इंटरनेट के माध्यम से भूले बिसरे बचपन के मित्र फ़िर से मिलने लगे हैं. किसी किसी से तो तीस चालिस सालों के बाद सम्पर्क हुआ है.
उनसे मिलो तो कुछ अजीब सा लगता है. बचपन के साथी कुछ जाने पहचाने से पर साथ ही कुछ अनजाने से लगते हैं.
जिस बच्चे या छरहरे शरीर वाले नवयुवक की छवि मेरे मन में होती है, उसकी जगह पर अपने जैसे सफ़ेद बालों वाले मोटे से या टकले या बालों को काला रंग किये अंकल जी को देख कर लगता है कि जैसे शीशे में अपना प्रतिबिम्ब दिख गया हो. उनसे थोड़ी देर बात करो तो समझ में आता है कि हमारी बहुत सी यादे मेल नहीं खाती. जिन बातों की याद मेरे मन में होती है, वह उन्हें याद नहीं आतीं और जिन बातों को वह याद करते हैं, वह मुझे याद नहीं होती. यानि जिस मित्र की याद मन में बसायी थी, यह व्यक्ति उससे भिन्न है, समय के साथ बदल गया है. उन्हें भी कुछ ऐसा ही लगता होगा.
अगर मिलते रहो तो बदलते समय के साथ बदलते व्यक्ति से परिचय रहता है, पर अगर वर्षों तक किसी से कोई सम्पर्क न रहे तो परिचित व्यक्ति भी अनजाना हो जाता है.
चालिस साल बाद वापस अपने स्कूल में "पुराने विद्यार्थियों की सभा" में गया तो यह सब बातें मेरे मन में थी. सोचा था कि बहुत से पुराने साथियों से मिलने का मौका मिलेगा, पर चिन्ता भी थी कि उन बदले हुए साथियों से किस तरह का मिलन होगा. लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ, मेरे साथ के थोड़े से ही लोग आये थे और दिल्ली में रहने वाले अधिकतर साथी उस सभा में नहीं आये थे. जो लोग मिले उनमें से कोई मेरे बचपन का घनिष्ठ मित्र नहीं था.
पुराने मित्र नहीं मिले, लेकिन स्कूल की पुराने दीवारों, क्लास रूम और मैदान को देख कर ही पुरानी यादें ताजा हो गयीं. स्कूल के सामने वाले भाग से पीछे तक की यात्रा मेरी ग्याहरवीं से पहली कक्षा की यात्रा थी.
ग्याहरवीं कक्षा के कमरे की पीछे वाली वह बैंच जहाँ घँटों मित्रों से बहस होती थी और जब रहेजा सर भौतिकी पढ़ाते थे तो कितनी नींद आती थी! बायलोजी की लेबोरेटरी जहाँ केंचुए और मेंढ़कों के डायसेक्शन होते थे. आठवीं की क्लास की तीसरी पंक्ति की वह बैंच जहाँ से खिड़की से पीछे बिरला मन्दिर की घड़ी दिखती थी और जहाँ मैं अपनी पहली कलाई घड़ी को ले कर बैठा था, जो कि पापा की पुरानी घड़ी थी. पाँचवीं की वह क्लास जहाँ नानकचंद सर मुझे समझाते थे कि अगर मेहनत से पढ़ूँगा अवश्य तरक्की करूँगा. वह मैदान जहाँ इन्द्रजीत से छठी में मेरी लड़ाई हुई थी. खेल के मेदान के पास की वह दीवार जहाँ दूसरी के बच्चों ने मिल कर तस्वीर खिंचवायी थी.
लेकिन चालिस साल पहले अपना स्कूल इतना जीर्ण, टूटा फूटा सा नहीं लगता था. हर ओर पुरानी बैंच, खिड़की के टूटे शीशे, कार्डबोर्ड से पैबन्द लगी खिड़कियाँ दरवाज़े, देख कर दुख हुआ. सरकारी स्कूल को क्या सरकार से पैसा मिलना बन्द हो गया था? आर्थिक तरक्की करता भारत इस पुराने स्कूल से कितना आगे निकल गया, जहाँ कभी भारत के प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू अपने जन्मदिन पर हम बच्चों को मिलने आये थे और उन्होंने हवा में सफ़ेद कबूतर छोड़े थे.
स्कूल से निकला तो जी किया कि साथ में जा कर बिरला मन्दिर को भी देखा जाये और उसकी यादों को ताजा किया जाये. पर जैसा सूनापन सा स्कूल में लगा था, वैसा ही सूनापन बिरला मन्दिर में भी लगा. बाग में बने विभिन्न भवनों को जनता के लिए बन्द कर दिया गया है. लगता है कि भवन की देखभाल के लिए उनके पास भी माध्यम सीमित हो गये हैं.
"स्वर्ग नर्क भवन" जो हमारे स्कूल के मैदान से जुड़ा था और जहाँ अक्सर हम स्कूल की दीवार से कूद कर पहुँच जाते थे, का निचला हिस्सा अब विवाहों के मँडप के रूप में उपयोग होता है और भवन का ऊपर वाला हिस्सा बन्द कर दिया गया है. इसी तरह से अन्य कई भवन काँटों वाली तारों से घिरे बन्द पड़े थे.
वह गुफ़ाएँ जहाँ हम लोग अक्सर "आधी छुट्टी" के समय पर छुपन छुपाई खेलते थे, उन पर गेट बन गये थे और ताले लगे थे. बीच की ताल तलैया सूखी पड़ी थीं. सबसे अधिक दुख हुआ जब देखा कि बाग में से बुद्ध मन्दिर जाने का रास्ता भी बड़े गेट से बन्द कर दिया गया है. बुद्ध मन्दिर में पूछा तो बोले कि दोनो मन्दिरों में इस तरह से आने जाने का रस्ता 1985 में बन्द कर दिया गया था.
बिरला मन्दिर के बाहर की दुनिया तो बहुत पहले ही बदल चुकी थी. सामने वाले खुले स्क्वायर और छोटे छोटे सरकारी घरों की जगह पर बहुमंजिला मकान बने हैं, और वहाँ जो खुलापन और हरियाली दिखती थी वे वहाँ वह गुम हो गये हैं. सामने एक नया स्कूल भी बना है जिसकी साफ़ सुथरी रंगीन दीवारों और चमकते शीशों के सामने अपना पराना स्कूल, कृष्ण के महल में आये सुदामा जैसा लगता है. शायद नया प्राईवेट स्कूल है?
वापस घर लौट रहा था तो सोच रहा था कि यूँ ही दिन और मूड दोनो को बेवजह ही खराब किया. पुरानी यादों को वैसे ही सम्भाल कर रखना कर चाहिये था, वह भी यूँ ही बिगड़ गयीं. अब जब अपने स्कूल के बारे में सोचूँगा, बजाय पुरानी यादों के, इस बार का सूनापन याद आयेगा.
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वक्त बहुत शक्तिशाली होता है, उसके थपेडों से शायाद ही कोई बचा है.. साधुवाद - भावनायों से औत्प्रोत इस पोस्ट के लिए.
जवाब देंहटाएंआपकी पोस्ट देखकर ही मुझे लगा था कि अन्त वैसा ही होगा जैसा पढ़ने पर पाया। यादों का संसार आज के सच के संसार से बहुत अलग होता है। यादों के लोग, स्थान सब अलग होते हैं। कुछ वैसे ही जैसे हमारी कल्पना में लोग, लेखक, कलाकार आदि। किन्तु कल्पना और सत्य में भी वही अन्तर होता है जो यादों और आज के यथार्थ में। प्रायः स्मृति और कल्पना को वर्तमान के यथार्थ से मिलाना स्मृति और कल्पना के सीपिया रंगों में जबरन चटकीले रंग भरने के प्रयास सा होता है।
जवाब देंहटाएंमैं भी लेख पढ़ यादों की पगडँडियों में दूर तक भटक आई।
घुघूती बासूती
यादों में उतराने का आनन्द ही कुछ और है।
जवाब देंहटाएंमैं भी अपने स्कूल लगभग बीस साल बाद गया था महज़ एक दोस्त से मिलने दोस्त तो विसे ही था पर स्कूल बदल गया उस वृत्तांत को ब्लॉग पर साझा किया था मौका लगे तो पढियेगा एक और बात समानता की कोणार्क पहले आप गए पीछे मैं गया मैं अपने स्कूल साल 2010 में गया आप भी गए मेरे बाद लगता है कुछ टेलीपैथी टाईप का मामला है
जवाब देंहटाएंhar 12saal ke baad bahut kuch badal jaata hai wah to ek school hai...
जवाब देंहटाएंpurani yaden dil ko bahut sakun deti hai...
jai baba banaras....
मैंने कई बार महसूस किया है अतीत में लौटना सदा सुखद नहीं होता, समय बीतने के साथ परिस्थितिया भी बदल जाती है ...पर हमारे मन में वही बालपन की यादें बनी रहती है ..उन्हें वर्तमान में नहीं आजमाना चाहिए ..
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना। धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंबड़े करीने से सहेजी हुई, आज से बेलाग मुकाबिल यादें.
जवाब देंहटाएंआप सब को इन टिप्पणियों के लिए हार्दिक धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंपुरानी यादों के पीछे भागने का कोई फायदा नहीं, यह तार्किक तौर पर तो अच्छी तरह समझता हूँ लेकिन शायद दिल के कौनों में कहीं बचपन के उन दिनों की आत्मियता को फ़िर से पा सकने का लालच छुपा ही रहता है, जो तर्क नहीं सुनता केवल आशा करना जानता है! :)
बचपन की यादें सुखद होती हैं .. मन पीछे भागता है पर वक्त निकल चुका होता है ..बहुत कुछ बदल गया होता है .. आपकी यादों के साथ मैं भी अपने कॉलेज के दिनों में घूम आई ..
जवाब देंहटाएंधन्यवाद संगीता जी. बड़े हो कर जहाँ रहे हों उसकी उतनी याद नहीं आती जितनी बचपन और किशोरावस्था की जगहों और मित्रों की.
हटाएंअंतिम पैराग्राफ पढ़कर तो दिल से आह! ही निकलती है।
जवाब देंहटाएंसही है..यादों को दिल के मर्तबान में सहेज कर रख देना चाहिए। बुझी राख को कुरेदने से से कुछ भी हासिल होने वाला नहीं सिवाय इस अनुभूति के कि अब नहीं शेष बची है एक चिंगारी भी।
देवेन्द्र जी आप की इतनी सुन्दर टिप्पणी से मैं धन्य हुआ, आप ने थोड़े से शब्दों में कविता लिख दी!
हटाएंइतने अरसे के बाद वहां लौटने पर आपका मन उदास हो गया. मैं अपने अनुभव से कह सकता हूँ कि ऐसा अक्सर ही होता है.
जवाब देंहटाएंलेकिन यही तो सच की कीमत है :(
शायद जगहें नहीं बदलती, हम बदल जाते हैं और यही बात है जो दिल को चुभती हो?
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