में कुछ खराबी है. इसलिए इस तरह के कई माता पिता ने इंटरनेट के माध्यम से एक दूसरे को सहारा देने के लिए फोरम बनाये हैं, ब्लाग बनाये हैं.

रुथ का शौध बताता है कि सात से दस प्रतिशत लड़कों में इस तरह की बात किसी हद तक हो सकती है, किसी में कुछ कम, किसी में अधिक.

आजकल डाक्टर तथा मनोवैज्ञानिक भी इसे बीमारी नहीं मानते और कहते हैं कि बच्चो को अपने व्यक्तित्व का विकास जिस दिशा में करना चाहे वैसा करने की छूट होनी चाहिये. इस शौध के अनुसार करीब दस वर्ष के होते होते, यह लड़के इस तरह के कपड़े पहनना या व्यवहार करना बन्द कर देते हैं.

बड़े होने पर, उनमें से करीब साठ प्रतिशत युवक समलैंगिक हो सकते  हैं और करीब चालिस प्रतिशत विषमलैंगिक. लेकिन यह शौध यह भी बताता है कि घर वालों तथा माता पिता का सहारा मिलने पर भी, समाज और स्कूल में इन बच्चों पर उनके हम उम्र बच्चों के दबाव रहता है जो कि मान्य लैंगिक मूल्यों के बाहर वाले बच्चों को नहीं स्वीकारते.

आप रुथ का आलेख न्यू योर्क टाईमस पत्रिका पर पढ़ सकते हैं और आलेख लिखने के बारे में रुथ का साक्षात्कार इस ब्लाग पर  पढ़ सकते हैं.

भारत में अगर इस तरह के बच्चे हों तो उनके माता पिता को सलाह और सहारा देने के कोई माध्यम हैं? अगर आप को इसके बारे में जानकारी हो, तो मुझे अवश्य बताईयेगा.

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शुक्रवार, जनवरी 27, 2012

यादों की पगडँडियाँ


इंटरनेट के माध्यम से भूले बिसरे बचपन के मित्र फ़िर से मिलने लगे हैं.  किसी किसी से तो तीस चालिस सालों के बाद सम्पर्क हुआ है.

उनसे मिलो तो कुछ अजीब सा लगता है. बचपन के साथी कुछ जाने पहचाने से पर साथ ही कुछ अनजाने से लगते हैं.

जिस बच्चे या छरहरे शरीर वाले नवयुवक की छवि मेरे मन में होती है, उसकी जगह पर अपने जैसे सफ़ेद बालों वाले मोटे से या टकले या बालों को काला रंग किये अंकल जी को देख कर लगता है कि जैसे शीशे में अपना प्रतिबिम्ब दिख गया हो. उनसे थोड़ी देर बात करो तो समझ में आता है कि हमारी बहुत सी यादे मेल नहीं खाती. जिन बातों की याद मेरे मन में होती है, वह उन्हें याद नहीं आतीं और जिन बातों को वह याद करते हैं, वह मुझे याद नहीं होती. यानि जिस मित्र की याद मन में बसायी थी, यह व्यक्ति उससे भिन्न है, समय के साथ बदल गया है. उन्हें भी कुछ ऐसा ही लगता होगा.

अगर मिलते रहो तो बदलते समय के साथ बदलते व्यक्ति से परिचय रहता है, पर अगर वर्षों तक किसी से कोई सम्पर्क न रहे तो परिचित व्यक्ति भी अनजाना हो जाता है.

चालिस साल बाद वापस अपने स्कूल में "पुराने विद्यार्थियों की सभा" में गया तो यह सब बातें मेरे मन में थी. सोचा था कि बहुत से पुराने साथियों से मिलने का मौका मिलेगा, पर चिन्ता भी थी कि उन बदले हुए साथियों से किस तरह का मिलन होगा. लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ, मेरे साथ के थोड़े से ही लोग आये थे और दिल्ली में रहने वाले अधिकतर साथी उस सभा में नहीं आये थे. जो लोग मिले उनमें से कोई मेरे बचपन का घनिष्ठ मित्र नहीं था.

Harcourt Butler school

पुराने मित्र नहीं मिले, लेकिन स्कूल की पुराने दीवारों, क्लास रूम और मैदान को देख कर ही पुरानी यादें ताजा हो गयीं. स्कूल के सामने वाले भाग से पीछे तक की यात्रा मेरी ग्याहरवीं से पहली कक्षा की यात्रा थी.

ग्याहरवीं कक्षा के कमरे की पीछे वाली वह बैंच जहाँ घँटों मित्रों से बहस होती थी और जब रहेजा सर भौतिकी पढ़ाते थे तो कितनी नींद आती थी! बायलोजी की लेबोरेटरी जहाँ केंचुए और मेंढ़कों के डायसेक्शन होते थे. आठवीं की क्लास की तीसरी पंक्ति की वह बैंच जहाँ से खिड़की से पीछे बिरला मन्दिर की घड़ी दिखती थी और जहाँ मैं अपनी पहली कलाई घड़ी को ले कर बैठा था, जो कि पापा की पुरानी घड़ी थी. पाँचवीं की वह क्लास जहाँ नानकचंद सर मुझे समझाते थे कि अगर मेहनत से पढ़ूँगा अवश्य तरक्की करूँगा. वह मैदान जहाँ इन्द्रजीत से छठी में मेरी लड़ाई हुई थी. खेल के मेदान के पास की वह दीवार जहाँ दूसरी के बच्चों ने मिल कर तस्वीर खिंचवायी थी.

लेकिन चालिस साल पहले अपना स्कूल इतना जीर्ण, टूटा फूटा सा नहीं लगता था.  हर ओर पुरानी बैंच, खिड़की के टूटे शीशे, कार्डबोर्ड से पैबन्द लगी खिड़कियाँ दरवाज़े, देख कर दुख हुआ. सरकारी स्कूल को क्या सरकार से पैसा मिलना बन्द हो गया था? आर्थिक तरक्की करता भारत इस पुराने स्कूल से कितना आगे निकल गया, जहाँ कभी भारत के प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू अपने जन्मदिन पर हम बच्चों को मिलने आये थे और उन्होंने हवा में सफ़ेद कबूतर छोड़े थे.

Harcourt Butler school

Harcourt Butler school

स्कूल से निकला तो जी किया कि साथ में जा कर बिरला मन्दिर को भी देखा जाये और उसकी यादों को ताजा किया जाये. पर जैसा सूनापन सा स्कूल में लगा था, वैसा ही सूनापन बिरला मन्दिर में भी लगा. बाग में बने विभिन्न भवनों को जनता के लिए बन्द कर दिया गया है. लगता है कि भवन की देखभाल के लिए उनके पास भी माध्यम सीमित हो गये हैं.

"स्वर्ग नर्क भवन" जो हमारे स्कूल के मैदान से जुड़ा था और जहाँ अक्सर हम स्कूल की दीवार से कूद कर पहुँच जाते थे, का निचला हिस्सा अब विवाहों के मँडप के रूप में उपयोग होता है और भवन का ऊपर वाला हिस्सा बन्द कर दिया गया है. इसी तरह से अन्य कई भवन काँटों वाली तारों से घिरे बन्द पड़े थे.

Harcourt Butler school

वह गुफ़ाएँ जहाँ हम लोग अक्सर "आधी छुट्टी" के समय पर छुपन छुपाई खेलते थे, उन पर गेट बन गये थे और ताले लगे थे. बीच की ताल तलैया सूखी पड़ी थीं. सबसे अधिक दुख हुआ जब देखा कि बाग में से बुद्ध मन्दिर जाने का रास्ता भी बड़े गेट से बन्द कर दिया गया है. बुद्ध मन्दिर में पूछा तो बोले कि दोनो मन्दिरों में इस तरह से आने जाने का रस्ता 1985 में बन्द कर दिया गया था.

Harcourt Butler school

Harcourt Butler school

बिरला मन्दिर के बाहर की दुनिया तो बहुत पहले ही बदल चुकी थी. सामने वाले खुले स्क्वायर और छोटे छोटे सरकारी घरों की जगह पर बहुमंजिला मकान बने हैं, और वहाँ जो खुलापन और हरियाली दिखती थी वे वहाँ वह गुम हो गये हैं. सामने एक नया स्कूल भी बना है जिसकी साफ़ सुथरी रंगीन दीवारों और चमकते शीशों के सामने अपना पराना स्कूल, कृष्ण के महल में आये सुदामा जैसा लगता है. शायद नया प्राईवेट स्कूल है?

वापस घर लौट रहा था तो सोच रहा था कि यूँ ही दिन और मूड दोनो को बेवजह ही खराब किया. पुरानी यादों को वैसे ही सम्भाल कर रखना कर चाहिये था, वह भी यूँ ही बिगड़ गयीं. अब जब अपने स्कूल के बारे में सोचूँगा, बजाय पुरानी यादों के, इस बार का सूनापन याद आयेगा.

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बुधवार, दिसंबर 07, 2011

छोटी सी याद

1973-74. हम लोग दिल्ली से मध्य प्रदेश में नरसिंहपुर जा रहे थे. मेरे साथ मेरी एक मौसी और नानी थे. रेलगाड़ी रात को इटारसी स्टेशन पर पहुँची थी, जहाँ हम लोगों ने कुछ घँटे बिताये थे, अगली रेलगाड़ी के आने के इन्तज़ार में.

उस रात मुझे मिली थी ज़रीना वहाब और पहली मुलाकात में ही प्यार हो गया था. ज़रीना वहाब की तस्वीरें "नयी आने वाली अभिनेत्री" के शीर्षक से फ़िल्मफेयर पत्रिका में छपी थीं और उन तस्वीरों को देख कर मेरे दिल की धड़कन तेज़ हो गयी थी.

उन दिनों में मुझे ज़रीना वहाब की तस्वीरें खोजने का भूत सवार हुआ था. किसी पत्रिका में उनकी तस्वीर दिखती तो उसे खरीदने में ही जेबखर्च के सब पैसे चले जाते. तस्वीर को पत्रिका से काट कर संभाल कर रखता. उन तस्वीरों से बातें करता और सपने देखता उनसे मिलने के.

जब सुना था कि वह देवआनन्द साहब की फ़िल्म "इश्क इश्क इश्क" में आ रही हैं तो उस दिन मेडिकल कॉलिज की क्लास छोड़ कर उस फ़िल्म का पहले दिन का पहला शो देखने गया था. फ़िल्म में छोटा सा भाग था उनका लेकिन आज भी अगर उस फ़िल्म के बारे में सोचूँ, तो बस केवल उनका वही भाग याद हैं मुझे.

उनकी उस पहली फ़िल्म के बाद, बहुत समय तक उनकी कोई अन्य फ़िल्म नहीं आयी थी. फ़िर एक-दो सालों के बाद आयी थी बासू चैटर्जी की "चितचोर". जिस दिन वह फ़िल्म रिलीज़ हुई थी, उस दिन मेरा जन्मदिन था और अपने सब मित्रों के साथ दिल्ली के शीला सिनेमा हाल में पहले दिन का पहला शो देखने गया था.

Zarina Wahab Amol Palekar in Chitchor


फ़िर समय बीता और धीरे धीरे पर्दे पर या तस्वीरों में देखी ज़रीना वहाब का जादू अपने आप ही कम होता गया. उनकी जगह दूसरी छवियाँ बसीं मन में, दूसरे सपने आने लगे. फ़िर भी उनकी वे तस्वीरें मेरी डायरी में जाने कितने बरसों तक जमा रहीं थीं.

देवानन्द साहब की मृत्यु पर पिछले दिनों में बहुत आलेख निकले. उन्हीं में कहीं "इश्क इश्क इश्क" के बारे में पढ़ा तो अपने उस पहले नशे की यह बात याद आ गयी.

कैसा होता है मानव मन! भूली बिसरी बातें मन के कोनों में कहाँ छुपी बैठी रहती हैं और जैसे किसी ने बटन दबाया हो, तुरंत उठ कर यूँ सामने आती हैं मानो कल की ही बात हो.

इस बात के बारे में लिखते हुए पाया कि मैं गुनगुना रहा हूँ "तू जो मेरे सुर में सुर मिला ले"!

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शुक्रवार, मई 20, 2011

मृत्यु के घर में जीवन

अगर आप से कोई पूछे कि आप मत्यु के बारे में क्या सोचते हैं और फ़िर आप से कहे कि आप की तस्वीर खींच कर उसे कब्रिस्तान में आप के मृत्यु के बारे में विचारों के साथ लगायेंगे तो क्या आप मान जायेंगे?

विरजिनिया ने मुझसे पूछा तो मैं तुरंत मान गया. लेकिन मेरे जान पहचान वाले कुछ लोग थोड़े से चकित हो गये. बोले कि क्या डर नहीं लगता कि अपशगुन हो जाये और तुम सचमुच कब्रिस्तान पहुँच जाओ? वहाँ तो तस्वीरें केवल मरने वालों की लगती हैं, तुम जीते जी वहाँ अपनी तस्वीर लगवाओगे, लोग क्या सोचेंगे?

विरजिनया कलाकार है, तस्वीरें खींचती है, पैंटिग बनाती है, कविता लिखती है.

मई के अंतिम सप्ताह में यूरोप कमिशन की तरफ़ से प्राचीन कब्रिस्तानों के बारे में जानकारी बढ़ाने का निर्णय किया गया है. इसी सिलसिले में पुराने कब्रिस्तानों के बारे में लोगों को जानकारी देने के लिए जब यूरोप कमिशन ने बोलोनिया के सबसे प्राचीन कब्रिस्तान चरतोज़ा को भी चुना, तो विरजिनिया को एक प्रदर्शनी बनाने का विचार आया कि विभिन्न देशों सभ्यताओं में लोग मृत्यु के बारे में क्या सोचते हैं इसके साक्षात्कार तैयार किये जायें. उनका यह विचार यूरोपियन कमिशन को पसंद आया. इसके लिए उन्होंने बारह देशों के लोगों से यह बात करने की सोची जिसमें भारत की ओर से मुझे अपने विचार कहने के लिए कहा गया. इसके अतिरिक्त, घुप अँधेरे में एक टार्च की रोशमी में सब लोगों की विशिष्ठ अंदाज़ में तस्वीरें खींची गयीं जिनसे लगे कि हम अँधेरे कूँएँ से बाहर निकल रहे हैं. इसके अतिरिक्त हर व्यक्ति से कहा गया कि अपने देश की भाषा में वहीं बाते कहे और उन्हें रिकार्ड किया गया.

इन सब तस्वीरों, शब्दों, आवाज़ों, विचारों को मिला कर चरतोज़ा के कब्रिस्तान में एक प्रदर्शनी लगायी जायेगी, जिसका उदघाटन 1 जून को होगा. प्रदर्शनी का नाम है "आत्मा की यात्रा" और प्रदर्शनी के पोस्टर से विरजिनया की ली हुई कागज़ की नाव की तस्वीर प्रस्तुत है.

Mostra Trasmigrazione di Virginia Farina, Bologna Certosa, giugno 2011

मैं नहीं मानता कि कब्रिस्तान में तस्वीर लगवाने से या मृत्यु की बात करने से, हम सब 12 लोगों के पीछे कोई भूत प्रेत पड़ जायेगा, या अपशगुनी होगी. बल्कि मैंने सोचा कि कितने लोगों की किस्मत होती है कि कब्रिस्तान में जीते जी अपनी तस्वीर देखें? जब यह मौका मिल रहा है तो उसे छोड़ना नहीं चाहिये. मरना तो सबने है ही एक दिन, इसके डर से हम लोग जीना तो नहीं छोड़ सकते!

चरतोज़ा का कब्रिस्तान मुझे बहुत प्रिय है, सुंदर प्राचीन मूर्तियों से भरा. यहाँ अधिकतर लोग कब्र में दफ़न होना पसंद करते हैं. कोई जो अपने प्रियजन के शरीर को बिजली के क्रेमाटोरियम में जलवा भी ले, उनकी भी राख को मटकी में भर कर, उसकी छोटी सी कब्र बना सकते हैं. लेकिन वहाँ पर एक बहुत सुन्दर खुली जगह भी है, जहाँ जो लोग चाहते हैं उनके परिवार वाले उनकी राख को खुले खेत में मिट्टी में मिला सकते हैं. बहुत सुन्दर जगह है, सामने चीड़ के पेड़ों से भरी पहाड़ी और एक नहर जहाँ छोटे बच्चे अक्सर बतखों को रोटी के टुकड़े खिलाते हैं.

प्रदर्शनी के चित्र तो जब लगेगी, तभी दिखा सकता हूँ. अभी प्रस्तुत हैं चरतोज़ा के कब्रिस्तान की मूर्तियों की कुछ तस्वीरें.

Certosa cemetry Bologna - images by Sunil Deepak

Certosa cemetry Bologna - images by Sunil Deepak

Certosa cemetry Bologna - images by Sunil Deepak

Certosa cemetry Bologna - images by Sunil Deepak

Certosa cemetry Bologna - images by Sunil Deepak

Certosa cemetry Bologna - images by Sunil Deepak

Certosa cemetry Bologna - images by Sunil Deepak


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रविवार, फ़रवरी 06, 2011

प्रेम निवेदन

हिन्दी फ़िल्मों के गानों में हमारे जीवन के सभी सुखों दुखों का हाल छिपा है. चाहे कोई भी मौका हो, मुंडन से ले कर मैंहदी तक, करवाचौथ से ले कर क्रियाकर्म तक, खाना बनाते समय सब्ज़ी जल गयी हो या काम पर जाते समय बस छूट गयी हो, प्रेयसी मिलने आये या दगा दे जाये, पापा गुस्सा हों या माँ ने मन पसंद खीर बनायी हो, कुछ भी मौका हो, बस उसका गीत मन में अपने आप आ जाता है. और चाहे उसे गायें या न गायें, मन में अपने आप ही गूँज जाता है. क्या आप को भी लगता है कि बिना इन गानों के जीवन का रस कुछ कम हो जायेगा?

और क्या आप के साथ कभी ऐसा हुआ है कि अचानक कोई गीत सुनते सुनते, अपने जीवन की वह बात समझ में आ जाती है जिस पर कभी ठीक से नहीं सोचा था? मेरे साथ यह अक्सर होता है.

अगले वर्ष मेरे विवाह को तीस साल हो जायेंगे. काम के लिए अक्सर देश विदेश घूमता भटकता रहता हूँ. इन्हीं यात्राओं से जुड़ी एक बात थी, जो अचानक "तनु वेड्स मनु" का एक गाना सुनते समय समझ आ गयी.

गाना के बोल लिखे हैं राजशेखर ने और गाया है मोहित चौहान ने . गाने के बोल हैं -
कितने दफ़े मुझको लगा
तेरे साथ उड़ते हुए
आसमानी दुकानो से ढूँढ़ के
पिघला दूँ यह चाँद मैं
तुम्हारे इन कानों में पहना ही दूँ
बूँदे बना
फ़िर यह मैं सोच लूँ समझेगी तू
जो मैं न कह सका
पर डरता हूँ कहीं
न यह तू पूछे कहीं
क्यों लाये हो ये यूँ ही
गाना सुना तो लगा कि वाह गीतकार ने सचमुच मेरे मन की बात को कैसे पकड़ लिया.

Design by sunil deepak

देश विदेश में घूमते समय कई बार कुछ दिख जाता है जो लगता है कि बहुत सुन्दर लगेगा मेरी पत्नि पर. पर साथ में मन में यह भी भाव होता है कि शायद वह बिना कहे ही समझ जायेगी वह बात जो कह नहीं पाता हूँ. पर अक्सर होता है कि वह मेरी भेंट देख कर नाक सिकोड़ लेती है, "यह क्या ले आये? बिल्कुल ऐसा ही तो पहले भी था." या फ़िर, "क्यों बेकार में पैसे खर्च करते हो, तुम्हे मालूम है कि मैं इस तरह की चीज़ें नहीं पहनती."

और मन छोटा सा हो जाता है. सोचता हूँ, यूँ ही बेकार खरीद लिया. आगे से नहीं खरीदूँगा. पर अगली यात्रा में फ़िर भूल जाता हूँ. प्रेम निवेदन कैसे हो? यह नहीं होता, शायद उम्र का दोष है. आजकल के जोड़े तो आपस में "लव" या "माई लव" करके बोलते हैं, पर मुझसे इस तरह नहीं बोला जाता.

हर बार आशा रहती है कि वह मेरे मन की बात को बिना कहे ही समझ जाये. कभी लगता है कि वह मेरे मन की बात को समझती ही है, उसमें भेंट लाने या न लाने से कुछ नहीं होता?

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रविवार, नवंबर 07, 2010

गिरगिट

सुबह तौलिये से सिर पौँछ रहा था तो अचानक हाथ में कुछ लिजलिजा सा लगा. घबरा कर देखा तो छोटा सा हरे रंग कर गिरगिट नीचे गिरा. डरा हुआ था बेचारा. जाने कैसे हमारी तीसरी मंजि़ल तक पहुँच गया था. सोचा कि उसे उठा कर बाहर छोड़ा जाये. उसे पकड़ा तो पहले तो उसने भागने की कोशिश नहीं की, पर थोड़ी देर में ही बचने की कोशिश में कसमसाने लगा. मैने पत्नी से कहा कि उसे उँगली से पकड़ कर रखे तो जल्दी से उसकी एक तस्वीर खींची जाये.

Lizard, Italy

यहाँ के गिरगिट भारतीय गिरगिटों से भिन्न लगते हैं. इनसे मिलता जुलता एक छोटा सा जन्तु दिल्ली में भी दिखता था जिसे हम लोग साँप की नानी कहते थे, जो एक जगह रुकता नहीं था, बहुत तेज़ी से निकल जाता था. यहाँ के यह हरे चितकबरे से गिरगिट बाहर बाग में बहुत बार देखे थे पर उनकी तस्वीरे लेने का मौका पहले नहीं मिला था.

गिरगिट की बात से मन में बचपन की एक भूली बिसरी याद उभर आयी. शायद पाँच या छः साल का था, कमरे में चारपाई पर लेटा था कि छत से एक छिपकली मेरे पेट पर गिरी. मैं डर के मारे उठा और काँपता हुआ माँ से लिपट गया था. फ़िर याद आयी बचपन में स्कूल में खेले जाने वाले खेल लँगड़ी टाँग की जिसमें मैं एक टाँग से बहुत तेज़ी से भागता था और लोग मुझे छिपकली कहते थे. तब था भी बहुत दुबला पतला, हड्डियाँ बाहर निकली हुई, छिपकली जैसा.

तब लोगों का मुझे छिपकली कहना अच्छा नहीं लगता था. अब मोटापे को कम करने की चिंता लगी रहती है और लगता है कि अगर पहले जैसा पतला हो सकूँ तो कितना अच्छा हो!

बचपन में मेरा एक और सपना था, पालतू गिरगिट पालने का. एक दो बार गिरगिट को पकड़ कर उसे धागे से बाँध कर पालतू बनाने की कोशिश भी की थी, लेकिन उसे खिलाने के लिए मक्खियाँ या कीड़े पकड़ना बहुत कठिन लगता था. बेचारा मुझे काटने की कोशिश करता, लेकिन छोटे गिरगिट के दाँत इतने तेज़ नहीं होते थे कि ठीक से काट सके. एक दो बार की कोशिश में ही, कुछ घँटों में गिरगिट को पालतू बनाने का भूत सर से उतर गया. लेकिन तब से गिरगिट का डर मन से निकल सा गया.

खैर आज छोटे गिरगिट से मुलाकात की खुशी में विभिन्न देशों से खींची गिरगिटों की कुछ तस्वीरें प्रस्तुत हैं -

यह पहली तस्वीर कुछ दिन पहले की है, नाईजीरिया की राजधानी अबूजा में जहाँ के गिरगिट, का सिर तो मुझे गिरगिट जैसा लगता है, पर नीचे वाला हिस्सा भारतीय छिपकली जैसा.

Lizard, Abuja Nigeria

यह दूसरी तस्वीर, दिल्ली के महरौली पुरात्तव बाग से एक गिरगिट की है.

Lizard, Mehrauli, Delhi, India

तीसरी तस्वीर में ब्राज़ील के पोर्तो नेस्योनाल शहर में बड़े गिरगिट जैसे गोह की है.

Iguana, Porto Nacional, Brazil

यह आखिरी तस्वीर है इतली के एक चिड़ियाघर में रँग बदलने वाले गिरगिट की जो हरी दीवार पर बिल्कुल हरा हो गया है.

Chameleon, Italy

क्या आप को गिरगिट अच्छे लगते हैं? क्या कभी आप ने किसी पालतू गिरगिट को देखा है? आप को मौका मिले तो क्या आप पालतू गिरगिट रखना चाहेंगे?

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शुक्रवार, अक्तूबर 01, 2010

अयोध्या के राम

आज आखिरकार अयोध्या के मुकदमें का फैसला हो ही गया. पिछले कई दिनों से चिन्ता हो रही थी कि क्या होगा, फ़िर से दंगे, मार पीट तो नहीं शुरु हो जायेंगे!

जब बबरी मस्जिद को ढाया गया था तब 1992 में इंटरनेट आदि कुछ नहीं था, इटली में उसका समाचार तक मुझे बहुत दिन के बाद मिला था, लेकिन उसके कुछ वर्ष बाद मैंने उसके कुछ परिणाम बम्बई में देखे थे, जब भिवँडी की झोपड़पट्टी में दंगों में हिंसा के शिकार परिवारों से मिला था. धर्म के नाम पर मासूमों की जान लेना, इससे बड़ा धर्म का अपमान क्या हो सकता है?

अयोध्या में राम जन्मभूमि और बाबरी मस्जिद के विवाद का क्या निवारण हो, इसमें मुझे उन सुझावों से कभी सहमति नहीं हुई जो वहाँ अस्पताल या विद्यालय बनाने की बात करते थे. इसलिए नहीं कि मुझे अस्पतालों या विद्यालयों की उपयोगिता की समझ नहीं. बात मेरे धार्मिक विचारों की भी नहीं है.

भारत के अन्य करोड़ों हिंदूओं की तरह, मेरे लिए भगवान का स्वरूप वो है जो गायत्री मंत्र में व्याख्यित किया जाता है, यानि भगवान जिसका न कोई आदि है न अंत, जो सर्वव्यापा, सर्वज्ञानी है, जिसका कोई रूप या आकार नहीं. इसलिए मेरी समझ उस भगवान को राम, कृष्ण या शिव के रूप में चिन्ह की तरह स्वीकार करती है, पर उसकी प्रार्थना के लिए मुझे किसी मंदिर या मूर्ति की आवश्यकता नहीं. हर धर्म में, चाहे वह ईसाई हो या मुसलमान, सिख या पारसी या बहायी, अंत में मुझे यही आध्यात्मिक सच दिखता है.

लेकिन मेरे विचार में भारत में मुझ जैसे आध्यात्मिक हिंदूओं से कहीं गुणा अधिक वह लोग हैं जिनके लिए राम ही भगवान का रूप हैं, उन्हीं में उनकी आस्था और विश्वास हैं. इस आस्था में सच क्या या झूठ क्या, इतिहास क्या कहता है या पुरातत्व क्या कहता है, उस सबका कुछ अर्थ नहीं. सभी धर्मों को मानने वाले अधिकतर ऐसे ही होते हैं. लोगों को इस बात का कोई वैज्ञानिक सबूत नहीं चाहिये कि जीसस ने सचमुच समुद्र को चीरा था या नहीं, या फ़िर पैगम्बर मुहम्मद ने सचमुच अल्ला की आवाज़ सुनी थी या नहीं, यह विज्ञान या तर्क का सवाल नहीं, आस्था का है, उनके लिए तो उनका पैगम्बर ही ईश्वर का दूत और पुत्र है.

करोड़ों लोगों के इसी विश्वास के बारे में सोच कर मेरे विचार में अयोध्या में उस जगह पर राम का मन्दिर बनाने देना चाहिये, क्योंकि अगर सोचूँ कि ईसाई जिस जगह पर मानते हैं कि येसू का जन्म हुआ था, या मसलमान मक्का और मदीना में जिन जगहों को अपने पैगम्बर से जुड़ा मानते हैं, उनसे उनके विश्वास को छीन कर, उस पर कुछ बनाने की बात कभी कोई नहीं कर सकता. तो राम को मानने वालों के साथ ही तर्क या विज्ञान और सबूत की बात क्यों की जाये?

बचपन में अपनी दादी से रामायण की बहुत कहानियाँ सुनता था. उन कहानियों के नायक राम न शबरी से भेदभाव करते थे न सरयू पार कराने वाले केवट से, उनके सबसे बड़े भक्त और स्वयं पूजे जाने वाले हनुमान तो वानर जाति के थे. उन कथाओं के राम क्या धर्मी, विधर्मी का भेद करेंगे? मेरे विचार में नहीं, वह तो सबको अपनायेंगे. इसलिए मेरा बस चलेगा तो उस राम के मन्दिर को सब धर्मों को लोग मिल कर बनवायेंगे और विश्व हिंदू परिषद, हिंदू महासभा, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ आदि सब राम मन्दिर बनवाना चाहने वाले दल मिल कर उस मन्दिर में बाबरी मस्जिद का कमरा भी बनायेगे, यूसू का गिरजा भी, नानक का गुरुद्वारा भी, यहूदियों का सिनागोग भी. घृणा और भेद भाव के बदले अगर अयोध्या के राम सब धर्मों को मान देंगे तभी सचमुच अयोध्या में वापस आयेंगे.

शुक्रवार, जून 18, 2010

फ़लों से झुका पेड़

बचपन में यह कहावत सुनी थी कि जिस पेड़ पर जितना फ़ल अधिक लगता है, वह उतना ही झुक जाता है. इस कहावत से यह शिक्षा दी जाती थी कि जीवन में जितना ऊपर उठो, उतने ही विनम्र बनो. लेकिन बहुत से बड़े लोगों को देख कर लग कि असल में तो ऊल्टा ही होता है, जो जितना ऊँचा चढ़ता है, उसके उतने ही नखरे, मानो भगवान ने उन्हें अलग बनाया हो और उनका होना भर ही सारी मानवता पर उपकार है.

लेकिन कुछ दिन पहले सचमुच ऐसे व्यक्ति से मिलने का मौका मिला जिसने इस कहावत को आत्मसार किया था, हालाँकि शायद उन्हें इस कहावत के बारे में कुछ मालूम न हो.

अमरीका से सम्बंधी आये थे, उन्हें शहर घुमा रहा था. हम लोग शहर के पुराने भाग में थे, अचानक मुझे अपने सामने से आते हुए इटली के पूर्व प्रधान मंत्री दिखे, श्री रोमानो प्रोदी. वह दो बार इटली के प्रधान मंत्री बने, 1996 से 1998 और फ़िर, 2006 से 2008 तक.

इटली के दूसरी बार प्रधान मंत्री होने से पहले, बीच में 1999 से 2004 तक वह यूरोप संसद के राष्ट्रपति भी रह चुके हैं. बहुत वर्ष पहले वह प्रधान मंत्री बनने से पहले, हमारे शहर में ही अर्थशास्त्र पढ़ाते थे. मैंने अखबार में पढ़ा तो था कि वह बिना सुरक्षा दल आदि के सामान्य रूप से घूमते हैं, लेकिन उन्हें इस तरह सामने देख कर मैं एक क्षण को हकबका गया. बिना कुछ सोचे तुरंत उनके सामने हाथ मिलाने के लिए बढ़ा दिया. उनके आस पास के लोग कुछ कहते उससे पहले ही, वह तुरंत मेरे पास आये, बड़ी आत्मीयता से मिले, बात की मानो पुराने मित्र हों. साथ तस्वीर भी खिंचवायी.

Sunil and Mr Romano Prodi, Bologna,. Italy


मेरे अमरीकी सम्बंधी भी दंग रह गये कि इतनी सरलता से वह सड़क के बीच में खड़े हमसे बात करते रहे. बोले ऐसा तो यहीं हो सकता है, भारत या अमरीका में नहीं. पर मेरे मन में भारतीय प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह की भी कुछ इसी तरह की तस्वीर है, लगता है कि सामान्य जीवन वह भी इसी तरह के होंगे. प्रोदी जी की तरह वह भी अर्थशास्त्री रहे हैं.

***

अगर फ़िर से शुरु होता?

कल सुबह कार पार्क कर रहा था तो अचानक मन में विचार आया, अगर यह जीवन फ़िर से शुरु करने का मौका मिले, एक बार फ़िर से बच्चा बन जाऊँ, तो क्या कौन सी बातें अपने इस जीवन की बदलना चाहूँगा? हरी भरी पहाड़ी के नीचे, सुंदर शांत जगह पर है यह कार पार्क, शायद इसीलिए वहाँ पर सुबह सुबह इस तरह के गम्भीर और महत्वपूर्ण विचार मन में आते हैं?

पिछले कुछ दिनों से मैं अमरीकी प्रोफेसर रेंडी पाउश (Randy Pausch) की किताब "द लास्ट लेक्चर" (The last lecture) पढ़ रहा था. शायद यह दोबारा जीवन शुरु करने वाली बात मन में अचानक उनकी किताब पढ़ने की वजह से ही आयी थी. उनके अमरीकी विश्वविद्यालय में इस तरह के भाषण देने का प्रचलन था कि प्रोफेसर से कहिये कि अगर आप को एक अंतिम बार विद्यार्थियों से बोलने का मौका मिले तो आप कौन सी बात कहना चाहेंगे? इन भाषणों को "अंतिम भाषण" कहा जाता है.

2007 में जब रेंडी से इस तरह का भाषण देने के लिए कहा गया था तो उनकी स्थिति कुछ भिन्न थी. कुछ ही महीने पहले उन्हें अपने शरीर में पनपते लाइलाज कैंसर होने की बात का पता चला था. डाक्टरों का कहना था कि उनके जीवन के कुछ महीने ही शेष बचे थे. पत्नी और तीन छोटे बच्चों का क्या होगा, इसकी चिंता भी थी उनके मन में.

फ़िर भी रेंडी ने इस भाषण को देना स्वीकार किया. उनका यह भाषण, इंटरनेट पर एक दूसरे से सुन कर, हज़ारों लोगों ने देखा, सुना और सराहा. इतना प्रसिद्ध हुआ उनका यह भाषण कि उसे किताब के रूप में भी छापा गया, जिसे मैंने भी पिछली भारत यात्रा में बँगलौर की एक दुकान में खरीदा था. रेंडी तो चले गये, लेकिन उनके इस भाषण की किताब ने उनकी पत्नी और तीन बच्चों को कुछ आमदनी भी दी. अगर आप चाहें तो रेंडी के इस भाषण को आप इंटरनेट पर भी सुन सकते हैं.

जो प्रश्न सुबह मेरे मन में उठा था, उस पर दिन में कई बार सोचा. बचपन से मुझे साहित्य, इतिहास, जैसे आर्ट विषयों में बहुत रुची थी, लेकिन जब विद्यालय में विषय चुनने का समय आया था तो मैंने विज्ञान के विषय चुने थे, जिसका प्रमुख कारण था कि उस समय मुझे लगता था कि इस रास्ते से अच्छी नौकरी मिलने और ठीक पैसा कमाने का मौका मिलेगा, साथ ही डाक्टरी से लोगों के काम भी आ सकूँगा. उस समय आज जैसी बात नहीं थी, तब इंजीनियर, डाक्टर या आई.ए.एस जैसे दो तीन काम छोड़ कर लगता था कि और कोई ढंग का काम नहीं होगा. जीवन में कई बार मन में आता रहा है कि अगर डाक्टरी न कर के कुछ साहित्य संम्बधी किया होता तो शायद मन को अधिक संतोष मिलता. तो क्या अगर जीवन दोबारा से शुरु किया जा सके तो इस बार साहित्य को चुनूँगा, इस बात पर देर तक सोचता रहा.

बहुत सोच कर इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि नहीं मैं इस तरह की कोई बात अपने जीवन में नहीं बदलना चाहूँगा, अगर जीवन दोबारा शुरु करने का मौका मिले, तो सब कुछ फ़िर से वैसा ही करूँगा जैसा इस बार किया था.

हाँ कुछ बातें हैं जिन्हें अगर मौका मिल पाता तो अवश्य बदलता. तीस साल पहले मेरे एक प्रिय मित्र ने आत्महत्या की थी. उसने मुझे बहुत संकेत दिये थे, लेकिन मैं उन्हें समझ नहीं पाया था, उसकी बात को गम्भीरता से नहीं लिया था. दोबारा मौका मिले तो उसे अकेला नहीं छोड़ूँगा, उसे रोक लूँगा.

कितनी बार छोटी छोटी बातों पर गुस्सा किया है, अपनों के मन को दुखाया है. दोबारा मौका मिले तो यह मागूँगा कि भगवान मुझे इतनी समझ दे कि उनका मन न दुखाऊँ. बस इसी तरह की बातें मन में आयीं, लेकिन अपने जीवन के किसी भी महत्वपूर्ण निर्णय को बदलने का बात मुझे ठीक नहीं लगी.

कुछ कुछ रेंडी जैसी बात एडम सेवेज (Adam Savage) ने भी की है, अपने आलेख "फूड फार द ईगल" (Food for the eagle) में. धर्म में या ईश्वर में वह विश्वास नहीं करते. कहते हैं कि अगर विश्वास ही करना हो तो कार्लस कास्टानेडा जैसे लेखकों के बनाये मिथकों में किया जा सकता है. वह बात करते हैं कास्टानेडा (Carlos Castaneda) की किताब "द ईगल्स गिफ्ट" (The eagle's gift) की, जिसमें आध्यात्मिक गुरु दान जुआन (Don Juan) अंत में अपने शिष्य को बताते हैं कि जीवन का और कुछ ध्येय नहीं, जितने साल का भी जीवन मिलेगा, उसके बाद गरुड़ आप की संज्ञा को ले कर खा जायेगा, आत्मसात कर लेगा. इस लिए जीवन में अपनी संज्ञा को जितना ज्ञान और अनुभव दे कर उसे बढ़ा सको उतना ही अच्छा ताकि अंत में तब आप की संज्ञा गरुण से मिले तो उसे भी आनंद मिले.

शायद हम सब को जीवन क्या है और क्यों है इसका कोई उत्तर चाहिये होता है, विषेशकर जब अपने किसी प्रियजनों को खो बैठते हैं. बहुत सालों से मेरी प्रिय पुस्तक है कठोपानिषद, जिसमें कहानी है नचिकेता की, जो पिता की आज्ञा को मान कर यम के पास चले जाते हैं और यम से जीवन और मृत्यु के बारे में समझाने के लिए कहते हैं. मेरा विश्वास इसी पुस्तक से बना है, कठोपानिषद से. मुझे जैसा समझ आया वह कास्तानेदा के गुरु वाली बात ही है. यानि, मुझे भी यही विश्वास है कि जो संज्ञा संसार के कण कण में बसी है, वही भगवान है, और जीवन का ध्येय जितने अनुभव, जितना ज्ञान पा सकें, उसे प्राप्त करना ही है, जीवन समाप्त होगा तो इसी सर्वव्याप्त संज्ञा में हम घुलमिल जायेंगे.

कभी कभी इस तरह की किताब या आलेख पढ़ते रहना अच्छा लगता है ताकि जीवन में क्या आवश्यक है, क्या महत्वपूर्ण है उसका ध्यान बना रहे, छोटी मोटी बातों की चिंता में जीवन को व्यर्थ न करें. आप क्या सोचते हैं कि जीवन का ध्येय क्या है? आप को अपना जीवन फ़िर से जीने को मिले तो क्या बदलना चाहेंगे? और कोई आप से कहे कि आप अपना अंतिम भाषण दीजिये तो आप क्या कहना चाहेंगे?

रविवार, मार्च 21, 2010

स्मृति शेष

18 फरवरी 2010 को सुबह सात बज कर दस मिनट पर माँ ने अंतिम साँस ली. कुछ दिन पहले ही मालूम हो गया था कि उनके जाने का समय आ रहा था. एक तरफ़ मन चाहता था कि वह हमेशा हमारे साथ रहें, दूसरी ओर सारे जीवन की उनकी शिक्षा थी कि तड़प तड़प कर जीना, कोई जीना नहीं और यह भी जानते थे अगर वह स्वयं निर्णय ले पाती तो शायद इससे बहुत पहले ही चली गयीं होतीं.

Mrs. Kamala Deepak
पिछले दस सालों से धीरे धीरे उनकी यादाश्त जा रही थी. पिछले वर्ष जून में दिल्ली में उनके पास रहा था अपनी छोटी बहन के घर जहाँ वह पिछले कई सालों से रह रही थीं. उन्हें घर के कम्पाऊँड में घूमाने ले गया था. अचानक वह मेरी ओर मुड़ कर बोली थीं, "भाई साहब, आप मेरे इतना साथ साथ क्यों चल रहे हैं?" यानि बीच बीच मुझे भी नहीं पहचान पाती थीं. पिछले चार पांच महीनों से उनका बोलना अधिकतर समझ में नहीं आता है, शब्द, वा्कय, अर्थ सब गुड़मुड़ हो गये थे.

उन दिनों रात को उनके साथ ही बिस्तर पर सोता था, उनका हाथ पकड़ कर सहलाता रहता या छोटे बच्चे की तरह उनसे लिपट जाता. सारी उम्र कठिनाईयों से लड़ने वाली माँ चमड़ी में लिपटी हड्डियों का ढाँचा रह गयी थी, लगता कि ज़ोर से दबाओ तो चटख जायेंगी.

रात को वह कई बार उठती और मुझे भी जगा देतीं. एक रात को उन्होंने चार पाँच बार जगाया. समझा बुझा कर हर बार उन्हें दोबारा सुला देता. सुबह चार बजे के करीब जब उन्होंने फ़िर जगाया तो मैंने नींद में ही उनसे कुछ गुस्से से कहा कि माँ बहुत नींद आ रही है, मुझे सोने दो, तो रोने लगीं. अचानक उनकी समझ कुछ देर के लिए लौट आयी थी, कातर हो कर बोलीं कि इस तरह का जीना मरने से बदतर है. फ़िर कहा, "तू तो डाक्टर है, मुझे कुछ दवा दे कर सुला नहीं सकता कि इस नर्क से छुटकारा मिले?" उनके साथ साथ मैं भी रो पड़ा था. कुछ देर में ही वह सब कुछ भूल कर फ़िर से सो गयीं थीं.

8 फरवरी को चीन में था, जब रात को माँ के बारे में बुरा सपना देखा. दिल घबराया तो रात को उठ कर छोटी बहन को ईमेल लिखी और माँ का हाल पूछा. बहन का उत्तर थोड़ी देर में ही आ गया, माँ होश में नहीं थीं और उन्हें अस्पताल में इनटेंसिव केयर में रखा गया था. अगले दिन ही भारत आने की उड़ान खोजी. दिल्ली पहुँचा तो अस्पताल में डाक्टर बोले कि कुछ और नहीं हो सकता था तो सोचा कि अगर कुछ नहीं हो सकता तो माँ को घर ले जा कर स्वयं ही उनके आखिरी दिनों की देखभाल करूँ. कम से कम घर के सब लोग साथ तो रह सकेंगे, अस्पताल में तो किसी को पास नहीं जाने देते.

करीब तीस साल पहले कुछ समय इनटेंसिव केयर में काम किया था, सोचा जितनी देखभाल करनी चाहिये, वह करनी तो मुझे आती है. घर ला कर सब इंतज़ाम किया. नाक से पेट में ट्यूब जिससे खाना दिया जाये, इंट्रावीनस ड्रिप दवाई देने के लिए, पिशाब के लिए केथेटर. माँ की पीठ पर घाव बन गया था, बाँहें और टाँगें दर्द से जुड़ी अकड़ गयी थीं जिन पर खून के गट्ठे बन गये थे, बेहोशी में भी दिन रात पीड़ा से कराह रही थीं. बार बार माँ के शब्द मन में आते कि मुझे तड़प तड़प कर मत मरने देना, ऐसी दवा देना कि आराम से चली जाऊँ. मेरे अंदर का डाक्टर कैसे क्या दवाई दी जाये, कैसे करवट बदलायी जाये, कब क्या खाने को दिया जाये सोचता था. अंदर का बेटा माँ के जाने का सोच कर द्रवित हो उठता. कई बार मन में आता कि इस तरह के इलाज से माँ की तड़प को और भी लम्बा कर रहा था. लगता कि माँ मुझसे चिरनिंद्रा की दवा माँग रही हों, दर्द से मुक्ति मांग रही हो, पर मुझमें इतनी ताकत नहीं थी कि माँ की यह इच्छा पूरी कर पाता.

माँ के जाने के बाद उनकी डायरियाँ पढ़ रहा हूँ. डायरी वाली माँ, मेरी यादों वाली माँ से अलग लगती है. बाहर से बहादुर, निडर दिखने वाली माँ, अपने डरों को सिर्फ़ डायरी को ही कह पाती थी. डायरी में अतीत के बहुत से लोगों की कहानियाँ और बातें हैं, लोहिया की समाजवादी पार्टी की बातें, भारत के पहले प्रधान मंत्री नेहरू की बातें, भारत पाकिस्तान विभाजन की बातें, पिता के मित्रों लेखकों कवियों की बातें, अपने अकेलेपन की बातें -

... पाकिस्तान से आये तो दिल्ली में माडलबस्ती शीदीपुरा में एक मुसलमान के खाली घर में हमें शरण मिली, घर आधा जला हुआ था. मैं मृदुला साराभाई के शान्ती दल में काम करने लगी, घूम घूम कर मुसलमान लड़कियों को खोजते और उन्हें बचा कर उनके परिवारों में भेजते. तब अरुणा आसिफ़ अली, सुभद्रा जोशी आदि से भी भेंट हुई. कमला देवी चट्टोपाध्याय से रिफ्यूज़ी सेंटर में मिली. शाम को गाँधी जी की प्रार्थना सभा में जाते.

पहले मुझे तीन महीने सोशलिस्ट पार्टी के केंद्रीय दफ्तर में बाड़ा हिंदुराव में हिंदी टाईपिंग का काम मिला, वहाँ जे. स्वामीनाथन, सूरजप्रकाश, कश्यप भार्गव और दीपक जी से मिली. चमनलाल भी मित्र थे जिन्होंने फैज़रोड पर एक मुसलमान के खाली घर में स्कूल खोला तो मैं, कश्पी, दीपक और विमला जो बाद में चमन की पत्नी बनी, वहाँ स्कूल में काम करते और मेरे तीन भाई और एक बहन वहाँ पढ़ने लगे. मुझे 40 रुपये तन्ख्वाह मिलती जिसमें से 20 रुपये अपने भाई बहन की फ़ीस में दे देती. छः मास वहाँ काम किया...

.. 1949 में जब लोहिया नेपाल आंदोलन के संदर्भ में जेल से छूटे तो औखला में एक पार्टी दी गयी. मैं भी वहाँ थी. और मेरे साथ एक युगोस्लाविया की लड़की मलाडा कलाबावा भी थी जो लोहिया के यहां ही रह रही थी, बारहखम्बा रोड में पदमसिंह के यहां. आयु उसकी उस समय 23-24 की होगी. लड़की बहुत ही अच्छी थी. लोहिया की दोस्त थी. हम दोनो नहर के किनारे बैठे बात कर रहे थे. वह हिंदी जानती थी.

तभी एक टोकरी में पांच छः आम लिए लोहिया हमारे पास आ कर बैठ गये कि अरे तुम लोग यहां बैठी हो और सब आम खत्म हो गये हैं. इतने स्नेह से वह दे रहे थे कि मेरी आँखों में पानी भर आया. तो बोले, पीठ थपथपा कर, जल्दी से खालो. मुझे आम अधिक अच्छा नहीं लगता था फ़िर भी मैंने हाथ में लिया. तभी कश्पी, सूरज और दीपक तीनो आ गये, बोले कि यह तो बहुत ज्यादती है कि तुम दोनो सब आम खाओगी और हम देखते रहेंगे. मैंने मलाडा से कहा कि तुम ले लो और बाकी उन्हें दे दो और अपने हाथ वाला आम भी उन्हें दे दिया. मलाडा ने मेरी शिकायत लोहिया से की तो वह बहुत नाराज़ हुए कि मैंने तुम्हें बाँटने को नहीं दिये थे. मैंने माफ़ी माँग ली तो खिलखिला कर हँस पड़े. साथ ही कहा कि बहादुर तो तुम हो लेकिन समझदार नहीं हो...

..जब नेहरू की सरकार बनी तो लेजेस्लेटिव असेम्बली में संसद भवन में काम करना शुरु किया. तब सिद्धवा, दादा धर्माधिकारी, शाहनवाज़, पूर्णिमा बैनर्जी, मदनमोहन चतुर्वेदी आदि से पहचान हुई. मौलाना आज़ाद तब शिक्षा मंत्री थे, मसूद उनका पी.ए. था, मुझे उनके साथ काम मिलता. काम बहुत था और देर तक रुकना पड़ता था. मैं साईकल से आती जाती थी, रात को लौटती तो बिल्कुल सुनसान होता, रात के ग्यारह बारह भी बज जाते थे. वहाँ एक दक्षिण भारतीय अफसर था जिसने मुझे तंग करना शुरु कर दिया, उल्टी सीधी अटपट बातें करने लगा. तो मैं पंडित नेहरु के पास गयी जो मुझे मृदुला बहन के समय से जानते थे और मुझे बहादुर बेटी के नाम से पुकारते थे क्योंकि मैंने एक बार शान्ति दल में एक मुसलमान लड़की को भीड़ से बचाया था. तब मैं कभी भी तीन मूर्ती भवन के अंदर आ जा सकती थी.

मैंने पंडित जी को कहा कि मुझे असेम्बली से घर जाने में बहुत देर हो जाती है और अकेले घर जाने में डर लगता है. तो वह बोले तुम बहादुर लड़की हो, डर कैसा. मैंने कहा कि मुझे दरियागंज में नयी खुली टीचर्स इंस्टिट्यूट में भेज दीजिये, अभी तो ट्रेनिंग शुरु हुए दो महीने ही हुए हैं, मैं वह पूरा कर लूँगी. मौलाना आज़ाद के पी.ए. मसूद साहब मुझे फार्म दे गये, बस मैं संसद का काम छोड़ कर बेसिक टीचर्स ट्रैंनिग में चली गयी, जहाँ तीस रुपये महीने का वज़ीफ़ा मिलता था. एक साल बाद ट्रेनिंग पूरी हुई, मुझे दिल्ली के नवादा गाँव के स्कूल में नौकरी मिल गयी...

कितनी बातें जीवन की, कुछ भी नहीं रहता. बस यही लिखे कागज़ बचे हैं और यादें.

सोमवार, नवंबर 09, 2009

चुप्पी का झूठ

विकास, विश्वीकरण, उदारवाद एवं पश्चिमी उपनिवेशवाद जैसे विषयों पर लिखने बोलने वाले भारतीय विचारक, श्री यश टँडन के एक लेख में रूसी कवि येवतूशेंको की एक बात का ज़िक्र है. येवतूशेंको ने कहा, "जब सच की जगह चुप्पी ले लेती है, वह चुप्पी एक झूठ है". येवतूशेंको का प्रश्न उनसे था जिन्हें मालूम था कि क्या हो रहा है लेकिन वह लोग चुप रहे.

इस बात को देर तक सोचता रहा. कितनी बार ऐसा होता है कि रिश्तों की वजह से, जान पहचान की वजह से, किसी का दिल न दुखे यह सोच कर, या फ़िर भविष्य में होने वाले किसी फायदे का सोच कर, कितनी बार गलत बात को जान कर भी, मैं चुप रहना ही पसंद करता हूँ, इसलिए भी कि झूठ बोलने की वजाय चुप रहना अधिक नैतिक लगता है.

पर मित्रता तथा पारिवारिक रिश्तों में "सच" बोलने का अर्थ क्या उन रिश्तों में कड़वाहट नहीं भर देगा? शायद येवतूशेंको की बात तभी महत्वपूर्ण है जब ताकतवर लोग या संस्थाएँ लोगों के साथ अन्याय करते हैं, उसके सामने चुप नहीं रहना चाहिये, आम जीवन में बिना चुप्पी के रहना बहुत कठिन होगा?

मंगलवार, सितंबर 29, 2009

क्षमता की सोच

बचपन से ही जाने किन बातों की वजह से मेरे मन में जो अपनी छवि बनी थी उसमें हाथों से कुछ भी काम न कर पाने की भावना थी. यानि सोचने विचारने वाले काम कर सकता था, लिख पढ़ सकता था पर बत्ती का फ्यूज़ उड़ा हो या साईकल का पंक्चर ठीक करना हो, तो मेरे बस की बात नहीं. समय के साथ, यही सोच तकनीकी विषयों के बारे में भी होने लगी. यानि गणित हो, या केलकुलस या ईंजीनियरिंग से जुड़ी कोई बात, यह सब अपनी समझ से बाहर थीं.

पहली बार कम्प्यूटर शायद 1988 या 1989 में देखा तो सोचा कि भैया यह तो अपने बस की बात नहीं लगती. तब ईलैक्ट्रोनिक टाईपराईटर से भी मुझे दिक्कत होती थी, टेलेक्स का उपयोग बहुत दूभर सा लगता था. दो तीन साल तक मैं कम्प्यूटर के करीब नहीं गया. मुझे मेरे साथ काम करने वाले बहुत लोगों ने कहा कि कम्प्यूटर से कुछ लिखना टाईपराईटर से अधिक आसान है पर मैं कहता कि मुझे टाईपराईटर की टिप टिप ही पसंद है. फ़िर हमारे दफ्तरवालों नें कम्प्यूटर से लिखने के प्रोग्राम वर्डस्टार का कोर्स का आयोजन किया और कहा कि मुझे उसमें भाग लेना ही पड़ेगा. तब पहली बार कम्प्यूटर को छुआ. तब लगा कि भाई इतना कठिन तो नहीं था, बल्कि आसान ही था.

1992-93 की बात है कि जब ईमेल का प्रयोग होने लगा था. मुझे भी कहा गया कि ईमेल के कोर्स में भाग लूँ, तो मैंने मना कर दिया. कहा कि सैकरेट्री सीख लेगी, मुझसे यह नयी नयी तकनीकें नहीं सीखी जातीं. तब आज के कम्प्यूटरों वाली बात नहीं थी, डास पर कैसे डायरेक्टरी देखी जाये, फारमेट की जाये, कोपी की जाये, सब याद करना पड़ता था.

बदलाव आया 1994 में जब अमरीका में इंटरनेट देखा, जाना कि लोग ईमेल से हर दिन भारत के समाचार पढ़ सकते थे. वापस इटली आये तो ईमेल इंटरनेट के बारे में सीखा भी, घर के लिए भी कम्प्यूटर लिया और इंडिया मेलिंग लिस्ट से भारत के समाचार पाने लगे.

उसके बाद का बड़ा बदलाव आया 2001 के पास जब अपनी बेवसाईट बनाने की सोची. हाँ, न करते करते कई महीने निकल गये, धीरे धीरे एच टी एम एल भाषा को सीखा और सृजन नाम से बेवसाईट बनी जो बाद में कल्पना में बदल गयी. 2005 में इँटरनेट के माध्यम से बने मित्रों ने, विषेशकर देबू ने ब्लाग बनाने में सहायता की, तो वे भी बन गये. धीरे धीरे कल्पना के पृष्ठ फैलते बढ़ते गये.

अब पिछले एक साल से परेशान हूँ. एच टी एम एल से कल्पना के नये पृष्ठ बनाना, कुछ भी बदलाव करना हो तो इतना समय लग जाता है कि कुछ अन्य करने का समय ही नहीं मिलता. जानकार लोग बोले, "यार तुम सी एस एस का प्रयोग क्यों नहीं करते? या फ़िर जुमला या वर्डप्रेस से कल्पना को चलाओ." देबू और पंकज ने कुछ सलाह दीं. पर मन में वही बात आ जाती कि जाने मुझसे होगा या नहीं, यह नयी तकनीकें कैसे सीखूँगा? अपनी अक्षमता की बात के साथ मन में उम्र की बात भी जुड़ गयी है कि भैया अब अपनी उम्र देखो, अब नयी बातें सीखना उतना आसान नहीं.

खैर न न करते करते भी, सी एस एस पढ़ने लगा हूँ. शुरु शुरु में लगा कि यह तो अपनी समझ से बाहर की बात है, पर अब लगता है कि धीरे धीरे आ ही जायेगी. इसी चक्कर में इधर उधर जुमला, वर्डप्रेस आदि के बारे में कुछ जानकारी ली, तो सोचा कि सबसे आसान काम है इस चिट्ठे को बदलना. कल्पना पर जिस टेम्पलेट पर यह चल रहा है, वह 2006 में बना था, तबसे ब्लाग चलाने की तकनीकों में बदलाव आ गया है और चार सालों में लिखीं 396 पोस्ट के भार से बेचारा दबा हुआ है कि नयी पोस्ट जोड़ना कठिन हो गया है.

इसलिए यह इस चिट्ठे की आखिरी पोस्ट है. इसके बाद सभी पोस्ट "जो न कह सके" के नये चिट्ठे पर ही होंगी.



31 अक्टूबर 2009: सोचा तो यही था, वर्डप्रेस पर नया चिट्ठा भी बनाया था, लेकिन फ़िर एक मित्र ने पुराने चिट्ठे को नये ब्लागर टेम्पलेट पर लगाने का तरीका सिखाया. एक बार फ़िर लगा, अरे इतना कठिन तो नहीं था, अगर थोड़ी मेहनत करता तो शायद अपने आप ही समझ में आ जाता. खैर, देर आये पर दुरस्त आये,  और लौट कर बुद्धू वापस पुराने चिट्ठे पर आ गये. यानि "जो न कह सके" कहीं नहीं गये, जहाँ थे, वहीं रहेंगे.

लोग कहते थे कि वर्डप्रेस बहुत बढ़िया है, अवश्य होगा, पर मुझे शुरु से ब्लागर की आदत बनी थी, अब लगता है कि अपने लिये यही ठीक है!


शुक्रवार, जुलाई 17, 2009

रिश्ते

करीब तीस साल पहले की बात है, तब मैं उत्तरी इटली के एक अस्पताल में ट्रेनिंग ले रहा था. अस्पताल में साथ काम करने वाली अन्ना मुझे बहुत अच्छी लगती थी. जल्दी ही उससे दोस्ती हो गयी, अक्सर शाम को उसके घर जाता. अन्ना की दस साल की बेटी थी जूलिया और उसका पहले पति, यानि जूलिया के पिता से तलाक हो चुका था. अन्ना तब एक युवक से साथ बिना विवाह के रहती थी. अन्ना के साथी से मेरी कभी कोई विषेश बात नहीं हुई और आज उसका नाम भी याद नहीं. शाम को उसके घर के बाग में बैठ कर, कई बार अन्ना से मेरी लम्बी बातचीत और बहस होती.

जैसे कि एक बार बात शादी की हुई तो उसने पूछा कि भारत में कैसे युवक युवतियाँ परिवार के पसंद किये हुए जीवनसाथी से विवाह को मान जाते हैं? उसे यह बात समझ में नहीं आती, उसे लगता कि यह तो युवक और युवती दोनों के साथ अन्याय है. जब आप किसी संस्कृति में पले बड़े हुए हों तो कई बातें आप को स्वाभाविक लग सकती हैं, लेकिन जब कोई उनके बारे में प्रश्न पूछता है तो आप उस स्वाभाविक लगने वाली बातों के छुपे पहलुओं के बारे में सोचने को विवश हो जाते हैं.

इस तरह अन्ना से हुई बहसों ने मुझे मन ही मन में स्वाभाविक लगने वाली कई बातों पर सोचने का मौका दिया. अन्ना से सिर ढकने, शरीर ढकने के बारे में एक बार बात हुई तो वह बोली कि इटली में और यूरोप में सभी लड़कियाँ और स्त्रियाँ बदन दिखाती हैं तो क्या इसका अर्थ है कि यहाँ के लड़कों और पुरुषों में अधिक सभ्यता है, कि वह लड़कियों को नहीं छेड़ते? उसका तर्क था कि बात यह नहीं कि यूरोपीय पुरुष, एशिया या अरब देशों के पुरुषों से अधिक सभ्य हैं बल्कि फर्क है कि यहाँ का समाज इस तरह के व्यवहार को पुरुषों के पिछड़ेपन की तरह से देखता है, उसे सामाजिक स्वीकृति नहीं है और कानून ऐसे मामलों में सख्ती से आता है. कुछ दिन पहले एक पत्रिका में बुर्का पहनने के बारे में तर्क दिया जा रहा था कि इससे औरतें अधिक सुरक्षित महसूस करती हैं तो अन्ना की कही वही बात मन में आ गयी.

मध्यमवर्ग में पला बड़ा हुआ, मुझे अन्ना की उन्मुक्ता बहुत आकर्षित करती. उसका गर्मियों में छोटे छोटे कपड़े पहनना, खुल कर हँसना, देर रात तक बाहर साथ घूमना, उसका बिना विवाह के अपने साथी के साथ रहना, उसका सेक्स के बारे में बेझिझक बात करना.

मेरी ट्रेनिंग समाप्त हुई, शहर बदला और अन्ना से सम्पर्क छूट गया. करीब एक साल बाद, टेलीफोन पर बात हुई तो उसने बताया कि उसने अपने साथी से, जिसके साथ कई सालों से रह रही थी, विवाह करने का फैसला किया था. फ़िर बहुत समय तक कोई सम्पर्क नहीं हुआ और करीब दो साल बाद, एक अन्य पुराना मित्र मिला जिसने बताया कि विवाह के एक साल बाद ही, अन्ना और उनके दूसरे पति ने तलाक ले लिया था. वह दोनों तो अनजान नहीं थे, शादी से पहले छह या सात साल साथ रहे थे. इतने साल साथ रह कर भी क्या वह एक दोनो को ठीक से नहीं पहचान पाये थे, मेरे मन में इस तरह के बहुत प्रश्न उठे. जूलिया का सोच कर बुरा भी लगा.

अभी कुछ समय पहले अमरीकी पारिवारिक मनोविज्ञान की पत्रिका (Journal of Family Psychology) में एक शौध के बारे में पढ़ा जिसमें यह निष्कर्श निकला है कि पहले बिना शादी के साथ रहने वाले युगल जब विवाह करते हें तो उनमें असंतोष तथा तलाक अधिक होते हैं, तो अन्ना की शादी की बात याद आ गयी. शौध करने वालों का कहना है कि कई बार साथ रहने वाले युगल विवाह के बारे में ठीक से नहीं सोचते, बस चूँकि साथ रह रहे हैं तो चलो शादी भी करलो यहीं सोच कर विवाह करते हैं पर मन में इस बात को स्पष्ट नहीं करते कि विवाह किस लिये, क्या बदलेगा, और इस तरह जल्दी शादी से असंतुष्ट हो जाते हैं. बिना विवाह के साथ रहने वाले क्या विवाह करके बदल जाते हैं?

शायद बात मन में विवाह के प्रति बने विचारों की, निष्ठा की भी है?

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समाचार पत्र में पढ़ा कि जर्मनी में बर्लिन के एक वेश्याघर ने बदलते पर्यावरण की रक्षा के लिये नया कदम उठाया है. अगर आप वेश्याघर में कार के बजाय साईकल या जन यातायात जैसे कि बस से जायें तो वेश्याघर आप को 5 प्रतिशत की छूट देगा. इस वेश्याघर के मालिक का कहना है कि इस बात से उन्हें मुफ्त की प्रसिद्धी मिलेगी ही, पर्यावरण की रक्षा भी होगी. वेश्याघर के रेट पहले से पक्के हैं, 45 मिनट के सत्तर यूरो (करीब 4,200 रुपये).

यानि पत्नी से उकताए पुरुष अब यह कह सकते हैं कि वह तो वेश्याघर समाजसेवा की भावना से पर्यावरण को बचाने के लिए गये थे. अब आवश्यकता है कि पुरुष वेश्याओं वाले वेश्याघर भी कुछ इसी तरह का काम करे ताकि पत्नियाँ भी पर्यावरण को बचाने में समाजसेवा कर सकें और पतियों को सहयोग दे सकें!

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पति पत्नी की बातें, एक दूसरे को न समझ पाने की उल्झनें, और झगड़े. इस विषय पर चीनी कवि वांग जिंगझी (Wang Jingzhi) की एक प्रेम कविता मुझे बहुत संदर लगती है, जो 1995 में छपी थी जब वह 93 साल के थे. कविता छपने के एक वर्ष बाद उनका देहांत हो गया. 1922 में वांग अपनी प्रेम कविताओं के लिए प्रसिद्ध हो गये थे क्योंकि वह उन्मुक्त प्यार की बात करते थे और चीनी पारम्परिक मान्यताओं को ललकारते थे. 1925 में क्म्यूनिस्ट पार्टी का सदस्य बनने के बाद उन्होंने कविता लिखना छोड़ दिया था और दोबारा कविता लेखन वृद्ध हो कर किया. उनकी एक कविता की यह पक्तियाँ देखियेः

"कल रात मैंने तुम्हारी चिट्ठी का सपना देखा
जिसे मैं समझ नहीं पा रहा था, बस एक ही शब्द, "प्रेम" समझ में आ रहा था,
आशा करता हूँ कि आगे से मेरे सपने में अधिक स्पष्ट करके लिखोगी."

यानि, प्रेयसी, सच में तो तुमसे यह अपेक्षा नहीं कर सकता कि हम एक दूसरे से बात करें, और शायद आमने सामने एक दूसरे की बात को सुनना कठिन भी है, जाने कितनी बीती बातें बीच में टाँग अड़ाने आ जाती हैं. तो कम से कम सपने में कुछ समझने की आशा की जा सकती है!


सोमवार, जून 22, 2009

अतीत का मूल्यांकन

"आप मेरे साथ क्यों चल रहे हैं?" मां ने अचानक मुझसे पूछा. बात कम ही करतीं हैं आजकल माँ, और जब करती भी हैं तो इस तरह कि बात अधिकतर समझ नहीं आती. एक तो उनकी आवाज़ इतनी धीमी हो गयी है कि समझने के लिए बहुत ध्यान से सुनना पड़ता है. उस पर से उनके शब्द गड़मड़ हो गये हैं, पुरानी ऊन के गोले की तरह, एक दूसरे से चिपटे हुए, कहना कुछ चाहती हैं, पर मुख से कुछ और ही निकलता है और वह भी अधूरा.

"मां, आप का बेटा हूँ तो आप के ही साथ चलूँगा, और किसी की मां के साथ तो नहीं जा सकता?", मैंने कहा तो उन्होंने उत्तर नहीं दिया पर लगा कि वह कुछ अश्वस्त हो गयीं हों.

हम लोग जहाँ रहते हैं वहीं कम्पाऊँड में सैर कर रहे थे. घर के आसपास की सैर या फ़िर सब्ज़ी खरीदने के अलावा घर से बाहर नहीं निकलता, और अगर कोई मिलने वाला मित्र या रिश्तेदार न हो, तो सब समय पढ़ने में ही गुज़रता है. शायद इसी लिए अपने परिवार के अतीत से जुड़ी बातें अक्सर मन में आ जाती हैं, जिनके बारे में अक्सर सोचता रहता हूँ. चूँकि कोई अन्य नहीं जिनसे बात कर सकूँ, बहुत से प्रश्न और उत्तर मन में अपने आप उठ कर, अपने आप ही शांत हो जाते हैं.

सोचता हूँ कि मानव कैसा बना है कि उसे लगता है कि उसका जीवन का कुछ महत्व है. वह सोचता है कि जो वह लिखता है, जो वह सोचता है, उस सबका कुछ महत्व है. पर वही मानव अगर रुक कर सोचे तो पायेगा कि पृथ्वी पर जीवन के विकास के इतिहास में उसका स्थान कितना छोटा सा है, और एक किसी मानव के जीवन का, उसके सोचने और लिखने का, उसके जीवन का प्रभाव अगर समय की लम्बी दृष्टि से देखा जाये तो नगण्य से भी छोटा होगा. लेकिन फिर भी आज के युग में अखबार, टीवी, रेडियो, पत्रिकाँए, आदि छोटी छोटी बातों को ले कर इस तरह सारा दिन बार बार दौहराती रहती हैं, मानो जग हिला देने वाली घटना हुई हो. लेकिन इन सबको स्वयं भी अपने इस झूठ मूठ के गढ़े जाने वाले इतिहास पर विश्वास नहीं, इसीलिए अगले दिन उन जग हिला देने वाली घटनाओं को भूल कर, किसी अन्य बात पर उसी तरह का तूफ़ान गढ़ने में जुट जातीं हैं. रुक कर, सोच कर, समझ कर कुछ भी कहने सुनने की बात नहीं होती, या बहुत कम होती है.

पैसा, बेचना, कमाना, आदि ही आज के जीवन के सर्वव्यापी गुण हैं, और इस बाज़ार युग में रुक कर, सोच समझ कर की जाने वाली बात को सुनने का समय भी किसी के पास नहीं है.
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सोच रहा था कि इतिहास कैसे बनता है? पिछले कुछ दशकों में, पहले पत्रों, किताबों और पत्रिकाओं के जनाकरण से, और फ़िर तस्वीरों, चलचित्रों से, और अब, इंटरनेट के माध्यम से, करोड़ों लोग अपने स्वर उठा सकते हैं, इतिहास के बारे में अपनी बात के निशान छोड़ सकते हैं. इतने स्वर उठने का तो मानव इतिहास में पहले कभी अवसर नहीं मिला था? पहले तो बड़े बड़े राजा महाराजा ही, अपनी बातों को जीवनी लिखने वाले, राज कवियों और प्रशस्ति गायकों के माध्यम से कह पाते थे. तो क्या आज का जो इतिहास बनेगा वह पहले लिखे जाने वाले इतिहास से भिन्न होगा, और किस तरह भिन्न होगा?

किसी दुर्घटना की गवाहियाँ सुने तो समझ आता है कि "आँखों देखा" भी देखने वाले कि दृष्टि के अनुसार भिन्न हो सकता है, तो लाखों करोड़ों दृष्टियों से देखे इतिहास में भी तो करोड़ों भिन्नताँए ही होगी. बात फ़िर घूम कर वहीं आ जाती है कि अंत में, समय के साथ लोग अपनी छोटी छोटी बातों को भूल जायेंगे और माना जाने वाला इतिहास इस पर निर्भर करेगा कि इतिहासकार ने किसकी आवाज़ों को विश्वासनीय माना और किन बातों की नींव पर अपने इतिहास का ताना बाना बुना.

पिछले दिनों जनसत्ता अखबार में श्री अपूर्वानंद का लेख, "जेपी आंदोलन की भूल" को पढ़ा तो यही अलग अलग इतिहास वाली बात मन में आयी. इस आलेख में उनका आरोप है कि उन्नीस सौ सत्तर के दशक में होने वाले जयप्रकाश नारायण के जन आंदोलन ने सांप्रदायिक दलों, जनसंघ तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, को राजनीतिक मान्यता दिलाने का काम किया. अपनी इस बात के समर्थन में वह पत्रकार फैसल अनुराग तथा कवि नागार्जुन के उदाहरण देते हैं.

जनसत्ता अखबार में ही, इसी आरोप का कुछ कुछ खँडन किया है, दो हिस्सों में छपे प्रभाष जोशी के लेख, "जो जेपी को नहीं जानते" एवं "लोकतंत्र अपना कर पचाता है" ने, जोकि जयप्रकाश नारायण के जन आंदोलन के शुरु के इतिहास यानि गुजरात और बिहार छात्र आंदोलनों की बात को विस्तार से बताते हैं कि प्रारम्भ में इन आंदोलनो में राजनीतिक दल शामिल नहीं थे. लेकिन लेख के अंत में वह इस बात को मानते लगते हैं कि जेपी आंदोलन ने जनसंघ तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को राजनीतिक मान्यता दी, जिसे वह उचित भी बताते हैं -

"संघ परिवार और उसकी विचारधारा को अछूत और संवाद के लायक न मान कर आप समाप्त नहीं कर सकते. वे भारत की एक सामाजिक राजनीतिक ताकत हैं जिनकी अनदेखी करके आप उनसे नहीं निपट सकते. उनसे संवाद और बरताव करके ही आप उनका निकाल कर सकते हैं. जेपी ने उन्हें अपने आंदोलन में साथ ले कर यही कोशिश की. सही है कि उस आंदोलन से संघ तथा भाजपा अपने राजनीतिक जीवन में ज्यादा वैध और मान्य हुए. लेकिन लोकतंत्र में किसी को भी ठीक करने का यही तरीका है."

पापा भी जेपी आंदोलन से जुड़े थे, उस समय मैं मेडिकल कोलिज में पढ़ता था. तब मुझे न राजनीतिक बातों में दिलचस्पी थी, न ही छात्र आंदोलन में जुड़े गुजरात और बिहार के अपने हमउम्र छात्रों की बातों की कोई जानकारी थी. घर पर आये पिता के मित्रों सहयोगियों से बात, नमस्कार, कैसे हैं, आदि की औपचारिकता तक ही रुक जाती थी. 1975 में दिल्ली के बोट क्लब में हुई जेपी की रैली और, रामलीला मैदान में जेपी के साथ विभिन्न पार्टियों की सभा में भी गया था, पर इन बातों से जुड़े मुद्दों की अधिक समझ नहीं थी और न ही अधिक जानने समझने की जिज्ञासा ही थी. इसलिए यह बात नहीं कि इस बहस में मैं अपनी किसी विषेश जानकारी से कोई नयी बात जोड़ सकता हूँ.

कुछ समय पहले इस समय के बारे में रामनाथ गुहा की किताब "इंडिया आफ्टर गाँधी" (India after Gandhi) में पढ़ा था, जिसमें जेपी के आंदोलन की विभिन्न दृष्टिकोण से विश्लेषण किया गया था. जो पढ़ा था वह सब याद नहीं पर एक बात अवश्य याद रही कि कुछ लोगों का कहना था कि जनतंत्र में चुनाव में बनी सरकार के विरुद्ध इस तरह आंदोलन चलाना, जनतंत्र पर ही प्रहार था और इसलिए गलत था.

मैं प्रभाष जोशी से सहमत हूँ. यानि मेरे विचार में जब बने हुए सामाजिक तानेबाने को तोड़ने वाली बात निकलती है, चाहे वे जन अभियान हों या आम लोगों का मनमुग्ध कर अपने विचारों के साथ लेने वाले नवनेता, तो जनतंत्र में उन्हें शामिल होने का मौका देने के अलावा उससे अच्छा कोई रास्ता नहीं. मुझे लगता है कि यह नयी शक्ति चाहे हिंसा, चाहे सांप्रयदायिकता जैसी नीतियों की वजह से अवाँछनीय हो, पर उसे कुचलना या बैन करना या हिंसा से दबाने से बात नहीं बनती. चाहे वे नेपाल के माओवादी हों या आयरलैंड के धर्म गृह युद्ध में लगे गुरिल्ला, लोकतंत्र में शामिल होना ही रास्ता है जो इन शक्तियों के नुकीले कोने घिस कर उनके क्रोध व हिंसा को काबू में करता है, ताकि वे अपने दलों के पीछे आने वाले जनसमूह को उसके अधिकार दिला सकें. कभी कभी वही लोकतंत्र, हिटलर या तालिबान जैसी शक्तियों को मौका देता भी देता है कि वह शासन में आ कर लोकतंत्र को ही तानाशाही में बदल देते हैं, इसलिए कुछ लोग कह सकते हैं कि लोकतंत्र इन शक्तियों के लिए वाँछित नहीं, लेकिन मुझे लगता है कि सब डरों के बावजूद भी, लोकतंत्र में सबको शामिल होने का मौका देने के अन्य विकल्प नहीं हैं. यह तो केवल भविष्य ही बता सकता है कि वह ठीक निर्णय था या नहीं.

अगर मुझसे मेरी सोच के बारे में पूछा जाये तो स्वयं को बहुत सी बातों में वामपंथ विचारधारा के करीब पाता हूँ, पर अक्सर मुझे लगता है कि अपनी बात कहने का अधिकार, नापसंद बात का विरोध करना का अधिकार, जैसी बातें जो वामपंथी विचारक अपने आप के लिए तो ठीक समझते हैं, पर वे यही अधिकार अपने कुछ विरोधियों को उस तरह से नहीं देना चाहते. या फ़िर, हर बात को केवल आईडिओलोजी के माध्यम से ही देखते हैं और जो बात उस आडिओलोजी के विरुद्ध हो, उसे समझने की कोशिश नहीं करते. लेकिन अगर बात विचारकों की नहीं बल्कि राजनीतिक दलों की हो, तो आज भाजपा, वामपंथी दल, काँग्रेस जैसे राजनीतिक दलों में मुझे अधिक अंतर नहीं दिखता. भाजपा के मोदी या वरुण गाँधी जैसे लोगों की बात न की जाये, तो भाजपा की राजनीतिक सोच अन्य दलों से किस तरह भिन्न है यह भेद जल्दी समझ नहीं आता. नंदीग्राम और तस्लीमा नजरीन के मामले में कट्टरपंथियों के आगे सिर झुकाने की नीतियों में बंगाल की वामपंथी सरकार किस तरह अन्य पार्टियों से भिन्न है, यह भी मुझे समझ नहीं आता. तो भाजपा को राजनीतिक मान्यता मिलना क्या गलत निर्णय था?

दूसरी बात है कि क्या लोकतंत्र में तरीके से चुनी सरकार के विरुद्ध क्या जयप्रकाश नाराणय का क्राँती की बात करना जायज था? यह कहना कि लोकतंत्र में क्राँती की बात करना या चुनाव से बनी सरकार को जन अभियान से हटाने की कोशिश करना हमेशा गलत है, यह मैं नहीं मानता, विषेशकर जब बात अहिंसक जनक्राँती की है. जैसे कि अगर लोकतांत्रिक तरीके से चुनी सरकार, राजनीति को एक पार्टी राज्य या तानाशाही की ओर ले जाये, तो मैं अहिंसक जनक्राँती के पक्ष में हूँ. चुनी सरकार अगर हिटलर की यहूदी संहार और उपनिवेशी नीतियाँ अपना रही हो या कास्ट्रो की तरह, अभिव्यक्ति और स्वतंत्रता को बाँधने की नीतियाँ बनाये, तो क्या विरोध करना उचित नहीं होगा? हां, इस बात पर बहस हो सकती है कि क्या उन्नीस सौ सत्तर के दशक के प्रारम्भ में इंदिरा गाँधी की सरकार की नीतियाँ लोकतंत्र के लिए इतनी खतरनाक थीं कि उनके विरुद्ध जन आंदोलन चलाया जाये?

अभी हाल ही में हुए चुनावों के नतीजों पर सभी लेखक, पत्रकार और विचारक इस तरह प्रसन्न हो कर काँग्रेस के गुणगानों में मस्त लगते हैं कि आज यह समझना कि कभी कोई इसी काँग्रेस के शासन के विरुद्ध जनक्राँती लाने की बात करता था, समझ नहीं आयेगी. दूसरी ओर, भाजपा के अंदरूनी झगड़ों से और वामपंथियों की हार से सभी राजनीतिक विषेशज्ञ इसे इन पार्टियों के अवसान या सरज डूबने जैसा बुला रहे हैं. कल फ़िर, यही विषेशज्ञ काँग्रेस की व्यवसायिक, कृषि, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों में अतिउदारवाद और निजिवाद की नीतियों का रोना रोयेंगे और भाजपा या वामपंथियों की जीत की बात करेंगे, यानि कालचक्र चलता रहेगा.

और आज से पचास साल बाद या सौ साल बाद का इतिहास, इस समय को किस तरह से देखेगा, यह सोचना चाह कर भी नहीं सोच पाता. जाने उस समय के भारतीय बच्चों को नेहरु, पटेल, इंदिरा गाँधी, मनमोहन सिंह, जैसे नाम मालूम भी होंगे या नहीं? पृथ्वी पर जीवन का विकास डार्विन के ईवोल्यूशन के सिद्धांत के प्रभाव से पनपता बढ़ता है. सोचता हूँ कि यही सिद्धांत जनजीवन और सामाजिक विकास पर भी तो लागू होता होगा? जिस तरह, देश बने हैं, सीमांए बनी हैं, लोकतंत्र जैसी पद्धतियाँ विकसित हुई हैं, कल क्या नया बनेगा? आज के लाखों करोड़ों लोग जो विषमताओं के बोझ से दबे हैं, जिनके पास रहने, सोने, खाने को नहीं, उनकी आकांक्षांए से सिंचा कल का राजनीतिक स्वरूप कैसा होगा? यह नहीं सोच पाता. इतिहास ही बतायेगा कि आज होने वाली में से कौन सी बात इतिहास का नया पृष्ठ खोलेगी और मानवता को नया रूप देगी.

गुरुवार, मई 28, 2009

आँखों ही आँखों में

मेरी पत्नी की बचपन की सखी अपने पति से साथ हमारे यहाँ खाने पर आयीं थीं. मुझे स्वयं यह महिला कुछ अधिक पसंद नहीं क्योंकि जितनी बार भी मिला हूँ, मुझे लगता है कि वह हमेशा कुछ न कुछ रोना या शिकायत ले कर कुढ़ती रहती हैं, जबकि उनके पति मुझे सीधे साधे से लगते हैं. उन दोनों से मेरी अधिक घनिष्टता नहीं, और अगर जब मालूम हो कि वे लोग आ रहे हें तो मैं कुछ न कुछ बहाना बना कर खिसकने की कोशिश करता हूँ.

पर इस बार तो खाने के दौरान हद ही हो गयी. शुरुआत हुई शिकायत से "यह बात नहीं करते, बताते नहीं, बस चुप रहते हैं." पहले तो पतिदेव कुछ देर तक चुपचाप सुनते रहे, पर जब वह महिला इस बारे में बोलती ही गयीं, और कई उदाहरण दिये कि कैसे उनके पतिदेव किसी भी बात का सामना नहीं करना चाहते तो आखिर में वह बोल पड़े कि बात करने से क्या फायदा, कि वह सुनती तो हैं नहीं, कि कुछ भी हो गलती तो हमेशा पुरुष की मानी जाती है, आदि.

बस फ़िर तो घमासान युद्ध छिड़ गया. मुझे इस झगड़े के बीच में होना बहुत अज़ीब लग रहा था, पर कुछ बोला नहीं. उनके पतिदेव ने खिसिया कर कोशिश की इन सब बातों को इस तरह दूसरों के सामने उठाना ठीक नहीं पर वह बोलीं कि अपनी सखी से वह कुछ नहीं छुपाना चाहती थीं.

खैर जैसे तैसे करके वह खाना स्माप्त हुआ और वो लोग चले गये तो मेरी अपनी पत्नी से इस झगड़े के बारे में बात हुई. कुछ साल पहले, एक बार पहले भी कुछ कुछ इसी तरह हुआ था जब हमारे एक अन्य मित्र की पत्नी ने सबके सामने अपने पति के साथ सँभोग में उनके यौन व्यवहार की बाते बतानी शुरु कर दी थीं. मुझे तो बहुत अजीब लगा था, लगा था कि इस तरह की बातें तो किसी भी दम्पति की इतनी निजि होती हैं जिन्हें किसी बाहर वाले के सामने कहना ठीक नहीं समझा जा सकता, और न ही किया जाना चाहिये.

पर इस तरह की बातों से हमारे मित्र को कुछ विषेश अपत्ति नहीं हो रही थी क्यों कि वह अपनी पत्नी की बातें आराम से सुनते रहे थे. मुझे लग रहा था कि भारत में पत्नी इस तरह की बात बाहर वालों के सामने कभी नहीं करेगी. उस बार मेरी पत्नी मेरी बात से सहमत थीं, उसका कहना था कि इस तरह की बात को विषेश सहेली से अकेले में किया जा सकता है पर पति के सामने या अन्य लोगों के सामने नहीं. तब भी मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ था, मेरे विचार में अपने पति पत्नी के यौन सम्बंधों के विषय में अधिकतर पुरुष अपने मित्रों से भी बात नहीं करते.

पर इस बार के झगड़े में मेरे और मेरी पत्नी के विचारों में मतभेद था. मैं उनकी सखी के पति की तरफ़दारी कर रहा था कि झगड़े के समय चुप रहना ही बेहतर है, बजाय कि उस समय अपनी बात समझाने की कोशिश की जाये. तो मेरी पत्नी बोली कि मैं भी सभी पुरुषों जैसा ही हूँ जो बात करने के बजाय चुप रहना बेहतर समझता है या फ़िर अपनी बात को मन में ही दबाये रखता है. थोड़ी देर में ही बात उनकी सखी और उसके पति से हट कर हमारे अपने बारे में होने लगी.

मेरी पत्नी बोली,"तुम ही मेरी बात कहाँ सुनते हो, बस हाँ हूँ करते रहते हो, लेकिन बात एक कान से घुस कर दूसरे से निकल जाती है." चूँकि इस बात में अवश्य कुछ सच था तो मैंने बात बदलने की कोशिश की. "प्रेम हो तो कुछ कहना नहीं पड़ता, बिना कहे, आँखों आँखों मे ही प्रेमी समझ जाते हैं." और इसको समझाने के लिए "जाने क्या तूने कही, जाने क्या मैंने सुनी, बात कुछ बन ही गयी" के गीत का उदाहरण दिया.

"अवश्य यह गीत किसी पुरुष ने ही लिखा होगा", मेरी पत्नी बोली.

क्या सचमुच अधिकतर पुरुष इसी तरह के होते हैं, कि बात कम करते हैं, जबकि स्त्रियाँ बात करने को तरसती रहती हैं, आप का इसके बारे में क्या विचार है? यहाँ इटली में यह बात मैं कई बार सुन चुका हूँ. सुना है कि तलाक के कारणों में से यह भी अक्सर एक कारण होता है.

शब्दों के बारे में पोलैंड की नोबल पुरुस्कार पाने वाली कवयत्रि विसलावा स्ज़िमबोर्स्का (Wislawa Szymborska) की एक कविता की पक्तियाँ प्रस्तुत हैं (हिंदी अनुवाद मेरा है)

जैसे ही भविष्य शब्द का स्वर निकलता है, तब तक शब्द का पहला वर्ण अतीत में जा चुका होता है,
जब सन्नाटा शब्द को बोलता हूँ, उसी का विनाश करता हूँ
जब कहता हूँ कुछ नहीं, कुछ नया बनता है जो किसी खालीपन में नहीं घुसता

बुधवार, दिसंबर 21, 2005

शुद्ध पृथ्वीवासी

शायद हर जगह लोग ऐसे ही प्रश्न पूछते हैं, कि आप कहाँ से हैं?

इटली में लोग, कोई नया मिले तो यह प्रश्न अवश्य पूछते हैं. जब परिवार सारा जीवन एक ही जगह पर बिताते थे तो इस प्रश्न का उत्तर देना कठिन नहीं था. आप कहाँ रहते पूछने का अर्थ यह जानना भी है कि आप विश्वासनीय हैं या नहीं. लोगों में रहने की जगह के साथ जुड़ी बातों की वजह से छोटा बड़ा सोचने की भी आदत होती है. जैसे कि उत्तरी इटली वाले अपने आप को दक्षिणी इटली वालों से ऊँचा समझते हैं. जब शुरु शुरु में इटली आया था और यहाँ अधिक प्रवासी नहीं थे, तो जो घर किराये पर मिला उसकी मकान मालकिन मुझसे यही बोली थी, "मैं तो अपना घर किराये पर या तो उत्तरी इटली वालों को दूँगी या विदेशियों को. "मेरिद्योनालि" लोगों (दक्षिण इटली के लोगों) को नहीं दूँगी."

पर आजकल सब कुछ बदल रहा है. बहुत से लोग उत्तर देते हैं, "मेरी माँ एक जगह से हैं, पिता दूसरी जगह से और हम बच्चे लोग तीसरी जगह में बड़े हुए, पर आजकल हम चौथी जगह रहते हैं." यानि यह किसी को यह बताना कि आप कहाँ से हैं, धीरे धीरे कठिन होता जा रहा है.

मुझसे लोग अक्सर जब मुझसे पूछते हैं कि मैं भारत में कहाँ से हूँ, तो मुझे भी उत्तर देने में ऐसी ही परेशानी होती है. ननिहाल तो अब पाकिस्तान में है, जबकि पिता का परिवार उत्तरप्रदेश में था, और हम सब बच्चे अलग अलग शहरों में पैदा हुए. लम्बा उत्तर न देने के लिए कहता हूँ दिल्ली से हूँ क्योंकि जीवन के बहुत से साल दिल्ली में ही कटे हैं.

हमारे परिवार के बड़े भाई बहनों ने विभिन्न दिशाओं में और भी मिलावट करनी शुरु कर दी. किसी की बहू बंगाली थी, किसी की मराठी तो किसी का पति कोंकणी. जब मैंने विवाह किया तो इस मिलावट की होली में धर्म का रंग भी जोड़ दिया, क्योंकि मेरी पत्नी कैथोलिक है. हिंदू व कैथोलिक परिवार में बड़े हुए हमारे बेटे की होनी वाली पत्नी सिख है. जब उसके बच्चे होंगे और कोई उनसे यह सवाल करेगा, तो सोचिये कि वे क्या जवाब देंगे कि वे कहाँ से हैं?

हम मिलावटी भारतीय हैं, या मिलावटी इतालवी? या फ़िर हम लोग मिलावटी हिंदू, सिख और कैथोलिक होंगे? पर सच में तो मेरे विचार में हम लोग शुद्ध पृथ्वीवासी हैं.

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ब्राजील मेरे विचार में मानव जाति की मिलावट का दुनिया में सबसे बड़ा उदाहरण है. यहाँ की मूल जनजाति के लोग इंडियोस, और अन्य देशों से आये यूरोपीय, अफ्रीकी, जापानी, चीनी, आदि जातियों के लोगों के मिलने से बना है यह देश. आज की तस्वीरें ब्राजील से ही हैं.

Belem, Brazil - images by Sunil Deepak

Belem, Brazil - images by Sunil Deepak

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रविवार, दिसंबर 18, 2005

बीत गये कितने दिन!

लगता है कि कल की बात है जब वह पैदा होने वाला था. डाक्टर ने तारीख दी थी १० जुलाई की. १० जुलाई आयी और चली गयी, पर उसके आने के लक्षण नहीं दिखाई दे रहे थे. मैं पत्नी के साथ उसके चेकअप के लिए अस्पताल गया. यह वही अस्पताल था जहाँ हमने इक्ट्ठे काम किया था इसलिए वहाँ के सब डाक्टरों और नर्सों को जानते थे.

"कुछ नहीं है, सब ठीक है. पर बच्चा अभी ऊपर है, बच्चेदानी में नीचे नहीं आया. तुम खूब चलो, भागो, सीढ़ियाँ चढ़ो, उतरो", डाक्टर बोले, "उससे बच्चा नीचे आ जायेगा."

इस बात को हम दोनो ने बहुत गम्भीरता से लिया. सारा दिन घूमते. पूर्वी इटली में स्कियो नाम के शहर में रहते थे, जो पहाड़ों के बीच बसा है. वहाँ चढ़ने, उतरने के लिए सीढ़ियों की कमी नहीं थी. पत्नी के फ़ूले हुए पेट को छू कर, उसका हिलना, लात मारना महसूस करना, मुझे बहुत अच्छा लगता. क्या नाम रखेंगे, इस पर लम्बी बहस होती. यह तो पहले से तय था कि बच्चे के दो नाम होंगे, एक इतालवी और एक भारतीय. यह भी तय था कि अगर बेटी होगी तो उसका पहला नाम भारतीय होगा और दूसरा इतालवी, बेटा होगा तो इसका उलटा.

दस दिन बीत गये इसी तरह. फिर अस्पताल चेकअप के लिए गये. "बच्चा अभी भी नीचे नहीं आया, पर सब कुछ ठीक ठाक है", डाक्टर बोले और पत्नी को और चलने, भागने की सलाह दी. आखिर 23 तारीख को शाम को पत्नी को हलका हलका प्रसव दर्द शुरु हुआ तो उसे ले कर अस्पताल वापस पहुँचे. "सब ठीक ठाक है, पर अभी समय लगेगा. कल सुबह से पहले कुछ नहीं होने वाला, आप अभी घर जा कर सोईये, कल सुबह आईये", उन्होंने मुझसे कहा.

अपनी सास के पास ठहरा था, वहाँ आ कर रात को सो गया. रात को अचानक नींद खुली, लगा कहीं टेलीफोन बज रहा था, थोड़ी देर यूँ ही लेटा सुनता रहा, पर जब टेलीफोन रुक कर फिर से बजने लगा तो उठ कर देखने की सोची. पहली मंजिल पर सोया था, टेलीफोन नीचे बज रहा था. नीचे आया तो देखा हमारा ही टेलीफोन था और हमारी साली साहिबा हमें आधे घँटे से टेलीफोन कर कर के परेशान हो गयीं थीं. "जल्दी अस्पताल जाओ, वहाँ से टेलीफोन आया था कि कुछ ठीक नहीं है और अभी ओपरेश्न करना होगा." रात को कार स्टार्ट होने में कुछ परेशानी हो रही थी इसलिए उसे अस्पताल के बाहर ही छोड़ आया था. जब टेलीफोन आया तो भागाभागी में कपड़े पहने और टैक्सी को बुलाया. अस्पताल पहुँचा तो करीब दो बज चुके थे.

पहले पत्नी को देखा, जिसे ओपरेश्न थियेटर से बाहर लाया जा रहा था, बेहोश सी थी पर फिर भी मुझे देख कर रोने लगी. दिल काँप सा गया. "लड़का हुआ है, पर उसकी हालत ठीक नहीं है. बच्चा इंटेन्सिव कैयर में है, नाल उसके गले को घेरे थी, इसलिए वह साँस ठीक से नहीं ले पा रहा था, इसलिए एमरजैंसी में ओपरेश्न करना पड़ा", मुझे बताया गया.

इंटेंसिव कैयर के बाहर शीशे से उसे देखा. इंक्यूबेटर में रखा छोटा सा वह, मुँह पर साँस लेने की नली लगी हुई. उसे वह पहली बार देखना अभी भी ऐसे याद है जैसे कल की बात हो. दो सप्ताह में उसकी शादी होने वाली है. बीत गये कितने दिन, कितनी जल्दी, पता ही नहीं चला.

Deepak family

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