अँग्रेजी अखबार द फाईनेंशियल टाईमस में एक चिट्ठी छपी जिसमें फिल्मों में बढ़ती हुई मार काट और हिँसा के बारे में चिंता व्यक्त थी. अखबार के एक लेखक श्री टिम हारफोर्ड ने इस पत्र के उत्तर में लिखाः
"यह आवश्यक नहीं कि हिँसक फिल्मों से समाज में हिँसा पैदा होगी. जब गुँडे या मारधाड़ करने वाले लोग हिँसक फिल्म देखने जाते हैं तो न बियर पीते हैं न आपस में मार पिटाई करते हैं. दो अर्थशास्त्री, गोर्डन डाह्ल और स्टेफानो देला वीन्या ने एक शोध में पाया है कि जब मल्टीपलैक्स में हिँसक फिल्में दिखाई जाती हैं, तो आसपास के इलाके में शाम से ले कर सुबह तक के समय में अपराध कम हो जाते हैं. पर अगर कोई रोमानी फिल्म दिखाई जाती है, तो गुँडा टाईप के लोग पब में जा कर अधिक बियर पीते हैं और उनके मार पिटाई करने का अनुपात बढ़ जाता है. डाह्ल और वीन्या के शौध के अनुसार, हिँसक फिल्में अमरीका में प्रति दिन, कम से कम 175 अपराध कम करने में मदद करती हैं."
यानि कि आप के शहर में गुँडागर्दी अधिक हो तो, सिनेमा हाल वाले से कहिये कि जितनी हिँसा से भरी फिल्म दिखा सकता है दिखाये. पर इस शौध से यह पता नहीं चलता कि यह बात केवल अमरीका के गुँडों के लिए सही है या फ़िर भारतीय गुँडों पर भी लागू हो सकती है? आप का क्या विचार है?
दूसरी बात तुरंत प्रभाव और लम्बे प्रभाव की है. यह हो सकता है कि तुरंत प्रभाव में हिँसक फिल्म देख कर गुँडों की हिँसा भावना तृप्त हो जाये पर यह तो नहीं कि बढ़ी हिँसा देखने के बाद जब भी हिँसा का मौका आयेगा, वह अधिक हिँसक हो जायेंगे?
जिस तरह अमरीका सारी दुनिया में यहाँ वहाँ हमले करते रहता है वह भी हिँसक फिल्मों का लम्बा प्रभाव तो नहीं? यानी शौध की जानी चाहिये कि बुश जी और डोनाल्ड रम्सफेल्ड जैसे उनके युद्धप्रेमी साथियों को किस तरह की फिल्में देखना पसंद है, रोमानी या मारधाड़ वाली?
***
चालाक भिखारी
दो सप्ताह पहले की बात है. लिसबन हवाई अड्डे से बाहर निकला और टैक्सी की लाईन की ओर बढ़ रहा था कि एक युवती आयी. हाथ से खींचती सामान की ट्राली, बोलने में हल्की सी हिचकिचाहट, बोली कि उसका पर्स खो गया है और उसे मैट्रो लेने के लिए केवल एक यूरो चाहिये. सोचा कि बेचारी यात्री है जिसका यात्रा में पर्स खो गया होगा, तुरंत उसे पाँच यूरो का नोट दिया. फ़िर जब तक टैक्सी की लाईन में खड़ा रहा, उसे देखता रहा, कि वह वही कहानी हर आने वाले को सुनाती थी, और बहुत से लोगों ने उसे पैसे दिये. उस दस पंद्रह मिनट में ही उसने बहुत पैसे बना लिए थे.
एक बार फ़िर भीख माँगनें वालों ने नये तरीके से मुझे हरा दिया था.
कुछ भी हो भीख नहीं दूँगा, यह सोचता हूँ और किसी नवयुवक तो कभी भी नहीं. जाने क्यों मन में लगता है कि नवयुवक पैसे ले कर नशे का सामान खरीदते हैं. नशे की आदत से मरना अगर उनकी किस्मत है तो उसमें मैं क्या कर सकता हूँ पर कम से कम इतना तो कर सकता हूँ कि मैं उसमें योगदान न दूँ!
इस बात से एक और दुख था कि अगली बार हवाई अड्डे पर कोई मदद माँगेगा तो मन में शक ही होगा कि ड्रामा तो नहीं कर रहा. हर जगह पहले से ही शक होता जब बस या ट्रेन स्टेशन पर कोई इस तरह से टिकट खरीदने के लिए पैसे माँगता है.
फ़िर कल शाम को काम से वापस आ रहा था कि एक नया दृश्य देखा. एक युवक सड़क के किनारे बैठा था. साथ में कुत्ता. सामने उसकी टोपी पैसों के लिए रखी हुई थी और एक कागजं पर साथ में लिखा था, "मेरी मदद कीजिये". और वह युवक एक किताब पढ़ने में मग्न था. आने जाने वालों को नजर उठा कर भी नहीं देख रहा था. मुझे उसकी यह बात पसंद आयी, मन में सोचा कि किताब पढ़ने के प्रेमी भिखारी की मदद की जा सकती है! शायद बेचारे के पास किताबें खरीदने के लिए पैसे नहीं थे!
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किताब पढ़कर ज्ञान अर्जित करे और मेहनत न करे, उसका उपयोग न करे, तब क्या फायदा. मैं तो इस हालात में और न दूँगा...कोई विश्वविद्यालय का छात्र मदद मांगकर टेक्सट बुक खरीदे तो बात समझ आती है. नावेल पढ़ने के लिये कतई नहीं.
जवाब देंहटाएंमैं तो केवल इतना जानती हूं कि १९८१ में एक बार मैं अपनी दो साल की बिटिया के साथ बॉम्बे में लोकल ट्रेन से यात्रा कर रही थी जब किसी ने मेरे पर्स से सारे पैसे निकाल लिये थे । बस अन्दर की जेब में एक दो रूपये का नोट बचा रह गया था । तब एक लड़की ने मेरे लिये टिकट खरीदा था । यदि वह मदद न करती तो न जाने क्या होता । अतः मैं तो लोगों की मदद करती रहूँगी , यदि वे धोखा देते हैं, तो ये उनकी समस्या है, मेरी नहीं ।
जवाब देंहटाएंघुघूती बासूती