आजकल मैं स्टीवन लेविट (Steven D. Levitt) और स्टीफन डुबनर (Stephen J. Dubner) की किताब फ्रीकोनोमिक्स (Freakonomics) पढ़ रहा हूँ. स्टीवन लेविट अर्थशास्त्री हैं और डुबनर पत्रकार.
लेविट को उन बातों पर सवाल पूछना अच्छा लगता है जो हमारे लिए साधारण होती हैं और जिनके लिए हमारे मन में कोई संशय या सवाल नहीं उठते. अपने उत्तरों से लेविट कुछ अर्थशास्त्र के सिद्धांत और कुछ आम समझ का प्रयोग करके यह दिखाते हैं कि साधारण सोच में सही लगने वाली बहुत सी बातें गलत भी हो सकती हैं.
1990-94 के आसपास, अमरीका में अपराध दर बढ़ती जा रही थी और सभी चितिंत थे कि यह कम नहीं होगी, बढ़ती ही जायेगी. पर ऐसा हुआ नहीं और अपराध दर कम होने लगी. विशेषज्ञों का कहना था कि यह अपराध को रोकने की नयी नीतियों की वजह से हुआ. लेविट कहते हें कि नहीं, यह इसलिए हुआ क्योंकि 1973 में अमरीकी कानून ने गर्भपात की अनुमति दी जिससे गरीब घरों की छोती उम्र वाली माँओं को गर्भपात करने में आसानी हुई और इन घरों से अपराध की दुनिया में आने वाले नौजवानों की संख्या में कमी हुई.
एक अन्य उदाहरण में लेविट दिखाते हें कि विद्यालयों की पढ़ायी के स्तर में सुधार लाने के लिए बनाये गये कानून से शिक्षकों को गलत काम करने की प्रेरणा मिली जिससे उन्होनें इन्तहानों में बच्चों को झूठे नम्बर देना शुरु कर दिया. लेविट यह भी दिखाते हें कि कैसे घर बेचने का काम करने वाली व्यवसायिक कम्पनियाँ आप के घर को कम कीमत में बेचती हें जबकि आप को बाज़ार में उसके कुछ अधिक दाम मिल सकते थे.
कितना सच है लेविट की बातों में यह तो नहीं कह सकता, पर यह किताब बहुत दिलचस्प है. लेविट और डुबनर ने अपना एक चिट्ठा भी बनाया है जिसमें वह दोनो अपने पाठकों से बातें भी करते हैं और नयी जानकारी भी देते हैं.
*****
कल के चिट्ठे की सभी टिप्पणियों के लिए दिल से धन्यवाद.
अविनाश, तुम ठीक कहते हो, तुमसे मुलाकात चिट्ठों की दुनिया से बाहर हुई थी, पर कल सुबह काम पर देर हो रही थी और जल्दी में मेंने कुछ भी लिख दिया. :-)
नीलिमा, तुम्हारी पूरी बात समझ में नहीं आई, और शायद न समझने में ही भलाई है, हाँ हिंदी के बारे में विस्तार से बात करने के लिए मुझे बहुत खुशी होगी.
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2 टिप्पणियां:
सुनील,
किताब वाक़ई पढ़ने लायक है. मज़ेदार अंदाज़ में लिखी होने की वजह से रुचिकर तो है ही, पर ख़ास बात यह कि "बक्से के बाहर" सोचने को भी प्रेरित करती है. शायद आपको पता ही होगा कि इस किताब को कई कॉलेजों और स्कूलों में कोर्सबुक के तौर पर पढ़ाया जा रहा है. सीखने को मज़ेदार बनाने वाली, इसी तरह की एक किताब 2-3 साल पहले आई थी - बिल ब्रायसन की A Short History of Nearly Everything. न पढ़ी हो तो पढ़िएगा.
वाकई एसे विचारो से दिमाग कि खिड्कीया खुल्ती हे .मे खुद हिन्दी अखबारो के रटे रटाये सम्पादकीय लेखो से परेशान हु .हमेशा सम्स्याओ पर बहस करते हे समाधानो पर नही . नतीजा यह होता हे कि अक्सर कई चिजो का गलत विश्लेशण कर कारणो कि खोज कर लि जाति हे . खेर ब्लोग विधा नये विचारो ओर सम्माधानो पर बहस को प्रेरित कर रहि हे .
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