रविवार, अक्तूबर 19, 2008

किताबें पढ़ने वाली औरतें

आशा पूर्णा देवी के उपन्यास सुवर्णलता की नायका सुवर्ण अच्छी औरत नहीं. सब गलत मलत काम करती है. जब सबके सामने नहीं कर सकती तो छुप कर करती है. समाज में रहना नहीं जानती, उसके नियम नहीं समझती, जब कुछ नहीं मानना चाहती तो उसे चुप रहना नहीं आता. बार बार मार खा कर फ़िर अपनी इच्छा बताने नहीं घबराती. खुला आसमान, बारामदा, खिड़की, सीढ़ियाँ, समुद्र, किताबें, घर से बाहर दुनिया में क्या हो रहा है इसके बारे में जानना सोचना, सब उसकी इच्छाएँ हैं जिनको नहीं स्वीकारा जा सकता, क्योंकि यह सब बातें अच्छे घर की औरतों को शोभा नहीं देती. (सुवर्णलता, आशापूर्णा देवी, अनुवादक हंसकुमार तिवारी, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, 2001)

"यह नाटक, उपन्यास पढ़ना बंद कराना ज़रुरी है. उसी से सारा अनर्थ घर में आता है."
इसलिए प्रबोध ने स्त्री को काली माई की, अपनी कसम दी है. रात की निश्चिंत्ता में समझाया था कि उपन्यास पढ़ने में क्या क्या बुराईयाँ हैं.
किन्तु बेहया सुवर्ण उस भयंकर घड़ी में भी एक अदभुत बात बोल बैठी थी. कहा था, "ठीक है, तो तुम भी एक कसम खाओ."
"मैं? मैं किस लिए कसम खाऊँ? मैं क्या चोरी में पकड़ा गया हूँ?"
"नहीं तुम क्यों पकड़े जाओगे, चोरी में तो स्त्रियाँ ही पकड़ी गयी हैं? क्यों, बता सकते हो क्यों?"
"क्यों? यह क्या बात हुई?" इसके अलावा प्रबोध को उत्तर नहीं जुटा.
सुवर्ण नें झट प्रबोध का हाथ सोये हुए भानू के सिर से छुआ कर कहा, "तो तुम भी कसम खाओ कि अब ताश नहीं खेलोगे?"
"ताश नहीं खेलूँगा? मतलब?"
"मतलब कुछ नहीं, मेरा नशा है किताब पढ़ना, तुम्हारा नशा है ताश खेलना. यदि मुझे छोड़ना पड़े, तो तुम भी देखो, नशा छोड़ना क्या होता है? बोलो, अब कभी ताश नहीं खेलोगे?"
प्रबोध के सामने आसन्न रात.
और बहुतेरी लांछनाओं से जर्जर स्त्री के बारे में काँपते कलेजे का आतंक.
कौन कह सकता है, फ़िर कौन सा घिनौना कर बैठे.
फ़िर भी साहस बटोर कर बोल उठा, "खूब, मूढ़ी-मिसरी का एक ही भाव!"
सुवर्णलता तीखे स्वर में बोल उठी थी, "कौन मूढ़ी है कौन मिसरी, इसका हिसाब किसने किया था, उसकी दर ही किस विधाता ने तय की थी, यह बता सकते हो?"
गजब है, इतनी लानत मलामत से भी औरत दबती नहीं. उलटे कहती है, "बल्कि यह सोचो कि शर्म आनी चाहिये तुम लोगों को."
लाचार प्रबोध ने कह दिया था, "ठीक है बाबा, ठीक है. खाता हूँ कसम."
"अब कभी नहीं खेलोगे न?"
"नहीं खेलूँगा. हो गया? खैर मेरा तो हुआ, अब तुम्हारी प्रतिज्ञा?"
"कह तो दिया, तुम अगर ताश न खेलो तो मैं भी किताब नहीं पढ़ूँगी"

एक पश्चिमी चित्रकला की किताब देखी जिसका विषय था, "किताबें पढ़ने वाली लड़कियाँ" तो सुवर्णलता की याद आ गयी. इस किताब में विभिन्न पश्चिमी चित्रकारों के इस विषय पर बनी तस्वीरें थीं और उनके संदर्भ का विश्लेषण था.

पश्चिमी समाज में भी पहले यही सोचा जाता था कि पढ़ना लिखना औरतों को बिगाड़ देता है और यह तस्वीरें इस बात को समझने में सहायता करती हैं कि क्यों पृतसत्तीय समाज को इससे क्या खतरा था और क्यों पृतसत्तीय समाज आज भी स्त्री को घर में रखने, बाहर न निकलने, परदा करने, कहानी उपन्यास न पढ़ने की बात करते हैं. किताबों की होली जलाने वाले अफगानी तलिबान इसका हिंसक और कट्टर रूप दिखते हैं. पाराम्परिक भारतीय समाज में भी यह धारणा थी कि पढ़ी लिखी लड़की, घर से बाहर निकल जाती है, उसका चरित्र ठीक नहीं रहता, वह पराये मर्दों से बात और सम्बंध रखने लगती है, वह घर की रीति मर्यादा को भूल जाती है. आज इस तरह की सोच में छोटे बड़े शहरों में कुछ बदलाव आया है पर फ़िर भी इसे आर्थिक मजबूरी के रूप में अधिक देखा जाता है, वाँछनीय विकास के रूप में कम.

किताब पढ़ने वाली स्त्रियों के विषय पर कुछ प्रसिद्ध चित्रकारों की कृतियाँ प्रस्तुत हैं -

पहली कृति है जगप्रसिद्ध इतालवी चित्रकार और शिल्पकार माईकल एँजेलो की जो रोम में वेटीकेन में सिस्टीन चेपल में बनी है. माईकल एँजेलो की कृति मोनालिजा को सब पहचानते हैं, सिस्टीन चेपल के बारे में सोचिये तो भगवान की ओर बढ़ती मानव उँगली के दृश्य को अधिकतर लोग जानते हैं पर इसी कृति का एक अन्य भाग है जिसमें बनी है सिबिल्ला की कहानी. भविष्य देखने वाली सिबिल्ला को भगवान से एक हजार वर्ष तक जीने का वरदान मिला था पर यह वरदान माँगते समय वह चिरयौवन की बात कहना भूल गयी इसलिए उसकी कहानी वृद्धावस्था के दुखों की कहानी है. इस चित्र में सिबिल्ला को बूढ़ी लेकिन हट्टा कट्टा दिखाया गया है जबकि उसकी भविष्य देखने वाली किताब के पन्नों पर कुछ नहीं लिखा.


यह चित्र 1510 में बनाया गया था जब किताबें आसानी से नहीं मिलती थीं और चित्रों में अधिकतर बाईबल की किताब ही दिखती थी.

दूसरी कृति है हालैंड के चित्रकार जेकब ओख्टरवेल्ट की जो उन्होंने 1670 में बनायी थी. उस समय हालैंड दुनिया के सबसे साक्षर देशों में से था, स्त्री और पुरुष दोनो ने ही पढ़ना लिखना सीखा था. किताबे पढ़ने के अतिरिक्त चिट्ठी लिखने का चलन हो रहा है. इस चित्र में उस समय के संचार के तीन माध्यमों को दिखाया गया - बात चीत, पुस्तक और पत्र. नवयुवक युवती को अपने प्रेम का निवेदन कर रहा है और नवयुवती किताब पढ़ने का नाटक कर रही है. यही प्रेम संदेश मेज पर रखे पत्र में भी है.


आप का क्या विचार है कि क्या वह नवयुवती इस प्रेम निवेदन को स्वीकार करेगी? यही चित्रकार की दक्षता है कि वह चेहरे के भावों को इतनी बारीकी से पकड़ता है कि बिना कुछ कहे ही हम बात समझ जाते हैं.

तीसरी कृति भी हालैंड से ही है, चित्रकार पीटर जानसेन एलिंगा की जो कि 1670 के आसपास की है. इस कृति की नायिका घर में काम करने वाली नौकरानी है. शायद वह मालकिन के कमरे में सफाई करने आयी थी. मालकिन के जूते एक तरफ़ बिखरे पड़े हैं. फ़ल की प्लेट को जल्दबाजी में कुर्सी पर रखा गया है. खिड़की से आती रोशनी के पास कुर्सी खींच कर पाठिका प्रेमकथा पढ़ने में मग्न है.


इस कृति से समझ में आने लगता है कि क्यों पृतसत्तीय समाज को स्त्रियों का किताबें पढ़ना ठीक नहीं लगा था. किताबों की दुनिया स्त्रियों को बाहर निकलने का रास्ता दिखाती थीं, उन्हें अपना कल्पना का संसार बनाने का मौका मिल जाता था जो समाज के बँधनों से मुक्त था, उनमें अपना सोचने समझने की बात आने लगती थी.

इसी मुक्त व्यक्तिगत संसार की सृष्टि वाली बात को चौथी और अंतिम चित्र दिखाता है. कृति है हालैंड के जगप्रसिद्ध चित्रकार विन्सेंट वान गोग की जो 1888 में बनायी गयी. इसमें किताब पढ़ने वाली स्त्री की दृष्टि किताब पर नहीं, बल्कि सोच में डूबी है, शायद उसने कुछ ऐसा पढ़ा जिसने उसे सोचने को मजबूर किया?


भारत में लड़कियों, स्त्रियों की दशा तो दुनिया में सबके सामने है. एक तरफ़ नेता, अभिनेता, लेखक, वैज्ञानिक, अधिकारों के लिए लड़ने वाली आधुनिक युग की चुनौतियों को स्वीकारती. दूसरी ओर अनपढ़, कमजोर, जो जन्म से पहले ही मार दी जाती है, जिसे बोझ समझा जाता है, जिसका विवाह करना ही सबसे बड़ा धर्म है, जो दहेज के लिए जला दी जाती है. स्त्री साक्षरता को बढ़ाना इसके लिए बहुत आवश्यक है. मेरे विचार में आज विकास के रास्ते पर चले भारत की यही सबसे बड़ी आवश्यकता है. आर्थिक विकास के बावजूद पिछले वर्षों में भारत के सम्पन्न राज्यों में पैदा होने वाले बच्चों में लड़कियों का अनुपात बढ़ने के बजाय और घटा है. इन आकणों को देखा जाये तो अनुमान लगा सकते हैं कि हर वर्ष भारत में करीब दस से पंद्रह लाख बच्चियों को गर्भपात के जरिये से जन्म लेने से पहले मार दिया जाता है.

दुनिया के देशों में अगर देखा जाये कि सरकारें स्वास्थ्य और शिक्षा के लिए देश की आय का कितना प्रतिशत लगाती है तो भारत सबसे पीछे दिखता है, बहुत सारे अफ्रीकी देशों से भी पीछे. जब तक यह नहीं बदलेगा, भारत सच में विकसित देश नहीं बन पायेगा.

मंगलवार, अक्तूबर 07, 2008

नाम, रंग, जाति, धर्म में छुपी पहचान

जिल रोस्सेलीनी की मृत्यु 3 अक्टूबर को सुबह साढ़े चार बजे रोम की अमरीकी अस्पताल में हुई. जिल का जन्म 23 अक्टूबर 1956 को बंबई में हुआ था और उनका नाम रखा गया था अर्जुन. उनके पिता थे कलकत्ता के जाने माने फिल्म निर्माता हरिसाधन दासगुप्ता और माँ थी बिमल राय की परिवार की सोनाली. हरिसाधन और सोनाली का पहले एक बेटा भी था, राजा जो 1952 में पैदा हुआ था.

दिसंबर 1956 में इटली के जगप्रसिद्ध फिल्मकार रोबर्तो रोस्सेलीनी (Roberto Rossellini) भारत में फ़िल्म बनाने आये, सोनाली उनके साथ काम कर रही थीं. नौ मास के बाद रोबेर्तो और सोनाली करीब एक वर्ष के अर्जुन यानि जिल को ले कर रोम आ गये, तब भारत में उनके प्रेम को ले कर तुफ़ान चल रहा था, अखबारों में तरह तरह की बातें लिखी जा रही थीं. कुछ महीने बाद पेरिस में रोबेर्तो तथा सोनाली की बेटी राफेल्ला पैदा हुई. उस समय रोबेर्तो रोस्सेलीनी भी विवाहित थे, होलीवुड की प्रसिद्ध अभिनेत्री इंग्रिड बर्गमैन (Ingrid Bergman) के साथ.

रोबेर्तो एवं सोनाली की कहानी के बारे में मैंने कुछ महीने पहले जाना जब मैंने दिलीप पदगाँवकर की एक पुस्तक की समीक्षा पढ़ी. सोनाली को अपना बड़ा बेटे राजा को भारत में छोड़ना पड़ा, उनका छोटा बेटा जिल, अपने पिता के होते हुए भी रोबेर्तो द्वारा गोद लिया गया. इन सब बातों को सोच कर मन में बहुत जिज्ञासा हुई तो इंटरनेट पर खोज की और इस बारे में एक लेख लिखा. उस लेख के द्वारा ही इस कहानी से जुड़े बहुत से लोगों से मेरा सम्पर्क और परिचय हुआ. इसी के दौरान मैंने जिल रोस्सेलीनी के बारे में जाना.

श्याम रंग वाले जिल रोम में बड़े हुए और उनके घर में काम करने वाले माली की पत्नी का एक साक्षात्कार पढ़ने को मिला जिसमे बताया था कि छोटे से जिल को अपने काले रंग का भेद महसूस होता था. जब इतालवी समाचार पत्रों में जिल की मृत्यु का समाचार पढ़ा तो धक्का सा लगा. लेख लिखते समय जब उस परिवार के बारे में जानकारी जमा कर रहा था तो व्यक्तिगत रूप से न जानते हुए भी अपने आप ही कुछ आत्मीयता सी बन गयी थी.



हर जगह जिल की मृत्यु की बात के साथ समाचार वही बात कहते थे कि जिल रोबेर्ती के गोद लिये भारतीय मूल के पुत्र थे और कई वर्षों से बीमार चल रहे थे. कुछ समाचार पत्रों में यह भी लिखा था कि गत जून में जिल ने कैथोलिक धर्म स्वीकारा और फ्राँचेस्को का नाम लिया. इन समाचारों में सोनाली जी का नाम रोबेर्तो की संगनी की तरह से दिया गया है, कहीं उन्हें पत्नी नहीं कहा गया है और न ही यह लिखा कि बेटे की मृत्यु पर वह कहाँ थीं, हालाँकि वह भी रोम में ही रहती हैं.

जिल के बारे में सोच रहा था तो लगा कि अगर उनका रंग भिन्न न होता तो आज किसी को याद नहीं होता कि वह गोद लिये गये थे. उनके मरने के समाचार के साथ यह कहना कि वह गोद लिये हुए थे मुझे क्रूरता सी लगी. सन 2006 में वेनिस फ़िल्म फेस्टिवल के दौरान अपनी बीमारी पर बनायी एक फ़िल्म "किल बिल्ल 2" (Kill Bill 2) प्रस्तुत करते समय, एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था "मैं फैरारी कार रेस पर फ़िल्म बनाना चाहता हूँ. तेज़ कारों का शौक तो मेरे रक्त में है. मेरे पिता की मौसी बेरोनेस मरिया अंतोनियेत्ता 1920 में कार रेस में भाग लेती थी और मेरे पिता ने भी मिल्ले मिलिया नाम की कार रेस में भाग लिया था". जिस पिता रोबेर्तो की बात वह कर रहे थे उनसे जिल का खून का सम्बंध नहीं था पर इस वाक्य से उनके मन में होने वाले द्वंद और अपने परिवार का पूरा हिस्सा होने की अभिलाषा छलकती है.

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लंदन पहुँचा तो इमिग्रेशन की जाँच कराने के लिए कौन से लाईन चुनी जाये इसका निर्णय करते हुए मेरी आँखें अपने आप ही भारतीय उपमहाद्वीप वाला चेहरा खोज रहीं थीं. मालूम था कि पासपोर्ट जाँचने वाला अगर कोई गोरा या काला अधिकारी होगा तो हमारे पासपोर्ट को अधिक ध्यान से देखा जायेगा, क्यों आये हैं, क्या करना है, कितने दिन रुकना है, इस सबकी पूरी जाँच होगी, जबकि कोई भारतीय महाद्वीप वाला मिल जाये तो उतने प्रश्न नहीं पूछे जायेंगे. भारतीय उपमहाद्वीप मूल के लोग पासपोर्ट देख कर अपने आप समझ जाते हैं कि सामने वाले का क्या धर्म है, वह हिंदू है, मुलमान है, सिख है, ईसाई है या पारसी. अधिकतर गोरे या काले लोग यह नहीं समझ पाते कि हमारे नामों से कैसे हमारे धर्म, जाति को समझा जाये.

सब जानते हैं कि आज अगर आप मुसलमान समझे जायेंगे तो आप की हर बात को अच्छी तरह से देखा जाँचा जायेगा. दिक्कत यह है कि अधिकतर यूरोपीय और अमरीकी मूल के लोगों को हमारे नामों से यह पहचानना नहीं आता, उनके लिए चेहरे और रंग में एक जैसा दिखने वाले भारतीय उपमहाद्वीप से आये हम सब लोग एक जैसे हैं. 2001 में जब न्यू योर्क में ट्विन टोवर्स में हवाई जहाजों के बम फ़टने के बाद कितने वृद्ध सिखों पर हमले हुए थे, जो आज तक नहीं रुके, उन्हें वृद्ध सिखों में बिन लादन का चेहरा दिखता है.

कभी यह नहीं सोचा था कि एक दिन पुलिस, इमिग्रेशन या किसी अन्य सुरक्षा जाँच में मैं यह कहना चाहूँगा कि मैं हिंदु हूँ. पापा क्या सोचेंगे, क्या यही सिखाया था, सोच कर मन में लज्जा आती है और अपनी कायरता पर, अपने आप को बचाने की इस कोशिश में माँ पापा ही याद आते हैं. क्या जाति है हमारी, माँ से पूछा था तो बोलीं थी कि कोई जाति नहीं हमारी. पर फ़िर भी, कुछ तो होगी, मैंने ज़िद की थी तो बोलीं थी कि कह दो कि हम सबसे नीच जाति के हैं, हम तो हिंदू हैं ही नहीं.

हिंदू, मुसलमान, जैन, सिख, ईसाई सब धर्मों के मित्र थे, पड़ोसी थे, पर घर में धर्म के नाम पर कभी कुछ नहीं होता था. न कोई मंदिर जाता या कभी किसी तरह का पूजा पाठ होता. दादी सारा दिन कागजों पर असंख्य बार राम राम लिखती रहती, अड़ोसी पड़ोसी, रिश्तेदारों में ही रीत रिवाज़, प्रार्थना सीखने का मौका मिला, पर बचपन से धर्म के लिए शंका की भावना बैठ गयी कि पूजा पाठ, धर्म केवल दिखावा है, असली धर्म तो मानवता है.

आज उस अतीत के बारे में सोचूँ तो लगता है कि वह अतीत उस समाज का परिणाम है जहाँ हिंदू बहुमत में हैं. चाहे आप माने या माने, अगर आप हिंदू समझे जाते हैं तो भारत में अधिकतर समाज आप से भिन्न तरीके से पेश आता है. आप लाख कहिये या सोचिये कि आप के लिए धर्म का कोई महत्व नहीं, अपने नाम से आप अपने हिंदू समझे जाने का लाभ उठाते हैं. जैन, या बुद्ध या सिख हों तो शायद दिक्कत कम होती है, क्योंकि आप को कुछ हद तक हिंदु ही माना जाता है. लेकिन आप का नाम मुसलिम हो या ईसाई, समाज आप से अलग तरह से पेश आता है. यह समझ तभी आयी जब ईसाई बहुमत के देश में रहने का मौका मिला. आप एक दिन मुसलमान नाम के साथ रह कर देखिये, आप को समझ आ जायेगा.

इटली कैथोलिक धर्म के बहुमत का देश है. धर्म जीवन के हर भाग में गहरा बसता है, जब तक यह बात आप के धर्म की होती है आप को शायद यह दिखे नहीं कि किस तरह जीवन की हर बात में धर्म बसा है, आप यह सोच सकते हैं कि आप को धर्म की परवाह नहीं पर ध्यान से देखिये तो आप उसके आम जीवन पर पड़े प्रभाव को झठला नहीं सकते. यहाँ हर विद्यालय में, कक्षा में, हर अदालत जैसी जगहों पर भी क्रोस लगा दिखता है, संसद में कोई भी बात उठे तो पोप क्या कहते हैं, कैथोलिक धर्म क्या कहता है, यह बात भी अवश्य उठती है. यह सब बातें केवल यहाँ के भारतीय जनता पार्टी जैसे धर्म से जुड़े राजनीतिक दलों द्वारा की जायें यह बात भी नहीं, रेडिकल पार्टी या कुछ राजनीतिक दलों को छोड़ कर, अन्य सभी राजनीतिक दल इन धार्मिक बातों को बहुत गम्भीरता से लेते हैं.

मेरा परिवार बहुधर्मी है, पत्नी कैथोलिक, पुत्रवधु सिख, बेटा हिंदू और कैथोलिक दोनो धर्मों के बीच पला बड़ा हुआ. इस धार्मिक बहुलता को गर्व से जीने का संदेश अपने बचपन की माँ पापा से मिली शिक्षा से मिला. पर मन में स्वयं को धार्मिक न मानते हुए भी आज जब लगता है कि यहाँ ईसाई धर्म के अलावा बाकी सब धर्मों को नीचा देखा जाता है तो अपनी धर्म भिन्नता की आवाज उठाना भी स्वाभाविक लगता है. बात मानव अधिकार की बन जाती है, सब धर्मों को गर्व से रहने का अधिकार होना चाहिये. दूसरी तरफ यही भिन्नता जब बढ़ते आतंकवाद के शीशे में पुलिस या सुरक्षा अधिकारियों के सामने आती है तो दूसरी तरह से चिंता का विषय बन जाती है.

पिछले वर्ष एक ईराकी पत्रकार से बात हो रही थी तो वह बता रहे थे कि बगदाद में टैक्सी चलाने वाले विभिन्न नामों वाले आईडेंटिटी कार्ड रखते हैं, कुछ शिया मुसलमान नाम के, कुछ सुन्नी मुसलमान नाम के, कुछ ईसाई नाम के. जाने कब कोई आतंकवादी रोक ले और जान लेने की धमकी दे, तो ठीक नाम वाला आईडेंटिटी कार्ड ही जान बचा सकता है. तब सोच रहा था कि जैसे यूरोपीय लोग हमारे नामों से यह नहीं पहचान पाते कि हम हिंदू हैं या मुसलमान या सिख, वैसे ही मुझे भी शिया और सुन्नी मुसलमान नामों के अंतर नहीं मालूम. सच कहूँ तो यह भी नहीं मालूम कि शिया, सुन्नी, अहमदिया, बोहरा जैसे मुस्लिम धर्म गुटों में क्या अंतर होता है!

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आप धर्म से कितना भागना चाहें, धर्म आप का पीछा नहीं छोड़ता जैसी बात दिल्ली में रहने वाली पत्रकार के. के. शाहीना के लेख में भी पढ़ी थी जो अँग्रेजी दैनिक हिंदुस्तान टाईमस में कुछ दिन पहले छपा था. कुछ सप्ताह पहले दिल्ली में बम विस्फोट करने वाले आतंकवादियों ने शाहीना जी के एक लेख से कुछ हिस्से ले कर उनका प्रयोग अपने बमों को जायज दिखाने के लिए अपनी ईमेल में उपयोग किया. शाहीना जी ने लिखा है:

"मुसलमान नाम का भारीपन दिल्ली में जीवन कठिन कर सकता है. .. एक अधिकारी से मिले, उन्होंने बहुत विनम्रता से बात की, पूछा, कि क्या तुम मुसलमान हो? मैं कहना चाहती थी कि नहीं, छत पर चढ़ कर चिल्लाना चाहती थी कि मैं नास्तिक हूँ, बचपन से मुझे धर्म से दूर रखा गया है. पर मैं यह नहीं कह सकती थी. मैंने कुछ उत्तर नहीं दिया. इस तरह का उत्तर क्या पोलिटिक्ली कोरेक्ट होगा इस बारे में मैंने सारा जीवन सोचा है. अपने धर्म से पीठ फ़ेर कर क्या मैं इस धर्म को मानने वाले लाखों निर्दोष लोगों से पीठ फ़ेर रही हूँ जो धर्म का पालन करते हैं और अपने धर्म के नाम पर होने वाले इन बातों का बुरा प्रभाव भी झेलते हैं? मेरे जीवनसाथी, जो कि जन्म से हिंदू हैं, उन्हे भी इसी तरह की बात कहने के लिए अधिकारी के सामने ज़ोर डाला गया ताकि यह साबित किया जा सके हम लोग सेक्युलर हैं, इस शहर में जहाँ हम लोग बस नाम ही हैं. यह पहली बार थी जब हमारे जीवन में धर्म इस तरह घुस रहा था. जब हमारा बेटा अनपु पैदा हुआ था तो फोर्म भरते समय उसमें धर्म वाला भाग खाली छोड़ने में हम लोग एक पल भी नहीं झिझके थे."
जब शबाना आज़मी जी कहती हैं कि मुंबई में मुसलमान होने पर घर खरीदने में कठिनाई होती है, मुझे समझ में आता है. यह कहना कि वह बात को बढ़ा रही हैं, या झूठ कह रही हैं, इस बात को नकारना है. रंग भेद, जाति भेद, धर्म भेद हमारे रोज़ के जीवन में इतना घुला मिले हैं कि इसे तभी समझा जाता है जब आप अल्पसंख्यक हो. अगर आप हिंदू हैं और दलित नहीं उससे ऊँची जाति के हैं तो सोच सकते हैं कि भारत में यह भेद शायद इतना स्पष्ट और खुलेआम नहीं जितना पाकिस्तान, बँगलादेश या अरबी देशों में होता हो, पर दूसरे पक्ष से दृष्टि से देखिये तो यह भेद समझ आता है.

यह सच है कि धार्मिक रूढ़िवाद के साथ मुसलमान देशों में इसका कट्टर स्वरूप देखने को मिलता है जहाँ राजकीय धर्म इस्लाम माना जाता है और बाकि सब धर्मों के साथ भेदभाव को कानूनी स्वीकृति मिलती है. लेकिन इटली, इंग्लैंड, अमरीका जैसे विकसित देशों में भी इसके उदाहरण खोजने में कठिनाई नहीं होती. पिछले सप्ताह लंदन गया था तो वहाँ एक पत्रिका में पाकिस्तान से आये श्री जेम्स डीन का साक्षात्कार पढ़ रहा था जो कि आज एक सफल उद्योगपति हैं. इस साक्षात्कार में वह बताते हैं कि उनका असली नाम तो नज़ीम खान था पर वह जानते थे कि मुसलमान नाम होने से उन्हें इंग्लैंड में यह सफलता कभी न मिल पाती.

आज का जीवन इतनी तेजी से बदल रहा है कि शायद उसे समझना कठिन है. आतंकवाद, असहिष्णुता, उग्रवाद, धार्मिक कट्टरता, रूढ़िवाद के चक्करों में सभ्यता और मानवता के मानव मूल्य हार रहे हैं. शंका, संदेह, अविश्वास हमारे दिलों को कठोर और अमानवीय बना रहा है. देशों विदेशों में यात्राओं से शायद मुझे इस बढ़ती अमानवता को देखने का अधिक मौका मिलता है.

मुझे लगता है कि इस स्थिति में इस बारे में ईमानदारी से बात करना, एक दूसरे के दृष्टिकोण को समझने की कोशिश करना और करते रहना, बहुत आवश्यक है. बात न करना, उसे नकारना, सोचना कि यह तो हमारे लिए महत्वपूर्ण नहीं, इस सबसे नासूर भीतर ही भीतर बढ़ता जाता है. मीडिया में केवल उग्रवादियों और रूढ़िवादियों को जगह मिलती है, उनकी कही हर बात को इतनी बार दोहराया जाता है कि लगता है उस धर्म के सभी लोग कट्टरपंथी हैं. आवश्यक है कि इस बात पर सोचनेवाले पढ़े लिखे, शबाना जी जैसे उदारवादी लोगों की सोच को जगह दी जगह, उस पर खुल कर बहस की जाये.

हमारी भाषा कैसे बनी

कुछ दिन पहले मैंने जाने-माने डॉक्यूमैंट्री फ़िल्म निर्देशक अरुण चढ़्ढ़ा की १८५७ के लोक-गीतों पर बनी फ़िल्म के बारे में लिखा था। आज उन्हीं की ए...

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