गुरुवार, जनवरी 21, 2010

मनप्रिय लेखक

क्रोएशिया की लेखिका मिलाना रुँजिच का एक लेख पढ़ रहा था. उन्हें किसी पाठक ने लिखा था कि उसे मिलाना का लेखन पढ़ कर उससे प्यार होने लगा था. मिलाना ने उत्तर में लिखा, "मेरे विचार में मुझे ऐसे पुरुष से प्यार होने में कोई दिक्कत नहीं होगी जो मेरे लिखे हुए को पढ़ कर मुझसे प्रेम करने लगा हो. सचमुच कहूँ तो मुझे लगता है कि तुम्हारा पत्र पढ़ कर मुझे भी तुमसे कुछ कुछ प्रेम सा हो ही गया है. मुझे हमेशा ही वह पुरुष अच्छे लगे हैं जो मेरी किताबों को पढ़ते हों. अगर उन्हें मेरा लिखा अच्छा लगता है तो इसका मतलब है कि उन्हें मैं भी अच्छी लगती हूँ क्योंकि मेरे लेखन में भी तो मैं ही होती हूँ. अगर कोई पुरुष कहे कि उसे मेरी कविताएँ अच्छी लगीं तो उसका मुझ पर और भी अधिक असर होता है. और अगर किसी को मेरे लेख भी अच्छे लगते हैं तो मैं उससे तुरंत विवाह करने को तैयार हूँ."

यानि लेखक भी सभी मानवों की तरह, अपने को चाहने वाले और पसंद करने वालों की तलाश में रहता है. पर किताब पढ़ कर लेखक की एक छवि मन में बना लेना और उसके प्रेम के सपने देखना या फ़िल्म देख कर अभिनेता या अभिनेत्री के सपने देखना, शायद यह कम उम्र में ही संभव होता है. सचमुच के जीवन में कितनी बार पाया कि जो लेखक या अभिनेता, किताब में या पर्दे पर इतना भाता है, सामान्य जीवन में सामान्य ही होता है, किसी बात में अच्छा लगता है और किसी बात में बिल्कुल अच्छा नहीं लगता.

कभी कभी ऐसा भी हुआ है कि किताबों कहानियों में बहुत अच्छा लगने वाले लेखक से जब मिलने का मौका मिला तो बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगा. तब दुख भी होता है कि क्यों ऐसे व्यक्ति से मिला और बाद में उसकी लिखी किताब या कहानियाँ भी पढ़ने का मन नहीं करता.

अधिक प्रसिद्ध होने वाले व्यक्तियों से यह खतरा कुछ अधिक है, क्योंकि प्रसिद्ध के साथ साथ उनके सामान्य आचरण में निरंकुषता सी आ सकती है.

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हिंदी की पत्रिका हँस को नियमित पढ़ते जाने कितने साल हो गये. पत्रिका का मेरा सबसे प्रिय हिस्सा है "मेरी तेरी उसकी बात", नयी पत्रिका आये तो सबसे पहले उसी को पढ़ता हूँ, कई बार दोबारा भी पढ़ता हूँ.

"मेरी तेरी उसकी बात" हँस के संपादक श्री राजेंद्र यादव लिखते हैं. जनवरी 2010 का हँस का नया अंक आया तो भी सबसे पहले इसी को पढ़ा. इस बार यादव जी ने "धर्मयुग" के संपादक श्री धर्मवीर भारती की पत्नी श्रीमति पुष्पा भारती से होने वाले झगड़े की बात की है. पुष्पा जी ने यादव जी की पत्नी मन्नू भँडारी से कहा कि वह अपनी पुस्तक में भारती जी बारे में लिखी किसी बात को हटा दें, क्योंकि वह गलत है. यादव जी अपने संपादकीय में अपनी पत्नी और पुष्पा जी बीच होने वाले इसी झगड़े की बात का विस्तार से सारा इतिहास बताते हैं. आरोप है भारती जी के सत्ता में होने वाले लोगों की चापलूसी का, इमरजैंसी के दौरान चुप्पी का और पहले इंदिरा-संजय वंदना का, फ़िर सत्ता पलटने पर अटल बिहारी वाजपेयी वंदना का.

आलेख को बहुत मज़े ले कर पढ़ा. किसी की बुराई हो रही हो तो चटकारे ले कर पढ़ना, मसालेदार चाट खाने से कम नहीं. आलेख में यादव जी और मन्नू भँडारी जी हैं कहानी के नायक, साथ में कुछ अन्य लोग हैं जैसे कि पंकज विष्ट. यह नायक लोग अपने आदर्शों पर बने रहे, सत्ताधारियों के आगे नहीं झुके, उनके पैसे और पुरस्कार ठुकरा दिये. दूसरी ओर सत्ता के सामने झुकने वाले, समझौता करने वालों कमज़ोर लोग हैं जिनके सरताज थे धर्मवीर भारती. इस झुकने समझौता करने वालों की लिस्ट में और भी बहुत से नाम हैं. साथ में अपने आदर्शों पर डटने के कुछ गवाहों के नाम भी हैं.

अधिक मसालेदार चाट खायी हो तो बाद में पेट में दर्द भी उठ सकता है, कुछ ऐसा ही लगा आलेख पढ़ कर.

यादव जी की लिस्ट में रघुवीर सहाय और अनीता औलक के भी नाम हैं. अनीता जी का ज़िक्र तो कुछ दिन पहले ही किया था जब मोहन राकेश जी के बारे में लिखा था. सोचा कि मोहन राकेश की मृत्यु तो 1972 में हुई थी फ़िर अनीता जी को क्यों इमरजेंसी के चक्कर में खींचा गया जिससे उन्हें सत्ता से समझौता करना पड़ा?

रघुवीर सहाय जी को बहुत सालों तक पिता के मित्र के रुप में जाना था, उनका नाम देख कर मन में अन्य बातें उठीं, अगर 1978 में इमरजैंसी के दौरान मेरे पिता जीवत होते तो क्या वह भी सत्ता से समझौता कर लेते? समझौता क्या होता है और क्यों करते हैं? आदर्शों को बना कर रखना इतना कठिन क्यों होता है? कौन करते हैं समझौता?

आलेख में धर्मवीर भारती की तो इतनी धूँआदार धुलाई की गयी है कि उनकी आत्मा छुपने की जगह खोज रही होगी. बची खुची कसर निकाली है तीस साल पहले "माया" पत्रिका में छपे आलेखों से, जिनमें भारती जी के बारे में अन्य विवरण हैं. इन सब पुराने आलेखों को हँस में दोबारा से छापा गया है. ऐसा सबूत सहित जूता मारा है कि दोबारा सिर उठाने की कोशिश ही न करें.

कहते हैं तिब्बत में कोई मरता है तो उसके शरीर को काट कर चील गिद्धों को खिलाते हैं, भारती जी का वही क्रिया कर्म हो गया लगता है. हँस के अगले अंक में यादव जी की बहादुरी की सराहना करने वाले बहुत से पत्रों को पढ़ने का इंतज़ार रहेगा. शायद आलेख की अगली किश्त भी छपे, जिसमें अन्य बातें जानने को मिलेंगी. और चाट खायेंगे, और पेट दुखेगा.

क्या करते बेचारे यादव जी, उनका कुछ दोष नहीं, पुष्पा भारती की धमकी का उत्तर तो देना ही था.

रविवार, जनवरी 10, 2010

मोहन राकेश

अंग्रेज़ी की अखबार हिंदुस्तान टाईमस में मोहन राकेश जी के बारे में छोटा से लेख देखा तो उन दिनों की याद आ गयी जब वह दिल्ली के राजेंद्र नगर के आर ब्लाक में रहते थे. तालकटोरा बाग से शंकर रोड की तरफ़ आईये तो जहाँ राजंद्र नगर प्रारम्भ होता है वहाँ बायें कोने पर पम्पोश की दुकान थी जिसकी वजह से उस सारी जगह को पम्पोश ही कहते थे. पम्पोश से आने वाली सड़क जहां आर ब्लाक के बड़े बाग से मिलती, वहीं बायें कोने वाले तीन मज़िला घर में बरसाती पर रहते थे.

उनके घर से थोड़ी दूर पर ही जंगल के सामने वाली सड़क पर मेरी बुआ का घर था. 1966-67 के आस पास ही बुआ के यहाँ छुट्टियों में गया था जब दीदी के साथ मोहन जी के घर जाने का एक दो बार मौका मिला था. तब तक उनकी कुछ कहानियाँ नाटक पढ़े थे, लेकिन इतनी समझ नहीं थी कि वह कितने बड़े लेखक हैं. मैं तब बारह या तेरह साल का था पर जब उन्हें पहली बार देखा था उसके बारे में सोचूँ तो सबसे पहली बात जो मन में आती है वह उनका कद छोटा होने की है. उनकी पत्नी अनीता, जो उम्र में उनसे बहुत छोटी लगती थीं, उनसे थोड़ी ऊँची थी. दूसरी बात याद आती है उनकी गूँजती आवाज़ में पँजाबी भाषा का पुट. तीसरी बात याद है उनका छोटा और मोटा सा सिगार पीना.

तब उनकी बेटी पुरुवा का मुँडन हुआ था और उसके बारे में सोचूं तो उसके गँजे सिर पर हाथ फ़ैरना याद आता है. दीदी, अनीता जी और मोहन जी में क्या बातें हुईं, यह सब कुछ याद नहीं क्योंकि तब अपना ध्यान खेलने की ओर अधिक होता था. हां उनके कमरे के बीच में रखी गोल नीची मेज़ याद है जिसके आसपास ज़मीन पर बैठ कर कुछ खाया था.

जब उनकी मृत्यु का सुना था तो मुझे अनीता जी और उनकी बेटी पुरुवा का ही ध्यान आया था. अनीता जी से पहले वह अन्य विवाह कर चुके थे और शायद अनीता जी उनकी धरौहर की कानूनी मालिक नहीं थीं. बच्चे छोटे हों और अचानक पिता न रहे का क्या अर्थ होता है, इसका अपना अनुभव मुझे कुछ वर्ष बाद हुआ था जब मेरे पिता भी कम उम्र में अचानक गुज़र गये थे.

पर समय सब कुछ भुला देता है. अनीता जी कहाँ गयीं, उनकी बेटी का क्या हुआ, यह कुछ भी मुझे मालूम नहीं शायद दीदी को मालूम हो.

शनिवार, जनवरी 02, 2010

टाँग कहाँ, हाथ कहाँ?

जब से फोटोशोप जैसे प्रोग्राम बने है, मानव शरीर को तोड़ने या जोड़ने के नये अवसर मिलने लगे हैं, जिनसे डा. फ्रेंकेस्टाईन की कहानियों की याद आ जाती है. फोटोशोप डिज़ास्टर के चिट्ठे पर उन तस्वीरों को जगह मिलती है जिनमें शरीर के अंगों को तोड़ने जोड़ने का काम कुछ विषेश सफ़ाई से किया जाता है. इस चिट्ठे से कुछ ऐसी तस्वीरों के नमूने प्रस्तुत हैं जिनमें शरीर के अंगो को तोड़ने जोड़ने में प्लास्टिक सर्जरी बहुत बढ़िया की गयी है.

इस पहली तस्वीर में देखिये और सोचिये कि इस बालिका की बायीं टांग कहाँ गयी? शायद उसे बिल्ली ले गयी?


इस दूसरी तस्वीर वाली कन्या के शरीर के ऊपरी हिस्से के वस्त्र चुरा लिये गये हैं लेकिन शायद वस्त्र उतारते समय शरीर के कुछ भाग भी साथ ही चोरी हो गये थे या शायद, यह कन्या असल में कन्या का पति है?


इस तीसरी कन्या के बायें हाथ में गलती से शायद उसका पैर लगा दिया गया था?


कितनी ज़ालिम है यह माँ जिसने अपनी बड़ी बेटी को टब और दीवार के बीच में दबा कर उसकी टाँगें ही काट दीं.


इन अगले साहब की तस्वीर वैसे तो बहुत बढ़िया है लेकिन कार के दरवाज़े का हैंडल अगर किसी अन्य जगह होता तो शायद बेहतर नहीं होता?


आप सब को नववर्ष की शुभकामनाएँ.

हमारी भाषा कैसे बनी

कुछ दिन पहले मैंने जाने-माने डॉक्यूमैंट्री फ़िल्म निर्देशक अरुण चढ़्ढ़ा की १८५७ के लोक-गीतों पर बनी फ़िल्म के बारे में लिखा था। आज उन्हीं की ए...

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