शुक्रवार, जनवरी 12, 2007

इज़्ज़त

एक अँग्रेजी के चिट्ठे में 18 अक्टूबर 1946 के एक अँग्रेजी अखबार में छपे समाचार के बारे में पढ़ा जिसमें गाँधी जी ने पूर्वी बँगाल प्रोविंस में हो रहे हिंदु मुस्लिम दँगों में, नोआखली की एक हरिजन कोलोनी में लोगों को सलाह दी थी कि इज़्ज़त पर खतरा हो तो ज़हर खा कर या चाकू से अपनी जान दी जा सकती है. उनकी यह सलाह विषेशकर औरतों के लिए थी.

इसी बहस को पढ़ कर सोच रहा था कि कैसे बचपन में कही सुनी बातें हमारे सोच विचार को सारा जीवन अपने चगुँल में लपेटे रहती हैं और जिनसे बाहर निकलना आसान नहीं होता. स्त्री का धर्म लज्जा है, उसका काम तो सहना है, वह तो सीता माता है, इज़्जत बचा कर रखना बहुत जरुरी है, स्त्री बदन को ढक कर रखना चाहिये जैसी बातें हमें बचपन से ही सुनने को मिलती थीं. आदर्श स्त्री तो अग्नी परीक्षा देने वाली, धरती में समाने वाली सीता ही थी, पाँच पतियों के साथ रहने वाली द्रौपदी नहीं, यही सिखाया गया था. माँ अच्छी है क्यों कि सबको खाना खिला कर खुद बचा खुचा खाती है, यही सोचते थे.

1965 में एक फ़िल्म आयी थी "नयी उम्र की नयी फसल" जिसमें नये गीतकार नीरज ने बहुत सुंदर गीत लिखे थे और जिसका एक गीत मुझे बहुत अच्छा लगता था जिसकी अंत की पँक्तिया थीं:


राणा अधीर हो कर बोला
ला ले आ ले आ सैनाणी
कपड़ा जब मगर हटाया तो
लहू लुहान रानी का सर
मुस्काता रखा थाली पर
हा रानी, हा मेरी रानी
तू सचमुच ही थी छत्राणी
अदभुत है तेरी कुर्बानी
फ़िर एड़ लगायी घोड़े को
धरती बोली जय हो, जय हो
अँबर बोला जय हो, जय हो
हाड़ी रानी तेरी जय हो
जिस हाड़ी की रानी की कुर्बानी का सोच कर बचपन में रौँगटे खड़े हो जाते थे, उसका धर्म था कि पति का ध्यान न बटे, उसके लिए अपना सिर काट कर देना. रानी पद्मनी का अलाऊद्दीन खिलजी के हाथों न पड़ने के लिए, अन्य स्त्रियों के साथ जौहर करने की गाथा में भी यही बात थी. आज भी पर्यटकों को वहाँ के गाईड गर्व से वह जगह दिखाते हें कि यहाँ जली थी हमारी रानी पद्मनी. रूप कँवर पति की आग में जलती है तो उसके लिए सती मंदिर बन जाता है. सिर पर स्कार्फ लपेटे, ऊपर से नीचे तक ढकी मुसलमान युवती पैरिस में कहती है कि शरीर को ढकना उनका अधिकार है और वह अपनी मर्जी से अपना शरीर ढकती हैं, या विद्वान जब फैसला सुनाते हें कि युवती को बलात्कार करने वाले ससुर के साथ उसकी पत्नी बन कर रहना चाहिये, तो भी शायद वही बात हो रही है?

मुझे लगता है कि हर बार बात केवल एक ही है वही स्त्री शरीर की लज्जा की, इज्जत की. "खामोश पानी" में जब किरण खेर का पात्र इज्जत बचाने के लिए कूँए में कूदने से मना कर देता है और पूछता है कि स्त्री को ही क्यों अपनी इज्जत बचानी होती है, तो सोचने को मजबूर करती है. स्त्री की इज्जत की बात, उसके गर्भ में पलने वाले बच्चे से जुड़ी होती है और यह कैसे कोई समाज मान ले कि उनकी औरतें विधर्मी, बलात्कारियों के बच्चे पालें?

आज मानव अधिकारों, स्त्री पुरुष समानता बनाने की कोशिशें, जात पात के बँधनों से बाहर निकलने की कोशिशें, यह सब इस लिए भी कठिन हैं क्योंकि बचपन से घुट्टी में मिले सँदेश हमारे भीतर तक छुपे रहते हैं और भीतर से हमें क्या सही है, क्या गलत है यह कहते रहते हैं. केवल तर्क या पढ़ लिख कर अर्जित ज्ञान से यह मन में छुपे सँदेश नहीं मरते या बदलते.

शायद थोड़े बहुत लोगों को छोड़ कर बाकी का समाज आज भी यही संदेश अपने बच्चों को सिखा रहा है. परिवर्तन आ तो रहा है, पर बहुत धीरे धीरे. अगर पैदा होने से पहले गर्भपात से मार दी जाने वाली लड़कियों की बात देखें तो बजाय सुधरने के, स्थिति और बिगड़ रही है. तो क्या रास्ता होगा, इससे बाहर निकलने का?

7 टिप्‍पणियां:

  1. लेख पढ कर टिप्पणी करने का मन हुआ लेकिन क्या समझ नही आ रहा है। शब्द नही है मेरे पास "इज्जत" पर कुछ कहने के लिये !

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  2. बड़ा बेहतरीन मुद्दा उठाया है आपने। कई बार मैने भी इस पर विचार किया मगर उन्हें दिशा नहीं दे पाया।

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  3. Thi shubh suhaag ki raat madhur,madhu chalak raha tha kan-kan se!!Kya gana yaad dilaya!Rongte khade ho jate thay sun ke!Amazing that you remember the lyrics!

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  4. बड़ा बहतरीन मुद्दा उठाया है आपने। दरअसल यह टीस तो कहीं ना कहीं बहुतों के दिलों-दिमाग में है मगर फिर भी सार्वजनिक रूप से कह नहीं पाते है।

    मगर इसके साथ एक और सवाल उठता है कि एक साथ लगभग एक अरब जनता की सोच को बदला जा सकता है?

    यदि इस प्रश्न का प्रतियूत्तर नकारात्मक है तो क्या यह अनंतकाल तक ऐसे ही चलेगा?

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  5. सुनील भाई, सच बात तो ये है कि हमारा समाज ही दोगले चरित्र का है। दोगला शब्द शायद सुनने मे बुरा लगे लेकिन सच यही है। हम कहते कुछ और करते कुछ है। बरसों से यही होता आया है। हमारा इतिहास कुछ कहता है, पंडित/पुरोहित कुछ और समझाते है। कई कई जगह तो गलत बात को सही साबित करने के लिए कहानियाँ गढी गयी है। इनके विरुद्द आवाज उठाने वाले को नास्तिक और ना जाने क्या क्या कहा जाता है। लेकिन मै तो यही मानता हूँ, अच्छा और बुरा, आपके मस्तिष्क के अन्दर होता है, एक ही चीज के दो पहलू, अलग नज़रिया।

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  6. वाह क्या बात कही है!कोई ऐसा भी सोचता है,और उस से भी बड़ी बात है कि इसे लिखने की आवश्यकता समझता है। मन खुश हुआ। हमारे ऐसी सोच का उत्तर आपके इस वाक्य,'यह कैसे कोई समाज मान ले कि उनकी औरतें विधर्मी, बलात्कारियों के बच्चे पालें?'
    में मिल जाता है। जब तक स्त्री किसी की सम्पत्ति रहेगी या ऐसी सोच रहेगी, कोई बदलाव नहीं आएगा। जो आएगा वह भी केवल सतही होगा। जैसे स्त्रिओं को नौकरी करने की 'अनुमति' देना और फिर काम से लौट कर कुरसी पर पैर पसारकर वैसे ही काम से लौटी 'अबला','कमजोर'पत्नी से गरमागरम चाय की और खाने और पानी तक की फ़रमाइश करना। खैर इसके उत्तर में मुझे अपनी लिखी कुछ पंक्तियाँ याद आ रही हैं।
    थक गयी हूँ सीता बन अग्नि परीक्षा देते देते
    थक गयी हूँ सती सवित्री बन जीते जीते
    ....................
    .......................
    कुछ पल स्वयं के लिये भी जीने दीजिये
    थक गयी हूँ करके राम का अनुसरण
    कुछ पल डगर मुझे स्वयं चुनने दीजिये।
    पूरी कविता कभी अपने ब्लोग में ,जब वह बनेगा, दूँगी।
    जोशी जी, नहीं, कभी न कभी बदलाव आएगा,तब आएगा जब माताएँ अपनी बेटियों को जताएँगी कि वे अमूल्य हैं और उनका मूल्य उनके सुहागिन होने तक ही सीमित नहीं है,बल्कि केवल वे कीमती हैं और उनकी खुशी। और यदि इस खुशी में उनके पति भी आते हैं तो स्वागत है उनका हमारे हृदय और घर में।
    हाँ जितेन्द्र जी, हम सब दोगले हैं।
    ऐसे लेख को लिखने के लिये सुनील दीपक जी का धन्यवाद। (क्या हम कभी यह जी/भाई लगाना छोड़ सकते हैं?)
    घुघूती बासूती।

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"जो न कह सके" पर आने के लिए एवं आप की टिप्पणी के लिए धन्यवाद.

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