शनिवार, अक्तूबर 13, 2007

लेखन के दायरे

सभाओं और गोष्ठियों में अपने काम की वजह से भाग लेना, मेरी मजबूरी है, विषेशकर जब यह सभाएँ स्वास्थ्य, विकलाँगता या विकास सम्बंधी विषयों पर होती हैं. हर पंद्रह बीस दिनों में किसी न किसी सभा या गोष्ठी में बोलना पड़ता है, इसलिए पिछले कुछ सालों से मैं कोशिश करता हूँ कि जहाँ तक हो सके उनसे बचूँ.

अपनी मर्जी से, बिना विषेश निमंत्रण के किसी सभा आदि में किसी को सुनने जाऊँ यह बहुत कम होता है. पर जब सुना कि हमारे शहर से करीब सौ किलोमीटर दूर, फैरारा शहर में देश विदेश के पत्रकार और लेखक जमा हो रहे हैं तो वहाँ जाने की मन में उत्सुक्ता हुई और काम से छुट्टी ले कर तीन दिन वहाँ बिताये.

शहर में कई जगहों पर फोटोपत्रकारों के चित्रों की प्रदर्शनियाँ लगीं थीं जिनमें से मुझे इतालवी फोटोग्राफर फ्राँचेस्को जुजोला के युद्ध और मृत्यू के क्षणों की तस्वीरें बहुत प्रभावशाली लगीं. शब्दों से युद्ध के कारण या हाल के बारे में लिखने वाले पत्रकार स्थूल तथ्यों की जानकारी दे सकते हैं पर युद्ध का मानव जीवन पर क्या असर हो सकता है, इसके लिए जो बात एक अच्छी तस्वीर कह सकती है वह हजार शब्द भी नहीं कह पाते, यह मेरा विचार है.



ब्राजील के सुप्रसिद्ध पत्रकार मीनो कार्ता, वेनेजुएला की पत्रकार क्रिस्तीना मरकानो और मेक्सिको के पत्रकार उगो पिपीतोने की दक्षिण अमरीका में आज के बड़े वामपंथी नेताओं के बारे में बहस बहुत दिलचस्प लगी. बहस के मुख्य विषय थे ब्राजील के राष्ट्रपति लूला और वेनेजुएला के उगो शावेज. लूला जनप्रिय हैं, कुछ अच्छा काम भी कर रहे हैं, पर वह वामपंथी नेता नहीं हालाँकि राजनीति में आने से पहले कामगारी यूनियन के नेता थे, बल्कि वह बड़े बिसनेस के फायदे के लिए ही अधिक काम कर रहे हैं, यह निष्कर्श था मीनो कार्ता का. शावेज जी तानाशाह हैं, मिलेट्री से आये हैं, वह प्रेस की स्वतंत्रता का मुख बाँध रहे हैं पर साथ ही उनकी शिक्षा और स्वास्थ्य सम्बंधी नीतियों से गरीब लोगों को सहायता मिली है, यह निष्कर्श था क्रिस्तीना का.

ब्लोग और अंतर्जाल के पत्रकारिता में बढ़ते महत्व पर बहस में मुझे फ्राँस के पियर्र हस्की और चीन के विद्यार्थी नेता काई छोंगवो, जो अब चीन छोड़ कर विदेश में रहने को बाध्य हैं, की बातें अच्छी लगी. बात हो रही थी कि अगर तियानामेन स्कावयर की बात आज होती तो क्या चीन की सरकार उसे इतनी आसानी से दबा पाती? उनका कहना था कि बाजार तथा उपभोक्तावादी संस्कृति से प्रभावित उदारवादी नीति अपनाने से चीन में इंटरनेट का तेजी से विकास हुआ है पर साथ ही चीन की सरकार ने इस माध्यम को किस तरह से काबू में रखा जाये, कैसे लोगों को इंटरनेट के भीतर एक सीमा में बाँध कर रखा जाये इस दिशा में बहुत तकनीकी विकास किया है जितना अन्य किसी देश में नहीं हुआ. इसके बावजूद चीनी ब्लागर और अतंर्जाल प्रयोग करने वाले नये नये तरीके निकलते रहते हें ताकि वह बँधनों से बाहर निकल सके.



बर्मा में मिल्ट्री तानाशाहों द्वारा देश में होने वाली बातों को बाहर जाने से रोकने की कोशिश करने के बारे में उनका विचार था कि दमन की प्रशासन कुछ दिनों में ही दमन की तीव्रता कम करने को बध्य होगा और धीरे धीरे समाचार फ़िर से आने लगेगें.

डाकूमेंट्री फ़िल्मों में मुझे अमरीकी फिल्म निर्देशक जेसन दा सिल्वा की फ़िल्म "हम भूल न जायें" (Lest we forget, 2003) अच्छी लगी. द्वितीय महायुद्ध के दौरान अमरीका में रहने वाले जापानियों का दमन और सितंबर 2001 में न्यू योर्क में हुए बम विस्फोटों के बाद अरब देशों और पाकिस्तान से आये नागरिकों के विरुद्ध हुए व्यवहार के बारे में थी यह फिल्म.

उपन्यास लिखने वाले लेखकों से उपन्यास और पत्रकारिता के दायरों के बारे में बातचीत भी बहुत दिलचस्प लगी. इसमें भाग लेने वालों में से मुझे मोरोक्को की लैला लालामी, तुर्की की एलिफ शफाक और भारत की अरुँधति राय की बातें मुझे अच्छी लगीं. लैला का कहना था कि क्योंकि वह मुसलमान हैं और मध्यपूर्व के देश से हैं, इसलिए बड़ी किताब छापने वाले पब्लिशिंग कम्पनियाँ उनसे केवल मुसलमान स्त्रियों का कितना बुरा हाल है इस विषय पर लिखना माँगती हैं और उनकी किताबों पर केवल बुर्का पहनने वाली औरतों या रेगिस्तानों और ऊँटों की तस्वीरें ही लगती हैं. एलिफ ने बात की अपने विभिन्न देशों में यहाँ से वहाँ बिताये अपने बचपन की जिसकी वजह से उन्हें लगता है कि उनकी जड़ें धरती में नहीं गड़ी बल्कि वह उल्टा पेड़ हैं जिसकी जड़े हवा में हैं. उन्होंने कहा कि लेखन तो लेखक की कल्पना पर निर्भर करता है, कि अगर वह तुर्की की नारी हो कर भी नोर्वे में रहने वाले समलैंगिक व्यापरी को ले कर कहानी लिखना चाहें या अमरीकी अश्वेत पुरुष के जीवन के बारे में लिखना चाहें, उन्हें इसका पूरा अधिकार है और वह कोई भी बँधन मानने को तैयार नहीं कि उन्हें किस विषय पर लिखना चाहिये और किस तरह!

अरुँधति राय जी का बोलने का तरीका बहुत प्रभावशाली है और उनके बोलने के दौरान खचाखच भरा हाल बार बार तालियों से गूँज उठा. अपने अँग्रेजी में लिखने के बारे में उन्होने लंदन में बीबीसी टेलिविजन के बारे में हुए एक साक्षात्कार के बारे में बताया. बुक्कर पुरस्कार मिलने के बाद हो रहे इस साक्षात्कार में उनके साथ एक अंग्रेजी प्रोफेसर भी थे जिनकी सारी बात ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा बने देशों को क्या फायदा हुआ और किस तरह अंग्रेजी सभ्यता ने इन पिछड़े देशों की सभ्यताओं को सही दिशा दी, फ़िर अरुँधती की ओर बोले कि उन्हें बुक्कर पुरस्कार मिलना ब्रिटिश साम्राज्य की छोड़ी धरोहर का ही नतीजा है. अरुँधती बोली कि इस तरह की बात करना कुछ वही बात हई कि बलात्कार की बाद पैदा हुई संतान को दिखा कर बलात्कार हुई औरत से कहा जाये कि देखो उस पुरुष ने कुछ ठीक ही किया था. उनकी कही बहुत सी बातों से मन में बहुत से प्रश्न उठे, पर उनके बारे में तो अलग से फ़िर कभी लिखना पड़ेगा.


बुधवार, सितंबर 26, 2007

अत्याचार की नींव

इन दिनों टेलीविज़न पर मयनमार (बर्मा) में हो रहे आंदोलन के दृष्यों को देख कर खुशी भी होती है और मन में दहशत भी. तानाशाहों के दमन से दब कर रहने वालों में जब अपनी आवाज़ उठाने का साहस आता है तो उन्हें स्वयं भी विश्वास नहीं होता. सड़क पर निकलने वाली भीड़ में खुद को पा कर कैसा लगता होगा, इसकी कल्पना मैं कर सकता हूँ.

और तानाशाह क्या करेगा? गोली चला कर आंदोलन को दबायेगा या समझ जायेगा कि हर अत्याचार की तरह, उसके अत्याचार की नींव बहुत कच्ची है, हल्के से धक्के से गिर जायेगी?

1968 के चेकोस्लोवाकिया के वसंत की याद आती है, जब अगस्त में रूसी टैंक प्राग में घुस आये थे और उस वसंत को बँदूक की ताकत से दबा दिया था.

चेकोस्लोवाकिया के वसंत के बारे में केवल पढ़ा था, जबकि 1989 में चीन में हो रहे विद्यार्थी आंदोलन को करीब से देखने का मौका मिला था. पहले सियान में पुराने जनरल सेक्रेटेरी हू याओबेंग के मृत्यु के बाद हो रहे धरनो और जलूसों को देखा फ़िर, बेजिंग में तियानामेन स्क्वायर में विद्यार्थियों का आंदोलन देखा था. कुछ आंदोलनकारी छात्रों से बात की थी. बेजिंग छोड़ने के दो दिन बाद जब टेलीविज़न पर टैंकों को उसी तियानामेन स्क्वायर पर देखा था तो बहुत दहशत हुई थी.

यँगून में जब बुद्ध भिक्षुक जलूस के आगे चलते देखा तो मन में थोड़ी सी आशा जागी, शायद बुद्ध भिक्षुकों पर गोली चलाने का साहस तो उन बहादुर जनरलों में भी नहीं होगा जिन्होंने उँग सान सू क्यी जैसे नेता को पिछले सत्रह साल से कैद में रखा है. अभी सुबह के समाचार में बता रहे हैं कि रात भर रँगून में कर्फ्यू था और सुबह बहुत जगह पुलिस तैनात है. बुद्ध विहारों के बाहर भी पुलिस खड़ी है ताकि भिक्षुकों को बाहर निकलने से रोका जाये.

क्पयूटर, इंटरनेट और टेलीफोन की नयी तकनीकों ने जनरलों द्वारा लगाये बड़े प्रतिबँधों को पार कर के बाहर दुनिया में तस्वीरें, वीडियो और विचार भेजे हैं, ताकि सबको मालूम चल सके कि बर्मा में क्या हो रहा है.

धकधक करते दिल में आशा भी है कि इस बार जन आंदोलन सफल होगा. सवाल यह है कितने लोगों का खून सींचेगा इस सफलता को?

सोमवार, सितंबर 24, 2007

भारतीय पत्नि के सपने

मेरे बेटे ने पिछले वर्ष भारत में विवाह किया. इटली में पला और बड़ा हुआ बेटा मारको तुषार, मारको अधिक और तुषार कम है, और वह किसी भारतीय लड़की से विवाह करना चाहेगा, इसका हम लोगों ने कोई सपना तक नहीं देखा था. यह बात सोचना भी अविश्वासनीय सा लगता था. यहाँ इटली में तो आज के नवयुवक विवाह बहुत देर से करते हैं, कभी कभी दस दस साल तक बिना विवाह के साथ रहने के बाद विवाह होता है और अधिकतर वह भी नहीं होता. पर हमारी होनी में यह सुख लिखा था और उसका दिल भारत यात्रा में छुट्टियों में खोया. बहू इटली आयी और हमारा परिवार पूरा हो गया. बेटे बहू का प्यार देख कर मन को बहुत सुख मिलता है.

कुछ दिन पहले बेटे का एक मित्र पियेरो हमारे यहाँ खाने पर आया था. अचानक मुझसे बोला, "मैं भी भारतीय लड़की से विवाह करना चाहता हूँ, आप का इस बारे में क्या विचार है?"

पहले मुझे लगा कि वह मज़ाक कर रहा है बोला, हाँ क्यों नहीं, कहो तो तुम्हारे लिए लड़की देखें.

पर फ़िर जब उसका गम्भीर चेहरा देखा तो अपनी हँसी को दबा कर बोला, "इस तरह के सोचने से केवल बात नहीं बनेगी, सचमुच की लड़की से शादी करनी है तो सचमुच का प्यार चाहिये. अगर तुम मारको और आत्मप्रभा, इन दोनों को देख कर अगर मन में एक छवि सी बना लोगे तो सच्चाई से नहीं, कल्पना से विवाह करोगे और जब सचमुच की लड़की का सोचना, रहना, इच्छाएँ, विचार समझ में आँयेंगे तो उनसे मेल कैसे बैठेगा?"

भारत में माता पिता द्वारा पक्के किये गये विवाह या फ़िर स्वयं अखबार या किसी एजेंसी के माध्यम से खोजे जीवन साथी से विवाह करना और साथ निभाना आसान है क्योंकि यह बात हमारी सभ्यता, हमारी सोच में बसी है. यहाँ के केवल "मैं" और "मेरा" को सबसे ऊँचा सोचने वाले व्यक्तिगत भावना वाले पश्चिमी संसार में इस तरह की सोच नहीं. यहाँ प्रेम और विचारों के मिलने के बिना विवाह करने की कोई नहीं सोचता. डर सा लगा कि अगर भावुकता में पियेरो कुछ इस तरह का कदम उठायेगा तो खुद तो दुख पायेगा ही, किसी मासूम लड़की को भी दुख उठाना पड़ेगा. यह सब समझाया उसे, पर वह अपनी बात पर ही अड़ा है कि भारतीय लड़की से ही विवाह करना है.

"अच्छा, अगले साल जब मारको और आत्मप्रभा दोनो भारत में छुट्टियों में जायेंगे, तो तुम भी साथ चले जाना. क्या मालूम तुम्हें सचमुच कोई लड़की सच में भा जाये", मैंने सुझाव दिया, "और तब तक तुम कुछ मिर्च मसाले वाला खाना खाने का अभ्यास करो, इस तरह से सूखा सादा खाना खाओगे तो कौन भारतीय लड़की तुमसे विवाह करना चाहेगी?"

तब से अगले साल की छुट्टियों की तैयारी शुरु और कहाँ जायेंगे, क्या करेंगे इसके प्लेन बनने लगे हैं. पियेरो अँग्रेजी का अभ्यास कर रहा है. वह आज कल हिंदी फ़िल्मों और हिंदी फ़िल्म संगीत से जान पहचान बढ़ा रहा है. कहता है कि रानी मुखर्जी और एश्वर्या राय सुंदर हैं. नीचे वाली तस्वीरों में जिसमें पियेरो अपने आप को मारको और आत्मप्रभा के साथ साथ अलग अलग हिरोईनों के साथ देखता है, उसने ही बनायी है.









शनिवार, सितंबर 22, 2007

फणीश्वरनाथ रेणु की "कलंक मुक्ति"

यात्रा की तैयारी कर रहा था, तो सोचा कौन कौन सी किताबें साथ पढ़ने के लिए ले जायी जायें? नज़र पड़ी फणीश्वरनाथ रेणु की "कलंक मुक्ति" पर. जनवरी में भारत यात्रा में खरीद कर लाया था, अभी तक पढ़ने का मौका नहीं मिला था. सोचा कि रेणू जी को पढ़ा जाये.



पढ़ कर कल्पना पर भारतीय लेखकों के बारे में अँग्रेजी और इतालवी भाषाओं में परिचय देने का जो काम करने का सोचा था, उसमें भी रेणु जी का बारे में लिख सकता हूँ, यह विचार भी मन में था. यह काम भी बहुत समय से अधूरा सा पड़ा है. मुझे लगता है कि अच्छा लेखक केवल अपनी भाषा के लोगों के बोलने वालों में जाना जाये और वृहद जगत में उसके बारे में कुछ भी न मालूम हो यह ठीक नहीं.

रेणु जी का नाम मेरे मानस में तीसरी कसम फ़िल्म और उसके हीरामन से जुड़ा है. उनकी कुछ किताबें, जैसा मैला आँचल और परती परिकथा पढ़े तीस पैंतीस साल हो गये थे. लड़कपन के अधकच्चे मन को कहानियाँ अच्छी अवश्य लगी थीं पर क्या कहानी थी उस सब की यादें धुँधलाई सी थीं.




"कलंक मुक्ति" की कहानी की नायिका है सुश्री बेला गुप्त, भारतीय स्वत्रंता संग्राम के जोश में गाँव छोड़ने वाली बेला गुप्त को अपने क्राँतीकारी साथी से धोखा और बलात्कार मिलता है. बेला गुप्त को शरण मिलती है अनपढ़ और साहसी मुनिया और उसकी बेटी रामरति से, और सहारा मिलता है रमला बैनर्जी से जो उसे कामकारी स्त्रियों के होस्टल में काम दिलवाती हैं. बेला गुप्त को अपने बीते जीवन का पश्चाताप करना है, वह जन साधरण की सेवा में जुट जाती हैं और निर्बल कमज़ोर युवतियों को सहारा देना ताकि वे शिक्षा के माध्यम से आत्मनिर्भर बन सकें, में जुट जाती हैं और इसके लिए किसी रिश्वतखोर या भ्रष्ट अफसर से जूझने से नहीं डरती. आँख की किरकिरी बेला गुप्त और उसकी निडर सहायिका रामरति को जेल मिलती है होस्टल में वेश्याघर चलाने और दवा के पैसे खाने के जुर्म में, और दलाली और अत्याचार करने वाले सरकारी अफसरों को कुछ नहीं होता. बेला गुप्त चुपचाप न्याय के इस अन्याय को स्वीकार रकती हैं, अपने बीते कल के पश्चाताप के लिए.

सारी कहानी को फ्लैशबैक में लिखा गया जब लेखक "अजीत भाई" की मुलाकात रात को रामरति से होती है जो बताती है कि वह और बेला गुप्त जेल से मुक्त हो गयीं हैं. अजीत भाई कौन हैं, बेला गुप्त से उनका क्या सम्बंध था यह बात उपन्यास में स्पष्ट नहीं होती. जेल से छूट कर बेला गुप्त और रामरति वेश्या बन गयीं है, प्रारम्भ के रामरति के बोलने से कुछ कुछ ऐसा लगता है पर यह बात भी स्पष्ट नहीं होती. जेल से निकल कर बेला गुप्त के पास जीवन यापन का कुछ और रास्ता नहीं था, यह बात पूरी किताब में बेला गुप्त के बनाये व्यक्तित्व से मेल नहीं खाती.

किताब छोटी सी है, कुल ११२ पन्ने (राजकमल पेपरबैक्स, मूल संस्करण का असंक्षिप्त रूप, पहला संस्करण १९८६) और कापीराइट है पद्मपराग राय रेणु का जो शायद रेणु जी के पुत्र थे. रेणु जी का देहांत १९७७ में हुआ था, यानि यह पैपरबैक्स संस्करण उनकी मृत्यु के ९ साल बाद प्रकाशित किया गया. एक बार पढ़नी शुरु की तो पूरी पढ़ कर ही दम लिया.

पुस्तक की सबसे सुंदर बात है उसकी भाषा जो शायद बिहार के उस भाग की भाषा है जहाँ रेणू जी रहते थे? भोजपुरी, मैथिली, अवधी, आदि भाषाओं में क्या अंतर है और इन सब भाषाओं को पहचानना मेरे बस की बात नहीं, पर उन्हें पढ़ना मुझे बहुत अच्छा लगता है, शायद क्योंकि इन भाषाओं में बचपन के कई रिश्तों की यादें छुपी हैं!

कई जगह शब्दों के ठीक अर्थ पूरी तरह समझ नहीं आते पर उन्हें ऊँची आवाज में पढ़ना बहुत अच्छा लगता है. जैसे उपन्यास से लिया यह हिस्साः

जानकी देवी के उत्साहित करते ही वह गाने लगी, गुनगुनाकर. बेला गुप्त चुप खड़ी सुनती रही. ... गीत सुनते समय, एक ग्रामीण बालिका वधु की छवि उतर आयी आँखों के सामने. चंगेरी भर गेहूँ लेकर पीसने बैठी है चक्की पर. हमदर्द पड़ोसन पूछती है, "औ सुकुमारी! किस पत्थरदिल सास ने तुझे चंगेरी भर गेहूँ दिया है तौल कर, किस ननद ने तुझे अकेली नौ मन की चक्की चलाने को भेजा है. हाय हाय, चक्की का हत्था पकड़ कर, झुमाई हुई निहुरी सी, घूँघट के अंदर ही रोती है, छोटी गुड़िया जैसी दुलहिन...

के तोरा देलकउ सुन्दरि दस सेर गेहूँआ
के तोरा भेजलकउ एकसरि जँतसारे ना कि.
कौन रे निदरदो के तेहुँ रे पुतौहिया
कौन रे मुरुखवा पुरुखवा तोर भतार न कि
"हथड़ा" पकड़ि सुन्दरि झमरि...

चंगेरी, झुमाई, निहुरी जैसे शब्द समझ नहीं आते है पर पढ़ने अच्छे लगते हैं. इसी तरह की भाषा का एक अन्य नमूना हैः

गौरी बोली, "तो, सुरती सहुआइन ने तेरा क्या बिगाड़ा है, कुन्ती मौसी? ...हरिजन तो वह मुझे समझती है.
"मुझे मौसी पीसी मत कहे कोई."
"क्यों री गौरी. छोटी मेम के घर कोंहड़े के लत्तर की भाजी कैसी बनती है, सूखा या रसदार? छोटी मेम खुद बनाती है."
"उँहु! खुद नहीं बनाती है, बनाता है उनका वह डिब्बावाला ... क्या नाम है भला - कूकड़! सभी चीजें डाल देती है, एक साथ. और जब उतारती है तो भात अलग, दाल अलग, तरकारी अलग."
यही बात मुझे रेणू जी की अच्छी लगती है, सुघड़ कथान्यास की संवेदना और भाषा का सौँधापन.

गुरुवार, सितंबर 20, 2007

जननेता का मनमोहक व्यक्तित्व

करीब 25 साल पहले दिल्ली में एक पोलैंड के नवयुवक से मुलाकात हुई थी जो फ़िल्म अभिनेता से नेता बने व्यक्तियों पर शौध कर रहा था और उस पर अपनी थीसिस लिख रहा था. अमरीका में रियेगन से भी मुलाकात कर चुका था. कहता था कि यह बात केवल भारत में नहीं अन्य बहुत से देशों में है कि प्रसिद्ध अभिनेता एक दिन राजनेता बन जाते हैं. बोला, "एनटीआर जैसा जादुवी व्यक्तित्व वाला पुरुष मैंने कोई अन्य नहीं देखा. उनसे बात करके मुग्ध सा हो गया, मन में लगा कि अगर मुझे वोट करना हो तो अपना वोट अवश्य एनटीआर को ही देता."

कुछ ऐसा ही अनुभव मुझे हुआ जब उभरते इतालवी राजनेता निकी वेनदोला से मिलने का मौका मिला. एक दो बार उन्हें पहले टीवी पर देख चुका था. शुरु में उनके छोटे बाल और बायें कान में लटकती बाली देख कर कुछ अजीब सा लगा था. सोचा कि अवश्य हिप्पी किस्म के व्यक्ति होंगे. पर पिछले सप्ताह जब मिलने का मौका मिला तो राय बदल गयी.

दक्षिण इटली के बारी नामक शहर में हो रही सभा का विषय था संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा बनाया विकलाँग व्यक्तियों के मानव अधिकारों से सम्बंधित नया अंतर्राष्ट्रीय कन्वेंशन. वेनदोला जी उस राज्य के गवर्नर हैं और सभा के उद्घाटन के लिए आये थे. सोचा था कि राजनीतिक नेता जिस तरह के भाषण देते हैं वैसी ही बात सुनने को मिलेगी, यानि बेकार की बातें और कुछ झूठमूठ के वादे. पर जब उन्होंने बोलना शुरु किया तो आश्चर्य हुआ. कोई लिखा हुआ भाषण नहीं था और अपनी बात कहते हुए उन्होंने अपने जीवन अनुभवों से, अपने विकलाँग मित्रों के जीवन अनुभवों से कई बातें बतायीं. बहुत अच्छा लगा. सुना है कि वह केवल अच्छे भाषण ही नहीं देते, काम के लिए भी उनकी सरकार लोकप्रिय है. (नीचे तस्वीर में निकी वेनदोला)



पर क्या लोगों को मंत्रमुग्ध करना ही सब कुछ होता है? क्या सचमुच मंत्रमुग्ध करने वाले नेता जनहित के लिए काम करने में सफल होते हैं?

इण्लैंड के नये प्रधानमंत्री गोर्डन ब्राउन का समाजसेवी संस्थाओं के साथ निशुल्क काम करने वाले स्वयंसेवको के बारे में भाषण पढ़ा वह बहुत अच्छा लगा. उनसे पहले के प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर में लोगों को मंत्रमुग्ध करने की शक्ति थी, पर जिस तरह के काम उन्होंने किये उससे उनका सारा जादू गायब हो गया. उनके मुकाबले में गोर्डन ब्राउन के व्यक्तित्व में कोई जादू नहीं लगता.

यूरोप में इस तरह सामाजिक कार्यों के लिए काम करने वाले स्वयंसेवकों की संस्थाएँ हर देश में मिल जायेंगी. इटली में तो हर छोटे छोटे शहर में कई कई इस तरह की संस्थाएँ होती हैं. ब्राउन जी ने कहा कि औरों के लिए निस्वार्थ काम करने वाले लोग ही ब्रिटेन को बड़ा बनायेगें और उन्होंने सरकार की ओर से इस तरह की संस्थाओं को मजबूत करने तथा सहारा देने के लिए कई कदमों की घोषणा की. उनके इस भाषण को पढ़ कर मन में उनकी जो छवि थी वह बदल गयी.

लोगों को अपने व्यक्तित्व से मंत्रमुग्ध करना तो आसान है. आसान न होता तो बुश जैसे लोग बार बार कैसे चुने जाते? पर अपनी सरकार के काम से मुग्ध करना यह शायद थोड़ा कठिन है. और भारत में आज कौन से नेता हैं जो देश की जनता को मंत्रमुग्ध कर पाने की क्षमता रखते हैं?

गुरुवार, अगस्त 02, 2007

नया संगीत और धोबी का कुत्ता

कई बार कुछ भारतीय संगीतकारों से बात करने का मौका मिला और फ्यूजन संगीत की बात चली तो उनमें से अधिकाँश का कहना था कि भारतीय शास्त्रीय संगीत को पश्चिमी संगीत से मिलाना बेकार है क्योंकि जो संगीत बनता है वह धोबी के कुत्ते की तरह होता है, न घर का न घाट का.

वैसे तो मुझे यह धोबी के कुत्ते वाली कहावत ही समझ नहीं आती. बचपन में घर के पास ही सड़क के कोने में धोबी का घर था जिसके पास एक कुत्ता भी था और उस कुत्ते की हालत में मुझे अन्य आसपास के कुत्तों से कोई भी बात भिन्न नहीं दिखी.

खैर बात संगीत की हो रही थी. कुछ दिन पहले हम लोग फ्राँस के एक संगीत ग्रुप "ओल्ली और बोलिवुड ओर्केस्ट्रा" (Olli & Bollywood Orchestra) को सुनने गये. ग्रुप के अधिकाँश सदस्य फ्राँस के ही है. ओल्ली ग्रुप के गायक और प्रमुख संगीतकार भी हैं और भारतीय और पश्चिमी संगीतों की शैलियों को मिला कर अपना संगीत बनाते हैं, पर केवल शास्त्रीय संगीत से नहीं, मुंबई के फ़िल्मी संगीत से भी.




जब ओल्ली गाते हैं तो उनके गीतों के शब्द हिंदी के होते हैं और उच्चारण फ्राँस का, कभी कभी शब्द आपस में यूँ ही जोड़ देते हैं जिनमें कर्णप्रियता तो होती है पर अर्थ नहीं पर सुनते समय अर्थ की कमी नहीं महसूस होती बल्कि शब्दों के अर्थों के बारे में भूल कर आप केवल संगीत का आनंद ले सकते हैं. अपने संगीत की धुनें भी वह स्वयं ही बनाते हैं जो जाने पहचाने गानों से नहीं ली गयीं बल्कि जिनमें हिदी फ़िल्म संगीत और पश्चिमी ओपेरा संगीत का सम्मिश्रण सा है.

संगीत के साथ साथ पीछे पर्दे पर वीडियो छवियाँ भी दिखाते हैं जो अपने आप में कला का संपूर्ण रूप हैं. वीडियो के इन छवियों में पुरानी हिंदी फिल्मों के दृष्यों का अनौखा प्रयोग होता है, कभी एक ही दृष्य को बार बार दिखा कर, कभी उनमें दूसरी छवियाँ मिला कर, कभी उन पर रंग बिखेर कर, अपने संगीत की धुन से छवियाँ के घूमने को मिला कर, अजीब सा अहसास देते हैं. शुरु शुरु में जब उन्होंने गाना प्रारम्भ किया तो शब्दों के अर्थ ने होने, या अर्थ हो कर भी उनका उच्चारण विभिन्न होने के बारे में सोच रहा था पर थोड़ी देर में ही इन सब बातों को भूळ कर केवल ध्वनि, संगीत और छवियों के मायाजाल में खो सा गया.




"सुन मामा", "मेरी तेरी दोस्ती" गीत सबसे अच्छे लगे. कंसर्ट के अंत में गाँधी जी का भजन "रघुपति राघव राजा राम" भी बहुत अच्छा लगा, जो ओल्ली जी तीन विभिन्न सुरों में प्रस्तुत करते हैं पहले सामान्य भजन के रूप में शुरु करते हैं पर जिसमें अंतिम सुर ओपेरा संगीत से लिया गया है.

इस दल में दो भारतीय सदस्य भी है, कलकत्ता की सुदेशना भट्टाचार्य जो सरोद बजाती हैं और पाँडेचेरी के प्रभु एडुआर्ड जो तबला और ढोलक बजाते हैं. दोनो ही बहुत अच्छे कलाकार हैं. कंसर्ट के बीच का हिस्सा, इन दोनो की जुगलबंदी का था और बहुत सुंदर था.




इस ग्रुप ने हिंदी फ़िल्मी संगीत, भारतीय शास्त्रीय संगीत, पश्चिमी पोप संगीत और पश्चिमी ओपेरा को मिला कर जो फ्यूजन संगीत बनाया है वह अपने आप में संदर भी है और नया भी है इसलिए शायद नयी कहावत होनी चाहिये, "धोबी का कुत्ता घर का भी और घाट का भी".

प्रस्तुत हैं इस कंसर्ट की कुछ तस्वीरें.



बाँसुरी पर सिल्वान बारो


लाल कमीज में ओल्ली (शायद उनके नाम का सही उच्चारण है ओई?)






बायें से, गिटार बजाने वाले एरवान, बाँसुरी वाले सिल्वान और तबला बजाने वाले प्रभु

बुधवार, अगस्त 01, 2007

आप बीती कहने का साहस

हिंदी की पत्रिका "हँस" कई वर्षों से दलित लेखकों को प्रोत्साहन दे रही है, शायद एक दलित विषेशाँक भी निकल चुका है. मैं इस बात से सहमत हूँ कि किसी भी बात के बारे में लिखना हो, अगर उसे वह लिखे जो स्वयं उस बात का अनुभव कर चुका है और उसके लेखन में एक अन्य ही सच्चाई आ सकती है.

कहानी लिखना या उपन्यास लिखना, आप बीती लिखना नहीं है बल्कि लेखक द्वारा कल्पना की दुनिया से विभिन्न व्यक्तित्व बनाना है. इसलिए शायद यह आवश्यक नहीं कि दलित जीवन के बारे में केवल दलित ही लिख सकते हैं, पर यह अवश्य है कि अगर दलित अपने जीवन के बारे में लिखेंगे तो वे उस जीवन के बारे में नये पहलू रख सकते हैं जिनके बारे में गैरदलित लेखकों ने सोचा भी नहीं हो. यह नहीं कि हर दलित लेखक अपने लेखन में अपने जीवन को समझने के लिए नये पहलू उठा पायेगा, पर उनके बीच में भी कुछ लोग ऐसे अवश्य होंगे जिनमें यह क्षमता हो.

मुझे इस सच्चाई का एहसास तब हुआ जब विकलाँग लेखकों के सम्पर्क में आया. विकलाँगता शरीर में किसी अंग के सामान्य न होने सा या उसके सामान्य तरीके से काम न करने पाने से होती है, यह मेरा विश्वास था पहले. विकलाँग विचारकों के सम्पर्क में आया तो समझने का मौका मिला कि विकलाँगता व्यक्ति के शरीर में देखना केवल एक तरीका है विकलाँगता विर्मश का. विकलाँगता को समाज के सोचने और काम करने की तरीके में भी देखा जा सकता है, जब व्यक्ति के आसपास रुकावटें बना कर समाज व्यक्तियों को विकलाँग बना सकते हैं.

समाज के हाशिये से बाहर हर गुट में, चाहे वह विकलाँग हों, चाहे दलित हो, या शोषित स्त्रियाँ हों, या अल्पसँख्यक भाषी या अल्पसँख्यक धर्म के लोग, कुछ सत्य छुपे हैं जिन्हें वह स्वयं ही प्रस्तुत कर सकते हैं और बृहत संसार को समझा सकते हैं.

तो बात "हँस" के दलित लेखन की कर रहा था. अधिकतर दलित लेखक मुझसे पढ़े नहीं जाते, उनके लेखन में मुझे वह सत्य नहीं दिखता जिसे गैरदलित नहीं दिखा सकते और लेखन शैली विषेश नहीं होती, पर हँस के जुलाई अंक में श्यौराज सिंह बैचेन की आत्मकथा "यहां एक मोची रहता था" ने मुझ पर गहरा प्रभाव डाला. एक बार पहले भी हँस में उनका लिखा पढ़ा था जो मुझे बहुत अच्छा लगा था. इस बार भी उनका लेख पढ़ने लगा तो बीच में छोड़ा नहीं गया, पूरा पढ़ कर ही दम लिया और बाद में उसके बारे में सोचता रहा. दलित जीवन क्या होता है इसकी समझ भी देते हैं पर साथ ही उनके लिखने की शैली भी ऐसी है कि पढ़ना बहुत अच्छा लगता है. जलते अँगारों जैसे शब्द हैं और उन्हें पढ़ कर आधुनिक जातपात के नाम पर होने वाले भेदभाव की अमानवीयता की समझ बनती है.

अपनी आप बीती कहना कभी आसान नहीं होता. श्यौराज जी के अपने बचपन में मोची के काम करने के दिनों के वर्णन में कोई रुमानियत नहीं बस साफ सीधे शब्दों में बात कहते हैं. मैं मानता हूँ कि अपने आप बीते को इस तरह बता सकना ही मन को शोषण की ग्रथियों से और बीते जीवन के अनुभवों की यादों की जंज़ीरों मु्क्ति दे सकता है.

इसी अंक में अभय कुमार दुबे का "कंडोम के साथ चलते हुए यौन शिक्षा का विरोध" लेख भी बहुत अच्छा लगा जिसमें उन्होंने यौन विषय की ओर हमारे समाज में व्यापित दौगली मानसिकता पर प्रश्न उठाये हैं.

दोनो लेख इंटरनेट पर भी पढ़े जा सकते हैं, अगर अब तक नहीं पढ़े हों तो इन्हें अवश्य पढ़ियेगा.

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कभी कभी कोई छोटी सी पढ़ी हुई बात मन में ठहर सी जाती है.

कुछ यूँ ही हुआ जब "हँस" के जून अंक में वंदावन के स्वामी नित्यानंद का पत्र पढ़ा. उन्होने लिखा कि



"जैसे साहित्यकार उदास हैं कि पाठक नहीं मिलते, वैसे ही वेदांत के प्रवक्ताओं के लिए श्रोताओं का अभाव है. अंत यहां करूँगा कि -
दिल खुश हुआ है मस्जिदे वीरान देख कर
मेरी तरह खुदा का भी खाना खराब है"

वेदांत के श्रोताओं की कमी की बात करते हुए स्वामी जी ने बहुत सहजता से मस्जिद और खुदा की बात कर दी, बहुत अच्छी लगी. ऐसे वेदांत दर्शन की बात करने वाले स्वामी की बात को अवश्य सुनना चाहूँगा.

हँस के इसी अंक में एक और पत्र था आजकल के बहुत से धर्मगुरुओं के विषय पर, इंदौर से डा. ओमप्रकाश शर्मा भारद्वाज का यह पत्र, वह भी मुझे बहुत सटीक लगा. बहुत देर तक उनके शब्द मन में गूँजते रहे. आधुनिक धर्म गुरुओं के बारे में उन्होंने लिखा है,



"जो आज नित्य गगन विहार कर रहा है, वही मंच से कारुणिक स्वर में श्रीराम जी के वनगमन के समय उनके तलुओं में पड़े छालों का वर्णन कर रहा है. जो आज श्रीमंतों ही आतिथ्य स्वीकार करते हुए वातानुकूलित कक्षों में डनलप के गद्दों पर जाम लेता है, वही श्रीरामसीता की पंचवटि में भूमि शयन का वर्णन कर रहा है. जो आज काजू बादाम पिस्ता केसर कस्तूरी मेवा व शुद्ध घृत का भोजन करता है वही मंच से शबरी के बेरों का, सुदामा के तंदुल का व दिदुर के सागपात के आलौकिक स्वाद का वर्णन कर रहा है. जो शरीर की क्षणभंगुरता पर दार्शनिक रूप से व्याख्यान देता है, वही अपना जन्मदिन धूमधाम से राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मनाता है. अपनी शोभा यात्राएँ निकलवाता है. अपना पाद पूजन कराता है. जो माया मोहव धन संग्रह की आसक्ति को त्यागने का उपदेश दे रहा है, वही अपने कथा स्थल के बाहर अपने चित्र,कैसेट, ओडियो, वीडियो, पुस्तकें, पूजा का सामान, यहाँ तक मंजन, तेल, शैम्पू, साबुन, चाय, पेन, कापी, आदि बेच रहा है..."
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जीमेल को लकवा मारा?

कुछ दिनों से हमारे गूगल देवता जी नाराज हैं. जीमेल खोलो तो बिना किसी दिक्कत के खुल जाता है पर सिवाय संदेशों को कूड़े में फैंकने के कुछ और नहीं करने देता. संदेश खोल कर पढ़ने नहीं देता, न ही नया संदेश लिखने देता है. कोई भी लिंक काम नहीं करती. क्या कोई मेरी सहायता करेगा कि उनकी यह बिमारी ठीक की जा सके?

सोमवार, जुलाई 30, 2007

शाहरुख का कमाल

इटली में हिंदी सिनेमा के बारे में बहुत कम जानकारी है. एक तरफ है समानान्तर सिनेमा जो हमेशा से ही फिल्म फेस्टिवलों के माध्यम से जाना जाता है, इसकी जानकारी इटली में भी है. नसीरुद्दीन शाह, शबाना आज़मी जैसे कलाकारों को इन समाराहों में जाने वाले लोग जानते हैं, पर आम व्यक्ति को इसकी जानकारी न के बराबर है. फिल्म समारोहों में आने वाली फिल्में विभिन्न शहरों में "सिनेमा द एसाई" यानि प्रायोगिक सिनेमा नाम के कुछ सिनेमाघर होते हैं जहाँ दिखाई जाती हैं. इस तरह के सिनेमाघरों में नारी भ्रूण हत्या के विषय पर बनी "मातृभूमि" पिछले वर्ष बहुत देखी तथा सराही गयी. पर बात वहीं तक आ कर रुक जाती है, यानि थोड़े से लोग जिन्हें गम्भीर सिनेमा पसंद है वह वहाँ यह फिल्में देखते हैं.

आम लोग जो सिनेमाहाल में फिल्म देखने जाते हैं उन्हें भारतीय फिल्मों के बारे में कुछ नहीं मालूम.

इस बारे में पिछले कुछ वर्षों में कुछ बदलाव आने लगा है. कुछ वर्ष पहले शाहरुख कान की फिल्म "अशोक" वेनिस फिल्म फेस्टिवल के समय दिखायी गयी हालाँकि वह पुरस्कार प्रतियोगिता में नहीं थी. पर वेनिस फिल्म फेस्टिवल ने लोकप्रिय हि्दी फिल्मों को अभी तक नहीं अपनाया है जैसे कि फ्राँस के कान फेस्टिवल में होने लगा है. फ्राँस में हिंदी फिल्म समारोह होने लगे हैं, कुछ हिंदी फिल्में प्रदर्शित भी हुई हैं. मेरी एक फ्रँसिसी मित्र ने कुछ दिन पहले मुझे लिखा था कि उसने डीवीडी पर "कभी खुशी कभी गम" देखी जो उसे बहुत अच्छी लगी, पर इस तरह की डीवीडी यहाँ इटली में नहीं मिलती. कुछ वर्ष पहले आमिर खान की फिल्म "लगान" अव्श्य डीवीडी पर आई थी पर न ही इसका ठीक से विज्ञपन दिये गये, न ही कोई चर्चा हुई.



बोलोनिया भारतीय एसोसियेशन के माष्यम से हम लोग भी भारतीय फिल्मों को लोकप्रिय करने का प्रयास कर रहे हैं, पर यह आसान नहीं, क्योंकि फिल्मों में इतालवी के सबटाईटल नहीं होते, होते भी हैं तो शायद कम्पयूटर से भाषा का अनुवाद किया जाता है जो समझ में नहीं आते या फ़िर कई बार गलत अर्थ बना देते हैं.

कल रात को बोलोनिया में पहली बार एक लोकप्रिय हिंदी सिनेमा की फिल्म दिखाई गयी, यश चोपड़ा की "वीर ज़ारा". शहर के पुराने हिस्से में नगरपालिका भवन के सामने बहुत बड़ा खुला चौबारा है, वहाँ खुले में सिनेमा का पर्दा लगाया गया है और करीब चार हज़ार दर्शकों के बैठने की जगह है. पिछले दिनों वहाँ अमरीकी फ़िल्में दिखा रहे थे और कल रात को इस समारोह के अंतिम दिन में भारतीय फ़िल्म दिखाने का सोचा गया था. हम लोग सोच रहे थे कि इतने लोग कहाँ आयेंगे और बोलोनिया फि्लम सँग्रहालय की तरफ से हमने सब लोगों को ईमेल भेजे, टेलीफोन किये और कहा कि भारत की इज़्ज़त का सवाल है और सब लोगों को आना चाहिये.



फ़िल्म शुरु होने से दो घँटे पहले ही लोग आने शुरु हो गये. बोलोनिया में भारतीय तो कम ही हैं पर बँगलादेश और पाकिस्तान के बहुत लोग हैं, अधिकतर उनके ही परिवार थे, बाल बच्चों समेत, सब लोग सजधज कर यूँ आ रहे थे मानो किसी की शादी पर आये हों. जब फिल्म प्रारम्भ होने का समय आया तो हर जगह लोग ही लोग थे, कुर्सियाँ भर गयीं तो लोग आसपास जहाँ जगह मिली वहीं बैठ गये. अंत में करीब सात आठ हज़ार लोग थे. समारोह वाले बोले कि इतनी भीड़ तो किसी अन्य फ़िल्म में नहीं हुई थी.

भीड़ से भी अधिक उत्साहमय था लोगों का फिल्म में भाग लेना. गाना होता तो लोग सीटियाँ बजाते, हीरो हिरोईन गले लगे तो लोगों ने खूब तालियाँ बजायीं. बहुत से इतालवी लोगों में मुझसे शाहरुख खान के बारे में पूछा, बोले कि बहुत ही एक्सप्रेसिव चेहरा है, कुछ भी बात हो उसके चेहरे से भाव समझ में आ जाता है नीचे सबटाईटल पढ़ने की आवश्यकता नहीं पड़ती. कई लोग बोले कि शाहरुख खान की कोई अन्य फ़िल्म दिखाईये!

अब हम लोग सोच रहे हैं कि अप्रैल में एक और भारतीय फ़िल्म समारोह का आयोजन किया जाये.

गुरुवार, जुलाई 26, 2007

बाहर से बुढ़ऊ, भीतर से हृतिक रोशन

मन में चाहे आप अपने आप को जैसा भी सोचें, लोग तो आप की उम्र ही देखते हैं. और फ़िर सच भी है कि बाल सफ़ेद होने के साथ साथ शरीर याद दिलाने लगता है कि इस संसार की चीज़ो से बहुत अधिक मोह बनाना ठीक नहीं. कभी बैठने लगो तो अचानक कमर में दर्द होने लगता है, कभी बैठ कर उठो तो हाथ कोई सहारा खोजते हैं, नीचे ज़मीन पर बैठना पड़े तो कामेडी फ़िल्म का दृश्य लगता है. कभी टाँगे इधर रखो, कभी उधर, कहीं चैन नहीं आता और पीठ किसी दीवार के सहारे के सपने देखती है.

कुछ तो सफ़ेद बालों ही का विचार करके गम्भीर दिखने की कोशिश करनी पड़ती है वरना लोग कहे कि यह बूढ़ा तो बहुत मस्त है. कुछ काम का तकाजा भी है, जो तभी प्रारम्भ हो गया था जब डाक्टरी की पढ़ाई चल रही थी. मेडिकल कोलिज में आपस में जितना भी दँगा फसाद कर लीजिये, बाहर वालों के सामने तो शराफत और गम्भीरता ही दिखानी पढ़ती है. जैसे जैसे साल बीतते जाते हैं, यह गम्भीरता का चश्मा और मोटा बनता जाता है.

बचपन से मुझे गाने का बहुत शौक था. वैसे तो परिवार में मुझसे अच्छा गाने वाले कई लोग थे और शायद इसीलिए घर परिवार में शादी या पार्टी के मौके पर मुझे गाने के निमत्रण नहीं मिलते थे पर स्कूल और कालेज में अवश्य मित्र और अध्यापक कुछ गानों की फरमाइश करते रहते थे. कुछ गानों के लिए मित्र कहते कि "वाह यह तुम्हारा गाया हुआ तो किशोर कुमार या मुहम्मद रफी के मूल गाने से भी बढ़िया है" तो दिल खुशी से फ़ूल जाता.

नाचने का भी बहुत शौक था. दिल्ली में जानकी देवी कन्या कालेज के परिसर में एक मँच है. उस मँच पर शाम को जब कालेज की छात्राएँ घर चली जातीं तो मैं अपने आधुनिक नृत्यों के अभ्यास करता. जबकि गाने के लिए कोई मान भी लेता था कि हाँ मैं गा सकता हूँ, दुर्भाग्यवश मेरे आधुनिक नृत्यों को विषेश सराहना नहीं मिली और इस लिए मेरी यह कला ठीक से विकसित नहीं हो पायी.

पर बूढ़े और गम्भीर डाक्टरों को गाने या नाचने की अनुमति नहीं. वैसे भी यहाँ इटली में कौन सुनेगा मेरा हिंदी का गाना? नाचने के मौके कुछ मिलते हैं पर वह आधुनिक नृत्य के नहीं बल्कि इतालवी बालरूम नृत्य के, जैसे वाल्त्सर, रुम्बा, तारानतोला इत्यादि और उन सब में नियम से नृत्य करना होता है. एक पैर आगे, दूसरा पैर एक तरफ़, अब दायें घूमो, ... और यह अपने बस की बात नहीं. कभी साथ नाच रही पत्नी के पाँव को अपने पाँव से कुचलता हूँ कभी बाजू में नाच रहे अन्य युगलों से टकराता हूँ, लगता है कोई हाथी हूँ. तो जहाँ तक हो सके इस तरह के नाचों से कतराता हूँ.

इतने सालों से न गाने से, गले में जँग सा लग गया है. कभी घर में कोई न हो और खिड़कियाँ दरवाजे बंद करके कुछ गाने की कोशिश करूँ तो अपनी बेसुरी आवाज़ से आहत हो जाता हूँ. जाने कहाँ खो गयी वह मेरी सुरीली आवाज़!

खैर अंत में अपने गाने और नाचने के शौक को पूरा करने का एक बढ़िया तरीका खोजा है. काम पर साइकल से जाओ, कान में एमपी३ प्लेयर के इयरफोन लगाओ और सारे रास्ते धुनों को मन ही मन गुनगुनाओ. बाहर से अपने हाव भाव पर नियंत्रण रखो, चेहरा गम्भीर ही रहता है पर भीतर ही भीतर शरीर थिरकता रहता है. कभी कभी लोग जब मुड़ कर आश्चर्य से मेरी ओर देखते हैं तो समझ आता है कि शायद गम्भीरता का मुखौटा उतर गया हो. या तो गाने की धुन में सचमुच ऊँचे स्वर में गाने लगा हूँ या फ़िर साइकल चलाते चलाते, हाथ हैँडल पर तबले की तरह बजने लगे हैं या हवा में घूम कर तान ले रहे हैं.

और जब आसपास कोई न हो, जैसे शाम को बाग के किसी सुनसान कोने में, या फ़िर गैराज का दरवाजा बंद करके, या घर की सीढ़ियों पर, तो जल्दी से थोड़े से नाच के कुछ ठुमके और झटके भी लगा लेता हूँ.

बुधवार, जुलाई 25, 2007

गर्मियों की एक संगीतमय शाम

काम जल्दी जल्दी समाप्त किया और घर लौट आया क्योंकि रात को एक संगीत कार्यक्रम में भारत से आये त्रीलोक गुर्टू को सुनने जाना था. ऐसे ही एक कार्यक्रम में कुछ दिन पहले भी गया था, इतनी अधिक भीड़ थी कि कुछ दिखाई नहीं दिया, बस दूर से स्टेज पर नृत्य करते लोग रोशनी के बिंदू जैसे दिख रहे थे. बैठने की जगह भी नहीं थी और लोगों के कँधों के पीछे से उचक उचक कर देखने से थोड़ी देर में थक कर कार्यक्रम को छोड़ कर वापस घर आ गया था. इसलिए सोचा कि इस बार कम से कम एक घँटा पहले पहुँच कर कुछ आगे की कुर्सी खोजी जाये.

सँगीत का यह कार्यक्रम शहर के बीचों बीच पुराने भाग में हो रहा है जहाँ करीब 1700 वर्ष पुराना एक गिरजाघर है. वहाँ पर कार में जाना मना है इसलिए बस में जाना था. तैयार हो रहा था कि अचानक टेलिफोन आया. एक युवती की आवाज थी बोली की नगरपालिका के संस्कृति विभाग से बोल रही थी और शाम के समारोह के लिए मुझे मेयर की तरफ से निमत्रँण था. यानि इसबार कोई धक्का मुक्की नहीं बल्कि स्टेज के सामने पहली पँक्ति में शहर के जाने माने लोगों के साथ बैठ कर कार्यक्रम देखने का मौका मिल रहा था. मुश्किल से स्वयं पर काबू करके, मैंने यूँ दिखाया मानो बहुत से काम हों और सँगीत कार्यक्रम पर जाने का मेरे पास समय न हो, फ़िर मेयर साहब पर दया करते हुए बोला, अच्छा अगर इतना कर रहे हैं तो आने की कोशिश करूँगा.

तुरंत कपड़े दोबारा से बदले. अब अगर मेयर के साथ बैठना था तो आधी पैंट और टीशर्ट में काम कैसे चलता. सिल्क का कुर्ता निकाला और आराम से नहा धो कर, कार्यक्रम प्रारम्भ होने के समय वहाँ पहुँचा. नगरपालिका की युवती ने मुस्करा कर स्वागत किया और निमंत्रण स्वीकार करने के लिए धन्यवाद भी किया.



संगीत का कार्यक्रम था त्रीलोक गुर्टू के साथ चार इतालवी संगीतकारों का जिनमे से तीन वायलिन (कार्लो कोनतीनी, वालेंतीनो कोर्वीनो, सांद्रो दी पाओलो) बजाने वाले थे और एक बास यानि बड़ा भारी स्वर वाला वायलिन जैसा वाद्य, बजाने वाला (स्तेफानो देल आरा). गुर्टू जी प्रसिद्ध हिंदुस्तानी शास्त्रीय सँगीत गायिका शोभा गुर्टू के सुपुत्र हैं, तबला बजाते हैं और पिछले दस पँद्रह वर्षों में नवयुग सँगीत (New Age), विश्वसँगीत (World Music) जैसी विधाओं के लिए प्रसिद्ध हैं. तबले के साथ साथ अब उनका सँगीत विश्व के अन्य देशों से विभिन्न तबले या ढोल से मिलते जुलते विभिन्न वाद्यों का प्रयोग भी होता है और साथ ही घुँघरू, सीपियाँ, बाल्टी, इत्यादि चीज़ो से भी सँगीतमय ध्वनियों का प्रयोग भी होता है.



मुझे वायलिन सुनना अच्छा लगता है पर साथ ही लगता है कि वायलन दुखभरा सँगीत बनाता है. यह सोच इस सँगीत कार्यक्रम से बदल गयी. वायलिन को विभिन्न तरीकों से बजाना यह पहले बार देखा कि वायलिन का सँगीत तार खींचने, वायलिन को तबले की तरह बजाने, वायलिन में मुँह डाल कर भीतर गाने जेसे तरीकों से भी हो सकता है.



गुर्टू जी के तबले में भी जादू है और विभिन्न वाद्यों पर उनकी पकड़ बहुत बढ़िया है. सब अलग अलग वाद्यों को मिला कर उनका सँगीत साथ मिलाना और पश्चिमी शास्त्रीय संगीत से तबले का मिलन, बहुत सी बातों में वह निपुण है. सँगीत कार्यक्रम बहुत अच्छा लगा. तालियाँ बजा बजा कर हाथ थक गये पर बहुत सालों के बाद इतनी सुंदर सँगीत की महफ़िल में भाग लेने का मौका मिला.

कलाकारों के बजाये बढ़िया सँगीत को सामने सुनने का अनुभव, घर में कोई सीडी सुनने से बिल्कुल भिन्न है.

बस एक छोटी सी बात ही नहीं जँची, गुर्टू जी के चेहरे का भाव. शायद ज़ाकिर हुसैन जैसे तबला कलाकारों का असर हो, पर मुझे तबला बजाने वाले के चेहरे पर आनंद का भाव देखने की उम्मीद थी, जबकि बजाते हुए गुर्टू जी का चेहरा कुछ यूँ था मानो कब्ज हो या पेट में दर्द हो! यह भी है कि उन्हें कुछ माइक्रोफोन की परेशानी थी जो बार बार तबले से हट जाता था या फ़िर अन्य वाद्यकारों के साथ सुर मिलाने के ध्यान अधिक चाहिये होगा, पर मुझे लगा कि अगर वह कुछ हँस कर बजाते तो और भी अच्छा लगता.

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शाम समाप्त हुई तो करीब बारह बज रहे थे. वापस लौटते समय नेतूनो स्कावयर के पास से गुजरा तो नेतोनू का फुव्वारा अँधेरे में धीमी रोशनी में जुगनू जैसा चमक रहा था, उसके आस पास अँधेरे में नवजवान बैठे थे. करीब ही, वहाँ के खुले चौबारे में अमरीकी अभिनेता वूडी एलन की कोई फिल्म दिखाई जा रही थी और बहुत भीड़ थी.

अगले सप्ताह वहाँ पर हिंदी की फिल्म "वीर ज़ारा" दिखाने वाले हैं, मालूम नहीं कि उसे देखने भी इतनी भीड़ जमा होगी. ३० जुलाई को एक अन्य भारत से सम्बंधित सँगीत कार्यक्रम है, "ओली एंड द बोलीवुड ओर्केस्ट्रा" (Olli and the Bollywood Orchestra). यानि कि अगले सप्ताह भी कुछ शामें अच्छी गुजरेंगी.

गुरुवार, जुलाई 19, 2007

रँग दे, मोहे रँग दे - स्वयं की तलाश

"आप ने तो मेरा दिल ही तोड़ दिया", वह बोली.

मैंने उससे कहा था कि उसे ठीक से जानने से पहले मुझे उससे कुछ डर सा लगता था.

उसका सिर गँजा है, केवल सिर के बीचों बीच बालों की लाल रँग की मुर्गे जैसी झालर है, कानों में, नाक में, होठों के नीचे, जीभ पर रँग बिरँगे पिन हैं, बाहों पर डिज़ाईन गुदे हैं. जब भी कोई भारतीय साँस्कृतिक कार्यक्रम हो, वह अवश्य आती है, साथ में अपना कुत्ता लिये, अपने जैसे साथियों के साथ. जहाँ वे लोग बैठते हैं, आसपास कोई नहीं बैठना चाहता, सब लोग दूसरी ओर हट जाते हैं.

उन्हें देख कर मन में ईण्लैंड और जर्मनी के गँजे सिर वाले स्किन हैडस (skin heads) की छवि बनती थी, जो अक्सर प्रवासियों पर हमले करते थे, उन्हें मार कर अपने देशों में वापस लौट जाने को कहते थे. यहाँ बोलोनिया में उन्हें पँका-आ-बेस्तिया (Punk-a-bestia) कहते हैं, यह शब्द अँग्रेजी के पँक और इतालवी का बेस्तिया यानि जानवर को मिला कर बना है.

उसे भारतीय संस्कृति से बहुत लगाव है. "देखो मेरी पीठ पर मैंने ॐ लिखवाया है", उसने मुझे दिखाया. उसे शिकायत थी कि मैं भी अन्य इतालवी लोगों की तरह उसके बाहरी रूप पर ही रुक गया था, "तुम्हारे यहाँ लोग हाथों पर, पैरों पर, मैंहदी नहीं लगाते क्या? बाहों पर नाम नहीं गुदवाते क्या? यह सब मैंने भारत में ही देखा था और वहाँ से ही मुझे यह प्रेरणा मिली है."

पँका-आ-बेस्तिया अपने आप को समाज के दायरे से बाहर कर लेते हैं, पुराने खाली घरों में या फुटपाथ पर रहते हैं, सँगीत और स्वतँत्रता से प्यार करते हैं, समाज का कोई नियम नहीं मानते.उनके लिए जीवन का ध्येय पैसा कमाना, विवाह करना, घर बसाना आदि नहीं, बल्कि वह करना है जिसको करने को उनका दिल चाहे.

बोडी आर्ट यानि शरीर कला में मानव शरीर ही कलाकार का चित्रपट बन जाता है. शरीर को गुदवाना या शरीर को बोडी आर्ट (body art) के रँगों से सजाना तरीके हैं ध्यान खींचने का, यह दर्शाने का कि हम सबसे भिन्न हैं. इनकी प्रेरणा शायद इन्हें भारत से मिलती हो पर भारत में यह हमारे जीवन के, सँस्कृति के हिस्से हैं, विभिन्नता का माध्यम नहीं.

सब लोग केवल समाज के नियम तोड़ने के लिए ही अजीब गरीब भेस बनाते हों, ऐसा नहीं. आजकल मीडिया और संचार की दुनिया है, आप जितना अजीबोगरीब होंगे, उतना ही लोग आप की तस्वीर खींचेगे, छापेंगे या टीवी पर दिखायेगें. जैसे अमरीकी बास्किटबाल लीग एनबीसी के खिलाड़ी डेनिस रोडमैन जिनके रँग बिरँगे सिर की वजह से उनके लिए टीवी और पत्रिकाओं में जगह की कमी नहीं रहती, चाहे वे जैसा भी खैंले!

इन्हीं विचारों से जुड़ी कुछ तस्वीरें प्रस्तुत हैं जिनमें दायरों से बाहर निकल कर अपने स्वयं की तलाश का चित्रण है.



बोडी आर्ट (Body art) का एक भारतीय नमूना हुसैन की फ़िल्म मीनाक्षी से


रोडमैन का रँग बिरँगा सिर


बोलोनिया का एक पँका-आ-बेस्तिया




रँग बिरँगी बोडी आर्ट

आस्ट्रेलिया की कलाकार एम्मा हेक द्वारा भारतीय कला से प्रभावित सजाई गयी मोडल निकोल जेम्स

शनिवार, जुलाई 07, 2007

मैं पिता हूँ या माँ?

यहाँ के स्थानीय समाचार पत्र में दो बातों ने ध्यान खींचा. एक तो था पूरे पृष्ठ का विज्ञापन, जिस पर बड़ा बड़ा लिखा था, "साहसी पिता - पुरुष जो बदलते हैं, दुनिया बदल सकते हैं". विज्ञापन का ध्येय है कि घर के कामों का बोझ केवल स्त्री पर नहीं होना चाहिये बल्कि पुरुष को घर के उन कामों में हाथ बँटाना चाहिये जो अधिकतर लोग "नारी कार्य" के रूप में देखते हैं जैसे कि सफाई करना, कपड़े धोना, बच्चों की देख भाल करना और उनके साथ खेलना.



दूसरी ओर एक समाचार अमरीका से भी था, "थरथराईये, सुपर पिता आ रहे हैं", यानि वे नव पिता जो अपने पिता होने को बहुत गम्भीरता से लेते हैं, इतनी गम्भीरता से कि वह माँ को कुछ नहीं करने देते और बच्चे के सभी काम स्वयं करते हैं. उन्होंने इन पिताओं को "Mom blocker" यानि कि माँ को रोकने वाले बुलाया है. बच्चे के बारे में छोटे बड़े सभी निर्णय वह स्वयं लेते हैं और माँ को बीच में दखलअंदाज़ी की अनुमति नहीं देते. इन पिताओं का ही एक उदाहरण हैं श्री ग्रेग एलन जिनका चिट्ठा है डेडीटाईपस (Daddytypes) और जो स्वयं को सुपरमामो (Supermammo)कहते हैं, यानि माँ से बढ़ कर माँ. समाचार का कहना है कि बहुत से माँए इन पतियों से बहुत परेशान हैं.

सोच रहा था कि क्या पुरुष और नारी का घर में अलग अलग रोल होना कहाँ तक ठीक है और कहाँ गलत? परम्परा कहती है कि पुरुष है नौकरी करने वाला, घर में काम नहीं करेगा, अनुशासन का प्रतीक, बच्चों के काम में घर में वह कुछ नहीं करेगा, आदि और नारियों के लिए इसका उलटा. पर आज के वातावरण में यह सँभव नहीं, शहरों में बहुत सी औरतों के लिए नौकरी करना आज आम बात है, चाहे वह आर्थिक जरुरत हो या व्यक्तिगत निर्णय, तो पुरुष को चाहते या न चाहते हुए भी कुछ तो बदलना ही पड़ता है. ऐसे पुरुष जो हर बात में बराबर काम बटाँयें तो कम ही होंगे, चाहे पत्नी का काम कितना ही कठिन क्यों न हो, घर की अधिकतर जिम्मेदारी उसी पर रहती है. प्रश्न है कि क्या इसको बदलना चाहिये या बदलने की कोशिश करनी चाहिये?

बदलाव तो धीरे धीरे आयेगा ही. यहाँ करीब 40 प्रतिशत विवाह तलाक में समाप्त होते हैं, और अकेला रहने वाला पुरुष, चाहे या न चाहे, उसे बदलना तो पड़ता ही है. तलाक लेने वालों में करीब 20 प्रतिशत पुरुष के बच्चे पिता के साथ रहते हैं, तो उसे माँ और पिता दोनो बनना ही पड़ता है, हाँ इसमें वह कितना सफल होता है या विफल, यह अलग बात है.

बिना विवाह के साथ रहने वाले युगल भी बहुत हैं और तेजी से बढ़ रहे हैं. इस तरह के परिवार जहाँ अविवाहित युगल रहते हैं, शौध ने दिखाया है कि उनमें पुरुष और स्त्री दोनो को बराबर काम बाँट कर करना पड़ता है और स्त्री पर घर के काम का बोझ कम होता है.

पर इन सबसे अलग भी एक बात है. मेरे विचार में हर मानव में पुरुष और नारी के गुण होते हैं पर बचपन से ही हमें "पुरुष ऐसे करते हैं", "नारियाँ वैसे करती हैं" के सामाजिक नियम सिखाये जाते हैं और इन सीखे हुए रोल से बदलना भीतर ही भीतर हमें अच्छा नहीं लगता क्योंकि मन में डर होता कि लोग क्या सोचेगें, क्या वे सोचेंगे कि मैं पूरा पुरुष नहीं या अच्छी स्त्री नहीं. काम करने वाली औरतें अपने अपराध बोध की बात करती हैं कि बच्चों का ध्यान ठीक से नहीं दे पातीं. लेकिन जब चाहे न चाहे, परिस्थितियाँ हमें मजबूर करती हैं कि हम अपने पाराम्परिक रोल की सीमा से बाहर जायें तो हम सचमुच अपने व्यक्तित्व को उसका स्वतंत्र रूप दे सकते हैं, अपने भीतर के नारी और पुरुष भाग को स्वीकार कर सकते हैं. एक बार इस स्वतंत्रता का अहसास हो जाये तो फ़िर हमें लोग क्या कहेंगे इसकी चिंता भी कम होती है.

शुक्रवार, जुलाई 06, 2007

अगर आप अविवाहित हैं

अगर आप की शादी नहीं हुई और शादी करने की सोच रहें हैं तो फटाफट कल सात जुलाई को अपनी शादी करिये. यह सलाह दे रहें हैं दुनिया भर के न्यूमोरोलोजिस्ट यानि अँकों के हिसाब से भविष्य बताने वाले. क्यों? क्यों कि कल 07/07/07 तारीख है और सात बहुत शुभ अंक है. सात दुनिया के आश्चर्य हैं, सात तारे हैं सप्तऋषी में, यह कहना है उनका.

शादी का सबसे बढ़िया महूर्त है सुबह सात बजे और शाम को सात बजे. लोगों ने इस दिन विवाह करने के लिए शादी के हाल, गिरजाघर आदि की बुकिंग कई साल पहले से कर रखी थी. लास वेगास में बुकिंग का जोर अन्य जगहों से अधिक है. लिटिल व्हाईट वेडिंग चेपल में सामूहिक विवाह होंगी, जिसमें हर बार में सात युगल एक साथ विवाह बँधन में बधेंगे, शादी की फीस होगी 77 डालर और गिरजाघर इसी फीस में शादी के साथ साथ उन्हें सात फ़ूलों का गुलदस्ता देगा और सात मुफ्त फोटो भी.

खैर अगर आप सो रहे थे और आप इस दिन अपनी शादी पक्की करना भूल गये तो घबराईये नहीं, अगले साल दो विषेश दिन हैं विवाह के लिए 06/07/08 और 08/08/08.

यह उन्होंने नहीं कहा कि 6,7,8 अंक साथ आने का क्या विषेश पवित्र अर्थ है? शायद भगवान को पत्तों का शौक है और इस नम्बर को पाने वाला किस्मत की बाजी जीत जायेगा? यह भी नहीं कहा कि आठ नम्बर का तीन बार आने से क्या विषेश महत्व है? शायद इस लिए कि अष्टमी को देवी का दिन होता है, या फ़िर सप्त ऋषी के साथ ध्रुव तारा मिलने से आठ तारे बन जाते हैं या फ़िर कोई और वजह होगी जिसे आप जैसे मंदबुद्धि वाले लोग नहीं समझ सकते.

अगर आप तारीख को 07/07/2007 लिखते हैं तो आप के लिए यह दिन उतना शुभ नहीं रहेगा क्योंकि आप ने 2 को बीच में डाल कर सात की शुभता पर पत्थर मारा है.

यहाँ हम यूँ ही कोसते रहते हैं कि ज्योतिषियों, अन्धविश्वासियों ने भारत का बुरा हाल किया है, उधर सारी दुनिया में होने वाली धक्का मुक्की देख कर लगता है कि उनके नयूमरोलोजिस्ट किसी ज्योतिषी से कम नहीं. अब किसी भारतीय ज्योतिषी के प्रवचन का इंतजार है जो हमें समझा सके कि भारतीय ज्योतिष किस तरह से इन दो दो चार गिनने वालों से अधिक ऊँचा है और भविष्यवाणी करे कि किस तरह 07/07/07 को शादी करने वालों के सबके तलाक 08/08/08 तक हो जायेंगे.

बुधवार, जुलाई 04, 2007

गुँडागर्दी का इलाज

अँग्रेजी अखबार द फाईनेंशियल टाईमस में एक चिट्ठी छपी जिसमें फिल्मों में बढ़ती हुई मार काट और हिँसा के बारे में चिंता व्यक्त थी. अखबार के एक लेखक श्री टिम हारफोर्ड ने इस पत्र के उत्तर में लिखाः

"यह आवश्यक नहीं कि हिँसक फिल्मों से समाज में हिँसा पैदा होगी. जब गुँडे या मारधाड़ करने वाले लोग हिँसक फिल्म देखने जाते हैं तो न बियर पीते हैं न आपस में मार पिटाई करते हैं. दो अर्थशास्त्री, गोर्डन डाह्ल और स्टेफानो देला वीन्या ने एक शोध में पाया है कि जब मल्टीपलैक्स में हिँसक फिल्में दिखाई जाती हैं, तो आसपास के इलाके में शाम से ले कर सुबह तक के समय में अपराध कम हो जाते हैं. पर अगर कोई रोमानी फिल्म दिखाई जाती है, तो गुँडा टाईप के लोग पब में जा कर अधिक बियर पीते हैं और उनके मार पिटाई करने का अनुपात बढ़ जाता है. डाह्ल और वीन्या के शौध के अनुसार, हिँसक फिल्में अमरीका में प्रति दिन, कम से कम 175 अपराध कम करने में मदद करती हैं."

यानि कि आप के शहर में गुँडागर्दी अधिक हो तो, सिनेमा हाल वाले से कहिये कि जितनी हिँसा से भरी फिल्म दिखा सकता है दिखाये. पर इस शौध से यह पता नहीं चलता कि यह बात केवल अमरीका के गुँडों के लिए सही है या फ़िर भारतीय गुँडों पर भी लागू हो सकती है? आप का क्या विचार है?

दूसरी बात तुरंत प्रभाव और लम्बे प्रभाव की है. यह हो सकता है कि तुरंत प्रभाव में हिँसक फिल्म देख कर गुँडों की हिँसा भावना तृप्त हो जाये पर यह तो नहीं कि बढ़ी हिँसा देखने के बाद जब भी हिँसा का मौका आयेगा, वह अधिक हिँसक हो जायेंगे?
जिस तरह अमरीका सारी दुनिया में यहाँ वहाँ हमले करते रहता है वह भी हिँसक फिल्मों का लम्बा प्रभाव तो नहीं? यानी शौध की जानी चाहिये कि बुश जी और डोनाल्ड रम्सफेल्ड जैसे उनके युद्धप्रेमी साथियों को किस तरह की फिल्में देखना पसंद है, रोमानी या मारधाड़ वाली?

***

चालाक भिखारी

दो सप्ताह पहले की बात है. लिसबन हवाई अड्डे से बाहर निकला और टैक्सी की लाईन की ओर बढ़ रहा था कि एक युवती आयी. हाथ से खींचती सामान की ट्राली, बोलने में हल्की सी हिचकिचाहट, बोली कि उसका पर्स खो गया है और उसे मैट्रो लेने के लिए केवल एक यूरो चाहिये. सोचा कि बेचारी यात्री है जिसका यात्रा में पर्स खो गया होगा, तुरंत उसे पाँच यूरो का नोट दिया. फ़िर जब तक टैक्सी की लाईन में खड़ा रहा, उसे देखता रहा, कि वह वही कहानी हर आने वाले को सुनाती थी, और बहुत से लोगों ने उसे पैसे दिये. उस दस पंद्रह मिनट में ही उसने बहुत पैसे बना लिए थे.

एक बार फ़िर भीख माँगनें वालों ने नये तरीके से मुझे हरा दिया था.

कुछ भी हो भीख नहीं दूँगा, यह सोचता हूँ और किसी नवयुवक तो कभी भी नहीं. जाने क्यों मन में लगता है कि नवयुवक पैसे ले कर नशे का सामान खरीदते हैं. नशे की आदत से मरना अगर उनकी किस्मत है तो उसमें मैं क्या कर सकता हूँ पर कम से कम इतना तो कर सकता हूँ कि मैं उसमें योगदान न दूँ!

इस बात से एक और दुख था कि अगली बार हवाई अड्डे पर कोई मदद माँगेगा तो मन में शक ही होगा कि ड्रामा तो नहीं कर रहा. हर जगह पहले से ही शक होता जब बस या ट्रेन स्टेशन पर कोई इस तरह से टिकट खरीदने के लिए पैसे माँगता है.

फ़िर कल शाम को काम से वापस आ रहा था कि एक नया दृश्य देखा. एक युवक सड़क के किनारे बैठा था. साथ में कुत्ता. सामने उसकी टोपी पैसों के लिए रखी हुई थी और एक कागजं पर साथ में लिखा था, "मेरी मदद कीजिये". और वह युवक एक किताब पढ़ने में मग्न था. आने जाने वालों को नजर उठा कर भी नहीं देख रहा था. मुझे उसकी यह बात पसंद आयी, मन में सोचा कि किताब पढ़ने के प्रेमी भिखारी की मदद की जा सकती है! शायद बेचारे के पास किताबें खरीदने के लिए पैसे नहीं थे!

रविवार, जुलाई 01, 2007

टिप्पणियों की धूँआधार बारिश

आज हिंदी अभिनेता आमिर खान का चिट्ठा देखा, द लगान ब्लोग (The Lagaan Blog). 29 जून को उन्होंने चिट्ठा लिखा "घजनी" के शीर्षक से, और इन दो दिनों में इस चिट्ठे को मिली हैं 766 टिप्पणियाँ, वह भी छोटी मोटी टिप्पणियाँ नहीं कि किसी ने एक दो वाक्य लिखे हों, बल्कि कई लोगों की टिप्पणियाँ चिट्ठे से अधिक लम्बी हैं.

यह सच भी है कि जाने पहचाने प्रसिद्ध लोग क्या कहते हैं, क्या सोचते हैं, कैसे वे फ़िल्मे बनती हैं जिनके हम सब दीवाने होते हैं, यह सब बातें बहुत दिलचस्प लगती हैं और सुप्रसिद्ध अभिनेता द्वारा लिखी बात पढ़ना, फ़िल्मी पत्रिकाओं में छपे साक्षात्कारों से अधिक दिलचस्प लगता है.

पर अगर आमिर खान की तरह अन्य जनप्रिय अभिनेता और अभिनेत्रियाँ अगर चिट्ठे लिखने लगेंगे तो फ़िल्मी पत्रिकाँए कौन पढ़ेगा? पर शायद इसका खतरा अधिक नहीं क्योंकि मेरे विचार में ढँग से चिट्ठा लिखने के लिए कुछ दिमाग चाहिये और मुझे जाने क्यों लगता है कि बहुत से प्रसिद्ध अभिनेता फ़िल्में में ही अच्छे लगते हैं, उनकी बातें सुन कर मन में बनी उनकी छवि टूट सकती है. अधिकतर अभिनेताओं का आत्मकेंद्रित जीवन बोर करने वाला लगता है.

और अगर वह लोग परदे के पीछे हो रहे काम के बारे में या अपनी भावनाओं के बारे में सच सच लिखने लगे तो शायद उन्हें काम मिलना ही बंद हो जाये. जैसे कि सोचिये कि कोई अभिनेत्री लिखे कि सुल्लु मियाँ यानि सलमान खान के साथ गाने का सीन बड़ा कष्टदायक था क्योंकि शायद वह सुबह दाँत ब्रश करना भूल गये थे तो क्या आगे से सलमान जी उस अभिनेत्री के साथ काम करेंगे?

पर अगर आमिर जैसे प्रसिद्ध लोग हिंदी में चिट्ठा लिखें तो इससे हिंदी चिट्ठा जगत को बहुत लाभ होगा, सामान्य जनता में हिंदी का मान भी बढ़ेगा और हिंदी चिट्ठा जगत नाम की किस चिड़िया का नाम है, यह मालूम भी चलेगा.

इटली में सबसे प्रसिद्ध चिट्ठा लेखक श्री बेपे ग्रिल्लो (Beppe Grillo) जी भी अभिनेता हैं. अभिनेता के रूप में वह अपनी कामेडी और व्यंग के लिए अधिक प्रसिद्ध थे. पर चिट्ठाकार के रूप में उन्होंने इतालवी जन सामान्य का ध्यान बहुत सी समस्याओं की ओर खींचा है और समाजसुधारक चिट्ठाकार के रूप में जाने जा रहे हैं. उनके चिट्ठों पर भी कई सौ टिप्पणियाँ मिल जाती हैं. उनका नया अभियान है इतालवी संसद में सजा पाये अपराधी संसद सदस्यों की ओर ध्यान खींचना ताकि संसद इन लोगों को कानून से न बचाये.

शनिवार, जून 30, 2007

विभिन्नता का गर्व

हर वर्ष की तरह फ़िर से बहस हो रही है कि वार्षिक समलैंगिक गर्व परेड को शहर में प्रदर्शन की अनुमति दी जाये या नहीं. करीब तीस साल पहले, 1978 में बोलोनिया में पहली समलैंगिक केंद्र खुला था, जो इटली में अपनी तरह का पहला केंद्र था. तब से बोलोनिया ने खुले, सहिष्णु शहर की ख्याती पायी है पर इस सब के बावजूद हर वर्ष वही बहस, यानि कि बहुत से लोगों के मन में बसे विचार जो समलैंगिगता को गलत मानते हैं और उसे स्वीकार नहीं करना चाहते, वह बहुत गहरे हैं और इतनी आसानी से नहीं बदलते.

कुछ लोग कहते हैं कि मान लिया कि समलैंगिक लोग भी हैं, उनके अधिकार भी हैं पर वह चुपचाप अपने आप में क्यों नहीं रहते, उनका इस तरह सड़क पर "गर्व परेड" करने का क्या अर्थ है? यानि अगर रहना ही है तो चुपचाप रहिये, शोर नहीं मचाईये, न ही सबके सामने उछालिये कि आप विभिन्न हैं, कोई आप को कुछ नहीं कहेगा. पर यह सच नहीं है. समाज में बहुत भेदभाव है, जब तक दब कर, चुप रह कर, छुप कर रहो, वह भेदभाव सामान्य माना जाता है, उससे लड़ना संभव नहीं होता. अगर मिलिटरी वाले परेड कर सकते हैं, पुलिस, स्काऊट, सर्कस वाले, कलाकार, विभिन्न श्रेणियों के लोग सबके सामने प्रदर्शन करते हैं, अपनी बात रखते हैं तो समलैंगिक लोगों को यह अधिकार क्यों न हो. बल्कि मैं मानता हूँ कि समलैंगिक गुटों की तरह अन्य अम्पसंख्यक और समाज से दबे सभी गुटों को यह अधिकार होना चाहिये जैसे प्रवासी, विकलाँग, अन्य धर्मों को लोग, इत्यादि.

यह बहस सिर्फ इटली में ही नहीं हो रही. पूर्वी यूरोप के बहुत से देश जो कई दशकों के बाद सोवियत प्रभाव और कम्युनिस्म से बाहर निकले हैं, वहाँ भी यही बहस चल रही हैं और कई देशों में इस तरह के प्रदर्शनों को सख्ती से दबाया जा रहा है. वहाँ यह भी कहा जा रहा है कि "यह समलैंगिकता हमारी सभ्यता में ही नहीं है, यह तो केवल यूरोप की गिरी हुई सभ्यता के सम्पर्क में आने से हो रहा है कि हमारे यहाँ भी इस तरह की बीमारियाँ फ़ैलने लगी हैं.". उनका मानना है कि इस छूत की बीमारी है जो उसके बारे में बात करने से फ़ैलती है. इन वर्षों में रूस, पोलैंड, लेटोनिया, लिथुआनिया जैसे देशों में समलैंगिक गर्व परेड में भाग लेने वालों पर हमले किये गये, कभी पुलिस ने मारा, तो कभी राष्ट्रवादी कट्टरपंथियों ने और पुलिस चुपचाप देखती रही.

बहुत देशों में समलैंगिक सम्पर्क को कानूनन अपराध माना जाता है जैसे कि भारत में, जहाँ कुछ समय से यह कानून बदलने के लिए अभियान चल रहा है. इटली में यह कानून 1887 में हटा दिया गया था और 2003 में नया कानून बना जिससे उनके साथ काम के स्थान पर भेदभाव नहीं किया जा सकता, पर आज भी इटली में मिलेटरी तथा पुलिस में समलैंगिक लोगों को जगह नहीं मिलती. कुछ दिन पहले ब्रिटेन ने नया कानून बना कर मिलेटरी तथा पुलिस में समलैंगिक लोगों के साथ होने वाले भेदभाव को समाप्त किया है. पोलैंड में यह कानून 1932 में बदला गया, रूस में 1993 में, पर दोनो जगह कानून सही होते हुए भी भेदभाव बहुत है.

अमरीकी रंगभेद से लड़ने वाले अश्वेत लोगों ने संघर्ष का यह तरीका बनाया था कि जिस कारण से भेदभाव होता है उसी को गर्व का विषय बना दो. इस तरह काले-गर्व यानि Black Pride की बात उठी थी. विकलाँग लोगों ने भी, क्रिपल (cripple) जैसे शब्दों को ले कर उन्हें गर्व के शब्द बनाने की कोशिश की है. समलैंगिक गर्व परेड की कहानी 28 जून 1968 में न्यू योर्क के स्टोनवाल बार इन्न (Stonewall Bar Inn) पर पुलिस से हुई लड़ाई से प्रारम्भ हुई थी.

मैं सोचता हूँ हर तरह का भेदभाव चाहे वह हमारे रंग से हो, हमारी यौन प्रवृति से, हमारे शरीर के विकलाँग होने से, या हमारे धर्म से, या सोचने की वजह से, सब भेदभाव मानवता को कमजोर करते हैं और हम सबको मिल कर उनका विरोध करना चाहिये.

आज की तस्वीरों में बोलोनिया की पिछले वर्ष की समलैंगिक गर्व परेड.







शुक्रवार, जून 29, 2007

मैं हिना हूँ

हिना २२ साल की पाकिस्तानी मूल की थी. पिछले वर्ष उसके पिता और चाचा ने मिल कर उसे मार दिया. उस पर आरोप था कि वह अपनी सभ्यता को भूल कर पश्चिमी सभ्यता के जाल में खो गयी थी, क्योंकि वह अपने इतालवी प्रेमी और साथी ज्यूसेप्पे के साथ रहती थी. (तस्वीर में हिना)



कल हिना का मुकदमे की ब्रेशिया शहर की अदालत में पहली पेशी थी. सुबह अदालत के बाहर करीब सौ मुसलमान युवतियाँ एकत्रित हो गयीं, उनके हाथ में बैनर था जिस पर लिखा था, "मैं हिना हूँ". कुछ राजनीतिक पार्टियों के लोग भी थे वहाँ और टुरिन शहर के ईमाम भी थे. उन सब का यही कहना था कि इस्लाम का अर्थ केवल बुर्का या पिछड़ापन नहीं है, हम लोग भी मुसलमान हैं और हमें अपनी तरह से जीने का हक मिलना चाहिये.

उदारवादी प्रशासनों के लिए प्रश्न है कि किस तरह से वह विभिन्न धार्मिक मान्यताओं का मान रखते हुए मानव अधिकारों का भी उतना ही मान रखें? इससे पहले बहुत बार विभिन्न धार्मिक प्रतिबँधियों ने विभिन्न शहरों के प्रशासनों से माँग की हैं कि उन्हें अपने धर्म का पालन करने की और अपनी सभ्यता के अनुसार रहने की पूरी स्वतंत्रता चाहिये, जैसे कि मुसलमान औरतों को बुर्का पहनने की स्वतंत्रता हो, सिख पुरुषों को पगड़ी पहनने की, इत्यादि.

पर कल हिना के मुकदमें के साथ हो रहे प्रदर्शन में स्त्रियों का कहना था कि प्रशासन इस तरह की माँगों को मान कर मुसलमान स्त्रियों को रूढ़ीवादी पुरुष समाज के सामने निर्बल छोड़ देता है, और स्त्रियों को घर में बंद करके रखा जाता है, यह करो यह न करो के, यह पहनो यह न पहनो, जैसे आदेश दिये जाते हैं जो कि उनके मानव अधिकारों का हनन हैं.

बुधवार, जून 27, 2007

तारों का शहर

बिसाऊ तारों का शहर है. रात को सारा आसमान तारों से इस तरह भर जाता है मानो थाली में मोती बिखरे हों. इस तरह का आसमान देखने की आदत ही नहीं रही. बचपन में होता था इस तरह का आसमान. आजकल यूरोप में तो कहीं से आसमान में इतने तारे नहीं दिखते क्योंकि रात को हर तरफ इतनी बिजली की रोशनी रहती है कि उसकी चमक के सामने अधिकतर तारे छुप जाते हैं. बिसाऊ में यह दिक्कत नहीं होती, देश की राजधानी है पर यहाँ बिजली नहीं है. होटल आदि में जहाँ लोग विदेशी मुद्रा में बिल भरते हें, जेनेरेटर लगे हैं और सब सुख हैं. पर सड़कों पर रात को एक भी बत्ती नहीं जलती. घरों में भी सब घरों में बिजली नहीं अगर हो भी, तो भी अधिकतर समय बिजली काम नहीं करती और बिना जेनेरेटर वाले घरों में मिट्टी के तेल की लालटेन ही जलती हैं.

परसों रात को थकान और बियर की वजह से बाहर ध्यान से नहीं देखा था पर कल रात को वापस होटल आ रहे थे तो लगा कि कितना अँधेरा हो सकता है दुनिया में. गाड़ी की हेडलाईट में हर तरफ लोग दिखते थे, अँधेरे में टहलते, आपस में बातें करते, बाँहों में बाँहें डाले, बैंच पर बैठे. विक्टर कहता है कि गृहयुद्ध से पहले देश ने कुछ तरक्की की थी पर इस लड़ाई ने सब कुछ नष्ट कर दिया. युद्ध के बाद लड़ने वाले दो गुटों ने मिल कर सरकार बनाई है पर कोई सरकार अधिक दिन नहीं चलती और कुछ कुछ महीनों में सब मँत्री आदि बदल जाते हें.

कोई उद्योग नहीं हैं. देश का सबसे बड़ा उत्पादन है काजू और मछलियाँ. दक्षिण में कुछ बाक्साईट के खाने हैं. काजू का व्यापार भारतीय मूल के लोगों के हाथ में है. पिछले कुछ वर्षों में बाकि अफ्रीका से यहाँ भारतीय मूल के लोग आये हैं और उन्होने दुकाने खोली हैं. चीनी लोग कम ही हैं. विक्टर कहता है कि भारतीय मूल के लोगों के प्रति आम लोगों मे कुछ रोष है, क्योंकि यूरोपीय लोगों की तरह से वह भी यहाँ सिर्फ पैसा कमाने आये हैं, यहाँ के लोगों से मिलते जुलते नहीं और आपस में ही मिल कर अलग से रहते हैं. पिछले कुछ सालों में यहाँ भारतीय फिल्मों की डिवीडी भी बहुत चल पड़ी हैं.

***
पेट में अभी भी थोड़ा थोड़ा दर्द है पर आज बिस्तर में लेटने का दिन नहीं है. रोज़ की तरह, आज भी नींद सुबह पाँच बजे ही खुल गयी. इस शरीर की आदतों को बदलना आसान नहीं. रात को कम सोया, सुबह कुछ देर और सो लेता तो अच्छा था, मालूम है कि सारा दिन फ़िर नींद आती रहेगी, पर शरीर के भीतर जो घड़ी है वह तर्क नहीं सुनती. कुछ देर बिस्तर में करवटे लेने के बाद उठ गया, सोचा कि डायरी में कुछ जोड़ दिया जाये.

यहाँ की बत्ती फ़िर सुबह चली गयी और तब से जेनेरेटर ही चल रहा है, पर मेरे जैसे पैसे दे सकने वाले आगंतुकों के अलावा यहाँ रहने वाले किस तरह आधा समय बिना बिजली के जीते हैं, यह बात मन में आ रही थी. टेलीविजन पर एक ही अग्रेजी चैनल है, सीएनएन जिससे मुझे अधिक लगाव नहीं है, पर दुनिया में क्या हो रहा इसे मालूम करने के लिए उसे देखने की कोशिश कई बार की पर हर बार टीवी पर आता है "यह सिगनल इस समय उपलब्ध नहीं है, बाद में कोशिश कीजिये". "सीएनएन क्यों नहीं आ रहा, यह चीज़ ठीक काम क्यों नहीं कर रही, ड्राईवर ठीक समय पर क्यों नहीं आया", जैसे अपने विचारों से थोड़ी सी शर्म आती है कि यहाँ एक कमरे का जितना किराया एक दिन का देता हूँ, वह यहाँ बहुत से रहने वालों की दो महीने की पगार है. इस होटल में रहने वाले सभी विदेशी हैं, चाहे उनकी चमड़ी गोरी हो या भूरी या काली. सबको लेने गाड़ियाँ आती हैं, सब काले बैग सम्भाले इधर उधर मीटिंगों में व्यस्त हैं.

पर जैसे यहाँ के लोग रहते हैं वैसे रहना पड़े तो दो दिनों में ही मेरी छुट्टी हो जाये. कल शाम को बाहर इंटरनेट की दुकान खोजते हुए कुछ चलना पड़ा था तो थोड़ी देर में ही गरमी से बाजे बज गये थे. वहाँ अपनी ईमेल देख कर वापस आया तो सारा शरीर पसीने से नहाया था और कमरे में आ कर निढ़ाल हो कर बिस्तर पर लेट गया था.

***
एक विकलाँग पुनर्स्थान कार्यक्रम को देखने गये. उनका भी बुरा हाल था. वहाँ काम करने वाले एक युवक ने दीवार पर लगे युनिसेफ के पोस्टर की ओर इशारा किया, बोला, "देखिये युनिसेफ के इस पोस्टर को, जिस बच्ची की तस्वीर लगी है वह बाहर बैठा है. उनका फोटोग्राफर आया और तस्वीर खींच कर ले गया. उसका पोस्टर बनवाया है, पर हमें और उस बच्ची को क्या मिला? वह बच्ची अभी भी उसी हाल में है." तस्वीर छोटी सी लड़की की थी जिसकी एक टाँग माईन बम्ब से कट गयी थी. वह बच्ची जो कुछ बड़ी हो गयी थी, बाहर बैठी थी अपने पिता के साथ.

क्या भविष्य है ग्विनेया बिसाऊ का, मैंने प्रोफेसर फेरनानदो देलफिन देसिल्वा से पूछा जो इतिहास और दर्शनशास्त्र पढ़ाते हैं. वह बोले सबसे बड़ी कमी है सोचने वाले दिमागों की. जो बचे खुचे लोग थे वह गृह युद्ध के दौरान देश से भाग गये. राजनेतिक नेता हैं, उन्हें लड़ने से फुरसत नहीं, हर छह महीने में सरकार बदल जाती है. सारा देश केवल काजू के उत्पादन पर जीता है पर काजू का मूल्य घटता बढ़ता रहता है. पिछला साल बहुत बुरा निकला, यह साल भी बुरा ही जा रहा है. पैसा कमाते हैं भारतीय व्यापारी, जो सस्ता खरीद कर भारत ले जाते हैं और वहाँ तैयार करके उसे उत्तरी अमरीका में बेचते हैं.

भारतीय व्यापारियों के लिए यह कड़वापन अन्य कई अफ्रीकी देशों में भी देखा है जहाँ भारतीयों को शोषण और भेदभाव करने वाले लोगों की तरह से ही देखा जाता है. भारत के बारे में अच्छा बोलने वाले केवल यक्ष्मा अस्पताल के एक डाक्टर थे जो बोले कि भारत से अच्छी और सस्ती दवाईयाँ मिल जाती हैं वरना मल्टीनेशनल कम्पनियों की दवाईयाँ तो यहाँ कोई नहीं खरीद सकता. यहाँ एड्स की दवा भारत की सिपला कम्पनी द्वारा बनाई गयी ही मिलती हैं.

कल शाम को टीवी खोला तो ब्राजील का टेलीविजन आ रहा था. ब्राज़ील में भी पुर्तगाली ही बोलते हैं. बहुत अजीब लगता है ब्राज़ील का टीवी देखना. लगता है कि जैसे वह गोरों का देश हो, सब समाचार पढ़ने वाले, बात करने वाले, सब गोरे ही होते हैं, हालाँकि गोरो की संख्या ब्राज़ील में लगभग 15 प्रतिशत ही होंगे. सोच रहा था कि भेदभाव में भारत भी किसी से कम नहीं, क्या हमारे टेलीविजन को देख कर भी कोई लोग यही भेदभाव पाते हैं? हमारे फ़िल्मी सितारे तो अधिकतर गोरे ही होते हैं पर क्या हमारा टेलीविजन भी जातपात के भेदभाव पर बना है?

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पश्चिमी अफ्रीका के देश गवीनेया बिसाऊ की यात्रा की मेरी डायरी को पूरा पढ़ना चाहें तो यहाँ कल्पना पर पढ़ सकते हैं.

गुरुवार, जून 14, 2007

कटे हाथ

कल अनूप के चिट्ठे फुरसतिया पर बिटिया रानी वर्मा की कहानी देखी.

"जब उससे पूछा गया कि इंजीनियर ही क्यों और कोई पेशा क्यों नहीं तो उसका जवाब था-इंजीनियर इसलिये बनना चाहती हूं ताकि मैं ऐसी मशीने और औजार बना सकूं जो किसी को अपाहिज न बनायें।"
एक बात मेरे दुस्वपनों में बहुत सालों से आती है और में भी यही प्रश्न पूछना चाहता हूँ कि ऐसी मशीने और औज़ार जिनसे लोग अपाहिज न हों क्यों नहीं बना सकते हम? शायद इस बात पर पहले भी कुछ लिख चुका हूँ और स्वयं को दोहरा रहा हूँ, तो इसके लिऐ क्षमा चाहता हूँ.

बात है 1977-78 की जब मैं दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में ओर्थोपीडिक्स (orthopaedics) यानी हड्डियों के विभाग में काम कर रहा था. हाऊससर्जन होने का मतलब होता कि 36 घँटों तक लगातार ड्यूटी करो. तब फसल की कटाई के दिनों में कटे हाथों का मौसम आता था. बिजली की कमी की वजह से ग्रामीण क्षत्रों में बिजली केवल रात को दी जाती और चारे को या फसल को मशीन में काटने का काम जवान युवकों का होता. चारे को मशीन में घुसाते समय अगर नींद में होते तो साथ ही उनका हाथ भी भीतर चला जाता. कटे हाथों वाले पहले युवक करीब रात को दस बजे के आसपास आने शुरु होते और सुबह तक आते.

रात की ड्यूटी पर एक वरिष्ठ रेजिडेंट होता, कुछ स्नातकोत्तर छात्र होते और दो हाऊससर्जन. हममें से हाथ जोड़ने का काम, माँसपेशियों को साथ जोड़ कर हाथ को ठीक करना वरिष्ठ रेज़ीडेंट या किसी स्नातकोत्तर छात्र को ही आता था, हम कम अनुभव वाले लोगों को हाथ काटना आता था. हाथ जोड़ने के काम में तीन चार घँटे लगते, हाथ काटना एक घँटे से कम में हो जाता. सुबह हमारी ड्यूटी समाप्त होने से पहले, रात में आये सब मरीजों का काम जाने से पहले समाप्त करना हमारी जिम्मेदारी थी.
इन सब बातों का अर्थ यह होता कि पहले आने वाले एक या दो युवकों को हाथ जोड़ने के लिए रखा जाता, जिसके लिए वरिष्ठ रेज़ीडेंट सारी रात काम करते. उसके बाद में आने वाले अधिकतर लोगों के हाथ काटने पड़ते.

हाथ कटने के बाद, घाव भरने में बहुत दिन नहीं लगते, और कुछ दिन की पट्टी के बाद उन्हें घर भेज दिया जाता. जिनके हाथ जोड़े जाते थे, उनकी हड्डियों और माँसपेशियों को जोड़ कर उसे ढकने के लिए चमड़ी पेट से ली जाती, इसलिए उनका हाथ कुछ सप्ताह के लिए पेट से जोड़ दिया जाता. यह लोग महीनों अस्पताल में दाखिल रहते और रोज़ पट्टी की जाती. कई साल तक फिसियोथेरेपी आदि के बाद भी हाथ बिल्कुल ठीक तो नहीं होते थे, अकड़े, टेढ़े मेढ़े रह जाते थे. रात को ओप्रेशन थियेटर में काम करके, सुबह मेरा काम होता था वार्ड में भरती लोगों की पट्टियाँ करना. दर्द से चिल्लाते लोगों की आवाज़े देर तक मेरे दिमाग में घूमती रहतीं. हर नाईट ड्यूटी में नये लोग भरती होते और आधा वार्ड इन्हीं लोगों से भरा रहता था.

बहुत गुस्सा आता था कि क्या यह मशीने बदली नहीं जा सकतीं? क्या करें यह लोग, जिन्हे रात भर इस तरह का खतरनाक काम करना पड़ता है? कितने सारे तो 13 या 14 साल के बच्चे होते थे. सोचता था कि अखबारें यह बात क्यों नहीं छापतीं? खैर ओर्थोपीडिक में मेरे दिन बीते और मैं उस वातावरण से दूर हो गया. फ़िर 1991 या 1992 की बात है. एक मीटिंग में दिल्ली के एक ओर्थोपीडिक सर्जन से बात हुई. वह बोले कि फसल की कटाई के दिनों में तब भी वही मशीनें, वही कटे हाथों का सिलसिला चलता था. गरीब किसानों की तकलीफ थी, किसी को क्या परवाह होती! मालूम नहीं कि तीस साल के बाद आज क्या हाल है? इतने सारे समाचार चैनल बने हैं जो बेसिर पैर की बातों में समय गवाँते हैं, अगर आज भी यह हो रहा है तो शायद वह इस बात को उठा सकते हैं?

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पिछले कुछ माह से पैर में घूमने के पहिये लगे हैं जो रुकते ही नहीं. एक जगह से आओ और दूसरी जगह जाओ, बीच में रुक कर कुछ सोचने लिखने का भी समय नहीं मिलता. जो लोग पूछते हें कि इन दिनों मैं कम क्यों लिख रहा हूँ, यही कारण है उसका. आज मुझे फ़िर नयी यात्रा पर निकलना है, पश्चिमी अफ्रीका की ओर.

बुधवार, जून 13, 2007

मेरा गाँव, मेरा देश, मेरे लोग, मेरा झँडा

करीब तीस साल पहले की बात है. दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में शल्यचिकित्सा विभाग में हाऊससर्जन था और अस्पताल के परिसर के अंदर होस्टल में रहता था. होस्टल में साथ वाले कमरे में था अजय, जो पूना के आर्मी मेडिकल कोलिज से आया था. उसके पास रिकार्ड प्लेयर था. उसी के कमरे में पहली बार बीटलस (Beatles) का रिकार्ड "सार्जेंट पैपर लोन्ली हार्टस क्लब बैंड" सुना था. "लूसी इन द स्काई विद डायमँडस" (Lucy in the sky with diamonds) बहुत अच्छा लगता था और जब अजय ने बताया था यह गाना अपने शब्दों में एल.एस.डी (LSD) याने नशे की बात छुपाये हुए है तो बड़ा अचरज हुआ था.

बीटलस का नाम सुना था, मालूम था कि वह लोग ऋषीकेश में गुरु महेश योगी से मिलने आये थे और उनके चेले बन गये थे. पर उनके गानों के बारे में कुछ विषेश जानकारी नहीं थी. आकाशवाणी के दिल्ली बी स्टेशन पर सप्ताह में दो बार रात को अँग्रेजी गानो के कार्यक्रम आते थे, "फोर्सेस रिक्वेस्ट" और "ए डेट विद यू", उनमें सुने हुए कलाकारों में से क्लिफ रिचर्ड तथा जिम रीवस जैसे नाम मालूम थे.

जिस दिन पहली बार जोह्न लेनन (John Lennon) का "ईमेजिन" (Imagine) पहली बार सुना वह अभी तक याद है. जोह्न ने यह गीत 1971 में लिखा जब वह बीटलस के गुट से अलग हो चुके थे. गीत के कुछ शब्दों ने मुझे झकझोर दिया था -

Imagine there's no countries
It isn't hard to do
Nothing to kill or die for
And no religion too
Imagine all the people
Living life in peace...

कल्पना करो कि कोई देश नहीं हो
इतना कठिन नहीं है
न किसी के लिए मरना या मारना पड़े
और सोचो की धर्म भी न हो
कल्पना करो कि सभी लोग
शाँति से जीवन बिताते हैं ...
तब तक हमेशा अपना देश, अपना झँडा, "सारे जहाँ से अच्छा हिंदुस्तान हमारा" और "ऐ वतन ऐ वतन हमको तेरी कसम तेरी राहों में जाँ तक लुटा जायेंगे" जैसे गीत ही भाते थे, यह बात कि देश प्रेम और देश भक्ति से ऊपर भी कुछ हो सकता है यह बात पहली बार मन में आयी थी. इस गीत को जोह्न लेनन की आवाज में यूट्यूब पर सुन सकते हैं.

फ़िर इटली में आने के बाद करीब दस वर्ष पहले एक अन्य गाना सुना जिसका भी मुझ पर बहुत असर पड़ा. गीत गाया था स्पेन के गीतकार और गायक मिगेल बोसे (Miguel Bosé) ने. अगर आप ने पेड्रो अलमोदोवार की फिल्म "सब कुछ मेरी माँ के बारे में" (All about my mother) देखी हो तो शायद आप को मिगेल बोसे याद हो, उसमें उन्होंने स्त्री वेष में रहने वाले पुरुष की भाग निभाया था. मिगेल ने यह गीत बोज़निया और कोसोवो की लड़ाई के दिनों में लिखा था.

Sogna una Terra che guerre non ha
che ama la libertà
Sogna un colore che bandiere non ha
che ama la libertà

उस धरती के सपने देखो जहाँ युद्ध न हों
जो आजादी से प्यार करता हो
उस रंग के सपने देखो जो झँडों में न हो
जो आजादी से प्यार करता हो
इस गीत के यह शब्द जोह्न लेनन के देशों के, सीमा रेखाओं के, अपने और दूसरों के भेदों के विरुद्ध सपना देखते हैं. मानवता और भाईचारा का यह सपना मुझे बहुत प्रिय है. एक पत्रिका पढ़ रहा था जिसमें बीटलस के सार्जेंट पैपर वाले रिकोर्ड का चालिसवीं वर्षगाँठ की बात थी. उसी को पढ़ते पढ़ते ही यह सब बातें मन में याद आ गयीं.

मंगलवार, जून 12, 2007

शहर की आत्मा

जर्मन अखबार सुदडोयट्शेज़ाईटुँग (Sud Deutsche Zeitung) में हर सप्ताह एक साहित्यकार को किसी शहर के बारे में लिखा लेख छप रहा है. पिछले सप्ताह का इस श्रँखला का लेख लंदन में रहने वाले भारतीय मूल के लेखक सुखदेव सँधु ने अपने शहर, यानि लंदन पर लिखा था. उन्होंने पूर्वी लंदन की बृक लेन के बारे में लिखा कि, "यह सड़क एक रोमन कब्रिस्तान की जगह पर बनी है और पिछली पाँच शताब्दियों में इसे अपराधियों और आवारा लोगों की जगह समझा जाता था."

उनका लेख बताता है कि कैसे फ्राँस से आने वाले ह्योगनोट सत्ररहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में आ कर यहाँ रहे, फ़िर यह जगह फैक्टरी में काम करने वाले मजदूरों की हो गयी, अठारहवीं शताब्दी में पूर्वी यूरोप से यहूदी यहाँ शरणार्थी बन कर आये, आज यहाँ बँगलादेशी लोग अधिक हैं. बृक लेन के जुम्मा मस्जिद के बारे में उन्होंने लिखा है, "1742 में इस भवन को ह्योगनोट लोगों ने अपना केथोलिक गिरजाघर के रूप में बनाया था, अठाहरवीं शताब्दी में यहाँ मेथोडिस्ट गिरजाघर बना, 1898 में यहूदियों का सिनागोग बन गया."

बृक लेन आज पर्यटकों का आकर्षण क्षेत्र माना जाता है और इसे सुंदर बनाया गया है. सँधु जी लिखते हैं, "कभी कभी लगता है कि बृक लेन की आत्मा मर रही है. यहाँ अब कोई बूढ़े नहीं दिखते. वह इन फेशनेबल और महँगे रेस्टोरेंट और कैफे में अपने को अजनबी पाते हैं, नवजवान लड़कों के अपराधी गेंग जो यहाँ घूमते हैं उनसे डरते हैं, अपनी छोटी सी पैंशन ले कर वह इस तरह की जगह पर नहीं रह सकते."

लेख पढ़ा तो सँधु का शहर की आत्मा के मरने वाला वाक्य मन में गूँजता रहा. यहाँ इटली में बोलोनिया में रहते करीब बीस साल हो गये. बीस साल पहले वाले शहर के बारे में सोचो तो कुछ बातों में लगता है कि हाँ शायद इस शहर की आत्मा भी कुछ आहत है, जैसे कि सड़कों पर चलने वाली साईकलें जो अब कम हो गयीं हैं और कारों की गिनती बढ़ी है. शहर में रहने वाले लोग शहर छोड़ कर बाहर की छोटी जगहों में घर लेते हैं जबकि शहर की आबादी प्रवासियों से बढ़ी है. शहर के बीचों बीच, जहाँ कभी फैशनेबल और मँहगी दुकानें होतीं थीं, वहाँ विदेश से आये लोगों के काल सेंटर, खाने और सब्जियों की दुकाने खुल गयी हैं. पर गनीमत है कि साँस्कृतिक दृष्टि से शहर जीवंत है, जिसकी एक वजह यहाँ का विश्वविद्यालय भी है जहाँ दूर दूर से, देश और विदेश से, छात्र आते हैं.

चाहे बीस साल हो गये हों दिल्ली छोड़े हुए पर जब भी मन "अपने शहर" का कोई विचार आता है तो अपने आप ही यादें दिल्ली की ओर चल पड़ती हैं. बचपन की दिल्ली और आज की दिल्ली में बहुत अंतर है.

मेरे लिए दिल्ली की आत्मा उसके रिश्तों में थी. अड़ोस पड़ोस में सिख, मुसलमान, हिंदु, दक्षिण भारतीय, पँजाबी, उत्तरप्रदेश और बिहार वाले, सब लोग मिल कर साथ रह सकते थे. खुली गलियाँ और सड़कें, हल्का यातायात, बहुत सारे बाग, डीसीएम के मैदान में रामलीला, फरवरी में फ़ूले अमलतास और गुलमोहर, क्नाटपलेस में काफी हाऊस या फ़िर कुछ दशक बाद, नरूला में आईस्क्रीम, कामायनी के बाहर बाग में रात भर भीमसेन जोशी और किशोरी आमोनकर का गाना, यार दोस्तों से गप्पबाजी, २६ जनवरी की परेड और 15 अगस्त को लाल किले पर प्रधानमँत्री का भाषण, नेहरु जी और शास्त्री जी की शवयात्रा में भीड़, राम लीला मैदान में जेपी को सुनना ...आज वापस जाओ तो यह सब नहीं दिखता. जिस चौड़ी गली में रहते थे, वहाँ लोहे के गेट लगे हैं जो रात को बंद हो जाते हैं, जहाँ घर के बाहर सोता था, वहाँ इतनी कार खड़ीं है कि जगह ही नहीं बची, सीधे साधे दो मँजिला मकान की जगह चार मँजिला कोठी है, चौड़ी सड़कें और भी चौड़ी हो गयीं हैं पर यातायात उनमें समाता ही नहीं लगता, नयी मैट्रो रेल, दिल्ली हाट, अँसल प्लाजा और उस जैसे कितने नये माल (mall), मल्टीप्लैक्स, बारिस्ता, और जाने क्या क्या.

जहाँ दोस्त रहते थे वहाँ अजनबी रहते हैं और शहर अपना लग कर भी अपना नहीं लगता. लगता है कि जिस छोटे बच्चे को जानता था, बड़े हो कर वह अनजाना सा हो गया है. पर यह नहीं सोचता कि शहर की आत्मा मर रही है. जब हम शरीर पुराने होने पर उन्हें त्याग कर नये शरीर पहन सकते हें तो शहरों को भी तो अपना रूप बदलने का पूरा अधिकार है.

शुक्रवार, जून 08, 2007

चिट्ठों की भाषा

टेक्नोराती के डेविड सिफरिंगस् ने अप्रैल में अपने चिट्ठे "चिट्ठाजगत का हाल" (State of the Live Web) शीर्षक से लेख लिखा जिसमें विश्व में चिट्ठाजगत के फ़ैलाव की विवेचना है. . इस रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में करीब 7 करोड़ चिट्ठे हैं और प्रतिदिन एक लाख बीस हजार नये चिट्ठे जुड़ रहे हैं. साथ साथ स्पैम यानि झूठे चिट्ठे भी बढ़ रहे हें और हर रोज तीन से सात हजार तक स्पैम चिट्ठे बनते हैं. एक तरफ चिट्ठों की संख्या में तेज़ी से बढ़ोतरी हो रही है, दूसरी ओर चिट्ठों में लिखना कुछ कम हो रहा है और हर रोज़ करीब 15 लाख लोग अपने चिट्ठों में लिखते हैं. 6 महीने पहले, अक्टूबर 2006 में कुल चिट्ठों की संख्या थी 3.5 करोड़ और हर रोज़ 13 लाख चिट्ठे लिखे जा रहे थे. अंतर्जाल पर सबसे लोकप्रिय 100 पन्नों में 22 चिट्ठे भी हैं.

चिट्ठों की सबसे लोकप्रिय भाषा है जापानी जिसमें 37 प्रतिशत चिट्ठे लिखे गये. चिट्ठों की प्रमुख भाषाओं में अन्य भाषाएँ हैं अँग्रेजी 36%, चीनी 8%, इतालवी 3%, स्पेनिश 3%, रूसी 2%, फ्रँसिसी 2%, पोर्तगीस 2%, जर्मन 1%, फारसी 1% तथा अन्य 5%. जबकि अँग्रेजी और स्पेनिश में लिखने वाले सारे विश्व में फ़ैले हैं और दिन भर उनके नये चिट्ठे बनते हैं, जापानी, इतालवी और फारसी जैसी भाषाओं वाले लोगों का लिखना अपने भूगोल से जुड़ा है और उनके चिट्ठे सारा दिन नहीं लिखे जाते बल्कि दिन में विषेश समयों पर छपते हैं.

इस रिपोर्ट को पढ़ कर मन में बहुत से प्रश्न उठे. हर रोज़ एक लाख बीस हजार नये चिट्ठे जुड़ रहे हैं चिट्ठाजगत में, यह सोच कर हैरानी भी होती है, थोड़ा सा डर भी लगता है मानो नये डायनोसोर का जन्म हो रहा हो. शायद इस डर के पीछे यह भाव भी है कि सब लोगों से भिन्न कुछ नया करें, और अगर सब लोग अगर चिट्ठा लिखने लगेंगे तो उसमें भिन्नता या नयापन कहाँ से रहेगा? पर इस डर से अधिक रोमाँच सा होता है कि इस क्राँती से दुनिया के संचार जगत में क्या फर्क आयेगा? हमारे सोचने विचारने, मित्र बनाने, लिखने पढ़ने में क्या फर्क आयेगा?

स्पैम चिट्ठों का सोचूँ तो सबसे पहले तो अपने अज्ञान को स्वीकार करना पड़ेगा. यह नहीं समझ पाता कि कोई स्पैम के चिटठे क्यों बनाता है? एक वजह तो यह हो सकती है कि किसी जाने पहचाने चिट्ठाकार से मिलता जुलता स्पैम चिट्ठा बनाया जाये, और वहाँ पर विज्ञापन से कमाई हो. पर इस तरह के स्पैम चिट्ठे में लिखने के लिए कहाँ से आयेगा? क्या उसकी चोरी करनी पड़ेगी? एक अन्य वजह हो सकती है स्पैम चिट्ठे बनाने की जिसमें किसी कम्पनी वाला उपभोक्ता होने का नाटक करे और अपनी कम्पनी की बनायी वस्तुओं की प्रशँसा करे ताकि लोग उसे खरीदें, पर मेरे विचार में यह बात केवल नयी क्मपनियों पर ही लागू हो सकती है. यानि कि मेरी जानकारी स्पैम चिट्ठों के बारे में शून्य है और यह सब अटकलें हैं.

अंतर्जाल में कौन सी भाषा का प्रयोग होता है और क्यों होता है, इस विषय पर "ओसो मोरेनो अबोगादो" नाम के चिट्ठे में यही विवेचना है कि फारसी जैसी भाषा का चिट्ठों में प्रमुख स्थान पाना अँग्रेजी के सामने गुम होती हुई भाषाओं के भविष्य के लिए अच्छा संकेत है. वह लिखते हैं, "भाषा वह गोंद है जो संस्कृति को जोड़ कर रखती है. जब कोई भाषा खो जाती है तो वह संस्कृती भी बिखर जाती है. जैसे कि बिना जर्मन भाषा के, क्या जर्मन संस्कृति हो सकती है? जब भाषा खोती है, जो उस भाषा के सारे मूल मिथक, कथाएँ, साहित्य खो जाते हैं जिनसे उस संस्कृति की नैतिकता और मूल्य बने हैं...भाषा से हमारे रिश्ते बनते हैं, अपने पूर्वजों से हमारा नाता बनता है. अगर हम अपने पूर्वजों की भाषा नहीं बोल पाते तो हमारा उनसा नाता टूट जाता है."

अगर फारसी में चिट्ठा लिखने वाले इतने लोग हैं कि वह अपनी भाषा को चिट्ठा जगत की प्रमुख भाषा बना दें तो एक दिन भारत की सभी भाषाएँ भी अंतर्जाल पर अपनी महता दिखायेंगी, यह मेरी आशा और कामना है. केवल प्रमुख भाषाएँ ही नहीं, बल्कि वह सब भाषाएँ भी जिन्हें आज भारत में छोटी भाषाएँ माना जाता है जैसे कि मैथिली, भोजपुरी, अवधी आदि, इन सब भाषाओं को अंतर्जाल पर लिखने वाले लोग मिलें!


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मैं सोचता हूँ कि सब बच्चों को प्राथमिक शिक्षा अपनी मातृभाषा में मिलनी चाहिये जिससे उनके व्यक्तित्व का सही विकास हो सके. इसका यह अर्थ नहीं कि प्राथमिक शिक्षा में अँग्रेजी न पढ़ाई जाये, पर प्राथमिक शिक्षा अँग्रेजी माध्यम से देना मेरे विचार में गलती है. वैसे भी भारतीय शिक्षा परिणाली समझ, मौलिक सोच और सृजनता की बजाय रट्टा लगाने, याद करने पर अधिक जोर देती है. प्राथमिक शक्षा को अँग्रेजी माध्यम में देने से इसी रट्टा लगाओ प्रवृति को ही बल मिलता है.

गुरुवार, मई 31, 2007

बच्चन जी की कमसिन सखियाँ

आखिरकार मुझे करण जौहर की फ़िल्म "कभी अलविदा न कहना" देखने का मौका मिल ही गया. अक्सर ऐसा होता है कि जिस फ़िल्म की बहुत बुराईयाँ सुनी हों, वह उतनी बुरी नहीं लगती, कुछ वैसा ही लगा यह फ़िल्म देख कर.

फ़िल्म के बारे में पढ़ा था कि समझ में नहीं आता कि अच्छे भले प्यार करने वाले पति अभिशेख को छोड़ कर रानी मुखर्जी द्वारा अभिनेत्रित पात्र को इतने सड़ियल हीरो से किस तरह प्यार हो सकता है? मेरे विचार में इस फ़िल्म यह फ़िल्म भारत में प्रचलित परम्परागत विवाह होने वाली मानसिकता को छोड़ कर विवाह के बारे प्रचलित पश्चिमी मानसिकता से पात्रों को देखती है.

यह तो भारत में होता है कि अधिकतर युवक और युवतियाँ, अनजाने से जीवन साथी से विवाह करके उसी के प्रति प्रेम महसूस करते हैं. इसके पीछे बचपन से मन में पले हमारे संस्कार होते हैं जो हमें इस बात को स्वीकार करना सिखाते हैं. इन संस्कारों के बावजूद कभी कभी, नवविवाहित जोड़े के बीच में दरारें पड़ जाती है. मेरे एक मित्र ने विवाह में अपनी पत्नी को देखा तो उसे बहुत धक्का लगा, पर उस समय मना न कर पाया, लेकिन शादी के बाद कई महीनों तक उससे बात नहीं करता था. एक अन्य मित्र जो दिल्ली में रहता था, उसकी शादी बिहार में तय हुई, पर उसने जब अपनी नवविवाहित पत्नी को पहली बार देखा तो उसे अस्वीकार कर दिया. ऐसी कहानियाँ कभी कभी सुनने को मिल जाती हैं पर अधिकतर लोग परिवार दावारा चुने हुए जीवनसाथी के साथ ही निभाते हैं. अस्वीकृति या दिक्कत अधिकतर पुरुष की ओर से ही होती है, स्त्री की तरफ़ से जैसा भी हो, पति को स्वीकार किया जाता है.

पश्चिमी सोच विवाह से पहले अपने होने वाले जीवनसाथी के लिए प्रेम का होना आवश्यक समझती है. भारत में भी, कम से कम शहरों में, इस तरह की सोच का बढ़ाव हुआ है, कि विवाह हो तो प्रेमविवाह हो वरना कुवाँरा रहना ही भला है. पर इस तरह सोचने वाले नवजवान शायद अभी अल्पमत में हैं. फ़िल्म इसी दृष्टिकोण पर आधारित है. सवाल यह नहीं कि अभिशेख बच्चन जी कितने अच्छे हैं, बल्कि सवाल यह है कि रानी मुखर्जी को उनसे प्यार नहीं है.

फ़िल्म में शाहरुख खान द्वारा अभिनीत भाग बहुत अच्छा लगा. कम ही भारतीय सिनेमा में पुरुष को इतना हीन भावना से ग्रस्त और अपने आप में इतना असुरक्षित दिखाया है. इस तरह का पुरुष फ़िल्म का हीरो हो, यह तो मैंने कभी नहीं देखा. उसका हर किसी से गुस्सा करना, बात बात पर व्यँग करना, ताने मारना, छोटे बच्चे के साथ बुरी तरह से पेश आना, हीरो कम और खलनायक अधिक लगता है. यह तो फ़िल्म लेखक और निर्देशक की कुशलता है कि इसके बावजूद आप उससे नफरत नहीं करते पर उसके लिए मन में थोड़ी सी सुहानुभूति ही होती है. शाहरुख जैसे अभिनेता के लिए इस तरह का भाग स्वीकार करना साहस की बात है.



पर जिस पात्र से मुझे परेशानी हुई वह है अमिताभ बच्चन द्वारा निभाया अभिशेख के पिता का भाग. पैसे से खरीदी हुई, बेटी जैसी उम्र की युवतियों के साथ रात बिताने वाला यह पुरुष साथ ही बेटे और बहु के दर्द को समझने वाला समझदार पिता भी है, अच्छा दोस्त भी, मृत पत्नी को याद करने वाला भावुक पति भी. मैं यह नहीं कहता कि उम्र के साथ साथ बूढ़े होते व्यक्ति को सेक्स की चाह होना गलत है और कोई अन्य रास्ता न होने पर, उसका वेश्याओं के पास जाना भी समझ में आता है, पर समझ नहीं आता उसका पैसा दे कर पाई जवान लड़कियों को सबके सामने खुले आम जताना कि मैं अभी भी जवाँमर्द हूँ! क्या अगर यही बात स्त्री के रुप में दिखाई जाती तो क्या हम स्वीकार कर पाते? यानि अगर यह पात्र अभिशेख के विधुर पिता का नहीं विधवा माँ का होता, जो पैसे से हर रात नवयुवक खरीदती है, पर साथ ही अच्छी माँ, मृत पति को याद करने वाली स्त्री भी है, तो क्या स्वीकार कर पाते?



शायद फ़िल्म निर्देशक का सोचना है कि पुरुष तो हमेशा यूँ ही करते आयें हैं और फ़िल्म का काम सही गलत की बात करना नहीं, जैसा समाज है, वैसा दिखाना है?

शुक्रवार, मई 04, 2007

भूली बरसियाँ

इटली का स्वतंत्रता दिवस का दिन था, 25 अप्रैल. हर साल इस दिन छुट्टी होती है पर मुझे अक्सर याद नहीं रहता कि किस बात की छुट्टी है. सुबह कुत्ते को सैर कराने निकला तो घर के सामने वृद्धों के समुदायिक केंद्र का बाग है, वहाँ देखा कि एक बूढ़े से व्यक्ति पेड़ों पर पोस्टर लगा रहे थे. हर पोस्टर पर इटली का ध्वज बना था और लिखा था, "वीवा ला राज़िस्तेंज़ा" यानि संघर्ष जिंदाबाद.

मैंने उससे पूछा कि क्या बात है और पोस्टर क्यों लग रहे हैं तो उसने कुछ नाराज हो कर कहा, "यह हमारा स्वतंत्रता दिवस है". शायद उसे कुछ गुस्सा इस लिए आया था कि उसके विचार में इतना महत्वपूर्ण दिन है इसका अर्थ तो यहाँ रहने वाले हर किसी को मालूम होना चाहिये.

मैंने फ़िर पूछा, "हाँ, वह तो मालूम है पर स्वतंत्रता किससे?"

"मुस्सोलीनी और फासीवाद से. यहाँ बोलोनिया में उसके विरुद्ध संघर्ष करने वाले बहुत लोग थे. जँगल में छुप कर रहते थे और मुस्सोलीनी की फौज और जर्मन सिपाहियों पर हमला करते थे. बहुत से लोग मारे गये. 25 अप्रैल 1945 को अमरीकी और अँग्रेज फौजों ने इटली पर कब्जा किया था और फासीवाद तथा नाजियों की हार हुई थी", उन्होंने समझाया. वह स्वयं भी उस संघर्ष में शामिल थे.

उनका गर्व तो समझ आता है पर मन में आया कि "संघर्ष जिंदाबाद" जैसे नारों का आजकल क्या औचित्य है? और आज जब अधिकतर नवजवानों को मालूम ही नहीं कि 25 अप्रैल का क्या हुआ था तो क्या इस तरह के दिन मनाने क्या केवल खोखली रस्म बन कर नहीं रह जाता?



"फासीवाद आज भी जिंदा है, अगर हम अपने बीते हुए कल को भूल जायेंगे तो वह फ़िर से लौट कर आ सकता है", वह बोला. पर केवल कहने से या चाहने से क्या कुछ जिंदा रह सकता है जब आज के नवजवानों के लिए यह बात किसी भूले हुए इतिहास की है?

और कितने सालों तक यह छुट्टी मनायी जायेगी? पचास सालों तक? यही बात भारत के स्वतंत्रता दिवस जैसे समारोहों पर भी लागू हो सकती है. बचपन में लाल किले से जवाहरलाल नेहरु या लाल बहादुर शास्त्री ने क्या कहा यह सुनने और जानने के लिए मन में बहुत उत्सुक्ता होती थी. बचपन में भारत की अँग्रेजों से लड़ाई और स्वतंत्रता की यादें जिंदा थीं, जिन नेताओं के नाम लिये जाते थे, उनमें से अधिकाँश जिंदा थे. वही याद आज भी मन में बैठी है और हर वर्ष यह जाने का मन करता है कि इस वर्ष क्या कहा होगा. पर अखबार देखिये या लोगों से पूछिये तो आज किसी को कुछ परवाह नहीं कि क्या कहा होगा, केवल एक भाषण है वह. और आज की पीढ़ी के लिए अँग्रेज, स्वतंत्रता संग्राम सब साठ साल पहले की गुजरी हुई बाते हैं जिसमें उन्हें विषेश दिलचस्पी नहीं लगती.

यही सब सोच रहा था उस सुबह को कि शायद यही मानव प्रवृति है कि अपनी यादों को बना कर रखे और जब नयी पीढ़ी उन यादों का महत्व न समझे तो गुस्सा करे. फ़िर जब वह लोग जिन्होंने उस समय को देखा था नहीं रहेंगे, तो धीरे धीरे वह बात भुला दी जाती है, तो रस्में और बरसी के समारोह भी भुला दिये जाते हैं. यह समय का अनरत चक्र है जो नयी बरसियाँ, समारोह बनाता रहता है और कोई कोई विरला ही आता है, महात्मा गाँधी जैसा, जिसका नाम अपने स्थान और समय के दायरे से बाहर निकल कर लम्बे समय तक जाना पहचाना जाता है.

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उसी सुबह, कुछ घँटे बाद साइकल पर घूमने निकला तो थोड़ी सी ही दूर पर एक चौराहे पर कुछ लोगों को हाथ में झँडा ले कर खड़े देखा तो वहाँ रुक गया.

माईक्रोफोन लगे थे, सूट टाई पहन कर नगरपालिका के एक विधायक खड़े थे, कुछ अन्य लोग "संघर्ष समिति" के थे. वे सब लोग भाषण दे रहे थे. पहले बात हुई उस चौराहे की. 19 नवंबर 1944 को वहाँ बड़ी लड़ाई हुई थी जिसमें 26 संघर्षवादियों ने जान खोयी थी. उनके बलिदान की बातें की गयीं कि हम तुम्हें कभी नहीं भूलेंगे और तुम्हारा बलिदान अमर रहेगा. उस लड़ाई में मरे 19 वर्षीय एक युवक की बहन ने दो शब्द कहे और बोलते हुए उसकी आँखें भर आयीं. थोड़े से लोग आसपास खड़े थे उन्होंने तालियाँ बजायीं.

फ़िर बारी आयी प्रशस्तिपत्र देने की. जिनको यह प्रशस्तिपत्र मिलने थे उनमें से कई तो मर चुके थे और उनके परिवार के किसी अन्य सदस्य ने आ कर वे प्रशस्तिपत्र स्वीकार किये. कुछ जो जिंदा थे, वह बूढ़े थे. हर बार पूरी कहानी सनाई जाती. "वह जेल से भाग निकले .. उनकी नाव डूब गयी...अपनी जान की परवाह न करते हुए ...लड़ाई में उनकी पत्नी को गोली लगी ... तीन गोलियाँ लगी और उन्हें मुर्दा समझ कर छोड़ दिया गया..".



बूढ़े डगमगाते कदम थोड़ी देर के लिए अपने बीते दिनों के गौरव का सुन कर कुछ सीधे तन कर खड़े होते. किसी की आँखों में बिछुड़े साथियों और परिवार वालों के लिए आँसू थे. उनकी यादों के साथ मैं भी भावुक हो रहा था. आसपास खड़े पँद्रह बीस लोग कुछ तालियाँ बजाते.

पर शहर के पास इन सब बातों के लिए समय नहीं था. चौराहे पर यातायात तीव्र था, गुजरते हुए कुछ लोग कार से देखते और अपनी राह बढ़ जाते. पीछे बास्केट बाल के मैदान में लड़के चिल्ला रहे थे, अपने खेल में मस्त.

बुधवार, मई 02, 2007

सौभाग्य

"यह तुम्हारा नाम कैसे बोलते हैं?" मैंने उनसे पूछा. लम्बा हरे रँग का कुर्ता. थोड़ी सी काली, अधिकतर सफ़ेद दाढ़ी. सिर के बाल लम्बे, पीछे छोटी सी चोटी में बँधे थे. और निर्मल सौम्य मुस्कान जो दिल को छू ले.

जब उनका ईमेल देखा तो स्पेम समझ कर उसे कूड़ेदान में डालने चला था क्योंकि अनुभव से मालूम है कि इतने अजीब नाम वाले तो स्पेम ही भेजते हैं. फ़िर नज़र पड़ी थी ईमेल के विषय पर जिसमें लिखा था "कल्पना के बारे में", तो रुक गया था. सँदेश में लिखा था कि वह अधिकतर भारत में रहते हैं, पर उनकी पत्नि और परिवार इटली में बोलोनिया के पास रहते हैं, वह आजकल छुट्टी में इटली आयें हैं, उन्होंने अंतर्जाल पर कल्पना के कुछ पृष्ठ देखे और वह मुझसे मिलना चाहते हैं.

भारत से कोई भी आये और उससे मिलने का मौका मिले तो उसे नहीं छोड़ना चाहता. तुरंत उन्हे उत्तर लिखा और घर पर आने का न्यौता दिया. कल एक मई का दिन मिलने के लिए ठीक था क्योंकि मेरी छुट्टी थी और उन्हें शायद बोलोनिया आना ही था.
Mark Dyczkowski, कितना अजीब नाम है, कौन से देश से होगा, मैं सोच रहा था. फ़िर कल सुबह अचानक मन में आया कि उनके बारे में गूगलदेव से पूछ कर देखा जाये. पाया कि वह बनारस में रहते हैं, हिंदू धर्म में ताँत्रिक मार्ग पर बहुत से किताबें लिख चुके हैं, सितार भी बजाते हैं.



वह अपनी पत्नी ज्योवाना और एक मित्र फ्लोरियानो के साथ आये. उन्हे देखते ही पहली नज़र में उनसे एक अपनापन सा लगा. कभी कभी ऐसा होता है कि कोई अनजाना भी मिले तो लगता है मानो बरसों से उसे जानते हों, वैसा ही लगा मार्क को मिल कर. इससे पहले कि कुछ बात हो मैंने तुरंत पूछ लिया, "यह तुम्हारा नाम कैसे बोलते हैं?" और मार्क ने बताया, कि उनके पारिवारिक नाम का सही उच्चारण है "दिचकोफस्की".

पोलैंड के पिता और इतालवी माँ की संतान, मार्क का जन्म लंदन में हुआ. सतरह अठारह वर्ष की उम्र में गुरु और ज्ञान की खोज उन्हें भारत ले आयी, जहाँ उन्होने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में दाखिला लिया. भारत में ही उनकी मुलाकात अपनी पत्नी ज्योवाना से हुई और पहला पुत्र भी भारत में पैदा हुआ. पिछले पैंतीस वर्षों से वह भारत में ही रहते हैं और ताँत्रिक मार्ग के अलावा संगीत, योग, भारतीय दर्शन आदि बहुत से विषयों में दिलचस्पी रखते हैं. पोलिश, इतालवी, हिंदी, अँग्रेजी और संस्कृत भाषाएँ जानते हैं.

दो घँटे के करीब वह रुके और इस समय में बहुत सी बातें हुई. वह भी बहुत बोले, पर मैं भी उन्हें बार बार टोक कर कुछ न कुछ प्रश्न पूछता. कभी कृष्ण की बात करते तो कभी राम की. कभी वेदों उपानिषदों से उदाहरण देते कभी बढ़ती उपभोक्तावादी सँस्कृति से भारतीय मूल्यों को आये खतरे के बारे में चिंता व्यक्त करते. "मानव के भीतर की असीमित विशालता की ओर हिदू दर्शन ने जो ध्यान बँटाया है और सदियों से इस दिशा में ज्ञान जोड़ा है वह विश्व को भारत की देन है", बोले. मैं उन्हे मंत्रमुग्ध हो कर सुनता रहा.

जब चलने लगे तो मुझे दुख हुआ कि बातचीत में इतना खोया कि उनकी बातों को रिकार्ड नहीं किया, वरना सब बातों को लिख कर अच्छा साक्षात्कार बनता और नये लोगों को उनके विचार जानने का मौका भी मिलता. अभी तो मैं यहीं हूँ, यहाँ एक सप्ताह पहले ही आया हूँ, अगले दिनों में फ़िर अवश्य मिलेंगे, तब रिकार्ड कर लेना, उन्होने मुझे मुस्करा कर कहा. इतने ज्ञानी विद्वान से घर बैठे अपने आप मिलने का मौका मिला, यह तो मेरा सौभाग्य ही था.

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कल रात को समाचार मिला कि भारत से यहाँ आये शौध विद्यार्थी विवेक कुमार शुक्ल के माता पिता जो कानपुर में रहते थे, उनका किसी ने खून कर दिया. विवेक आज ही घर वापस जाने की कोशिश कर रहे हैं. हम सब इस समाचार से स्तब्ध हैं. विवेक को बोलोनिया के भारतीय समुदाय की संवेदना.

सोमवार, अप्रैल 30, 2007

बहुत बड़ी है दुनिया

कुछ दिन दूर क्या हुए, हिंदी चिट्ठा जगत तो माने दिल्ली हो गया. हर साल जब दिल्ली लौट कर जाता हूँ तो सब बदला बदला लगता है. पुराने घर, वहाँ रहने वाले लोग, सब बदले लगते हैं. बहुत से लोग अपनी जगह पर नहीं मिलते. कहीं नये फ्लाईओवर, कहीं नये मेट्रो के स्टेशन तो कहीं सीधे साधे घर के बदले चार मंजिला कोठी. कुछ ऐसा ही लगा नारद पर. पहले तो लिखने वाले बहुत से नये लोग, जिनके नाम जाने पहचाने न थे. ऊपर से ऐसी बहसें कि लगा कि बस मार पिटायी की कसर रह गयी हो (शायद वह भी हो चुकी हो कहीं बस मेरी नजर में न आई हो?)

सोचा कुछ नया पढ़ना चाहिये तो पहले देखा सुरेश जी का चिटठा जिसमें उनका कहना था कि अपराधियों को बहुत छूट मिली है, उनके लिए मानवअधिकारों की बात होती है जबकि निर्दोष दुनियाँ जो उनके अत्याचारों से दबी है उसके मानवअधिकारों की किसी को चिंता नहीं है. यानि पुलिस वाले अगर अपराधियों को पकड़ कर बिना मुदकमें के गोली मार दें या उनकी आँखों में गँगाजल डाल दें तो इसे स्वीकार कर लेना चाहिये, क्योंकि कभी कभी "गेहूँ के साथ घुन तो पिसता ही है".

मैं ऐसे विचारों से सहमत नहीं हूँ क्योंकि मैं सोचता हूँ कि समाज को हर तरह के कानून बनाने का अधिकार है पर समाज में किसी को भी कानून को अपने हाथ में लेने का अधिकार नहीं होना चाहिये. क्योंकि एक बार किसी वर्ग के लिए अगर यह बात आप मान लेते हैं तो समस्त कानून की कुछ अहमियत नहीं रहेगी. अपराधी, राजनीति और पुलिस वर्गों में साँठ गाँठ की बात तो सबके सामने है ही, जिससे बड़े अपराधियों को पुलिस को संरक्षण मिलता है और लोगों को संतुष्ट करने के लिए छोटे मोटे या गरीब लोंगों को मार कर उन्हे अपराधी बना देना आसान हो जाता है. कोई कोई ईमानदार पुलिस वाले होंगे जो सचमुच कानून से बच कर निकल जाने वाले अपराधियों और उनके साथी नेताओं को जान मारना चाहें, पर उनसे कई गुना अधिक वह पुलिस वाले होंगे जो सचमुच के अपराधियों को बचाने के लिए छोटे मोटे चोर या गरीब लोगों के जान ले सकते हों. घुन के पिसने को आसानी से इसी लिए स्वीकारा जाता है क्योंकि हम जानते हैं कि हमारी पहुँच और जानपहचान है, हम खुद कभी घुन नहीं बनेंगे.

उसके बाद प्रेमेंद्र प्रताप सिंह के चिटठे को खोला तो वहाँ से मोहल्ला, पँगेबाज, सृजनशिल्पी, रमण और जीतेंद्र के नारद संचलन पर गर्म चर्चा देखता चला गया. फुरसतिया जी की टिप्पणीं को पढ़ कर कुछ ढाढ़स मिला कि आग को समय पर बुझा दिया गया. या फ़िर शायद यह कहना ठीक होगा कि इस बार तो आग को बुझा दिया गया पर अगली बार क्या होगा?

मैं स्वयं सेंसरशिप और किसी को बाहर निकालने के विरुद्ध हूँ, क्योंकि मुझे लगता है कि दुनिया में बहुत लोग हैं जिनकी बात से मैं सहमत नहीं पर साथ ही, दुनिया इतनी बड़ी है कि जो मुझे अच्छा न लगे, उसे कोई मुझे जबरदस्ती नहीं पढ़ा सकता. तो आप लिखिये जो लिखना है, अगर वह मुझे नहीं भायेगा तो अगली बार से आप का लिखा नहीं पढ़ूँगा, बात समाप्त हो गयी. पर मैं समझ सकता हूँ कि जब मन में उत्तेजना और क्षोभ हो तो गुस्से में यह सोचना ठीक नहीं लग सकता है.

प्रेमेंद्र ने "ईसा, मुहम्मद और गणेश" के नाम से एक और बात उठायी कि जब ईसाई और मुसलमान अपने धर्मों का कुछ भी अनादर नहीं मानते तो हिंदुओं को भी गणेश की तस्वीरों का कपड़ों आदि पर प्रयोग का विरोध करना चाहिये. मैं इस बात से भी सहमत नहीं हूँ.

ईसा के नाम पर कम से कम पश्चिमी देशों में टीशर्ट आदि आम मिलती हैं, उनके जीवन के बारे में जीसस क्राईसट सुपरस्टार जैसे म्युजिकल बने हें जिन्हें कई दशकों से दिखाया जाता है, फिल्में और उपन्यास निकलते ही रहते हैं जिनमें उनके जीवन और संदेश को ले कर नयी नयी बातें बनाई जाती है. इन सबका विरोध करने वाले भी कुछ लोग हैं पर मैंने नहीं सुना कि आजकल पश्चिमी समाज में कोई भी फिल्म या उपन्यास सेसंरशिप का शिकार हुए हों या किसी को बैन कर दिया हो या फ़िर उसके विरोध में हिसक प्रदर्शन हुए हों. असहिष्णुता, मारपीट दँगे, भारत, पाकिस्तान, बँगलादेश, मिडिल ईस्ट के देशों में ही क्यों होते हैं? हम लोग अपने धर्म के बारे में इतनी जल्दी नाराज क्यों हो जाते हैं?

मेरा मानना है कि भगवदगीता और अन्य भारतीय धर्म ग्रँथों के अनुसार संसार के हर जीवित अजीवित कण में भगवान हैं. दुनिया के हर मानव की आत्मा में भगवान हैं. भगवान की कपड़े पर तस्वीर लगाने से, उनका मजाक उड़ाने से, उनके बारे में कुछ भी कहने या लिखने से भगवान का अनादर नहीं होता. जो "हमारे धर्म का अनादर हुआ है" यह सोच कर तस्वीर हटाओ, यह मंत्र का प्रयोग न करो, इसके बारे में न लिखो और बोलो, इत्यादि बातें करते हैं वह अपनी मानसिक असुरक्षा की बात कर रहे हैं, उनका भगवान से लेना देना नहीं है. अगर भगवान का अपमान सचमुच रोकना हो तो छूत छात, जाति और धर्म के नाम पर होने वाले इंसान के इंसान पर होने वाले अत्याचार को रोकना चाहिये.

जब पढ़ कर नारद को बंद किया तो खुशी हो रही थी कि इतने सारे नये लोग हिंदी में लिखने लगे हैं. यह तो होना ही था कि जब हिंदी में चिट्ठे लिखना जनप्रिय होगा तो सब तरह के लोग तो आयेंगे ही, और यही तो अंतर्जाल की सुंदरता है कि हर तरह की राय सुनने को मिले. अगर मैं असहमत हूँ तो इसका यह अर्थ नहीं कि मैं आप का मुँह बंद करूँ. आप अपनी बात कहिये, कभी मन किया तो अपनी असहमती लिख कर बताऊँगा, कभी मन किया तो आप के लिखे को नहीं पढ़ूँगा. यह दुनिया बहुत बड़ी है, आप अपनी बात सोचिये, मैं अपनी बात.

बुधवार, अप्रैल 25, 2007

ऊन से बुनी मूर्तियाँ

स्पेन की दो वृतचित्र बनाने वाली निर्देशिकाओं लोला बारेरा और इनाकी पेनाफियल ने फिल्म बनायी है "के तियेन देबाहो देल सामब्रेरो" (Qué tienes debajo del sombrero), समब्रेरो यानि मेक्सिकन बड़ी टोपी और शीर्षक का अर्थ हुआ "तुम्हारी टोपी के नीचे क्या है".

यह फ़िल्म है अमूर्त ब्रूट कला की प्रसिद्ध कलाकार जूडित्थ स्कोट के बारे में, जो अपनी बड़ी टोपियों और रंगबिरंगे मोतियों के हार पहनने की वजह से भी प्रसिद्ध थीं. ब्रूट कला यानि अनगढ़, बिना सीखी कला जो विकलाँग या मानसिक रोग वाले कलाकारों द्वारा बनायी जाती हैं. जूडित्थ गूँगी, बहरी थीं और डाऊन सिंड्रोम था, जिसकी वजह से उनका मानसिक विकास सीमित था.

जूडुत्थ की कहानी अनौखी है. 1943 में अमरीका में सिनसिनाटी में जन्म हुआ, जुड़वा बहने थीं, जूडित्थ और जोयस. दोनो बहने एक जैसी थी बस एक अंतर था. जूडित्थ को डाऊन सिंड्रोम यानि मानसिक विकलाँगता थी और गूँगी बहरी थीं, जोयस बिल्कुल ठीक थी. छहः वर्ष की जूडित्थ को घर से निकाल कर बाहर मानसिक विकलाँगता के एक केंद्र में भेज दिया गया. घर में उसके बारे में बात करना बंद हो गया, मानो वह कभी थी ही नहीं पर जोयस अपनी जुड़वा बहन को न भूली. 36 वर्षों तक जूडित्थ एक केंद्र से दूसरे केंद्र में घूमती रहीं, अपने घर वालों के लिए वह जैसे थीं ही नहीं, केवल उनकी जुड़वा बहन को उनकी तलाश थी. 1986 में जोयस ने अपनी बहन को खोज निकाला और अपने घर ले आयीं. 43 सालों तक विभिन्न केंद्रों मे रहने वाली जूडित्थ को केवल उपेक्षा ही मिली थी, वह लिखना पढ़ना नहीं जानती थी और जिस केंद्र में जोयस को मिलीं, वहाँ किसी को नहीं मालूम था कि वह गूँगी बहरी हैं, सब सोचते थे कि केवल उनका दिमाग कमज़ोर है, जिससे अनुमान लगाया जा सकता है कि केंद्र में कौन उनसे कितना सम्पर्क रखता होगा.

घर लाने के बाद, जोयस ने ही कोशिश की कि जूडित्थ एक कला केंद्र में नियमित रूप से जायें. पहले तो जूडित्थ ने चित्रकारी से आरम्भ किया. 1987 में जूडित्थ ने अपनी पहली मूर्तियाँ बनायीं. उनकी खासियत थी कि चीजों को ऊन में लपेट कर उसके आसपास मकड़ी का जाला सा बुनती थीं जो उनकी रंग बिरंगी मूर्तियाँ थीं. 2005 में 61 वर्ष की आयु में जब जूडित्थ का देहाँत हुआ तो उनकी ऊन की मूर्तियाँ देश विदेश के बहुत से कला सग्रहालयों में रखी जा चुकीं थीं और उनकी कीमत भी ऊँचीं लगती थी. प्रस्तुत हैं जूडित्थ की कला के कुछ नमूने.

पहली तस्वीर में अपनी कलाकृति के साथ स्वयं जूडित्थ भी हैं.








मंगलवार, अप्रैल 24, 2007

मानव शरीरों से अमूर्त कला

रात को रायटर के अंतर्जाल पृष्ठ पर समाचार देख रहा था कि नज़र नीचे 15 अप्रैल के एक समाचार पर गयी. १५० लोगों नें हौलैंड में प्रसिद्ध अमरीकी छायाचित्रकार स्पेंसर ट्यूनिक (Spencer Tunick) के अमूर्त कला तस्वीरों के लिए निर्वस्त्र हो कर तस्वीरें खिंचवायीं. समाचार के साथ दिखाया जाना वाले दृष्य भी अनौखे थे. एक तरह स्त्री पुरुष आराम से कपड़े उतार रहे थे, फ़िर वे सब लोग ट्यूलिप के फ़ूलों के आसपास तस्वीरें खिचवाने लगे. एक पवनचक्की के सामने, जमीन पर साथ साथ लेटे शरीरों से बने पवनचक्की के पँखों का दृष्य बहुत सुंदर लगा.




बाद में गूगल से श्री ट्यूनिक के बारे में खौज की तो मालूम चला कि श्रीमान जी इस तरह के निर्वस्त्र अमूर्त कला तस्वीरों, यानि इतने शरीर साथ हो कि बजाय एक व्यक्ति की नग्नता देखने के सारे शरीर मिल कर अमूर्त कला बनायें, के लिए प्रसिद्ध हैं और इस तरह के प्रयोग न्यू योर्क के रेलवे स्टेशन, वेनेसूएला में काराकास शहर, इंग्लैंड में न्यू केस्ल के मिलेनियम ब्रिज और अन्य बहुत सी जगह पर कर चुके हैं. जो लोग इन तस्वीरों में भाग लेते हैं वह निशुल्क काम करते हैं, शुल्क के तौर पर बस उन्हें अपनी एक तस्वीर मिलती है. प्रस्तुत हैं ट्यूनिक जी की अमूर्त कला के कुछ नमूने.

सोचये कि अगर ट्यूनिक जी भारत में अगली तस्वीर खींवना चाहें तो क्या उसमें भाग लेना पसंद करेंगे? वैसे तो भारतीय संस्कृति की रक्षा करने वाले उन्हें ऐसा कुछ करने से पहले इतने दँगे करेंगे तो ट्यूनिक जी तस्वीर लेना ही भूल जायेंगे. पर मान लीजिये कि वह किसी तरह से इस काम में सफ़ल हो भी जायें तो क्या उन्हें भारत में इतने लोग मिलेंगे, स्त्रियाँ और पुरुष जो इस तरह की तस्वीरें खुली जन स्थलों पर खिंचवा सकें? मुझे तो शक है, क्योकि मुझे लगता हैं हम लोग अपने शरीरों के बारे में इतनी ग्रथियों में बँधे हैं कि शरीर को परदों से बाहर लाने का सुन कर घबरा जाते हैं. भारत में बस नागा साधू ही हैं जो यह कर सकते हें.

आप सोचेंगे कि हमसे पूछ रहा है, क्या इसमें स्वयं इतनी हिम्मत होगी? मेरा विचार है कि हाँ, मुझे इस तरह निर्वस्त्र तस्वीर खिचवाने में कोई दिक्कत नहीं होगी. शरीर तो केवल शरीर ही है, सबके पास जैसा है, वैसा ही, न कम न अधिक. क्या कहते हैं आप, यह सच बोल रहा हूँ या खाली पीली डींग मारने वाली बात है?

शायद यह खाली पीली डींग ही है कि क्योंकि दस साल पहले तक कोई पूछता तो मुझे शक न होता कि निर्वस्त्र तस्वीर खिंचवाने में हिचकिचाहट न होती पर आज मुझे लगता है कि शरीर बूढ़ा हो रहा है, पेट निकला है, बाल सफ़ेद हैं तो अधिक झिकझिकाहट सी होती है. यह आधुनिक समाज का ही प्रभाव है कि दुनिया में केवल सुंदर शरीर ही होने चाहिये, ऐसा लगने लगता है और अगर आप मोटे, छोटे, दुबले, बूढ़े हों तो यह समाज आप को अपने शरीर से शर्म करना सिखा देता है.

















सोमवार, अप्रैल 23, 2007

ज्हाँग यू का बदला

चीन के फ़िल्म जगत में कुमारी ज्हाँग यू (Zhang Yu) ने तूफ़ान मचा दिया. बात कुछ वैसी ही थी जैसी कुछ समय पहले भारत में स्ट्रिँगर आपरेशन में शक्ती कपूर जैसे "अभिनेताओं" के साथ हुई थी, जब महिला पत्रकार अभिनेत्री बनने की इच्छा रखने वाली युवती बन कर फ़िल्म जगत के जाने माने लोगों से मिलीं और छिप कर इस मिलन की वीडियो खींचे जिनसे स्पष्ट होता था कि अभिनेत्री बनाने का वायदा करके कुछ लोग युवतियों से उसकी कीमत माँगते थे.

कुमारी यू चीन के मध्य भाग के राज्य हूबेई के गाँव से हैं और वह बेजिंग गायिका बनने की इच्छा से आयीं थीं. बहुत कोशिश करने पर भी उन्हें गायिका काम नहीं मिला पर फ़िल्मों में कुछ छोटे मोटे एस्ट्रा के भाग मिले. उन्होंने बहुत से फ़िल्म निर्माता, निर्देशकों आदि से मिलने की कोशिश की, जो शारीरिक सम्बंधों की कीमत माँगते और फ़िल्म में भाग देने का वायदा करते.

14 नवंबर 2006 को यू ने अपना चिट्ठे पर जाने माने चीनी फिल्म निर्माता निर्देशकों के वीडियो दिखाना प्रारम्भ किया और सारे देश में खलबली मचा दी. अब तक करीब बीस वीडियो दिखा चुकीं हैं और कहती हैं कि और भी हैं.

भारत में हुए स्ट्रिँग आपरेशन में और कुमारी यू के वीडियो आपरेशन में फर्क केवल इतना है कि भारत में धँधे वाले फिल्मी लोगों को धोखा दे कर उनकी तस्वीरें खींची गयीं थीं जबकि यू के वीडियो में दिखने वाले लोगों को मालूम था कि वीडियो लिया जा रहा है. यू का कहना है कि इन लोगों को वीडियो देख कर खुशी होती थी, इसलिए भी कि उन्हें अपनी शक्ति पर पूरा भरोसा था और सोचते थे कि यू उनके विरुद्ध कुछ नहीं कर पायेंगी.

शुरु में ऐसा ही हुआ. यू ने तीन लोगों पर मुकदमा किया कि इन्होंने वायदा कर के मेरे शरीर का उपयोग किया और फ़िर मुझे काम भी नहीं दिया. चीनी अदालत ने यह मुकदमा रद्द कर दिया. यू कहती हैं कि तब उन्होंने चिट्ठे के द्वारा यह बात लोगों तक पहुँचाने की सोची. जिस दिन उनके चिट्ठे पर पहला वीडियो निकला, पहले बारह घँटों में उसे तीन लाख लोगों ने देखा, तबसे उनके वीडियो को लोग देखते ही जा रहे हैं और उनका चिट्ठा चीन की सबसे अधिक देखी जानी वाला अंतर्जाल पृष्ठों में से बन गया है.

यू कहतीं हैं कि चीनी औरतों ने अब तक सब कुछ चुप रह कर सहना ही सीखा था पर अब वह चुप नहीं रहेंगीं और अपने अधिकारों के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं. आज यू के पास नाम, प्रसिद्धि, काम सब कुछ हैं. अपने जीवन पर वह एक किताब लिख रहीं हैं.




इस तरह की बात हो तो अक्सर लोग स्त्री पर ही उँगली उठाते हें कि उसका चरित्र अच्छा नहीं या वह जरुरत से अधिक महत्वाकाँक्षी है, इत्यादि, इसलिए कम ही स्त्रियाँ इस तरह की बात को ले कर सबके सामने आने का साहस कर सकती हैं. पर अंतर्जाल और चिट्ठों के द्वारा अपने सच को सबके सामने रख पाना क्या सचमुच आम जीवन में निर्बलों को लड़ने का साधन दे सकता है? क्या घर में हिंसा या अपमान की शिकार माँ और बच्चे इस तरह अपने अधिकारों के लिए लड़ सकते हैं? अगर आप अपने चिट्ठे पर यू की तरह सेक्स के वीडियो रखें तो शायद लोग उसे देखने पहुँच जायें पर आम हिंसा को कौन देखने जायेगा?

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