शुक्रवार, अगस्त 13, 2010

वैज्ञानिक की परीक्षा

जाने क्यों बचपन से ही मेरे मन में बात घुस गयी कि गणित बहुत कठिन है और मेरे बस की बात नहीं. जब हाई स्कूल पास किया तो गणित में अच्छे नम्बर आये थे लेकिन उससे भी मेरे मन की यह सोच नहीं बदली. तब से गणित के क्षेत्र में काम करने वालों के लिए सम्मान और उत्सुकता महसूस होती है कि जाने कैसे यह लोग इस विषय में दिलचस्पी रखते हैं और इसे समझ पाते हैं. उनके बारे में कुछ नया सुनता हूँ तो अवश्य पढ़ता हूँ और समझने की कोशिश करता हूँ. इसीलिए जब भारतीय अंग्रेज़ी दैनिक टेलीग्राफ़ में शीर्षक पढ़ा "भारतीय इंजीनियर विनय देवलालिकर ने गणित की जटिल समस्या का हल किया" तो तुरंत उस समाचार को पढ़ा.

इस समाचार में जिस जटिल समस्या की बात की गयी है, उसे कहते हैं, "पी बनाम एनपी" समस्या, लेकिन इसका क्या अर्थ है, यह मेरी समझ से बाहर है. तीस साल से इस समस्या का समाधान खोजने वालों ने घोषणा की हुई है कि इस समस्या को सुलझाने वाले को दस लाख डालर का पुरस्कार मिलेगा. समाचार में यह भी बताया गया कि दुनिया के बहुत से अन्य गणितविज्ञों ने संदेह प्रकट किया है कि सचमुच विनय देवलालिकर ने इस समस्या का समाधान खोज निकाला है, या यह झूठ है. एक महोदय ने तो अपनी तरफ़ दावा किया है कि अगर देवलालिकर जी ने सचमुच इस समस्या का हल निकाला हो तो वह अपनी ओर से अन्य दो लाख डालर का पुरस्कार देंगे.

देवलालिकर के दावे और उस पर होती बहस की बात से कुछ दिन पढ़ी एक अन्य बात याद आ गयी. इस वर्ष मानव कोष के डीएनए (DNA) में छुपे जीन (Gene) का नक्शा समझने की दसवीं वर्षगाँठ मनायी जा रही है. इसी जीन के माध्यम से सभी पेड़, जीव जन्तु अपनी संतान को अपने गुण देते हैं और इस मानव जीन के नक्शे से भविष्य की वैज्ञानिक तरक्कियों की बहुत सी उम्मीदें जुड़ी हैं. इसकी वजह से आज कई तरह के कैंसर तथा अन्य बीमारियों की समझ बढ़ी है और नयी दवाईयों की खोज हो सकी है, कई जन्मजात बीमारियों यानि माँ के गर्भ में ही पनपी बीमारियों के इलाज की आशा बँधी है. आने वालों दशकों में इस खोज से मानव जीवन कितना बदल जायेगा, इसका आज अनुमान लगाना आसान नहीं, लेकिन इसमें किसी को शक नहीं इस खोज से दुनिया बदल जायेगी.

Gene research
छोटे से बैक्टीरिया यानि सूक्ष्म एक कोषरुपी किटाणुओं से ले कर मानव जैसे विकसित जन्तुओं के जीन करोड़ों छोटे कणों से बने होते हैं जिन्हें जीनोम (Genome) कहते हैं, और जीन का नक्शा बनाने का अर्थ है कि यह बताया जाये कि उन करोड़ों कणों में से कौन सा कण कहाँ पर है.

आज से करीब बीस साल पहले, 1989 में सिस्टिक फाईब्रोसिस नाम की बीमारी के जीन का नक्शा बनाने वाली एक कम्पनी ने इस खोज पर कई सालों तक काम किया था और इसमें खर्चा पड़ा था करीब 5 करोड़ डालर. आज कुछ हज़ार डालर में पूरे मानव डीएनए के सभी जीनों का पूरा नक्शा बनाया जा सकता है. कहते हैं कि अगले कुछ वर्षों में इसकी कीमत एक हज़ार डालर से भी कम हो जायेगी. जीन शौध के साथ एक अन्य महत्वपूर्ण बात जुड़ी है कि इस वैज्ञानिक खोज की सभी जानकारी किसी एक व्यक्ति या एक कम्पनी के हाथ में नहीं है बल्कि खुले रूप में दुनिया के सभी वैज्ञानिकों के लिए उपलब्ध है. इस वर्ष मार्च में भारत ने भी घोषणा की कि दिल्ली की जेनोमिक्स संस्थान ने एक मानव जीन का नक्शा पूरा किया.

इस जीन के नक्शे बनाने की खोज में एक वैज्ञानिक ने बहुत महत्वपूर्ण काम किया था जिनका नाम है जीन मेयरस (Gene Myers).

मेयरस ने एक नये तरीके से जीन की जाँच की खोज की थी. इस तरीके में पूरे डीएनए को सूक्ष्म कोष स्तर पर बम विस्फोट जैसा करके छोटे छोटे टुकड़ों में तोड़ दिया जाता है फ़िर उन टुकड़ों की जाँच की जाती है. 1998-99 जब उन्होंने अपना यह नया तरीका अन्य वैज्ञानिकों के सामने पेश किया तो उस समय अन्य वैज्ञानिकों ने उनके तरीके की बहुत आलोचना की थी. अन्य वैज्ञानिकों का कहना था कि इससे बहुत गलतियाँ होंगी और यह ठीक तरीका नहीं. आज भी मेयरस के मन में गुस्सा है कि शुरु में उनके काम को सराहना नहीं मिली. उनका एक साक्षात्कार पढ़ा जिसमें वह कह रहे थे कि प्रारम्भ में उनके तरीके को जो उपेक्षा मिली, उसकी चोट उनके दिल में आज भी है, जबकि आज जीनोम शौध में उनका तरीका ही अच्छा माना जाता है.

मेरा विचार है कि किसी भी नयी बात का आविष्कार जो उस समय होने वाले तरीकों से बिल्कुल भिन्न हो या उल्टा लगे, उस पर संदेह करना आवश्यक है. इसी में विज्ञान की प्रगति छुपी है. सच्चा वैज्ञानिक वही है जो अपने काम पर संदेह करने वालों से निर्भय बात, बहस कर सके और अपने विचारों की सच्चाई को साबित कर सके.

कई बार सब लोग सोचते हैं कि हाँ बहुत अच्छा और बढ़िया आविष्कार है लेकिन समय ही बताता है कि वह सचमुच का नया आविष्कार था या केवल मन का धोखा. दुनिया में नीम हकीम और लोगों के विश्वासों का फायदा उठाने वाले लोग कम नहीं हैं, उनकी बात नहीं कर रहा मैं. जिसने सच में पूरी वैज्ञानिक सोच के साथ कुछ नया खोजा हो, उस पर भी संदेह करना, उसमें नुक्स निकालना, उसकी कमियों की बात करना, यही वैज्ञानिक प्रगति का रास्ता है. शायद इसीलिए अधिकतर आविष्कारक बिना प्रसिद्धि और पैसे के ही जीवन गुज़ारते हैं और यह प्रसिद्धि उनके मरने के बाद ही आती है.

शनिवार, जुलाई 31, 2010

भाषा, लिपि और लेखनी

आजकल अक्सर हिंदी के शब्द अँग्रेज़ी यानि रोमन लिपि में लिखे हुए दिखने लगे हैं. ईमेल से या मोबाईल पर एस.एम.एस से या फ़िर गूगल टाक या फैसबुक पर चेट, बहुत सी बातें होती तो हिंदी में हैं लेकिन सहूलियत के लिए लिखी रोमन लिपि में जाती है. भारतीय नामों को अगर रोमन लिपि में देखा जाये तो अक्सर पता नहीं चलता कि उनका सही उच्चारण क्या है, क्योंकि अँग्रेज़ी भाषा तथा रोमन लिपि में बहुत से स्वर होते ही नहीं.

Artwork by Sunil Deepak on languages
कुछ साल पहले जर्मनी में रहने वाले एक भारतीय डाक्टर हमारे यहाँ बोलोनिया आये, नाम था गोपाल दाबड़े. तब वह यही कह रहे थे कि यहाँ यूरोप के लोग उनके नाम को कितनी अलग अलग तरह से कहते हैं. यानि अँग्रेज़ी भाषा के अलावा अन्य यूरोपीय भाषाओं को देखें तो दिक्कतें और भी बढ़ जाती हैं, क्योंकि बहुत सी भाषाओं में रोमन लिपि का ही प्रयोग होता है पर उनका उच्चारण अलग अलग है, जिससे दाबड़े का डाबड, डाबडे, दाबदे, दबदे, कुछ भी बन सकता है.

इन्हीं बातों के अनुभव से सोच रहा था कि क्या धीरे धीरे हमारी हिंदी के कुछ स्वर जो अन्य भाषाओं में नहीं होते, लुप्त हो जायेंगे?
वैसे तो एशिया में अन्य कई देश हैं, जैसे इंदोनेशिया, फिलिपीन, वियतनाम, जहाँ पर उनकी भाषा रोमन लिपि में लिखी जाती है, पर इससे उनकी भाषा ने अपने विषेश स्वर नहीं खोये. इसका एक कारण यह है कि इन देशों में आम जनता में अँग्रेज़ी बोलने वाले बहुत कम हैं, और वर्षों पहले जब इन्होंने रोमन लिपि को अपनाने का निश्चय किया तो उस समय रोमन लिपि की वर्णमाला की कमियों को पूरा करने के लिए एक्सेंट वाले वर्णों को लेटिन वर्णमाला से ले कर जोड़ लिया जिनका प्रयोग अन्य यूरोपीय भाषाओं में होता है जैसे कि à á â ã ä å. इस तरह उन्हें अपनी भाषा के विषेश स्वरों को लिखने के अन्य वर्ण मिल गये.

उदाहरण के लिए D Ð Ď d जैसे वर्णों से आप वियतनामी भाषा में द, ड, ड़, ध जैसे विभिन्न स्वरों को अलग अलग वर्ण दे सकते हैं, इसलिए जब वह रोमन लिपि में लिखते हैं तो भी अपनी भाषाओं के विषेश स्वरों के उच्चारण को संभाल कर रखते हैं. पर हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं के साथ ऐसा क्या कर सकते हैं जिससे उनकी बोली और विषेश स्वरों का रोमनीकरण न हो?

भाषा एक जैसी नहीं रहती, समय के साथ बदलती रहती है. वेदों, पुराणों, बाइबल, कुरान और अन्य प्राचीन ग्रंथों को भाषाविज्ञानी जाँच कर बता सकते हें कि कौन सा हिस्सा पहले लिखा गया, कौन सा बाद में जोड़ा गया.

भाषा समय के साथ क्यों बदलती है? इसकी एक वजह तो नये आविष्कार है, जिनके लिए नये शब्दों की ज़रूरत पड़ती है. जैसे कम्प्यूटर, ईमेल, इंटरनेट जो पहले नहीं थे, और इनसे जुड़ी बहुत से बातों के शब्द नये बने हैं. समय के साथ कुछ वस्तुओं का उपयोग कम या बंद हो जाता है, जैसे लालटेन, बैलगाड़ी आदि और इनके शब्द धीरे धीरे समय के साथ खो जाते हैं. जब छोटा था तो गुसलखाने में झाँवा होता था पाँव साफ़ करने के लिए लेकिन जब पिछली बार दिल्ली गया और छोटी बहन से पूछा कि क्या उसके घर में झाँवा मिलेगा तो वह हँसने लगी, बोली कितने सालों के बाद यह शब्द सुना है.

विद्वानों का कहना है कि भाषा के विकास का सम्बंध उसकी लिखायी से भी हैं.

बोलने वाली भाषा और लिखने वाली भाषा के बीच में क्या सम्बंध होता है इस विषय पर वाल्टर जे ओंग (Walter J. Ong) ने बहुत शौध किया है और लिखा है. उनकी 1982 की किताब ओराल्टी एँड लिट्रेसी (Orality and Literacy) जो इसी विषय पर है, मुझे बहुत अच्छी लगी. उनका कहना है कि मानव बोली का विकास तीस से पचास हज़ार साल पहले हुआ जबकि लिखाई का आविष्कार केवल छः हज़ार साल पहले हुआ. इस तरह से मानव भाषाएँ बोली के साथ विकसित हुईं. दुनिया की हज़ारों भाषाओं में से केवल 106 में लिखित साहित्य की रचना हुई. आज भी कई सौ ऐसी बोली जाने वाली भाषाएँ हैं जिनकी कोई लिपि नहीं है.

ओंग कहते हैं कि लिखने से मानव के सोचने का तरीका बदल जाता है. शब्दों के जो आज अर्थ हैं, पहले कुछ और अर्थ थे. बोले जाने वाली भाषा में जब नये अर्थ बनते थे, तो पुराने अर्थ धीरे धीरे गुम हो जाते थे. लेकिन जब से लिखाई का आविष्कार हुआ, शब्दों के पुराने अर्थ गुम नहीं होते, उन्हें खोजा जा सकता है. इसीलिए उनका कहना है कि पुरानी किताबों को पढ़ें तो उनका अर्थ समझने के लिए आज की भाषा का प्रयोग करना उचित नहीं. मैंने भी एक बार पढ़ा था कि ऋगवेद में वर्णित अश्वमेध, घोड़ों के वध की बात नहीं कर रहे हैं क्योंकि उस समय अश्व का अर्थ कुछ और भी था.

ओंग कहते हैं कि बोलने वाली भाषा में रची कविताओ़, कथाओं, काव्यों में एक ही बात को कई बार दोहराया जाता है, विभिन्न तरीके से कहा जाता है, मुहावरों का प्रयोग किया जाता है, क्योंकि इससे सुनने वालों को समझने में और याद रखने में आसानी होती है. इसी तरह से बोलने वाली भाषा के बारे में ही प्राचीन ग्रीस में भाषण देने की कला के नियम बनाये गये थे. बोलने वाले को इतना कुछ याद रखना होता है, जिससे उसकी सोच और तर्क का विकास भी सीमित रहता है. गीत, कविता में बार बार कुछ पंक्तियों को दोहराना, शब्दों की ताल, धुन खोजना, यह बोलने वाली भाषा के लिए ज़रूरी है. बोलने वाली भाषा में अमूर्त विचारों और तर्कों का गहन विशलेषण करना कठिन है, बात गहरी या जटिल भी हों तो उन्हे सरलता से ही कहना होता है, वरना लोग समझ नहीं पाते.

जबकि लिखने से मानव सोच को याद रखने की आवश्यकता नहीं, जरुरत पढ़ने पर दोबारा पढ़ा जा सकता है. इससे दिमाग को स्मृति पर ज़ोर नहीं देना पड़ता और वह अन्य दिशाओं मे विकसित हो सकता है. इसलिए विचार और तर्क अधिक जटिल तरीके से विकसित किये जा सकते हैं, कविताओं, कहानियों को भी दोहराव नहीं चाहिये, जिस दिशा में चाहे, विकसित हो सकती हैं और लेखक के लिखने का तरीका बदल जाता है. ओंग के अनुसार, इसी वजह से लिखने पढ़ने वाला मानव दिमाग विज्ञान और तकनीकी तरक्की कर पाया.

मेरे विचार में प्राचीन भारत में संस्कृत लिखी जाने वाली भाषा थी, हालाँकि अधिकाँश जनता संस्कृत लिखना, पढ़ना, बोलना नहीं जानती थी. दूसरी ओर हिंदी भाषा का विकास बोलने वाली भाषा की तरह हुआ. पिछले कुछ सौ सालों को छोड़ दिया जाये तो भारत के अधिकाँश लोगों के लिए हिंदी केवल बोलने वाली बोली थी, लिखने वाली नहीं. जब भारत स्वतंत्र हुआ तब भी पढ़ने लिखने वाले लोग भारत की जनसंख्या का छोटा सा हिस्सा थे. जब उसे लिखने लगे तो उससे उसके स्वरों तथा शब्दों में कुछ बदलाव आये. भाषा के लिखने से आने वाले अधिकतर बदलाव पिछले कुछ दशकों में ही आये हैं, जब भारत की अधिकाँश जनसंख्या शिक्षित होने लगी है, और लोग किताब पत्रिका पढ़ने लगे हैं. लेकिन क्या इस वजह से भारत के अधिकाँश लोगों के सोचने का तरीका अभी भी बोलने वाली भाषा पर टिका है, लिखी भाषा पर नहीं? और समय के साथ जैसे जैसे साक्षरता बढ़ेगी, भारतीय मानस के सोचने का तरीका इस बात से बदल जायेगा?

पिछले कुछ समय में, टीवी और टेलीफ़ोन के विकास से, बोलने और सुनने की संस्कृति बढ़ रही है, पढ़ने की कम हो रही है. दूसरी ओर, अवधी, मैथिली, भोजपुरी, जैसी भाषाएँ जो भूली जा रहीं थीं, लेकिन इंटरनेट की वजह से आज उन्हें भी नया जीवन मिल सकता है.

इन सब बदलावों के क्या अर्थ हैं, क्या प्रभाव पड़ेगा हमारी भाषा पर, उसके विकास पर? क्या रोमन लिपि में लिखी हिंदी कमज़ोर हो कर मर जायेगी, या रूप बदल लेगी? आप का क्या विचार है?

शनिवार, जुलाई 17, 2010

कोमिक्स साहित्य

बचपन में बेताल की कोम्किस पढ़ना मुझे वहुत अच्छा लगता था. तब इंद्रजाल कोमिक्स के नाम से यह पत्रिकाएँ आती थीं. कुछ साल बाद जब अंग्रेज़ी बोलने समझने की क्षमता बढ़ी तो आर्ची, जगहेड, सुपरमैन, स्पाईडरमैन जैसी कोमिक्स कुछ दिन पढ़ीं पर उनमें मेरी कोई विषेश दिलचस्पी नहीं बनी, और धीरे धीरे मेरा कोमिक्स पढ़ना बंद हो गया. तब लगता कि इस तरह की कोमिक्स की किताबें या पत्रिकाएँ केवल बच्चों के पढ़ने के लिए होती हैं.

इटली में आये तो पहले जापानी चित्रकथाओं से परिचय हुआ, जब मेरा बेटा इनका दीवाना था. उस समय जापानी कामिक्स "मैंगा" (Manga) और जापानी कार्टून फिल्मों "एनीम" (Anime) से परिचय हुआ. बहुत साल के बाद अमर चित्र कथा का नाम सुनाई देने लगा, जिसमें पंचतंत्र, रामायण और महाभारत की कहानियाँ प्रस्तुत की जाती थीं. उस समय विदेशों में इनका प्रसार करते समय कहा जाता कि वे भारत से दूर पैदा हुए भारतीय मूल के बच्चों को भारत की संस्कृति के बारे में बताने का यह अच्छा तरीका है, कि चित्रकथाओं के माध्यम से बच्चे धर्म, परम्पराओं के बारे में भी जानेंगे और साथ ही हिंदी का अभ्यास भी हो जायेगा.

तभी यह बात भी मन में आयी कि शायद इन्हें कामिक्स कहना ठीक नहीं था, क्योंकि कामिक्स का अर्थ है "हँसी मज़ाक", जबकि इनमें तो रहस्य, रोमांच से ले कर प्रेम कथा तक विभिन्न तरह की पत्रिकाए मिलती हैं. इसी तरह से कार्टून शब्द का अर्थ शुरु में तो शायद हाथ से बनी आकृतियों से जुड़ा था लेकिन आज यह भी "हँसी मज़ाक" या "व्यंग" से जुड़ा है, जबकि इस तरह की फ़िल्मों में खेल कूद, प्रेम कथा, एक्शन, सभी कुछ होता है. ओस्कर पुरस्कार पाने वाली फ़िल्म "डांस विद बशीर" (Dance with Bashir), जिसमें फिलिस्तीनियों के शरणार्थी कैंम्प में नरसंहार की कहानी है, या फ़िर ईरानी लेखिका मरजान की "पेरसोपोलिस" (Persepolis), उन्हें कार्टून फ़िल्म कहना अज़ीब सा लगता है, और "एनिमेटिड फ़िल्म" (animated film) कहना अधिक ठीक लगता है, "एनिमेटिड" यानि यानि "कत्रिम जान डाले हुए पात्र".

जैसे जैसे इस दुनिया से अधिक जानकारी हुई, तो अपनी इस सोच को बदलना पड़ा पड़ा कि इस तरह की चित्रकथाएँ केवल बच्चों के लिए होती हैं. बल्कि कुछ चित्रकथाएँ तो केवल व्यस्कों के लिए बनायी जाती हैं. जिन्होंने इंटरनेट पर "सविता भाभी" की चित्रकथाएँ देखी हैं वह यह जानते हैं कि इस तरह की सेक्स से जुड़ी चित्रकथाएँ हिंदी में भी उपलब्ध हैं. मुझे नहीं मालूम कि हिंदी में सेक्स की बात न भी की जाये, तो क्या बड़े लोगों के लिए विषेश रूप से कहानियाँ या किताबें बनती हैं? शायद "ग्राफ़िक उपन्यास" के रूप में बनती हैं? यह तो भारत में रहने वाला कोई जागरूक पाठक ही बता सकता है.

हमारे शहर बोलोनिया में हर वर्ष बिलबोलबुल नाम से चित्रकथा लिखने, बनाने वालों की प्रदर्शनी और ट्रेडफेयर लगते हैं जो यूरोप में इस तरह का सबसे बड़ा मेला है. पिछले वर्ष, इस प्रदर्शनी में बहुत से अफ़्रीकी कलाकार और लेखक आये थे. युद्ध में बच्चों को सैनिक बनाने से ले कर औरतों पर होने वाले अत्याचारों की बातें थीं, विषयों की विविधता थी. कला की दृष्टि से, ग्रफ़िक्स की दृष्टि से, विषय और लेखन की दृष्टि से, हर तरह से लगा कि यह सचमुच साहित्य की विधा है, इसे केवल बच्चों की कहानियाँ सोचना ठीक नहीं. (नीचे की तस्वीर में शराब के नशे में हिंसा और बलात्कार की बात करने वाली एक अफ्रीकी चित्रकथा)

Fumetti africani - Bilbulbol Bologna 2007

इटली में सभी पुस्कालयों और किताबों की दुकानों में चित्रकथाओं की किताबों का अलग से हिस्सा होता है. इतालवी भाषा में इन्हें फूमेत्तो कहा जाता है, जिसका शाब्दिक अर्थ है, छोटा सा धूँए का बादल और इस शब्द का मूल उन बादल जैसे बुलबुलों में है जिनमें इन किताबों के पात्रों की बातें लिखी होती हैं. फूमेत्तो के कलाकारों और लेखकों को इतालवी साहित्य जगत में बहुत मान मिलता है, शायद इसलिए भी कि इन किताबों की बिक्री बहुत है और इन्हें लिखने बनाने वालों को पैसा अच्छा मिलता है. इन पर फ़िल्में भी बनती हैं. कुछ लोग अपनी किताबों की कहानी भी लिखते हैं और वही उनके साथ के चित्र भी बनाते हैं, लेकिन अधिकतर, लेखक और चित्र बनाने वाले लोग भिन्न होते हैं.

चित्रकथाओं की दुनिया में जापान का स्थान सबसे आगे है, जहाँ पर मैंगा और एनीम के दीवानों की संख्या लाखों में है, और जहाँ लिखी छपी किताबें विभिन्न भाषाओं में अनुवादित होती हैं, हालाँकि मुझे नहीं मालूम कि यह किताबें हिंदी में भी उपलब्ध हैं या नहीं. मैंगा बनाने और लिखने वाली एक सुप्रसिद्ध जापानी लेखिका कलाकार यहीं बोलोनिया में रहती हैं जिनका नाम है केईको इछिगूचि (Keiko Ichiguchi) जिनसे एक बार मिलने का मौखा मिला था.

जापानी चित्रकाथाओं से एक अन्य नया खेल ने जन्म लिया है जिसका नाम है कोसूपूरे (Kosupure) या कोज़प्ले (Cosplay) जिसमें नवयुवक और नवयुवतियाँ प्रसिद्ध चित्रकाथाओं तथा वीदियोंगेम के पात्रों जैसे वस्त्र पहनते हैं, मेकअप करते हैं जैसे कि आप नीचे की तस्वीर में देख सकते हैं. कोज़प्ले के दीवाने प्रतियोगिताओं का आयाजोन करते हैं, अपने मनचाहे पात्रों जैसा बनने के लिए पैसा और समय दोनो ही लगाते हैं.

Cosplay dresses
(यह तस्वीर feer.wsj.com से)

अगर आप को मौका मिले अपने मनपसंद कोमिक हीरो या हीरोईन के भेस बनाने का, तो आप क्या बनना चाहेंगे? अमरीकी कोमिक वाले सुपरमैन या वंडरवूमन? अमर चित्रकथा से राम या कृष्ण? किसी जापानी मैंगा पर आधारित पात्र? मुझे स्वयं जापानी मैंगा की तरह रंगबिरंगे बालों वाला हीरो बनना अच्छा लगेगा, लेकिन शीशे में अपने शरीर का आकार देखूँ तो लगता है कि सूमों की कुश्ती वाला रोल ही मेरे लिए ठीक रहेगा

शुक्रवार, जुलाई 09, 2010

पिँजरे के पंछी

अमरीकी महाद्वीप के बहुत से हिस्सों में इतिहास बस कुछ सौ साल पुराना ही दिखता है, उससे पहले का इतिहास, कोलोम्बस के बाद आये यूरोपीय उपनिपेश से मिट कर, दब कर, कहीं गुम हो चुका है.

"यह भवन शहर के सबसे प्राचीन भवनों में से है", हमारी साथी और गाईड तानिया ने बताया था. ऊँची दीवारें और काले रंग से पुते ऊँचे गेट के पीछे से भवन दिख नहीं रहा था. गेट पर बड़ा भारी सा ताला लगा था. उसे खोला गया और गाड़ी भीतर गयी, तो सामने वैसा ही एक अन्य गेट था, जिसे खोलने से पहले, पहले वाला गेट बंद किया गया, उस पर ताला लगाया गया.

"मिल्ट्री वालों की बटालियन वहाँ तैनात रहती है, उन्हें अस्पताल में अंदर आना मना है", तानिया ने एक कोने में बंदूक ले कर खड़े सिपाहियों की ओर इशारा कर के कहा. हरी भरी घास से घिरा, वह पुराना भवन सुंदर लग रहा था. घास पर इधर उधर पीले वस्त्रों में बहुत से पुरुष थे, एक ओर पीले रंग की मेज़ और कुर्सियाँ थीं, जिन पर और पीले वस्त्र पहने पुरुष बैठे थे. लगा कि कोई बसंत मेला लगा हो. "यहाँ किसी व्यक्ति की तस्वीर नहीं खींच सकते", तानिया ने मुझे कैमरा बाहर निकालते देख कर कहा तो मैंने कैमरा वापस बैग में रख लिया. हर तरफ़ तो आदमी थे, बिना उनके कैसे तस्वीर खींचता?

"स्वागत है, आईये" कहते कहते, अस्पताल के अध्यक्ष डा. पाउलो हमें लेने आ गये. उन्होंने ही अस्पताल के बारे में बताया कि यह मानसिक रोग वाले अपराधियों के लिए अस्पताल भी है और जेल भी, जहाँ सौ से कुछ अधिक मानसिक रोगी रहते हैं जिनमे से अधिकतर पुरुष हैं. डा. पाउलो के साथ अस्पताल के विभिन्न भागों में निरीक्षण के लिए गये. जैसे मानसिक रोग के अस्पतालों में अक्सर होता है, हर तरफ़ गेट और ताले लगे थे, कहीं से भी घुसते या निकलते तो गार्ड हमारे लिए ताला खोलता और पीछे से तुरंत ही बंद कर देता. अस्पताल के वार्डों में हर जगह, नर्स और डाक्टर भी, तालों के पीछे अपने कमरों में जेल की तरह ही बंद थे, तभी बाहर आते थे, जब कुछ काम हो.

मैं कहीं कुछ रुक कर देखने लगा तो घबरायी हुई तानिया मेरे पास आयी, बोली "तुम सब लोगों के साथ झुँड में ही रहो, पीछे रुक कर अकेले पड़ने में खतरा है." तो मुझे कुछ हँसी आयी. मैंने पहले भी बहुत से मानसिक रोग के अस्पताल देखें हैं, जहाँ असमान्य व्यवहार करने वाले लोग अक्सर दिखते हैं लेकिन वे लोग किसी तरह से खतरनाक नहीं होते. भारत में तो कई बार बेघर लोगों को, मानसिक रोगियों तथा कुष्ठ रोगियों को भी इसी तरह जेल में बंद कर देते हैं, और गरीब अनपढ़ लोग बिना किसी जुर्म के सुनवाई के इंतज़ार में जेल काट देते हैं. वह बोली कि यह विचार आम मानसिक अस्पतालों के बारे में सही था लेकिन इस अस्पताल+जेल में रहने वाले केवल रोगी ही नहीं अपराधी भी हैं और आम मानसिक रोगियों से भिन्न हैं, अधिक खतरनाक हैं.

वहाँ पर जहाँ एक ओर सचमुच के अपराधी थे, कुछ लोग ऐसे भी थे जिनका यही अपराध था कि वह मानसिक रोगी थे. डा. पाउलो ने बताया कि जब इस तरह के व्यक्ति को पुलिस वहाँ ले आती है, तो भी उस व्यक्ति को छोड़ नहीं सकते, उसे पहली सुनवाई का इंतज़ार करना पड़ता है जब मजिस्ट्रेट उस व्यक्ति को निर्दोष कह कर जेल से जाने की अनुमति दे सकता है, और इसमें कुछ महीने लग जाते हैं. अन्य देशों के मुकाबले में मुझे लगा कि ब्राज़ील की इस जेल+अस्पताल में डाक्टरों और नर्सों का व्यवहार अच्छा है, काम करने में मानसिक रोगियों के मानव अधिकारों की भी कुछ संचेतना है.

अस्पताल में घूमते हुए अंत में महिला विभाग में पहुँचे. गेट के पास ही एक गर्भवती महिला खड़ी थी. पाउलो ने बताया कि वह सुनवाई का इंतज़ार कर रही थी, उसने कोई अपराध नहीं किया था, और शायद उसका गर्भ भी बलात्कार का नतीजा था. मानसिक रोग वाली युवतियों के साथ अक्सर बलात्कार होते हैं, कई बार तो अस्पतालों में भी और जेलों में भी.

पीछे एक कोने में बाल बिखेरे उदास मुख वाली एक वृद्ध सी महिला बैठी थीं. इन्होंने क्या किया, मैंने जिज्ञासा से पूछा. "दो सप्ताह पहले आयी थी, तो इनकी बीमारी दूसरे चर्म पर थी", पाउलो ने बताया, "ज़ोर ज़ोर से गाना गा रही थी, चिल्ला रही थी, हँस रही थी. इसने अपने पति को उसका गला दबा कर उसे मार डाला और फ़िर घर को आग लगाने की कोशिश की."

"क्या मालूम बेचारी पर क्या बीती होगी, शायद इसका पति शराबी था, या घर में मारपीट करता था?", मैंने उस वृद्ध महिला के भोले भाले उदास चेहरे को देख कर कहा, तो पाउलो ने मुस्करा कर सिर हिला दिया, "नहीं सब कहते हैं कि वह बहुत अच्छा था, कई सालों से यह बीमार चल रही थी और वह पत्नी की देखभाल करता था. यह बात तो है कि अगर पुरुष हिंसा करता है तो सब लोग उसे तुरंत दोषी मान लेते हैं, स्त्री करती है तो पहला विचार यही आता है कि मजबूर हो कर किया होगा. पर यह बात भी है कि यहाँ हिंसा का अपराध करने वाले करीब पचास पुरुष कैदी हैं, जबकि हिंसा करने वाली स्त्री यहाँ बस एक ही है."

जनाना वार्ड में खिड़की के बाहर सलेटी और काले रंग की चिरईया को देखा तो मन में बिमल राय की फ़िल्म बंदिनी की याद आ गयी. फ़िल्म में जेल में बंद कैदी स्त्रियाँ पिंजरे में बंद पक्षी को देख कर गाना गाती हैं, "ओ पंछी प्यारे, सांझ सखारे, बोले तो कौन सी बोली बता रे, बोले तू कौन सी बोली".

A bird in the psychiatric prison-hospital, Brazil

निरीक्षण स्माप्त हुआ और बाहर आने लगे तो पाउलो ने कहा, "आज मानसिक रोगो का इलाज करना बहुत सरल हो गया है, नयी दवाएँ असरकारी होती हैं, पुराने इलाज जैसे बिजली के शाक देना आदि को अब ठीक नहीं माना जाता. पर आम लोगों में इन रोगियों के बारे में बहुत डर भी होते हैं और अंधविश्वास भी. यहाँ लाये जाने वाले लोगों में से करीब बीस पच्चीस प्रतिशत लोगों ने कोई अपराध नहीं किया होता, अन्य कई छोटे मोटे अपराध करने वाले भी इसी लिए यहाँ ले आते हें कि वह रोगी हैं."

उस अस्पताल के बारे में सोचूँ तो मन में खुशनुमा पीले कपड़े पहने हुए उदास चेहरे वाले कैदी याद आते हैं. और उस वृद्धा का उदास चेहरा दिखता है, जाने क्या सोच रही थी वह?

शुक्रवार, जून 18, 2010

फ़लों से झुका पेड़

बचपन में यह कहावत सुनी थी कि जिस पेड़ पर जितना फ़ल अधिक लगता है, वह उतना ही झुक जाता है. इस कहावत से यह शिक्षा दी जाती थी कि जीवन में जितना ऊपर उठो, उतने ही विनम्र बनो. लेकिन बहुत से बड़े लोगों को देख कर लग कि असल में तो ऊल्टा ही होता है, जो जितना ऊँचा चढ़ता है, उसके उतने ही नखरे, मानो भगवान ने उन्हें अलग बनाया हो और उनका होना भर ही सारी मानवता पर उपकार है.

लेकिन कुछ दिन पहले सचमुच ऐसे व्यक्ति से मिलने का मौका मिला जिसने इस कहावत को आत्मसार किया था, हालाँकि शायद उन्हें इस कहावत के बारे में कुछ मालूम न हो.

अमरीका से सम्बंधी आये थे, उन्हें शहर घुमा रहा था. हम लोग शहर के पुराने भाग में थे, अचानक मुझे अपने सामने से आते हुए इटली के पूर्व प्रधान मंत्री दिखे, श्री रोमानो प्रोदी. वह दो बार इटली के प्रधान मंत्री बने, 1996 से 1998 और फ़िर, 2006 से 2008 तक.

इटली के दूसरी बार प्रधान मंत्री होने से पहले, बीच में 1999 से 2004 तक वह यूरोप संसद के राष्ट्रपति भी रह चुके हैं. बहुत वर्ष पहले वह प्रधान मंत्री बनने से पहले, हमारे शहर में ही अर्थशास्त्र पढ़ाते थे. मैंने अखबार में पढ़ा तो था कि वह बिना सुरक्षा दल आदि के सामान्य रूप से घूमते हैं, लेकिन उन्हें इस तरह सामने देख कर मैं एक क्षण को हकबका गया. बिना कुछ सोचे तुरंत उनके सामने हाथ मिलाने के लिए बढ़ा दिया. उनके आस पास के लोग कुछ कहते उससे पहले ही, वह तुरंत मेरे पास आये, बड़ी आत्मीयता से मिले, बात की मानो पुराने मित्र हों. साथ तस्वीर भी खिंचवायी.

Sunil and Mr Romano Prodi, Bologna,. Italy


मेरे अमरीकी सम्बंधी भी दंग रह गये कि इतनी सरलता से वह सड़क के बीच में खड़े हमसे बात करते रहे. बोले ऐसा तो यहीं हो सकता है, भारत या अमरीका में नहीं. पर मेरे मन में भारतीय प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह की भी कुछ इसी तरह की तस्वीर है, लगता है कि सामान्य जीवन वह भी इसी तरह के होंगे. प्रोदी जी की तरह वह भी अर्थशास्त्री रहे हैं.

***

अगर फ़िर से शुरु होता?

कल सुबह कार पार्क कर रहा था तो अचानक मन में विचार आया, अगर यह जीवन फ़िर से शुरु करने का मौका मिले, एक बार फ़िर से बच्चा बन जाऊँ, तो क्या कौन सी बातें अपने इस जीवन की बदलना चाहूँगा? हरी भरी पहाड़ी के नीचे, सुंदर शांत जगह पर है यह कार पार्क, शायद इसीलिए वहाँ पर सुबह सुबह इस तरह के गम्भीर और महत्वपूर्ण विचार मन में आते हैं?

पिछले कुछ दिनों से मैं अमरीकी प्रोफेसर रेंडी पाउश (Randy Pausch) की किताब "द लास्ट लेक्चर" (The last lecture) पढ़ रहा था. शायद यह दोबारा जीवन शुरु करने वाली बात मन में अचानक उनकी किताब पढ़ने की वजह से ही आयी थी. उनके अमरीकी विश्वविद्यालय में इस तरह के भाषण देने का प्रचलन था कि प्रोफेसर से कहिये कि अगर आप को एक अंतिम बार विद्यार्थियों से बोलने का मौका मिले तो आप कौन सी बात कहना चाहेंगे? इन भाषणों को "अंतिम भाषण" कहा जाता है.

2007 में जब रेंडी से इस तरह का भाषण देने के लिए कहा गया था तो उनकी स्थिति कुछ भिन्न थी. कुछ ही महीने पहले उन्हें अपने शरीर में पनपते लाइलाज कैंसर होने की बात का पता चला था. डाक्टरों का कहना था कि उनके जीवन के कुछ महीने ही शेष बचे थे. पत्नी और तीन छोटे बच्चों का क्या होगा, इसकी चिंता भी थी उनके मन में.

फ़िर भी रेंडी ने इस भाषण को देना स्वीकार किया. उनका यह भाषण, इंटरनेट पर एक दूसरे से सुन कर, हज़ारों लोगों ने देखा, सुना और सराहा. इतना प्रसिद्ध हुआ उनका यह भाषण कि उसे किताब के रूप में भी छापा गया, जिसे मैंने भी पिछली भारत यात्रा में बँगलौर की एक दुकान में खरीदा था. रेंडी तो चले गये, लेकिन उनके इस भाषण की किताब ने उनकी पत्नी और तीन बच्चों को कुछ आमदनी भी दी. अगर आप चाहें तो रेंडी के इस भाषण को आप इंटरनेट पर भी सुन सकते हैं.

जो प्रश्न सुबह मेरे मन में उठा था, उस पर दिन में कई बार सोचा. बचपन से मुझे साहित्य, इतिहास, जैसे आर्ट विषयों में बहुत रुची थी, लेकिन जब विद्यालय में विषय चुनने का समय आया था तो मैंने विज्ञान के विषय चुने थे, जिसका प्रमुख कारण था कि उस समय मुझे लगता था कि इस रास्ते से अच्छी नौकरी मिलने और ठीक पैसा कमाने का मौका मिलेगा, साथ ही डाक्टरी से लोगों के काम भी आ सकूँगा. उस समय आज जैसी बात नहीं थी, तब इंजीनियर, डाक्टर या आई.ए.एस जैसे दो तीन काम छोड़ कर लगता था कि और कोई ढंग का काम नहीं होगा. जीवन में कई बार मन में आता रहा है कि अगर डाक्टरी न कर के कुछ साहित्य संम्बधी किया होता तो शायद मन को अधिक संतोष मिलता. तो क्या अगर जीवन दोबारा से शुरु किया जा सके तो इस बार साहित्य को चुनूँगा, इस बात पर देर तक सोचता रहा.

बहुत सोच कर इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि नहीं मैं इस तरह की कोई बात अपने जीवन में नहीं बदलना चाहूँगा, अगर जीवन दोबारा शुरु करने का मौका मिले, तो सब कुछ फ़िर से वैसा ही करूँगा जैसा इस बार किया था.

हाँ कुछ बातें हैं जिन्हें अगर मौका मिल पाता तो अवश्य बदलता. तीस साल पहले मेरे एक प्रिय मित्र ने आत्महत्या की थी. उसने मुझे बहुत संकेत दिये थे, लेकिन मैं उन्हें समझ नहीं पाया था, उसकी बात को गम्भीरता से नहीं लिया था. दोबारा मौका मिले तो उसे अकेला नहीं छोड़ूँगा, उसे रोक लूँगा.

कितनी बार छोटी छोटी बातों पर गुस्सा किया है, अपनों के मन को दुखाया है. दोबारा मौका मिले तो यह मागूँगा कि भगवान मुझे इतनी समझ दे कि उनका मन न दुखाऊँ. बस इसी तरह की बातें मन में आयीं, लेकिन अपने जीवन के किसी भी महत्वपूर्ण निर्णय को बदलने का बात मुझे ठीक नहीं लगी.

कुछ कुछ रेंडी जैसी बात एडम सेवेज (Adam Savage) ने भी की है, अपने आलेख "फूड फार द ईगल" (Food for the eagle) में. धर्म में या ईश्वर में वह विश्वास नहीं करते. कहते हैं कि अगर विश्वास ही करना हो तो कार्लस कास्टानेडा जैसे लेखकों के बनाये मिथकों में किया जा सकता है. वह बात करते हैं कास्टानेडा (Carlos Castaneda) की किताब "द ईगल्स गिफ्ट" (The eagle's gift) की, जिसमें आध्यात्मिक गुरु दान जुआन (Don Juan) अंत में अपने शिष्य को बताते हैं कि जीवन का और कुछ ध्येय नहीं, जितने साल का भी जीवन मिलेगा, उसके बाद गरुड़ आप की संज्ञा को ले कर खा जायेगा, आत्मसात कर लेगा. इस लिए जीवन में अपनी संज्ञा को जितना ज्ञान और अनुभव दे कर उसे बढ़ा सको उतना ही अच्छा ताकि अंत में तब आप की संज्ञा गरुण से मिले तो उसे भी आनंद मिले.

शायद हम सब को जीवन क्या है और क्यों है इसका कोई उत्तर चाहिये होता है, विषेशकर जब अपने किसी प्रियजनों को खो बैठते हैं. बहुत सालों से मेरी प्रिय पुस्तक है कठोपानिषद, जिसमें कहानी है नचिकेता की, जो पिता की आज्ञा को मान कर यम के पास चले जाते हैं और यम से जीवन और मृत्यु के बारे में समझाने के लिए कहते हैं. मेरा विश्वास इसी पुस्तक से बना है, कठोपानिषद से. मुझे जैसा समझ आया वह कास्तानेदा के गुरु वाली बात ही है. यानि, मुझे भी यही विश्वास है कि जो संज्ञा संसार के कण कण में बसी है, वही भगवान है, और जीवन का ध्येय जितने अनुभव, जितना ज्ञान पा सकें, उसे प्राप्त करना ही है, जीवन समाप्त होगा तो इसी सर्वव्याप्त संज्ञा में हम घुलमिल जायेंगे.

कभी कभी इस तरह की किताब या आलेख पढ़ते रहना अच्छा लगता है ताकि जीवन में क्या आवश्यक है, क्या महत्वपूर्ण है उसका ध्यान बना रहे, छोटी मोटी बातों की चिंता में जीवन को व्यर्थ न करें. आप क्या सोचते हैं कि जीवन का ध्येय क्या है? आप को अपना जीवन फ़िर से जीने को मिले तो क्या बदलना चाहेंगे? और कोई आप से कहे कि आप अपना अंतिम भाषण दीजिये तो आप क्या कहना चाहेंगे?

गुरुवार, जून 17, 2010

बॉली या पॉउली ?

बम्बई के फ़िल्म जगत को बॉलीवुड का नाम कब मिला यह तो कोई ठीक से नहीं कह सकता, विकीपीडिया भी नहीं. मुझे लगता है कि 1970 के दशक में बम्बई से निकलने वाली स्टारडस्ट, सिने ब्लिट्ज़ जैसी फ़िल्मी पत्रिकाओं में तब भी बॉलीवुड शब्द का प्रयोग होता था.

इधर पिछले कुछ सालों में कई बार पढ़ा कि बम्बई के कुछ प्रसिद्ध सितारे अभिनेता, इस नाम से खुश नहीं, वे अपनी पहचान को हॉलीवुड के नकलची छोटा भाई के रुप में नहीं करवाना चाहते, अपने आत्मसम्मान का सोचते हैं. लेकिन यहाँ यूरोप में तो धीरे धीरे बॉलीवुड शब्द की पहचान ही हर तरफ़ बढ़ती जा रही है, और इसका प्रयोग केवल बम्बई में बनने वाली हिंदी फ़िल्मों के लिए ही नहीं बल्कि भारत में बनी सभी फ़िल्मों के लिए किया जाने लगा है, चाहे वे तमिल में हों या बंगला में.

कुछ दिन पहले, इटली के एक लेखक जो कि आजकल बम्बई की पृष्ठभूमि पर एक उपन्यास लिख रहे हैं, उनसे बात हो रही थी, तो वे कहने लगे कि बॉलीवुड शब्द को केवल बम्बई में बनने वाली मसाला फ़िल्मों के लिए प्रयोग करना चाहिये, कला फ़िल्मों, समानांतर सिनेमा, कलकत्ता या केरल में बनने वाली फ़िल्में, इन सब को बॉलीवुड कहना गलत है.

मुझे भारत के अलग अलग हिस्सों में बनने वाली फ़िल्मों तथा कला फ़िल्मों और फार्मूला फ़िल्मों का अंतर समझ में आता है, लेकिन यह भी लगता है कि यूरोप में भारतीय फ़िल्मों के बढ़ते प्रशंसकों को इन अंतरों को समझने में कोई दिलचस्पी नहीं है. इटली में भारतीय फ़िल्मों की जानकारी पिछले दो वर्षों में अचानक तेज़ी से बढ़ी है जबसे यहाँ की एक प्रमुख टीवी चेनल ने बहुत सारी बम्बई की मसाला फ़िल्में, "हम तुम" और "नमस्ते इंडिया" से ले कर "जब वी मेट" को दिखाया है. इससे पहले, भारतीय फ़िल्मों को कुछ थोड़े बहुत लोग ही जानते थे. हालाँकि टीवी पर जब यह फ़िल्में दिखायी गयीं तब इनमें से अधिकतर गाने व नृत्य काट दिये गये थे, लेकिन फ़िर भी लोगों में गानों और नत्यों के प्रति उत्सुकता जागी और लोग यूट्यूब जैसे वेब पन्नों पर भारतीय फ़िल्मों को खोजने लगे हैं.

आज इटली के बहुत से शहरों में बौलीवुड क्ल्ब बने हैं, इन फ़िल्मों के दीवाने, शाहरुख खान, आमीर खान और अक्षय कुमार जैसे अभिनेताओं की प्रशंसा में पत्र लिखते हैं, उनकी तस्वीरें सहेजते हैं. फेसबुक पर पृष्ठ बनाते हैं, बॉलीवुड नृत्यों के स्कूल खोलते हैं. उन्हें फ़िल्म की मूल भाषा क्या है, हिंदी या बंगला या तमिल, इसमें दिलचस्पी नहीं, सबटाईटल हैं या नहीं, बस यह जानना होता है. फेसबुक पर बने इतालवी बॉलीवुड पृष्ठ के एक हज़ार से अधिक सदस्य हैं. कुछ दिन पहले एक इतालवी युवती का ईमेल मिला कि क्यों न सब लोग मिल कर ए. आर रहमान को इटली में आ कर संगीत कार्यक्रम करने को कहें?

बॉलीवुड से मिलती जुलती बात का एक समाचार ब्राज़ील से मिला.

कुछ दिनों के लिए मुझे ब्राज़ील जाना है, उसकी तैयारी के लिए खोज कर रहा था तो ब्राज़ील के पॉउलीवुड के बारे में एक लेख दिखा, जिसमें लिखा है कि ब्राज़ील के सनपाउलो राज्य में एक छोटे से शहर ने, जिसका नाम पाउलीनिया है, फ़िल्म शहर बनने का निश्चय किया है. इस शहर में ब्राज़ील की सबसे बड़ी पेट्रोल रिफाईनरी फैक्ट्री है जिस पर टेक्स लगाने की वजह से शहर की नगरपालिका की बहुत आय होती है, और नगरपालिका ने निर्णय लया कि वे इस आय से वे लोग फ़िल्म बनाने वालों को सहारा देंगे, उन्हें सब सुविधाएँ देंगे, पैसे देंगे, इत्यादि. इस नीति की वजह से कुछ ही वर्षों में पाउलीनिया का छोटा सा, अनजाना शहर, अचानक प्रसिद्ध होने लगा है और पिछले वर्ष, ब्राज़ील में बनने वाली एक तिहायी फ़िल्मों की शूटिंग यहीं हुई है. वह चाहते हैं कि शहर का नाम अब लोग पाउलीनिया के जगह, बॉलीवुड की प्रसिद्धी से प्रेरणा पा कर, पॉउलीवुड कहा जाये.

आज के भूमँडलिकरण के जगत का नियम है कि आत्मसम्मान और अपने नाम या पहचान के अलग होने की चिंता न करके, कैसे ब्रैंडनेम बनाया जाये, जिसे दुनिया में प्रसिद्धी मिले, धँधा बढ़े, पैसा आये, कमाई हो, इसको सोचना चाहिये. जब गाँधी जी के नाम को ब्रैँड बना कर बेचा जा सकता है तो बॉलीवुड की ब्रैंड को बेचने में दुविधा क्यों? तो बॉलीवुड के बने बनाये नाम का फ़ायदा पाना ही बेहतर है या फ़िर अपने आत्म सम्मान के लिए सबसे यह कहना कि भारतीय सिनेमा को बॉलीवुड कह कर उसकी तौहीन न करें?

***

इस वर्ष के लोकप्रिय आलेख