सोमवार, अप्रैल 30, 2007

बहुत बड़ी है दुनिया

कुछ दिन दूर क्या हुए, हिंदी चिट्ठा जगत तो माने दिल्ली हो गया. हर साल जब दिल्ली लौट कर जाता हूँ तो सब बदला बदला लगता है. पुराने घर, वहाँ रहने वाले लोग, सब बदले लगते हैं. बहुत से लोग अपनी जगह पर नहीं मिलते. कहीं नये फ्लाईओवर, कहीं नये मेट्रो के स्टेशन तो कहीं सीधे साधे घर के बदले चार मंजिला कोठी. कुछ ऐसा ही लगा नारद पर. पहले तो लिखने वाले बहुत से नये लोग, जिनके नाम जाने पहचाने न थे. ऊपर से ऐसी बहसें कि लगा कि बस मार पिटायी की कसर रह गयी हो (शायद वह भी हो चुकी हो कहीं बस मेरी नजर में न आई हो?)

सोचा कुछ नया पढ़ना चाहिये तो पहले देखा सुरेश जी का चिटठा जिसमें उनका कहना था कि अपराधियों को बहुत छूट मिली है, उनके लिए मानवअधिकारों की बात होती है जबकि निर्दोष दुनियाँ जो उनके अत्याचारों से दबी है उसके मानवअधिकारों की किसी को चिंता नहीं है. यानि पुलिस वाले अगर अपराधियों को पकड़ कर बिना मुदकमें के गोली मार दें या उनकी आँखों में गँगाजल डाल दें तो इसे स्वीकार कर लेना चाहिये, क्योंकि कभी कभी "गेहूँ के साथ घुन तो पिसता ही है".

मैं ऐसे विचारों से सहमत नहीं हूँ क्योंकि मैं सोचता हूँ कि समाज को हर तरह के कानून बनाने का अधिकार है पर समाज में किसी को भी कानून को अपने हाथ में लेने का अधिकार नहीं होना चाहिये. क्योंकि एक बार किसी वर्ग के लिए अगर यह बात आप मान लेते हैं तो समस्त कानून की कुछ अहमियत नहीं रहेगी. अपराधी, राजनीति और पुलिस वर्गों में साँठ गाँठ की बात तो सबके सामने है ही, जिससे बड़े अपराधियों को पुलिस को संरक्षण मिलता है और लोगों को संतुष्ट करने के लिए छोटे मोटे या गरीब लोंगों को मार कर उन्हे अपराधी बना देना आसान हो जाता है. कोई कोई ईमानदार पुलिस वाले होंगे जो सचमुच कानून से बच कर निकल जाने वाले अपराधियों और उनके साथी नेताओं को जान मारना चाहें, पर उनसे कई गुना अधिक वह पुलिस वाले होंगे जो सचमुच के अपराधियों को बचाने के लिए छोटे मोटे चोर या गरीब लोगों के जान ले सकते हों. घुन के पिसने को आसानी से इसी लिए स्वीकारा जाता है क्योंकि हम जानते हैं कि हमारी पहुँच और जानपहचान है, हम खुद कभी घुन नहीं बनेंगे.

उसके बाद प्रेमेंद्र प्रताप सिंह के चिटठे को खोला तो वहाँ से मोहल्ला, पँगेबाज, सृजनशिल्पी, रमण और जीतेंद्र के नारद संचलन पर गर्म चर्चा देखता चला गया. फुरसतिया जी की टिप्पणीं को पढ़ कर कुछ ढाढ़स मिला कि आग को समय पर बुझा दिया गया. या फ़िर शायद यह कहना ठीक होगा कि इस बार तो आग को बुझा दिया गया पर अगली बार क्या होगा?

मैं स्वयं सेंसरशिप और किसी को बाहर निकालने के विरुद्ध हूँ, क्योंकि मुझे लगता है कि दुनिया में बहुत लोग हैं जिनकी बात से मैं सहमत नहीं पर साथ ही, दुनिया इतनी बड़ी है कि जो मुझे अच्छा न लगे, उसे कोई मुझे जबरदस्ती नहीं पढ़ा सकता. तो आप लिखिये जो लिखना है, अगर वह मुझे नहीं भायेगा तो अगली बार से आप का लिखा नहीं पढ़ूँगा, बात समाप्त हो गयी. पर मैं समझ सकता हूँ कि जब मन में उत्तेजना और क्षोभ हो तो गुस्से में यह सोचना ठीक नहीं लग सकता है.

प्रेमेंद्र ने "ईसा, मुहम्मद और गणेश" के नाम से एक और बात उठायी कि जब ईसाई और मुसलमान अपने धर्मों का कुछ भी अनादर नहीं मानते तो हिंदुओं को भी गणेश की तस्वीरों का कपड़ों आदि पर प्रयोग का विरोध करना चाहिये. मैं इस बात से भी सहमत नहीं हूँ.

ईसा के नाम पर कम से कम पश्चिमी देशों में टीशर्ट आदि आम मिलती हैं, उनके जीवन के बारे में जीसस क्राईसट सुपरस्टार जैसे म्युजिकल बने हें जिन्हें कई दशकों से दिखाया जाता है, फिल्में और उपन्यास निकलते ही रहते हैं जिनमें उनके जीवन और संदेश को ले कर नयी नयी बातें बनाई जाती है. इन सबका विरोध करने वाले भी कुछ लोग हैं पर मैंने नहीं सुना कि आजकल पश्चिमी समाज में कोई भी फिल्म या उपन्यास सेसंरशिप का शिकार हुए हों या किसी को बैन कर दिया हो या फ़िर उसके विरोध में हिसक प्रदर्शन हुए हों. असहिष्णुता, मारपीट दँगे, भारत, पाकिस्तान, बँगलादेश, मिडिल ईस्ट के देशों में ही क्यों होते हैं? हम लोग अपने धर्म के बारे में इतनी जल्दी नाराज क्यों हो जाते हैं?

मेरा मानना है कि भगवदगीता और अन्य भारतीय धर्म ग्रँथों के अनुसार संसार के हर जीवित अजीवित कण में भगवान हैं. दुनिया के हर मानव की आत्मा में भगवान हैं. भगवान की कपड़े पर तस्वीर लगाने से, उनका मजाक उड़ाने से, उनके बारे में कुछ भी कहने या लिखने से भगवान का अनादर नहीं होता. जो "हमारे धर्म का अनादर हुआ है" यह सोच कर तस्वीर हटाओ, यह मंत्र का प्रयोग न करो, इसके बारे में न लिखो और बोलो, इत्यादि बातें करते हैं वह अपनी मानसिक असुरक्षा की बात कर रहे हैं, उनका भगवान से लेना देना नहीं है. अगर भगवान का अपमान सचमुच रोकना हो तो छूत छात, जाति और धर्म के नाम पर होने वाले इंसान के इंसान पर होने वाले अत्याचार को रोकना चाहिये.

जब पढ़ कर नारद को बंद किया तो खुशी हो रही थी कि इतने सारे नये लोग हिंदी में लिखने लगे हैं. यह तो होना ही था कि जब हिंदी में चिट्ठे लिखना जनप्रिय होगा तो सब तरह के लोग तो आयेंगे ही, और यही तो अंतर्जाल की सुंदरता है कि हर तरह की राय सुनने को मिले. अगर मैं असहमत हूँ तो इसका यह अर्थ नहीं कि मैं आप का मुँह बंद करूँ. आप अपनी बात कहिये, कभी मन किया तो अपनी असहमती लिख कर बताऊँगा, कभी मन किया तो आप के लिखे को नहीं पढ़ूँगा. यह दुनिया बहुत बड़ी है, आप अपनी बात सोचिये, मैं अपनी बात.

बुधवार, अप्रैल 25, 2007

ऊन से बुनी मूर्तियाँ

स्पेन की दो वृतचित्र बनाने वाली निर्देशिकाओं लोला बारेरा और इनाकी पेनाफियल ने फिल्म बनायी है "के तियेन देबाहो देल सामब्रेरो" (Qué tienes debajo del sombrero), समब्रेरो यानि मेक्सिकन बड़ी टोपी और शीर्षक का अर्थ हुआ "तुम्हारी टोपी के नीचे क्या है".

यह फ़िल्म है अमूर्त ब्रूट कला की प्रसिद्ध कलाकार जूडित्थ स्कोट के बारे में, जो अपनी बड़ी टोपियों और रंगबिरंगे मोतियों के हार पहनने की वजह से भी प्रसिद्ध थीं. ब्रूट कला यानि अनगढ़, बिना सीखी कला जो विकलाँग या मानसिक रोग वाले कलाकारों द्वारा बनायी जाती हैं. जूडित्थ गूँगी, बहरी थीं और डाऊन सिंड्रोम था, जिसकी वजह से उनका मानसिक विकास सीमित था.

जूडुत्थ की कहानी अनौखी है. 1943 में अमरीका में सिनसिनाटी में जन्म हुआ, जुड़वा बहने थीं, जूडित्थ और जोयस. दोनो बहने एक जैसी थी बस एक अंतर था. जूडित्थ को डाऊन सिंड्रोम यानि मानसिक विकलाँगता थी और गूँगी बहरी थीं, जोयस बिल्कुल ठीक थी. छहः वर्ष की जूडित्थ को घर से निकाल कर बाहर मानसिक विकलाँगता के एक केंद्र में भेज दिया गया. घर में उसके बारे में बात करना बंद हो गया, मानो वह कभी थी ही नहीं पर जोयस अपनी जुड़वा बहन को न भूली. 36 वर्षों तक जूडित्थ एक केंद्र से दूसरे केंद्र में घूमती रहीं, अपने घर वालों के लिए वह जैसे थीं ही नहीं, केवल उनकी जुड़वा बहन को उनकी तलाश थी. 1986 में जोयस ने अपनी बहन को खोज निकाला और अपने घर ले आयीं. 43 सालों तक विभिन्न केंद्रों मे रहने वाली जूडित्थ को केवल उपेक्षा ही मिली थी, वह लिखना पढ़ना नहीं जानती थी और जिस केंद्र में जोयस को मिलीं, वहाँ किसी को नहीं मालूम था कि वह गूँगी बहरी हैं, सब सोचते थे कि केवल उनका दिमाग कमज़ोर है, जिससे अनुमान लगाया जा सकता है कि केंद्र में कौन उनसे कितना सम्पर्क रखता होगा.

घर लाने के बाद, जोयस ने ही कोशिश की कि जूडित्थ एक कला केंद्र में नियमित रूप से जायें. पहले तो जूडित्थ ने चित्रकारी से आरम्भ किया. 1987 में जूडित्थ ने अपनी पहली मूर्तियाँ बनायीं. उनकी खासियत थी कि चीजों को ऊन में लपेट कर उसके आसपास मकड़ी का जाला सा बुनती थीं जो उनकी रंग बिरंगी मूर्तियाँ थीं. 2005 में 61 वर्ष की आयु में जब जूडित्थ का देहाँत हुआ तो उनकी ऊन की मूर्तियाँ देश विदेश के बहुत से कला सग्रहालयों में रखी जा चुकीं थीं और उनकी कीमत भी ऊँचीं लगती थी. प्रस्तुत हैं जूडित्थ की कला के कुछ नमूने.

पहली तस्वीर में अपनी कलाकृति के साथ स्वयं जूडित्थ भी हैं.








मंगलवार, अप्रैल 24, 2007

मानव शरीरों से अमूर्त कला

रात को रायटर के अंतर्जाल पृष्ठ पर समाचार देख रहा था कि नज़र नीचे 15 अप्रैल के एक समाचार पर गयी. १५० लोगों नें हौलैंड में प्रसिद्ध अमरीकी छायाचित्रकार स्पेंसर ट्यूनिक (Spencer Tunick) के अमूर्त कला तस्वीरों के लिए निर्वस्त्र हो कर तस्वीरें खिंचवायीं. समाचार के साथ दिखाया जाना वाले दृष्य भी अनौखे थे. एक तरह स्त्री पुरुष आराम से कपड़े उतार रहे थे, फ़िर वे सब लोग ट्यूलिप के फ़ूलों के आसपास तस्वीरें खिचवाने लगे. एक पवनचक्की के सामने, जमीन पर साथ साथ लेटे शरीरों से बने पवनचक्की के पँखों का दृष्य बहुत सुंदर लगा.




बाद में गूगल से श्री ट्यूनिक के बारे में खौज की तो मालूम चला कि श्रीमान जी इस तरह के निर्वस्त्र अमूर्त कला तस्वीरों, यानि इतने शरीर साथ हो कि बजाय एक व्यक्ति की नग्नता देखने के सारे शरीर मिल कर अमूर्त कला बनायें, के लिए प्रसिद्ध हैं और इस तरह के प्रयोग न्यू योर्क के रेलवे स्टेशन, वेनेसूएला में काराकास शहर, इंग्लैंड में न्यू केस्ल के मिलेनियम ब्रिज और अन्य बहुत सी जगह पर कर चुके हैं. जो लोग इन तस्वीरों में भाग लेते हैं वह निशुल्क काम करते हैं, शुल्क के तौर पर बस उन्हें अपनी एक तस्वीर मिलती है. प्रस्तुत हैं ट्यूनिक जी की अमूर्त कला के कुछ नमूने.

सोचये कि अगर ट्यूनिक जी भारत में अगली तस्वीर खींवना चाहें तो क्या उसमें भाग लेना पसंद करेंगे? वैसे तो भारतीय संस्कृति की रक्षा करने वाले उन्हें ऐसा कुछ करने से पहले इतने दँगे करेंगे तो ट्यूनिक जी तस्वीर लेना ही भूल जायेंगे. पर मान लीजिये कि वह किसी तरह से इस काम में सफ़ल हो भी जायें तो क्या उन्हें भारत में इतने लोग मिलेंगे, स्त्रियाँ और पुरुष जो इस तरह की तस्वीरें खुली जन स्थलों पर खिंचवा सकें? मुझे तो शक है, क्योकि मुझे लगता हैं हम लोग अपने शरीरों के बारे में इतनी ग्रथियों में बँधे हैं कि शरीर को परदों से बाहर लाने का सुन कर घबरा जाते हैं. भारत में बस नागा साधू ही हैं जो यह कर सकते हें.

आप सोचेंगे कि हमसे पूछ रहा है, क्या इसमें स्वयं इतनी हिम्मत होगी? मेरा विचार है कि हाँ, मुझे इस तरह निर्वस्त्र तस्वीर खिचवाने में कोई दिक्कत नहीं होगी. शरीर तो केवल शरीर ही है, सबके पास जैसा है, वैसा ही, न कम न अधिक. क्या कहते हैं आप, यह सच बोल रहा हूँ या खाली पीली डींग मारने वाली बात है?

शायद यह खाली पीली डींग ही है कि क्योंकि दस साल पहले तक कोई पूछता तो मुझे शक न होता कि निर्वस्त्र तस्वीर खिंचवाने में हिचकिचाहट न होती पर आज मुझे लगता है कि शरीर बूढ़ा हो रहा है, पेट निकला है, बाल सफ़ेद हैं तो अधिक झिकझिकाहट सी होती है. यह आधुनिक समाज का ही प्रभाव है कि दुनिया में केवल सुंदर शरीर ही होने चाहिये, ऐसा लगने लगता है और अगर आप मोटे, छोटे, दुबले, बूढ़े हों तो यह समाज आप को अपने शरीर से शर्म करना सिखा देता है.

















सोमवार, अप्रैल 23, 2007

ज्हाँग यू का बदला

चीन के फ़िल्म जगत में कुमारी ज्हाँग यू (Zhang Yu) ने तूफ़ान मचा दिया. बात कुछ वैसी ही थी जैसी कुछ समय पहले भारत में स्ट्रिँगर आपरेशन में शक्ती कपूर जैसे "अभिनेताओं" के साथ हुई थी, जब महिला पत्रकार अभिनेत्री बनने की इच्छा रखने वाली युवती बन कर फ़िल्म जगत के जाने माने लोगों से मिलीं और छिप कर इस मिलन की वीडियो खींचे जिनसे स्पष्ट होता था कि अभिनेत्री बनाने का वायदा करके कुछ लोग युवतियों से उसकी कीमत माँगते थे.

कुमारी यू चीन के मध्य भाग के राज्य हूबेई के गाँव से हैं और वह बेजिंग गायिका बनने की इच्छा से आयीं थीं. बहुत कोशिश करने पर भी उन्हें गायिका काम नहीं मिला पर फ़िल्मों में कुछ छोटे मोटे एस्ट्रा के भाग मिले. उन्होंने बहुत से फ़िल्म निर्माता, निर्देशकों आदि से मिलने की कोशिश की, जो शारीरिक सम्बंधों की कीमत माँगते और फ़िल्म में भाग देने का वायदा करते.

14 नवंबर 2006 को यू ने अपना चिट्ठे पर जाने माने चीनी फिल्म निर्माता निर्देशकों के वीडियो दिखाना प्रारम्भ किया और सारे देश में खलबली मचा दी. अब तक करीब बीस वीडियो दिखा चुकीं हैं और कहती हैं कि और भी हैं.

भारत में हुए स्ट्रिँग आपरेशन में और कुमारी यू के वीडियो आपरेशन में फर्क केवल इतना है कि भारत में धँधे वाले फिल्मी लोगों को धोखा दे कर उनकी तस्वीरें खींची गयीं थीं जबकि यू के वीडियो में दिखने वाले लोगों को मालूम था कि वीडियो लिया जा रहा है. यू का कहना है कि इन लोगों को वीडियो देख कर खुशी होती थी, इसलिए भी कि उन्हें अपनी शक्ति पर पूरा भरोसा था और सोचते थे कि यू उनके विरुद्ध कुछ नहीं कर पायेंगी.

शुरु में ऐसा ही हुआ. यू ने तीन लोगों पर मुकदमा किया कि इन्होंने वायदा कर के मेरे शरीर का उपयोग किया और फ़िर मुझे काम भी नहीं दिया. चीनी अदालत ने यह मुकदमा रद्द कर दिया. यू कहती हैं कि तब उन्होंने चिट्ठे के द्वारा यह बात लोगों तक पहुँचाने की सोची. जिस दिन उनके चिट्ठे पर पहला वीडियो निकला, पहले बारह घँटों में उसे तीन लाख लोगों ने देखा, तबसे उनके वीडियो को लोग देखते ही जा रहे हैं और उनका चिट्ठा चीन की सबसे अधिक देखी जानी वाला अंतर्जाल पृष्ठों में से बन गया है.

यू कहतीं हैं कि चीनी औरतों ने अब तक सब कुछ चुप रह कर सहना ही सीखा था पर अब वह चुप नहीं रहेंगीं और अपने अधिकारों के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं. आज यू के पास नाम, प्रसिद्धि, काम सब कुछ हैं. अपने जीवन पर वह एक किताब लिख रहीं हैं.




इस तरह की बात हो तो अक्सर लोग स्त्री पर ही उँगली उठाते हें कि उसका चरित्र अच्छा नहीं या वह जरुरत से अधिक महत्वाकाँक्षी है, इत्यादि, इसलिए कम ही स्त्रियाँ इस तरह की बात को ले कर सबके सामने आने का साहस कर सकती हैं. पर अंतर्जाल और चिट्ठों के द्वारा अपने सच को सबके सामने रख पाना क्या सचमुच आम जीवन में निर्बलों को लड़ने का साधन दे सकता है? क्या घर में हिंसा या अपमान की शिकार माँ और बच्चे इस तरह अपने अधिकारों के लिए लड़ सकते हैं? अगर आप अपने चिट्ठे पर यू की तरह सेक्स के वीडियो रखें तो शायद लोग उसे देखने पहुँच जायें पर आम हिंसा को कौन देखने जायेगा?

रविवार, अप्रैल 22, 2007

टेलीविजन की सीमाएँ

टेलीविज़न समाचारों में दिखाये गये दृष्य रौंगटे खड़े देने वाले थे. देख कर बहुत गुस्सा आया. क्या जरुरत थी वह दृष्य दिखाने की? सोचा कि उठ कर टीवी बंद कर दूँ पर इतनी भयानक लग रही वह बात कि न नज़र हटा पाया या सोफे़ से उठ पाया. बाद में यह सोच रहा था कि यह समाचार न भी बताते तो क्या हो जाता और अगर बताना ही था बिना दिखाये भी तो बताया जा सकता था?

समाचार था 12 साल के अफ़गानी लड़के का जिसके हाथ में चाकू था, फ़िर दिखाया जीप में आ रहे व्यक्ति को जिस पर अमरीकी जासूस होने का आरोप था और जिसकी आँखें डरे हिरन की तरह इधर उधर झाँक रहीं थीं. कुछ व्यस्क लोगों ने जासूस को कस कर पकड़ लिया और फ़िर बारह वर्ष के लड़के ने जासूस को मृत्यदँड सुनाया और आगे बढ़ कर चाकू से उसकी गर्दन काट दी. बस अंत के कुछ क्षण टीवी वालों ने नहीं दिखाये.

इतना धक्का लगा कि अब भी इस बात को सोच कर गुस्सा आ जाता है. बच्चे मासूम नहीं होते, सिखाया पढ़ाया जाये तो हत्यारे भी हो सकते हैं, यह नई बात नहीं है, मालूम है.

दुनिया में अत्याचार करने वाले, क्रूरता दिखाने वाले, पत्थर दिल जल्लादों की कमी नहीं. अपने गुस्से की वजह के बारे में सोच रहा था कि क्यों मुझे यह बात इतनी बुरी लगी?

यह मालूम तो है कि क्रूरता किस हद तक हो सकती है पर शायद मैं इस बारे में जानना सोचना नहीं चाहता? जब तक अपनी ही जान पर न बन आयी हो या अपने सामने ही न हो रहा हो, तो हो सके तो आँखें बंद कर लेना चाहता हूँ, भूल जाना चाहते हूँ. क्यों कि ऐसे क्रूर सच का सामना करने की मुझमें ताकत नहीं.

शायद इसे शतुरमुर्ग की तरह रेत में सर छुपाना ही कहिये, पर नहीं देखना चाहूँगा ऐसे दृष्य और सोचता हूँ कि टीवी वालों को नहीं दिखाना चाहिये था.

करीब दस साल पहले संयुक्त राष्ट्र संघ के शरणारार्थी कमीशन के साथ युगाँडा में ऐसे सुडान के बच्चों का कैंम्प देखा था जो लड़ाई में सिपाही रह चुके थे. जब वहाँ पहुँचे तो बारह चौदह साल की उम्र के वे बच्चे जो फुटबाल खेल रहे थे.

तब हाथ देखने का शौक था मुझे, सबने एक एक कर के हाथ सामने खोल दिये थे. उनमें से अधिकतर हाथों में जीवन रेखा कितनी छोटी थी, यह बात नहीं भूल पाया.

और उनकी आँखों में एक खालीपन सा दिखा था जिससे बहुत डर लगा था. हाथ देखते हुए एक दो बार नज़र उठा कर कुछ बच्चों के चेहरे की ओर देखा तो वह खालीपन दिखा था, फ़िर अन्य बच्चों से नजर बचाता रहा था. शायद बात उनकी आँखों की नहीं, मेरे अपने सोचने की थी, वह खालीपन उनकी आँखों में नहीं, मेरी कल्पना में था? कैंम्प की मनोविज्ञान चिकित्सक का कहना था कि बंदूक के साथ साथ, मौत भी बच्चों के बच्चों के लिए खेल सा बन जाती है और क्रूरता में बच्चों का सामना करना कठिन है.

दूर से गोली मारना तो अलग बात है पर उस बारह साल के बच्चे ने जब छटपटाते हुए आदमी की गरदन काटी होगी तो वह भी खेल की तरह ही देखा होगा? रात को उसके सपनों में क्या आया होगा? और बच्चों को इस तरह वहशीपन सिखाने वाले, उनके सपनों में कौन आता होगा?

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हिंदुस्तान टाईमस पर सुश्री बरखा दत्त का लेख छपा है ब्रेक इन न्यूज़ ( "Hindustan Times Breakin News) यानी ताजा या नयी खबर. जिसमें वह बात करती हैं एक अन्य अजीब और खतरनाक खाई की जो हिंदी और अँग्रेजी इलेक्ट्रोनिक मीडिया में बन रही है.

बरखा जी का कहना है कि हिंदी की समाचार चैनल अधिक घटिया और निम्न स्तर की पत्रकारिता की ओर जा रहीं है. वह पूछती हैं कि क्या हिंदी टीवी पत्रकार यह दिखाना चाहते हें कि हिंदी में सोचने समझने वाली जनता केवल इस तरह की घटिया और बेवकूफ़ बातें ही समझ सकती है?

कितना सच है उनकी बातों में यह तो नहीं कह सकता, भारत के हिंदी अग्रेजी टीवी जगत से बहुत दूर हूँ. कभी इंटरनेट के माध्यम से कुछ समाचार देखने की कोशिश करो तो कभी कभी खीझ आती है कि समाचार चैनल भुतवा मकानों और अँधविश्वास को क्यों बढ़ावा दे रहे हैं और हर समाचार को खींच तान कर लम्बा करके दिखाते हें. जब सारी बात टीआरपी और बाज़ारी मूल्य पर टिकी हो तो यह होना आसान है.

और अगर आज समाचार पत्र और चैनल बाजार के हाथों कमजोर हो रहे हैं तो शायद जनता का विश्वास एक दिन अपने आप इनसे उठ जायेगा और वही प्तरकार, अखबार और चैनल चलेंगें जो सच और इमानदारी से अपनी बात कहते हैं. शायद आप कहें कि यह केवल आशावादी सपना है और सच्चाई से दूर है!

शुक्रवार, अप्रैल 20, 2007

शादी हो तो ऐसी

अखबार का पन्ना पलटा तो हैरान रह गया. पूरा पन्ना अभिशेख और एश्वर्या की शादी के बारे में था, बहुत सी तस्वीरें भी थीं और संगीत से ले कर शादी का सारा प्रोग्राम भी था. यहाँ के लोगों को समझाने के लिए हिंदू विवाह की विभिन्न रीतियों को विस्तार से समझाया गया था. भारतीय मीडिया तो शादी के बारे में पागल हो ही रहा था, यहाँ वालों को क्या हो गया? इतालवी समाचार पत्रों में भारत के किसी समाचार को इतनी जगह तो बड़ी दुर्घटना या दँगों के बाद भी नहीं मिलती जितनी इस विवाह को मिली है.

भारत में पर्यटन के लिए आने वाले लोगों में बदलाव आ रहा है. विश्व स्वास्थ्य संस्थान के अनुसार भारत में सस्ती और बढ़िया सर्जरी करवाना, या बीमारियों का इलाज करवाने आदि के लिए आने वाले "पर्यटकों" की संख्या तेजी से बढ़ रही है. भारतीय दूतावास इस बारे में पर्यटकों को सलाह दने के लिए बहुत काम कर रहे हैं, क्योंकि मलेशिया, सिँगापुर, थाईलैंड जैसे देश हमसे बाजी न मार लें उसका भी तो सोचना है. यह बात और है कि हर वर्ष विश्व में आम बीमारियों से, जिनका आसानी से इलाज हो सकता है, मरने वाले पाँच वर्ष से कम आयु के एक करोड़ बच्चों मे से करीब 25 प्रतिशत बच्चे भारत में मरते हैं, और प्रति व्यक्ति स्वास्थ्य सम्बंधी खर्चे के हिसाब से भारत दुनिया में कई अफ्रीकी देशों से भी निचले स्थान पर है, पर विदेशी मुद्रा और प्रगति की बात करने वालों को इन बातों में दिलचस्पी कम है.

अभिशेख और एश्वर्या की शादी के समाचार इस तरह छपेंगे तो शायद इसके बाद विदेशों से भारतीय रीति से विवाह करवाने वाले पर्यटकों की भी संख्या बढ़ेगी? पर फ़िर वह सिरफिरे विदेशी भारतीय परम्परा को न समझते हुए खुले आम चुम्मा चाटी करके भारतीय संस्कृति को भ्रष्ट करेंगे, तो उसका इलाज खोजना पड़ेगा? कुछ ही दिन पहले, यहाँ के समाचार पत्रों में शिल्पा शेटी का चुम्बन लेने वाले रिचर्ड के विरुद्ध होने वाले दँगों के बारे में भी तो समाचार था.

कुछ भी कहा जाये, मार्किटिंग वालों का कहना है कि विज्ञापन होना चाहिये, चाहे लोग अच्छा कहें यहा बुरा, बस बात होनी चाहिये. इसी से ब्राँड इँडिया मजबूत होगी.

गुरुवार, अप्रैल 19, 2007

बसंती, तुम्हारा नाम क्या है?

शोले का वह दृष्य दिखायें जिसमें अमिताभ बच्चन भैंस पर बैठ कर आते हैं और गलियारे में संध्यादीप जलाती विधवा जया भादुड़ी उन्हें देखती है? या फ़िर जब धर्मेंद्र दारू की बोतल ले कर पानी की टंकी पर चढ़ कर बंसती से प्रेम की और मौसी की बनाई रुकावटों की कहानी सुनाते हैं? नहीं, कुछ दम नहीं है शोले में इस दृष्टी से, किसी और फ़िल्म का सोचा जाये. क्यों न मणीरत्नम की "बम्बई" के माध्यम से हिंदू और मुस्लिम युगल के प्रेम की कठिनाईयों को दिखाया जाये?

बहस इस बात पर हो रही है कि भारतीय एसोसियेशन के द्वारा आयोजित किये जाने वाले समारोह में कौन सी फ़िल्मों के दृष्यों को चुना जाये. सोचा कि गम्भीर बातों को भी कुछ हल्के तरीके से प्रस्तुत किया जा सकता है. "भारतीय नारी बोलीवुड के सिनेमा के माध्यम से", नाम दिया गया है इस समारोह को और हम खोज रहे हैं ऐसे दृष्य जिनसे भारत में स्त्री पुरुष के सम्बंधों के बारे में विभिन्न पहलुओं पर विचार किया जा सके. दृष्य छोटा सा होना चाहिये, और हर दृष्य के बाद उस पहलू पर बहस की जायेगी.

मुझे प्रजातंत्र में विश्वास है, यानि कुछ भी करना हो तो सबकी राय ले कर करना ठीक लगता है, लेकिन जब बात प्रिय हिंदी फ़िल्मों पर आ कर अटक जाये तो प्रजातंत्र की कमी समझ में आती है. हर किसी की अपनी अपनी पसंद है और हर कोई चाहता है कि उसी की पसंद का दृष्य दिखाया जाये.

खैर समारोह में अभी करीब दो महीने का समय है और इस समय में कुछ न कुछ निर्यण तो लिया ही जायेगा. ऊपर से चुनी फ़िल्मों के दृष्यों को काटना, जोड़ना और मिला कर उनकी एक डीवीडी बनाने की जिम्मेदारी मेरी ही है और अगर किसी निर्यण पर न पहुँचे तो अंत में मैं अपनी पसंद के दृष्य ही चुनुँगा.
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इतना सुंदर दिन था, हल्की सी धूप बहुत अच्छी लग रही थी. तापमान भी बढ़िया था, करीब 20 डिग्री, न गरमी न ठँडी. क्यों न पिकनिक की जाये? हमारी बड़ी साली साहिबा आई हुईं थीं, पत्नी बोली कि उन्होंने खरीदारी करने के लिए जाने का सोचा है इसलिए पिकनिक के प्रोग्राम में वे दोनो शामिल नहीं होंगी पर बेटे और बहू ने तुरंत उत्साहित हो कर तैयारी शुरु कर दी.

बेडमिंटन के रैकेट, घास पर बिछाने के लिए चद्दर, पढ़ने के लिए किताबें, कुछ खाने का सामान, काला चश्मा, गाने सुनने के लिए आईपोड. यानि जिसके मन में जो आया रख लिया और हम लोग घर के सामने वाले बाग में आ गये.

बाग में पहुँचते ही मन में "रंग दे बसंती" के शब्द घूम गये. लगा कि यश चोपड़ा की किसी फ़िल्म के सेट पर आ गये हों. चारों तरफ़ पीले और सफ़ेद फ़ूल. लगा कि किसी भी पल "दिल वाले दुल्हनिया ले जायेंगे" के शाहरुख खान और काजोल "तुझे देखा तो यह जाना सनम" गाते गाते सामने आ जायेंगे. करीब के गिरजाघर की घँटियाँ भी फ़िल्म के सेट का हिस्सा लग रही थीं.

दोपहर बहुत अच्छी बीती. बाग लोगों से भरा जो हमारी तरह ही अच्छा मौसम देख कर घरों से निकल आये थे. आसपास से बच्चों के खेलने की आवाज़ आ रही थी. हमने भी गरमागरम पराँठों जैसी यही की रोटी जिसे पियादीना कहते हें खायी और घास पर अखबार पढ़ते पढ़ते ऊँघने लगे.

थोड़े से दिनों की बात है, एक बार गरमी आयी तो धूप में इस तरह बाहर निकलना कठिन होगा. तब इस दिन की याद आयेगी जैसे भूपेंद्र ने गाया था, "दिल ढूँढ़ता है फ़िर वही फुरसत के रात दिन"!

प्रस्तुत हैं हमारी पिकनिक की कुछ तस्वीरें.






गुरुवार, अप्रैल 12, 2007

गुमनाम कलाकार

कल की अखबार में पढ़ा कि प्रसिद्ध अमरीकी वायलिन बजाने वाले कलाकार श्री जोशुआ बेल अपने लाखों रुपयों की कीमत वाले स्त्रादिवारी वायलिन के साथ वाशिंगटन शहर के एक मेट्रो स्टेशन पर 45 मिनट तक वायलिन बजाते रहे पर उन्हें किसी ने नहीं पहचाना. अपनी कंसर्ट में हज़ारों डालर पाने वाले जोशुआ ने बाद में उन्होंने सामने रखे वायलिन केस में यात्रियों द्वारा डाले सिक्के गिने तो पाया कि कुल 32 डालर की आमदनी हुई थी.

मुझे सड़क पर अपनी कला दिखाने वाले लोग बहुत प्रिय हैं और इस बारे में पहले भी कुछ लिख चुका हूँ. विषेशकर लंदन के मेट्रो में संगीत सुनाने वाले कई गुमनाम कलाकार मुझे बहुत भाते हैं. सात आठ साल पहले की बात है, एक बार पिकाडेल्ली सर्कस के स्टेशन पर जहाँ सीढ़ियाँ कई तलों तक गहरी धरती की सतह से नीचे जाती हैं, वहाँ उतरते समय एक कलाकार को इलेक्ट्रिक बासुँरी पर रेवल का बोलेरो (Bolero, Ravel) सुनाते सुना था जो इतना अच्छा लगा जितना कभी रिकार्ड या सीडी पर सुन कर नहीं लगा. स्टेशन की गहराई की वजह से शायद ध्वनि में अनौखी गूँज आ गयी थी जिसने दिल को छू लिया था.

रेलगाड़ी या मेट्रो में जब कोई इस तरह का गुमनाम सड़क का कलाकार संगीत सुनाने आता है तो बहुत से लोग नाराज हो कर भौंहें चढ़ा लेते हैं या फ़िर गुस्से से कुछ कहते हैं, तो कलाकार की तरफ से मुझे बुरा लगता है. मैं सोचता हूँ कि पैसा देने न देने की तो कोई जबरदस्ती तो है नहीं, पर किसी की कला का अपमान करना ठीक नहीं.

जोशुआ बेल का समाचार पढ़ कर और भी पक्का यकीन हो गया है कि जाने कब कहाँ अच्छा कलाकार सुनने को मिले इसका पता नहीं चलता और मन में सोचना कि कोई सड़क पर मुफ्त में संगीत सुना रहा तो अच्छा कलाकार नहीं होगा, यह गलत है. सफलता और प्रसिद्धि तो किसी के अपने हाथ में नहीं होती और कई बार जग प्रसिद्ध कलाकार भी सालों तक गुमनामी के अँधेरे में भटकते रहते हैं, जब अचानक प्रसिद्ध उनको छू लेती है और उसके बाद लोग खूब पैसा दे कर उसे सुनने देखने जाते हैं.

सच बात तो है कि अक्सर हमारे मन में लोगों की कीमत सी लगती है, अगर कोई कह दे कि फलाँ आदमी प्रसिद्ध है या वैसा पुरस्कार पा चुका है तो अपने आप मन में उसकी जगह बन जाती है और उसकी तारीफ़े करते हैं और वही आदमी बिना नाम के बाहर मिले तो उसकी तरफ़ देखते भी नहीं.

मेरे विचार में जो प्रसिद्ध कलाकार हों, लोग जिनकी तारीफो़ के बड़े पुल बाँधते हों, उन्हें इस तरह गुमनाम हो कर अवश्य जनता का सामना करते रहना चाहिये, ताकि उनके पाँव धरती पर जुड़े रहें.

लंदन के पिकाडेल्ली स्टेशन पर संगीतकार (तस्वीर कुछ वर्ष पहले की है)

बोलोनिया की सड़क पर गायक

फेरारा में सड़क पर कला दिखाने वालो का महोत्सव

सोमवार, अप्रैल 09, 2007

भारतीय सीख

रोम से एक पुस्तक प्रकाशक ने सम्पर्क किया और पूछा कि क्या मैं एक पुस्तक की समीक्षा करना चाहूँगा? बोला कि वह मेरा इतालवी चिट्ठा पढ़ता है जो उसे अच्छा लगता है और चूँकि यह किताब एक भारतीय लेखक की है, वह चाहता है कि मैं इसके बारे में अपनी राय दूँ.

अच्छा, कौन है लेखक? मैंने उत्सुक्ता से पूछा, क्योंकि इटली में रहने वाला कोई भारतीय लेखक भी है यह मुझे मालूम नहीं था. पता चला कि कोई ज़हूर अहमद ज़रगार नाम के लेखक हैं जो कि कश्मीर से हैं और पश्चिमी उत्तरी इटली में सवोना नाम के शहर में रहते हैं जिन्होंने भारतीय कहानियों पर किताब लिखी है.

जब किताब मिली तो देख कर कुछ आश्चर्य हुआ, उस पर शिव, पार्वती और गणेश की तस्वीर थी. जब नाम सुना था और यह जाना था कि ज़हूर कश्मीर से हें तो मन में छवि सी बन गयी थी कि अवश्य भारत विरोधी, कट्टर किस्म के व्यक्ति होंगे. किताब पढ़नी शुरु की तो बहुत अच्छी लगी. अहमद, किताब का हीरो लखनई रेलवे स्टेशन पर फ़ल बेचता है और माँ की चुनी लड़की से विवाह के सपने भी, पर अचानक एक दिन स्टेश्न पर उसकी मुलाकात एक व्यास गिरी नाम के साधू से होती है और वह सब कुछ छोड़ कर यात्रा पर निकल पड़ता है. अलग अलग शहरों में उसकी मुलाकात विभिन्न लोगों से होती है और यात्रा की कहानी में अन्य कई कहानियाँ जुड़ती जातीं हैं पर उसे किस चीज़ की तलाश है यह वह समझ नहीं पाता.

उनके बारे में खोज की पता चला कि वह उत्तर पश्चिमी इटली के लिगूरिया प्रदेश में मुस्लिम एसोशियेशन के अध्यक्ष हैं. ऐसी एसोशियोशनों और उनसे जुड़े लोगों के बारे में मन में जो तस्वीर थी उसमें लेखक ज़हूर फिट नहीं बैठता था. अंतर्जाल पर उनके लिखे कुछ लेख पढ़े जिसमें उनका उदारवादी, आधुनिक मुस्लिम दृष्टिकोण झलकता था तो उनसे ईमेल के द्वारा सम्पर्क किया.
परसों रात को अचानक उनका टेलीफ़ोन आया, बोले, बोलोनिया एक मीटिंग में आ रहा हूँ, क्या मिल सकते हैं?

तो कल उनसे मुलाकात भी हुई. श्रीनगर से हैं वह और भारत में उनकी सोने के गहनों की दुकाने थीं. पत्नी उनकी इटालवी हैं और जब कश्मीर में हालात बिगड़े तो वह अपनी पत्नी और बच्चों के साथ यहाँ इटली में आ गये और करीब बीस साल से यहीं रहते हैं. बिसनेस के साथ साथ उन्होंने लिखना भी शुरु किया और कई किताबें छप चुकीं हैं. कहते हें कि पहले उर्दू में लिख कर उसका इतालवी में अनुवाद करते थे पर अब तो सीधा ही इतालवी में लिखते हैं.

बोले कि वह बोलोनिया इतालवी राष्ट्रीय मुस्लिम एसोसियेशन की मीटिंग में आये थे और उनका ध्येय है कि वृहद मुस्लिम समाज को भारतीय ध्रमों के साथ मिल जुल कर रहने के बारे में बता सकें. "मैं बहुत धार्मिक नहीं हूँ, जिस परिवार में पैदा हुआ हमें यही सिखाया गया कि सभी धर्मों का आदर करो, साथ पढ़ने वालों में हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई, सभी धर्मों के लोग थे. मुसलमान परिवार में पैदा हुआ तो मुसलमान हो गया, किसी और धर्म के परिवार में पैदा होता तो कुछ और बन जाता, तो फ़िर धर्म को ले कर इतने झगड़े क्यों? अरब देशों वाले लोगों ने सिर्फ इस्लाम देखा है, यहाँ इटली वालों ने सिर्फ कैथोलिक धर्म देखा है, इन्हें भारत जैसा अनुभव नहीं कि कैसे विभिन्न धर्म वाले साथ साथ रहें और हम भारतीयों को दुनिया को यह बताना है, अपना तरीका सिखाना है. इसीलिए मैं इस एसोशियेशन में आया हूँ और मैं सब से अपनी बात स्पष्ट कहता हूँ, कोई डर नहीं मुझे."

ज़हूर बहुत अच्छे लगे मुझे. शायद फ़िर उनसे अगली बार मिल कर उनके बारे में और जानने का मौका मिलगा. जाते जाते अगली बार मीटिंग में आने पर मिलने का वादा भी किया है उन्होंने.


रविवार, अप्रैल 01, 2007

मूल्यों की टक्कर

कोर्स में हम अठारह लोग थे. बहुत समय के बाद मुझे विद्यार्थी बनने का मौका मिला था वरना तो हमेशा मुझे कोर्सों में पढ़ाने की ज़िम्मेदारी ही मिलती है. हमारे कोर्स की शिक्षिका थीं मिलान के एक कोओपरेटिव की अध्यक्ष, श्रीमति फ्लोरियाना और कोर्स का विषय था गुट में अन्य लोगों के साथ मिल कर काम करने की कठिनाईयाँ.

बात आई सिमुलेशन की यानि यथार्थ में होने वाली किसी घटना की नकल की जाये जिससे हमें अपने आप को और अपने व्यवहार को समझने का मौका मिले. मिल कर यह निर्णय किया हमने कि घटना हमारे काम से अधिक मिलती जुलती नहीं होनी चाहिये बल्कि कालपनिक जगत से होनी चाहिये जिससे हम साथ काम करने वालों को यह न लगे कि हमारे विरुद्ध कुछ कहा जा रहा है.

घटना थी कि हम सब लोग मिल कर एक जहाज़ में यात्रा कर रहे हैं. एक दिन अचानक तेज तूफान आता है जिसमें जहाज़ को कुछ नुक्सान होता है, जहाज़ का रेडियो भी खराब हो जाता है जिससे बाहरी जगत से हमारा सम्पर्क टूट जाता है और हम समझ नहीं पाते कि हम कहाँ पर हैं. खैर तूफान के बाद रात को हम सब लोग जान बचने की खुशी कर रहे होते हैं कि अचानक दूसरा तूफान आ जाता है, जो पहले तूफान से अधिक तेज है और जिसकी वजह से जहाज़ टूटने सा लगता है, पानी अंदर आने लगता है. अब हमें अपनी जान बचाने के लिए एक छोटी सी नाव में हम सब लोग सवार हो जाते हैं. नाव में हम सब लोग तो आ जाते हें पर साथ में सामान ले जाने की जगह नहीं है और यह निर्णय लेना है कि कौन सी एक चीज अपने साथ ले जायी जाये.

हम लोगों की बहस शुरु हो गयी कि किस चीज को ले जाये. कुछ कहते कि हमें साथ खाने के सामान और पानी वाला डिब्बा साथ ले जाना चाहिये, कुछ बोले कि औजारों का डिब्बा लेना चाहिये, कुछ ने कहा कि कंबल लेने चाहिये और कुछ ने कहा कि हमें जहाज में रहने वाले एक कुत्ते को साथ लेना चाहिये. बहस करते करते, एक दूसरे से अपनी बात मनवाने में हम लोग बहुत उत्तेजित भी हो गये, कुछ लोग चिल्लाने लगे या ऊँची आवाज में बात करने लगे. बहुत देर तक बात करते करते, समय बीत गया, अगर हमें अपनी जान बचानी थी तो कुछ न कुछ निर्णय लेना था वरना नाव के साथ हम भी डूब जाते, तो सब लोग मान गये कि खाने वाले डिब्बा लेना चाहिये पर कुत्ता ले जाने की माँग करने वाले दो लोगों ने कहा कि वह कुत्ते को छोड़ कर नहीं जायेंगे और जहाज़ में ही रहना पंसद करेंगे.

जब यह सिमुलेशन समाप्त हुआ तो हमने यह समझने की कोशिश की कि किस तरह निर्णय लिये जाते हैं, कैसे हम लोग एक दूसरे पर अपनी बात मनवाने के लिए जोर डालते हैं, क्यों हम अंत में एक निर्णय पर आने में असफल रहे, इत्यादि. फ्लोरियाना का कहना था कि जब झगड़ा हमारे भीतर के आधारगत मूल्यों पर होता है तो एक दूसरे को समझना आसान नहीं होता और अपनी जिद की बात को छोड़ने में बहुत सी कठिनाई होती है. हमारे झगड़े में दो आधारगत मूल्य थे, एक तरफ मानव का अपना जीवन बचाने की जरूरत और दूसरी ओर, कुत्ते की जान के साथ सभी जीवित प्राणियों की जान की कीमत का सवाल. जब इस तरह से मूल्यों की टक्कर होती है तो कोई भी यह मानने को तैयार नहीं होता कि वह कुछ समझौता कर ले. फ्लोरियाना बोली कि धर्मों के झगड़े अक्सर इसी तरह मूल्यों की टक्कर के झगड़े होते हें उसमे हर कोई यही सोचता है कि वह ठीक है और दूसरे के सोचने की तरीके को नहीं समझ पाता.

कोर्स समाप्त हुआ तो अच्छा लगा कि मानव मन को समझने का नया तरीका मिला, पर साथ ही कुछ निराशा भी, कि अगर हमारे झगड़े इस तरह मूल्यों के झगड़े हों तो हम लोग साथ प्रेम से रहना कैसे सीखेंगे?

हमारी भाषा कैसे बनी

कुछ दिन पहले मैंने जाने-माने डॉक्यूमैंट्री फ़िल्म निर्देशक अरुण चढ़्ढ़ा की १८५७ के लोक-गीतों पर बनी फ़िल्म के बारे में लिखा था। आज उन्हीं की ए...

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