शनिवार, अक्तूबर 29, 2011

वेरा की लड़ाई


जीवन में कब किससे मिलना होगा और कौन सी बात होगी, यह कौन बता सकता है? संयोग से कभी कभी ऐसा होता है कि इतने दूर की किसी बात से मिली कड़ी का अगला हिस्सा भी संयोग से अपने आप ही मिल जाता है. कुछ मास पहले मैंने "हाहाकार का नाम" शीर्षक से एक अर्जेन्टीनी मित्र से मुलाकात की बात लिखी थी जिसने मुझे तानाशाही शासन द्वारा मारे गये बच्चों की खोज में किये जाने वाले काम के बारे बता कर द्रवित कर दिया था. तब नहीं सोचा था कि वेरा से मुलाकात भी होगी, जिसने उसी तानाशाह शासन से अपनी बच्ची को खोजने के लिए लड़ाई लड़ी थी और सत्य की खोज में आज भी लड़ रही है.

वेरा का जन्म 1928 में इटली में हुआ था. ज्यू यानि यहूदी परिवार में जन्मी वेरा जराख (Vera Jarach) दस साल की थी, मिलान के एक प्राथमिक विद्यालय में पढ़ती थी जब इटली में मुसोलीनी शासन के दौरान जातिवादी कानून बने. वेरा को विद्यालय में अध्यापिका ने कहा कि तुम इस विद्यालय में नहीं पढ़ सकती, क्योंकि तुम यहूदी हो और नये कानून के अनुसार यहूदी बच्चे सरकारी विद्यालयों में नहीं पढ़ सकते.

Vera Jarach, desparecidos in Argentina - S. Deepak, 2011


इस बात के कुछ मास बाद जनवरी 1939 में वेरा के पिता ने निर्णय किया कि जब तक यहूदियों के विरुद्ध होने वाली बातें समाप्त न हों, वह परिवार के साथ कुछ समय के लिए इटली से बाहर कहीं चले जायेंगे. उनके कुछ मित्र अर्जेन्टीना में रहते थे, इसलिए उन्होंने यही निर्णय लिया कि कुछ समय के लिए वे लोग अर्जेन्टीना चले जायेंगे. वेरा के दादा ने कहा कि वह अपना घर, देश छोड़ नहीं जायेंगे, वह मिलान में अपने घर में ही रहेंगे. वेरा के परिवार के अर्जेन्टीना जाने के एक वर्ष बाद उसके दादा को पुलिस ने पकड़ कर आउश्विट्ज़ के कन्सनट्रेशन कैम्प में भेजा, जहाँ कुछ समय बाद उन्हें मार दिया गया. वेरा और उसका बाकी परिवार यूरोप से होने की वजह से इस दुखद नियति से बच गये.

द्वितीय महायुद्ध के समाप्त होने पर, मुसोलीनी तथा हिटलर दोनो हार गये, और अर्जेन्टीना में गये इतालवी यहूदी प्रवासी वापस इटली लौट आये, लेकिन वेरा के परिवार ने फैसला किया कि वह वहीं रहेंगे, क्योंकि तब तक वेरा की बड़ी बहन ने वहीं पर विवाह कर लिया था, और वह सब लोग करीब रहना चाहते थे. कुछ सालों के बाद वेरा को भी एक इतालवी मूल के यहूदी युवक से प्यार हुआ और उन्होंने विवाह किया और उनकी एक बेटी हुई जिसका नाम रखा फ्राँका.

फ्राँका जब हाई स्कूल में पहुँची, तब दुनिया बदल रही थी. यूरोप तथा अमेरिका में वियतनाम युद्ध के विरोध में प्रदर्शन किये जा रहे थे. तब हिप्पी आंदोलन और युवाओं के आँदोलन भी चल रहे थे. वैसे ही प्रदर्शन दक्षिण अमरीका में भी हो रहे थे. फ्राँका भी अर्जेन्टीनी युवाओं के साथ प्रर्दशनों में हिस्सा ले रही थी. तब अर्जेन्टीनी राजनीतिक स्थिति बदली. जुलाई 1974 में राष्ट्रपति पेरों की मृत्यु के बाद उनकी पत्नी एवा पेरों (Eva Perone) को राष्ट्रपति बनाया गया लेकिन उस समय वामपंथी तथा रूढ़िवादि राजनीतिक दलों के बीच में झगड़े शुरु हो गये. कुछ वामपंथी दल रूसी कम्यूनिस्ट शैली के शासन की माँग कर रहे थे और रूढ़िवादि दल, मिलेट्री के साथ मिल कर उनके विरुद्ध कार्यक्रम बना रहे थे. मार्च 1976 में मिलेट्री ने एवा पेरों को हटा कर सत्ता पर कब्ज़ा किया और वामपंथी दलों के समर्थकों पर हमले शुरु हो गये.

18 साल की फ्राँका को भी मिलेट्री सरकार की खुफ़िया पुलिस विद्यालय से जुलाई 1976 में पकड़ कर ले गयी. उन दिनों से शुरु हुआ मिलेट्री शासन का अत्याचार जिसमें करीब 30,000 लोग उठा लिए गये जिनका कुछ पता नहीं चला. उनको पहले यातनाएँ दी गयीं फ़िर उनमें से कुछ लोगो को मार कर समुद्र में फैंक दिया गया, कुछ को मार कर जँगल में दबा दिया गया. आज उन लोगों को स्पेनी भाषा के शब्द "दिसाआपारेसिदोस" (Desaparecidos) यानि "खोये हुए लोग" के नाम से जाना जाता है.

जिनके बच्चे खोये थे, वे परिवार पहले तो डरे रहे, फ़िर धीरे धीरे, अर्जेन्टीना की राजधानी बोनोस आएरेस के उन परिवारों की औरतों ने फैसला किया कि वह शहर के प्रमुख स्काव्यर प्लाजा दो मायो (Plaza do Mayo), जहाँ राष्ट्रपति का भवन था, में जा कर प्रर्दशन करेंगी. उन्होंने परिवारों के पुरुषों को कहा कि तुम सामने मत आओ वरना पुलिस तुमको विरोधी कह कर पकड़ लेगी, लेकिन प्रौढ़ माँओं को पकड़ने से हिचकेगी. एक दूसरे की बाँहों में बाँहें डाल कर गुम हुए बच्चों की माँओं ने प्लाज़ा दो मायो में घूमते हुए प्रर्दशन करना शुरु किया. इस विरोध को आज "प्लाज़ा दो मायो की माओं का विरोध" के नाम से जाना जाता है.

धीरे धीरे जानकारी आनी लगी कि किसके साथ क्या किया गया था, कैसे लोगों को यातनाएँ दे कर मारा गया था, कैसे गर्भवति औरतों के बच्चे पैदा कर मिलेट्री वाले निसन्तान लोगों ने ले लिए थे और उनकी माओं को मार दिया गया था.

बहुत सालों की लड़ाई और खोज के बाद वेरा को मालूम पड़ा कि उसकी बेटी फ्राँका की मृत्यु उसके पकड़े जाने के एक माह के बाद ही हो गयी थी.

"मन में आस छुपी थी कि शायद मेरी बेटी कहीं ज़िन्दा हो", वेरा बोली, "वह आस बुझ गयी, दुख भी हुआ पर यह भी लगा कि अब इस बात को ले कर सारा जीवन नहीं तड़पना पड़ेगा. जैसा उसके दादा के साथ हुआ था, फ्राँका की भी कोई कब्र नहीं, मेरे दिल में दफ़न है वह."

पिछले 35 सालों से वेरा और उसके साथ की अन्य माएँ न्याय के लिए लड़ रही हैं. कुछ मिलेट्री वालों को पकड़ लिया गया, उन पर मुकदमें चले और उन्हें सजा मिली. कुछ लोगों की कब्रों से हड्डियों की डीएनए जाँच द्वारा पहचान की गयी और उनके परिवार वालों को उन्हें ठीक से दफ़नाने का मौका मिला.

Vera Jarach, desparecidos in Argentina - S. Deepak, 2011


वेरा ने मुझसे कहा, "उन मिलेट्री वालों ने 400 नवजात बच्चों को उनकी माओं से छीन कर मिलेट्री परिवारों में गोद ले कर पाला, हम उन्हें भी खोजती है, और उन्हें भी बताती हैं कि उनके साथ क्या हुआ था और उनके असली माँ बाप कौन थे."

वे बच्चे आज करीब तीस पैंतीस साल के लोग हैं. मैंने सुना तो मुझे लगा कि अगर अचानक कोई आप को आ कर बताये कि जिन्हें सारा जीवन आप ने अपने माँ पिता समझा है वह असल में वे लोग हैं जिन्होंने आप के असली माता पिता को मारा होगा, तो कितना धक्का लगेगा?

मैंने वैरा से कहा, "पर क्या यह करना जरूरी है? जिन लोगों को कुछ नहीं मालूम, यह भी नहीं कि वे गोद लिये गये थे, उनके जीवन में यह समाचार दे कर उन्हें कितना दुख होता होगा?"

वेरा बोली, "सोचो कि तुम हो इस स्थिति में, क्या तुम अपने जीवन की इतनी भीषड़ सच्चाई को जानना नहीं चाहोगे? मैं नहीं मानती कि झूठ में रहा जा सकता है. करीब सौ बच्चों को पहचाना जा चुका है, उनकी नानियाँ दादियाँ और मनोवैज्ञानिक इस स्थिति में उन्हें सहारा देते हैं. सच्चाई को छुपाने से जीवन नहीं बन सकता, सच जानना बहुत आवश्यक है."

पर फ़िर भी मुझे वेरा की बात कुछ ठीक नहीं लगी. लगा कि इतना भीषड़ सत्य शायद मैं न जानना चाहूँ जिसे सारा जीवन उथल पथल हो जाये.

83 वर्ष की वेरा की हँसी मृदुल है. वह अब भी घूमती रहती है, विद्यालयों में बच्चों को उन सालों की कहानी सुनाती है, अपनी लड़ाई के बारे में बताती है.

वेरा बोली, "मुझे लोग कहते हैं कि जो हो गया सो हो गया, इतने साल बीत गये, अब उनको क्षमा कर दो, भूल जाओ. मैं पूछती हूँ कि क्या किसी ने क्षमा माँगी है हमसे कि हमने गलत किया, जो मैं क्षमा करूँ? वे लोग तो आज भी अपने कुकर्मों की डींगे मारते हैं कि उन्होंने अच्छा किया कम्युनिस्टों को मार कर. उन्हें सज़ा मिलनी ही चाहिये, हाँलाकि उनमें से अधिकाँश लोग अब बूढ़े हो रहे हैं, कई तो मर चुके हैं. मेरे मन में बदले की भावना नहीं, मैं न्याय की बात करती हूँ. अत्याचारी खूनी को कुछ सजा न मिले, क्या यह अन्याय नहीं?"

वेरा कभी भारत नहीं गयी लेकिन कहती है कि उसकी एक मित्र कार्ला (Carla) अपने पति माउरिज़यो (Maurizio) के साथ दिल्ली में रहती है जिसके साथ मिल कर उसने अपने जीवन के बारे में एक किताब लिखी थी. उसने मुझसे पूछा, "यह बात केवल अर्जेन्टीना की नहीं, हर देश की है. भारत में भी तो दंगे होते हैं, विभिन्न धर्मों के बीच, क्या उनमें अपराधियों को सज़ा मिलती है?"

मैंने उसे 1984 में हुए सिख परिवारों के साथ हुए तथा 2002 में गुजरात में मुसलमान परिवारों के साथ हुए काँडों के बारे में बताया कि भारत में भी अधिकतर दोषी खुले ही घूम रहे हैं, और वहाँ भी कुछ लोग न्याय के लिए लड़ रहे हैं.

मैं चलने लगा तो वेरा ने कहा, "मैं आशावान हूँ, मैं निराशावादी नहीं. मेरे दादा नाज़ी कंसन्ट्रेशन कैम्प में मरे, उनकी कोई कब्र नहीं. मेरी बेटी भी अनजान जगह मरी, उसकी भी कोई कब्र नहीं. मेरा कोई वारिस नहीं. फ़िर भी मैं आशावान हूँ, मैं मानती हूँ कि दुनिया में अच्छे लोग बुरे लोगों से अधिक हैं और अंत में अच्छाई की ही जीत होगी. मेरी एक ही बेटी थी, वह नहीं रही, पर मैं सोचती हूँ कि दुनिया के सारे बच्चे मेरे ही नाती हैं. पर मेरा कर्तव्य है कि उन बच्चों को याद दिलाऊँ कि हमारी स्वतंत्रता, हमारी खुशियाँ, हमारे जीवन, हमारे लोकतंत्र, इनकी हमें रक्षा करनी है. अगर तानाशाह इन पर काबू करके हमें डरायेंगे तो हमें डरना नहीं, उनसे लड़ना है. अन्याय हो और हम अपनी आवाज़ न उठायें, तो इसका मतलब हुआ कि हम भी अत्याचारियों के साथी हैं."

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सोमवार, अक्तूबर 24, 2011

विदेशी पनीर के देसी बनानेवाले


इतालवी पारमिज़ान पनीर दुनिया भर में प्रसिद्ध है. वैसे तो बहुत से देशों में लोगों ने इसे बनाने की कोशिश की है लेकिन कहते हैं कि जिस तरह का पनीर इटली के उत्तरी पूर्व भाग के शहर पारमा तथा रेज्जोइमीलिया में बनता है वैसा दुनिया में कहीं और नहीं बनता. इसकी वजह वहाँ के पानी तथा गायों को खिलायी जाने वाली घास में बतायी जाती है. पारमिज़ान पनीर को घिस कर पास्ता के साथ खाते हैं और अन्य कई पकवानों में भी इसका प्रयोग होता है. वैसे तो पिछले कुछ वर्षों से इटली के विभिन्न उद्योगों में गिरावट आयी है लेकिन लगता है कि पारमिज़ान पनीर के चाहने वालों ने इस पनीर के बनाने वालों के काम को सुरक्षित रखा है.

करीब पंद्रह बीस वर्ष पहले पारमिज़ान पनीर को बनाने वाले उद्योग को काम करने वाले मिलने में कठिनाई होने लगी. इतालवी युवक कृषि से जुड़े सब काम छोड़ रहे थे, गायों तथा भैंसों की देखभाल करने वाले नहीं मिलते थे. तब इस काम का मशीनीकरण होने लगा पर साथ ही पंजाब से आने वाले भारतीय युवकों को इस काम के लिए बुलाया जाने लगा. आज उत्तरी इटली में करीब 25 हज़ार पंजाबी युवक, जिनमें से अधिकतर सिख हैं, इस काम में लगे हैं. यहीं के छोटे से शहर नोवेलारा में यूरोप का सबसे बड़ा गुरुद्वारा भी बना है.

यानि दुनिया भर में निर्यात होने वाले इतालवी पारमिज़ान पनीर को बनाने वाले चालिस प्रतिशत कार्यकर्ता भारतीय हैं. वैसे तो इटली में भारतीय प्रवासी बहुत अधिक नहीं हैं लेकिन इस काम में केवल भारतीय पंजाबी प्रवसियों को ही जगह मिलती है.

आज सुबह इस विषय पर इटली के रिपुब्लिका टेलीविज़न पर छोटा सा समाचार देखा जिसमें भारत से सात वर्ष पहले आये मन्जीत सिंह का साक्षात्कार है. उन्हें यह काम सिखाया कम्पनी के मालिक ने जो कहते हें कि भारत से आये प्रवासी यहाँ के समाज में घुलमिल गये हैं और उनके बिना इस काम को चलाना असम्भव हो जाता.

आप चाहें तो इस समाचार को इस लिंक पर देख सकते हैं.


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