शुक्रवार, जुलाई 08, 2005

लंदन के बम विस्फौट

जब लंदन के बम विस्फौट का समाचार मिला तो सबसे पहली बात जो मन में आयी, वह अपनी जान बचने की खुशी की थी. फ़िर जब अंतरजाल पर विस्फौट के बारे में पढा तो एक पल के लिये काँप गया. केवल २४ घंटे पहले, सुबह वही बम विस्फौट के समय पर मैंने भी हैमरस्मिथ तथा सिटी लाईन से उन्हीं स्टेशनों से गुज़रा था, एड्जवेयर रोड, किन्गस् करौस, लिवरपूल स्ट्रीट, क्योंकि सटेनस्टेड हवाई अड्डे की गाड़ी वहीं से चलती है. जब ब्रिक लेन ढूँढते ढूँढते अल्डगेट स्टेशन पहुँच गया था तो वहाँ एक महिला ने रास्ता बताया था. उन जानी पहचानी जगहों की अनजानी तस्वीरें टेलीविज़न पर देख कर अज़ीब सा लग रहा था.

मेरे बेटे की एक मित्र लंदन गयी है कुछ दिन पहले, उसे उसकी चिंता हो रही थी. मेरे एक अन्य मित्र का बेटा टेविस्टोक प्लेस में रहता है, जहाँ बस में विस्फौट हुआ तो उनका परिवार भी परेशान था. मोबाइल टेलीफोन काम नहीं कर रहे थे. फिर शाम होते होते सब के समाचार मिल गये. सब ठीक ठाक हैं, किसी को कुछ नहीं हुआ, तो जान में जान आयी.

लंदन वालों का खयाल आता है मन में. क्या इस घटना से उनके रहने, घूमने में कोई अंतर आयेगा ? अगर दिल्ली के १९८५‍-८६ के दिनों के बारे में सोचूँ तो लगता है कि नहीं, कुछ दिन सब लोग घबराएँगे, फ़िर सब कुछ पहले जैसा हो जायेगा. बस जिन लोगों की जान गयी है या जो लोग घायल हुए हैं और कुछ हद तक, जो लोग विस्फौट के समय उन गाड़ियों में थे, उनके जीवन बदल जायेंगे. एक दहशत सी रह जायेगी और उनके परिवार यह दिन कभी नहीं भुला पायेंगे.

ऐसा ही कुछ लगा था ११ सितंबर २००१ में, जब मैं लेबानान जाने के लिये हवाई अड्डे पर अपनी उड़ान का इंतजार कर रहा था और टेलीविजन पर दिखायी जा रही तस्वीरों ने ऐसी ही दहशत फैलायी थी. उस दिन माँ अमरीका जा रहीं थीं और उनका जहाजं वाशिंग्टन के बदले केनाडा में कहीं उतरा था. करीब एक सप्ताह तक उन्हें खोजते खोजते हम भी परेशान हो गये थे. वह दिन आज एक दुस्वप्न से लगते हैं पर उनके घाव अभी भी मन में बैठे हैं और कुछ नया होता है तो फ़िर से उभर आते हैं.

एक तस्वीर, लंदन के पुलिसवालों की

गुरुवार, जुलाई 07, 2005

काल्पनिक यात्रा

काल्पनिक यात्रा
अगले सप्ताह मुझे एकुआडोर जाना है. वहाँ जन स्वाथ्य अभियान की अंतरराष्ट्रीय सभा हो रही है, देश के दक्षिणी भाग में स्थित शहर कुएंका में. ञेरा विचार है कि देश की राजधानी कीटो में पहँच कर वहाँ से कुएंका तक की यात्रा बस में करुँ, रास्ते में छोटे शहरों या गावों में रुक रुक कर. १३ तारीख को कीटो पहुँच जाऊँगा और १६ तारीख को कुएंका पहुँचना है तो इसका मतलब है कि खीटो से कुएंका की यात्रा मैं २-३ दिनों में आराम से कर सकता हूँ. यात्रा में जाने से पहले काल्पनिक यात्रा के अपने ही मजे हैं. यहाँ के पुस्तकालय से मैं एकुआडोर की पर्यटन की एक पुस्तक ले कर आया हूँ जिसमें अपनी यात्रा की योजना बना रहा हूँ.


साला बोरसा, बोलोनिया का अनौखा पुस्कालय
साला बोरसा एक बहुत पुरानी इमारत है बोलोनिया शहर के सबसे प्रमुख पियात्सा में जिसका नाम है पियात्सा माजोरे (पियात्सा यानि खुली चकोर-आकार की जगह. इटली में में, ऐसी खुली जगहों की समाज की सामुदायिक जिन्दगी में बहुत महत्व है जहाँ लोग मिलते हैं, बैठते हैं, बातें करते हैं), करीब दो हज़ार साल पुरानी. इस पुरानी इमारत का पुराना रुप कायम रखते हुए इसे अंदर से बिल्कुल नया बनाया गया है. इसका फर्श पारदर्शी है जिसके उपर चलते हुए आप फर्श के नीचे के पुराने रोमन खंडहर देख सकते हैं. इस पुस्तकालय में केवल किताबें ही नहीं, डीवीडी, कम्प्यूटर की सीडीरोम, संगीत की सीडी भी ले सकते हैं. सब कुछ बिना किसी शुल्क के. कभी बोलोनिया आने का मौका मिले तो यहाँ के साला बोरसा को देखना न भूलियेगा. यह मत सोचियेगा कि भला पुस्कालय भी क्या कोई देखनी की चीज़ है.


आज भी दो तस्वीरें प्रस्तुत हैं बोलोनिया शहर की - साला बोरसा पुस्तकालय के बाहर एक प्रदर्शनी और प्राचीन सान्तो सतेफानो चर्च का एक दृश्य


बुधवार, जुलाई 06, 2005

लंदन का छोटा बंगलादेश, ब्रिक लेन

लंदन जाना मुझे अच्छा लगता है हाँलाकि वहाँ जाने का अर्थ अधिकतर मेरे लिये अंतहीन मीटिंगस् होती हैं, जो जब स्माप्त होतीं हैं तो सिर दर्द कर रहा होता है. इस बार भी यूँ ही हुआ. जो कसर बची थी वह बारिश और ठंड ने पूरी कर दी. फ़िर भी सोचा कुछ तो अपने होटल से बाहर निकलना ही चाहिये. यही सोच कर मैं ब्रिक लेन की तलाश में निकल पड़ा.

लंदन की गाईड पुस्तिका कहती है कि ब्रिक लेन पहले घटिया सा गन्दा इलाका समझा जाता था, पर आज बंगलादेशी समुदाय के लोगों की वजह से सारे इलाके का काया पलट हो गया है. लिवरपूल स्टेशन के आसपास का सारा इलाका आज तो बहुत सुंदर लगता है. हाथ मे नक्शा ले हर मैं भी निकल पड़ा. चलते चलते बहत दूर निकल आया पर आसपास "छोटे बंगलादेश" का कोई निशान नहीं दिखा. फ़िर नक्शे को दुबारा से देखा. इतना छोटा छोटा सब दिखाया था उस नक्शे में के कि सड़कों के नाम पढने के लिये मुझे ऐनक उतार कर उसे आँखों के पास लाना पड़ा पर फ़िर भी कुछ समझ नहीं आया. शायद मेरी सूरत देख कर उन्हें दया आ गयी और एक महिला रुक गयीं. मैंने पूछा तो उन्होंने इशारे से रास्ता बताया. फ़िर से चल दिया और फ़िर से काफ़ी चलने के बाद भी जब ब्रिक लेन न मिली तो एक बार फ़िर किसी से पूछना पड़ा. उतनी देर में बारिश शुरु हो गयी थी.

अंत में जब ब्रिक लेन मिली तो मैं कुछ भीग चुका था. कुछ खास नहीं लगी यह ब्रिक लेन, दोनों तरफ बंगलादेशी रेस्टोरेंट, कोई इक्का दुक्का अन्य दुकान जैसे बंगाली कपड़ों की या किताबों या संगीत की. कुछ कुछ साउथहाल जैसा. सोचा कि इतनी तारीफ कर के एक ऐसी चीज़ जो शहर की अंग्रेज़ी खूबसूरती की बीच में बंगलादेशी हल्ला गुल्ला ले आयी हो, उसे ठीक तरीके से बेचना बहुत अच्छा आता है इन लंदन वालों को. टूरिस्ट घूमते हैं, खरीदारी करते हैं, बंगलादेशी दुकानदार भी अच्छी कमाई करते हैं, सभी खुश हैं. आसपास अधिकतर लोग बंगला बोल रहे थे, कोई कोई हिन्दी भी बोल रहा था. मुझे मिठाई खरीदने में हिन्दी में अपनी बात समझाने में भी कोई कठिनाई नहीं हुई.

लंदन में हर तरफ २०१२ के ओलिम्पिक खेलों की चर्चा हो रही थी कि वे इंग्लैड को मिलेंगे या फिर पैरिस को, या मोस्को को या न्यू योर्क को. वापस आते समय, हवाई जहाज़ में पायलेट ने सूचना सुनायी कि २०१२ के ये खेल इंग्लैंड में ही होंगे तो सभी अंग्रेजं यात्रियों ने तालियाँ बजा कर इस समाचार का स्वागत किया.

दो दिन के लिये गया था लंदन और ये दो दिन तो बीते ठंडक और बारिश मे. इटली में आ कर गरमियों को फ़िर से पाया हालाँकि आज तो केवल २६ डिग्री का तापमान है यहाँ, पर कम से कम स्वेटर या जैकेट पहनने की ज़रुरत तो नहीं है.

आज प्रस्तुत हैं लंदन की दो तस्वीरें - ब्रिक लेन और लिवरपूल स्टेशन


सोमवार, जुलाई 04, 2005

@ का हिन्दी अनुवाद

@ को अंग्रेज़ी मे तो एट कहते ही हैं पर अन्य भाषाओं में क्या कहते हैं ? इतालवी में इसे कहते हैं कियोच्योला और फ्रासिसी में एसकारगो, दोनो का अर्थ है घोंघा. रुसी में कहते हैं सोबाका यानि कुत्ता और ग्रीस भाषा में पापाकी यानि छोटी बतख. इज़राईल वाले इसे स्टूर्डल यानि सेब का केक और कुछ अन्य देशों में इसे बन्दर कहते हैं इसकी लम्बी पूंछ के लिए. तो हिन्दी में क्या अनुवाद होगा इसका ?

भोपाल एक्सप्रेस

कल शाम को १९९९ में बनी महेश मथायी द्वारा निर्देशित फिल्म भोपाल एक्सप्रेस देखी. यूनियन कारबाईड के कारखाने से निकली गैस की "दुर्घटना" के दृश्य भयानक भी हैं दर्दनाक भी. देख कर दुख यही होता है कि अपने भारत में जब हज़ारों गरीब लोग इस तरह से मर सकते हैं तो हमारी सरकार अपने लोगों की रक्षा तो कर नहीं पाती पर उन्हें न्याय दिलाने में भी कुछ नही् करती. यह फ़िल्म अंतरजाल पर निःशुल्क रियल मीडिया प्लैयर पर देखी जा सकती है, भोपाल डाट एफ एम के वैब पृष्ठ पर.

मुक्तिबोध की एक कविता की कुछ पंक्तियाँ:

अन्तःकरण का आयतन संक्षिप्त है
आत्मीयता के योग्य
मैं सचमुच नहीं.
पर, क्या करुँ,
यह छाँह मेरी सर्वगामी है.
हवाओं में अकेली साँवली बैचेन उड़ती है
कि श्यामल अंचला के हाथ में
तब लाल कोमल फ़ूल होता है
चमकता है अँधेरे में
प्रदीपित द्वन्द्व चेतस् एक
सत्-चित्-वेदना का फ़ूल


आज की तस्वीर बोलोनिया के ग्रीष्म ऋतु के स्वागत फैसटिवल "पेर तोत" से

रविवार, जुलाई 03, 2005

खोये हुए शब्द

हंगरी की सुप्रसिद्ध लेखिका अगोटा क्रिसटोफ स्विटज़रलैंड में रहती हैं. कम्यूनिस्ट शासन के दिनों में, १९५६ मे उन्हें अपना देश छोड़ कर परदेस मे शरण लेनी पड़ी थी और उनका सारा लेखन फ्रांसिसी भाषा मे है. उनकी प्रसिद्ध तीन किताबों की श्रिंखला है, "के का शहर" जिसे मैने कुछ वर्ष पहले पढा था. लिखने का अनोखा अंदाज़ है उनका. गिने चुने शब्द, छोटी पतली किताबें, छोटे छोटे, एक पन्ने या आधे पन्ने के अध्यायों में विभाजित. पर हर एक शब्द चुना हुआ, पैने चाकू की तरह जो दिल की गहराईयों मे घुस जाते हैं.
उनकी आत्मकथा आयी है, "अनपढ". इसमे अपने फ्रांसिसी भाषा मे लिखने के बारे मे अगोटा कहती हैं "सबसे बड़ा क्षय तब हुआ जब मुझसे मेरी मात्तृ भाषा खो गयी, चीज़ों की पहली भाषा, भावनाओं की, रंगों की, शब्दों की, पुस्तकों की, साहित्य की भाषा. जिस जैसी अन्य कोई भाषा नहीं. जो जब खो गयी तो साहित्य और लेखन भी खो जाते हैं, और हम फ़िर से अनपढ बन जाते हैं ..."
ऐसा ही कुछ लगता है मुझे. यह तो नहीं लगता कि मैं अनपढ हो गया हूँ पर एक एहसास अवश्य है कि अंग्रेज़ी या इतालवी भाषा में महसूस की गयी, सोची और लिखी गयी दुनिया हिंदी में महसूस की गयी दुनिया से भिन्न है. और अपनी भाषा के खोने का दुख भी था, जैसे शरीर का कोई अंग कहीं खो गया हो. धीरे धीरे शब्द खोने लगे थे. भारत से आया कभी कोई मिलता भी तो हिन्दी में कहने के शब्द खोजने से भी नहीं मिलते. कई बार मन मे कोई शब्द आता तो उसका हिन्दी का अर्थ घंटों सोचता रहता. एक बार "नटक्रेकर" को हिन्दी में क्या कहते हैं, यह कई दिनों तक सोचता रह गया था.
हिन्दी मे ब्लौग लिखना शुरु किया है तो धीरे धीरे खोये हुए शब्द वापस आने लगे हैं. अभी भावों की अभिव्यक्ति ठीक तरह से नहीं होती है, कई बार रुक कर सोचना पड़ता है कि इसे हिन्दी मे कैसे कहते हैं. कभी लगता है कि वाक्य संरचना मन में इतालवी मे या अंग्रेज़ी में होती है जिसका अनुवाद हिन्दी मे हो जाता है और इसलिये वाक्य संरचना प्राकृतिक नहीं है. पर धीरे धीरे खोये हुए शब्द वापस आ रहे हैं. कल मन मे आया कि हिन्दी मे कहानी लिखूँ. बस सारा दिन छुट्टी का उसी कहानी के चक्कर मे निकल गया. रात को एक बजे जा कर सोया.
***
आज एक कविता दिल्ली की रुपाली सिन्हा की "मुक्ति", जो जून 2004 के हँस में छपी थीः
"तुमने कहा, विश्वास
मैंने सिर्फ तुम पर विश्वास किया
तुमने कहा,
वफ़ा
मैंने ताउम्र वफ़ादारी निभायी
तुमने कहा, प्यार
मैंने टूट कर तुमसे प्यार किया

मैंने कहा, हक
तुमने कहा सबकुछ तुम्हारा ही है
मैंने कहा, मान
तुमने कहा अपनों मे मान अपमान कहाँ ?
मैंने कहा, बराबरी
तुमने कहा,
मुझसे बराबरी ?
मैंने कहा, आज़ादी
तुमने कहा, जाओ मैंने तुम्हें सदा के लिए मुक्त किया."
***
और आज की तस्वीर है उत्तरी इटली की कोमों झील की

शनिवार, जुलाई 02, 2005

अंतरजाल का कमाल

सुबह सुबह उठ का तैयार हुआ और रेलवे स्टेश्न गया. रोम तक की यात्रा में करीब तीन घंटे लगे. फ़िर वहाँ से मैट्रो ली, फ़िर बस. देखने में तो जगह बहुत सुंदर थी हाँलाकि कुछ दूर अवश्य थी. पहाड़ियाँ और हरे भरे पेड़. होटल ढूंढने थोड़ी कठिनाई हुई, पहुँचते पहुँचते, पसीने कमीज़ पीठ पर चिपकने लगी थी, होटल एक पहाड़ी पर जो था. देखा तो दिल धक्क सा रह गया. दीवार पर उतरे हुए रंग, गिरती हुई सी दीवारें. अंदर भी वैसा ही हाल. हर चीज़ पर धूल की परत, थोड़े से लोग इधर उधर बैठे.

अंतरजाल, यानि इंटरनैट पर तो बहुत अच्छा लग रहा था. पर सच्चाई अंतरजाल मे दिखाये गये सच से बिल्कुल भिन्न थी. वह होटल हमारी मीटिंग के लिये उपयुक्त नहीं था. इतनी दूर आ कर मायूसी. फ़िर वापस बोलोनिया आने के लिये, उतनी ही लम्बी यात्रा और पूरे रास्ते पछता रहा था कि यूँ ही सारा दिन बेकार किया. अब कोई अन्य जगह ढूँढनी पड़ेगी.

अंतरजाल का कमाल, गधे को दिखाया घोड़े की चाल. नई कहावत है यह मेरी. सोचता हूँ, कैसे लोग ईबे (ebay) जैसी जगह से चीज़े खरीद लेते हैं, क्या उन्हें भी ऐसे लोग धोखा दे सकते हैं ?

फ़िर सोचा, आज के भूमंडलीकरण और अंतरजाल की दुनिया मे अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करने के लिये, क्या नयी कहावतें बन रही हैं या बन सकती हैं ?

आज की कविता मे हैं, विदिशा की सुश्री अमिता प्रजापति की कविता "मत हो उदास" की कुछ पंक्तियाँ

ओ नीलू मत हो निराश
कि चूक हुई है
हमारी पुरखिन मांओ से
नहीं बना पायीं वे ऐसे पुरुष
कि घुल सकें, बह सकें
हवाओं मे हल्के हो कर

ये हमारे पुरखे पिता
जो कसे हुए घोड़ों की तरह
अपनी टापें हमारी छाती पर रखा करते थे
भाई, पिता, प्रेमी और पति बन कर

और आज की तस्वीर है, दक्षिण भारत में भालकी के पास एक गाँव से

शुक्रवार, जुलाई 01, 2005

ब्लौग शिष्टाचार नियम

जैसे ईमेल के शिष्टाचार नियम हैं, वैसे ही चिट्ठे के भी शिष्टाचार नियम होंगे ? जब कोई आप के एक चिटठे पर कोई टिप्पड़ीं लिखे तो क्या करना चाहिये ? क्या सभी टिप्पड़ीं लिखने वालों को अलग अलग उत्तर देना चाहिये ? और अगर ऐसा न किया जाये तो क्या इसका अर्थ है कि आप में शिष्टा की कमी है ?

और कैसी बातें लिख सकते हैं चिट्ठे में ? क्या उसके भी शिष्टाचार नियम हो सकते हैं ? और अगर आप किसी के बारे में ऊल जलूल कुछ भी लिख दें, तो क्या वह व्यक्ति आप पर मान हानि का दावा कर सकता है ? और अगर ऐसे नियम हैं भी तो किसने बनाये हैं ?

कौन पढता है चिट्ठों को और क्यों ? समय गुज़राने के लिये यूँ ही ? कितने सारे सवाल. पर वह सवाल जिसका उत्तर जानने के मुझे शायद सबसे अधिक इच्छा है, क्यों लिखते हैं हम ये चिट्ठे ?

इस अंतिम सवाल के बारे में सोचता हूँ कि शायद हर किसी के मन में आत्म अभिव्यक्ति की इच्छा होती है, पर यह डर भी होता है कि जो हम कहना चाहते हैं, वह किसी को अच्छा लगे या न लगे, और अगर हम उसे किसी पत्रिका या अखबार में भेजने का साहस कर भी लें तो कोई उसे छापेगा नहीं और इससे हमारे आत्म सम्मान को ठेस लगेगी. इंटरनेट तथा चिट्ठे के बहाने यह भय दूर हो जाता है और प्रजातांत्रिक तरीके से हम सब को अपनी अभिव्यक्ति का अवसर मिल जाता है. तो क्या इसका अर्थ है कि धीरे धीरे, आत्मविश्वास बढने के साथ हममे से कुछ लोगों की रचनात्मक शक्ति बढेगी और नये लेखक सामने आयेंगे ?

और कुछ भी हो, एक बात तो है कि पहले जो बै सर पैर की बातें आप अपनी पत्नी या एक दो मित्रों के साथ करते थे, अब चिटठों के माध्यम से सारे विश्व से कर सकते हैं. कोई सुने या न सुने, वह अन्य बात है.

आज एक कविता रायपुर के संजय शाम की, दिसंबर २००३ के हँस से, समाचार बच्चा और झूठ

पापा आँटी क्यों रो रही है
पापा, बच्चे सड़क पर क्यों सो रहे हैं
क्यों ढक रहे हैं उन्हें एक सफ़ेद चादर से
पापा वो भैया जो चाय की केतली पकड़े है
स्कूल नहीं जाता क्या ?
पापा साधु बाबा को पुलीस क्यों पकड़ कर ले जा रही है?

उसने सौ सवाल पूछे
हमने सौ झूठ बोए
उसने छुपायी एक बात
हम भयभीत हुए
और विंतित भी
अभी से झूठ
ईश्वर जाने
इस बच्चे का
भविष्य क्या होगा

यह तस्वीर है लंदन में सोहो में चाईना टाऊन की



लंदन के रिक्शे और उन्हें चलाने वाले श्वेत युवकों को देख कर बड़ा अज़ीब सा लगता है. मन में एक छवि सी है, दो बीघा ज़मीन में रिक्शा खींचने वाले बलराज सहानी जैसी कि रिक्शा खींचने वाले, गरीब, शोषित लोग हैं. उस छवि का लंदन के इन रिक्शे वालों से कुछ दूर का भी नाता नहीं है.

गुरुवार, जून 30, 2005

एक दिन अचानक

शाँत आसमान से जैसे अचानक बिना किसी चैतावनी के बिजली गिर जाये. ठंडी हवा हो, सुन्दर मौसम, ख़िले हुए फ़ूल, साथ में मनपसंद साथी, मनोरम संगीत और अचानक बर्फ का तूफान. सुखद यात्रा, हँसी मजाक और नौक झौंक, अचानक टूटे पुल से बस नीचे नदी में जा गिरे. एक दिन अचानक ही, और बस उस एक क्षण में सब कुछ बदल जाये, तो कैसा हो ? कल शाम को काम से घर लौटा तो कुछ यूँ ही हुआ.

सुपुत्र जी क्मप्यूटर के सामने चिंतित बैठे थे, बोले, "पापा, इसकी हार्ड डिस्क तो गयी."

कितने काम, ईमैल के पते, पासवर्ड ... सब कुछ एक पल में ही गये. पिछली बार जब ऐसा हुआ था तो सोचा था, आगे से ऐसी नादानी नहीं करेंगे. सभी महत्वपूर्ण फाइलें दोनो क्मप्यूटरों में रखेंगे ताकि ... पर कुछ दिन, महीने बाद इस सब के बारे में भूल गया था. अब पछताये क्या होत जब क्मप्यूटर के उड़ गयो दिमाग ?

तो मन को शाँत करने के लिये आज की कविता के लिये बच्चन जी की "मधुशाला" की कुछ पंक्तियाँ, यानी की बड़ी बीमारी को इलाज़ भी बड़ा ही चाहियेः

उतर नशा जब इसका जाता,
आती है संध्या बाला,
बड़ी पुरानी, बड़ी नशीली
नित्य ढ़ला जाती हाला॥

जीवन के संताप, शोक सब
इसको पी कर मिट जाते॥

सुरा सुप्त होते मद लोभी,
जाग्रत रहती मधुशाला.

और आज की तस्वीर है लंदन के रीजैंट स्टीर्ट पर एक पुराने भवन पर लगी ग्रीस की देवी अथेना की मूर्ति की.


मंगलवार, जून 28, 2005

माजरा क्या है?

दुनिया में दो तरह के लोग रहते हैं, एक वह जो तमाशा करते हैं और दूसरे वह जो आस पास से खड़े हो कर पूछते हैं, क्या माजरा है भाई साहब. दूसरी श्रेणी के लोग, यानी माजरा क्या है पूछने वाले, पहली श्रेणी के लोगों से बहुत अधिक हैं. जब से टेलीविज़न का आविष्कार हुआ है तब से तो माजरा देखने वालों की संख्या और भी कई गुना बढ़ गयी है.

"अरे साला, देखो कैसे अपनी जोरु को पीट रहा है?" "अजी, क्या अखबार में मुँह घुसाये बैठे हो, देखो बाहर पुलीस शास्त्री जी के सुपुत्र को ले कर जा रही है." "देखा तुमने कैसे चुन्नु की बीवी ने चौदराईन को दो टूक ज़बाव दिया, बोलती बन्द हो गयी उसकी." "कौन जाने कौन था, बेचारा यूँ सड़क पर ही मर गया."... इत्यादी अन्य बातें हो सकती है जो "माजरा क्या है" जैसे सवाल के बाद, माजरा देखने वालों में अक्सर निकल आती हैं. माजरा देखने वाले, रस ले ले कर खुशी से दूसरों पर आयी मुसीबत का मजा उठाते है.

कभी कभी, माजरा देख कर भी चुपचाप ही रहना पड़ता है. यानी मन में खुशी के लड्डु फूट रहे हों, फिर भी चेहरा गम्भीर बना कर यूँ रहने पर हम मजबूर होते हैं मानो हमें सचमुच बहुत दुख हो रहा हो. घर में अगर पिता जी का झापड़ अगर आप के छोटे या बड़े भाई को पड़े, या फिर जब मास्टर साहब उस लड़के को मुर्गा बनवायें जिससे आप का झगड़ा हुआ था, तो ऐसा भी हो सकता है कि आप माजरा तो देखें, पर छुप छुप कर.

तो क्या, माजरा देखना केवल दूसरों की मुसीबतों में ही हो सकता है. जब दूसरे लोग खुशी मना रहें हो तो क्या वहाँ माजरा देखने वाले नहीं हो सकते? आप का क्या खयाल है?

अरे साहब आप क्या सिर्फ हमारे चिट्ठे को पढ़ कर मन ही मन खुश होते रहेंगे कि कितनी बेवकूफी की बातें लिखी हैं हमने ? माजरा देखना छोड़िये और आप भी अपनी कलम उठाइये, इन माजरा देखने वालों ने तो नाक में दम कर दिया है.

***

सोमवार, जून 27, 2005

संस्कृति सभ्यत्ता की रक्षा

घर के पास एक खेत में खिले लाल पौपी के फ़ूल
आज अपने ब्लौग पर पहली टिप्पड़ीं मिली श्री अनूप शुक्ला की जो अनुगूँज नाम के वेब पृष्ठ को चलाते हैं जहाँ हिन्दी में ब्लौग [चिट्ठा] लिखने वाले आपस में बातचीत कर सकते हैं. अनुगूँज का ही एक प्रयत्न है कि चिट्ठा लिखने वाले एक विषय पर कुछ लिखें. शायद इसका उद्देश्य है कि हम लोग फ़िर एक दूसरे के चिट्ठों को पढ़ने के लिये प्रेरित होंगे वरना तो हर कोई सिर्फ अपने अपने चिट्ठों मे लगा रहेगा और हम लोग एक साथ अपना सामूहिक संगठन नहीं कर पायेंगे? इस माह का विषय है "माजरा क्या है". अगला ब्लौग मेरा भी इसी विषय पर होगा.

कल शाम को बाग में एक पाकिस्तानी दम्पती से मुलाकात हुई. अपनी चार पाँच साल की बेटी के साथ सैर कर रहे थे. बात करने लगे तो वह कहने लगे की उनकी पत्नी सिर्फ घर में रहतीं हैं, न तो उन्हें कुछ इतालवी भाषा आती है और न ही वह चाहतें हैं कि पत्नी उसे सीखें या अकेले बाहर जाने की सोचे, काम करने की सोचना तो बहुत दूंर की बात है. थोड़ी देर तो मैने उनके विचार बदलने के लिये बहस शुरु कर दी मगर फ़िर देखा के हम दोनों को ही गुस्सा आने लगा है तो चुप हो गया. उनका ख़्याल है यही तरीका है यहाँ रह कर अपनी संस्कृति और सभ्यता को बचाने का. इस पूरी बहस के दौरान उनकी पत्नी ने एक शब्द भी नहीं कहा न ही उन्होंने अपनी पत्नी की कोई राय इस बारे में जानना आवश्यक समझा.
एक बाद में इस बारे में सोच रहा था तो इलाहाबाद में छोटे फ़ूफा के बड़े भाई की याद आ गयी. वह भी तो कुछ इसी तरह सोचते थे. लड़कियाँ पढ़ सकतीं थीं और इसलिये निन्नी दीदी, किरन, सभी ने बीए मेए करके भी घर में बन्द रहतीं थी, क्यौंकि बेटियों के नौकरी करने से परिवार के आत्म सम्मान को ठेस लगती थी. जाने कितने परिवार होंगे आज भी जहाँ ऐसा ही सोचते हैं लोग और लड़कियाँ घुट घुट कर सारा जीवन गुज़ारने को ही अपना धर्म समझती हें.

आज की कविता मे हैं महादेवी वर्मा की कुछ पंक्त्तियाः

तुम हो विधु के बिम्ब और मैं मुग्धा रश्मि अजान,
जिसे खींच लाते अस्थिर कर कौतूहल के बाण.

स्वरलहरी मैं मधुर स्वप्न की तुम निन्द्रा के तार,
जिसमें होता इस जीवन का उपक्रम उपसंहार.

मुझे बाँधने आते हो लघु सीमा मे चुपचाप,
कर पाओगे भिन्न कभी क्या ज्वाला से उत्ताप?


इस वर्ष के लोकप्रिय आलेख