बुधवार, फ़रवरी 28, 2007

मेरी प्रिय महिला चित्रकार (1) - फ्रीदा काहलो

चित्रकला के क्षेत्र में महिलाओं के नाम बहुत कम आते हैं. अगर आप जगतप्रसिद्ध महिला चित्रकारों के नाम खोजें तो फ्रीदा काहलो के अतिरिक्त कोई भी नाम नहीं मिलता, और फ्रीदा का नाम भी सबको नहीं मालूम होता. चौदहवीं पँद्रहवीं शताब्दियों में जब युरोप में कला के पुनर्जन्म का युग था, किसी भी महिला चित्रकार का नाम विशेष रुप से नहीं सुनने को मिलता और अधिकतर पश्चिमी कला समीक्षकों की सर्वश्रेष्ठ कलाकारों की सूची में भी कोई महिला चित्रकार नहीं होतीं.

मेरी प्रिय महिला चित्रकारों में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक ही नाम है, फ्रीदा काहलो का.



फ्रीदा का जन्म 1907 में मेक्सिको में हुआ. उनके पिता हँगरी के प्रवासी थे. इस दृष्टि से फ्रीदा मेरी एक अन्य प्रिय महिला चित्रकार, अमृता शेरगिल, से मिलती है क्योंकि अमृता की माँ हँगरी की थीं.

छोटी सी फ्रीदा को पोलियो हुआ और दाँयीं टाँग पर उसका असर पड़ा, कुछ ठीक होने पर फ्रीदा ने बहुत से खेलों में भाग लेना शुरु किया ताकि दाँयीं टाँग मजबूत हो जाये पर यह टाँग कुछ छोटी ही रही जिसकी वजह से वह ऊँची एड़ी वाली जूता पहनती थीं और उनकी चाल में एक विशिष्टता थी.

18 साल की फ्रीदा को एक बस दुर्घटना में बहुत चोट लगी और कई हड्डियाँ भी टूट गयीं. इनकी वजह से उनका जीवन दर्द और चलने फिरने की तकलीफ़ में गुजरा. दियेगो रिवेरा से विवाह करके उनका वयस्क जीवन अमरीका कि डेट्रोयट शहर में गुज़रा.

फ्रीदा की कोई संतान नहीं हुई, कई गर्भपात हुए. संतान न होने के दुख को उन्होंने बहुत सी चित्रों में उतारा जैसे कि "उड़ता पँलग" नाम के चित्र में जिसे "हैनरी फोर्ड अस्पताल" के नाम से भी जाना जाता है, जिसमें खून में लथपथ पँलग पर लेटी फ्रीदा के शरीर से बहुत से तार निकल रहे हें जिनमें से एक तार एक भ्रूण से जुड़ा है.



संतान के न होने की पीड़ा को कला में व्यक्त करने की बात से मुझे उनमें भारतीय अभिनेत्री मीना कुमारी की याद आती है. 1960 के दशक में विभिन्न फ़िल्मों में जैसे "चंदन का पलना" मीना कुमारी ने इसी पीड़ा को दिखाया और कई बार असली जीवन और परदे के जीवन का भेद पता नहीं चलता था.

फ्रीदा ने अधिकतर चित्र छोटे आकार के बनाये और उनकी बहुत सी तस्वीरों में स्वयं ही चित्र का प्रमुख पात्र होती थीं. लाल रँग का उनके चित्रों नें विशेष स्थान दिखता है. 1954 में 47 वर्ष के आयु में उनका देहाँत हुआ. प्रस्तुत हैं फ्रीदा के कुछ चित्र.





आत्मप्रतिकृति और बंदर


कटे बालों वाली आत्मप्रतिकृति


आत्मप्रतिकृति और गले का हार


फ्रीदा के विचारों में दियेगो

मंगलवार, फ़रवरी 27, 2007

जो हुआ वो क्यों हुआ?

आजकल मैं स्टीवन लेविट (Steven D. Levitt) और स्टीफन डुबनर (Stephen J. Dubner) की किताब फ्रीकोनोमिक्स (Freakonomics) पढ़ रहा हूँ. स्टीवन लेविट अर्थशास्त्री हैं और डुबनर पत्रकार.

लेविट को उन बातों पर सवाल पूछना अच्छा लगता है जो हमारे लिए साधारण होती हैं और जिनके लिए हमारे मन में कोई संशय या सवाल नहीं उठते. अपने उत्तरों से लेविट कुछ अर्थशास्त्र के सिद्धांत और कुछ आम समझ का प्रयोग करके यह दिखाते हैं कि साधारण सोच में सही लगने वाली बहुत सी बातें गलत भी हो सकती हैं.

1990-94 के आसपास, अमरीका में अपराध दर बढ़ती जा रही थी और सभी चितिंत थे कि यह कम नहीं होगी, बढ़ती ही जायेगी. पर ऐसा हुआ नहीं और अपराध दर कम होने लगी. विशेषज्ञों का कहना था कि यह अपराध को रोकने की नयी नीतियों की वजह से हुआ. लेविट कहते हें कि नहीं, यह इसलिए हुआ क्योंकि 1973 में अमरीकी कानून ने गर्भपात की अनुमति दी जिससे गरीब घरों की छोती उम्र वाली माँओं को गर्भपात करने में आसानी हुई और इन घरों से अपराध की दुनिया में आने वाले नौजवानों की संख्या में कमी हुई.

एक अन्य उदाहरण में लेविट दिखाते हें कि विद्यालयों की पढ़ायी के स्तर में सुधार लाने के लिए बनाये गये कानून से शिक्षकों को गलत काम करने की प्रेरणा मिली जिससे उन्होनें इन्तहानों में बच्चों को झूठे नम्बर देना शुरु कर दिया. लेविट यह भी दिखाते हें कि कैसे घर बेचने का काम करने वाली व्यवसायिक कम्पनियाँ आप के घर को कम कीमत में बेचती हें जबकि आप को बाज़ार में उसके कुछ अधिक दाम मिल सकते थे.

कितना सच है लेविट की बातों में यह तो नहीं कह सकता, पर यह किताब बहुत दिलचस्प है. लेविट और डुबनर ने अपना एक चिट्ठा भी बनाया है जिसमें वह दोनो अपने पाठकों से बातें भी करते हैं और नयी जानकारी भी देते हैं.

*****

कल के चिट्ठे की सभी टिप्पणियों के लिए दिल से धन्यवाद.

अविनाश, तुम ठीक कहते हो, तुमसे मुलाकात चिट्ठों की दुनिया से बाहर हुई थी, पर कल सुबह काम पर देर हो रही थी और जल्दी में मेंने कुछ भी लिख दिया. :-)

नीलिमा, तुम्हारी पूरी बात समझ में नहीं आई, और शायद न समझने में ही भलाई है, हाँ हिंदी के बारे में विस्तार से बात करने के लिए मुझे बहुत खुशी होगी.

सोमवार, फ़रवरी 26, 2007

सवाल जवाब

पिछले दिनों में काम में इतना व्यस्त था कि बहुत दिनों के बाद चिट्ठों को पढ़ने का समय अब मिल रहा है, देखा कि इस प्रश्नमाला के झपेटे में दो तरफ़ से आया हूँ, नीलिमा की तरफ़ से और बेजी की तरफ से. फायदे की बात यह है कि आप दोनो के प्रश्न भिन्न हैं इसलिए मुझे यह छूट है कि जो सवाल अधिक अच्छे लगें, उनका ही जवाब दूँ!

पहले तीन प्रश्न नीलिमा के हैं

आपकी चिट्ठाकारी का भविष्य क्या है ( आप अपने मुंह मियां मिट्ठू बन लें कोई एतराज नहीं)?

मेरी चिट्ठाकारी का भविष्य शायद कुछ विषेश नहीं है, जब तक लिखने के लिए मन में कोई बात रहेगी, लिखता रहूँगा, पर मेरे विचार में जैसा है वैसा ही चलता रहेगा. मेरे लिए चिट्ठाकारी मन में आयी बातों को व्यक्त करने का माध्यम है, जिन्हें आम जीवन में व्यक्त नहीं कर पाता, और साथ ही विदेश में रह कर हिंदी से जुड़े रहने का माध्यम है.

पर एक दिन इतना प्रसिद्ध चिट्ठाकार बन जाऊँ कि लाखों लोग मेरा लिखा पढ़े, जैसे कोई सपने मन में नहीं हैं, बल्कि ऐसा सोच कर ही डर लगता है.

आपके पसंदीदा टिप्पणीकार?

जब कहीं से कुछ टिप्पणी न मिल रही हो तब अक्सर केवल संजय ही है जो कुछ ढाढ़स देता है. मुझे एक टिप्पणी प्रियदर्शन की बहुत अच्छी लगी थी.

चूँकि मैं अधिकतर चिट्ठा लिखने का काम सुबह जल्दी उठ कर करता हूँ और फ़िर अगली सुबह तक दोबारा क्मप्यूटर पर बैठने का मौका नहीं मिलता, अक्सर टिप्पणियाँ एक दिन बाद में ही पढ़ता हूँ. कई बार सुबह कुछ देर हो जाती है तो कुछ लिखने की चिंता अधिक होती है, तो किसी ने क्या टिप्पणी दी, यह देखने का समय भी नहीं मिलता. शायद इसलिए जब किसी चिट्ठे पर देखता हूँ कि टिप्पणी के बाद तुरंत लेखक का उत्तर हो या टिप्पणियों से सवाल जवाब का सिलसिला बन गया हो तो थोड़ी ईर्श्या सी होती है. पर क्या करें, चिट्ठा लिखने के अलावा और भी काम हैं जीवन में!

किसी एक चिट्ठाकार से उसकी कौन सी अंतरंग बात जानना चाहेंगे ?

मुझे वह लोग जिनमें अपने जीवन की दिशा बदलने का साहस हो, वे लोग बहुत दिलचस्प लगते हैं और उनसे बातें करके उनके बारे में जानने की उत्सुक्ता रहती है. जैसे कि मसिजीवि जी जिन्होंने इंजिनियरिंग छोड़ कर साहित्य में आने का साहस किया.
मुझे लगता है कि हम सबके भीतर बहुत से मैं छुपे होते हैं पर जीवन एक धार पर चलने लगता है तो हम स्वयं को सीमाओं में बाँध लेते हैं. जिसमें मुझे उन सीमाओं से निकलने की कोशिश दिखे, वे मुझे अच्छे लगते हैं.

अन्य चिट्ठाकार जिन्हें जानना चाहूँगा वह हैं राकेश खँडेलवाल और बेजी, क्योंकि उनकी कविताँए मुझे बहुत अच्छी लगती हैं.

बेजी के प्रश्नः

आपकी सबसे प्रिय पिक्चर कौन सी है? क्यों?

मुझे बिमल राय, ऋषिकेश मुखर्जी, गुलज़ार, बासु चैटर्जी, गुरुदत्त जैसे निर्देशकों की फ़िल्में अच्छी लगतीं है. बंदिनी, सुजाता, अपने पराये, खामोशी, साहिब बीबी और गुलाम, सत्यकाम, आनंद, गाईड, अचानक, मेरे अपने, आदि मेरी प्रिय फ़िल्मों में से हैं. इनमें से किसी एक को चुनना मेरे लिए मुश्किल है.

कई आधुनिक फ़िल्म निर्देशक भी मुझे अच्छे लगते हैं जैसे विशाल भारद्वाज, अपर्णा सेन, आशुतोष गवारिकर, इत्यादि.

यह नहीं कि केवल गंभीर फ़िल्में ही अच्छी लगती हों, धूम जैसी समय निकालने वालीं हल्की फुल्की फ़िल्में भी अच्छी लगती हैं. कभी इस तरह की नासिर हुसैन और मनमोहन देसाई की फ़िल्में भी बहुत अच्छी लगती थीं. आज फ़िल्मों के लिये पहले जैसा दीवानापन नहीं लगता, पर इसमें फ़िल्मों का दोष नहीं, उम्र बदल गयी है तो इस तरह का होना स्वाभाविक है.

फ़िल्मों की पसंद समय के साथ साथ बदलती रहती है. एक समय था कि ज़रीना वहाब पर दिल फिदा था तो उनकी पहली फ़िल्म चित्तचोर जाने कितनी बार देखी थी. लेकिन किशोर मन बहुत वफादार नहीं था, कभी रेखा पर आता तो कभी शबाना आज़मी पर, और साथ ही साथ फिल्मों की पसंद बदलती रहती.

जो फिल्म सबसे अधिक बार सिनेमाघर में देखी वह है रमेश सिप्पी के शोले. एक समय था जब मीना कुमारी की रोने धोने वाली फ़िल्में भी मुझे अच्छी लगती थीं जैसे कि दिल एक मंदिर, पर आज उतनी अच्छी नहीं लगती.

इस उत्तर से यह समझना कठिन नहीं कि मुझे हिंदी फिल्मों में कितनी दिलचस्पी है!

क्या हिन्दी चिट्ठेकारी ने आपके व्यक्तिव में कुछ परिवर्तन या निखार किया?

हिंदी चिट्ठाकारी से मुझे हिंदी भाषा के करीब लौट आने का मौका मिला. जब लिखना शुरु किया था तो इतना सोचना पड़ता, शब्द याद ही नहीं आते थे और अक्सर शब्दकोश की सहायता लेनी पड़ती थी.

चिट्ठाकारी ने बहुत से लोगों से मिलने का मौका दिया विषेशकर प्रारम्भिक दिनों में. लाल्टू, प्रत्यक्षा, अनूप, रवि, रमण, ई स्वामी, जितेंद्र, देबाशीष, पंकज, संजय, अविनाश जैसे लोगों को बिना चिट्ठाकारी के कैसे जान पाता? बिना देबाशीष की सहायता के मैं हिंदी चिट्ठाजगत में आ ही नहीं पाता. इनमें से किसी से भी मिलने का मौका नहीं मिला है. अब तक मिला हूँ केवल अफलातून जी से, जिन्हें चिट्ठा जगत में आने से पहले से जानता हूँ और राम से, जो मुझे मिलने बोलोनिया आये थे. पर मेरा बस चले तो सब से मिलना पसंद करूँगा.

कुछ माह पहले दिल्ली में पसिद्ध लेखक और पत्रकार ओम थानवी के यहाँ था और उन्होंने सबसे मेरा परिचय लेखक के नाम से दिया, तो अजीब भी लगा और सुखद भी. मेरा चिट्ठा लिखने से पहले मेरी अपनी पहचान में "लेखक" शब्द नहीं था. लेखक बन गया हूँ यह तो नहीं कहता पर अपनी पहचान के दायरे कुछ बढ़ गये हें यह अवश्य कह सकता हूँ.

यह तो थे मेरे उत्तर. अब यह प्रश्नों का सिलसिला किस तरफ जाये? मैं चाहूँगा कि देबाशीष, रवि, रमण, ई स्वामी, अफलातून और पकंज भी इन प्रश्नों के उत्तर दें, पर अगर आप यह उत्तर पहले ही दे चुके हें तो मुझे कुछ दिन तक छुट्टियों का इंतजार करना पड़ेगा ताकि आप उन्हें पढ़ सकूँ. :-)

शुक्रवार, फ़रवरी 23, 2007

मानव और रोबोट

मैं एक बार पहले भी केनेडा के श्री ग्रेगोर वोलब्रिंग के बारे में लिख चुका हूँ. ग्रेगोर विकलाँग हैं, पहिये वाली कुर्सी से चलते हैं और कलगारी विश्वविद्यालय में जीव-रसायन विज्ञान पढ़ाते हैं. वह अंतरजाल पर "इंवोशन वाच" नाम के पृष्ठ पर नियमित रूप से लिखते भी हैं. उनके शोध का विषय है नयी उभरने वाली तकनीकों के बारे में विमर्श. उनसे पिछले वर्ष जेनेवा में विश्व स्वास्थ्य संस्थान की एक सभा में मुलाकात हुई थी.

ग्रेगोर से बात करो तो लगता है कि आसिमोव जैसे किसी लेखक की विज्ञान-उपन्यास (science fiction) पर बात हो रही हो, वह सब बातें सच नहीं कल्पना लगतीं हैं. पर ग्रेगोर का कहना है कि जिस भविष्य की वह बात करते हैं वह करीब है और इन दिनों में गढ़ा रचा जा रहा है. वह कहते हैं कि उस नये भविष्य का हमारे समाज पर गहरा प्रभाव पड़ेगा और इसलिए आवश्यक है कि हम सब लोग उसमें दिलचस्पी लें, उसके बारे में जाने, उस पर विमर्श करें.

अपने नये लेख में ग्रगोर ने लिखा हैः

मानव संज्ञा और मस्तिष्क को क्मप्यूटर जैसे किसी अन्य उपकरण पर चढ़ाना संभव हो जायेगा जिससे वह शरीर पर उम्र के प्रभाव से बचे रहेंगे. हालाँकि इस तरह के आविष्कार से अभी हम बहुत दूर हैं पर इसकी बात हो रही है. दिमाग रखने वाली मशीनों की बातें तो हो रहीं हैं. जून में पिछली रोबोव्यवसाय (Robobusiness) सभा में माईक्रोसोफ्ट ने अपने रोबोटक सोफ्तवेयर की पहली झलक दिखाई. यह सोफ्टवेयर (Microsoft's Robotic Studio) शिक्षण के क्षेत्र में काम आयेगी. खाना बनाने वाला रोबोट 2007 में बाजार में आयेगा. रोबोवेटर, दाई रोबोट, बार में पेय पदार्थ डालने वाला रोबोट, गाना गाने वाले और बच्चों को पढ़ाने वाले रोबोट सब 2007 में तैयार होंगे. अगर यह प्लेन सफल होंगे तो 2015 और 2020 के बीच में हर दक्षिण कोरियाई घर में रोबोट होंगे. चौकीदार रोबोट 2010 तक तैयार होने चाहिये.
इन सब मशीन और मानव के मिलने से बनी नयी खोजों के साथ साथ ग्रेगोर बहुत से प्रश्न उठाते हें जैसे कि यह नयी सज्ञा वाली मशीने, इनके क्या अधिकार होंगे? मानव होने की क्या परिभाषा होगी जब अलग मशीन में आप की यादाश्त और दिमाग रखे हों? क्या बिना शरीर के केवल मानव संज्ञा को मानव कह सकते हैं? किसी वस्तू के जीवित या अजीवित होने की क्या परिभाषा होगी? एक मशीन से उसकी यादाश्त लेने के लिए या बदलने के लिए हमें किससे आज्ञा लेनी पड़ेगी? और जिन मानव शरीरों को मशीनों के भागों से जोड़ कर बदल दिया जायेगा वह कब तक मानव कहलाँएगे और मानव तथा मशीन की सीमा कैसे निर्धारित की जायेगी? बीमार मानव जो मशीन की सहायता से सोचता है क्या वह मानव कहलायेगा?

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इंडीब्लागीस 2006 पुरस्कार के लिए समीर जी को बहुत बहुत बधाई. रनरअप पुरस्कारों में मेरे साथी बिहारी बाबू को भी बधाई और आप सब पाठकों को धन्यवाद.

गुरुवार, फ़रवरी 22, 2007

मानव अधिकार

अमरीकी गैर सरकारी संस्था "मानव अधिकार वाच" (Human Rights Watch) की 2007 की नयी वार्षिक रिपोर्ट निकली है. इस रिपोर्ट में साल के दौरान विभिन्न देशों में मानव अधिकारों का क्या हुआ, इसकी खबर दी जाती है. कहाँ कौन से अत्याचार हुए रिपोर्ट में यह पढ़ कर झुरझुरी आ जाती है. सूडान के डार्फुर क्षेत्र और इराक में जो हो रहा है उसके बारे में तो फ़िर भी कुछ न कुछ पता चल जाता है पर अन्य बहुत सी जगहों पर क्या हो रहा है, इसकी किसी को खबर नहीं.

तुर्कमेनिस्तान और उत्तरी कोरिया में सख्त तानाशाह गद्दी पर बैठे हैं जहाँ कुछ भी स्वतंत्र कहने सोचने की जगह नहीं है. रूस में गैर सरकारी संस्थाओं पर हमले तो होते रहते हैं, प्रसिद्ध पत्रकार अन्ना पोलिटकोवस्काया जो सरकारी अत्याचारों के बारे में निर्भीक लिखतीं थीं, की हत्या ने सनसनी फ़ैला दी इसलिए भी कि अन्ना छोटी मोटी पत्रकार नहीं थीं, उनका नाम देश विदेश में मशहूर था. लोगों को डराना, धमकाना, उन्हें विभिन्न तरीकों से पीड़ा देना, पुलिस की जबरदस्ती और अत्याचार, कई देशों में निरंकुश बढ़ रहा है.

भारत के बारे में रिपोर्ट कहती है कि "भारत विश्व का सबसे बड़ा जनतंत्र है और यहाँ स्वतंत्र प्रेस और सामाजिक संस्थाएँ हैं, फ़िर भी कुछ बाते हैं जिनमें मानव अधिकारों की सुरक्षा नहीं होती. इनमें से सबसे बड़ी समस्या है पुलिस और विभिन्न सुरक्षा संस्थाओं के बड़े अधिकारियों को कुछ सजा नहीं मिल सकती, चाहे वह कुछ भी अत्याचार कर दें. लोगों को पकड़ कर उन्हें पीड़ा देना और सताना, बिना मुकदमे के लोगों को पकड़ कर रखना, उन्हें जान से मार देना आदि, जम्मु कश्मीर, उत्तर पूर्व और नक्सलाईट क्षेत्रों में आम बातें हैं... बच्चों के तथा अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा न कर पाना भी समस्या है, इन अल्पसंख्यकों में धार्मिक अल्पसंखयक, जनजाति के लोग और दलित भी शामिल हैं."

रिपोर्ट ने अमरीका की कड़ी आलोचना है. रिपोर्ट कहती है कि ग्वानतामा बे के कारागार में बिना मुकदमें के कैदियों को कई सालों से रखना और उन्हें यातना देने वाले अमरीका को मानव अधिकारों का रक्षक होने का गर्व त्यागना होगा, उसके अपने दामन पर दाग लगा है. यातना से भागने वाले लोगों को शरण देने से इन्कार करना भी अमरीका की कमजोरी है, और वह दूसरों पर मानव अधिकारों की रक्षा न करने का आरोप लगाता है.

किस देश ने कितना मानव अधिकारों को कुचला इसका अंदाज़ शायद रिपोर्ट में उस देश को कितनी जगह दी गयी है. रिपोर्ट में भारत को 7 पन्ने मिले हैं तो चीन को 12, नेपाल को 6, पाकिस्तान को 7 और अमरीका को 11.

2006 में जिन देशों ने मानव अधिकारों की दिशा में सराहनीय काम किया है उनमें सबसे ऊँचा नाम नोर्वे का है.

अगर आप पूरी रिपोर्ट पढ़ना चाहें तो वह अंतरजाल पर ह्यूमन राईटस वाच पर पढ़ सकते हैं.

बुधवार, फ़रवरी 21, 2007

लिखाई से पहचान

बहुत से लोग सोचते हैं कि हाथ की लिखाई से व्यक्ति के व्यक्तित्व के बारे में छुपी हुई बातों को आसानी से पहचाना जा सकता है. कुछ लोग तो यहाँ तक कहते हैं कि हाथ की लिखाई से वह बता सकते हैं कि कोई खूनी है या नहीं.

कल जब इंग्लैंड के प्रधानमंत्री श्री टोनी ब्लेयर के हस्ताक्षर देखने को मिले तो यही बात मन में आयी कि इस हाथ की लिखाई से इस व्यक्ति के बारे में क्या बात पता चलती है?



हस्ताक्षर के नीचे की रेखा अपने आप में विश्वास को दर्शाती है और चूँकि यह रेखा नाम और पारिवारिक नाम दोनों के नीचे है, इसका अर्थ हुआ कि टोनी जी अपनी सफ़लता का श्रेय स्वयं अपनी मेहनत के साथ साथ, परिवार से मिली शिक्षा को भी देते हैं.
टोनी का "टी" जिस तरह से बड़ा और आगे की ओर बढ़ा हुआ लिखा है, इसका अर्थ है कि वह शरीर की भौतिक जीवन के बजाय दिमाग की दुनिया में रहने वाले अधिक हैं और उनके विचार भविष्य की ओर बढ़े हुए हैं. पूरा टोनी शब्द ऊपर की ओर उठा हुआ है, यानि वह आशावादी हैं, पर अंत का नीचे जाता "वाई" बताता है कि अपने बारे में कुछ संदेह है कि उन्होंने कुछ गलती की है.

ब्लेयर का ऊपर उठना, "आई" की बिंदी का आगे बढ़ना भी उनके आशावादी होने और भविष्य की ओर बढ़ी सोच का समर्थन करते हैं. प्रारम्भ के बड़े और खुले हुए "बी" से लगता है कि उनकी कल्पना शक्ति प्रबल है और वह खुले दिल, खुले विचारों वाले हैं.

यह सब उनके फरवरी 2007 में किये गये हस्ताक्षरों से दिखता है. अगर उनके कुछ साल पहले के हस्ताक्षर मिल जायें तो उन्हे मिला कर भी देखा जा सकता है कि उनके व्यक्तित्व में पिछले कुछ समय में कोई परिवर्तन आया है!

मंगलवार, फ़रवरी 20, 2007

भारत में बनी दवाईयाँ

पिछले दशक में भारत में केंद्रित कई दवा बनाने वालों ने विश्व में सस्ती और अच्छी दवाएँ बनाने के लिए ख्याति पाई है. आज भारत की यह क्षमता खतरे में है, क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय दवा बनाने वाली कम्पनी नोवार्टिस (Novartis) ने भारत सरकार पर दावा किया है.

एडस की दवाएँ जो पहले केवल पश्चिमी देशों की दवा कम्पनियाँ बनाती थीं, उनके एक साल के इलाज की कीमत 20,000 डालर तक पड़ती थी, भारतीय सिपला जैसी कम्पनियों ने पर इन्हीं दवाओं को 2,000 डालर तक की कीमत में दिया. कुछ वर्ष पहले, जब दक्षिण अफ्रीका की सरकार ने पश्चिमी देशों के बजाय जब भारत से बनी इन सस्ती दवाओं को खरीदना चाहा तो 39 बड़ी दवा कम्पनियों ने मिल कर दक्षिण अफ्रीका की सरकार पर दावा कर दिया. इस पर सारी दुनिया में स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करने वाली गैर सरकारी और स्वयंसेवी संस्थाओं ने जनचेतना अभियान प्रारम्भ किया और दुनिया के विभिन्न देशों से लाखों लोगों ने इस अपील पर अपने दस्तखत किये. अपनी जनछवि को बिगड़ता देख कर घबरा कर अंतर्राष्ट्रीय दवा कम्पनियों ने दक्षिण अफ्रीका सरकार पर किया दावा वापस ले लिया.

इस तरह की सस्ती दवा बना पाने के लिए भारत के बुद्धिजन्य सम्पति अधिकारों (intellectual property rights) से सम्बंधित कानूनो ने बहुत अहम भाग निभाया था. यह कानून दवा बनाने के तरीको को सम्पति अधिकार (patents) देते थे जिसका अर्थ था कि वही पदार्थ अगर कोई किसी नये तरीके से बनाये तो उस पर यह अधिकार लागू नहीं होगा. इसका यह फायदा था कि कहीं पर कोई भी नयी दवा निकले, हमारे दवा बनाने वाले उसे बनाने के लिए नये और सस्ते तरीके खोज सकते थे. इस कानून का फायदा उठा कर भारतीय दवा बनाने वालों ने बहुत सी जान रक्षक दवाओं के नये और सस्ते संस्करण बनये और उन्हें कम कीमत पर बाज़ार में बेचा.

इन कानूनों से अंतर्राष्ट्रीय दवा बनाने वाली कम्पनियाँ बहुत परेशान थीं क्योंकि इससे उनके लाभ में कमी आती थी और उन्होंने भी भारत सरकार पर जोर डाला कि भारत विश्व व्यापार संस्थान (World Trade Organisation, WTO) का हिस्सा बन जाये और अंतर्राष्ट्रीय बुद्धिजन्य सम्पत्ति अधिकारों के कानूनों को मानने को बाध्य हो. सन 2005 में भारत डब्ल्यूटीओ का सदस्य बन गया.

पर जब भारत की सरकार ने WTO के हिसाब से अपने कानून बदला तो इस नये कानून के हिसाब से कोई पदार्थ बनाने के तरीका वाले कोपीराईट के साथ साथ पदार्थ पर भी कोपीराईट हो गया है ताकि कोपीराईट की अविधि तक कोई उस पदार्थ को किसी भी तरीके से न बना सके. अब भारतीय दवा बनाने वाले नयी दवाओं को बनाने के नये और सस्ते तरीके नहीं खोज सकते जब तक उस दवा की कोपीराइट अविधि न समाप्त हो जाये.

पर भारत सरकार इस नये कानून में अपनी दवा बनाने वाली कम्पनियों के पक्ष में कुछ कानून भी रखे हैं जैसे कि उसने यह कानून भी रखा कि कापीराईट करने के लिए बिल्कुल नया आविष्कार होना चाहिये. बहुत सी अंतर्राष्ट्रीय कम्पनिया अपनी दवाओं का कापीराईट बनावाती हैं पर कापीराईट की अविधि समाप्त होने से पहले उसी दवा में थोड़ा सा फेरबदल करके उसका नया कापीराईट बनवा लेती हैं (evergreeing of patents) ताकि वह दवा और बीस सालों तक केवल उनकी सम्पत्ति रहे. भारतीय कानून इसकी रोकथाम करने में सहायता देता है.

पिछले वर्ष स्विटज़रलैंड की नोवार्टिस कम्पनी ने कैसर के इलाज में प्रयोग की जाने वाली दवा ग्लीवेक (Glivec) के फारमूले में कुछ बदलाव करके उसके नये कोपीराईट के लिए अर्जी दी, जो भारत सरकार ने यह कह कर नामंजूर करदी कि यह नया आविष्कार नहीं बल्कि पुराने फारमूले में थोड़ी सी बदली करके किया गया है. इसी पर नोवार्टिस ने़ भारत सरकार पर दावा कर दिया है कि भारत का यह कानून डब्ल्यूटीओ के नियमों के विरुद्ध है और इस कानून को रद्द कर दिया जाना चाहिये.

अगर नोवार्टिस यह मुकदमा जीत जायेगा तो भारत सरकार का यह कानून कि केवल बिल्कुल नये आविष्कार की ही रजिस्ट्री होनी चाहिये, अपने आप ही रद्द हो जायेगा और भारत सरकार को अंतर्राष्ट्रीय दवा बनाने वाली कम्पनियों की बहुत सी पुरानी दवाओं के पेटेंट को मानना पड़ेगा. इससे कम कीमत पर भारतीय दवा बनाने वालों को रोक लग जायेगी जिसका असर केवल भारत पर ही नहीं, बहुत से देशों में रहने वाले गरीबों पर पड़ेगा.

भारत सरकार ने इस बात की जाँच के लिए अपनी एक अंदरूनी कमेटी बिठायी थी जिसके अध्यक्ष थे श्री मशालकर. गत दिसम्बर में मशालकर कमेटी ने नोवर्टिस की माँग को जायज बताया है और इस कानून को बदलने की सलाह दी है.

अंतर्राष्ट्रीय गैरसरकारी संस्थाओं तथा स्वास्थ्य क्षेत्र के बुद्धिजीवियों ने तुरंत श्री मशालकर कमेटी के निर्णय की आलोचना की. उन्होने बताया कि मशालकर कमेटी ने इंग्लैंड की एक कम्पनी की एक रिपोर्ट को ले कर वैसे ही नकल कर के अपनी रिपोर्ट में लिख दिया है. अँग्रेजी क्मपनी की वह रिपोर्ट अंतर्राष्ट्रीय दवा बनाने वाली कम्पनियों ने पैसा दे कर बनवायी थी. उनका आरोप है कि श्री मशालकर खुद वैसी ही कम्पनियों के सलाहकार के रुप में सारा जीवन बिता चुके हैं और उनसे इस विषय पर निक्षपक्ष राय की आशा नहीं की जा सकती.

इसी के विरुद्ध विभिन्न देशों में जनचेतना अभियान शुरु किये जा रहे हैं. लोगों से कहा जा रहा है कि नोवार्टिस पर दबाव डाला जाये कि वह यह मुकदमा वापस ले ले. अब तक करीब 3 लाख लोगों ने उस अपील पर दस्तखत किये हैं जिनमें स्विटज़रलैंड की पूर्व राष्ट्रपति श्रीमति रुथ ड्रैयफुस, नोबल पुरस्कार विजेता आर्चबिशप डेसमैंड टूटू, संयुक्त राष्ट्र संघ के अफ्रीका अधिकारी स्टीफेन लुईस जैसे लोग भी शामिल हैं. प्रसिद्ध अंतर्राष्ट्रीय कम्पनियों के लिए उनकी जनछवि बहुत महत्वपूर्ण होती है जिसके बलबूते पर उनकी बिक्री टिकी होती है. आशा है कि अपनी जनछवि बिगड़ती देख कर नोवार्टिस यह मुकदमा वापस ले लेगी.

आप भी इस अपील पर दस्तखत कीजिये और नोवार्टिस पर दबाव डालने में सहायता कीजिये. अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएँ जैसे कि "सीमाविहीन चिकित्सक" (Doctors without Borders) तथा "ओक्सफाम" (Oxfam) के अंतरजाल पृष्ठों पर इस अपील पर दस्तखत किये जा सकते हैं.

सोमवार, फ़रवरी 19, 2007

ज्वालामुखिँयों की राह

दक्षिण अमरीका में एक्वाडोर में उत्तर में देश की राजधानी कीटो से दक्षिण में कुएँका जाने वाला रास्ता "ज्वालामुखियों की राह" के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि दोनो तरह पहाड़ों के बीच में गुजरते हुए इस रास्ते पर बहुत से ज्वालामुखी हैं.

एक समय में इटली में भी कुछ ऐसे ही था, उत्तर से दक्षिण तक, पूरे देश के बीचों बीच रीड़ की हड्डी की तरह उठे पहाड़ों के बीच में बहुत से ज्वालामुखी थे. उत्तरी इटली के सभी ज्वालामुखी आदिकाल में ही ज्वाला फ़ैंक और लावा उगल कर शाँत हो गये और आज उन ज्वालामुखियों के मुखों में झींलें हैं. रोम से थोड़ी ही दूर उत्तरी दिशा में तीन इस तरह की ज्वालामुखियों वाली झीलें हैं - ब्राचानो, बोलसेना और वीको.

रोम के दक्षिण में पोमपेई के पास खड़ा वासूवियो ज्वालामुखी करीब दो हजार वर्ष पहले फूटा था और उसके लावे ने पोमपेई के रहनेवालों को अपनी कैद में बंद लिया था. उस लावे की खुदाई से निकला पोमपेई आज हमें दो हजार वर्ष पहले के जीवन की अनोखी झलक देखने का मौका देता है.

इटली के दक्षिणी कोने पर ऐत्ना पहाड़ का ज्वालामुखी आज भी आग और लावा उगलता है. बीच बीच में यह लावा उगलने की प्रक्रिया जब तेज होती है तो उसे देखने आने वाले पर्यटकों की सँख्या तुरंत बढ़ जाती है.

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पिछले सप्ताह काम के सिलसिले में रोम जाना हुआ था, तो रोम के उत्तर में बसे प्राचीन शहर वितेर्बो को देखने का मौका मिला. शहर का मध्ययुगीन संकरी गलियों वाला हिस्सा मुझे बहुत अच्छा लगा. हालाँकि आज वितेर्बो छोटा सा शहर है पर इटली के इतिहास में इसका बहुत महत्व है. मध्ययुग में पोप को वेटीकेन छोड़ कर यही भाग कर आना पड़ा था और बहुत से सालों तक यह शहर दूसरा वेटीकेन बन गया था.

वितेर्बो से थोड़ी दूर ही है ब्राचानो की पुराने ज्वालामुखी के मुख में बनी झील. ब्राचानो शहर का नाम कुछ माह पहले अंतर्राष्ट्रीय समाचार पत्रों में आया था जब होलीवुड के अभिनेता टाम क्रूस ने यहाँ के किले में केटी होल्मस नाम की अभिनेत्री से विवाह किया था.

आज कुछ तस्वीरें वितेर्बो और ब्राचानो से.





वितेर्बो की मध्ययुगीन संकरी गलियाँ


वितेर्बो का "मृत्यु का फव्वारा"


ब्राचानो की झील


ब्राचानो का किला

गुरुवार, फ़रवरी 15, 2007

कान खींचो

हर वर्ष एलास्का और केनेडा में रहने वाले एस्कीमो अपने ओलिम्पिक खेलों का आयोजन करते हैं जिसमें सभी प्रतियोगिताएँ पाराम्परिक एस्कीमो खेलों की होती हैं.

कुछ खेल जिनकी प्रतियोगिता इन ओलिम्पिक खेलों में होती हैं उनके नाम हैं एस्कीमो डँडा खींच, मशाल दौड़, मछली काटो, कँबल फ़ेंको, इत्यादि.

बहुत सी प्रतियोगियातिएँ ऊँचा कूदने, तथा कूद कर लात मारने की होती हैं. एक ऊँची कूद में लोगों द्वारा खींच कर पकड़ी हुई तनी हुई रेनडियर की त्वचा पर छलाँग लगाते हैं तो एक दूसरी प्रतियोगिता में 2 मीटर ऊँची रस्सी को कूद कर पैर से छूना होता है.

पर मेरे विचार में सबसे रोचक प्रतियोगिताएँ कानो को पीड़ा देने वाली होती हैं, जैसे कान खींचो और कान से बोझा उठाओ. कान खींचने की प्रतियोगिता में हिस्सा लेने वाले एक दूसरे की कान पर रस्सी लपेट देते हैं और आमने सामने बैठ कर रस्सी को खींचते हैं. जो पहले दर्द से घबरा कर सिर पीछे खिंच कर कान से रस्सी को निकाल दे, वह हार जाता है. खेल पहले एक तरफ़ के कान से खेला जाता है फ़िर दूसरी तरफ़ से. कान से बोझा उठाओ खेल में कान से भारी वजन बाँध कर यह देखते हैं कि खिलाड़ी उसे कितनी दूर तक खींचने में समर्थ है. इन कान वालों खेलों में खिलाड़ियों के आसपास बर्फ ले कर उनके साथी खड़े होते हैं जो कि बीच बीच में कानों पर बर्फ लगा कर उनको ठँडक और दर्द से राहत देने की कोशिश करते हैं.

खेलों में एस्कीमो मिस वर्ल्ड भी चुनी जाती है ( नीचे तस्वीर में २००6 की मिस एस्कीमो वर्ल्ड)



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ऐसे खेल और भी देशों में होते हैं जहाँ लोग अपने पाराम्परिक खेलकूद को सुरक्षित रखना चाहते हैं. जैसे कि मँगोलिया में नादाम का उत्सव हर वर्ष अगस्त में मनाते हैं. नादाम में छोटे छोटे चार पाँच साल के बच्चों को घोड़ों पर दौड़ लगाते देखना बहुत रोमाँचकारी लगता है.

अगर भारत में हम इसी तरह अपने पाराम्परिक खेलों की धरोहर को बचाना चाहें तो उनमें कौन से खेल रखेंगे? खो खो, कुश्ती, मुदगर, आँखें बंद करके शब्दभेदी बाण, और क्या क्या?

बुधवार, फ़रवरी 14, 2007

विवाह की धूम

हाल में ही दो हिंदी फ़िल्में देखने का मौका मिला, "विवाह" और "धूम 2". इन फ़िल्मों को देख कर मन में आज के भारतीय सिनेमा में पारिवारिक मूल्यों के चित्रण के बारे में सोच रहा था.

ताराचंद बड़जात्या और राजश्री फिल्मों का मैं बचपन से ही प्रशंसक था. उनके पुत्र सूरज बड़जात्या की फ़िल्में मुझे उतनी अच्छी नहीं लगतीं. उनकी नयी फ़िल्म "विवाह" के बारे में तो बहुत कुछ बुरा भला पढ़ चुका था कि बिल्कुल पुराने तरीके की फ़िल्म है.
यह सच भी है कि फ़िल्म के धनवान पर अच्छे दिल वाले अनुपम खेर और शाहिद कपूर का परिवार राजश्री फ़िल्मों का पुराना जाना पहचाना भारतीय परिवार है, जहाँ भाई, भाभी और देवर के साथ प्रेम से रहने वाले दृष्यों में इतना मीठा भरा है कि अच्छे खासे आदमी को डाईबीटीज़ हो जाये. ऐसे संयुक्त परिवार जहाँ सभी एक दूसरे से प्यार करते हों, आपस में कोई खटपट न हो, कोई ईर्ष्या न हो, अविश्वासनीय हैं पर हमारे मन में छुपी इच्छा "कि काश ऐसा हो" को संतुष्टी देते हैं.




शाहिद कपूर और अमृता राव की कहानी, लड़की देखने जाना, मँगनी होना और उनके बीच में पनपता प्यार, इस सब की आलोचना की गयी थी कि बिल्कुल पुराने तरीका का है. मुझे लगा कि शायद कुछ बातें बड़े शहरों में रहने वालों के कुछ पुरानी लग सकती हैं पर वह भी इतनी तो पुरानी नहीं हैं. शहरों में भी अधिकतर विवाह के प्रस्ताव आज भी माता पिता द्वारा ही जोड़े जाते हैं, लड़की देखने जाने की रीति भी बंद नहीं हुई है तो इसमें पुराना क्या है? शायद लड़की के परिवार का आपस में हिंदी में बात करना, यह कहना कि वह हिंदी की किताबें पढ़ती है, यह सब पुराने तरीके का है जो आजकल बड़े शहरों में बदल में रहा है?

दूसरी ओर, आलोक नाथ और सीमा विस्वास का परिवार कुछ सिंडरेला की कहानी पर आधारित है, सौतेली माँ के बदले में चाची बना दी गयी है. पर इस भाग में मुझे अच्छा लगा कि घर दो बेटियों का होना सकारात्मक तरीके से दिखाया गया है और आग में जली युवती से उसके मँगेतर का विवाह करने का निश्चय भी सकारात्मक तरीके से दिखाया गया है. उत्तरी भारत में जहाँ पढ़े लिखे, सम्पन्न राज्यों में जहाँ बच्चियों के जन्म से पहले उनकी भ्रूणहत्या करना बढ़ता जा रहा है, इस तरह के संदेश देना बहुत आवश्यक है. ऐसी तथाकथित आधुनिक फ़िल्में जिनमें आधुनिकता केवल सतही होती है, उनसे यह पुराने तरीके की फ़िल्म ही अधिक अच्छी है.

जहाँ "विवाह" में परिवारों की बात फ़िल्म का केंद्र है, दूसरी फ़िल्म "धूम 2" में परिवार हैं ही नहीं. फ़िल्म में किसी भी पात्र के माता पिता नहीं दिखाये गये हैं, न ही किसी के कोई भाई बहन है. परिवार के बंधन न होने से फ़िल्म के सभी पात्र अपना जीवन अपनी तरह से जीने के लिए स्वतंत्र हैं. सिर्फ एक जय दीक्षित का पात्र है जो विवाहित है और जिसकी पत्नी गर्भवति है पर उनकी पत्नी को कुछ क्षणों के लिए दिखा कर परदे से गुम कर दिया जाता है, जिससे अर्थ बनता है कि गर्भवति पत्नी को मायके भेज देना चाहिये ताकि अपने जीवन में कोई तकलीफ़ न हो.

फ़िल्म की एक नायिका सुनहरी, चोर है पर क्यों चोर बनी यह आप समझ नहीं पाते अगर उसे मिनी स्कर्ट पहन कर डिस्को में नाचने का शौक है. अनाथाश्राम में पली बड़ी हुई हो ऐसी नहीं लगती. हाँ, आधुनिक है, अँग्रेजी बोलती है, अकेली विदेश यात्रा पर जा सकती है और बिना विवाह के एक दूसरे चोर के साथ रह सकती है.




फ़िल्म की दूसरी नायिका, चूँकि रियो दी जेनेयिरो में समुद्र तट पर रहती हैं, इसलिए उनका बिकिनी पहनना तो स्वाभाविक है, पर आश्चर्य होता है उन पर फ़िदा श्री अली पर. भिण्डी बाज़ार के मेकेनिक से पुलिस वाला बना अली, अकेला पात्र है जो माँ का नाम ले कर उसे याद करता है पर वह भी आधुनिक है और अगर पत्नि बिकिनी पहने है तो वह भी कम नहीं, वह नेकर पहन लेता है, और दोनो कोपाकबाना के समुद्रतट पर नारियल का पानी पीते हैं.

जिस तरह की फ़िल्म की कहानी है इसमें परिवार की आवश्यकता है ही नहीं, न ही किसी बड़े बूढ़े की. होते तो केवल समय बरबाद करते!

मंगलवार, फ़रवरी 13, 2007

सीमाओं में बंद ऐश्वर्या

अँग्रेज़ी दैनिक हिंदुस्तान टाईमस् में सिनेमा पृष्ठ पर सुप्रसिद्ध सिनेमा समीक्षक और निर्देशक खालिद मुहम्मद का अभिषेख बच्चन से साक्षात्कार पढ़ रहा था कि उनका प्रश्न देख कर रुक गया. उन्होंने पूछा था, "क्या आप विवाह के बाद ऐश्वर्या को फिल्मों में काम करने देंगे?"




भारतीय पारम्परिक सोच के अनुसार लड़की का अपना कोई महत्व नहीं, वह शादी से पहले अपने पिता की होती है और शादी के बाद अपने पति की. शहरों में इस तरह की पाराम्परिक सोच से ऊपर उठने की कोशिश की जा रही है, पर इस प्रश्न से लगता है कि लड़कियाँ अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व बना सकें इसमें अभी बहुत सा काम करना बाकी है, वरना प्रतिष्ठित, संवेदनशीन फिल्में बनाने वाले इस तरह का प्रश्न पूछ पाते? जिससे वह प्रश्न कर रहे हैं उसके दादा प्रसिद्ध कवि थे, नाना जाने माने पत्रकार, माता पिता तो प्रसिद्ध हैं ही. और जिस लड़की की बात हो रही है वह कोई सामान्य युवती नहीं, मिस वर्ल्ड रह चुकी हैं, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जानी पहचानी अभिनेत्री हैं. अगर इन सब के बाद इस तरह का प्रश्न पूछा जा सकता है तो आप सोचिये कि साधारण युवतियों के लिए यह सोच कैसे बदलेगी?

शायद इस तरह का प्रश्न इस लिए पूछा गया क्योंकि पिछले दिनो में बच्चन राय विवाह के सम्बंध में आने वाले बहुत से समाचार पुराने दकियानूसी तरह के हैं जैसे कुण्डियाँ मिलवाना, मंदिरों में कन्या के माँगलिक होने के बुरे प्रभाव को हटाने के लिए पूजा करवाना और उसकी पेड़ से शादी करवाना? यानि कि जब सब कुछ पाराम्परिक सोच में है तो विवाह होने के बाद ऐश्वर्या के भविष्य की बात भी पाराम्परिक ही होनी चाहिये और इसलिए उन्हें विवाह के बाद काम करने के लिए पति की अनुमति चाहिये?

पर क्या जब हरिवँशराय बच्चन ने तेजी जी से प्रेमविवाह किया था तो क्या कुण्डली मिलवा कर किया था? या अमिताभ बच्चन ने जया भादुड़ी से विवाह के लिऐ कुण्डली मिलवायी थी? उनकी जो जनछवि है उसको सोच पर तो यह नहीं लगता पर शायद उस ज़माने में प्रेस इस तरह की बातों में इतनी दिलचस्पी नहीं लेती थी और शायद वह सभी इस तरह की परम्पराओं में विश्वास करते थे?

मैं यह नहीं कहता कि सभी युवतियों को विवाह के बाद काम करना चाहिये. पति और पत्नी दोनों काम करें या उनमें से कोई एक घर पर रहे, यह उनका आपस का निर्णय हो सकता है, उनकी अपनी इच्छा या आर्थिक परिस्थिति पर निर्भर हो सकता है. पर अगर पति को विवाह के बाद काम के लिए पत्नी की अनुमति नहीं लेनी पड़ती तो पत्नि को ही क्यों इसकी अनुमति लेनी चाहिये, यह समझ में नहीं आता?

कुछ समय पहले एक फ़िल्म आयी थी "लक्ष्य" जिसमें प्रीति जिंटा जो पत्रकार का भाग निभा रहीं थी कुछ ऐसी ही बात कहती हैं अपने मँगेतर से जब वह उसे कारगिल जाने से रोकता है, और वह इस बात पर शादी तोड़ देतीं हैं. परदे पर जो भी ही, असली जीवन में शायद ऐसा कम ही होता हो. यह भी सच है कि विषेशकर छोटे शहरों में और गावों में, आज भी नयी बहु को कुछ भी करने के लिए सास ससुर या पति की अनुमति चाहिये, पर क्या एश्वर्या जैसी लड़की के साथ यह हो सकता है?

फ़िल्मों में और सच के जीवन में यही फर्क होता है. यह सोच कर कि पढ़े लिखे परिवार से हैं, विदेश में पढ़े हैं, फ़िल्मों में उदारवादी और अन्याय से लड़ने वाले पात्रों का भाग निभाते हैं तो हम लोग सोचने लगते हैं कि शायद व्यक्तिगत जीवन में भी ऐसे ही हों. यही भ्रम है, सच और परदे के जीवन का!

शुक्रवार, फ़रवरी 09, 2007

रुकावटें

कुछ दिन पहले रवि ने एक टिप्पणी में लिखा थाः

"साथ ही, मेरे जैसे 50 वर्ष की सीमा की ओर पहुँच रहे लोगों की आँखों में श्याम पृष्ठभूमि पर सफेद अक्षर तो दिखाई ही नहीं देता..."

कुछ ऐसा ही हाल मेरा अपना भी था. कंप्यूटर का मोनिटर अधिक करीब हो तो ऐनक उतार कर पढ़ने की कोशिश करता, कुछ दूर हो तो ऐनक लगाता, पर अपने ही चिट्ठे के अक्षर ठीक से नहीं दिखते थे. झँझट यह था कि इस चिट्ठे के टैम्पलेट के रंगों को कौन ठीक करे? जब छायाचित्रकार वाले फोटो चिट्ठे के रंग ठीक करने थे तो राम ने मदद की थी, दुबारा किसी से कहने में शर्म आ रही थी. फ़िर मन में सोचा कि इतना भी क्या कठिन होगा, कोशिश करके देखें. कुछ दिनों तक सारा खाली समय टेम्पलेट से छेड़खानी में बिताया और आखिरकार कल रात को लगा कि अब कुछ ठीक दिख रहा है.

इतनी मेहनत करनी पड़ी, पर कुछ संतोष भी है कि आखिरकार काम हो ही गया. यह तो आप लोग ही बता सकते हैं कि इस चिट्ठे के नये रुप में क्या कमियाँ रह गयीं हैं.

उम्र के साथ साथ इस तरह की परेशानियाँ बढ़तीं जातीं हैं. दिखता कम है, सुनता कम है, अधिक चलना पड़े तो भी मुश्किल, सीढ़ियाँ हों तो भी मुश्किल. और दुनिया है कि दिन ब दिन तेज़ गति से चलती जा रही है, या शायद यह अपना भ्रम है क्योंकि अपनी गति धीमी हो रही है!

पर यह सच है कि उम्र के साथ ही समझ में आता है जब विकलाँग लोग कहते हैं कि दुनिया हर तरफ़ से रुकावटों से भरी हुई है. विकलाँगता को हमेशा से व्यक्तिगत या पारिवारिक समस्या की तरह देखा जाता था. यानि अगर आप विकलाँग हैं तो इसका अर्थ है कि आप के शरीर में कोई कमी है और उस कमी को ठीक करने की कोशिश की जाये.

कुछ दशक पहले विकलाँग लोगों की संस्थाओं ने एक दूसरा दृष्टिकोण पेश किया. उनका कहना था कि विकलाँगता व्यक्ति के शरीर में नहीं समाज में होती है क्योंकि यह समाज केवल अविकलाँग, जवान लोगों के लिए सोचा और बना है. यह समाज अन्य सभी लोगों के लिए उनके आस पास कुछ रुकावटें खड़ी कर देता है जिनके कारण वह लोग जीवन में ठीक से भाग नहीं ले पाते. उनका कहना था कि इलाज व्यक्ति का नहीं, समाज में बिखरी इन रुकावटों का होना चाहिये.

इस सोच ने कुछ सामाजिक परिवर्तनों को प्रेरित किया है जैसे कि पटरी से चढ़ने उतरने के लिए ढलानें बनाना, सीढ़ियों के साथ रेम्प बनाना, लाल बत्ती पर अँधे लोगों के लिए ध्वनि वाला सिगनल बनाना, लिफ़्ट में विभिन्न मंज़िलों के नम्बर ब्रेल में भी लिखना, इत्यादि. इनका लाभ केवल विकलाँग लोगों को नहीं मिलता बल्कि सारे समाज को मिलता है. जैसे कि अगर पटरी पर चढ़ने उतरने के लिए ढलान है तो व्हीलचेयर को चलाने में आसानी तो होगी ही पर साथ ही, बच्चे के साथ जा रहे परिवारों को भी होगी, उन बूढ़ों को भी होगी जिनके घुटनों मे दर्द हो.

अंतर्जाल पर ही उतना ही आवश्यक है कि हम जाल स्थलों को इस तरह बनाये कि विभिन्न विकलाँग लोग भी उनका प्रयोग कर सकें.

पर बहुत सी बातें कहना आसान है पर करना कठिन. एक उदाहरण हमारे शहर बोलोनिया से. यहाँ की सरकार विकलाँग लोगों के बारे में बहुत सचेत है., पर कुछ समय पहले यहाँ निर्णय लिया गया कि बहुत सी चौराहों पर लाल बत्ती के बदले में गोल चक्कर बना दिया जायेंगे क्योंकि उससे यातायात अधिक तेज़ चलता है. अगर कारों, ट्रकों को चलने में फ़ायदा होगा और लाल बत्ती पर नहीं रुकना पड़ेगा तो प्रदूषण कम होगा और पेट्रोल का खर्चा भी. पर यह देखा गया है कि गोल चक्कर बनने से यातायात की गति तीव्र हो जाती है और पैदल चलने वालों और साईकल पर जाने वालों को अधिक कठिनाई होती है. विकलाँग, वृद्ध, गर्भवति स्त्रियाँ आदि लोगों को सड़क पार करने में और भी कठिनाई होती है.

तो किसका सोचे सरकार, यातायात का या पैदल चलने वालों का? मेरा बस चले तो पहले पैदल चलने वालों का सोचा जाये पर अगर आप सरकार में हों तो आप क्या फैसला करेंगे?

बुधवार, फ़रवरी 07, 2007

36 का आँकणा

एक तरफ़ से आधुनिक दुनिया इतनी जानकारी हम सबके सामने रख रही है जैसा इतिहास में पहले आम लोगों के लिए कभी संभव नहीं था, दूसरी ओर, अक्सर हम लोग उस जानकारी की भीड़ में खो जाते हैं और उसका अर्थ नहीं समझ पाते.

जब कोई कुछ भी जानकारी आप को देता है तो पहला सवाल मन में उठना चाहिये कि कौन है और किस लिए यह जानकारी हमें दे रहा है? शायद इस तरह से सोचना बेमतलब का शक करना लग सकता है पर अक्सर लोग अपना मतलब साधने के लिए बात को अपनी तरह से प्रस्तुत करते हैं. अगर राजनीतिक नेता हैं तो अपनी सरकार द्वारा कुछ भी किया हो उसे बढ़ा चढ़ा कर बतायेंगे और विपक्ष में हों तो उसी को घटा कर कहेंगे. अगर मीडिया वाले बतायें तो समझ में नहीं आता कि यह सचमुच का समाचार बता रहे हैं या टीआरपी के चक्कर में बात को टेढ़ा मेढ़ा कर के सुना दिखा रहे हैं. अगर व्यवसायिक कम्पनी वाला कुछ कह रहा हो तो विश्वसनीयता और भी संद्दिग्ध हो जाती है.

आँकणे प्रस्तुत करना भी एक कला है. एक ही बात को आप विभिन्न तरीकों से इस तरह दिखा सकते हैं कि देखने वाले पर उसका मन चाहा असर पड़े.

उदाहरण के लिए मान लीजिये कि आप किसी नयी परियोजना के गरीब लोगों पर पड़े प्रभाव के बारे में बता रहे हैं कि 2005 में 10 प्रतिशत लोग लाभ पा रहे थे, और 2006 में परियोजना की वजह से लाभ पाने वाले गरीब लोगों की संख्या 12 प्रतिशत हो गयी.

अगर आप इस परियोजना के विरुद्ध हैं तो आप इसे नीचे बने पहले ग्राफ़ से दिखा सकते हैं, जिसमें लगता है कि लाभ पाने वालों पर कुछ विषेश असर नहीं पड़ा.


अगर आप इस परियोजना के बनाने वाले या लागू करने वाले हें तो आप इसे नीचे दिये दूसरे ग्राफ़ जैसा बना कर प्रस्तुत कर सकते हैं, जिसमें लगता है कि परियोजना का असर अच्छा हुआ.


यानि दोनो ग्राफ़ों में बात तो एक ही है पर उसे पेश करने का तरीका भिन्न है और अगर ध्यान से न देखें तो उनका असर भी भिन्न पड़ता है.

अधिकतर लोग जैसे ही विभिन्न खानों (tables) में भरे अंक देखते हैं, उनकी समझ में कुछ नहीं आता. आँकणे पेश करने वाला जिस बात को बढ़ा कर दिखाना चाहता है उसे वैसे ही दिखाता है, और वही लोग प्रश्न उठा सकते हैं जिन्हें सांख्यिकीय विज्ञान (Statistics) की जानकारी हो. इसीलिए कहते हैं कि झूठ कई तरह के होते हैं पर साँख्यिकीय झूठ सबसे बड़ा होता है.

अगर आप को अंतर्राष्ट्रीय या राष्ट्रीय स्तर पर देशों के बीच और एक ही देश में विभिन्न सामाजिक गुटों के बीच अमीरी-गरीबी, स्वास्थ्य-बीमारी, आदि विषयों पर आकँणो को समझना है तो स्वीडन के एक वैज्ञानिक हँस रोसलिंग के बनाये अंतर्जाल पृष्ठ गेपमाईंडर को अवश्य देखिये. कठिन और जटिल आँकणों को बहुत सरल और मनोरंजक ढंग से समझाया है कि बच्चे को भी समझ आ जाये. रोसलिंग जी कोपीलेफ्ट में विश्वास करते हें और उनकी सोफ्टवेयर निशुल्क ले कर अपने काम के लिए प्रयोग की जा सकती है.

मंगलवार, फ़रवरी 06, 2007

मानव का सफ़र

करीब दो वर्ष पहले इंडोनेसिया के फ्लोरेस द्वीप पर एक प्राचीन मानव शरीर मिला था. 12,000 साल पुराना यह शरीर अब तक मिले सभी आदि मानव शरीरों से भिन्न था. कद में करीब एक मीटर और छोटे से खरबूजे के बराबर सिर वाले इस स्त्री शरीर के बारे में कहा गया था कि वह अभी तक अनजाने, एक नये आदिम मानव गुट की थी जिसे होमो फ्लोरेसियंसिस (Homo floresiensis) का नाम दिया गया था. इस आदि मानव गुट के सभी सदस्य छोटे कद के छोटे दिमाग वाले थे.

चूँकि 12,000 साल पहले, आधुनिक मानव गुट, होमो सेपियंस (Homo sapiens), भी धरती पर रह रहा था, इसका अर्थ हुआ कि कुछ समय तक होमो सेपियंस तथा होमो फ्लोरेसियंसिस के मानव दल समाज साथ साथ रहे.

पर कुछ वैज्ञानिकों ने संदेह किया है कि होमो फ्लोरेसियंसिस का कोई अलग मानव गुट था. उनका विचार है कि जो शरीर फ्लोरेस में पाया गया वह एक बीमार आधुनिक मानव होमो सेपियंस स्त्री का है जिसे माईक्रोसिफेलिया यानि छोटे दिमाग की बीमारी थी.

इस तरह की बहसें वैज्ञानिकों में आम हैं क्योंकि प्राचीन आदि मानवों के शरीर बहुत थोड़े से मिले हैं और उनके आधार पर सारी बातें जानना और समझना कठिन है. कुछ माह पहले अँग्रेजी विज्ञान पत्रिका वेलकम साईंस में इस विषय पर एक लेख निकला था जिसमें मानव शरीर के सूक्षम कोषों (cells) के अंदर छुपे डीएनए (DNA) तथा जेनोम (genome) के अध्ययन से आदि मानव के विकास को बेहतर समझने के बारे में बताया गया था.

जेनोम शोध से यह पता चलता है कि आज से 70 लाख साल पहले अफ्रीका में मानव तथा चिमपैंज़ी के गुट एक दूसरे से अलग हो कर विकसित होने लगे. आज तक का पाया हुआ सबसे प्राचीन मानव शरीर अफ्रीका में चाद (Tchad) देश में सन २००२ में पाया गया था, करीब 65 लाख पुराने इस शरीर को साहेलआथ्रोपस चादेंसिस का नाम दिया गया और यह मानव जाति के विकास का प्रथम पग था, जो सीधा खड़ा हो कर भी चल सकता था और गोरिल्ला जैसा था. फ़िर कारीब 44 से ले कर 17 लाख साल पहले, सारे अफ्रीका में एक नयी मानव जाति फैली, दुबले पतले छोटे मानवों की जिन्हें आउस्ट्रालोपिथेसीन (Australopithecines) के नाम से जाना जाता है. 1974 में ईथिओपिया में पाये गये एक आदिम मानव शरीर जिसे लूसी के नाम से पुकारा गया था, इसी समय का प्रतीक था और बाद में इसी मानव जाति के पैरों के निशान भी मिले थे.

पहला आधुनिक मानव जिसे होमो नाम दिया गया, करीब 24 लाख साल पहले विकसित हुआ और वैज्ञानिक उसे होमो एबिलिस का नाम देते हैं जो कि हाथ का उपयोग करने लगा था. फ़िर 19 लाख पहले आया होमो इरेक्टस, जो केवल सीधा दो पैरों पर ही चलता था. इसी मानव विकास यात्रा में करीब 6 लाख से 2 लाख साल पहले यूरोप में निअंडरथाल मानव आया और फ़िर अफ्रीका में होमो सेपियंस जो दोनो बहुत लम्बे अर्से तक अर्से तक साथ साथ रहे. करीब 80 से 50 हज़ार साल पहले होमो सेपियंस अफ्रीका से बाहर निकला और यह सोचा जाता है कि अंत में आधुनिक मानव से हार कर निअंडरथाल मानव जाति करीब 30 हजार वर्ष पहले समाप्त हो गयी. यही वह समय है जब आधुनिक मानव में वाणी का विकास हुआ.

जिस विकास और परिवर्तन में लाखों साल लग जाते थे, वह आधुनिक मानव के आने के बाद तीव्र होने लगा और अब तो और भी तीव्र हो रहा है. 30 हजार साल पहले मानव को शब्द मिले, 4 हज़ार साल पहले मिस्र में पिरामिड बनने लगे और आज से करीब ढाई हजार साल पहले वेद लिखे गये. आज तो परिवर्तन को दशकों में गिना जाता है, कल सालों में फ़िर महीनो में गिना जायेगा. पर इस तीव्र परिवर्तन का यह अर्थ नहीं कि प्रकृति के विकास के नियम बदल गये हैं. वैज्ञनिकों के अनुसार आज से 70,000 हजार वर्ष पहले जब सुमात्रा द्वीप में माऊँट टोबा नाम के ज्वालामुखी का विस्फोट हुआ था तो एक हज़ार सालों तक पृथ्वी के आसपास धूल छाई रही थी और पृथ्वी बर्फ से ढक गयी थी, जिसमें अधिकतर मनाव और पशु मर गये थे. आज जब मानव के पर्यावरण पर पड़ते असर का सुनता हूँ कि सागरों के स्तर बढ़ रहे हें, प्रदूषण बढ़ रहा है, ऊँचे पर्वतों पर बर्फ पिघल रही है, तो यह सोचता हूँ कि जब प्रकृति करवट लेगी तो कौन बचेगा और कब तक!

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एनडीटीवी पर इस चिट्ठे की बात होने की बधाई के लिए आप सबको धन्यवाद. इतना प्रतिष्ठित चैनल हिंदी चिट्ठों की बात करे, यह तो अच्छा है, शायद चिट्ठा लिखने वालों की संख्या बढ़े.

रविवार, फ़रवरी 04, 2007

चीख

कल मैंने अपने तस्वीरों के चिट्ठे पर नोर्वे के सुप्रसिद्ध चित्रकार एडवर्ड मुँच की लंदन में हुई एक कला प्रदर्शनी की तस्वीर लगाई थी तो सोचा आज उनकी सबसे प्रसिद्ध तस्वीर चीख की बात करनी चाहिए. मुँच का जन्म हुआ 1863 में लोटन नाम के शहर में, जब वह एक वर्ष के थे तो उनका परिवार क्रिसतियाना शहर में, जिसका आधुनिक नाम है ओस्लो, वहाँ रहने आया. नवयुवक मुँच ने 1881 में नोर्वे के राजकीय कला विद्यालय में शिक्षा पाई और फ़िर पैरिस भी कला सीखने गये.

"चीख" नाम की कलाकृति उन्होंने 1893 में बनाई.





इस तस्वीर में सामने आकृति है कि अँडे जैसे सिर वाले व्यक्ति की जिसके चेहरे पर गहन पीड़ा है और जिसका मुँह अनंत चीत्कार में खुला है. यह व्यक्ति एक पुल पर चल रहा है. पुल के साथ समुद्र दिखता है जिसमें पीछे पानी का रंग पीला सा है जिसमें दो नावें दिखतीं हैं. पुल पर उस व्यक्ति के पीछे दो अन्य धूमिल आकृतियाँ हैं. उपर आकाश सुर्यास्त की लालिमा में रँगा है.

क्या कुछ देखा उस व्यक्ति ने जिसे उसे डरा दिया और वह चीखने लगा? कोई खून या दुर्घटना देखी उसने? जिस तरह से व्यक्ति ने अपने दोनो हाथ अपने चेहरे के दोनो ओर रखे हैं उससे लगता है कि यह चीख किसी बाहरी घटना को देख कर नहीं बल्कि अपने ही मन में उठ रहे विचारों का हाहाकार है. हालाँकि व्यक्ति के शरीर का केवल ऊपरी हिस्सा दिखता है पर उसकी रेखाएँ इस तरह से खिंचीं हैं कि उसमें गति दिखती है. यह तस्वीर आधुनिक जीवन के अकेलेपन, उदासी और त्रास को व्यक्त करती है.

"चीख" जल्दी ही बहुत प्रसिद्ध हो गयी और मुँच ने इसी चीख को कुछ फेर बदल कर तीन बार और बनाया पर कला विशेषज्ञ इस पहली "चीख" को सबसे बढ़िया मानते हैं. नार्वे में इस आकृति से प्रेरित खेल खिलौने बाज़ार में मिलते हैं.

मुँच नें इस चित्र के बारे में बताया कि "सँध्या का समय था, सूरज डूब रहा था, अचानक सारा आसमान लाल हो गया. मैं रुका, लगा कि शरीर में जान ही नहीं थी, ... खून था और अग्नि की लपलपाती लपटें सागर और शहर के ऊपर मँडरा रही थीं ... मैं डर कर काँपता हुआ वहाँ खड़ा रहा, और मुझे लगा कि जैसे सारी प्रकृति में एक चीख गूँज रही हो". यानि उनका कहना था कि यह चीख किसी व्यक्ति का हाहाकार नहीं, सारी प्रकृति का हाहाकार था.

शौधकर्ताओं ने बताया है कि इस चित्र को बनाने से दस वर्ष पहले, 1883 में इंडोनेसिया का कराकातोवा ज्वालामुखी फ़ूटा था और आसमान में धूल छाई थी तो ओस्लो में भी आकाश का रंग लाल कई दिनों तक लाल रहा था और शायद मुँच तब की बात कर रहे थे.

यह चित्र इसलिए भी प्रसिद्ध हुआ क्योंकि यह दो बार चोरी हो चुका है. पहले 1994 में जब नोर्वे में शीत ओलिम्पक खेल हो रहे थे तो यह चोरी हुआ और तीन महीने बाद मिला. फ़िर 2004 में इसे दिन दहाड़े ओस्लो कला संग्रहालय में दो मुँह ढके चोर बँदूक दिखा कर उठा ले गये. दो वर्ष के बाद इसके मिलने की कहानी भी बहुत अजीब है क्योंकि चोर को चाकलेट का लालच दे कर पकड़ा गया. पुलिस ने यह सुराग लगाया था कि इसका चोर चाकलेट का लालची है तो चाकलेट बनाने वाली कम्पनी एम एंड एम ने एलान किया कि जो इस तस्वीर का सुराग देगा उसे कई करोड़ रुपये की चाकलेट दी जायेगी.

कहते हैं कि चित्र के ऊपरी भाग में लाल रँग पर मुँच ने पैंसिल से छोटे अक्षरों में लिखा था "यह चित्र कोई पागल ही बना सकता था."

चित्र दुनिया में चाहे कितना ही प्रसिद्ध क्यों न हो, मुझे स्वयं अच्छा नहीं लगता. कुछ साल पहले ओस्लो के कला संग्रहालय में जब इसे देखा तो मन परेशान सा होने लगा. शायद यही इसकी प्रसिद्ध का कारण है कि यह हमें अपने अंतर्मन में छुपे अकेलेपन और उदासी के डर के सामने खड़ा कर देता है.

शनिवार, फ़रवरी 03, 2007

टेलीविज़न चैनलों की दुनिया

जहाँ तक भारत से समाचार मिलने और संचार साधनों की बात है उसमें 1980 के दशक के जीवन और आज की स्थिति में इतना अंतर आ चुका है कि सोचने पर विश्वास नहीं होता. यह बदलाव पहले तो धीरे धीरे शुरु हुआ. पहले टेलीग्राम के बदले में आया टेलेक्स और फ़िर फाक्स. आज क्या कोई टेलीग्राम का उपयोग करता है, मालूम नहीं, टेलेक्स अवश्य ही समाप्त हो गया. फाक्स आज भी जीवित है पर बूढ़े माँ बाप की तरह जिनके लिए बच्चों के पास समय नहीं होता.

शुरु में तो टेलीफोन करना भी कठिन था. काल बुक करा कर घँटों इंतज़ार में बैठे रहते और शायद आज के हिसाब से अधिक मँहगी भी थी. फ़िर 1994 में घर में पहला कंप्यूटर आया और साथ ही ईमेल और बुलेटिन बोर्ड वाले गुट जिसमें से भारत से सम्बंधी गुट खोजते रहते थे. कई सालों तक ईमेल से मिलने वाले अमरीका में रहने वाले भारतीयों के सौजन्य से मिलने वाले भारतीय समाचारों की डाईजेस्ट से ही पता चलता था कि भारत में क्या हुआ. आज कें अंतर्जाल और पिछले तीन चार वर्षों में चौड़े रास्ते यानि ब्रोडबैंड के आने से बदलाव में इतनी तेजी आई है कि सोचो तो विश्वास नहीं होता कि अभी कुछ साल पहले तक यह सब कुछ सम्भव नहीं था.

बस एक क्षेत्र में ही कुछ कठिनाईयाँ थीं, रेडियों सुनने और भारतीय टेलीविजन देखने के क्षेत्र में.

पिछले कुछ सालों से विदेशों में चलने वाले भारतीय रेडियो स्टेशनों की संख्या धीरे धीरे बढ़ रही है. लंदन से सनराईज रेडियो तथा बीबीसी की हिंदी सेवा, पेरिस से तीन ताल रेडियो और निंबूड़ा रेडियो, दुबाई से हम रेडियो. मुंबई से एक पूर्वरिकार्डिड कार्यक्रम देने वाले रेडियो भी है बोलीवुड ओन डिमांड पर भारत से अंतर्जाल पर सीधा प्रसारण करने वाले रेडियो नहीं हैं, शायद इसलिए कि भारतीय कानून इसकी अनुमति नहीं देता? आल इंडिया रेडियो का अंतर्जाल पृष्ठ बहुत सालों से यही संदेश देता है कि सीधा प्रसारण कुछ समय के लिए बंद है. अपने मन पसंद गाने चुन कर उन्हें अपनी मर्जी से सुनना भी बहुत आसान है.

वीडियो के मामले में कुछ पीछे थे पर 2006 में बहुत परिवर्तन आया है. स्मेशहिट, वाह इंडिया, सिफी मेक्स, जैसे पृष्ठों पर समाचारों, खाना बनाना, इधर उधर की गपबाजी, हिंदी सिनेमा जगत सम्बंधित बातें सब कुछ आप आराम से देख सकते हैं. राजश्री फिल्मस ने अंतर्जाल पर अपने फिल्में, गानों, महाभारत जैसे सीरियल आदि के कार्यक्रम इत्यादि देखने की सुविधा दी है. स्टार टीवी वालों ने भी अपना नया पृष्ठ बनाया जिसमें उनके कार्यक्रमों की छोटी सी झलक देख सकते हैं, पर यह इतना रुक रुक कर आता है कि मजा नहीं आता. बीडब्ल्यूसिनेमा जैसे पृष्ठ भी हैं जहाँ आप दो‍तीन डालर का टिकट खरीद कर नई हिंदी फिल्में देख सकते हैं.

बस एक भारतीय टेलीविजन देखने की कमी थी जिसके लिए इटली जैसे देश जहाँ भारतीय बहुत कम हैं सेटेलाईट का डिश एंटेना लगवा कर भी उतना आसान नहीं था. पर पिछले महीनों में इसमें भी परिवर्तन आने लगा है. दूरदर्शन समाचार वालों ने पहले शुरु किया था पर उसमें वीडियो अच्छा नहीं था और बहुत रुक रुक कर आता था. फिर जब से आबीएन और आईबीएन 7 अंतर्जाल पर आने लगे तो दूरदर्शन देखने की कोशिश करनी ही बंद कर दी.

अब आईदेसीटीवी नया जाल स्थल है जहाँ आप विभिन्न भारतीय टेलीविजन चैनलों को देख सकते हैं. थोड़े से भी लोग हों तो यह रुक रुक कर आता है, और शायद इसीलिए अभी मुफ्त है. यानि कि बस थोड़े ही समय की बात है, देश विदेश में दूर दूर तक सभी प्रवासी अब एकता कपूर के सास बहू के झगड़े देख सकेंगे, भूत प्रेतों की कहानियाँ समाचारों के रूप में सुनेगे, लालूजी, अडवानी जी जैसे महानुभावों की मधुर वाणी और ज्ञानी वचन सुन सकेंगे.

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हिंदी की मासिक पत्रिका हँस का जनवरी अंक कल मिला. इस बार सारा अंक ही समाचारों की टेलीविजन चैनलों की दुनिया पर है. अभी केवल राजेंद्र यादव का उत्तेजनीय संपादकीय ही पढ़ा है और देखा है कि विभिन्न टीवी चैनलों में काम करने वालों ने कहानियाँ लेख आदि लिखे हैं. उनमें से एक अविनाश का नाम ही जानता हूँ, पर उन सबको पढ़ने के लिए बहुत उत्सुक हूँ. नये लोग नया लिखे और शायद हिंदी लेखन में कुछ नया ला पायें!

हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में समाचार पत्रों और किताबों में लिखने वालों को, अँग्रेजी में लिखने वालों के सामने नीचा समझा जाता है पर शायद हिंदी टेलीविजन करने वालों को अधिक सम्मान मिलता है?

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यहाँ बरलुस्कोनी और उनकी पत्नी वेरोनिका के बारे में बहस सब टीवी चैनलों पर चल रही है. एक सर्वेक्षण में 55 प्रतिशत लोगों ने कहा कि वेरोनिका ने ठीक नहीं किया जबकि 33 प्रतिशत लोग, अधिकतर स्त्रियाँ, उनको ठीक मानती हैं. कुछ का कहना है कि वेरोनिका यह इसलिए किया क्योंकि बरलुस्कोनी जी का किसी के साथ चक्कर है और वह पत्नी को छोड़ने की सोच रहे थे. कुछ कहते हैं कि वेरोनिका राजनीति में भाग लेने वाली हैं. कुछ कहते हें कि यह तलाक की तैयारी हो रही है.

बरलुस्कोनी जी के लिए इस तरह की बातें नयी नहीं हैं. सत्तर वर्ष के हैं पर शल्य चिकित्सा से लिफ्टिंग करवा कर, सिर पर नये बाल लगवा कर जवान दिखते हैं. कुछ साल पहले नोर्वे की प्रधानमंत्री से इसी तरह की घुमाने फिराने की कुछ बात कर हल्ला मचवा दिया था. चुनाव से पहले उन्होंने कहा कि वह जीतने के लिए छह महीने तक ब्रह्मचर्य करके देश के लिए त्याग करेंगे पर उनके विरोधियों ने कहा कि यह तो सिर्फ बहाना था दुनिया को दिखाने के लिए कि वह इतने बूढ़े नहीं हैं. खैर जो भी हो, उनका पीछा करने वाले पत्रकारों ने समाचार दिया कि वह अपनी पत्नी के साथ रात का खाना खाते देखे गये और सारी शाम घर में ही रहे, यानि कि पति पत्नी झगड़ा अभी तो शाँत हो गया है.

गुरुवार, फ़रवरी 01, 2007

स्वाभिमान

कल सुबह इतालवी अखबार "ला रिपुब्लिका" पढ़ने वाले हैरान रह गये जब उन्होंने अखबार में पूर्व प्रधानमंत्री सिलवियो बरलुस्कोनी जी की धर्मपत्नी वेरोनिका का एक पत्र छपा देखा. बरलुस्कोनी जी इटली के सबसे धनवान लोगों में गिने जाते हैं, उनके अपने तीन टेलीविजन स्टेशन, कई रेडियो, अखबार, पत्रिकाएँ इत्यादि हैं. "ला रिपुब्लिका" अखबार बरलुस्कोनीजी के विरोधी दल की तरफ़ का अखबार है, इसलिए अचरज के दोनो कारण थे - ऐसा क्या हुआ कि श्रीमति वेरोनिका जी को आम अखबार में पत्र लिख कर कुछ कहना पड़ा और उसके लिए उन्होंने विपक्ष के अखबार ही को क्यों चुना?

वेरोनिका जी ने पत्र में लिखा थाः

संपादक जी, यह पत्र बहुत झिझक कर लिख पायी हूँ. अपने पति से मेरा 27 वर्ष का साथ है, जो कि पहले उद्योगपति थे और फ़िर बने राजनेतिक नेता. मैंने हमेशा यह सोचा है कि मेरा स्थान लोगों की दृष्टि से दूर परिवार के भीतर व्यक्तिगत स्तर पर है, इसी से परिवार को सुख शाँती मिल सकते हैं. ... यह पत्र इस लिए लिखना पड़ रहा क्योंकि टेलीगातो पुस्कार समारोह के बाद दिये गये समारोह में मेरे पति ने उस कार्यक्रम में
भाग लेने वाली युवतियों से कुछ इस तरह के बातें कीं जैसे ".. अगर मैं शादी शुदा न होता तो अवश्य तुमसे शादी कर लेता", "..तुम्हारे साथ तो में कहीं भी चलने को तैयार हूँ.." इत्यादि, जो मैं स्वीकार नहीं कर सकती. इस तरह की बातें मेरे आत्मसम्मान के विरुद्ध है और यह बातें मेरे पति की उम्र, पद, सामाजिक स्थान, पारिवारिक स्थिति (पहले विवाह से दो बच्चे और वेरोनिका जी के साथ तीन बच्चे, सभी व्यस्क हैं) देखते हुए भी नहीं स्वीकार की जा सकतीं. मैं अपने पति से और जन नेता से मैं सबके सामने अपनी गलती पर क्षमा माँगने के लिए कहती हूँ. मैंने अपने वैवाहिक जीवन में कुछ भी लड़ने झगड़ने का मौका कभी नहीं आने दिया, कुछ बात हो भी तो चुप रहना ही ठीक समझा... पर उनके इस तरह के व्यवहार पर अगर चुप रहूँगी तो अपना आत्मसम्मान खो बैठूँगी... मुझे अपनी बेटियों को वह उदाहरण देना है कि औरत का आत्मसम्मान महत्वपूर्ण है और अपनी मर्याद को बना कर रखना चाहिये. मुझे अपने बेटों को सिखाना है कि नारी का सम्मान का क्या महत्व है.





आज सुबह अखबारों में श्री सिलवियो बरलुस्कोनी ने सबके सामने पत्नी से क्षमा माँगी और लिखा कि वह अपनी पत्नी से बहुत प्यार करते हैं, उनका बहुत सम्मान करते हैं और उनके हँसी मज़ाक में पत्नी के आत्मसम्मान को ठेस पहुँचाने की कोई इच्छा नहीं थी.

हमारी भाषा कैसे बनी

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