रविवार, जुलाई 17, 2011

संदेश किसके लिए है?

"तो कैसी लगी फ़िल्म?"

फ़िल्म समाप्त होने पर मैंने अपनी मित्र से पूछा तो उसने मुँह बना दिया था. फ़िर कुछ देर सोच कर बोली थी, "यह फ़िल्म शायद विदेशियों के लिए बनायी गयी है, विदेशों में दिखाने के लिए. यहाँ भारत में इसे शहरों में रहने वाले पैसे वाले लोग देखें जिन्हें अपने देश में गाँव में कैसे रहते हैं यह मालूम नहीं. सचमुच की समस्याएँ क्या हैं गरीबों की, किस तरह इस व्यवस्था में शोषित होते हैं लोग, यह नहीं दिखाना चाहते इस फ़िल्मवाले. गरीबी की पोर्नोग्राफ़ी है, उसे रूमानी बना कर बेचने का ध्येय है उनका. ताकि दया दान देने वाले विदेशी और पैसे वाले मन ही मन खुश हो सकें कि उनकी दया से किसी बच्चे की ज़िन्दगी सुधर गयी, पर इससे व्यवस्था को बदलने के लिए कोई नहीं कहे."

फ़िल्म का नाम था "आई एम कलाम" (I am Kalam) जिसे बँगलौर की स्माईल फाउँडेशन ने निर्मित किया है. मेरी मित्र की आलोचना बिल्कुल गलत तो नहीं थी, पर शायद पूरी भी नहीं थी.

I am Kalam by Smile Foundation

इस फ़िल्म की कहानी सचमुच की गरीबी या सच की कहानी नहीं है, बल्कि बच्चों के लिए लिखी परियों की कथा जैसी है. फ़िल्म में एक राजकुँवर और ढ़ाबे में काम करने वाले गरीब बच्चे में बराबर की दोस्ती की है, और अंत में पुराने विचारों वाले राजा साहब द्वारा गरीब बच्चे को मान देने का सपना है. कुछ दृष्यों को छोड़ कर जिनमें बचपन में ढ़ाबे और रेस्टोरेंटों में काम करने वाले बच्चों के कड़वे सच दिखते हैं, बाकी सारी फ़िल्म में रेगिस्तान के मनोरम दृष्य, रंगीन पौशाकें, समझदार विदेशी लड़कियाँ, दयावान प्रेमी ढ़ाबेवाला, ऊँठ पर बैठ कर चाय बाँटनेवाला और मन लुभाने वाला गरीब लेकिन सुंदर बच्चा दिखता है. यानि मेरी मित्र की दृष्टि में "रुमानी गरीबी".

लेकिन मेरी मित्र की आलोचना मुझे कुछ अधिक कठोर लगी. मैंने सोचा कि सच को इस तरह कहना कि उसे अधिक लोग देख सकें, क्या गलत बात है? अगर सचमुच की गरीबी दिखानी वाली डाकूमैंटरी या कला फ़िल्म होती तो कितने लोग देखते और क्या गरीबी दिखाने वाली डाकूमैंटरियों की कमी है भारत में? जिन लोगों को गरीब बच्चों के जीवन के कड़वे सच मालूम हैं वे इस बारे में लिखते हैं, सेमीनार करते हैं, डाकूमैंट्री फ़िल्में बनाते हैं और देखते हैं. जिन्हें नहीं मालूम या जिनके पास अपने जीवन से बाहर देखने के फुरसत ही नहीं हैं, उनके पास यह सेमीनार, आलेख और डाकूमैंट्री कहाँ पहुँचती हैं?

कुछ इसी तरह की बात उठी थी जब अमोल पालेकर की फ़िल्म "पहेली" देखी थी. उसमें बात थी नारी के अधिकारों की, लेकिन इस तरह से कही गयी थी कि रानी मुखर्जी के रंगों और शाहरुख जैसे प्रेमी भूत की परतों के नीचे दबी हुई, वह भी शायद "रुमानी नारी अधिकारों" की बात थी. पर कम से कम उसे उन लोगों ने देखा तो था जिनको नारी अधिकारों के बारे में जानने और सोचने की आवश्यकता थी. वैसे तो "पहेली" को भी बहुत अधिक व्यवसायिक सफ़लता नहीं मिली थी, लेकिन उसी कहानी पर बनी मणि कौल की "दुविधा" को कितने लोगों ने देखा था?

अक्सर मेरे विचार में बहुत से बुद्धिजीवियों को विश्वास नहीं होता कि अगर कोई बात बिना चीख चिल्ला कर या भाषण की तरह नहीं कही जाये तो लोग उसे समझेंगे. अगर बात को भाषण की तरह बार बार न दोहराया जाये और कहानी का हिस्सा बना कर इस तरह रखा जाये कि तुरंत स्पष्ट न हो लेकिन धीरे धीरे मन को सोचने के लिए प्रेरित करे तो उसे वह प्रभावशाली नहीं मानते. ऐसे लोगों से दुनिया भरी हुई है जो "क्मप्रोमाईज़" नहीं करना चाहते हैं, कहते हैं कि जीवन के कड़वे सचों को उनकी पूरी कड़वाहट के साथ ही दिखाना चाहिये. पर जब सच इतने कड़वे होते हें कि कोई उन्हें देख ही नहीं पाये तो उसे कौन देखता है? वही लोग देखते हैं जिन्हें इस सब के बारे में पहले से मालूम है, पर जिन्हें इस चेतना की आवश्यकता है वे लोग क्या देखते हैं?

मुझे "आई एम कलाम" बहुत अच्छी लगी, आप को भी मौका मिले तो अवश्य देखियेगा. देख कर आप को सचमुच की गरीबी क्या होती है शायद उसकी समझ नहीं आयेगी, लेकिन देख कर अगर आप एक दिन के लिए भी अपने घर में काम करने वाले नाबालिग नौकर या ढाबे रेंस्टोरेंट में वेटर या बर्तन धोने का काम करने वाले बच्चे के कठोर जीवन के बारे में सोचेंगे तो क्या यह कम है?

I am Kalam by Smile Foundation

एक अन्य बात भी है, वह है देखने वाले को बुद्धिमान और व्यस्क समझने की. मुझे लगता है कि "कड़वा सच" दिखाने की ज़िद करने वाले लोगों में अक्सर यह सोच होती है कि जिस तरह हममें इस सच की समझ है, वह अन्य लोगों में नहीं और जब तक उसे बार बार कह कर, दिखा कर, जबरदस्ती कड़वी दवा की तरह लोगों को पिलाया नहीं जायेगा, तब तक उनकी समझ में नहीं आयेगा. जबकि मैं मानता हूँ कि कभी कभी कड़वे सच को सांकेतिक रूप में दिखाने से, बुद्धीमान दर्शक को मौका मिलता है कि वह उसे अपनी दृष्टि से अपने आप समझ सके.

रही बात उन लोगों की जिन्हें सांकेतिक बात समझ नहीं आती, उन्हें कड़वे सच को जिस तरह भी कह लीजिये, वह उसे देखने से या समझने से इन्कार कर देंगे, तो उनकी चिंता करना शायद व्यर्थ ही है.

मेरे कहने का यह अभिप्राय नहीं है कि सामाजिक समस्याओं और कड़वे सचों पर सभी कला अभिव्यक्ति केवल रंगीन, रूमानी तरीके से ही हो सकती है या होनी चाहिये. मणि कौल के सिनेमा अभिव्यक्ति के अंदाज़ में अपनी सुन्दरता थी, जो अमोल पालेकर की "पहेली" की सुन्दरता से भिन्न थी. कलात्मक अभिव्यक्ति के हर क्षेत्र में विभिन्नता आवश्यक है. लेकिन मेरा सोचना है कि अगर किसी कला का उद्देश्य जन सामान्य तक पहुँच कर उनको समझाना या जानकारी देना हैं, तो संदेश को उस भाषा में कहना बेहतर है जो जन सामान्य को समझ आ सके.

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दो महीने पहले विश्व स्वास्थ्य संस्थान (World Health Organisation) की वार्षिक एसेम्बली में जेनेवा गया था तो वहाँ एक हाल में तम्बाकू और सिगरेट प्रयोग के बारे में बड़े बड़े विज्ञापन लगे थे, जिसमें इन पदार्थों के प्रयोग से शरीर पर होने वाले प्रभावों को इस खूबी से दिखाया गया था कि उन तस्वीरों की ओर ठीक से देखने पर जी मिचलाने लगा था.

WHO poster on tobacco use

WHO poster on tobacco use

तब भी मेरे मन में यही बात आयी थी कि तम्बाकू और सिगरेट बेचने वाली कम्पनियाँ अपना प्रचार करने के लिए जाने माने सुन्दर लोगों और जगहों का उपयोग करती हैं. उससे लड़ने के लिए, यह तो ठीक है कि इन पदार्थों के डिब्बों पर इस तरह की फोटो लगाई लगाई जानी चाहिये जिनसे इनका उपयोग करने वाले लोगों में वितृष्णा हो.

लेकिन अगर जन सामान्य को संदेश देना हो, या नवजवानों और किशोरों को संदेश देना है, और उसके लिए इस तरह की वीभत्स तस्वीरों का प्रयोग होगा तो मुझे लगता है कि अधिकतर लोग उन्हें ध्यान से नहीं देखना चाहेंगे न ही इस तरह की तस्वीरों के पास क्या लिखा है उसे पढ़ना चाहेंगे.

सिगरेट और तम्बाकू का प्रयोग शरीर के लिए हानिकारक है और जन सामान्य में उसके खतरों की जानकारी देना आवश्यक है. पर यह संदेश किस तरह की भाषा में, किस तरह की तस्वीरों के साथ, किस तरह से दिया जाना चाहिये, ताकि नवयुवकों और किशोरों पर असरकारी हो सके? रुमानी बनाके, ताकि अधिक लोग उसे देखें या फ़िर कड़वे सच को उसकी सच्चाई के साथ?

और जन सामान्य में गरीब बच्चों के साथ होने वाले अमानवीय वर्ताव के बारे में सँचेतना जगानी हो, तो उसमें "आई एम कलाम" या "चिल्लर पार्टी" जैसी हँसी खुशी वाली फ़िल्मों का कोई स्थान है या गम्भीर विषयों पर केवल गम्भीर फ़िल्में ही बननी चाहिये?

आप क्या सोचते हैं?

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सोमवार, जुलाई 11, 2011

सभ्यता का मूल्य

"संग्रहालय के मूल्य को केवल खर्चे और फायदे में मापना गलत है, उसकी कीमत को मापने के लिए उसके उद्देश्य को मापिये. उसका उद्देश्य है जनता को नागरिक बनाना." यह बात कह रहे थे रोम के वेटीकेन संग्रहालय के निर्देशक श्री अन्तोनियो पाउलूच्ची (Antonio Paolucci).

श्री पाउलूच्ची इन दो शब्दों, जनता और नागरिक, को विषेश अर्थ देते हैं. "जनता" यानि एक जगह पर रहने वाले लोग और "नागरिक" यानि वह लोग जो अपने अधिकारों और कर्तव्यों को समझते हैं, जिनके लिए जीवन में सभ्य होने का महत्व हो, जिनमें अपनी कला, संगीत, लेखन, शिल्प को जानने की समझ हो. लेकिन आज के भूमण्डलिकृत जगत में जहाँ पूँजीवाद के आदर्शों से स्वास्थ्य, शिक्षा, आदि जनकल्याण सेवाओं को मापते हैं, सभ्यता के मापदँड भी अधिकतर खर्चे और फायदे में गिने जाते हैं. उसे नागरिक अधिकार मानना कोई कोई विरला शहर ही कर पाता है, जैसे कि लंदन जहाँ सभी संग्रहालय मुफ्त हैं, अपनी कला और सभ्यता को जानने के लिए आप को कोई टिकट नहीं खरीदना पड़ता.

मैं श्री पाउलूच्ची की बात से सहमत हूँ कि अपनी कला, संस्कृति को बाज़ार के मापदँड से नहीं, सभ्यता के मादँड से तौलना चाहिये. पर यही काफ़ी नहीं. साथ ही, मुझे यह भी लगता है कि कला और सभ्यता की बातों को विषेशज्ञों के बनाये पिँजरों से बाहर निकाल कर जनसामान्य के लिए समझने लायक बनाया जाये. वह कहते हैं कि कला सँग्रहालयों को मैनेजरों की नहीं, कला को समझने वाले निर्देशकों की आवश्यकता है, जो नफ़े नुक्सान की बातों से ऊपर उठ सकें.

बदलते परिवेश में पर्यटक बदल गये हैं जिसके बारे में पाउलूच्ची कहते हैं, "आज कल चार्टर उड़ानों से अलग अलग देशों के बहुत से पर्यटकों के गुट आते हैं. उनके पास रोम घूमने के लिए एक ही दिन होता है, जिसमें से वह लोग एक डेढ़ घँटा वेटीकेन संग्रहालय को देखने के लिए रखते हैं. उनके पास संग्रहालय के अमूल्य चित्रों या शिल्पों की कोई कीमत नहीं, क्योंकि उनके पास कुछ देखने का समय नहीं है. उन्हें देखना होता है केवल सिस्टीन चेपल में माईकल एँजेलो की कलाकृति को. वह लोग संग्रहालय में भागते हुए घुसते हैं, सिस्टीन चेपल देख कर, सेंट पीटर के गिरजाघर की ओर भागते है. फ़िर कोलोसियम देखो, त्रेवी का फुव्वारा देखो, स्पेनी सीढ़ियाँ देखो, बस रोम हो गया. अब बारी है अगले शहर जाने की."

यह सच है कि विदेश घूमते हुए थोड़े दिनों की छुट्टियाँ होती हैं, रहने घूमने के खर्चे भी भारी होते हैं. तो बस यही चिन्ता रहती है कि कैसे जानी मानी प्रसिद्ध चीज़ें देखीं जायें. बाकी सबको देखना समझना मुमकिन नहीं होता. मेरे विचार में असली प्रश्न है कि जिन शहरों में हम रहते हैं क्या वहाँ के इतिहास को जानते समझते हैं, वहाँ के कला संग्रहालयों को देखने का समय होता है हमारे पास?

जब बात संग्रहालयों की हो रही हो तो कला और शिल्प को कैसे जाना और समझा जाये, इसकी बात करना उतना ही आवश्यक है. और मेरे विचार में इस बात को खर्चे और फायदे की बात करने वाले मैनेजरों ने भी समझा है, चाहे वह अपने स्वार्थवश ही समझा हो. यानि पैसे बनाने के लिए, कला और सभ्यता का भला करने के लिए नहीं.

बचपन में स्कूल के साथ कभी दिल्ली के कुछ संग्रहालयों को देखने का मौका मिला था, लेकिन सामने गुज़रने भर से क्या समझ में आता? कोई बताने समझाने वाला नहीं था. कुछ साल पहले एक बार इंडियागेट के पास पुरात्तव संग्रहालय में गया था लेकिन तब भी वहाँ संग्रहालय की विभिन्न कलाकृतियों को समझने के लिए कोई गाइड या किताब आदि नहीं थे. वहाँ जो कुछ देखा उसका हमारे समाज और संस्कृति के लिए क्या अर्थ था? हमारी संस्कृति में क्या स्थान था उस पुरात्तव इतिहास का, यह सब समझने की कोई जगह नहीं थी.

जब विभिन्न देशों में घूमने का मौका मिला तो भी शुरु शुरु में समझ नहीं थी कि कला, इतिहास या पुरात्तव को उसकी सन्दरता देखने के अतिरिक्त, और गहराई से जानना और समझना भी दिलचस्प हो सकता था. वाशिंगटन का आधुनिक कला का संग्रहालय, अमस्टरडाम का वान गोग संग्रहालय, लंदन की टेट गेलरी, जैसे जगहें देखीं पर तब बात वहीं तक जा कर रुक जाती थी कि कौन सी कलाकृति देखने में अच्छी लगती है.

फ़िर एक बार मेरे मन में कुछ आया और मैंने "खुले विश्वविद्यालय" के "कला को कैसे समझा जाये" के कोर्स में अपना नाम लिखवा लिया. इस कोर्स की कक्षाएँ रात को होती थी. दिन भर काम के बाद रात को कक्षा जाने में नींद बहुत आती थी. कई बार मैं कक्षा में ही सो गया. फिर भी, उस कोर्स का कुछ फ़ायदा हुआ. यह समझ आने लगी कि कला को समझने के लिए उसके कलाकार को और जिस परिवेश में उस कलाकार ने जिया और वह कृति बनायी, उसे समझना उतना ही आवश्यक है. समझ आने लगा कि संग्राहलय में जो देखो, उसकी सुन्दरता के साथ साथ, उसके बारे में भी जानो और समझो, तो संग्रहालयों से किताबे खरीदना प्रारम्भ किया.

पिछले दस वर्षों में इंटरनेट के माध्यम से संग्रहालय, कला और शिल्प को समझने के अन्य बहुत से रास्ते खुल गये हैं. जब भी किसी नये संग्रहालय में जाने का मौका मिलता है तो पहले उसके बारे में, वहाँ की प्रसिद्ध कलाकृतियों के बारे में पढ़ने की कोशिश करता हूँ. वहाँ जा कर जो कुछ अच्छा लगता है उसकी बहुत सी तस्वीरें खींचता हूँ. घर वापस आ कर, उन तस्वीरों के माध्यम से कलाकृतियों और कलाकारों के बारे में जानने की कोशिश करता हूँ. कई बार इस तरह से उन कलाकृतियों के बारे में मन में और जानने समझने की इच्छा जागती है तो वापस संग्रहालय जा कर उन्हें दोबारा देखने जाता हूँ.

शायद यही वजह है कि आजकल दुनिया के बहुत से आधुनिक संग्रहालयों में तस्वीर खींचने से कोई मना नहीं करता, बस फ्लैश का उपयोग निषेध होता है. पहले लोग सोचते थे कि संग्रहालय की हर वस्तु को गुप्त रखना चाहिये, तभी लोग आयेंगे. संग्रहालय चलाने वाले लोग सोचते थे कि अगर लोग तस्वीर खींच लेंगे तो उनके मित्र तस्वीरें देख कर ही खुश हो जायेंगे, संग्रहालय नहीं आयेंगे. इसलिए वहाँ फोटो खींचने की मनाई होती थी. तस्वीरें, कार्ड आदि कुछ भी हो, उसे आप केवल संग्रहालय की दुकान से मँहगा खरीद सकते थे.

आज के संग्रहालयों को समझ आ गया है कि जो लोग वहाँ घूमते हुए तस्वीरें खींचते हैं, वही लोग बाद में उन्हें फेसबुक, फिल्क्र, चिट्ठों आदि के द्वारा अपने मित्रों व अन्य लोगों में उस संग्रहालय का मुफ्त में विज्ञापन करते हैं. जितनी तस्वीरें अधिक खींची जाती हैं, उतना विज्ञापन अधिक होता है, और अधिक लोग वहाँ जाने लगते हैं.

पैसा कमाने के लिए संग्रहालयों को नये तरीके समझ में आये हैं, जैसे कि विभिन्न कलाकारों की कला को समझने के लिए उसके बारे में किताबें, पोस्टर, प्रिंट आदि और संग्रहालय में बने काफ़ी हाउस, बियर घर और रेस्टोरेंट.

यह सच है कि ग्रुप यात्रा में निकले लोगों के पास समय कम होता है, बस कुछ महत्वपूर्ण चीज़ों को ही देख सकते हैं. लेकिन मेरे विचार में ग्रुप यात्रा के बढ़ने के साथ साथ, दुनिया में कला को अधिक गहराई से समझने वाले भी बढ़ रहे हैं, जो अब इंटरनेट के माध्यम से कला और इतिहास को इस तरह समझ सकते हैं जैसे पहले मानव इतिहास में कभी संभव नहीं था.

इसका एक उदाहरण है दिल्ली के पुरात्तव संग्रहालय में मोहनजोदारो और हड़प्पा से मिली प्राचीन मुद्राएँ. जब उन्हें देखा था तो वह मुद्राएँ केवल छोटे मिट्टी के टुकड़े जैसी दिखी थीं, उनमें कुछ दिलचस्प भी हो सकता है, यह समझ नहीं आया था. आज टेड वीडियो पर प्रोफेसर राजेश राव का यह वीडियो देखिये. उन मुद्राओं को देख कर उन्हें समझने की उत्सुकता अपने आप बन जाती है.
 
कलाकार और उसके परिवेश को जानने से, उसकी कला को समझने की नयी दृष्टि मिलती है, इसका एक उदाहरण है श्री ओम थानवी द्वारा लिखा वान गोग की एक कलाकृति "तारों भरी रात" का विवरण. किसी संग्रहालय में वान गोग के चित्र देखने का मौका मिल रहा हो, तो पहले इसे पढ़ कर देखिये, कला को समझने की नयी दृष्टि मिल जायेगी.

पर इस तरह कला को देखने, समझने का जिस तरह का मौका आज अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बन गया है वैसा पहले कभी नहीं था, जिसका एक उदाहरण है गूगल द्वारा संग्रहालयों की प्रसिद्ध कलाकृतियों को देख पाना.

भारत में कला के बारे में, संग्रहालयों के बारे में कैसे जानकारी मिलेगी, यह अभी आसान नहीं हुआ है. भारत के कौन से प्रसिद्ध चित्रकार हैं, किसी अच्छे भले, पढ़े लिखे व्यक्ति से पूछिये तो भी आप को अमृता शेरगिल, मकबूल फिदा हुसैन आदि दो तीन नामों से अधिक नहीं बता पायेगा. हेब्बार, राम कुमार, बी प्रभा जैसे नाम कितनों को मालूम हैं? काँगड़ा और राजस्थानी मिनिएचर चित्रकला शैलियों की क्या विषेशताएँ हैं, शायद लाखों में एक व्यक्ति भी नहीं बता सकेगा.

भारत के प्रसिद्ध शिल्पकार कौन हैं तो शायद कुछ लोग अनिश कपूर का नाम ले सकते हैं क्योंकि वे लंदन में प्रसिद्ध हैं. कैसे कला में पैसा लगाना आज फायदेमंद है, इस पर फायनेन्शियल टाईमस या बिजनेस टुडे पर लेख मिल जायें, पर आम टीवी कार्यक्रमों में भारतीय कलाकारों की कला को कैसे समझा जाये, इसका कोई कार्यक्रम क्या आप ने कभी देखा है? जब तक किसी कलाकार की बिक्री लाखों करोड़ों में न हो, या उसे विदेश में कुछ सम्मान न मिले, लगता है कि भारत में उसका कुछ मान नहीं.

भारतीय पुरात्तव विभाग की वेबसाईट तो हिन्दी में भी है लेकिन वहाँ पर आप को केवल प्रकाशनों की लिस्ट मिलेगी. इंटरनेट पर पढ़ने वाली किताबों पत्रिकाओं की लिंक अंग्रेज़ी वाले हिस्से में हैं. तस्वीरों की गैलरी है, लेकिन उनमें जगह के नाम के सिवा, उसे जानने समझने के लिए कुछ नहीं. वैसे तो भारत दुनिया भर के क्मप्यूटरों की क्राँती का काम कर रहा है तो आशा है कि भारतीय पुरात्तव विभाग की वेबसाईट को भी अच्छा होने का मौका मिलेगा.

दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय की वेबसाईट केवल अंग्रेज़ी में है और उसपर उपलब्ध जानकारी बहुत सतही है. तस्वीरें छोड़ कर किसी तरह की समझ बढ़ाने वाली जानकारी नहीं मिलती. वेबसाईट पुराने तरीके की है, उसे देख कर नहीं लगता कि यह भारत के सबसे प्रमुख संग्रहालय का परिचय दे सकती है.

दिल्ली के राष्ट्रीय कला संग्रहालय की वेबसाईट देखने में बहुत सुन्दर है, और हिन्दी में भी है. वेबसाईट पर संग्रहालय के विभिन्न संग्रहों की कुछ सतही जानकारी भी है, लेकिन सभी प्रकाशन केवल खरीदने के लिए ही हैं, इंटरनेट से कलाकारों और कला के बारे में जानकारी सीमित है.

अगर हमारी संस्कृति, सभ्यता को जनसामान्य तक पहुँचाना आवश्यक है तो भारतीय संग्रहालय और पुरात्तव विभागों को इंटरनेट के माध्यम से नये कदम उठाने चाहिये, ताकि जनता में अपने इतिहास और कला को जानने समझने की इच्छा जागे.

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नीचे की मेरी खींची तस्वीरें दुनिया के विभिन्न देशों में संग्रहालयों से हैं.

Museums - images by S. Deepak

Museums - images by S. Deepak

Museums - images by S. Deepak

Museums - images by S. Deepak

Museums - images by S. Deepak

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शनिवार, जुलाई 09, 2011

मन पसंद गैर फ़िल्मी गीत

सुबह साइकल पर जा रहा था. कुछ देर पहले ही बारिश रुकी थी. आसपास के पत्ते, घास सबकी धुली हुई हरयाली अधिक हरी लग रही थी. अचानक मन में गाना आया "इस तुमुल कोलाहल कलह में". जाने कितने साल पहले सुना था यह गीत, शायद चालिस साल पहले. आशा भौंसले का गाया यह गीत, मन की गहराईयों में जाने कहाँ चुपा था जो इस तरह से अचानक उभर आया था. आसपास बिल्कुल सन्नाटा था, कोई तुमल, कोलाहल, कलह नहीं था, फ़िर क्यों यही गीत मन में आया था?

विदेशों में अधिकतर फ़िल्मों में गीत नहीं होते, जबकि भारतीय फ़िल्मों में गीतों के बिना फ़िल्में नहीं होती. हम लोग अधिकतर फ़िल्मी गीतों से ही अधिक परिचित हैं, पर फ़िर भी कभी कभी आशा भौंसले के "तुमुल कोलाहल" जैसे गीत कुछ प्रसिद्ध हो ही जाते हैं. जब एम टीवी और वी चैनल आने लगे थे तो मैं सोचता था कि अब गैर फ़िल्मी गानो को अपना सही स्थान मिलेगा, पर इस तरह का कुछ हुआ लगता नहीं, हालाँकि नब्बे के दशक के बाद से गैर फ़िल्मी गीतों की कुछ लोकप्रियता बढ़ी है.

फ़िर सोचने लगा कि अगर गैर फ़िल्मी गानों के बारे में सोचूँ तो क्या अपने मन पंसद दस गैर फ़िल्मी गानों की सूची बना पाऊँगा? साथ में ही मेरी शर्त यह भी थी कि एक एँल्बम से एक से अधिक गीत नहीं चुन सकते, और गीत अपने आप याद आना चाहये, गूगल पर खोज कर नहीं निकनला उसे. प्रारम्भ में कुछ ध्यान में नहीं आ रहा था, लेकिन फ़िर धीरे धीरे कुछ गाने याद आने लगे. यह सूची बनायी है, हालाँकि इनमें से यह चुनना कि कौन सा गीत अधिक पसंद है कठिन है. कुछ गायकों के नाम याद आये पर उनका कोई गीत याद नहीं आया.

1. "कृष्णा नीबेगने बरो" जिसे कोलोनियल कज़नस् (Colonial Cousins) ने गाया था. इनकी इसी एल्बम में से मुझे "स नि धा पा गा मा गा रे सा" भी बहुत अच्छा लगता है लेकिन अगर एक ही चुनना पड़े तो मैं "कृष्णा" को ही चुनुँगा.



2. रब्बी का गाया "बुल्ला की जाणा मैं कौण" - इस गाने के बाद मैंने रब्बी की एक और एँल्बम भी खरीदी थी जो मुझे अच्छी भी लगी थी, लेकिन अब सोचने पर भी उसके गीत याद नहीं आते.

3. मुकुल और मितुल का "सावन" यह दोनो गायक अधिक प्रसिद्ध नहीं हुए लेकिन मुझे इनके गाने का अंदाज़ बहुत पसंद है.




4. आशा जी का "इस तुमुल कोलाहल कलह में"

5. जगजीत सिंह और चित्रा सिंह का "सरकती जाये है रुख से नकाब आहिस्ता आहिस्ता"

6. किशोरी आमोनकर का "सहेला रे"

7. अश्विनी भिडे देशपांडे का "गणपति विघ्नहरण गजानन". इस गीत के पीछे एक छोटी सी कहानी है. कुछ वर्ष पहले डा. देशपांडे हमारे शहर आयीं थीं. उनसे बात करने का भी मौका मिला. उनसे बात करते हुए मैंने उन्हें कहा कि मुझे उनका यह भजन बहुत प्रिय है. उस दिन शाम को जब उनका गायन कार्यक्रम समाप्त होने वाला था, उन्होंने इस गीत को मेरे लिए गाया. तब से यह गीत मेरे मन में और गहरा उतर गया.

8. मोहित चौहान का "सजना" - आज कल के गायकों में से मेरे सबसे प्रिय हैं मोहित चौहान.

9. ग़ुलाम अली का "आवारागी" - चालिस साल पहले यह गीत एक बार दिल्ली की ललित कला अकेदमी की लायब्रेरी में सुना था तो उसने मंत्र मुग्ध कर दिया था.

10. कुमार गंधर्व का "उड़ जायेगा हँस अकेला" - बचपन में कुमार गंधर्व जी के निर्गुणी भजनों से मेरी मुलाकात मेरे छोटे फ़ूफा ने करायी थी. उसके बाद कई बार कुमार गंधर्व जी को गाते हुए सुनने का मौका भी मिला. उनके कबीर भजन मुझे बहुत प्रिय हैं.

यह दस गीत तो मैंने आज चुने हैं लेकिन यह भी है कि समय के साथ मेरी पसंद भी बदलती रहती है. आप के सबसे प्रिय गैर फ़िल्मी गीत कौन से हैं, हमें भी बताईये. शायद आप की पसंद के गीतों में मेरी पसंद के अन्य गीत भी छुपे हों?

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हमारी भाषा कैसे बनी

कुछ दिन पहले मैंने जाने-माने डॉक्यूमैंट्री फ़िल्म निर्देशक अरुण चढ़्ढ़ा की १८५७ के लोक-गीतों पर बनी फ़िल्म के बारे में लिखा था। आज उन्हीं की ए...

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