बुधवार, फ़रवरी 07, 2007

36 का आँकणा

एक तरफ़ से आधुनिक दुनिया इतनी जानकारी हम सबके सामने रख रही है जैसा इतिहास में पहले आम लोगों के लिए कभी संभव नहीं था, दूसरी ओर, अक्सर हम लोग उस जानकारी की भीड़ में खो जाते हैं और उसका अर्थ नहीं समझ पाते.

जब कोई कुछ भी जानकारी आप को देता है तो पहला सवाल मन में उठना चाहिये कि कौन है और किस लिए यह जानकारी हमें दे रहा है? शायद इस तरह से सोचना बेमतलब का शक करना लग सकता है पर अक्सर लोग अपना मतलब साधने के लिए बात को अपनी तरह से प्रस्तुत करते हैं. अगर राजनीतिक नेता हैं तो अपनी सरकार द्वारा कुछ भी किया हो उसे बढ़ा चढ़ा कर बतायेंगे और विपक्ष में हों तो उसी को घटा कर कहेंगे. अगर मीडिया वाले बतायें तो समझ में नहीं आता कि यह सचमुच का समाचार बता रहे हैं या टीआरपी के चक्कर में बात को टेढ़ा मेढ़ा कर के सुना दिखा रहे हैं. अगर व्यवसायिक कम्पनी वाला कुछ कह रहा हो तो विश्वसनीयता और भी संद्दिग्ध हो जाती है.

आँकणे प्रस्तुत करना भी एक कला है. एक ही बात को आप विभिन्न तरीकों से इस तरह दिखा सकते हैं कि देखने वाले पर उसका मन चाहा असर पड़े.

उदाहरण के लिए मान लीजिये कि आप किसी नयी परियोजना के गरीब लोगों पर पड़े प्रभाव के बारे में बता रहे हैं कि 2005 में 10 प्रतिशत लोग लाभ पा रहे थे, और 2006 में परियोजना की वजह से लाभ पाने वाले गरीब लोगों की संख्या 12 प्रतिशत हो गयी.

अगर आप इस परियोजना के विरुद्ध हैं तो आप इसे नीचे बने पहले ग्राफ़ से दिखा सकते हैं, जिसमें लगता है कि लाभ पाने वालों पर कुछ विषेश असर नहीं पड़ा.


अगर आप इस परियोजना के बनाने वाले या लागू करने वाले हें तो आप इसे नीचे दिये दूसरे ग्राफ़ जैसा बना कर प्रस्तुत कर सकते हैं, जिसमें लगता है कि परियोजना का असर अच्छा हुआ.


यानि दोनो ग्राफ़ों में बात तो एक ही है पर उसे पेश करने का तरीका भिन्न है और अगर ध्यान से न देखें तो उनका असर भी भिन्न पड़ता है.

अधिकतर लोग जैसे ही विभिन्न खानों (tables) में भरे अंक देखते हैं, उनकी समझ में कुछ नहीं आता. आँकणे पेश करने वाला जिस बात को बढ़ा कर दिखाना चाहता है उसे वैसे ही दिखाता है, और वही लोग प्रश्न उठा सकते हैं जिन्हें सांख्यिकीय विज्ञान (Statistics) की जानकारी हो. इसीलिए कहते हैं कि झूठ कई तरह के होते हैं पर साँख्यिकीय झूठ सबसे बड़ा होता है.

अगर आप को अंतर्राष्ट्रीय या राष्ट्रीय स्तर पर देशों के बीच और एक ही देश में विभिन्न सामाजिक गुटों के बीच अमीरी-गरीबी, स्वास्थ्य-बीमारी, आदि विषयों पर आकँणो को समझना है तो स्वीडन के एक वैज्ञानिक हँस रोसलिंग के बनाये अंतर्जाल पृष्ठ गेपमाईंडर को अवश्य देखिये. कठिन और जटिल आँकणों को बहुत सरल और मनोरंजक ढंग से समझाया है कि बच्चे को भी समझ आ जाये. रोसलिंग जी कोपीलेफ्ट में विश्वास करते हें और उनकी सोफ्टवेयर निशुल्क ले कर अपने काम के लिए प्रयोग की जा सकती है.

5 टिप्‍पणियां:

  1. आँकड़ों की बाजीगरी को पकड़ने और भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण से किए जाने वाले उनके प्रस्तुतिकरण के सूक्ष्म अंतर को समझने का उत्तम उपाय बताया आपने।

    एक प्रसिद्ध परिभाषा के अनुसार, समाचार वह है जिसे कोई छिपाना चाह रहा है। जिस जानकारी को कोई बताना चाह रहा है, वह तो प्रचार या विज्ञापन है। हालाँकि इस परिभाषा से भलीभाँति अवगत पत्रकार भी समाचारों के चयन के समय इस कसौटी का इस्तेमाल नहीं कर पाते, लेकिन जागरूक पाठक या दर्शक इस कसौटी के सहारे समाचार और प्रचार के भेद को समझ सकते हैं।

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  2. 'आँकड़ों'और उन्हें पेश करने पर सुन्दर आलेख।एक बार एक बड़े सरकारी सांख्यिकीविद काशी विश्वविद्यालय की एक संगोष्ठी में आए थे।उन्होंने बताया कि गरीबी उन्मूलन से सम्बन्धित योजनाओं का मध्यावधि मूल्यांकन कैसे होता है।उस योजना में तब तक हुए खर्च के आधार पर यह तय कर लिया जाता है कि कितने लोग 'गरीबी की रेखा' के ऊपर आ गए होंगे।खर्च हुआ है तो आ ही गए होंगे।जिन मानदण्डों के आधार पर गरीबी की रेखा निर्धारित की जाती है,उन पर भी ऐसे मूल्यांकनों को नहीं कसा जाता।
    अन्योदय योजना के तहत गरीबों को खाद्यान्न वितरण का उदाहरण लीजिए।किसी विकासखण्ड(block) में इस योजना के तहत 'लाल कार्ड' बाँटने के लिए-मुख्य सचिव द्वारा भेजे गई संख्या में बँधे रहना पहली शर्त होती है,उसके बाद गरीबी के मानदण्डों को देखा जाता है।

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  3. संजय बेंगाणी7 फ़रवरी 2007 को 10:29 am बजे

    इसे आँकड़ो की बजीगरी कह सकते है. जो धुर्तता की हद तक होती है. होती रहेगी.

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  4. गैपमाइंडर का लोगो प्रस्तुत करने का तरीका बडा जोरदार है। आपने भी सरलता से ही इस बात को समझाया है।

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"जो न कह सके" पर आने के लिए एवं आप की टिप्पणी के लिए धन्यवाद.

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