शनिवार, मार्च 17, 2007

परदे के पीछे औरत

पामबज़ूका पर कमीलाह जानन रशीद का हिजाब (मुस्लिम औरतों का सिर ढकना) के बारे में लेख पढ़ा. कमीलाह अमरीकी-अफ्रीकी हैं और मुस्लिम हैं, और आजकल दक्षिण अफ्रीका में जोहानसबर्ग में पढ़ रही हैं. कमीलाह लिखती हैं:

मुझे यह साबित करने में कोई दिलचस्पी नहीं है कि मैं स्वतंत्र हूँ या फ़िर अमरीका में हिजाब पहन कर मैं कोई बगावत का काम कर रही हूँ... लोगों को यह यकीन दिलाना कि हिजाब मेरे सिर से ओपरेशन करके चिपकाया नहीं गया है, इसमें भी मुझे कोई दिलचस्पी नहीं है... मेरा काम है यहाँ वह लिखूँ जो इस बात को खुल कर समझा सकें कि जिन लोगों ने मेरी मुक्ती की ठानी है और जो सोचते हैं कि मेरा दमन हो रहा है, वही लोग कैसे मेरा दमन करते हैं. ऐसा दमन जो हिजाब से नहीं होता, उनके मेरे बारे में सोचने से होता है क्योंकि वे मुझे अपनी मानसिक जेलों में बंद नज़रों से देखते हैं. यह कह कर कि हिजाब पहनने से मैं केवल दमन का प्रतीक बनी हूँ, आप उन्हीं पृतवादी समाजों को दृढ़ कर रहे हैं, जिनसे आप नफरत करने का दावा करते हैं. आप ने मुझे अपनी कल्पना के पिंजरे में कैद किया है और बाहर निकलने का मेरे लिए केवल एक ही रास्ता है कि मैं आप की बात को स्वीकार करूँ और आप की बात को सदृढ़ करूँ कि हाँ मैं दमनित हूँ.

अगर मैं कहती हूँ कि मैं हिजाब पहन कर भी मजे में हूँ और कोई बँधन नहीं महसूस करती, तो आप मुझसे इस तरह क्यों बात करने लगते हैं मानो कि मैं कोई बच्ची हूँ? आप मुझे यह यकीन क्यों दिलाना चाहते हें कि नहीं मैं धोखे में जी रही हूँ, ऐसा धोखा जिसमें मुझे स्वतंत्रा और दमन में अंतर समझ नहीं आता? सवाल यह कभी नहीं होता कि "कमीलाह का दमन हो रहा है?", क्योंकि मुझे मालूम है कि यह प्रश्न मेरे भले बुरे को सोच कर नहीं पूछा जा रहा...

कमीलाह का लेख पढ़ कर सोच रहा था, मानव जीवन में वस्त्रों के महत्व के बारे में. जैसे बातों से, भावों से और इशारों से हम लोग औरों से अपनी बात कहते हैं, वस्त्रों के माध्यम से भी कुछ कहते हैं. चाहे धोती कुरता पहने हों, या सूट और टाई, मिनी स्कर्ट हो या साड़ी, हमारे वस्त्र बिना कुछ कहे ही लोगों को हमारे बारे में कहते हैं. और कमीलाह का गुस्सा मुझे लगता है कि इसी बात से है कि वह अपने हिज़ाब के माध्यम से जो कहना चाहती है, बहुत से लोग उसे समझ नहीं पाते या गलत समझते हैं. यानि प्रश्न यह है कि क्यों मुस्लिम युवतियों के द्वारा सिर को ढकने को दमन और मुस्लिम रूढ़ीवाद का का प्रतीक माना जाने लगा है?

हिंदुस्तानी घर में नयी दुल्हन का घूँघट या फ़िर सास ससुर के सामने सिर ढकना, क्या वह भी दमन के चिन्ह ही हैं?
धर्म के नाम पर समाज को छोड़ने वालों की बात भी अलग है. साधू और साधवियाँ जब जटा बाँध लेते हैं या सिर मुडा लेते है और गेरुआ पहनते हैं तो क्या वह भी दमन के चिन्ह हैं? क्या केथोलिक ननस का सिर ढकना और तन ढकने वाली पोशाक पहनना भी दमन हैं? और इनमे तथा मुस्लिम युवतियों द्वारा हिजाब या बुरका पहनने में क्या अंतर है?

बुरका पहनने वाली सभी औरतें क्या दमनित होती हैं? बचपन में पुरानी दिल्ली के जिस भाग में बड़ा हुआ था वहाँ बुरका पहनने वाली औरतें दूर से दिखने वाली तस्वीरें नहीं थीं बल्कि हाड़ मास की मानस थीं. उनमें से पति की मार खाने वाली औरतें भी थीं और पति से न दबने वाली भीं.

मेरे विचार में अहम प्रश्न और शायद असली फर्क की बात है अपनी स्वेच्छा से कुछ करना या फ़िर कुछ करने के लिए मजबूर होना. पर शायद विषेश समाज और संस्कृति में पलने बड़े होने से "स्वेच्छा" कम स्वतंत्र होती है?

जैसे जो बात पुरानी दिल्ली में सही लगती हो, या घर में सास ससुर के सामने सही लगती हो, वह यूरोप में अजीब लगती है. कमीलाह कुछ भी कहें, योरोप में जब गर्मियों में हर जाति और देश के बच्चे और पुरुष अधनँगे घूमते हैं, यूरोपीय लड़िकयाँ और औरतें कम से कम कपड़ों में घूमती हैं, और उनके बीच में निक्कर पहने या बिना बाजू की कमीज पहने मुस्लिम पुरुष के साथ बुरके में सिर से पाँव तक ढकी स्त्री को देख कर अजीब सा लगना स्वाभाविक सा है.

कमीलाह जब कहती हैं कि हिजाब के पीछे वह सुरक्षित महसूस करती हैं और उसे अपने धर्म का पालन करना मानती हैं तो क्या इसका अर्थ है कि उनके समाज में पुरुष अधिक असभ्य हैं, जिन पर भरोसा नहीं किया जा सकता और जिनकी वजह से औरतें सुरक्षित नहीं हैं? मुझे तस्लीमा की बात सही लगती है कि सब बुरके, हिजाब, सिर ढकने वाले कपड़े, पृतवादी समाज के द्वारा स्त्री को दबाने के अलग अलग तरीके हैं, इसलिए भी कि यह आप को क्या पहने या न पहने को चुनने की स्वतंत्रता नहीं देता. ढाका में इतालवी दूतावास में काम करने वाली एक इतालवी युवती ने मुझे बताया था कि वह एक बार घुटने तक की पैंट पहन कर दूतावास से बाहर निकलीं तो लड़कों ने उन्हें पत्थर मारे. यानी उनका कहना था कि यहाँ रहना है तो हमारे तरीके से कपड़े पहनो.

प्रसिद्ध इतालवी लेखिका ओरियाना फालाची नें अपने अंतिम वर्षों में इस बात पर बहुत बहस की थी. उनका कहना था कि, "अगर आप बँगलादेश, पाकिस्तान, साऊदी अरेबिया या ईरान जैसे देशों में जायें तो आप को कहा जाता है कि आप सिर से पाँव तक अपने को ढकिये, क्योंकि यह वहाँ की सभ्यता है. पर जब वहाँ के लोग हमारे यहाँ यूरोप में आते हें तो क्यों अपने ही वस्त्र पहनने की माँग करते हैं, औरतों को काली चद्दर के पिंजरे में बाँध कर बाहर ले जाना मुझे औरत की बेइज्जती लगती है तो वह कहते हैं कि हमें विभिन्न सभ्यताओं का सम्मान करना चाहिये और यह उनका धर्म है, तो यह विभिन्न सभ्यताओं का सम्मान अपने देशों में क्यों भूल जाते हैं? सच तो यह है कि पिछड़े हुए रूढ़िवादी मानसिकता वाले यह लोग, हमारे घर में आ कर हमें कहते हें कि हमारी सभ्यता गलत है, केवल इनकी सभ्यता सही है और हमें भी अपनी औरतों को परदे में बंद करना चाहिये." "इंशाल्लाह" जैसी किताब लिखने वाली ओरियाना मुस्लिम सभ्यता की गहन शौधकर्ता थीं पर अपने जीबन के अंतिम वर्षों में कैंसर के साथ साथ लड़ते लड़ते, उन्होने रूढ़िवादी मुस्लिम समाज के विरुद्ध लिखना शुरु किया और सभाओं में बात की.

एक बार फ्राँस में रहने वाली दो युवतियों का अखबार में साक्षात्कार पढ़ा था जिसमें उन्होंने कमीलाह जैसी बात की थी, उनका कहना था कि परदा उनकी अपनी मरजी से है, कोई जोर जबरदस्ती नहीं है. पर मेरी जान पहचान के दो पाकिस्तानी परिवार जब अपनी पत्नियों को बिना किसी पुरुष के साथ न होने से घर से बाहर नहीं निकलने देते, कहते हैं कि इन्हें काम करने की आवश्यकता नहीं, इन्हे कार चलाना सीखने की आवश्यकता नहीं, तो यह सब बातें परदा करने वाली मानसिकता से जुड़ी लगती हैं. उन्हीं से मिलता जुलता जान पहचान का दो हरियाणवी भाईयों का परिवार भी है जो बहुत सी बातों में वैसा ही सोचते हैं और उनके घर की स्त्रियाँ यहाँ यूरोप में रह कर भी वैसे ही रहती हैं मानों भारत के किसी गाँव में रह रहीं हो. वह अपने मन में दमनित महसूस करती हैं या नहीं, यह किसे मालूम होगा, और किससे कहेंगी? क्या अकेले में खुद से कह पायेंगी यह?





बुधवार, मार्च 07, 2007

बदलते हम

1966-67 की बात है, तब हम लोग दिल्ली के करोलबाग में रहने आये थे. मेरे कामों में सुबह और शाम को दूध लाने का काम की जिम्मेदारी भी थी. यह "श्वेत क्राँती" वाले दिनों से पहले की बात है जब दिल्ली में दिल्ली मिल्क सप्लाई के डिपो होते थे और काँच की बोतलों में दूध मिलता था. नीले रंग के ढक्कन वाला संपूर्ण दूध, सफेद और नीली धारियों के ढक्कन वाला हाल्फ टोन्ड यानि जिसमें आधा मक्खन निकाल दिया गया हो, और हल्के नीले रंग के ढक्कन वाली बिना मक्खन वाला दूध. गिनी चुनी दूध की बोतलों के क्रेट आते और बूथ खुलते ही आपा धापी मच जाती, थोड़ी देर में ही दूध समाप्त हो जाता और देर से आने वाले, बिना दूध के घर वापस जाते.

दूध पक्का मिले इसके लिए डिपो खुलने के कुछ घँटे पहले ही उसके सामने लाईन लगनी शुरु हो जाती. यानि सुबह चार बजे के आसपास और दोपहर को तीन बजे के आसपास. सुबह सुबह उठ कर डिपो के सामने पहले अपना पत्थर या खाली बोतल रखने जाते फ़िर, डिपो खुलने से आधा घँटा पहले वहाँ जा कर इंतज़ार करते. उसी इंतज़ार में अपने हमउम्र बच्चों के साथ खेलने का मौका मिलता. पहले जहाँ रहते थे, वहाँ सभी बच्चे हमारे जैसे ही थे, निम्न मध्यम वर्ग के, पर करोलबाग में बात अलग थी. यहाँ लोग कोठियों में रहने वाले थे, हर घर में एक दो नौकर तो होते ही थे और दूध लाने का काम अधिकतर छोटी उम्र के नौकर ही करते.

उनके साथ रोज खेल कर ही जाना बचपन में काम करने वाले बच्चों के जीवन को. किशन, राजू, टिम्पू मेरे दूध के डिपो के खेल के साथी थे. किसकी मालकिन कैसी है यह सुनने को मिलता.

एक दिन खेल रहे थे कि किशन ने मुझसे पूछा, "तुम किस घर में काम करते हो?" तो सन्न सा रह गया. मैं नौकर नहीं हूँ, सोचता था कि यह बात तो मेरे मुख पर लिखी है, मेरे कपड़ों में है, मेरे बोलने चालने में है. "मैं नौकर नहीं हूँ!" मैंने कुछ गुस्सा हो कर कहा और किशन से दोस्ती उसी दिन टूट गयी. मुझे लगा कि उसने वह प्रश्न पूछ कर मेरा अपमान किया हो. पर मन में एक शक सा बैठ गया और हीन भावना बन गयी कि शायद बाहर से मैं भी गरीब नौकर सा दिखता हूँ.

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बात 1978-79 की होगी. मैं तब डा. राम मनोहर लोहिया अस्पताल में पढ़ रहा था. एक दिन काम से शाम को अस्पताल से लौट रहा था तो एक बच्चे को उठाये एक भिखारन समाने आ कर खड़ी गयी, भीख माँगते हुए बोली, "साहब जी, बहुत भूख लगी है."

पहली बार थी किसी ने साहब जी कहा था. अचानक मन में दूध के डिपो पर हुई किशन की बात याद आ गयी और मन में संतोष हुआ कि शायद अब बाहर से उतना गरीब नहीं लगता.

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1982 की बात होगी, मैं इटली में रहता था और भारत आया था. रफी मार्ग से पैदल जा रहा था कि किसी ने पीछे से पुकारा, "सर, डालर चैंज, डालर चेंज! वेरी गुड रेट सर."

मन में आश्चर्य हुआ कि उसने कैसे जाना कि मैं विदेश से आया था? क्या मेरी शक्ल बदल गयीं थी या चलने का तरीका बदल गया था? सैंडल पहने हुए थे, और कँधे पर झोला टँगा था, अपने आप में तो मुझे कोई फर्क नहीं लग रहा था, पर कुछ था जो बदल गया था?

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1996 की बात है, मैं और मेरी पत्नी हम बम्बई में चर्चगेट के पास जा रहे थे. भारत में छुट्टियों में गये थे. पेन बेचने वाला पीछे लग गया. "अँकल जी ले लो प्लीज, मेरी कोई बिक्री नहीं हुई." घूम कर देखा तो कोई बच्चा नहीं था, अच्छा खासा नवजवान. क्या मैं इतने बड़े का अंकल लगता हूँ?

मन में अजीब सा लगा. तब तक भाई साहब सुनने को तो मिलता था पर पहली बार कोई व्यस्क मुझे अंकल जी कह कर बुला रहा था.

जब वापस होटल पहुँचे तो शीशे में अपना चेहरा देखा. हाँ इतने सफेद बाल तो होने लगे थे कि अंकल बुलाया जाऊँ!

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कल मिलान में मारियो नेग्री इंस्टीट्यूट में स्नाकोत्तर छात्रों को पढ़ाने गया था. कक्षा समाप्त होने पर वापस मिलान रेलवे स्टेशन जा रहा था जहाँ से बोलोनिया की रेल पकड़नी थी. बस में चढ़ा तो बस भरी हुई थी. जहाँ खड़ा हुआ, वहाँ बैठा लड़का खड़ा हो गया और मुझसे बोला कि यहाँ बैठ जाईये.

यह भी पहली बार ही हुआ है कि कोई बैठा हुआ मुझे अपनी जगह दे कर बैठने के लिए कहे! अब सारे बाल सफेद होने लगे हैं शायद इसीलिए उसने सोचा हो कि बूढ़े को जगह दे दो? या फ़िर पढ़ा कर बहुत थका हुआ लग रहा था?

शुक्रवार, मार्च 02, 2007

मेरी प्रिय महिला चित्रकार (2) - अमृता शेरगिल (1)

भारत की शायद सबसे प्रसिद्ध महिला चित्रकार अमृता शेरगिल, भारत से बाहर कला विशेषज्ञों में उतनी पसिद्ध नहीं हैं, पर भारतीय कला क्षेत्र में उनका प्रभाव बहुत महत्वपूर्ण रहा है. भारतीय विषयों, विशेषकर सामान्य स्त्रियों और गरीबों के जीवन पर बने उनके चित्र में पाराम्परिक पश्चिमी कला शैली को भारतीय परिवेश में ढालने का काम जब उन्होंने बीसवीं सदी के तीसरे दशक में प्रारम्भ किया तो वह भारतीय कला क्षेत्र के लिए नवीनता थी. भारतीय कला क्षेत्र में अपना नाम बनाने और प्रसिद्धि पाने वाली वह पहली महिला थीं.

अमृता का जन्म 30 जनवरी 1913 में हँगरी की राजधानी बुदापस्ट में हुआ. उनके पिता सरदार उमराव सिंह अमृतसर के पास मजीठा से थे और पंजाब के राजसी घराने से सम्बंध रखते थे. उनकी रुचि साहित्य, आध्यात्मिकता, कला आदि क्षेत्रों में थीं. 1911 में उनकी मुलाकात हँगरी की मेरी अन्तोनेत्त से हुई जो महाराजा रंजीत सिंह के पोती राजकुमारी बम्बा के साथ भारत आईं थीं. उमराव सिंह ने अन्तोनेत्त से विवाह किया और विवाह के बाद पत्नी के साथ हँगरी चले गये जहाँ उनकी दो बेटियाँ हुई, अमृता और इंदिरा. वे दिन प्रथम विश्व महायुद्ध के थे और उन वर्षों में भारत यात्रा करना कठिन था. युद्ध की वजह से ही हँगरी में परिवार की आर्थिक हालत बहुत अच्छी नहीं थी.



सरदार उमराव सिंह


मेरी अन्तोनेत्त


अमृता और इंदिरा
1921 में जब अमृता 7 वर्ष की थीं, वह पहली बार भारत आयीं.

अमृता के पिता अगर गम्भीर व्यक्तित्व के थे तो माँ लोगों से मिलने जुलने वाली, पार्टियों में जाने वाली, और पति पत्नी में अक्सर न बनती, माँ को अक्सर उदासी के दौरे पड़ते, आत्महत्या करने की धमकी देतीं, जिन सबका अमृता पर बहुत असर पड़ा.
1923 में अन्तोनेत्त की मुलाकात एक इतालवी मूर्तिकार से हुई जिनसे शायद उनके सम्बंध थे. उमराव सिंह से कहा गया कि वे अमृता को चित्रकला सिखाते हें. जब वे इटली वापस गये तो उनके पीछे पीछे अन्तोनेत्त भी बेटी अमृता को ले कर इटली आयीं, यह कह कर कि उनकी चित्रकार बेटी को कला की सही शिक्षा चाहिये. जनवरी 1924 में 11 वर्ष की अमृता ने फ्लोरेंस का सांता अनुंज़ियाता विद्यालय में दाखिला लिया. कुछ समय के बाद जब मूर्तकार और अन्तोनेत्त के सम्बंध बिगड़े तो माँ बेटी वापस भारत लौट आयीं. स्वतंत्र घूमने और अपनी मर्जी से सब काम करने वाली अमृता को इटली के नन द्वारा चलाये विद्यालय का रोक रुकाव और नियमों में बंधा जीवन बिल्कुल अच्छा नहीं लगा. उस समय तक अमृता बहुत चित्र बनाने लगीं थीं पर उनके चित्रों के विषय अधिकतर पाराम्परिक यूरोपीय शैली के होते थे.


सांता अनुंज़ियाता विद्यालय

भारत में उन्हें शिमला के एक कोनवेंट स्कूल में डाला गया, जहाँ भी वह खुश नहीं थीं और जहाँ से कुछ समय के बाद उन्हें निकाल दिया गया. 1927 में अमृता के हँगरी से माँ की तरफ के एक रिश्तेदार भारत आये, श्री एर्विन बक्टे जो चित्रकार थे और जिन्होने अमृता को जीते जागते आसपास के लोगों के चित्र बनाने की सलाह दी. इस तरह घर के नौकर चाकर, पड़ोसियों आदि से अमृता ने पहली बार भारतीय विषयों पर चित्र बनाना शुरु किया. 1929 में जब अमृता 16 वर्ष की थीं तो उनकी माँ ने उन्हें पेरिस में कला शिक्षा दिलाने की सोची. अमृता ने जल्दी ही फ्राँसिसी भाषा सीख ली और उनका व्यक्तित्व बदल गया, वह पार्टयों में जाने लगे, कलाकारों, लेखकों के साथ समय बिताने लगीं. पेरिस के कला विद्यालय से शिक्षा के साथ साथ यह उनका अपना जीवन अपनी तरह से जीने का समय था जिसे उन्होंने फ़िर दोबारा नहीं छोड़ा. पेरिस में एक पंजाबी रईस से उनका विवाह भी तय हुआ पर अमृता ने वह विवाह तोड़ दिया.

1934 में कला शिक्षा पूरी होने के बाद अमृता भारत लौट आई. तब तक उनके जीवन के बारे में बातें फैलने लगीं थीं कि वह स्वछंद किस्म की हैं, स्वतंत्र यौन सम्बंधों में विश्वास रखती हैं, विवाह नहीं करना चाहतीं, आदि और उनके पिता चाहते थे कि वे भारत न आयें बल्कि यूरोप में ही रहें, पर अमृता ने ठान लिया कि भारत ही उनका देश था और वापस आ कर उन्होंने भारतीय विषयों पर ही चित्र बनाने शुरु किये. कहा जाता है कि वह कई बार माँ बनने वाली थीं पर उन्होने बच्चा गिरा दिया. पहले कुछ दिन मजीठा की हवेली में रह कर, वह शिमला आ गयीं. इन वर्षों में वह भारत में बहुत जगह घूमीं.




1938 में वह हँगरी गयीं जहाँ उन्होंने अपने एक रिश्तेदार डा. विक्टर एगान से विवाह किया.हँगरी में उन्होंने करीब एक साल बिताया जिसके दौरान उन्होंने फ़िर से यूरोपीय विषयों पर चित्र बनाये. 1939 में जब द्वितीय महायुद्ध शुरु हो रहा था वह पति के साथ भारत लौटीं. शिमला में कुछ समय बिता कर उन्होने कुछ समय उत्तरप्रदेश के गौरखपुर जिले में बिताया और फ़िर वह लाहौर में रहने लगीं जहाँ 5 दिसंबर 1941 में 28 वर्ष की आयु में अमृता का देहांत हुआ. अमृता के जीवन के बारे में उनकी छोटी बहन इंदिरा के पुत्र विवेन संदरम ने लिखा है.

प्रसिद्ध भारतीय लेखक खुशवंत सिंह लाहोर के दिनों की अमृता को जानते थे और अपने एक लेख में अमृता के स्वछंद जीवन और स्वतंत्र यौन सम्बंध बनाने के बारे में उस समय की चर्चाओं के बारे में लिखा है और जिसमें वह अमृता के मुँहफट स्वभाव के बारे में बताते हैं. उनका कहना है कि अमृता की मृत्यु के बारे में चर्चा थी कि वह उस समय गर्भवति थीं, बच्चा नहीं चाहतीं थी और उनके पति ने घर में ही गर्भपात का आपरेश्न किया जिसमें बहुत खून बहने से वह मरीं.

अगले भाग में अमृता शेरगिल की कला के बारे में.



अमृता शेरगिल आत्मप्रतिकृति

बुधवार, फ़रवरी 28, 2007

मेरी प्रिय महिला चित्रकार (1) - फ्रीदा काहलो

चित्रकला के क्षेत्र में महिलाओं के नाम बहुत कम आते हैं. अगर आप जगतप्रसिद्ध महिला चित्रकारों के नाम खोजें तो फ्रीदा काहलो के अतिरिक्त कोई भी नाम नहीं मिलता, और फ्रीदा का नाम भी सबको नहीं मालूम होता. चौदहवीं पँद्रहवीं शताब्दियों में जब युरोप में कला के पुनर्जन्म का युग था, किसी भी महिला चित्रकार का नाम विशेष रुप से नहीं सुनने को मिलता और अधिकतर पश्चिमी कला समीक्षकों की सर्वश्रेष्ठ कलाकारों की सूची में भी कोई महिला चित्रकार नहीं होतीं.

मेरी प्रिय महिला चित्रकारों में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक ही नाम है, फ्रीदा काहलो का.



फ्रीदा का जन्म 1907 में मेक्सिको में हुआ. उनके पिता हँगरी के प्रवासी थे. इस दृष्टि से फ्रीदा मेरी एक अन्य प्रिय महिला चित्रकार, अमृता शेरगिल, से मिलती है क्योंकि अमृता की माँ हँगरी की थीं.

छोटी सी फ्रीदा को पोलियो हुआ और दाँयीं टाँग पर उसका असर पड़ा, कुछ ठीक होने पर फ्रीदा ने बहुत से खेलों में भाग लेना शुरु किया ताकि दाँयीं टाँग मजबूत हो जाये पर यह टाँग कुछ छोटी ही रही जिसकी वजह से वह ऊँची एड़ी वाली जूता पहनती थीं और उनकी चाल में एक विशिष्टता थी.

18 साल की फ्रीदा को एक बस दुर्घटना में बहुत चोट लगी और कई हड्डियाँ भी टूट गयीं. इनकी वजह से उनका जीवन दर्द और चलने फिरने की तकलीफ़ में गुजरा. दियेगो रिवेरा से विवाह करके उनका वयस्क जीवन अमरीका कि डेट्रोयट शहर में गुज़रा.

फ्रीदा की कोई संतान नहीं हुई, कई गर्भपात हुए. संतान न होने के दुख को उन्होंने बहुत सी चित्रों में उतारा जैसे कि "उड़ता पँलग" नाम के चित्र में जिसे "हैनरी फोर्ड अस्पताल" के नाम से भी जाना जाता है, जिसमें खून में लथपथ पँलग पर लेटी फ्रीदा के शरीर से बहुत से तार निकल रहे हें जिनमें से एक तार एक भ्रूण से जुड़ा है.



संतान के न होने की पीड़ा को कला में व्यक्त करने की बात से मुझे उनमें भारतीय अभिनेत्री मीना कुमारी की याद आती है. 1960 के दशक में विभिन्न फ़िल्मों में जैसे "चंदन का पलना" मीना कुमारी ने इसी पीड़ा को दिखाया और कई बार असली जीवन और परदे के जीवन का भेद पता नहीं चलता था.

फ्रीदा ने अधिकतर चित्र छोटे आकार के बनाये और उनकी बहुत सी तस्वीरों में स्वयं ही चित्र का प्रमुख पात्र होती थीं. लाल रँग का उनके चित्रों नें विशेष स्थान दिखता है. 1954 में 47 वर्ष के आयु में उनका देहाँत हुआ. प्रस्तुत हैं फ्रीदा के कुछ चित्र.





आत्मप्रतिकृति और बंदर


कटे बालों वाली आत्मप्रतिकृति


आत्मप्रतिकृति और गले का हार


फ्रीदा के विचारों में दियेगो

मंगलवार, फ़रवरी 27, 2007

जो हुआ वो क्यों हुआ?

आजकल मैं स्टीवन लेविट (Steven D. Levitt) और स्टीफन डुबनर (Stephen J. Dubner) की किताब फ्रीकोनोमिक्स (Freakonomics) पढ़ रहा हूँ. स्टीवन लेविट अर्थशास्त्री हैं और डुबनर पत्रकार.

लेविट को उन बातों पर सवाल पूछना अच्छा लगता है जो हमारे लिए साधारण होती हैं और जिनके लिए हमारे मन में कोई संशय या सवाल नहीं उठते. अपने उत्तरों से लेविट कुछ अर्थशास्त्र के सिद्धांत और कुछ आम समझ का प्रयोग करके यह दिखाते हैं कि साधारण सोच में सही लगने वाली बहुत सी बातें गलत भी हो सकती हैं.

1990-94 के आसपास, अमरीका में अपराध दर बढ़ती जा रही थी और सभी चितिंत थे कि यह कम नहीं होगी, बढ़ती ही जायेगी. पर ऐसा हुआ नहीं और अपराध दर कम होने लगी. विशेषज्ञों का कहना था कि यह अपराध को रोकने की नयी नीतियों की वजह से हुआ. लेविट कहते हें कि नहीं, यह इसलिए हुआ क्योंकि 1973 में अमरीकी कानून ने गर्भपात की अनुमति दी जिससे गरीब घरों की छोती उम्र वाली माँओं को गर्भपात करने में आसानी हुई और इन घरों से अपराध की दुनिया में आने वाले नौजवानों की संख्या में कमी हुई.

एक अन्य उदाहरण में लेविट दिखाते हें कि विद्यालयों की पढ़ायी के स्तर में सुधार लाने के लिए बनाये गये कानून से शिक्षकों को गलत काम करने की प्रेरणा मिली जिससे उन्होनें इन्तहानों में बच्चों को झूठे नम्बर देना शुरु कर दिया. लेविट यह भी दिखाते हें कि कैसे घर बेचने का काम करने वाली व्यवसायिक कम्पनियाँ आप के घर को कम कीमत में बेचती हें जबकि आप को बाज़ार में उसके कुछ अधिक दाम मिल सकते थे.

कितना सच है लेविट की बातों में यह तो नहीं कह सकता, पर यह किताब बहुत दिलचस्प है. लेविट और डुबनर ने अपना एक चिट्ठा भी बनाया है जिसमें वह दोनो अपने पाठकों से बातें भी करते हैं और नयी जानकारी भी देते हैं.

*****

कल के चिट्ठे की सभी टिप्पणियों के लिए दिल से धन्यवाद.

अविनाश, तुम ठीक कहते हो, तुमसे मुलाकात चिट्ठों की दुनिया से बाहर हुई थी, पर कल सुबह काम पर देर हो रही थी और जल्दी में मेंने कुछ भी लिख दिया. :-)

नीलिमा, तुम्हारी पूरी बात समझ में नहीं आई, और शायद न समझने में ही भलाई है, हाँ हिंदी के बारे में विस्तार से बात करने के लिए मुझे बहुत खुशी होगी.

सोमवार, फ़रवरी 26, 2007

सवाल जवाब

पिछले दिनों में काम में इतना व्यस्त था कि बहुत दिनों के बाद चिट्ठों को पढ़ने का समय अब मिल रहा है, देखा कि इस प्रश्नमाला के झपेटे में दो तरफ़ से आया हूँ, नीलिमा की तरफ़ से और बेजी की तरफ से. फायदे की बात यह है कि आप दोनो के प्रश्न भिन्न हैं इसलिए मुझे यह छूट है कि जो सवाल अधिक अच्छे लगें, उनका ही जवाब दूँ!

पहले तीन प्रश्न नीलिमा के हैं

आपकी चिट्ठाकारी का भविष्य क्या है ( आप अपने मुंह मियां मिट्ठू बन लें कोई एतराज नहीं)?

मेरी चिट्ठाकारी का भविष्य शायद कुछ विषेश नहीं है, जब तक लिखने के लिए मन में कोई बात रहेगी, लिखता रहूँगा, पर मेरे विचार में जैसा है वैसा ही चलता रहेगा. मेरे लिए चिट्ठाकारी मन में आयी बातों को व्यक्त करने का माध्यम है, जिन्हें आम जीवन में व्यक्त नहीं कर पाता, और साथ ही विदेश में रह कर हिंदी से जुड़े रहने का माध्यम है.

पर एक दिन इतना प्रसिद्ध चिट्ठाकार बन जाऊँ कि लाखों लोग मेरा लिखा पढ़े, जैसे कोई सपने मन में नहीं हैं, बल्कि ऐसा सोच कर ही डर लगता है.

आपके पसंदीदा टिप्पणीकार?

जब कहीं से कुछ टिप्पणी न मिल रही हो तब अक्सर केवल संजय ही है जो कुछ ढाढ़स देता है. मुझे एक टिप्पणी प्रियदर्शन की बहुत अच्छी लगी थी.

चूँकि मैं अधिकतर चिट्ठा लिखने का काम सुबह जल्दी उठ कर करता हूँ और फ़िर अगली सुबह तक दोबारा क्मप्यूटर पर बैठने का मौका नहीं मिलता, अक्सर टिप्पणियाँ एक दिन बाद में ही पढ़ता हूँ. कई बार सुबह कुछ देर हो जाती है तो कुछ लिखने की चिंता अधिक होती है, तो किसी ने क्या टिप्पणी दी, यह देखने का समय भी नहीं मिलता. शायद इसलिए जब किसी चिट्ठे पर देखता हूँ कि टिप्पणी के बाद तुरंत लेखक का उत्तर हो या टिप्पणियों से सवाल जवाब का सिलसिला बन गया हो तो थोड़ी ईर्श्या सी होती है. पर क्या करें, चिट्ठा लिखने के अलावा और भी काम हैं जीवन में!

किसी एक चिट्ठाकार से उसकी कौन सी अंतरंग बात जानना चाहेंगे ?

मुझे वह लोग जिनमें अपने जीवन की दिशा बदलने का साहस हो, वे लोग बहुत दिलचस्प लगते हैं और उनसे बातें करके उनके बारे में जानने की उत्सुक्ता रहती है. जैसे कि मसिजीवि जी जिन्होंने इंजिनियरिंग छोड़ कर साहित्य में आने का साहस किया.
मुझे लगता है कि हम सबके भीतर बहुत से मैं छुपे होते हैं पर जीवन एक धार पर चलने लगता है तो हम स्वयं को सीमाओं में बाँध लेते हैं. जिसमें मुझे उन सीमाओं से निकलने की कोशिश दिखे, वे मुझे अच्छे लगते हैं.

अन्य चिट्ठाकार जिन्हें जानना चाहूँगा वह हैं राकेश खँडेलवाल और बेजी, क्योंकि उनकी कविताँए मुझे बहुत अच्छी लगती हैं.

बेजी के प्रश्नः

आपकी सबसे प्रिय पिक्चर कौन सी है? क्यों?

मुझे बिमल राय, ऋषिकेश मुखर्जी, गुलज़ार, बासु चैटर्जी, गुरुदत्त जैसे निर्देशकों की फ़िल्में अच्छी लगतीं है. बंदिनी, सुजाता, अपने पराये, खामोशी, साहिब बीबी और गुलाम, सत्यकाम, आनंद, गाईड, अचानक, मेरे अपने, आदि मेरी प्रिय फ़िल्मों में से हैं. इनमें से किसी एक को चुनना मेरे लिए मुश्किल है.

कई आधुनिक फ़िल्म निर्देशक भी मुझे अच्छे लगते हैं जैसे विशाल भारद्वाज, अपर्णा सेन, आशुतोष गवारिकर, इत्यादि.

यह नहीं कि केवल गंभीर फ़िल्में ही अच्छी लगती हों, धूम जैसी समय निकालने वालीं हल्की फुल्की फ़िल्में भी अच्छी लगती हैं. कभी इस तरह की नासिर हुसैन और मनमोहन देसाई की फ़िल्में भी बहुत अच्छी लगती थीं. आज फ़िल्मों के लिये पहले जैसा दीवानापन नहीं लगता, पर इसमें फ़िल्मों का दोष नहीं, उम्र बदल गयी है तो इस तरह का होना स्वाभाविक है.

फ़िल्मों की पसंद समय के साथ साथ बदलती रहती है. एक समय था कि ज़रीना वहाब पर दिल फिदा था तो उनकी पहली फ़िल्म चित्तचोर जाने कितनी बार देखी थी. लेकिन किशोर मन बहुत वफादार नहीं था, कभी रेखा पर आता तो कभी शबाना आज़मी पर, और साथ ही साथ फिल्मों की पसंद बदलती रहती.

जो फिल्म सबसे अधिक बार सिनेमाघर में देखी वह है रमेश सिप्पी के शोले. एक समय था जब मीना कुमारी की रोने धोने वाली फ़िल्में भी मुझे अच्छी लगती थीं जैसे कि दिल एक मंदिर, पर आज उतनी अच्छी नहीं लगती.

इस उत्तर से यह समझना कठिन नहीं कि मुझे हिंदी फिल्मों में कितनी दिलचस्पी है!

क्या हिन्दी चिट्ठेकारी ने आपके व्यक्तिव में कुछ परिवर्तन या निखार किया?

हिंदी चिट्ठाकारी से मुझे हिंदी भाषा के करीब लौट आने का मौका मिला. जब लिखना शुरु किया था तो इतना सोचना पड़ता, शब्द याद ही नहीं आते थे और अक्सर शब्दकोश की सहायता लेनी पड़ती थी.

चिट्ठाकारी ने बहुत से लोगों से मिलने का मौका दिया विषेशकर प्रारम्भिक दिनों में. लाल्टू, प्रत्यक्षा, अनूप, रवि, रमण, ई स्वामी, जितेंद्र, देबाशीष, पंकज, संजय, अविनाश जैसे लोगों को बिना चिट्ठाकारी के कैसे जान पाता? बिना देबाशीष की सहायता के मैं हिंदी चिट्ठाजगत में आ ही नहीं पाता. इनमें से किसी से भी मिलने का मौका नहीं मिला है. अब तक मिला हूँ केवल अफलातून जी से, जिन्हें चिट्ठा जगत में आने से पहले से जानता हूँ और राम से, जो मुझे मिलने बोलोनिया आये थे. पर मेरा बस चले तो सब से मिलना पसंद करूँगा.

कुछ माह पहले दिल्ली में पसिद्ध लेखक और पत्रकार ओम थानवी के यहाँ था और उन्होंने सबसे मेरा परिचय लेखक के नाम से दिया, तो अजीब भी लगा और सुखद भी. मेरा चिट्ठा लिखने से पहले मेरी अपनी पहचान में "लेखक" शब्द नहीं था. लेखक बन गया हूँ यह तो नहीं कहता पर अपनी पहचान के दायरे कुछ बढ़ गये हें यह अवश्य कह सकता हूँ.

यह तो थे मेरे उत्तर. अब यह प्रश्नों का सिलसिला किस तरफ जाये? मैं चाहूँगा कि देबाशीष, रवि, रमण, ई स्वामी, अफलातून और पकंज भी इन प्रश्नों के उत्तर दें, पर अगर आप यह उत्तर पहले ही दे चुके हें तो मुझे कुछ दिन तक छुट्टियों का इंतजार करना पड़ेगा ताकि आप उन्हें पढ़ सकूँ. :-)

शुक्रवार, फ़रवरी 23, 2007

मानव और रोबोट

मैं एक बार पहले भी केनेडा के श्री ग्रेगोर वोलब्रिंग के बारे में लिख चुका हूँ. ग्रेगोर विकलाँग हैं, पहिये वाली कुर्सी से चलते हैं और कलगारी विश्वविद्यालय में जीव-रसायन विज्ञान पढ़ाते हैं. वह अंतरजाल पर "इंवोशन वाच" नाम के पृष्ठ पर नियमित रूप से लिखते भी हैं. उनके शोध का विषय है नयी उभरने वाली तकनीकों के बारे में विमर्श. उनसे पिछले वर्ष जेनेवा में विश्व स्वास्थ्य संस्थान की एक सभा में मुलाकात हुई थी.

ग्रेगोर से बात करो तो लगता है कि आसिमोव जैसे किसी लेखक की विज्ञान-उपन्यास (science fiction) पर बात हो रही हो, वह सब बातें सच नहीं कल्पना लगतीं हैं. पर ग्रेगोर का कहना है कि जिस भविष्य की वह बात करते हैं वह करीब है और इन दिनों में गढ़ा रचा जा रहा है. वह कहते हैं कि उस नये भविष्य का हमारे समाज पर गहरा प्रभाव पड़ेगा और इसलिए आवश्यक है कि हम सब लोग उसमें दिलचस्पी लें, उसके बारे में जाने, उस पर विमर्श करें.

अपने नये लेख में ग्रगोर ने लिखा हैः

मानव संज्ञा और मस्तिष्क को क्मप्यूटर जैसे किसी अन्य उपकरण पर चढ़ाना संभव हो जायेगा जिससे वह शरीर पर उम्र के प्रभाव से बचे रहेंगे. हालाँकि इस तरह के आविष्कार से अभी हम बहुत दूर हैं पर इसकी बात हो रही है. दिमाग रखने वाली मशीनों की बातें तो हो रहीं हैं. जून में पिछली रोबोव्यवसाय (Robobusiness) सभा में माईक्रोसोफ्ट ने अपने रोबोटक सोफ्तवेयर की पहली झलक दिखाई. यह सोफ्टवेयर (Microsoft's Robotic Studio) शिक्षण के क्षेत्र में काम आयेगी. खाना बनाने वाला रोबोट 2007 में बाजार में आयेगा. रोबोवेटर, दाई रोबोट, बार में पेय पदार्थ डालने वाला रोबोट, गाना गाने वाले और बच्चों को पढ़ाने वाले रोबोट सब 2007 में तैयार होंगे. अगर यह प्लेन सफल होंगे तो 2015 और 2020 के बीच में हर दक्षिण कोरियाई घर में रोबोट होंगे. चौकीदार रोबोट 2010 तक तैयार होने चाहिये.
इन सब मशीन और मानव के मिलने से बनी नयी खोजों के साथ साथ ग्रेगोर बहुत से प्रश्न उठाते हें जैसे कि यह नयी सज्ञा वाली मशीने, इनके क्या अधिकार होंगे? मानव होने की क्या परिभाषा होगी जब अलग मशीन में आप की यादाश्त और दिमाग रखे हों? क्या बिना शरीर के केवल मानव संज्ञा को मानव कह सकते हैं? किसी वस्तू के जीवित या अजीवित होने की क्या परिभाषा होगी? एक मशीन से उसकी यादाश्त लेने के लिए या बदलने के लिए हमें किससे आज्ञा लेनी पड़ेगी? और जिन मानव शरीरों को मशीनों के भागों से जोड़ कर बदल दिया जायेगा वह कब तक मानव कहलाँएगे और मानव तथा मशीन की सीमा कैसे निर्धारित की जायेगी? बीमार मानव जो मशीन की सहायता से सोचता है क्या वह मानव कहलायेगा?

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इंडीब्लागीस 2006 पुरस्कार के लिए समीर जी को बहुत बहुत बधाई. रनरअप पुरस्कारों में मेरे साथी बिहारी बाबू को भी बधाई और आप सब पाठकों को धन्यवाद.

गुरुवार, फ़रवरी 22, 2007

मानव अधिकार

अमरीकी गैर सरकारी संस्था "मानव अधिकार वाच" (Human Rights Watch) की 2007 की नयी वार्षिक रिपोर्ट निकली है. इस रिपोर्ट में साल के दौरान विभिन्न देशों में मानव अधिकारों का क्या हुआ, इसकी खबर दी जाती है. कहाँ कौन से अत्याचार हुए रिपोर्ट में यह पढ़ कर झुरझुरी आ जाती है. सूडान के डार्फुर क्षेत्र और इराक में जो हो रहा है उसके बारे में तो फ़िर भी कुछ न कुछ पता चल जाता है पर अन्य बहुत सी जगहों पर क्या हो रहा है, इसकी किसी को खबर नहीं.

तुर्कमेनिस्तान और उत्तरी कोरिया में सख्त तानाशाह गद्दी पर बैठे हैं जहाँ कुछ भी स्वतंत्र कहने सोचने की जगह नहीं है. रूस में गैर सरकारी संस्थाओं पर हमले तो होते रहते हैं, प्रसिद्ध पत्रकार अन्ना पोलिटकोवस्काया जो सरकारी अत्याचारों के बारे में निर्भीक लिखतीं थीं, की हत्या ने सनसनी फ़ैला दी इसलिए भी कि अन्ना छोटी मोटी पत्रकार नहीं थीं, उनका नाम देश विदेश में मशहूर था. लोगों को डराना, धमकाना, उन्हें विभिन्न तरीकों से पीड़ा देना, पुलिस की जबरदस्ती और अत्याचार, कई देशों में निरंकुश बढ़ रहा है.

भारत के बारे में रिपोर्ट कहती है कि "भारत विश्व का सबसे बड़ा जनतंत्र है और यहाँ स्वतंत्र प्रेस और सामाजिक संस्थाएँ हैं, फ़िर भी कुछ बाते हैं जिनमें मानव अधिकारों की सुरक्षा नहीं होती. इनमें से सबसे बड़ी समस्या है पुलिस और विभिन्न सुरक्षा संस्थाओं के बड़े अधिकारियों को कुछ सजा नहीं मिल सकती, चाहे वह कुछ भी अत्याचार कर दें. लोगों को पकड़ कर उन्हें पीड़ा देना और सताना, बिना मुकदमे के लोगों को पकड़ कर रखना, उन्हें जान से मार देना आदि, जम्मु कश्मीर, उत्तर पूर्व और नक्सलाईट क्षेत्रों में आम बातें हैं... बच्चों के तथा अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा न कर पाना भी समस्या है, इन अल्पसंख्यकों में धार्मिक अल्पसंखयक, जनजाति के लोग और दलित भी शामिल हैं."

रिपोर्ट ने अमरीका की कड़ी आलोचना है. रिपोर्ट कहती है कि ग्वानतामा बे के कारागार में बिना मुकदमें के कैदियों को कई सालों से रखना और उन्हें यातना देने वाले अमरीका को मानव अधिकारों का रक्षक होने का गर्व त्यागना होगा, उसके अपने दामन पर दाग लगा है. यातना से भागने वाले लोगों को शरण देने से इन्कार करना भी अमरीका की कमजोरी है, और वह दूसरों पर मानव अधिकारों की रक्षा न करने का आरोप लगाता है.

किस देश ने कितना मानव अधिकारों को कुचला इसका अंदाज़ शायद रिपोर्ट में उस देश को कितनी जगह दी गयी है. रिपोर्ट में भारत को 7 पन्ने मिले हैं तो चीन को 12, नेपाल को 6, पाकिस्तान को 7 और अमरीका को 11.

2006 में जिन देशों ने मानव अधिकारों की दिशा में सराहनीय काम किया है उनमें सबसे ऊँचा नाम नोर्वे का है.

अगर आप पूरी रिपोर्ट पढ़ना चाहें तो वह अंतरजाल पर ह्यूमन राईटस वाच पर पढ़ सकते हैं.

बुधवार, फ़रवरी 21, 2007

लिखाई से पहचान

बहुत से लोग सोचते हैं कि हाथ की लिखाई से व्यक्ति के व्यक्तित्व के बारे में छुपी हुई बातों को आसानी से पहचाना जा सकता है. कुछ लोग तो यहाँ तक कहते हैं कि हाथ की लिखाई से वह बता सकते हैं कि कोई खूनी है या नहीं.

कल जब इंग्लैंड के प्रधानमंत्री श्री टोनी ब्लेयर के हस्ताक्षर देखने को मिले तो यही बात मन में आयी कि इस हाथ की लिखाई से इस व्यक्ति के बारे में क्या बात पता चलती है?



हस्ताक्षर के नीचे की रेखा अपने आप में विश्वास को दर्शाती है और चूँकि यह रेखा नाम और पारिवारिक नाम दोनों के नीचे है, इसका अर्थ हुआ कि टोनी जी अपनी सफ़लता का श्रेय स्वयं अपनी मेहनत के साथ साथ, परिवार से मिली शिक्षा को भी देते हैं.
टोनी का "टी" जिस तरह से बड़ा और आगे की ओर बढ़ा हुआ लिखा है, इसका अर्थ है कि वह शरीर की भौतिक जीवन के बजाय दिमाग की दुनिया में रहने वाले अधिक हैं और उनके विचार भविष्य की ओर बढ़े हुए हैं. पूरा टोनी शब्द ऊपर की ओर उठा हुआ है, यानि वह आशावादी हैं, पर अंत का नीचे जाता "वाई" बताता है कि अपने बारे में कुछ संदेह है कि उन्होंने कुछ गलती की है.

ब्लेयर का ऊपर उठना, "आई" की बिंदी का आगे बढ़ना भी उनके आशावादी होने और भविष्य की ओर बढ़ी सोच का समर्थन करते हैं. प्रारम्भ के बड़े और खुले हुए "बी" से लगता है कि उनकी कल्पना शक्ति प्रबल है और वह खुले दिल, खुले विचारों वाले हैं.

यह सब उनके फरवरी 2007 में किये गये हस्ताक्षरों से दिखता है. अगर उनके कुछ साल पहले के हस्ताक्षर मिल जायें तो उन्हे मिला कर भी देखा जा सकता है कि उनके व्यक्तित्व में पिछले कुछ समय में कोई परिवर्तन आया है!

मंगलवार, फ़रवरी 20, 2007

भारत में बनी दवाईयाँ

पिछले दशक में भारत में केंद्रित कई दवा बनाने वालों ने विश्व में सस्ती और अच्छी दवाएँ बनाने के लिए ख्याति पाई है. आज भारत की यह क्षमता खतरे में है, क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय दवा बनाने वाली कम्पनी नोवार्टिस (Novartis) ने भारत सरकार पर दावा किया है.

एडस की दवाएँ जो पहले केवल पश्चिमी देशों की दवा कम्पनियाँ बनाती थीं, उनके एक साल के इलाज की कीमत 20,000 डालर तक पड़ती थी, भारतीय सिपला जैसी कम्पनियों ने पर इन्हीं दवाओं को 2,000 डालर तक की कीमत में दिया. कुछ वर्ष पहले, जब दक्षिण अफ्रीका की सरकार ने पश्चिमी देशों के बजाय जब भारत से बनी इन सस्ती दवाओं को खरीदना चाहा तो 39 बड़ी दवा कम्पनियों ने मिल कर दक्षिण अफ्रीका की सरकार पर दावा कर दिया. इस पर सारी दुनिया में स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करने वाली गैर सरकारी और स्वयंसेवी संस्थाओं ने जनचेतना अभियान प्रारम्भ किया और दुनिया के विभिन्न देशों से लाखों लोगों ने इस अपील पर अपने दस्तखत किये. अपनी जनछवि को बिगड़ता देख कर घबरा कर अंतर्राष्ट्रीय दवा कम्पनियों ने दक्षिण अफ्रीका सरकार पर किया दावा वापस ले लिया.

इस तरह की सस्ती दवा बना पाने के लिए भारत के बुद्धिजन्य सम्पति अधिकारों (intellectual property rights) से सम्बंधित कानूनो ने बहुत अहम भाग निभाया था. यह कानून दवा बनाने के तरीको को सम्पति अधिकार (patents) देते थे जिसका अर्थ था कि वही पदार्थ अगर कोई किसी नये तरीके से बनाये तो उस पर यह अधिकार लागू नहीं होगा. इसका यह फायदा था कि कहीं पर कोई भी नयी दवा निकले, हमारे दवा बनाने वाले उसे बनाने के लिए नये और सस्ते तरीके खोज सकते थे. इस कानून का फायदा उठा कर भारतीय दवा बनाने वालों ने बहुत सी जान रक्षक दवाओं के नये और सस्ते संस्करण बनये और उन्हें कम कीमत पर बाज़ार में बेचा.

इन कानूनों से अंतर्राष्ट्रीय दवा बनाने वाली कम्पनियाँ बहुत परेशान थीं क्योंकि इससे उनके लाभ में कमी आती थी और उन्होंने भी भारत सरकार पर जोर डाला कि भारत विश्व व्यापार संस्थान (World Trade Organisation, WTO) का हिस्सा बन जाये और अंतर्राष्ट्रीय बुद्धिजन्य सम्पत्ति अधिकारों के कानूनों को मानने को बाध्य हो. सन 2005 में भारत डब्ल्यूटीओ का सदस्य बन गया.

पर जब भारत की सरकार ने WTO के हिसाब से अपने कानून बदला तो इस नये कानून के हिसाब से कोई पदार्थ बनाने के तरीका वाले कोपीराईट के साथ साथ पदार्थ पर भी कोपीराईट हो गया है ताकि कोपीराईट की अविधि तक कोई उस पदार्थ को किसी भी तरीके से न बना सके. अब भारतीय दवा बनाने वाले नयी दवाओं को बनाने के नये और सस्ते तरीके नहीं खोज सकते जब तक उस दवा की कोपीराइट अविधि न समाप्त हो जाये.

पर भारत सरकार इस नये कानून में अपनी दवा बनाने वाली कम्पनियों के पक्ष में कुछ कानून भी रखे हैं जैसे कि उसने यह कानून भी रखा कि कापीराईट करने के लिए बिल्कुल नया आविष्कार होना चाहिये. बहुत सी अंतर्राष्ट्रीय कम्पनिया अपनी दवाओं का कापीराईट बनावाती हैं पर कापीराईट की अविधि समाप्त होने से पहले उसी दवा में थोड़ा सा फेरबदल करके उसका नया कापीराईट बनवा लेती हैं (evergreeing of patents) ताकि वह दवा और बीस सालों तक केवल उनकी सम्पत्ति रहे. भारतीय कानून इसकी रोकथाम करने में सहायता देता है.

पिछले वर्ष स्विटज़रलैंड की नोवार्टिस कम्पनी ने कैसर के इलाज में प्रयोग की जाने वाली दवा ग्लीवेक (Glivec) के फारमूले में कुछ बदलाव करके उसके नये कोपीराईट के लिए अर्जी दी, जो भारत सरकार ने यह कह कर नामंजूर करदी कि यह नया आविष्कार नहीं बल्कि पुराने फारमूले में थोड़ी सी बदली करके किया गया है. इसी पर नोवार्टिस ने़ भारत सरकार पर दावा कर दिया है कि भारत का यह कानून डब्ल्यूटीओ के नियमों के विरुद्ध है और इस कानून को रद्द कर दिया जाना चाहिये.

अगर नोवार्टिस यह मुकदमा जीत जायेगा तो भारत सरकार का यह कानून कि केवल बिल्कुल नये आविष्कार की ही रजिस्ट्री होनी चाहिये, अपने आप ही रद्द हो जायेगा और भारत सरकार को अंतर्राष्ट्रीय दवा बनाने वाली कम्पनियों की बहुत सी पुरानी दवाओं के पेटेंट को मानना पड़ेगा. इससे कम कीमत पर भारतीय दवा बनाने वालों को रोक लग जायेगी जिसका असर केवल भारत पर ही नहीं, बहुत से देशों में रहने वाले गरीबों पर पड़ेगा.

भारत सरकार ने इस बात की जाँच के लिए अपनी एक अंदरूनी कमेटी बिठायी थी जिसके अध्यक्ष थे श्री मशालकर. गत दिसम्बर में मशालकर कमेटी ने नोवर्टिस की माँग को जायज बताया है और इस कानून को बदलने की सलाह दी है.

अंतर्राष्ट्रीय गैरसरकारी संस्थाओं तथा स्वास्थ्य क्षेत्र के बुद्धिजीवियों ने तुरंत श्री मशालकर कमेटी के निर्णय की आलोचना की. उन्होने बताया कि मशालकर कमेटी ने इंग्लैंड की एक कम्पनी की एक रिपोर्ट को ले कर वैसे ही नकल कर के अपनी रिपोर्ट में लिख दिया है. अँग्रेजी क्मपनी की वह रिपोर्ट अंतर्राष्ट्रीय दवा बनाने वाली कम्पनियों ने पैसा दे कर बनवायी थी. उनका आरोप है कि श्री मशालकर खुद वैसी ही कम्पनियों के सलाहकार के रुप में सारा जीवन बिता चुके हैं और उनसे इस विषय पर निक्षपक्ष राय की आशा नहीं की जा सकती.

इसी के विरुद्ध विभिन्न देशों में जनचेतना अभियान शुरु किये जा रहे हैं. लोगों से कहा जा रहा है कि नोवार्टिस पर दबाव डाला जाये कि वह यह मुकदमा वापस ले ले. अब तक करीब 3 लाख लोगों ने उस अपील पर दस्तखत किये हैं जिनमें स्विटज़रलैंड की पूर्व राष्ट्रपति श्रीमति रुथ ड्रैयफुस, नोबल पुरस्कार विजेता आर्चबिशप डेसमैंड टूटू, संयुक्त राष्ट्र संघ के अफ्रीका अधिकारी स्टीफेन लुईस जैसे लोग भी शामिल हैं. प्रसिद्ध अंतर्राष्ट्रीय कम्पनियों के लिए उनकी जनछवि बहुत महत्वपूर्ण होती है जिसके बलबूते पर उनकी बिक्री टिकी होती है. आशा है कि अपनी जनछवि बिगड़ती देख कर नोवार्टिस यह मुकदमा वापस ले लेगी.

आप भी इस अपील पर दस्तखत कीजिये और नोवार्टिस पर दबाव डालने में सहायता कीजिये. अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएँ जैसे कि "सीमाविहीन चिकित्सक" (Doctors without Borders) तथा "ओक्सफाम" (Oxfam) के अंतरजाल पृष्ठों पर इस अपील पर दस्तखत किये जा सकते हैं.

सोमवार, फ़रवरी 19, 2007

ज्वालामुखिँयों की राह

दक्षिण अमरीका में एक्वाडोर में उत्तर में देश की राजधानी कीटो से दक्षिण में कुएँका जाने वाला रास्ता "ज्वालामुखियों की राह" के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि दोनो तरह पहाड़ों के बीच में गुजरते हुए इस रास्ते पर बहुत से ज्वालामुखी हैं.

एक समय में इटली में भी कुछ ऐसे ही था, उत्तर से दक्षिण तक, पूरे देश के बीचों बीच रीड़ की हड्डी की तरह उठे पहाड़ों के बीच में बहुत से ज्वालामुखी थे. उत्तरी इटली के सभी ज्वालामुखी आदिकाल में ही ज्वाला फ़ैंक और लावा उगल कर शाँत हो गये और आज उन ज्वालामुखियों के मुखों में झींलें हैं. रोम से थोड़ी ही दूर उत्तरी दिशा में तीन इस तरह की ज्वालामुखियों वाली झीलें हैं - ब्राचानो, बोलसेना और वीको.

रोम के दक्षिण में पोमपेई के पास खड़ा वासूवियो ज्वालामुखी करीब दो हजार वर्ष पहले फूटा था और उसके लावे ने पोमपेई के रहनेवालों को अपनी कैद में बंद लिया था. उस लावे की खुदाई से निकला पोमपेई आज हमें दो हजार वर्ष पहले के जीवन की अनोखी झलक देखने का मौका देता है.

इटली के दक्षिणी कोने पर ऐत्ना पहाड़ का ज्वालामुखी आज भी आग और लावा उगलता है. बीच बीच में यह लावा उगलने की प्रक्रिया जब तेज होती है तो उसे देखने आने वाले पर्यटकों की सँख्या तुरंत बढ़ जाती है.

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पिछले सप्ताह काम के सिलसिले में रोम जाना हुआ था, तो रोम के उत्तर में बसे प्राचीन शहर वितेर्बो को देखने का मौका मिला. शहर का मध्ययुगीन संकरी गलियों वाला हिस्सा मुझे बहुत अच्छा लगा. हालाँकि आज वितेर्बो छोटा सा शहर है पर इटली के इतिहास में इसका बहुत महत्व है. मध्ययुग में पोप को वेटीकेन छोड़ कर यही भाग कर आना पड़ा था और बहुत से सालों तक यह शहर दूसरा वेटीकेन बन गया था.

वितेर्बो से थोड़ी दूर ही है ब्राचानो की पुराने ज्वालामुखी के मुख में बनी झील. ब्राचानो शहर का नाम कुछ माह पहले अंतर्राष्ट्रीय समाचार पत्रों में आया था जब होलीवुड के अभिनेता टाम क्रूस ने यहाँ के किले में केटी होल्मस नाम की अभिनेत्री से विवाह किया था.

आज कुछ तस्वीरें वितेर्बो और ब्राचानो से.





वितेर्बो की मध्ययुगीन संकरी गलियाँ


वितेर्बो का "मृत्यु का फव्वारा"


ब्राचानो की झील


ब्राचानो का किला

गुरुवार, फ़रवरी 15, 2007

कान खींचो

हर वर्ष एलास्का और केनेडा में रहने वाले एस्कीमो अपने ओलिम्पिक खेलों का आयोजन करते हैं जिसमें सभी प्रतियोगिताएँ पाराम्परिक एस्कीमो खेलों की होती हैं.

कुछ खेल जिनकी प्रतियोगिता इन ओलिम्पिक खेलों में होती हैं उनके नाम हैं एस्कीमो डँडा खींच, मशाल दौड़, मछली काटो, कँबल फ़ेंको, इत्यादि.

बहुत सी प्रतियोगियातिएँ ऊँचा कूदने, तथा कूद कर लात मारने की होती हैं. एक ऊँची कूद में लोगों द्वारा खींच कर पकड़ी हुई तनी हुई रेनडियर की त्वचा पर छलाँग लगाते हैं तो एक दूसरी प्रतियोगिता में 2 मीटर ऊँची रस्सी को कूद कर पैर से छूना होता है.

पर मेरे विचार में सबसे रोचक प्रतियोगिताएँ कानो को पीड़ा देने वाली होती हैं, जैसे कान खींचो और कान से बोझा उठाओ. कान खींचने की प्रतियोगिता में हिस्सा लेने वाले एक दूसरे की कान पर रस्सी लपेट देते हैं और आमने सामने बैठ कर रस्सी को खींचते हैं. जो पहले दर्द से घबरा कर सिर पीछे खिंच कर कान से रस्सी को निकाल दे, वह हार जाता है. खेल पहले एक तरफ़ के कान से खेला जाता है फ़िर दूसरी तरफ़ से. कान से बोझा उठाओ खेल में कान से भारी वजन बाँध कर यह देखते हैं कि खिलाड़ी उसे कितनी दूर तक खींचने में समर्थ है. इन कान वालों खेलों में खिलाड़ियों के आसपास बर्फ ले कर उनके साथी खड़े होते हैं जो कि बीच बीच में कानों पर बर्फ लगा कर उनको ठँडक और दर्द से राहत देने की कोशिश करते हैं.

खेलों में एस्कीमो मिस वर्ल्ड भी चुनी जाती है ( नीचे तस्वीर में २००6 की मिस एस्कीमो वर्ल्ड)



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ऐसे खेल और भी देशों में होते हैं जहाँ लोग अपने पाराम्परिक खेलकूद को सुरक्षित रखना चाहते हैं. जैसे कि मँगोलिया में नादाम का उत्सव हर वर्ष अगस्त में मनाते हैं. नादाम में छोटे छोटे चार पाँच साल के बच्चों को घोड़ों पर दौड़ लगाते देखना बहुत रोमाँचकारी लगता है.

अगर भारत में हम इसी तरह अपने पाराम्परिक खेलों की धरोहर को बचाना चाहें तो उनमें कौन से खेल रखेंगे? खो खो, कुश्ती, मुदगर, आँखें बंद करके शब्दभेदी बाण, और क्या क्या?

बुधवार, फ़रवरी 14, 2007

विवाह की धूम

हाल में ही दो हिंदी फ़िल्में देखने का मौका मिला, "विवाह" और "धूम 2". इन फ़िल्मों को देख कर मन में आज के भारतीय सिनेमा में पारिवारिक मूल्यों के चित्रण के बारे में सोच रहा था.

ताराचंद बड़जात्या और राजश्री फिल्मों का मैं बचपन से ही प्रशंसक था. उनके पुत्र सूरज बड़जात्या की फ़िल्में मुझे उतनी अच्छी नहीं लगतीं. उनकी नयी फ़िल्म "विवाह" के बारे में तो बहुत कुछ बुरा भला पढ़ चुका था कि बिल्कुल पुराने तरीके की फ़िल्म है.
यह सच भी है कि फ़िल्म के धनवान पर अच्छे दिल वाले अनुपम खेर और शाहिद कपूर का परिवार राजश्री फ़िल्मों का पुराना जाना पहचाना भारतीय परिवार है, जहाँ भाई, भाभी और देवर के साथ प्रेम से रहने वाले दृष्यों में इतना मीठा भरा है कि अच्छे खासे आदमी को डाईबीटीज़ हो जाये. ऐसे संयुक्त परिवार जहाँ सभी एक दूसरे से प्यार करते हों, आपस में कोई खटपट न हो, कोई ईर्ष्या न हो, अविश्वासनीय हैं पर हमारे मन में छुपी इच्छा "कि काश ऐसा हो" को संतुष्टी देते हैं.




शाहिद कपूर और अमृता राव की कहानी, लड़की देखने जाना, मँगनी होना और उनके बीच में पनपता प्यार, इस सब की आलोचना की गयी थी कि बिल्कुल पुराने तरीका का है. मुझे लगा कि शायद कुछ बातें बड़े शहरों में रहने वालों के कुछ पुरानी लग सकती हैं पर वह भी इतनी तो पुरानी नहीं हैं. शहरों में भी अधिकतर विवाह के प्रस्ताव आज भी माता पिता द्वारा ही जोड़े जाते हैं, लड़की देखने जाने की रीति भी बंद नहीं हुई है तो इसमें पुराना क्या है? शायद लड़की के परिवार का आपस में हिंदी में बात करना, यह कहना कि वह हिंदी की किताबें पढ़ती है, यह सब पुराने तरीके का है जो आजकल बड़े शहरों में बदल में रहा है?

दूसरी ओर, आलोक नाथ और सीमा विस्वास का परिवार कुछ सिंडरेला की कहानी पर आधारित है, सौतेली माँ के बदले में चाची बना दी गयी है. पर इस भाग में मुझे अच्छा लगा कि घर दो बेटियों का होना सकारात्मक तरीके से दिखाया गया है और आग में जली युवती से उसके मँगेतर का विवाह करने का निश्चय भी सकारात्मक तरीके से दिखाया गया है. उत्तरी भारत में जहाँ पढ़े लिखे, सम्पन्न राज्यों में जहाँ बच्चियों के जन्म से पहले उनकी भ्रूणहत्या करना बढ़ता जा रहा है, इस तरह के संदेश देना बहुत आवश्यक है. ऐसी तथाकथित आधुनिक फ़िल्में जिनमें आधुनिकता केवल सतही होती है, उनसे यह पुराने तरीके की फ़िल्म ही अधिक अच्छी है.

जहाँ "विवाह" में परिवारों की बात फ़िल्म का केंद्र है, दूसरी फ़िल्म "धूम 2" में परिवार हैं ही नहीं. फ़िल्म में किसी भी पात्र के माता पिता नहीं दिखाये गये हैं, न ही किसी के कोई भाई बहन है. परिवार के बंधन न होने से फ़िल्म के सभी पात्र अपना जीवन अपनी तरह से जीने के लिए स्वतंत्र हैं. सिर्फ एक जय दीक्षित का पात्र है जो विवाहित है और जिसकी पत्नी गर्भवति है पर उनकी पत्नी को कुछ क्षणों के लिए दिखा कर परदे से गुम कर दिया जाता है, जिससे अर्थ बनता है कि गर्भवति पत्नी को मायके भेज देना चाहिये ताकि अपने जीवन में कोई तकलीफ़ न हो.

फ़िल्म की एक नायिका सुनहरी, चोर है पर क्यों चोर बनी यह आप समझ नहीं पाते अगर उसे मिनी स्कर्ट पहन कर डिस्को में नाचने का शौक है. अनाथाश्राम में पली बड़ी हुई हो ऐसी नहीं लगती. हाँ, आधुनिक है, अँग्रेजी बोलती है, अकेली विदेश यात्रा पर जा सकती है और बिना विवाह के एक दूसरे चोर के साथ रह सकती है.




फ़िल्म की दूसरी नायिका, चूँकि रियो दी जेनेयिरो में समुद्र तट पर रहती हैं, इसलिए उनका बिकिनी पहनना तो स्वाभाविक है, पर आश्चर्य होता है उन पर फ़िदा श्री अली पर. भिण्डी बाज़ार के मेकेनिक से पुलिस वाला बना अली, अकेला पात्र है जो माँ का नाम ले कर उसे याद करता है पर वह भी आधुनिक है और अगर पत्नि बिकिनी पहने है तो वह भी कम नहीं, वह नेकर पहन लेता है, और दोनो कोपाकबाना के समुद्रतट पर नारियल का पानी पीते हैं.

जिस तरह की फ़िल्म की कहानी है इसमें परिवार की आवश्यकता है ही नहीं, न ही किसी बड़े बूढ़े की. होते तो केवल समय बरबाद करते!

मंगलवार, फ़रवरी 13, 2007

सीमाओं में बंद ऐश्वर्या

अँग्रेज़ी दैनिक हिंदुस्तान टाईमस् में सिनेमा पृष्ठ पर सुप्रसिद्ध सिनेमा समीक्षक और निर्देशक खालिद मुहम्मद का अभिषेख बच्चन से साक्षात्कार पढ़ रहा था कि उनका प्रश्न देख कर रुक गया. उन्होंने पूछा था, "क्या आप विवाह के बाद ऐश्वर्या को फिल्मों में काम करने देंगे?"




भारतीय पारम्परिक सोच के अनुसार लड़की का अपना कोई महत्व नहीं, वह शादी से पहले अपने पिता की होती है और शादी के बाद अपने पति की. शहरों में इस तरह की पाराम्परिक सोच से ऊपर उठने की कोशिश की जा रही है, पर इस प्रश्न से लगता है कि लड़कियाँ अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व बना सकें इसमें अभी बहुत सा काम करना बाकी है, वरना प्रतिष्ठित, संवेदनशीन फिल्में बनाने वाले इस तरह का प्रश्न पूछ पाते? जिससे वह प्रश्न कर रहे हैं उसके दादा प्रसिद्ध कवि थे, नाना जाने माने पत्रकार, माता पिता तो प्रसिद्ध हैं ही. और जिस लड़की की बात हो रही है वह कोई सामान्य युवती नहीं, मिस वर्ल्ड रह चुकी हैं, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जानी पहचानी अभिनेत्री हैं. अगर इन सब के बाद इस तरह का प्रश्न पूछा जा सकता है तो आप सोचिये कि साधारण युवतियों के लिए यह सोच कैसे बदलेगी?

शायद इस तरह का प्रश्न इस लिए पूछा गया क्योंकि पिछले दिनो में बच्चन राय विवाह के सम्बंध में आने वाले बहुत से समाचार पुराने दकियानूसी तरह के हैं जैसे कुण्डियाँ मिलवाना, मंदिरों में कन्या के माँगलिक होने के बुरे प्रभाव को हटाने के लिए पूजा करवाना और उसकी पेड़ से शादी करवाना? यानि कि जब सब कुछ पाराम्परिक सोच में है तो विवाह होने के बाद ऐश्वर्या के भविष्य की बात भी पाराम्परिक ही होनी चाहिये और इसलिए उन्हें विवाह के बाद काम करने के लिए पति की अनुमति चाहिये?

पर क्या जब हरिवँशराय बच्चन ने तेजी जी से प्रेमविवाह किया था तो क्या कुण्डली मिलवा कर किया था? या अमिताभ बच्चन ने जया भादुड़ी से विवाह के लिऐ कुण्डली मिलवायी थी? उनकी जो जनछवि है उसको सोच पर तो यह नहीं लगता पर शायद उस ज़माने में प्रेस इस तरह की बातों में इतनी दिलचस्पी नहीं लेती थी और शायद वह सभी इस तरह की परम्पराओं में विश्वास करते थे?

मैं यह नहीं कहता कि सभी युवतियों को विवाह के बाद काम करना चाहिये. पति और पत्नी दोनों काम करें या उनमें से कोई एक घर पर रहे, यह उनका आपस का निर्णय हो सकता है, उनकी अपनी इच्छा या आर्थिक परिस्थिति पर निर्भर हो सकता है. पर अगर पति को विवाह के बाद काम के लिए पत्नी की अनुमति नहीं लेनी पड़ती तो पत्नि को ही क्यों इसकी अनुमति लेनी चाहिये, यह समझ में नहीं आता?

कुछ समय पहले एक फ़िल्म आयी थी "लक्ष्य" जिसमें प्रीति जिंटा जो पत्रकार का भाग निभा रहीं थी कुछ ऐसी ही बात कहती हैं अपने मँगेतर से जब वह उसे कारगिल जाने से रोकता है, और वह इस बात पर शादी तोड़ देतीं हैं. परदे पर जो भी ही, असली जीवन में शायद ऐसा कम ही होता हो. यह भी सच है कि विषेशकर छोटे शहरों में और गावों में, आज भी नयी बहु को कुछ भी करने के लिए सास ससुर या पति की अनुमति चाहिये, पर क्या एश्वर्या जैसी लड़की के साथ यह हो सकता है?

फ़िल्मों में और सच के जीवन में यही फर्क होता है. यह सोच कर कि पढ़े लिखे परिवार से हैं, विदेश में पढ़े हैं, फ़िल्मों में उदारवादी और अन्याय से लड़ने वाले पात्रों का भाग निभाते हैं तो हम लोग सोचने लगते हैं कि शायद व्यक्तिगत जीवन में भी ऐसे ही हों. यही भ्रम है, सच और परदे के जीवन का!

शुक्रवार, फ़रवरी 09, 2007

रुकावटें

कुछ दिन पहले रवि ने एक टिप्पणी में लिखा थाः

"साथ ही, मेरे जैसे 50 वर्ष की सीमा की ओर पहुँच रहे लोगों की आँखों में श्याम पृष्ठभूमि पर सफेद अक्षर तो दिखाई ही नहीं देता..."

कुछ ऐसा ही हाल मेरा अपना भी था. कंप्यूटर का मोनिटर अधिक करीब हो तो ऐनक उतार कर पढ़ने की कोशिश करता, कुछ दूर हो तो ऐनक लगाता, पर अपने ही चिट्ठे के अक्षर ठीक से नहीं दिखते थे. झँझट यह था कि इस चिट्ठे के टैम्पलेट के रंगों को कौन ठीक करे? जब छायाचित्रकार वाले फोटो चिट्ठे के रंग ठीक करने थे तो राम ने मदद की थी, दुबारा किसी से कहने में शर्म आ रही थी. फ़िर मन में सोचा कि इतना भी क्या कठिन होगा, कोशिश करके देखें. कुछ दिनों तक सारा खाली समय टेम्पलेट से छेड़खानी में बिताया और आखिरकार कल रात को लगा कि अब कुछ ठीक दिख रहा है.

इतनी मेहनत करनी पड़ी, पर कुछ संतोष भी है कि आखिरकार काम हो ही गया. यह तो आप लोग ही बता सकते हैं कि इस चिट्ठे के नये रुप में क्या कमियाँ रह गयीं हैं.

उम्र के साथ साथ इस तरह की परेशानियाँ बढ़तीं जातीं हैं. दिखता कम है, सुनता कम है, अधिक चलना पड़े तो भी मुश्किल, सीढ़ियाँ हों तो भी मुश्किल. और दुनिया है कि दिन ब दिन तेज़ गति से चलती जा रही है, या शायद यह अपना भ्रम है क्योंकि अपनी गति धीमी हो रही है!

पर यह सच है कि उम्र के साथ ही समझ में आता है जब विकलाँग लोग कहते हैं कि दुनिया हर तरफ़ से रुकावटों से भरी हुई है. विकलाँगता को हमेशा से व्यक्तिगत या पारिवारिक समस्या की तरह देखा जाता था. यानि अगर आप विकलाँग हैं तो इसका अर्थ है कि आप के शरीर में कोई कमी है और उस कमी को ठीक करने की कोशिश की जाये.

कुछ दशक पहले विकलाँग लोगों की संस्थाओं ने एक दूसरा दृष्टिकोण पेश किया. उनका कहना था कि विकलाँगता व्यक्ति के शरीर में नहीं समाज में होती है क्योंकि यह समाज केवल अविकलाँग, जवान लोगों के लिए सोचा और बना है. यह समाज अन्य सभी लोगों के लिए उनके आस पास कुछ रुकावटें खड़ी कर देता है जिनके कारण वह लोग जीवन में ठीक से भाग नहीं ले पाते. उनका कहना था कि इलाज व्यक्ति का नहीं, समाज में बिखरी इन रुकावटों का होना चाहिये.

इस सोच ने कुछ सामाजिक परिवर्तनों को प्रेरित किया है जैसे कि पटरी से चढ़ने उतरने के लिए ढलानें बनाना, सीढ़ियों के साथ रेम्प बनाना, लाल बत्ती पर अँधे लोगों के लिए ध्वनि वाला सिगनल बनाना, लिफ़्ट में विभिन्न मंज़िलों के नम्बर ब्रेल में भी लिखना, इत्यादि. इनका लाभ केवल विकलाँग लोगों को नहीं मिलता बल्कि सारे समाज को मिलता है. जैसे कि अगर पटरी पर चढ़ने उतरने के लिए ढलान है तो व्हीलचेयर को चलाने में आसानी तो होगी ही पर साथ ही, बच्चे के साथ जा रहे परिवारों को भी होगी, उन बूढ़ों को भी होगी जिनके घुटनों मे दर्द हो.

अंतर्जाल पर ही उतना ही आवश्यक है कि हम जाल स्थलों को इस तरह बनाये कि विभिन्न विकलाँग लोग भी उनका प्रयोग कर सकें.

पर बहुत सी बातें कहना आसान है पर करना कठिन. एक उदाहरण हमारे शहर बोलोनिया से. यहाँ की सरकार विकलाँग लोगों के बारे में बहुत सचेत है., पर कुछ समय पहले यहाँ निर्णय लिया गया कि बहुत सी चौराहों पर लाल बत्ती के बदले में गोल चक्कर बना दिया जायेंगे क्योंकि उससे यातायात अधिक तेज़ चलता है. अगर कारों, ट्रकों को चलने में फ़ायदा होगा और लाल बत्ती पर नहीं रुकना पड़ेगा तो प्रदूषण कम होगा और पेट्रोल का खर्चा भी. पर यह देखा गया है कि गोल चक्कर बनने से यातायात की गति तीव्र हो जाती है और पैदल चलने वालों और साईकल पर जाने वालों को अधिक कठिनाई होती है. विकलाँग, वृद्ध, गर्भवति स्त्रियाँ आदि लोगों को सड़क पार करने में और भी कठिनाई होती है.

तो किसका सोचे सरकार, यातायात का या पैदल चलने वालों का? मेरा बस चले तो पहले पैदल चलने वालों का सोचा जाये पर अगर आप सरकार में हों तो आप क्या फैसला करेंगे?

बुधवार, फ़रवरी 07, 2007

36 का आँकणा

एक तरफ़ से आधुनिक दुनिया इतनी जानकारी हम सबके सामने रख रही है जैसा इतिहास में पहले आम लोगों के लिए कभी संभव नहीं था, दूसरी ओर, अक्सर हम लोग उस जानकारी की भीड़ में खो जाते हैं और उसका अर्थ नहीं समझ पाते.

जब कोई कुछ भी जानकारी आप को देता है तो पहला सवाल मन में उठना चाहिये कि कौन है और किस लिए यह जानकारी हमें दे रहा है? शायद इस तरह से सोचना बेमतलब का शक करना लग सकता है पर अक्सर लोग अपना मतलब साधने के लिए बात को अपनी तरह से प्रस्तुत करते हैं. अगर राजनीतिक नेता हैं तो अपनी सरकार द्वारा कुछ भी किया हो उसे बढ़ा चढ़ा कर बतायेंगे और विपक्ष में हों तो उसी को घटा कर कहेंगे. अगर मीडिया वाले बतायें तो समझ में नहीं आता कि यह सचमुच का समाचार बता रहे हैं या टीआरपी के चक्कर में बात को टेढ़ा मेढ़ा कर के सुना दिखा रहे हैं. अगर व्यवसायिक कम्पनी वाला कुछ कह रहा हो तो विश्वसनीयता और भी संद्दिग्ध हो जाती है.

आँकणे प्रस्तुत करना भी एक कला है. एक ही बात को आप विभिन्न तरीकों से इस तरह दिखा सकते हैं कि देखने वाले पर उसका मन चाहा असर पड़े.

उदाहरण के लिए मान लीजिये कि आप किसी नयी परियोजना के गरीब लोगों पर पड़े प्रभाव के बारे में बता रहे हैं कि 2005 में 10 प्रतिशत लोग लाभ पा रहे थे, और 2006 में परियोजना की वजह से लाभ पाने वाले गरीब लोगों की संख्या 12 प्रतिशत हो गयी.

अगर आप इस परियोजना के विरुद्ध हैं तो आप इसे नीचे बने पहले ग्राफ़ से दिखा सकते हैं, जिसमें लगता है कि लाभ पाने वालों पर कुछ विषेश असर नहीं पड़ा.


अगर आप इस परियोजना के बनाने वाले या लागू करने वाले हें तो आप इसे नीचे दिये दूसरे ग्राफ़ जैसा बना कर प्रस्तुत कर सकते हैं, जिसमें लगता है कि परियोजना का असर अच्छा हुआ.


यानि दोनो ग्राफ़ों में बात तो एक ही है पर उसे पेश करने का तरीका भिन्न है और अगर ध्यान से न देखें तो उनका असर भी भिन्न पड़ता है.

अधिकतर लोग जैसे ही विभिन्न खानों (tables) में भरे अंक देखते हैं, उनकी समझ में कुछ नहीं आता. आँकणे पेश करने वाला जिस बात को बढ़ा कर दिखाना चाहता है उसे वैसे ही दिखाता है, और वही लोग प्रश्न उठा सकते हैं जिन्हें सांख्यिकीय विज्ञान (Statistics) की जानकारी हो. इसीलिए कहते हैं कि झूठ कई तरह के होते हैं पर साँख्यिकीय झूठ सबसे बड़ा होता है.

अगर आप को अंतर्राष्ट्रीय या राष्ट्रीय स्तर पर देशों के बीच और एक ही देश में विभिन्न सामाजिक गुटों के बीच अमीरी-गरीबी, स्वास्थ्य-बीमारी, आदि विषयों पर आकँणो को समझना है तो स्वीडन के एक वैज्ञानिक हँस रोसलिंग के बनाये अंतर्जाल पृष्ठ गेपमाईंडर को अवश्य देखिये. कठिन और जटिल आँकणों को बहुत सरल और मनोरंजक ढंग से समझाया है कि बच्चे को भी समझ आ जाये. रोसलिंग जी कोपीलेफ्ट में विश्वास करते हें और उनकी सोफ्टवेयर निशुल्क ले कर अपने काम के लिए प्रयोग की जा सकती है.

मंगलवार, फ़रवरी 06, 2007

मानव का सफ़र

करीब दो वर्ष पहले इंडोनेसिया के फ्लोरेस द्वीप पर एक प्राचीन मानव शरीर मिला था. 12,000 साल पुराना यह शरीर अब तक मिले सभी आदि मानव शरीरों से भिन्न था. कद में करीब एक मीटर और छोटे से खरबूजे के बराबर सिर वाले इस स्त्री शरीर के बारे में कहा गया था कि वह अभी तक अनजाने, एक नये आदिम मानव गुट की थी जिसे होमो फ्लोरेसियंसिस (Homo floresiensis) का नाम दिया गया था. इस आदि मानव गुट के सभी सदस्य छोटे कद के छोटे दिमाग वाले थे.

चूँकि 12,000 साल पहले, आधुनिक मानव गुट, होमो सेपियंस (Homo sapiens), भी धरती पर रह रहा था, इसका अर्थ हुआ कि कुछ समय तक होमो सेपियंस तथा होमो फ्लोरेसियंसिस के मानव दल समाज साथ साथ रहे.

पर कुछ वैज्ञानिकों ने संदेह किया है कि होमो फ्लोरेसियंसिस का कोई अलग मानव गुट था. उनका विचार है कि जो शरीर फ्लोरेस में पाया गया वह एक बीमार आधुनिक मानव होमो सेपियंस स्त्री का है जिसे माईक्रोसिफेलिया यानि छोटे दिमाग की बीमारी थी.

इस तरह की बहसें वैज्ञानिकों में आम हैं क्योंकि प्राचीन आदि मानवों के शरीर बहुत थोड़े से मिले हैं और उनके आधार पर सारी बातें जानना और समझना कठिन है. कुछ माह पहले अँग्रेजी विज्ञान पत्रिका वेलकम साईंस में इस विषय पर एक लेख निकला था जिसमें मानव शरीर के सूक्षम कोषों (cells) के अंदर छुपे डीएनए (DNA) तथा जेनोम (genome) के अध्ययन से आदि मानव के विकास को बेहतर समझने के बारे में बताया गया था.

जेनोम शोध से यह पता चलता है कि आज से 70 लाख साल पहले अफ्रीका में मानव तथा चिमपैंज़ी के गुट एक दूसरे से अलग हो कर विकसित होने लगे. आज तक का पाया हुआ सबसे प्राचीन मानव शरीर अफ्रीका में चाद (Tchad) देश में सन २००२ में पाया गया था, करीब 65 लाख पुराने इस शरीर को साहेलआथ्रोपस चादेंसिस का नाम दिया गया और यह मानव जाति के विकास का प्रथम पग था, जो सीधा खड़ा हो कर भी चल सकता था और गोरिल्ला जैसा था. फ़िर कारीब 44 से ले कर 17 लाख साल पहले, सारे अफ्रीका में एक नयी मानव जाति फैली, दुबले पतले छोटे मानवों की जिन्हें आउस्ट्रालोपिथेसीन (Australopithecines) के नाम से जाना जाता है. 1974 में ईथिओपिया में पाये गये एक आदिम मानव शरीर जिसे लूसी के नाम से पुकारा गया था, इसी समय का प्रतीक था और बाद में इसी मानव जाति के पैरों के निशान भी मिले थे.

पहला आधुनिक मानव जिसे होमो नाम दिया गया, करीब 24 लाख साल पहले विकसित हुआ और वैज्ञानिक उसे होमो एबिलिस का नाम देते हैं जो कि हाथ का उपयोग करने लगा था. फ़िर 19 लाख पहले आया होमो इरेक्टस, जो केवल सीधा दो पैरों पर ही चलता था. इसी मानव विकास यात्रा में करीब 6 लाख से 2 लाख साल पहले यूरोप में निअंडरथाल मानव आया और फ़िर अफ्रीका में होमो सेपियंस जो दोनो बहुत लम्बे अर्से तक अर्से तक साथ साथ रहे. करीब 80 से 50 हज़ार साल पहले होमो सेपियंस अफ्रीका से बाहर निकला और यह सोचा जाता है कि अंत में आधुनिक मानव से हार कर निअंडरथाल मानव जाति करीब 30 हजार वर्ष पहले समाप्त हो गयी. यही वह समय है जब आधुनिक मानव में वाणी का विकास हुआ.

जिस विकास और परिवर्तन में लाखों साल लग जाते थे, वह आधुनिक मानव के आने के बाद तीव्र होने लगा और अब तो और भी तीव्र हो रहा है. 30 हजार साल पहले मानव को शब्द मिले, 4 हज़ार साल पहले मिस्र में पिरामिड बनने लगे और आज से करीब ढाई हजार साल पहले वेद लिखे गये. आज तो परिवर्तन को दशकों में गिना जाता है, कल सालों में फ़िर महीनो में गिना जायेगा. पर इस तीव्र परिवर्तन का यह अर्थ नहीं कि प्रकृति के विकास के नियम बदल गये हैं. वैज्ञनिकों के अनुसार आज से 70,000 हजार वर्ष पहले जब सुमात्रा द्वीप में माऊँट टोबा नाम के ज्वालामुखी का विस्फोट हुआ था तो एक हज़ार सालों तक पृथ्वी के आसपास धूल छाई रही थी और पृथ्वी बर्फ से ढक गयी थी, जिसमें अधिकतर मनाव और पशु मर गये थे. आज जब मानव के पर्यावरण पर पड़ते असर का सुनता हूँ कि सागरों के स्तर बढ़ रहे हें, प्रदूषण बढ़ रहा है, ऊँचे पर्वतों पर बर्फ पिघल रही है, तो यह सोचता हूँ कि जब प्रकृति करवट लेगी तो कौन बचेगा और कब तक!

*****
एनडीटीवी पर इस चिट्ठे की बात होने की बधाई के लिए आप सबको धन्यवाद. इतना प्रतिष्ठित चैनल हिंदी चिट्ठों की बात करे, यह तो अच्छा है, शायद चिट्ठा लिखने वालों की संख्या बढ़े.

रविवार, फ़रवरी 04, 2007

चीख

कल मैंने अपने तस्वीरों के चिट्ठे पर नोर्वे के सुप्रसिद्ध चित्रकार एडवर्ड मुँच की लंदन में हुई एक कला प्रदर्शनी की तस्वीर लगाई थी तो सोचा आज उनकी सबसे प्रसिद्ध तस्वीर चीख की बात करनी चाहिए. मुँच का जन्म हुआ 1863 में लोटन नाम के शहर में, जब वह एक वर्ष के थे तो उनका परिवार क्रिसतियाना शहर में, जिसका आधुनिक नाम है ओस्लो, वहाँ रहने आया. नवयुवक मुँच ने 1881 में नोर्वे के राजकीय कला विद्यालय में शिक्षा पाई और फ़िर पैरिस भी कला सीखने गये.

"चीख" नाम की कलाकृति उन्होंने 1893 में बनाई.





इस तस्वीर में सामने आकृति है कि अँडे जैसे सिर वाले व्यक्ति की जिसके चेहरे पर गहन पीड़ा है और जिसका मुँह अनंत चीत्कार में खुला है. यह व्यक्ति एक पुल पर चल रहा है. पुल के साथ समुद्र दिखता है जिसमें पीछे पानी का रंग पीला सा है जिसमें दो नावें दिखतीं हैं. पुल पर उस व्यक्ति के पीछे दो अन्य धूमिल आकृतियाँ हैं. उपर आकाश सुर्यास्त की लालिमा में रँगा है.

क्या कुछ देखा उस व्यक्ति ने जिसे उसे डरा दिया और वह चीखने लगा? कोई खून या दुर्घटना देखी उसने? जिस तरह से व्यक्ति ने अपने दोनो हाथ अपने चेहरे के दोनो ओर रखे हैं उससे लगता है कि यह चीख किसी बाहरी घटना को देख कर नहीं बल्कि अपने ही मन में उठ रहे विचारों का हाहाकार है. हालाँकि व्यक्ति के शरीर का केवल ऊपरी हिस्सा दिखता है पर उसकी रेखाएँ इस तरह से खिंचीं हैं कि उसमें गति दिखती है. यह तस्वीर आधुनिक जीवन के अकेलेपन, उदासी और त्रास को व्यक्त करती है.

"चीख" जल्दी ही बहुत प्रसिद्ध हो गयी और मुँच ने इसी चीख को कुछ फेर बदल कर तीन बार और बनाया पर कला विशेषज्ञ इस पहली "चीख" को सबसे बढ़िया मानते हैं. नार्वे में इस आकृति से प्रेरित खेल खिलौने बाज़ार में मिलते हैं.

मुँच नें इस चित्र के बारे में बताया कि "सँध्या का समय था, सूरज डूब रहा था, अचानक सारा आसमान लाल हो गया. मैं रुका, लगा कि शरीर में जान ही नहीं थी, ... खून था और अग्नि की लपलपाती लपटें सागर और शहर के ऊपर मँडरा रही थीं ... मैं डर कर काँपता हुआ वहाँ खड़ा रहा, और मुझे लगा कि जैसे सारी प्रकृति में एक चीख गूँज रही हो". यानि उनका कहना था कि यह चीख किसी व्यक्ति का हाहाकार नहीं, सारी प्रकृति का हाहाकार था.

शौधकर्ताओं ने बताया है कि इस चित्र को बनाने से दस वर्ष पहले, 1883 में इंडोनेसिया का कराकातोवा ज्वालामुखी फ़ूटा था और आसमान में धूल छाई थी तो ओस्लो में भी आकाश का रंग लाल कई दिनों तक लाल रहा था और शायद मुँच तब की बात कर रहे थे.

यह चित्र इसलिए भी प्रसिद्ध हुआ क्योंकि यह दो बार चोरी हो चुका है. पहले 1994 में जब नोर्वे में शीत ओलिम्पक खेल हो रहे थे तो यह चोरी हुआ और तीन महीने बाद मिला. फ़िर 2004 में इसे दिन दहाड़े ओस्लो कला संग्रहालय में दो मुँह ढके चोर बँदूक दिखा कर उठा ले गये. दो वर्ष के बाद इसके मिलने की कहानी भी बहुत अजीब है क्योंकि चोर को चाकलेट का लालच दे कर पकड़ा गया. पुलिस ने यह सुराग लगाया था कि इसका चोर चाकलेट का लालची है तो चाकलेट बनाने वाली कम्पनी एम एंड एम ने एलान किया कि जो इस तस्वीर का सुराग देगा उसे कई करोड़ रुपये की चाकलेट दी जायेगी.

कहते हैं कि चित्र के ऊपरी भाग में लाल रँग पर मुँच ने पैंसिल से छोटे अक्षरों में लिखा था "यह चित्र कोई पागल ही बना सकता था."

चित्र दुनिया में चाहे कितना ही प्रसिद्ध क्यों न हो, मुझे स्वयं अच्छा नहीं लगता. कुछ साल पहले ओस्लो के कला संग्रहालय में जब इसे देखा तो मन परेशान सा होने लगा. शायद यही इसकी प्रसिद्ध का कारण है कि यह हमें अपने अंतर्मन में छुपे अकेलेपन और उदासी के डर के सामने खड़ा कर देता है.

शनिवार, फ़रवरी 03, 2007

टेलीविज़न चैनलों की दुनिया

जहाँ तक भारत से समाचार मिलने और संचार साधनों की बात है उसमें 1980 के दशक के जीवन और आज की स्थिति में इतना अंतर आ चुका है कि सोचने पर विश्वास नहीं होता. यह बदलाव पहले तो धीरे धीरे शुरु हुआ. पहले टेलीग्राम के बदले में आया टेलेक्स और फ़िर फाक्स. आज क्या कोई टेलीग्राम का उपयोग करता है, मालूम नहीं, टेलेक्स अवश्य ही समाप्त हो गया. फाक्स आज भी जीवित है पर बूढ़े माँ बाप की तरह जिनके लिए बच्चों के पास समय नहीं होता.

शुरु में तो टेलीफोन करना भी कठिन था. काल बुक करा कर घँटों इंतज़ार में बैठे रहते और शायद आज के हिसाब से अधिक मँहगी भी थी. फ़िर 1994 में घर में पहला कंप्यूटर आया और साथ ही ईमेल और बुलेटिन बोर्ड वाले गुट जिसमें से भारत से सम्बंधी गुट खोजते रहते थे. कई सालों तक ईमेल से मिलने वाले अमरीका में रहने वाले भारतीयों के सौजन्य से मिलने वाले भारतीय समाचारों की डाईजेस्ट से ही पता चलता था कि भारत में क्या हुआ. आज कें अंतर्जाल और पिछले तीन चार वर्षों में चौड़े रास्ते यानि ब्रोडबैंड के आने से बदलाव में इतनी तेजी आई है कि सोचो तो विश्वास नहीं होता कि अभी कुछ साल पहले तक यह सब कुछ सम्भव नहीं था.

बस एक क्षेत्र में ही कुछ कठिनाईयाँ थीं, रेडियों सुनने और भारतीय टेलीविजन देखने के क्षेत्र में.

पिछले कुछ सालों से विदेशों में चलने वाले भारतीय रेडियो स्टेशनों की संख्या धीरे धीरे बढ़ रही है. लंदन से सनराईज रेडियो तथा बीबीसी की हिंदी सेवा, पेरिस से तीन ताल रेडियो और निंबूड़ा रेडियो, दुबाई से हम रेडियो. मुंबई से एक पूर्वरिकार्डिड कार्यक्रम देने वाले रेडियो भी है बोलीवुड ओन डिमांड पर भारत से अंतर्जाल पर सीधा प्रसारण करने वाले रेडियो नहीं हैं, शायद इसलिए कि भारतीय कानून इसकी अनुमति नहीं देता? आल इंडिया रेडियो का अंतर्जाल पृष्ठ बहुत सालों से यही संदेश देता है कि सीधा प्रसारण कुछ समय के लिए बंद है. अपने मन पसंद गाने चुन कर उन्हें अपनी मर्जी से सुनना भी बहुत आसान है.

वीडियो के मामले में कुछ पीछे थे पर 2006 में बहुत परिवर्तन आया है. स्मेशहिट, वाह इंडिया, सिफी मेक्स, जैसे पृष्ठों पर समाचारों, खाना बनाना, इधर उधर की गपबाजी, हिंदी सिनेमा जगत सम्बंधित बातें सब कुछ आप आराम से देख सकते हैं. राजश्री फिल्मस ने अंतर्जाल पर अपने फिल्में, गानों, महाभारत जैसे सीरियल आदि के कार्यक्रम इत्यादि देखने की सुविधा दी है. स्टार टीवी वालों ने भी अपना नया पृष्ठ बनाया जिसमें उनके कार्यक्रमों की छोटी सी झलक देख सकते हैं, पर यह इतना रुक रुक कर आता है कि मजा नहीं आता. बीडब्ल्यूसिनेमा जैसे पृष्ठ भी हैं जहाँ आप दो‍तीन डालर का टिकट खरीद कर नई हिंदी फिल्में देख सकते हैं.

बस एक भारतीय टेलीविजन देखने की कमी थी जिसके लिए इटली जैसे देश जहाँ भारतीय बहुत कम हैं सेटेलाईट का डिश एंटेना लगवा कर भी उतना आसान नहीं था. पर पिछले महीनों में इसमें भी परिवर्तन आने लगा है. दूरदर्शन समाचार वालों ने पहले शुरु किया था पर उसमें वीडियो अच्छा नहीं था और बहुत रुक रुक कर आता था. फिर जब से आबीएन और आईबीएन 7 अंतर्जाल पर आने लगे तो दूरदर्शन देखने की कोशिश करनी ही बंद कर दी.

अब आईदेसीटीवी नया जाल स्थल है जहाँ आप विभिन्न भारतीय टेलीविजन चैनलों को देख सकते हैं. थोड़े से भी लोग हों तो यह रुक रुक कर आता है, और शायद इसीलिए अभी मुफ्त है. यानि कि बस थोड़े ही समय की बात है, देश विदेश में दूर दूर तक सभी प्रवासी अब एकता कपूर के सास बहू के झगड़े देख सकेंगे, भूत प्रेतों की कहानियाँ समाचारों के रूप में सुनेगे, लालूजी, अडवानी जी जैसे महानुभावों की मधुर वाणी और ज्ञानी वचन सुन सकेंगे.

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हिंदी की मासिक पत्रिका हँस का जनवरी अंक कल मिला. इस बार सारा अंक ही समाचारों की टेलीविजन चैनलों की दुनिया पर है. अभी केवल राजेंद्र यादव का उत्तेजनीय संपादकीय ही पढ़ा है और देखा है कि विभिन्न टीवी चैनलों में काम करने वालों ने कहानियाँ लेख आदि लिखे हैं. उनमें से एक अविनाश का नाम ही जानता हूँ, पर उन सबको पढ़ने के लिए बहुत उत्सुक हूँ. नये लोग नया लिखे और शायद हिंदी लेखन में कुछ नया ला पायें!

हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में समाचार पत्रों और किताबों में लिखने वालों को, अँग्रेजी में लिखने वालों के सामने नीचा समझा जाता है पर शायद हिंदी टेलीविजन करने वालों को अधिक सम्मान मिलता है?

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यहाँ बरलुस्कोनी और उनकी पत्नी वेरोनिका के बारे में बहस सब टीवी चैनलों पर चल रही है. एक सर्वेक्षण में 55 प्रतिशत लोगों ने कहा कि वेरोनिका ने ठीक नहीं किया जबकि 33 प्रतिशत लोग, अधिकतर स्त्रियाँ, उनको ठीक मानती हैं. कुछ का कहना है कि वेरोनिका यह इसलिए किया क्योंकि बरलुस्कोनी जी का किसी के साथ चक्कर है और वह पत्नी को छोड़ने की सोच रहे थे. कुछ कहते हैं कि वेरोनिका राजनीति में भाग लेने वाली हैं. कुछ कहते हें कि यह तलाक की तैयारी हो रही है.

बरलुस्कोनी जी के लिए इस तरह की बातें नयी नहीं हैं. सत्तर वर्ष के हैं पर शल्य चिकित्सा से लिफ्टिंग करवा कर, सिर पर नये बाल लगवा कर जवान दिखते हैं. कुछ साल पहले नोर्वे की प्रधानमंत्री से इसी तरह की घुमाने फिराने की कुछ बात कर हल्ला मचवा दिया था. चुनाव से पहले उन्होंने कहा कि वह जीतने के लिए छह महीने तक ब्रह्मचर्य करके देश के लिए त्याग करेंगे पर उनके विरोधियों ने कहा कि यह तो सिर्फ बहाना था दुनिया को दिखाने के लिए कि वह इतने बूढ़े नहीं हैं. खैर जो भी हो, उनका पीछा करने वाले पत्रकारों ने समाचार दिया कि वह अपनी पत्नी के साथ रात का खाना खाते देखे गये और सारी शाम घर में ही रहे, यानि कि पति पत्नी झगड़ा अभी तो शाँत हो गया है.

गुरुवार, फ़रवरी 01, 2007

स्वाभिमान

कल सुबह इतालवी अखबार "ला रिपुब्लिका" पढ़ने वाले हैरान रह गये जब उन्होंने अखबार में पूर्व प्रधानमंत्री सिलवियो बरलुस्कोनी जी की धर्मपत्नी वेरोनिका का एक पत्र छपा देखा. बरलुस्कोनी जी इटली के सबसे धनवान लोगों में गिने जाते हैं, उनके अपने तीन टेलीविजन स्टेशन, कई रेडियो, अखबार, पत्रिकाएँ इत्यादि हैं. "ला रिपुब्लिका" अखबार बरलुस्कोनीजी के विरोधी दल की तरफ़ का अखबार है, इसलिए अचरज के दोनो कारण थे - ऐसा क्या हुआ कि श्रीमति वेरोनिका जी को आम अखबार में पत्र लिख कर कुछ कहना पड़ा और उसके लिए उन्होंने विपक्ष के अखबार ही को क्यों चुना?

वेरोनिका जी ने पत्र में लिखा थाः

संपादक जी, यह पत्र बहुत झिझक कर लिख पायी हूँ. अपने पति से मेरा 27 वर्ष का साथ है, जो कि पहले उद्योगपति थे और फ़िर बने राजनेतिक नेता. मैंने हमेशा यह सोचा है कि मेरा स्थान लोगों की दृष्टि से दूर परिवार के भीतर व्यक्तिगत स्तर पर है, इसी से परिवार को सुख शाँती मिल सकते हैं. ... यह पत्र इस लिए लिखना पड़ रहा क्योंकि टेलीगातो पुस्कार समारोह के बाद दिये गये समारोह में मेरे पति ने उस कार्यक्रम में
भाग लेने वाली युवतियों से कुछ इस तरह के बातें कीं जैसे ".. अगर मैं शादी शुदा न होता तो अवश्य तुमसे शादी कर लेता", "..तुम्हारे साथ तो में कहीं भी चलने को तैयार हूँ.." इत्यादि, जो मैं स्वीकार नहीं कर सकती. इस तरह की बातें मेरे आत्मसम्मान के विरुद्ध है और यह बातें मेरे पति की उम्र, पद, सामाजिक स्थान, पारिवारिक स्थिति (पहले विवाह से दो बच्चे और वेरोनिका जी के साथ तीन बच्चे, सभी व्यस्क हैं) देखते हुए भी नहीं स्वीकार की जा सकतीं. मैं अपने पति से और जन नेता से मैं सबके सामने अपनी गलती पर क्षमा माँगने के लिए कहती हूँ. मैंने अपने वैवाहिक जीवन में कुछ भी लड़ने झगड़ने का मौका कभी नहीं आने दिया, कुछ बात हो भी तो चुप रहना ही ठीक समझा... पर उनके इस तरह के व्यवहार पर अगर चुप रहूँगी तो अपना आत्मसम्मान खो बैठूँगी... मुझे अपनी बेटियों को वह उदाहरण देना है कि औरत का आत्मसम्मान महत्वपूर्ण है और अपनी मर्याद को बना कर रखना चाहिये. मुझे अपने बेटों को सिखाना है कि नारी का सम्मान का क्या महत्व है.





आज सुबह अखबारों में श्री सिलवियो बरलुस्कोनी ने सबके सामने पत्नी से क्षमा माँगी और लिखा कि वह अपनी पत्नी से बहुत प्यार करते हैं, उनका बहुत सम्मान करते हैं और उनके हँसी मज़ाक में पत्नी के आत्मसम्मान को ठेस पहुँचाने की कोई इच्छा नहीं थी.

मंगलवार, जनवरी 30, 2007

प्रेम की परिभाषा

पँद्रहवीं शताब्दी के इतालवी चित्रकार ब्रोंज़ीनो की कलाकृति "वीनस की जीत की प्रतीक कथा" (Allegory of triumph of Venus), पहली दृष्टि में कामुकता का खुला चित्रण करती लगती है. लंदन की नेशनल गैलरी में लगी यह तस्वीर आँजेलो ब्रोंज़ीनो ने करीब 1545 में बनाई थी जिसे फ्लोरेंस के शासक कोसिमो दे मेदिची प्रथम ने फ्राँस के राजा फ्राँसिस प्रथम को भेंट में दी थी. तस्वीर को कामुक और दिमाग भ्रष्ट करने वाली कह कर, इसके कुछ हिस्सों को ऊपर से रंग लगा कर ढक दिया गया था, जो अब हटा दिये गये हैं. यह तस्वीर लंदन कैसे पहुँची इसकी पूरी जानकारी इतिहास में नहीं है. पर इस तस्वीर में ब्रोंज़ीनो ने प्रेम की पूरी परिभाषा को समझाया है, इसलिए इसे ध्यान से देखिये.




इतालवी कला विशेषज्ञ फेदेरीको ज़ेरी जिनका देहांत 1998 में हुआ था इस तस्वीर के बारे में विस्तार से लिखा है, और यह मेरा वर्णन उन्हीं की एक किताब से है.

चित्र की कहानी ग्रीस के पुराने देवी देवताओं की कहानियों से जुड़ी है. चित्र के बीचों बीच सबसे बड़ी आकृति है प्रेम की देवी वीनस की. जिस तरह वह बैठीं हैं उस मुद्रा को सरपेनटाईन यानि साँप जैसी कहा जाता है. उनके बायें हाथ में सोने का सेब है जो पारिदे ने जूनोने तथा मिनर्वा की प्रतिस्पर्धा के दौरान उन्हें दिया था. वीनस के साथ कामुक मुद्रा में उन्हें चूमने वाले नवयुवक हैं क्यूपिड यानि कामदेव. कामदेव का दायाँ हाथ वीनस के वक्ष पर है और ध्यान से न देखें तो लगता है कि हाँ दोनो काम की अग्नि में एक दूसरे के लिए बेकरार हो कर जल रहे हैं. पर ध्यान से देखें तो वीनस दायें हाथ से कामदेव का तीर चुरा रहीं हैं और कामदेव जी बायें हाथ से वीनस का मुकुट उतारने की कोशिश में हैं. यानि प्रेम के बहाने से दोनो एक दूसरे को धोखा देने और अपने स्वार्थ के लिए लगे हैं.

तस्वीर के दायीं ओर एक नग्न बच्चा है, पाँव में पायल, हाथ में गुलाब के फ़ूल, हँसमुख चेहरा. यह है आनंद.

आनंद के पीछे एक सुंदर कन्या है, जिसके हाथ में शहद का छत्ता है. इसे ध्यान से देखिये तो पायेंगे कि इसके हाथ उल्टे हें यानि दायाँ हाथ बायीं ओर और बायाँ हाथ दायीं ओर. इसकी टाँगें नहीं साँप जैसी पूँछ है जो दो मुखोटों के पास छुप कर डँक मारने का इंतज़ार कर रही है. यह है आनंद के पीछे छुपा धोखा.

तस्वीर के बायीं ओर कामदेव के पीछे हैं सिर को पकड़े, दर्द से चिल्लाने वाले ईर्ष्यादेव और और उनके ऊपर भर्राई आखों वाली पागलपन की देवी.

तस्वीर की अंतिम आकृति है ऊपर बायीं ओर का वृद्ध जो आँखें घुमा कर कह रहा है कि "अभी दिखाता हूँ मैं मजा". यह है समयदेव जो समय की नीली चादर लिए खड़ा है और कह रहा है अभी कुछ समय निकलने दो, सब प्यार भूल जाओगे.

यानि पहली दृष्टि में काम भावना दिखाने वाली यह तस्वीर असल में प्रेम का बहुत निराशाजनक चित्रण करती है.

शनिवार, जनवरी 27, 2007

विचारों की आज़ादी

कल भारत का गणतंत्र दिवस था. जब भी 26 जनवरी आती है तो दिल करता है कि किसी तरह दिल्ली के राजपथ पहुँच कर परेड देखने को मिल जाये. मेरे लिए उस परेड का सबसे अच्छा हिस्सा होता था विभिन्न प्राँतों से आये लोकनर्तक और रंग बिरंगी झाँकियाँ. बचपन में ताल कटोरा बाग और रवींद्र रंगशाला के पास लगे गणतंत्र दिवस शिविर जहाँ देश के विभिन्न भागों से आये बच्चे और जवान ठहरते थे, वहाँ घूमना बहुत अच्छा लगता था. अचरज भी होता था और गर्व भी हमारे भारत में कितने अलग अलग लोग हैं जिनकी भाषा, पौशाक, चेहरे इतने अलग अलग हो कर भी हमसे इतने मिलते जुलते हैं.

1950 में बना हमारा गणतंत्र हमें अपनी बात कहने की आज़ादी देता है और इस बात पर भी गर्व होता है कि कुछ छोटे मोटे अपवाद छोड़ कर भारत में आज भी विभिन्न दृष्टिकोण रखने की आज़ादी बनी हुई है, जबकि अपने पड़ोसी देश चीन से ले कर अन्य बहुत से देशों में यह आज़ादी कितने समय से बेड़ियों में बँधी है.

पत्रकारों की अंतर्राष्ट्रीय संस्था सीविप यानि "सीमाविहीन पत्रकार" (Reporter without Borders) इस बात की जानकारी देता है कि किस देश में अपने विचार रखने की कितनी स्वतंत्रता है. सन 2007 का प्रारम्भ हुए 26 दिन ही हुए है पर इन 26 दिनों में सीविप के अनुसार 6 पत्रकार और 4 मीडिया सहायक मारे गये हैं, तथा 142 पत्रकार, 4 मीडिया सहायक और 59 अंतर्जाल के द्वारा विरोध व्यक्त करने वाले लोग जेल में बंद किये गये हैं. इराक में जिस गति से पत्रकारों को मारा जा रहा है उसके बारे में सीविप का अभियान कहता है, "अगर इराक में पत्रकार इसी तरह मरते रहे तो जल्द ही आप को स्वयं वहाँ से समाचार लेने जाना पड़ेगा".



कहते हैं कि संयुक्त राष्ट्र संघ की विश्व मानव अधिकार घोषणा में "हर मानव का अपने विचार व्यक्त करने" के अधिकार कवियों, लेखकों तथा उपन्यासकारों की एक गैर सरकारी संस्था पेन इंटरनेशनल के जोर डालने तथा अभियान करने पर रखा गया था. आज भी पेन इंटरनेशनल (PEN - Poets, Essayists, Novelists) भी जेल में बंद और मारे जाने वाले लेखकों, कवियों और उपन्यासकारों के बारे में सूचना देती है.

आजकल सरकारी सेंसरशिप का नया काम है अंतर्जाल पर पहरे लगाना ताकि लोगों की पढ़ने और लिखने की आज़ादी पर रोक लगे. सीविप इन देशों को "काले खड्डे" (Black holes) का नाम देती है और इनमें सबसे पहले स्थान पर है चीन, जहाँ कहते हैं कि 30,000 लोग सरकारी सेसरशिप विभाग में अंतर्जाल को काबू में रखने का काम करते हैं. कहते हें कि चीन में अगर आप किसी बहस के फोरम या चिट्ठे पर कुछ ऐसा लिखे जिससे सरकार सहमत नहीं है तो एक घंटे के अंदर उसे हटा हुआ पायेंगे. जिन अंतर्जाल स्थलों को चीन में नहीं देख सकते उनमें वीकीपीडिया भी है.



दुख की बात तो यह है कि बड़ी अंतर्राष्ट्रीय कम्पनियाँ चीनी सरकार से डर कर इस काम में सरकार की मदद कर रहीं हैं. चीनी अर्थशास्त्र के बारे में निकलने वाले समाचार पत्र "आधुनिक अर्थशास्त्र समाचार" के प्रमुख सम्पादक शि ताओ ने एक सरकारी फरमान जिसमें समाचार पत्रों को कहा जा रहा था कि वह "तियानामेन की बरसी पर इसके बारे में कोइ समाचार न छापें" को विदेश में भेजने की कोशिश की तो याहू ने यह संदेश रोक कर उसे चीनी सरकार को दिया और शीताओ को देश विरोधी होने के अपराध में दस साल के कारागार की सजा हुई.

सीविप के अनुसार पत्रकारों की सेंसरशिप और दमन में वियतनाम, तुनिसी, ईरान, क्यूबा, जैसे देश भी शामिल हैं. अंतर्जाल में सेसरशिप से कैसे बचें इस विषय पर सीविप ने एक किताब भी निकाली है.


शुक्रवार, जनवरी 26, 2007

अधिकार

संयुक्त परिवार वाले चिट्ठे पर मिली टिप्पणियों में इतने सारे रोचक प्रश्न और पहलू हैं कि मैं अपने ही बनाये नियम "बहस में नहीं पड़ना, वैसे ही समय इतना कम मिलता है, उसमें भी अगर बहस में लग गया तो ..." को एक बार खुशी से भूलने के लिए तैयार हूँ.

सबसे पहले तो जितेंद्र की शिकायत को लें:

सुनील भाई, ब्लॉग की थीम बदलो यार! बहुत दु:खी लगती है।

असल में जाने क्यो मन की गहराई में कहीं छुपा हुआ है कि गम्भीर, उदास, फ़ीके रंगों से अपनी छवि बुद्धिजीवी की हो जायेगी, इसलिए जब भी चिट्ठे का कोई टेम्पलेट ढूँढ़ता हूँ तो रो धो कर ऐसे ही डिज़ाइन पर जा कर मन रुकता है जिसे देख कर मन से निकले, वाह कितना गम्भीर और दुखी है! खैर जीतू तुम्हारी मन से निकली इस आह को कैसे देख कर अनदेखा कर देता? तो नतीजा तुम्हारे सामने है. यह नहीं कि रँग बहुत खुशनुमा हो गयें हैं पर शायद थोड़ा सा फर्क पड़ा है? :-)

अब बात करें संजय की, जिन्होंने लिखा हैः


अपनी बात स्पष्ट करने के लिए एक ऐसे पुरूष की बात करता हूँ जो जन्म से तो पुरूष हैं मगर स्त्री बनना चाहता है, वह समलिंगी है. ऐसे लोगो के लिए मेरा मत है की-व्यक्तिगत स्वतंत्रता सर्वोत्तम है, मगर अपनी जिम्मेदारी से भागना कहाँ तक सही है. प्रकृति ने पुरूष बनाया है तो एक पुरूष का कर्तव्य निभाओ. कुछ कमी रही है तो ईलाज करवाओ. एक महिला बनने की कामना करते हुए उल्टा ईलाज करवाने से कहीं ज्यादा अच्छे परिणाम एक पुरूष बनने का ईलाज करवाना चाहिए. मन तो और भी बहुत कुछ करने को चाहता होगा, अच्छा
हो अन्य मामलो की तरह इसका भी ईलाज मनोचिकित्सक से करवाया जाय.यह सब नैतिक या धार्मिक प्रेरणाओं से नहीं बल्कि शारीरिक जटिलताओं को ध्यान में रख कर लिखा है.
संजय जैसा तुम सोचते हो, मेरे विचार में दुनिया के अधिकाँश लोग शायद ऐसा ही सोचते हैं. जो लोग इस द्वँद से गुज़रते हैं, उनमें से भी बहुत से लोग अपने मन और भावनाओं को दबा कर यही कोशिश करते हैं कि किसी को मालूम न चले, छुप कर दब कर रहो. जो लोग इतना साहस जुटा पाते हें कि दुनिया में अपना सच बता सकें, उन्हें कदम कदम पर तिरस्कार और परिहास का सामना करना पड़ता है. केवल उन पर ही नहीं, उनके सारे परिवार के लिए कितना कष्टदायक होता है इसका अंदाज़ इस बात से मिलता है कि उनमें से अधिकतर लोगों को घर परिवार से नाता तोड़ना पड़ता है. जब इतनी तकलीफ़ें उठानी पड़ती हैं तो भी क्यों कुछ लोग लिंग बदलाव की कोशिश करते हैं? शायद इसलिए कि "गलत" शरीर में रहने की पीड़ा उनसे सहन नहीं होती? जितना मैंने जाना है, वे कोई भी फैसला करें, भावनाओं को छुपाने और दबाने का या अपने सच के साथ सामने आने का, कोई भी आसान नहीं होता. बहुत से लोग मनोचिकित्सकों के पास ही जाते हैं पर आधुनिक सोच के अनुसार मनोचिकित्सक का काम यह नहीं कि वह किसी को बतायें क्या ठीक है या क्या गलत, बल्कि उनका काम है व्यक्ति को अपने अंतर्द्वंद को समझना और उसे स्वीकार करना. पहले किसी ज़माने में समलैंगिकता को बीमारी माना जाता था पर आज तो वह मानव प्रकृति की विविधता का ही एक हिस्सा है.

घुघुटीबसूटी, मालूम नहीं कि यह नाम ठीक से लिखा है या नहीं, की बात से में बहुत कुछ सहमत हूँ पर उनकी इस बात परः


समलैंगिकता आदि व्यक्तिगत पसन्द हैं, और इसे आम व्यक्ति समझ नहीं सकता ।
मैं कुछ जोड़ना चाहूँगा. समलैंगिकता व्यक्तिगत पसंद है या व्यक्ति के अंदर उसके व्यक्तित्व का अभिन्न अंग, इस पर बहस तो हमेशा से ही चलती आई है, पर यह सोचना कि आम आदमी इसे नहीं समझ सकता केवल आज की परिस्थिति को बताता है. मेरे विचार में इस विषय पर आम आदमी के लिए और जानकारी दी जानी चाहिये. बहुत से लोग इन विषयों पर बात करना पसंद नहीं करते क्योंकि उनको लगता है कि जब यह बात हमारे समाज में नहीं है तो इस पर बात करने से शायद इसे प्रोत्साहन मिले या नवयुवकों को गलत विचार मिलें. वैज्ञानिक शोध से पता चलता है कि करीब 10 प्रतिशत लोग इस श्रेणी में आते हैं, आप मान लें कि 10 न हो कर वे केवल 5 प्रतिशत हैं तो भी हम भारत में कितने करोड़ लोंगो की बात कर रहे हैं? जो बात इतने जीवन छूती है, उस पर आम आदमी को क्यों न जानकारी और समझ हो?

अंत में देखें ईस्वामी की टिप्पणियाँ:

१) मुझे समलैंगिकों से बस इतना कहना है की वे अपनी जीवनशैली जीने के लिए स्वतंत्रता का हक रखते हैं लेकिन वे "विवाह" शब्द की परिभाषा से छॆडछाड ना करें. विवाह एक स्त्री और एक पुरुष के बीच ही हो सकता है इस परिभाषा का सम्मान करें. अगर दो पुरुषों को या दो स्त्रीयों को अपनी जोडी को सामाजिक और न्यायिक मान्यता दिलवानी है तो अपने गठजोडों के लिए कोई नये शब्द गढें और सटीक परिभाषा गढें जैसे की
पुरुष-पुरुष का हो तो हीवाह और स्त्री-स्त्री का होतो शीवाह - विवाह कतई नहीं मैरिज कतई नहीं - इस बारे में मैं बहुत कट्टर हूं!

मेरे विचार में बात यह नहीं कि इसे क्या नाम दिया जाये, बात अधिकारों की है चाहे उसे कुछ भी नाम दें. अधिकार कई स्तरों पर हैं. एक आम युगल को विवाह एक दूसरे की सम्पत्ती की वसीयत से जुड़े अधिकार देता है, अगर उनमें से किसी एक को अस्पताल में दाखिल हो तो उससे मिलने का अधिकार देता है, उसका आपरेशन हो इसका फैसला करने का अधिकार देता है, जिस घर में रहते हैं एक की मृत्यु के बाद उसी घर में रहने का अधिकार देता है. समलैंगिक युगल जो सारा जीवन साथ रहें उन्हें यह अधिकार क्यों न मिलें?

बात केवल समलैंगिक युगलों की ही नहीं, उन स्त्री पुरुषों की भी है जो बिना विवाह के साथ रहते हैं, वह भी यही अधिकार चाहते हैं.

आज इन अधिकारों की बात दुनिया के अधिकतर देशों में नहीं मानी जाती और केवल कुछ ही देश हैं जहाँ इने माना गया है. बहुत से समलैंगिक लोग भी इस बारे में अलग अलग राय रखते हैं. मेरे जानने वाले एक समलैंगिक मित्र कहते हैं कि यह सब बेकार की बाते हैं क्योंकि अधिकतर समलैंगिक लोग एक ही आदमी के साथ सारा जीवन बिताना पसंद नहीं करते. मैं इस बात से सहमत नहीं हूँ, क्योंकि यह मानव अधिकारों की बराबरी की बात है फ़िर चाहे इससे केवल आधा प्रतिशत समलैंगिक युगल फ़ायदा उठाना चाहें और बाकी नहीं.

मंगलवार, जनवरी 23, 2007

नये संयुक्त परिवार

हमारे एक पड़ोसी का परिवार बहुत अनोखा है. यह परिवार है माउरा और उसके पति अंतोनियो का. माउरा के दो बच्चे हैं, जूलिया उसके पहले पति के साथ हुई बेटी है और रिकार्दो, जो अंतोनियो का अपनी पहली पत्नी के साथ हुआ बेटा है.

माउरा के अपने पहले पति राउल और सास ससुर यानि जूलिया के दादा दादी से अच्छे सम्बंध हैं. राउल ने भी दूसरी शादी की और उनका अपनी दूसरी पत्नी सिल्विया के साथ एक बच्चा है.

अंतोनियो के भी अपनी पहली पत्नी के परिवार से अच्छे सम्बंध हैं. उनकी पहली पत्नी मोनिका का भी एक साथी है, जिसका नाम भी अंतोनियो है और जिनका अपनी पहली पत्नी से एक बेटा है, पर मोनिका और उनके वर्तमान वाले अंतोनियो का कोई आपस में बच्चा नहीं है.

कभी भी जूलिया या रिकार्दो से परिवार के बारे में कुछ बात करो तो चक्कर सा आ जाता है. समझ नहीं आता कि किसकी बात कर रहे हैं. माउरा कहती है कि इतने बड़े परिवार होने का यह फायदा है कि जब कभी उन्हें बाहर जाना हो तो बच्चों की देखभाल के लिए बेबी सिटर नहीं खोजना पड़ता, आपस में ही किसी न किसी परिवार में या फ़िर किसी दादा दादी या नाना नानी के परिवार में कोई न कोई अवश्य मिल जाता है.
*****

न्यू योर्क टाईमस् मेगज़ीन में भी एक अन्य तरह के नये संयुक्त परिवारों के बारे में लेख देखा. यह संयुक्त परिवार हैं समलैंगिक पुरुष तथा महिला युगलों के. समलैंगिक युवतियाँ जब बच्चों वाला परिवार चाहती हैं और अपने किसी समलैंगिक पुरुष मित्र को कृत्रिम वीर्यदान (artificial insemination) के लिए राजी करती हैं. वैसे तो कृत्रिम वीर्यदान किसी वीर्य बैंक से किसी अज्ञात व्यक्ति का भी लिया जा सकता है पर लेख के अनुसार उन्हे अपनी पसंद के जाने पहचाने युवक को अपने साथ जोड़ना बेहतर लगता है ताकि उनके बच्चे को पिता भी मिलें.

कुछ भी करने से पहले सबसे पहला काम जरुरी होता कि सारी बात स्पष्ट की जाये और किसकी क्या ज़िम्मेदारी होगी यह बात साफ़ तय की जाये. युवतियाँ अधिकतर यह माँग करती हैं कि युवक को बच्चे पर से सारे कानूनी अधिकार त्यागने होंगें और बच्चे के पालन पोषण के लिए कोई ज़िम्मेदारी नहीं उठानी पड़ेगी. यह इसलिए कि अगर आपस में न बनी तो युवक कानूनन बच्चे को लेने की कोशिश न करे. पर साथ ही वह यह भी चाहतीं हैं कि युवक बच्चे को नियमित मिले और उसके जीवन में स्नेह की दृष्टि से पिता का स्थान भरे.

इस तरह के युगलों के बच्चों को दो माँ मिलती हैं और कम से एक पिता. अगर पिता का भी स्थायी साथी हो, दो पिता भी मिल सकते हैं.
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मेरे विचार में बच्चों को स्नेहपूर्ण वातावरण की आवश्यकता होती है. अगर माता पिता की न बने और उनमें तलाक हो तो बच्चों को पीड़ा तो होगी ही पर अगर उसके बावजूद, अपने आपसी मतभेद भूल कर माँ पिता बच्चों को स्नेह का वातावरण दे सकते हें तो इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि कैसा संयुक्त परिवार है जहाँ बच्चा बड़ा हुआ है. आप का क्या विचार है इस बारे में?

रविवार, जनवरी 21, 2007

मोने, प्रभाववाद और धुँध

फ्राँस के चित्रकार मोने (Monet) का जन्म हुआ 1840 में हाव्र में. मोने ने प्रभाववादी चित्रकला शैली (impressionism) का पहली बार प्रयोग किया और आधुनिक चित्रकला युग का प्रारम्भ किया.

वह समय था यथार्थवादी चित्रकला शैली (realism) का जिसे पुनर्जन्म युग (renaissance) में द विंची तथा माइकलएँजेलो जैसे चित्रकारों ने उभार दिया था. पुर्नजन्म युग से पहले का मध्यकालीन युग यूरोपीय इतिहास में अँधेरा युग (dark ages) कहा जाता है जब यूरोप में कला और संस्कृति के दृष्टि से रुकाव आ गया था. रोमन और ग्रीक संस्कृति से पनपने, निखरने वाली कला और संस्कृतियाँ कैथोलिक चर्च के रूढ़ीवाद तथा धर्माधिकरण (inquisition) के सामने हार कर अपने भीतर ही बंद हो गयी थी. इसलिए पँद्हवी शताब्दी में जब कला और संस्कृति ने दोबारा खिलने का मौका पाया, उस युग को पुनर्जन्म का नाम दिया गया.

पुर्नजन्म युग से पहले चित्रकला का पहला नियम था सुंदरता दिखाना. पुनर्जन्म युग में यथार्थवादी शैली का प्रारम्भ हुआ जिसमें मानव शरीर को उसकी असुंदरता के साथ दिखाने का साहस किया गया. अब चित्रों के पात्र केवल धनवान, ऊँचे घरों के सुंदर जवान युवक युवतियाँ ही नहीं थे,अन्य लोग जैसे कि बूढ़े, बूढ़ियाँ, बिना दाँत वाले, टेढ़े मेढ़े, गरीब किसान परिवार, इत्यादि सब कुछ जैसे थे वैसा ही दिखाये जा सकते थे. चित्र के पटल पर हर चीज़ स्पष्ट रेखोंओं से बनाई जाती थी, जिससे लगे कि मानो तस्वीर खींची हो जैसे नीचे वाले लियोनार्दो दा विंची (Leonardo da Vinci) के एक रेखा चित्र में देखा जा सकता है.





यही यथार्थवाद अठाहरवीं शताब्दी में दोबारा उभर कर आया था और इसे नवयथार्थवाद का नाम दिया गया था.

मोने ने यथार्थवाद को छोड़ कर प्रभाववाद की नयी तकनीक अपनाई. इस नयी शैली में कलाकार तूलिका से चित्रपटल पर हल्ले हल्के निशान लगाता है, जैसे कि रँगों में हवा मिली हो. तूलिका द्वारा लगी एक एक रेखा, अलग अलग स्पष्ट दिखे. चित्रों का ध्येय कोई यथार्थ दिखाना नहीं बल्कि वातावरण और मनोस्थिति दिखाना है जिसे देख कर आप को एक अनुभूति हो. नीचे की तस्वीर मोने की है जिसमें उनके जन्मस्थान हाव्र की बंदरगाह को दिखाया गया है.




प्रारम्भ में प्रभाववादी चित्रकारों की बहुत हँसी हुई और मोने की चित्रप्रदर्शनियों को सफलता नहीं मिली पर धीरे धीरे इस शैली को स्वीकारा गया और बहुत से चित्रकारों ने अपनाया, जिनमें से विनसेंट वानगाग (Vincent Van Gogh) का नाम प्रमुख है. नीचे वाला चित्र वानगाग का है जिसका शीर्षक है तारों छायी रात (Starry night). इस चित्र के बारे में अधिक समझना चाहें तो ओम थानवी का लेख अवश्य पढ़िये.




आज सुबह धुँध को देख कर मुझे मोने और प्रभाववाद का ध्यान आ गया. धुँध से यथार्थ जीवन की रेखाएँ घुल मिल कर धुँधला जाती हैं और उदासी की मनोस्थिति को व्यक्त करती हैं. इन तस्वीरों को देखिये और बताईये कि प्रभाववाद आप को कैसा लगता है?





गुरुवार, जनवरी 18, 2007

मैसूर का बाघ

बचपन में विद्यालय में मैसूर के बाघ, टीपू सुलतान की कहानी पढ़ी थी कि कैसे उसने अँग्रेजी शासन से लड़ाई की. कुछ वर्ष पहले, मैसूर के पास श्रीरंगापट्नम में उनका महल और मकबरा भी देखा. पिछले महीने, दिसम्बर में जब बंगलूरु में था तो उनका राज भवन भी देखने गया और फ़िर वर्ष के अंत में, अँग्रेज़ी पत्रिका "द वीक" में टीपू के बारे में अँग्रेज़ी मूल के लेखक विलियम डारलिमपल का एक लेख भी पढ़ा, कि कैसे अँग्रेज़ी शासकों ने उनके विरुद्ध आरोप लगाये और इतिहास में उनकी गलत छवि बनाई.

विकिपीडिया टीपू की जनछवि से जुड़ी विभिन्न मान्यताओं के बारे में बताता है, कि अधिकतर हिंदू बहुल्य वाले भाग में टीपू को मुस्लिम शासक होने की वजह से अपनी वैधता स्थापित करने की कठिनाई थी. एक तरफ़ वह स्वयं को धर्मपरायण मुसलमान दिखाना चाहते थे पर साथ ही संतुलित विचारों वाले ताकि अपनी प्रजा से सही नाता बना सकते. उनकी धार्मिक धरोहर के विषय में उपमहाद्वीप में बहुत विवादग्रस्त है. पाकिस्तान में कुछ गुटों का दावा है कि वह घाज़ी यानि धर्म के लिए लड़ने वाले बड़े यौद्धा थे और भारत में कुछ गुट कहते हैं कि उन्होंने बहुत से हिंदुओं को मारा. कई इतिहासकारों का कहना है कि टीपू ने हिंदुओं तथा ईसाईयों के विरुद्ध बहुत से काम किये थे और पूरे भारत में एक मुस्लिम राज्य की स्थापना करने का सपना देखते थे.

विलियम डारलिमपल का लेख टीपू पर अँग्रेज़ी हमले की तुलना, अमरीका के ईराक पर हमले से करते हैं. एतिहासिक दस्तावेज़ों के अध्ययन से वह यह निष्कर्ष निकालते हैं कि सन 1790 के आसपास अँग्रेज़ी शासन रूढ़िवादियों के हाथ में था जो अपने देश को दुनिया की सबसे बड़ी ताकत देखना चाहते थे, फ्राँस के बहुत विरुद्ध थे और अपनी ताकत को बढ़ाने के लिए उन सभी शासकों को हटाना चाहते थे जिनसे उन्हें कोई खतरा हो सकता था.

अँग्रेज़ी शासन को जिन लोगों से खतरा हो सकता था उनमें टीपू का नाम काफ़ी ऊपर था. उसने अपने शासित हिस्से में सड़के आदि बनवायीं थी, शासन के स्पष्ट नियम बनवाये थे, सेना के लिए फ्राँस से नयी बंदूकें और हथियार बनवाये थे. अँग्रेज़ो़ को लगा कि अगर टीपू इस तरह अपने शासन को सुदृढ़ करता रहा तो बाद में उसे हराना और भी कठिन हो जायेगा. इसलिए टीपू पर हमले का बहाना ढूँढ़ने के लिए उन्होंने टीपू के विरुद्ध मीडिया अभियान शुरु किया कुछ वैसे ही जैसे अमरीका ने सद्दाम हुसैन के विरुद्ध किया था. वह कहने लगे कि टीपू धार्मिक कट्टरवादी था, हिंदुओं और ईसाईयों को मार रहा था, उसे हटाना बहुत जरुरी था और इस तरह टीपू पर युद्ध किया.

डारलिमपल का कहना है कि दस्तावेज़ों से टीपू की जो छवि निकलती है वह उस तरह की नहीं हैं जैसी अंग्रेज़ी इतिहासकारों द्वारा बनाई गयी बल्कि और जटिल है. शासक के रुप में टीपू नये विचारों वाला, जनप्रगति और शासन दृढ़ बनाने, नयी तकनीकों को अपनाने वाला था. उसने पश्चिमों देशों के सामाजिक संगठन को देख कर उससे सीख ली और वैसी ही नीतियाँ अपने ही शासन में चलानी चाहीं. उनके निजि पुस्तकालय में 2000 से अधिक किताबें थीं, न केवल धर्म, सूफ़ी आदि के बारे में बल्कि इतिहास, गणित, नक्षत्रविज्ञान जैसे विषयों पर भी. वह कला को प्रोत्साहन देते थे. एक तरफ़ युद्ध में जीते प्राँतों में उन्होंने हिंदू मंदिर नष्ट करवाये और लोगों को जबरदस्ती धर्म बदलने के लिए मजबूर करवाया, दूसरी ओर अपने शासित प्राँत भाग में हिंदू मंदिरों को सरकारी सुरक्षा मिलती थी और सरकारी दान भी. उन्होंने कई मंदिरों को क्वार्टज़ाईट के शिवलिंगों का दान किया. श्रृंगेरी मंदिर जो एक मराठा युद्ध में नष्ट हुआ था, उसे दोबारा बनवाने के लिए दान दिया.

नीचे की तस्वीरों में टीपू का बंगलूरु का महल.





बुधवार, जनवरी 17, 2007

निडर तस्लीमा

अँग्रेज़ी की पत्रिका आऊटलुक में बँगलादेशी मूल की लेखिका सुश्री तस्लीमा नसरीन का नया लेख निकला है जिसमें तस्लीमा कुरान में दिये गये स्त्री के परदे के नियमों के बारे बतातीं हैं और कहतीं हैं इस्लाम और कुरान दोनों औरतों को परदे से सारा शरीर ढकने का आदेश देते हैं. उनका कहना है कि परदे का विरोध यह कह कर करना कि यह कुरान में नहीं लिखा है, नहीं किया जा सकता. बल्कि परदे का विरोध इस लिए किया जाना चाहिये क्योंकि यह औरत के सम्मान के विरुद्ध हैं. वह कहती हैं कि परदा औरत के शोषण का माध्यम है जिससे औरत को पुरुषों की सम्पत्ती बनाये रखा जा सके, जिससे औरतों को काबू में रखा जा सके.

इस तरह की कोई भी बात कहने के लिए आज बहुत साहस की आवश्यकता है. आप तस्लीमा जी की बातों से सहमत हों या न हों, यह मानने से इन्कार करना कठिन होगा कि इस तरह वही लिख सकता है जिसने अपने मार दिये जाने के बारे में सोच लिया हो और सिर पर कफ़न बाँध लिया हो.

शुक्रवार, जनवरी 12, 2007

इज़्ज़त

एक अँग्रेजी के चिट्ठे में 18 अक्टूबर 1946 के एक अँग्रेजी अखबार में छपे समाचार के बारे में पढ़ा जिसमें गाँधी जी ने पूर्वी बँगाल प्रोविंस में हो रहे हिंदु मुस्लिम दँगों में, नोआखली की एक हरिजन कोलोनी में लोगों को सलाह दी थी कि इज़्ज़त पर खतरा हो तो ज़हर खा कर या चाकू से अपनी जान दी जा सकती है. उनकी यह सलाह विषेशकर औरतों के लिए थी.

इसी बहस को पढ़ कर सोच रहा था कि कैसे बचपन में कही सुनी बातें हमारे सोच विचार को सारा जीवन अपने चगुँल में लपेटे रहती हैं और जिनसे बाहर निकलना आसान नहीं होता. स्त्री का धर्म लज्जा है, उसका काम तो सहना है, वह तो सीता माता है, इज़्जत बचा कर रखना बहुत जरुरी है, स्त्री बदन को ढक कर रखना चाहिये जैसी बातें हमें बचपन से ही सुनने को मिलती थीं. आदर्श स्त्री तो अग्नी परीक्षा देने वाली, धरती में समाने वाली सीता ही थी, पाँच पतियों के साथ रहने वाली द्रौपदी नहीं, यही सिखाया गया था. माँ अच्छी है क्यों कि सबको खाना खिला कर खुद बचा खुचा खाती है, यही सोचते थे.

1965 में एक फ़िल्म आयी थी "नयी उम्र की नयी फसल" जिसमें नये गीतकार नीरज ने बहुत सुंदर गीत लिखे थे और जिसका एक गीत मुझे बहुत अच्छा लगता था जिसकी अंत की पँक्तिया थीं:


राणा अधीर हो कर बोला
ला ले आ ले आ सैनाणी
कपड़ा जब मगर हटाया तो
लहू लुहान रानी का सर
मुस्काता रखा थाली पर
हा रानी, हा मेरी रानी
तू सचमुच ही थी छत्राणी
अदभुत है तेरी कुर्बानी
फ़िर एड़ लगायी घोड़े को
धरती बोली जय हो, जय हो
अँबर बोला जय हो, जय हो
हाड़ी रानी तेरी जय हो
जिस हाड़ी की रानी की कुर्बानी का सोच कर बचपन में रौँगटे खड़े हो जाते थे, उसका धर्म था कि पति का ध्यान न बटे, उसके लिए अपना सिर काट कर देना. रानी पद्मनी का अलाऊद्दीन खिलजी के हाथों न पड़ने के लिए, अन्य स्त्रियों के साथ जौहर करने की गाथा में भी यही बात थी. आज भी पर्यटकों को वहाँ के गाईड गर्व से वह जगह दिखाते हें कि यहाँ जली थी हमारी रानी पद्मनी. रूप कँवर पति की आग में जलती है तो उसके लिए सती मंदिर बन जाता है. सिर पर स्कार्फ लपेटे, ऊपर से नीचे तक ढकी मुसलमान युवती पैरिस में कहती है कि शरीर को ढकना उनका अधिकार है और वह अपनी मर्जी से अपना शरीर ढकती हैं, या विद्वान जब फैसला सुनाते हें कि युवती को बलात्कार करने वाले ससुर के साथ उसकी पत्नी बन कर रहना चाहिये, तो भी शायद वही बात हो रही है?

मुझे लगता है कि हर बार बात केवल एक ही है वही स्त्री शरीर की लज्जा की, इज्जत की. "खामोश पानी" में जब किरण खेर का पात्र इज्जत बचाने के लिए कूँए में कूदने से मना कर देता है और पूछता है कि स्त्री को ही क्यों अपनी इज्जत बचानी होती है, तो सोचने को मजबूर करती है. स्त्री की इज्जत की बात, उसके गर्भ में पलने वाले बच्चे से जुड़ी होती है और यह कैसे कोई समाज मान ले कि उनकी औरतें विधर्मी, बलात्कारियों के बच्चे पालें?

आज मानव अधिकारों, स्त्री पुरुष समानता बनाने की कोशिशें, जात पात के बँधनों से बाहर निकलने की कोशिशें, यह सब इस लिए भी कठिन हैं क्योंकि बचपन से घुट्टी में मिले सँदेश हमारे भीतर तक छुपे रहते हैं और भीतर से हमें क्या सही है, क्या गलत है यह कहते रहते हैं. केवल तर्क या पढ़ लिख कर अर्जित ज्ञान से यह मन में छुपे सँदेश नहीं मरते या बदलते.

शायद थोड़े बहुत लोगों को छोड़ कर बाकी का समाज आज भी यही संदेश अपने बच्चों को सिखा रहा है. परिवर्तन आ तो रहा है, पर बहुत धीरे धीरे. अगर पैदा होने से पहले गर्भपात से मार दी जाने वाली लड़कियों की बात देखें तो बजाय सुधरने के, स्थिति और बिगड़ रही है. तो क्या रास्ता होगा, इससे बाहर निकलने का?

रविवार, जनवरी 07, 2007

तृतीय प्रकृति के द्वँद

हाल ही में 800 मीटर की दौड़ में पदक जीत कर "स्त्री नहीं पुरुष" होने के आरोप में उसे खोने वाली सुश्री शाँती सौंदराजन के हादसे ने अंतरलैगिक जीवन से जुड़ी हुई बहुत सी मानव अधिकार समस्याओं की ओर ध्यान आकर्षित किया है. जिस तरह से यह बात समाचार पत्रों तथा टेलीविजन पर प्रस्तुत की गयी, उनमें मानव अधिकारों की उपेक्षा भी थी और सहज सँवेदना की कमी भी. साथ ही यह भी स्पष्ट था कि अँतरलैंगिक (transgender) विषय पर आम जानकारी कितनी कम है.

जबकि समलैंगिक (homosexual) और द्वीलैंगिक (bisexual) विषयों पर पिछले कुछ वर्षों में कुछ बहस और विमर्श हुआ है, अँतरलैंगिक विषय पर बात अधिक आगे नहीं बढ़ी है. अँतरलैंगिक शब्द का प्रयोग विभिन्न परिस्थितियों में किया जाता है जैसे किः
  • जब व्यक्ति का शारीरिक लिंग उसके मानसिक लिंग से भिन्न हो, जैसे कि स्त्री शरीर हो कर भीतर से पुरुष महसूस करना या पुरुष शरीर में अंदर से स्वयं को स्त्री महसूस करना.
  • जब यौन अंग ठीक से न बने हों जिससे यह कहना कठिन हो कि व्यक्ति पुरुष है या स्त्री

इनसे मिलती जुलती एक अन्य परिस्थिति है जिसमें व्यक्ति अपने से विभिन्न लिंग के वस्त्र धारण करना चाहते हैं लेकिन वह अपने लिंग को नहीं बदलना चाहते (transvestites or cross-dressers).

अपने अंतर में अपने आप को स्त्री या पुरुष महसूस करना (sexual identity) और अपने यौन जीवन के लिए स्त्री या पुरुष का साथ चाहना (sexual orientation), यह दो अलग अलग बातें हैं जिनके बारे में अक्सर लोग ठीक से नहीं समझते हैं और इन सब लोगों को समलैंगिक समझते हैं, जोकि सही नहीं है. अगर आप के शारीरिक और मानसिक लिंग भिन्न हों तो आज विकसित देशों में, शल्य चिकित्सा के द्वारा लिंग बदलना सँभव है. इसकी वजह से लिँग और यौन सम्बंधों के बहुत से विभिन्न गुट बन सकते हैं, जिनकी अपनी विभिन्न कठिनाईयाँ होती हैं.

बोलोनिया में मेरी जान पहचान के एक व्यक्ति शादीशुदा हैं, अपनी पत्नी से बहुत प्यार करते हैं पर साथ ही मन ही मन में वह अपने आप को स्त्री देखते हैं. कुछ समय से वह होरमोन से इलाज करवा रहे हैं ताकि उनके शरीर में पुरुष भाव कम हों और स्त्री भाव तीव्र हों. वह अपने मित्रों के बीच स्त्री पौशाक पहनते हैं और मन में साहस जुटा रहे हैं कि घर से बाहर भी स्त्री रुप में रह सकें. उनकी आशा है कि एक दिन भविष्य में वह शल्य चिकित्सा से शारीरिक रुप में भी स्त्री बन जायेंगे. जहाँ काम करते हें वहाँ अभी यह बात उन्होंने नहीं बताई है पर कभी न कभी, उन्हें वहाँ भी अपना भेद खोलने की हिम्मत करनी पड़ेगी. दुनिया के लिए वह साधारण विषमलैंगिक व्यक्ति हैं पर अपने मन में समलैंगिक, लैसबियन. यह सब कितनी कठिनाईयों से जुड़ा है उसका अंदाज लगाना कठिन है और वह मनोयोग चिकित्सक से इलाज भी करवा रहे हैं ताकि अपने स्त्री होने या पुरुष होने के मानसिक द्वंद को समझ सकें. उनकी बेटी उनसे बात नहीं करती पर उनकी खुशकिस्मती हैं कि इस कठिनाई में उनकी पत्नी और उनकी वृद्ध माँ, उनके साथ हैं.

मानव अधिकारों की दृष्टि से देखें तो हर व्यक्ति को अपने बारे में यह निर्धारित करना का हक है कि वह क्या चाहता है, स्त्री होना या पुरुष होना. इतालवी कानून इस बात की अनुमति देता है कि लिंग बदलाव के बाद, वह कानूनी तौर से स्त्री बन सकते हें और अपना नाम आदि बदल सकते हैं.

जब यौन अँग ठीक से न बने हों तब भी, यह व्यक्तिगत निर्णय पर निर्भर करता है कि उस व्यक्ति को पुरुष माना जाये या स्त्री. पर क्योंकि यह निर्णय अक्सर बचपन में बच्चे के माँ बाप द्वारा लिया जाता है, जैसा कि शाँती सौदराजन के साथ हुआ, तब बड़े हो कर उन व्यक्तियों को यह छूट मिलनी चाहिये कि वह स्वेछा से अपना सामाजिक लिंग निर्धारित कर सकें. इससे सभी कठिनाईयाँ तो नहीं मिटती पर कुछ आसानी होती है.

भारत में इन सब व्यकितयों को जिनका लिंग स्पष्ट न हो "हिँजड़ा" श्रेणी में रखा जाता है पर असलियत में विभिन्न शौध कार्यों नें दिखाया है कि "हिँजड़ा" कहे जाने वाले बहुत से लोग समलैंगिक पुरुष होते हैं. वात्सयायन के "काम शास्त्र" में "तृतीय प्रकृति" की बात की गयी है जिसका अर्थ अधिकतर समलैंगिक पुरुषों से जुड़ा है पर वैचारिक दृष्टि से यह शब्द अंतरलैंगिक की तरह हैं जिसकी अधिक खुली परीभाषा हो सकती है जिसमें विभिन्न परिस्थितियों वाले लोग अपनी पहचान खोज सकते हैं.

हिंदू धार्मिक ग्रँथों में इन सब विषयों पर विभिन्न देवी देवताओं के माध्यम से सामाजिक स्वीकृति दी गयी थी, जिसे आज बहुत से लोग भूल चुके हैं. कैल्ब, नपुसँक और सँधा जैसे शब्द इन विषयों को भिन्न तरीकों से छूते हैं. शिव के रूद्र रुप और अर्धनारीश्वर रुपों में अंतरलैंगिक जीवन की स्वीकृति है तो पुराणों और महाभारत में अर्जुन अंतरलैंगिकता को व्यक्त करते हैं. महाभारत के योद्धा अर्जुन, पद्म पुराण में झील में स्नान के बाद अर्जुनी बन जाते हैं और कृष्ण से संसर्ग करते हैं. महाभारत में इंद्र के श्राप से विराट नगर में अर्जुन का एक वर्ष के लिए स्त्री वस्त्र धारण करने वाला पुरुष बुहनाला बन कर रहना इसकी एक और परिस्थिति पर्स्तुत करता है. दक्षिण भारत में भगवान अयप्पा, जिन्हें मणीकँठ भी कहते हैं और जिनकी पूजा सबरीमाला में होती है, की कहानी भी अंतरलैंगकिता दर्शाती है. ब्रह्माँड पुराण के अनुसार विष्णु के मोहिनी के रुप में, शिव के वीर्य से अयप्पा का जन्म होता है और यौद्धा अयप्पा प्रतिज्ञा करते हें कि जब तक पुरुष भक्त उनके मंदिर में पूजा करने आते रहेंगे वह शादी नहीं करेंगे.

आज विकसित पश्चिमी देशों को अंतरलैंगिक व्यक्तियों के मानव अधकारों के बारे में जागरूक समझा जाता है और विकासशील देशों को इस दिशा में पिछड़ा हुआ कहते हैं. पर मेरे विचार में भारतीय धर्म ग्रँथों में इस विषय पर गहरी समझ भी थी और सामाजिक स्वीकृति भी जिसे विकटोरियन मानसिकता ने भुला दिया है और जिसकी खोज की आवश्यकता है.

बुधवार, जनवरी 03, 2007

निष्पक्ष पत्रकारिता

एनडीटीवी की जानी मानी पत्रकार सुश्री बरखा दत्त ने जब निष्पक्ष पत्रकारिता को मीडिया द्वारा बनाया मिथिक कहा तो बहस शुरु हो गयी. अपनी विवेचना में उन्होंने कहा "निष्पक्षता का सिद्धांत समाचारों में भावनात्मक तत्वों को बढ़ाने के विरुद्ध बात करता है. एक फैशन सा हो गया है कि टेलीविजन पत्रकारों की अतीनाटकीयता की आलोचना की जाये. पर क्या भारतवासी तमिलनाडू के ग़रीब मछुआरों की दुर्दशा को समझ पाते अगर उनकी कहानियों को व्यक्तिगत रुप दे कर न प्रस्तुत किया जाता, जिससे उन्हें जीते जागते लोग महसूस किया गया बजाय कि केवल आँकड़ों की तरह देखा जाता? और यह बताईये कि राहत की राह देखते गावों में जहाँ छोटे बच्चों की सामूहिक कब्रें थीं, उसके बारे में किस तरह से निष्पक्ष रहा जा सकता है?"

मैं सुश्री दत्त की बात से सहमत हुँ. ईराक युद्ध में अमरीकी तथा अँग्रेज सिपाहियों के साथ उनकी फौज का हिस्सा बन कर जाने वाले पत्रकारों से क्या हमें निष्पक्षता की कोई उम्मीद हो सकती थी? सच तो यह है कि हर बात के बहुत से पहलू होते हैं और पत्रकार किसी न किसी पहलू को ही अधिक ज़ोर देते हैं जो उनके व्यक्तिगत सोचने के तरीके पर ही निर्भर होता है. बहुत बार देशद्रोही होने का डर पत्रकारों की कलम को अपने आप ही समाचार दबाने या छुपाने के लिए प्रभाव डालता है.

तो समाचार कौन सा सच बोलते हैं और किस पर विश्वास किया जाना चाहिये?

एमरजैंसी के दौरान या कुछ बड़ी घटनाओं पर भारतीय समाचार पत्रों और संचार माध्यमों के आत्मसैंसरशिप को सरकारी मान्यता मिली थी, जब इंदिरा गाँधी की मृत्यु पर स्वयं राजीव गाँधी ने बताया था कि सही बात जानने के लिए उन्होंने बीबीसी रेडियों को सुनना चाहा था क्योंकि आल इंडिया रेडियों की बात पर विश्वास नहीं किया जा सकता था! क्या अनेक टेलीविजन समाचार चैनलों के आने से स्थिति कुछ बदली है?

अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर समाचारों की विश्वसनीयता के बारे में बीबीसी का नाम प्रसिद्ध था पर पिछले कुछ वर्षों में इस विश्वसनीयता में कमी आई है. अमरीकी सीएनएन ने तो ईराक युद्ध के दौरान, कम से कम मेरे लिए तो, अपनी सारी विश्वसनीयता खो दी है. हालाँकि यूरोन्यूज़ भी अंतर्राष्ट्रीय समाचार चैनल है पर उसका प्रभाव बहुत कम रहा है और प्रश्न उठता है कि कैसे इन समाचारों को जाना जाये?

पर आज नये नये अंतर्राष्ट्रीय टेलीविजन चैनल आ रहे हैं जिनसे बीबीसी या सीएनएन का अधिपत्य खतरे में है. मध्यपूर्व में कतार से प्रसारित होने वाला अलज़रीरा चैनल अब अँग्रेजी में आने लगा है जो अरबी दृष्टिकोण को प्रस्तुत करता है. रूस ने रशिया टुडे के नाम से अँग्रेजी चैनल शुरु किया है और फ्राँस ने फ्राँस 24 के नाम से नया समाचार चैनल फ्राँसिसी और अँग्रेजी में प्रारम्भ किया है. यह सोचना कि इनमें से कोई एक चैनल "सच" बतायेगी गलत होगा पर विभिन्न सूत्रों से एक ही बात के विभिन्न पहलू सुनने को मिल सकते हैं. शायद हमें वही सच लगेगा जिसकी बात हमारे अपने दृष्टिकोण से मिलती होगी!

चिट्ठे और अंतर्जाल एक अन्य माध्यम है जो हमारे हाथों में है, जिससे हम अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत कर सकते हैं और अंतर्राष्ट्रीय समाचारों की बातों को अपनी आँखों देखी से नकार सकते हैं. डिजिटल फ़ोटोग्राफ़ी की बढ़ती आसानी हमारी बात को विश्वासनीयता दे सकती है, हालाँकि उसमे सिर का पैर दिखाना संभव है पर अंत में सच सामने आ ही जाता है.

यूट्यूब जैसी सेवाएँ हममें से हर एक को टेलीविजन पत्रकार बनने का मौका देती हैं, कम से कम उनको जिनके पास तकनीकी जानकारी और अंतर्जाल तक पहुँचने के माध्यम हैं. इन सबसे सारी समस्याएँ समाप्त नहीं होगीं पर कुछ नये विकल्प तो बनेंगे ही.

टिप्पणीः यह चिट्ठा पहले कुछ गलतियों के साथ ही छाप दिया था, फ़िर इसे ओराँगो नाम के प्रोग्राम से हिंदी वर्तनी की जाँच कर के ठीक किया है. क्या आप में से किसी को ओराँगो का अनुभव है? क्या सोचते हैं इसके बारे में?

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