शनिवार, जुलाई 07, 2007

मैं पिता हूँ या माँ?

यहाँ के स्थानीय समाचार पत्र में दो बातों ने ध्यान खींचा. एक तो था पूरे पृष्ठ का विज्ञापन, जिस पर बड़ा बड़ा लिखा था, "साहसी पिता - पुरुष जो बदलते हैं, दुनिया बदल सकते हैं". विज्ञापन का ध्येय है कि घर के कामों का बोझ केवल स्त्री पर नहीं होना चाहिये बल्कि पुरुष को घर के उन कामों में हाथ बँटाना चाहिये जो अधिकतर लोग "नारी कार्य" के रूप में देखते हैं जैसे कि सफाई करना, कपड़े धोना, बच्चों की देख भाल करना और उनके साथ खेलना.



दूसरी ओर एक समाचार अमरीका से भी था, "थरथराईये, सुपर पिता आ रहे हैं", यानि वे नव पिता जो अपने पिता होने को बहुत गम्भीरता से लेते हैं, इतनी गम्भीरता से कि वह माँ को कुछ नहीं करने देते और बच्चे के सभी काम स्वयं करते हैं. उन्होंने इन पिताओं को "Mom blocker" यानि कि माँ को रोकने वाले बुलाया है. बच्चे के बारे में छोटे बड़े सभी निर्णय वह स्वयं लेते हैं और माँ को बीच में दखलअंदाज़ी की अनुमति नहीं देते. इन पिताओं का ही एक उदाहरण हैं श्री ग्रेग एलन जिनका चिट्ठा है डेडीटाईपस (Daddytypes) और जो स्वयं को सुपरमामो (Supermammo)कहते हैं, यानि माँ से बढ़ कर माँ. समाचार का कहना है कि बहुत से माँए इन पतियों से बहुत परेशान हैं.

सोच रहा था कि क्या पुरुष और नारी का घर में अलग अलग रोल होना कहाँ तक ठीक है और कहाँ गलत? परम्परा कहती है कि पुरुष है नौकरी करने वाला, घर में काम नहीं करेगा, अनुशासन का प्रतीक, बच्चों के काम में घर में वह कुछ नहीं करेगा, आदि और नारियों के लिए इसका उलटा. पर आज के वातावरण में यह सँभव नहीं, शहरों में बहुत सी औरतों के लिए नौकरी करना आज आम बात है, चाहे वह आर्थिक जरुरत हो या व्यक्तिगत निर्णय, तो पुरुष को चाहते या न चाहते हुए भी कुछ तो बदलना ही पड़ता है. ऐसे पुरुष जो हर बात में बराबर काम बटाँयें तो कम ही होंगे, चाहे पत्नी का काम कितना ही कठिन क्यों न हो, घर की अधिकतर जिम्मेदारी उसी पर रहती है. प्रश्न है कि क्या इसको बदलना चाहिये या बदलने की कोशिश करनी चाहिये?

बदलाव तो धीरे धीरे आयेगा ही. यहाँ करीब 40 प्रतिशत विवाह तलाक में समाप्त होते हैं, और अकेला रहने वाला पुरुष, चाहे या न चाहे, उसे बदलना तो पड़ता ही है. तलाक लेने वालों में करीब 20 प्रतिशत पुरुष के बच्चे पिता के साथ रहते हैं, तो उसे माँ और पिता दोनो बनना ही पड़ता है, हाँ इसमें वह कितना सफल होता है या विफल, यह अलग बात है.

बिना विवाह के साथ रहने वाले युगल भी बहुत हैं और तेजी से बढ़ रहे हैं. इस तरह के परिवार जहाँ अविवाहित युगल रहते हैं, शौध ने दिखाया है कि उनमें पुरुष और स्त्री दोनो को बराबर काम बाँट कर करना पड़ता है और स्त्री पर घर के काम का बोझ कम होता है.

पर इन सबसे अलग भी एक बात है. मेरे विचार में हर मानव में पुरुष और नारी के गुण होते हैं पर बचपन से ही हमें "पुरुष ऐसे करते हैं", "नारियाँ वैसे करती हैं" के सामाजिक नियम सिखाये जाते हैं और इन सीखे हुए रोल से बदलना भीतर ही भीतर हमें अच्छा नहीं लगता क्योंकि मन में डर होता कि लोग क्या सोचेगें, क्या वे सोचेंगे कि मैं पूरा पुरुष नहीं या अच्छी स्त्री नहीं. काम करने वाली औरतें अपने अपराध बोध की बात करती हैं कि बच्चों का ध्यान ठीक से नहीं दे पातीं. लेकिन जब चाहे न चाहे, परिस्थितियाँ हमें मजबूर करती हैं कि हम अपने पाराम्परिक रोल की सीमा से बाहर जायें तो हम सचमुच अपने व्यक्तित्व को उसका स्वतंत्र रूप दे सकते हैं, अपने भीतर के नारी और पुरुष भाग को स्वीकार कर सकते हैं. एक बार इस स्वतंत्रता का अहसास हो जाये तो फ़िर हमें लोग क्या कहेंगे इसकी चिंता भी कम होती है.

2 टिप्‍पणियां:

"जो न कह सके" पर आने के लिए एवं आप की टिप्पणी के लिए धन्यवाद.

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