शनिवार, मार्च 26, 2011

ताकत और विरोध

कुछ दिन पहले मैंने निवेदिता मेनन और आदित्य निगम की किताब, "ताकत और विरोध" (Nivedita Menon and Aditya Nigam, "Power and Contestation: India Since 1989", Halifax and Winnipeg: Fernwood Publishing; London and New York: Zed Books 2007) पढ़ी जो मुझे बहुत दिलचस्प लगी. निवेदिता जी दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र विभाग में रीडर हैं और फेमिनिस्ट विमर्ष में भी सक्रिय रही हैं, जबकि आदित्य जी दिल्ली के विकासशील समाजों के अध्ययन केन्द्र (Centre for studies of developing societies - CSDS) के संयुक्त निर्देशक हैं. यह किताब "आधुनिक विश्व इतिहास" शृँखला के अन्तर्गत छापी गयी है जिसका उद्देश्य है 1989 के शीत युग के अन्त के पश्चात बदलती हुई दुनिया के इतिहास को समझने की कोशिश करना.

Power and contestation by Nivedita Menon and Aditya Nigam
मेनन और निगम भारत के आधुनिक इतिहास के विमर्ष में उत्तर राष्ट्रीयवाद, नव वामपंथ और फेमिनिस्ट दृष्टिकोणों का उपयोग करते हैं.

निवेदता मेनन ने पहले भी अन्य जगह "फेमिनिस्म के संस्थाकरण" के बारे में अपने विचार रखे हैं. उनका कहना है कि पित्रकेन्द्रित समाज में चाहे स्त्रियों से जुड़ी कोई भी बात हो, बलात्कार या हिँसा या दहेज की, लैंगिक समता के लिए लड़ने वाले गुट अब केवल कानून बदलने की बात करने तक ही सीमित रह जाते हैं कुछ यह सोच कर कि कानून बदलने से अपने आप ही समाज बदल जायेगा. वह कहती हैं कि फैमिनिस्म और लैंगिक समता की बात सोचने वालों लोगों को फैमिनिस्ट विचार विमर्श के व्यक्तिगत सशक्तिकरण के पक्ष पर ज़ोर देना चाहिये.

"ताकत और विरोध" में मेनन और निगम बात करते हैं भारत के आर्थिक दृष्टि से विकसित, विकासशील और विकास की आकाँक्षा रखने वाले समाज की जिसने पिछले दो दशकों में उदारीकरण नीतियों से फायदा उठाया है, और जिसके बल पर राष्ट्र तथा आर्थिक ताकत में गुटबंदी बनी है. इस गुटबंदी का दो तरह के लोग विरोध कर रहे हैं. एक विरोधी वे हैं जो इस गटबंधन से बाहर हैं और इस गटबंधन का हिस्सा बनना चाहते हैं, उससे कमाना और लाभ पाना चाहते हैं, वह अपने बाहर होने से नाराज़ हैं. दूसरी ओर के विरोधी वे हैं जो इन नीतियों से सहमत नहीं और नीतियों में बदलाव चाहते हैं. यह आर्थिक विकास समाज के आधुनिकता निर्ञाण से जुड़ा है.

उनके विषलेशण में 1989 के पहले के भारत, विषेशकर साठ और सत्तर के दशक के भारत की बुनियाद थी "नेहरु सामंजस्य", जिसके वह तीन मुख्य स्तम्भ समझते हैं - (1) आत्मनिर्भर आर्थिक व्यवस्था जो देश के उद्योगीकरण से जुड़ी थी, (2) धर्म से पृथक राजनीतिक व्यवस्था और (3) किसी भी बड़ी ताकत से अलग स्वतंत्र विदेश नीतियाँ जो विषेशकर अमरीकी साम्राज्यवाद के विरुद्ध थीं. इस नेहरु सामंजस्य को इंदिरा गाधी के शासन काल में कमज़ोर किया गया. जबकि नब्बे के दशक में यह नेहरू सामंजस्य पूरी तरह से लुप्त हो गया तथा आधुनिकता और गणतंत्र में लड़ाई शुरु हुई.

वे आधुनिकता को कुछ विषेश मूल्यों के रूप में देखते हैं जैसे कि मानव अधिकार, धर्म निरपेक्षता, इत्यादि, जबकि गणतंत्र का सबसे महत्वपूर्ण मूल्य मानते हैं राजनीतिक ताकत के द्वारा अपनी आकाँक्षाओं की परिपूर्ती करना. उनका मानना है कि गणतंत्र और आधुनिकता की यह लड़ाई मँडल रिपोर्ट से खुल कर सामने आयी. इसकी वजह से अन्य पिछड़े गुटों को 27 प्रतिशत का रिर्जवेशन कोटा मिला, जिसकी वजह से उनकी ताकत बढ़ी और मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव जैसे नेता उभरे. इसकी वजह से साथ ही दलितों का भी शोषण बढ़ा और दलितों ने बीजेपी जैसे गुटों के साथ मिल कर उनके विरोध में संयुक्त पक्ष बनाया.

मंडल कमिशन की रिपोर्ट लागू होने से पहले, अन्य पिछड़े गुट भारत का 60 प्रतिशत जनसंख्या बनाते थे लेकिन उन्हें सरकारी और शिक्षण कार्यक्षेत्रों में केवल 4 प्रतिशत काम मिलता था, वह भी अधिकतर निचले दर्ज़े के काम मिलते थे. उँची जात वाले लोग भारत की जनसंख्या का 20 प्रतिशत हैं और दलित भी 20 प्रतिशत हैं, इसीलिए गणतंत्र में अपना हिस्सा पाने के लिए सवर्ण और दलित मिल कर भी लड़ रहे हैं. विभिन्न पक्षों की यह लड़ाई भारत को आधुनिकता से दूर खींचने वाली लड़ाई है.

दूसरी ओर, उनका कहना है कि पंचायती राज की संस्थाओं में औरतों के लिए सीटें रिर्ज़व करने से उँची जात वालों को अधिक फायदा हुआ है जिसकी वजह से अन्य पिछड़े दल और दलित इसके विरुद्ध हैं.

मेरे विचार में सामाजिक जीवन की सच्चाईयाँ शाश्वत नहीं, देखने वाले के दृष्टिकोण पर भी निर्भर करती हैं. समाज स्थिर भी नहीं रहता, समय के साथ बदलता रहता है. इसलिए यह तो नहीं कहूँगा कि निगम और मेनन की यह किताब कुछ बिल्कुल सच और नयी बात कहती है, लेकिन फ़िर भी इस किताब को बहुत दिलचस्पी से पढ़ा, और लेखकों के विशलेषण ने बहुत कुछ सोचने को दिया.

वैसे पिछले वर्ष के बिहार चुनावों के बारे में सोचा जाये तो मेरी दृष्टि में नितिश कुमार ने शायद "अन्य पिछड़े गुटों" के भीतर बसने वाले अन्य गुटों जैसे कि औरतों की आकाँक्षाओं पर ज़ोर दे कर, इस विमर्श में नयी जटिलता जोड़ दी है. आधुनिकता अगर आर्थिक विकास और वैश्वीकरण से प्रभावित हो रही है और दूसरी ओर, गणतंत्र में ताकत पाना आधुनिकता के मूल्यों को चुनौती दे रहा है, तो अंत में इसका गणतंत्र पर क्या प्रभाव पड़ेगा?

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शुक्रवार, मार्च 18, 2011

बीते दशक के सबसे प्रिय गीत

सुबह अचानक मन में आया कि जैसे जैसे उम्र बीतती हैं, दिन अधिक तेज़ी से गज़रने लगते हैं. लगता है कि अभी कल ही तो नव वर्ष के कार्ड भेजे थे, आज हवा में वँसत के ताज़े फ़ूलों की महक कल आने वाली गर्मी की असहनीय उमस का संदेशा दे रही है. फ़िर सोचा कि नये सहस्रयुग की पहली सदी का पहला दशक पूरा हो गया, पता ही नहीं चला. धर्मवीर भारती की कविता याद आती हैः

"दिन यूँ ही बीत गया
अँजुरी में भरा हुआ जल
जैसे रीत गया"

फ़िर सोचा कि समय के साथ तकनीकी कितनी जल्दी बदल रही है. कल की ही बात लगती है कि टेलेक्स, डोस (Dos) प्रयोग करने वाले कम्पयूटर, फाक्स, न्यूज़ग्रुप जैसी तकनीकें आयीं और चली भी गयीं. मेरे कुछ मित्र अब आईपेड का प्रयोग करते हैं पर मैं कोई चीज़, विषेशकर तकनीकी उपकरण, जल्दी नहीं बदलता.

लोग कहते हैं कि इन तकनीकों की वजह से लोग किताबें नहीं पढ़ते. मुझे नहीं लगता कि एक दिन कोई किताबें नहीं पढ़ेगा, मेरे विचार में लोग हमेशा किताबें पढ़ेंगे, फ़िल्मे देखेगे क्योंकि इनमें कहानियाँ हैं और मानव की कहानियाँ सुनने सुनाने की आदत तो आदिकाल से है. हाँ शायद कागज़ की किताब की जगह और सिनेमाहाल की जगह आईपेड या कुछ नया उपकरण ले लेगा.

फ़िल्मों की बात मन में आयी तो मन पंसद गीतों के बारे में सोचने लगा. इसी लिए लिस्ट बनाने की सोची कि पिछले दशक, यानि 2001 से 2010 के सबसे अच्छे संगीत वाली फ़िल्में कौन सी थीं? यानि वह फ़िल्में जिनमें केवल एक-दो याद रखने वाले गीत नहीं हों, बल्कि फ़िल्म का सारा संगीत मुझे पंसद होना चाहिये.

एक ज़माने में इस तरह की लिस्ट बनाते हुए यह याद करना असम्भव था कि दस साल पहले कौन सी फ़िल्में आयी थीं, पर आज गूगलदेव और विकिपीडिया देवी की मदद से हर साल की फ़िल्मों की लिस्ट खोजना आसान है. मेरी शर्त यह भी थी कि मेरी लिस्ट में शामिल होने के लिए फ़िल्म का संगीत इतना अच्छा होना चाहिये कि उस फ़िल्म का नाम सुनते ही उसके गीत अपने आप याद आ जायें, उन्हें खोजना न पड़े. तो प्रस्तुत है मेरी मन पसंद फ़िल्मों की लिस्ट जिनका संगीत मुझे सबसे अच्छा लगा.

Grafic by S Deepak on best Bollywood music 2001-2010

2001 में आयी फ़िल्मों में से कई फ़िल्मों का संगीत मुझे अच्छा लगा था जैसे कि - 'अशोका' (अनु मल्लिक), 'रहना है तेरे दिल में' (हेरिस जयराज) और 'ज़ुबैदा' (ए आर रहमान), लेकिन इतने साल बाद भी जिस फ़िल्म का संगीत दोबारा सुनने का मन करता है, वह है 'लगान' जिसमें संगीत था ए आर रहमान का. 'मितवा', 'राधा कैसे न जले', 'ओ पालनहारे' जैसे गीतों को याद करने के लिए कोई कठिनाई नहीं होती.

2002 में आयी फ़िल्मों में से मुझे संगीत अच्छा लगा था 'साथिया' (रहमान), 'देवदास' (इस्माईल दरबार), 'फ़िलहाल' (अनु मल्लिक), और 'लेजेंड आफ़ भगत सिंह' (रहमान) का. लेकिन जिस फ़िल्म का संगीत आज भी याद है वह थी 'सुर' जिसमें संगीत था एम एम करीम का. इस फ़िल्म से 'आ भी जा', 'खोया है तूने क्या ए दिल', 'क्या ढूँढ़ता है' और 'आवे मारिया', मुझे बहुत अच्छे लगे थे.

2003 में आयी फ़िल्मों से अच्छा संगीत वाली फ़िल्मों की सोचूँ तो 'कोई मिल गया', 'कल हो न हो', 'चलते चलते', 'झँकार बीटस' आदि के नाम याद आते हैं, लेकिन ऐसा कुछ नहीं जिसे आज सुनना चाहूँगा. इस साल की फ़िल्मों से 'जिस्म' में श्रेया घोषाल का गाया "जादू है नशा है" की याद है लेकिन इस फ़िल्म से भी कोई और गीत याद नहीं आता.

2004 में निकली फ़िल्मों से मुझे सबसे पहले 'मीनाक्षी', 'स्वदेश' और 'युवा' में रहमान का संगीत याद आता है. इन तीनो फ़िल्मों में कई गीत है जो मुझे अब भी सुनना अच्छा लगता है. उसके अतिरिक्त 'धूम' और 'लक्ष्य' का संगीत भी अच्छा लगा था, लेकिन अगर इस साल की एक फ़िल्म चुननी हो तो वह होगी 'चमेली' जिसमें संगीत था संदेश शाँदलिया का. इसका 'भागे रे मन' जितनी बार सुन लूँ, मन नहीं भरता.

2005 में प्रदर्शित होने वाली फ़िल्मों में इतनी फ़िल्में थीं जिनका संगीत मुझे अच्छा लगा था कि एक फ़िल्म को चुनना कठिन है. 'किसना' और 'वाटर' में रहमान का संगीत, 'पहेली' और 'रोग' में एम एम करीम का संगीत, 'परिणीता' में शाँतनु मोयत्रा का संगीत मुझे अच्छा लगा था. इसी साल हिमेश रेश्मैया ने 'आशिक बनाया आप ने' में धूम मचायी थी. 'बँटी और बबली' और 'दस' के गाने भी बढ़िया थे. बहुत सोच कर भी मैं इस साल की दो फ़िल्मों के बीच तय नहीं कर पा रहा कि मुझे सबसे अच्छी कौन सी फ़िल्म का संगीत लगा था, यह फ़िल्में थीं 'ब्लफ़ मास्टर' और 'मोर्निंग रागा'. 'ब्लफ़ मास्टर' में अभिशेख का गाया 'राईट हेयर राईट नाओ', 'से ना से ना शी डिट इट टू मी' जैसे गाने मुझे बहुत अच्छे लगे थे, जबकि 'मोर्निंग रागा' में मेरा परिचय हुआ था कर्नाटक संगीत से मिले जुले फ्यूजन संगीत से. इस फ़िल्म से 'थाये यशोधा', 'माटी' और शबाना आज़मी की गायी तान मुझे बहुत प्रिय है.

2006 में आयी फ़िल्मों में 'ओंकारा', 'कभी अलविदा न कहना', 'जानेमन' और 'रंग दे बँसती' का संगीत मुझे अच्छा लगा था. 'जानेमन' से अनु मल्लिक का 'अजनबी शहर है' सुन कर मुझे 1960 के दशक की शंकर जयकिशन की याद आती है. 'कभी अल्विदा न कहना' से शंकर एहसान लोय का 'मितवा' बहुत सुन्दर था. लेकिन इन में ऐसी कोई फ़िल्म नही़ जिसे मैं चुनना चाहूँगा.

2007 की फ़िल्मों में से मेरी प्रिय हैं प्रीतम की 'लाईफ़ इन ए मेट्रो' और 'जब वी मेट', और रहमान की 'गुरु'. 'नमस्ते लँडन' से हिमेश का 'मैं जहाँ रहूँ' बहुत अच्छा लगा था. 'तारे ज़मीन पर' का संगीत भी अच्छा लगा था. लेकिन इस साल सबसे पंसदीदा संगीत 'झूम बराबर झूम' फ़िल्म से था जिसमें संगीत था शंकर एहसान लोय का. तीन साल बाद भी इसके गाने मेरे आईपोड पर हैं.

2008 में एक बार फ़िर बहुत सी ए आर रहमान की फ़िल्मों का संगीत बहुत अच्छा था - 'गज़नी', 'जाने तू या जाने न' और 'जोधा अकबर'. इनके अतिरिक्त मुझे 'सिंग्ह इज़ किंग' और 'रेस' के गाने भी अच्छे लगे थे. पर साथ ही 'राक ओन' में शंकर एहसान लोय का संगीत बहुत अच्छा लगा था. इस साल की फ़िल्मों से सबसे पंसदीदा फ़िल्म एक फ़िल्म नहीं चुन पा रहा, 'जोधा अकबर' और 'राक आन' के बीच में फैसला नहीं कर पा रहा.

2009 में मुझे अच्छा संगीत लगा था 'लव आज कल', 'कुर्बान' और 'लंडन ड्रीमस' का, लेकिन इस साल दो फ़िल्मों का संगीत इतना अच्छा लगा कि दो साल के बाद भी, इन्हें अक्सर सुनता रहा हूँ - विशाल भारद्वाज की 'कमीने' और रहमान की 'दिल्ली 6', और इन दोनो के बीच से एक फ़िल्म को नहीं चुन पाता.

अंत में पिछले दशक के आखिरी साल 2010 में भी बहुत सी फ़िल्मों का संगीत मुझे अच्छा लगा जैसे 'खेलें हम जी जान से', 'स्ट्राईकर', 'राजनीति', 'वनस अपोन ए टाईम एइन मुम्बई', 'इश्किया', 'गुज़ारिश', 'बैंड बाजा बारात', आदि. इस साल से मेरा चुनाव है 'लम्हा' जिसमें मिथून का संगीत था. इस फ़िल्म से 'मदनों', 'साजना', 'रहमत खुदा' जैसे गाने मुझे लगता है कि कई साल बाद भी मुझे अच्छा लगते रहेंगे.

तो अगर मेरे पसंद की फ़िल्मों की लिस्ट बनायी जाये जिनका संगीत मुझे सबसे अच्छा लगा तो उसमें होंगी यह 11 फ़िल्में - लगान, सुर, चमेली, ब्लफ़ मास्टर, मार्निंग रागा, झूम बराबर झूम, जोधा अकबर, राक ओन, कमीने, दिल्ली 6 और लम्हा.

हम सब की पसंद भिन्न होती है, अगर आप से पूछा जाये कि आप को कौन सी फ़िल्म का संगीत सबसे अच्छा लगा तो आप क्या कहेंगे?

मुझे इन 11 में एक फ़िल्म चुननी हो तो मैं चुनूँगा, दिल्ली 6 को. अगर आप से पिछले दशक की एक फ़िल्म को चुनने का कहा जाये जिसका संगीत आप सबसे अच्छा लगा तो आप किस फ़िल्म को चुनेंगे?

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बुधवार, मार्च 16, 2011

देशभक्ती और भाषा

हिन्दी के भविष्य के बारे में चिन्ता भरी चर्चा हो रही हो, तो हम यह सवाल भी पूछ सकते हैं कि दुनिया की अन्य भाषाओं में भी क्या आज ऐसी ही चर्चाएँ हो रही हैं? और अगर हाँ तो वे क्या सोच रहे हैं, कर रहे हैं और उनसे क्या हम कुछ सीख सकते हैं. चूँकी मैं इटली में रहता हूँ, यूरोप में फ्राँसिसी, जर्मन आदि भाषाओं की इस तरह की चर्चा सुनने को मिलती हैं, लेकिन इस समय मैं केवल इतालवी भाषा में होने वाली चर्चा की करना चाहता हूँ.

इस वर्ष इटली के एक हो कर राष्ट्र बनने की 150वीं वर्षगाँठ मनायी जा रही है. इस बात पर इतने झगड़े हो रहे हैं कि सुन कर अचरज होता है. अचरज इसलिए कि बहस में लोग इटली की एकता के विरुद्ध टीवी और अखबारों में खुले आम बोलते हैं, लेकिन इस पर कोई "देशद्रोही" कह कर या "देश का अपमान किया" कह कर, कोई यह बात नहीं कर रहा कि इन्हें जेल होनी चाहिये या इन पर मुकदमा होना चाहिये. जैसे कि उत्तर पूर्वी इटली के राज्य आल्तो अदिजे (Alto Adige) के मेयर ने टीवी पर साफ़ कह दिया कि वह इटली की एकता के किसी समारोह में भाग नहीं लेंगे और न ही उन्हें इटली की एकता की कोई खुशी है. इसका कारण है कि इटली का यह हिस्सा प्रथम विश्वयुद्ध के पहले आस्ट्रिया का हिस्सा था और युद्ध में आस्ट्रिया की हार के बाद इटली से जोड़ दिया गया था. आज भी वहाँ के बहुत से लोग आपस में और घर में जर्मन भाषा बोलते हैं. हालाँकि यूरोपीय संघ बनने के बाद से इटली और आस्ट्रिया के बीच की सीमा का आज सामान्य जीवन में कुछ असर नहीं, पर पुराने घाव हैं जिन्हें वह खुले आम कहते हैं.

इटली की सरकार में "लेगा नोर्द" (Lega Nord) नाम की पार्टी भी है जिसके लोग सोचते हैं कि उत्तरी इटली के लोग, दक्षिणी इटली से भिन्न और ऊँचे स्तर के हैं. इनका पुराना नारा था कि "रोम के लोग सब चोर हैं और हम चोरों की सरकार को नहीं मानेगें". इस नारे को उन्होंने सरकार में शामिल होने के बाद, कुछ सालों के लिए स्थगित कर दिया है. यह पार्टी उत्तरी इटली को अलग देश बनाने की बात करती थी, पर सरकार में आने के बाद इनका राग थोड़ा सा बदल गया है. अब यह लोग अलग देश बनाने की बजाय बात करते हैं राज्यों के फेडरेलाइज़ेशन की, यानि देश के विभिन्न राज्यों को अपने निर्णय लेने की और अपनी नीतियाँ निर्धारित करने की स्वतंत्रता हो. देश की एकता की 150वीं वर्षगाँठ को इनमें से कुछ लोग शोक दिवस के रूप में देखते हैं, इसलिए इनमें से बहुत से लोग इस बात से भी सहमत नहीं कि इस वर्ष राष्ट्र एकता दिवस की 17 मार्च को विषेश राष्ट्रीय छुट्टी दी जाये.

"सारे देश में एक दिन की छुट्टी नहीं की जा सकती. उससे तो हमारी फैक्टरियों का, हमारे काम का बहुत नुक्सान होगा. वैसे ही मन्दी चल रही है, उस पर से एक दिन की एक्स्ट्रा छुट्टी, यह हम नहीं मान सकते", इस तरह की बातें करने वाले स्वयं सरकारी मंत्री भी थे. पहले सरकार ने घोषणा की कि 17 मार्च को पूरे देश में सरकारी छुट्टी होगी, पर जब सरकारी मंत्री ही इस छुट्टी के खिलाफ़ बोलने लगे तो सरकार ने कहा कि इस विषय पर मंत्री मीटिंग में बात की जायेगी. एक महीने तक बहस होती रही कि यह छुट्टी दी जाये या नहीं. आखिरकार छुट्टी को मान लिया गया, लेकिन साथ ही यह भी कहा गया कि अगर कोई इस दिन अपनी फैक्ट्री, दुकान या सुपरमार्किट खोले रखना चाहता है तो उन्हें इसकी छूट होगी.

इस पर कुछ अन्य पार्टियों ने और कामगार यूनियनों ने अभियान चलाया कि देश की एकता के विरुद्ध बोलने वालों को करारा जवाब दिया जाये और कई दिनों से कह रहे हैं कि 17 मार्च को हर घर की एक खिड़की पर इटली का राष्ट्रीय झँडा लगा होना चाहिये. मेरी एक मित्र बोली, "यह दुनिया इतनी बदल गयी है कि समझ में नहीं आता कि हमारी पहचान क्या है? मैं पुरानी कम्यूनिस्ट हूँ, हम लोग राष्ट्रवाद के विरुद्ध लड़ते थे, हम कहते थे केवल अपने देश की बात नहीं, बल्कि दुनिया में शाँति होनी चाहिये. तब राष्ट्रीय झँडा वह दकियानूसी लोग लगाते थे जो कहते थे कि हमारा देश सब अन्य देशों से ऊँचा है, हमारी संस्कृति सबसे अच्छी है, विदेशियों को देश से निकालो. आज वे दकियानूसी लोग देश का झँडा नहीं लगाना चाहते, और हम कम्यूनिस्ट हो कर देश का झँडा लगाने की बात रहे हैं."

इन चर्चाओं को सुन कर मुझे भारत में होने वाली कश्मीर या नागालैंड में स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस मनाया जाये या नहीं वाली चर्चाएँ याद आती हैं, हालाँकि भारत में इस तरह की बातों पर लोग बहुत गुस्सा हो जाते हैं, मरने मारने की बातें करने लगते हैं.

इस तरह की बहसों के साथ साथ, देश की भाषा के बारे में कुछ इस तरह की चर्चाएँ भी हो रही हैं जिसमे मुझे लगा कि शायद भारत में हिन्दी के बारे में होने वाली चर्चा से कुछ समानताएँ हैं.

इटली में हर क्षेत्र की अपनी स्थानीय बोली थी, लेकिन स्कूलों में केवल इतालवी भाषा में ही पढ़ायी होती है. पिछले कुछ सालों में वह लोग बढ़े हैं जो "हमें अपनी स्थानीय बोलियों पर गर्व है" की बात करते हैं. यह लोग इन स्थानीय भाषाओं में रेडियो प्रोग्राम करते हैं, नाटक, गीत समारोह आदि का आयोजन करते हैं, ब्लाग लिखते हैं. लेकिन युवा वर्ग को पुरानी स्थानीय बोलियों का उतना ज्ञान नहीं. धीरे धीरे स्थानीय बोलियाँ लुप्त हो रही हैं, युवा लोग घर में, और आपस में केवल इतालवी भाषा ही बोलते हैं.

दूसरी ओर पिछले दो दशकों में इटली में अंग्रेज़ी जानने बोलने की क्षमता पर भी बहुत सी बहसें हो रही हैं. नौकरी खोज रहे हों तो अंग्रेज़ी जानने से नौकरी मिलना अधिक आसान है. लेकिन भारत में हिन्दी की स्थिति से एक महत्वपूर्ण अंतर है. भारत में अच्छी नौकरी के लिए हिन्दी न भी आती हो तो कोई फर्क नहीं पड़ता जबकि यहाँ पर बिना अच्छी इतालवी भाषा जाने काम नहीं चल सकता. अब यहाँ अंग्रेज़ी पहली कक्षा से ही पढ़ायी जा रही है. कम्पयूटरों और तकनीकी विकास के साथ, इतालवी भाषा में अंगरेज़ी के शब्दों के आने से भी चिन्ता व्यक्त की जाती है कि हमारी भाषा बिगड़ रही है, इसका क्या होगा!

वामपंथी पार्टी के अखबार ल'उनिता (L'Unità) यानि "एकता" ने कुछ दिन पहले एक इतालवी चिट्ठाकारों की गोष्ठी आयोजित की जिसमें देश की एकता की बात की गयी कि देश का चिट्ठाजगत इस विषय में क्या सोचता है? एक जाने माने चिट्ठाकार लियोनार्दो (Leonardo) ने इस बारे में अपने चिट्ठे में लिखाः
"आज जितने लोग इतालवी भाषा में लिखते हैं, छापते हैं, इतिहास में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ. भाषा विषेशज्ञ रोना रोते हैं कि भाषा का स्तर खराब हो रहा है, और उनकी बात अपनी जगह पर ठीक भी है. लेकिन मात्रा की दृष्टि से देखा जाये तो इतालवी भाषा में पिछले एक वर्ष में इतना लिखा गया जितना इंटरनेट के आविष्कार के बाद के पहले पंद्रह सालों में नहीं लिखा गया था. आज इंटरनेट पर इतालवी भाषा के चिट्ठे, वेबपन्ने, चेट, नेटवर्क फ़ल फ़ूल रहे हैं, हर कोई लिखना चाहता है.

बहुतों ने इटली की एकता की 150वीं वर्षगाँठ पर भी लिखा है, चाहे यही लिखा हो कि वह देश की एकता नहीं मनाना चाहते, कि जीवन में और बहुत सी कठिनाइयाँ हैं नागरिकों की, वे लोग उनकी बात करना चाहते हैं, पर यह सब बातें इतालवी भाषा में लिख रहे हैं ...

अगर आज देश की एकता के लिए जान देने वाले लोग यहाँ आकर हमें देख सकते तो वे क्या सोचेंगे? वे हैरान होगें और खुश होंगे यह देख कर कि देश के उत्तर से ले कर दक्षिण तक कितने लोग इतालवी भाषा में लिख रहे हैं. उनके समय में यह देश विभिन्न बोलियों में बँटा था और उन्होंने निर्णय किया था कि देश को एक बनाने के लिए उसे एक भाषा देनी होगी. आज हम इस भाषा में कितना लिख रहे हैं, हर कोई किताब, कविता, चिट्ठा लिख रहा है, हम लिखते हुए थकते नहीं. इतालवी भाषा के विकिपीडिया में 7 लाख अस्सी हज़ार विषयों पर लेख हैं, इतने तो स्पेनी भाषा में भी नहीं जो कि बीस देशों में बोली जाती है. यह सच है इतालवी भाषा इन सालों में बहुत बिगड़ी है, पर जितनी जीवित आज है इतनी पहले कभी नहीं थी. आज हम सब इसी भाषा के गाने गाते हैं, इसी भाषा में फ़िल्म देखते हैं, इसी भाषा में चेट करते हैं, चिट्ठे लिखते हैं."
क्या इसका मतलब है कि भारत में इंटरनेट के फ़ैलने से हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं को बढ़ने का मौका मिलेगा? भारत में धीरे धीरे इंटरनेट का विस्तार हो रहा है, साथ ही हिन्दी, तमिल, तेलगू, मराठी, बँगाली आदि भाषाओं में लिखने का विस्तार भी हो रहा है. नयीं तकनीकें जो भारत में बन रही है, टेलीफ़ोन, कम्पयूटर, ईपेड आदि, इन सबको केवल पैसे वालों के लिए ही नहीं बल्कि जनता के बाज़ार में बिकना है तो हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं को जगह देनी ही होगी. हर कोई अपनी बात कहना चाहता है, पर अपने तरीके से. जब उस 90 प्रतिशत भारत को मौका मिलेगा अपनी बात कहने का तो वह हिन्दी में या अपनी भाषा में ही करेगा.

तकनीकी में, विज्ञान में, इतिहास और कला में, आज कहीं भी विश्वविद्यालय स्तर की शोध का काम अगर हिन्दी में किया जाये तो उसे वह सम्मान नहीं मिलता जो अंग्रेज़ी में किये जाने वाले काम को मिलता है. शायद इसलिए कि आज उस 90 प्रतिशत की आर्थिक ताकत कम है. लेकिन कल तकनीकी के विकास के साथ जब वह 90 प्रतिशत इन विषयों को समझना जानना चाहेगा, तो हिन्दी में यह काम बढ़ेगा, इसलिए नहीं कि कुछ लोग हिन्दी प्रेमी हैं, बल्कि इसलिए कि बाज़ार उसकी माँग कर रहा है.

Flags and languages - design by Sunil Deepak

जिन्हें हम भारत में "अंग्रेज़ी भाषी" कहते हैं, उनमें से बहुत सा हिस्सा बोलने लायक अंग्रेज़ी तो जानता है पर वह भारतीय अंग्रेज़ी है जिसे समझने के लिए विदेशियों को अनुवाद की आवश्यकता होती है. इस अध कच्ची अंग्रेज़ी का विकास किस ओर होगा? शुद्ध अंग्रेज़ी की ओर या अपनी भाषाओं की ओर? जब भारतीय भाषाओं का बाज़ार बढ़ेगा तो क्या यह भारतीय अंग्रेज़ी एक दिन उन्हीं में घुल मिल जायेगी?

शुक्रवार, मार्च 04, 2011

हाहाकार का नाम

"ख़ामोशी" फ़िल्म में गुलज़ार साहब का एक बहुत सुन्दर गीत था, "हमने देखी हैं उन आँखों की महकती खुशबु ... प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो". लेकिन अगर आँखों में प्यार नहीं हाहाकार हो तो क्या उसे नाम देने की कोशिश करना ठीक है?

कुछ दिन पहले घुघूती बासूती जी के चिट्ठे पर "बच्चा खोने के दर्द" में जमनीबाई की कहानी पढ़ते पढ़ते, अचानक मन में कुछ साल पहले की एक पार्टी की याद उभर आयी थी. मेरे साथ काम करने वाले मित्र के यहाँ थी वह पार्टी. वहीं मेरी मुलाकात एक अर्जेनटीनी युवक से हुई जो तब जेनेवा में रहता था. मैं तब कई महीने तक जेनेवा में रह कर वापस इटली लौटा था और हम लोग आपस में जेनेवा में रहने के अपने अनुभवों की बात कर रहे थे. क्या नाम था उसका यह याद नहीं, लेकिन क्या बात कही थी उसने, वह याद है.

खाना लगा तो हम दोनो साथ साथ ही बैठे और बातें करते रहे. खाना समाप्त हुआ तो हम दोनो वाईन का गिलास ले कर, बाहर बालकनी में आ खड़े हुए. मेरे मित्र का घर पहाड़ी पर है और बालकनी के नीचे बड़ा बाग है, जहाँ महमानों के बच्चे शोर मचाते हुए खेल रहे थे. पहाड़ी पर उतरती शाम के साये, हल्की सी ठँड, बहुत सुन्दर लग रहा था. यात्राओं की बात चल रही थी, तो उसने अपने पंद्रह बीस साल पहले के एक अनुभव के बारे में बताना शुरु किया जब वह बुओनुस आयरस के विश्वविद्यालय से एन्थ्रोपोलोजी में नयी स्नातक डिग्री ले कर निकला था और अपने विश्वविद्यालय के कुछ मित्रों के साथ मिल कर वहीं के एक छोटे से फोरेन्सिक एन्थ्रोपोलोजी में काम करने वाले एक छोटे से गुट में काम करने लगा था.

एन्रथ्रोपोलोजी यानि मानवविज्ञान में मानव जीवन, रहन सहन, रीति रिवाज़, सभ्यता जैसे विषयों को पढ़ा जाता है, जैसे कि लोग आदिवासी जातियों के बारे में यह सब बातें जानने की कोशिश करते हैं. "फोरेन्सिक एन्थ्रोपोलोजी" (Forensic anthropology) यानि "कानूनी मानवविज्ञान", हड्डियों और अन्य मानव अवषेशों की सहायता से उनके बारे में जानने की कोशिश करता है. यही काम था उस गुट का, सत्तर के दशक में अर्जेन्टीना में हुए तानाशाही शासन में गुम कर दिये गये लोगों की सामूहिक कब्रों से हड्डियाँ निकाल कर, यह समझने की कोशिश करना कि वह किसकी हड्डियाँ थीं और उन्हें उस व्यक्ति के परिवार को देना ताकि वह उसका ठीक से संस्कार कर सकें. कुछ ही सालों में यह गुट इस तरह के काम करने में इतना दक्ष हो गया था कि आसपास के देशों से भी उन्हें बुलावे आने लगे थे कि वहाँ जा कर सामुहिक कब्रों में रखे अवषेशों की पहचान में उनकी मदद करें.

इसी काम में उस युवक को ग्वाटेमाला जाने का मौका मिला था, जिस यात्रा की वह बात बता रहा था, "बड़ी सामुहिक कब्र थी, जिसमें उन्होंने सौ से भी अधिक बच्चे मार कर डाले थे. उनकी हड्डियों को जोड़ कर शवों को अलग अलग करके पहचानने की कोशिश करने का काम था. सभी बच्चे बारह साल से छोटी उम्र के थे. बच्चों की हड्डियाँ देखने लगे तो समझ में आया कि उन्हें किस तरह मारा गया था. शायद उनके पास गोलियाँ कम थीं या गोलियाँ मँहगी होती हैं और वह इतना खर्चा नहीं करना चाहते थे. तो वह लोग बच्चे का सिर चट्टान पर मार कर फोड़ते थे और फ़िर उसके शव को नीचे खड्डे में फैंक देते थे."

शायद वाईन का असर था या उस सुन्दर शाम का, मैं पहले तो स्तब्ध सुनता रहा, फ़िर मुझे रोना आ गया. मुझे रोता देख वह चुप हो गया.

बासूती जी की पोस्ट पढ़ी तो यह बात याद आ गयी. दुनिया में कितने बच्चों का दर्द जिनके माता पिताओं को गायब कर दिया गया, कितने माता पिताओं का दर्द, जिनके बच्चों को गायब कर दिया गया.

मैंने इंटरनेट पर फोरेन्सिक एन्थ्रोपोलोजी के उस अर्जेन्टीनी गुट के बारे में खोजा तो मालूम चला कि उसका नाम है एआफ यानि "एकीपो अर्जेन्टिनो दे एन्थ्रोपोलोजिया फोरेन्से" (Equipo Argentino de Antropología Forense, EAAF). उनके बारे में अधिक जानना चाहते हैं तो उनके वेबपृष्ठ पर पढ़ सकते हैं. इंटरनेट पर एआफ की सन 2007 की वार्षिक रिपोर्ट भी है जिसमें उनके काम के बारे में बहुत सी जानकारी मिलती है.

मुझे इस रिपोर्ट में उन देशों की लम्बी लिस्ट देख कर हैरत हुई, जहाँ एआफ को इस तरह सामूहिक कब्रों में हड्डियों की पहचान के लिए बुलाया गया है. यानि दुनिया के इतने सारे देशों में तानाशाहों ने, या तथाकथित जनतंत्रों में भी पुलिस या मिलेट्री ने कितने हज़ारों लोगों को मारा होगा! हड्डियों से पहचानना कि यह कौन सा व्यक्ति था, इस काम में अर्जेन्टीना का यह गुट "एआफ" दुनिया के सबसे अनुभवी गुटों में गिना जाता है और यह लोग एशिया, अफ्रीका और दक्षिण अमरीका के विभिन्न देशों में काम कर चुके हैं. कुछ वर्ष पहले उन्होंने दक्षिण अमरीकी क्राँतिकारी चे ग्वेवारा के अवषेशों से उनकी कब्र को पहचान कर बहुत प्रसिद्ध पायी थी. जब एआफ ने काम करना शुरु किया था तो डीएनए की जाँच करना संभव नहीं था लेकिन पिछले दशक में यह तकनीक बहुत आसान हो गयी है और पहचान में आसानी हो गयी है. अपने बच्चों या प्रियजनों को खोजने वालों से थोड़ा सा खून देने को कहा जाता है और उस खून के डीएनए को हड्डियों के डीएनए से मिलाया जाता है.

सब लोगों के शव नहीं मिलते. एक एक करके मारना खर्चीला होता है, कहते हैं कि अर्जेन्टीना में लोगों को मिलट्री वाले जहाज़ में बिठा कर ले जाते थे, और समुद्र के ऊपर सबको बाहर धक्का दे देते थे.

Monument to the dead, certosa cemetry, Bologna

सत्तर के दशक में अर्जेंन्टीना में करीब 9000 लोग "गुम" किये गये. पहले तो सालों तक उन लोगों की माएँ, नानियाँ, दादियाँ लड़ती रहीं यह जानने के लिए कि उनके बच्चों का क्या हुआ. जिन नवयुवकों और नवयुवतियों को "गुम" किया गया, कई बार उनके बच्चों को नहीं मारा गया, बल्कि, उनके माँ बाप को मारने वाले मिलेट्री वालों के कुछ परिवारों ने उन्हें अपने बच्चों की तरह पाला. आज भी, तीस चालिस सालों के बाद, उन्हीं परिवारों की नयी पीढ़ियाँ इसी लड़ाई में लगे हैं, या जानने के लिए कि उनके परिवार के लोगों का क्या हुआ. बहुतों के मन में आशा है कि शायद उनके खोये हुए बच्चों का पता मिल जाये. वह न भी मिले, परिवार वालों को अपने प्रियजन के मृत शरीर के अवषेश मिलना भी एक तरह की मानसिक शाँती है जिससे कि सालों की खोज और उससे जुड़ी आशा समाप्त हो जाती है.

हमारे रिश्ते, हमारे परिवार, हमारे बच्चे ही हमारे जीवन का सार हैं. उनके बिना जीवन भी अर्थहीन लगे. अगर अपना किसी दुर्घटना में मरे या मार दिया जाये, तो भी वेदना कम नहीं होती, लेकिन मन को समझ तो आ जाता है कि जाने वाला चला गया. जिन्होंने अपने खोये हैं, जो एक दिन घर से निकले फ़िर वापस नहीं आये, या जिन्हें पुलिस ले गयी पर उनका कुछ पता नहीं चले कि क्या हुआ, तो मन भटकता ही रहेगा, इसी आशा में शायद कहीं किसी तरह से बच गयें हों और एक दिन मिल जायें.

हड्डियों को नाम मिल जाने से, जिसे खोया था वह तो नहीं मिल सकता लेकिन उसे खोने का जो हाहाकार आँखों में बसा होता है, उसे एक नाम मिल जाता है.

***

बुधवार, मार्च 02, 2011

दुनिया का पाकिस्तानीकरण

कुछ समय पहले सूडान में एक जनमत हुआ जिसमें देश के दक्षिणी भाग में रहने वाले लोगों को चुनना था कि वह सूडान में रहना चाहेंगे या फ़िर अपना अलग देश चाहेंगे. इस जनमत का नतीजा निकला है कि 98 प्रतिशत से अधिक दक्षिणी सूडान के लोग अपने लिए अपना अलग देश चाहते हैं. अधिकतर लोगों ने इस जीत का स्वागत किया है, वह कहते हैं कि इससे लाखों लोगों की मृत्यु और वर्षों से चलते दंगों का अंत होगा. धर्म के नाम पर अलग देश चाहने वालों की जीत से मेरे मन में बहुत से प्रश्न उठे, जिनके उत्तर शायद आसान नहीं.

अफ्रीकी जीवन के विषेशज्ञ प्रोफेसर अली मज़रुयी का एक लेख पढ़ा जिसमें मुझे अपने प्रश्नों की प्रतिध्वनि दिखी. प्रोफेसर मरज़ुई ने इसे "दुनिया का बढ़ता हुआ पाकिस्तानीकरण" कहा है. उन्होंने लिखा हैः
यूरोपीय साम्राज्यवाद के बाद के अफ्रीका महाद्वीप में दो तरह की लड़ाईयाँ हुई हैं - आत्म पहचान की लड़ाईयाँ जैसे कि रुवान्डा में हुटू और टुटसी की लड़ाई, और प्राकृतिक सम्पदा की लड़ाई जैसे कि नीजर डेल्टा में पैट्रोल के लिए होने वाली लड़ाई... पर अफ्रीकी महाद्वीप में 2000 से अधिक जाति गुट बसते हैं, अगर उनमें से दस प्रतिशत को भी अपने लिए स्वतंत्र राज्य मिले तो अफ्रीका छोटे छोटे देशों में बँट जायेगा जिनमें आपस में युद्ध होंगे. ..अफ्रीका में होने वाले विभिन्न, अपना अलग राज्य पाने के प्रयासों के पीछे, अधिकतर जाति या नस्ल के प्रश्न रहे हैं, न कि धार्मिक प्रश्न. 1950 के दशक में क्वामे न्करुमाह जैसे अफ्रीका नेताओं ने "पाकिस्तानीकरण" के विरुद्ध, यानि धार्मिक बुनियादों पर अलग होने के विचार पर चिंता व्यक्त की थी. जब भारत का विभाजन हुआ था, कई अफ्रीकी राष्ट्रवादी नेता, ब्रिटिश भारत में हिंदू मस्लिम तनाव का कारण बता कर में भारत के विभाजन करने के विरुद्ध थे, क्योंकि जानते थे कि अफ्रीका में भी ऐसे कुछ देश थे, जहाँ इस तरह के निर्णय लिये जा सकते थे. जैसे कि नाईजीरिया जहाँ उत्तर में मुसलमानों का बहुमत है और दक्षिण में ईसाईयों का.

आखिर यह नीति सुडान तक पहुँच गयी है, ईसाई बहुमत वाला दक्षिणी भाग, उत्तरी मुस्लिम भाग से अलग हो जायेगा. दक्षिणी सूडानी कहते हैं कि उत्तरी सूडानी उनसे भेदभाव करते हैं... लेकिन दक्षिण सूडान भी अलग जाति गुटों से बना है. कल को वहाँ रहने वाली अल्पमत गुट कहने लगेगें कि डिंका लोग हमें समान अधिकार नहीं देते. पैट्रोल की सम्पदा को कैसे बाँटा जाये, भी जटिल प्रश्न होगा.
धर्म के नाम पर, या अन्य किसी जाति विभिन्नता के नाम पर अलग देश माँगना, एक ऐसा चक्कर है जो कहीं नहीं रुकता. पाकिस्तान अलग देश बना तो क्या उसके अपने बलूचियों, सिंधियों, पँजाबियों, पठानों के बीच के अंतर्विरोध मिट गये? भारत के उत्तर में कश्मीर की घाटी में इसी नाम से हिँसा आज भी जारी है. किसी भी देश के सब निवासियों को जाति, धर्म आदि के भेदों से ऊपर उठ कर विकास के समान अधिकार मिलें यह अवश्यक है, और उन्हें ऐसी सरकारें चाहियें जो यह नीति लागू कर सकें. पर जब ऐसा नहीं होता, या किसी गुट को लगे कि उसके साथ न्याय नहीं हो रहा, तो अलग अपना देश या राज्य माँगने लगते हैं. लेकिन मुझे लगता है कि अक्सर, बँटवारा चाहने वाले, समान विकास और अधिकारों के प्रश्न को महत्वपूर्ण नहीं मानते, अपनी जाति, मान, रीति और धर्म के प्रश्न उठा कर राष्ट्रवादी भावनाओं को भड़काते हैं और पीछे ध्येय होता है कि कैसा बाकी सब गुटों से ताकतवर बने और देश की सम्पदा को अपने काबू में रखें.

कुछ देशों में मुस्लिम बहुमत वाले इलाकों ने शरीयत पर आधारित काननों को सब पर लागू कराना चाहा है, वह ज़ोर डालते हैं कि सब लोग उनके कहे के अनुसार पहने, खायें, व्यवहार करें. इससे अलग होने की भावना तेज होती है. नाईजीरिया में इसी वजह से तनाव बढ़े हैं. भारत के कुछ हिस्सों में हिंदू संस्कृति या मुसलमान आत्मनिष्ठा के नाम पर लोगों पर इसी तरह के दबाव डालते हैं. यही वजह है कि जब सूडान के दक्षिण वाले लोगों के जनमत में अलग होने के निर्णय के बारे में सुना तो मुझे कुछ भय सा लगा कि इससे अलग होने वाले गुटों को बल मिलेगा.

आज की दुनिया की बहुत सी समस्याओं की जड़ें पिछली सदी के यूरोपीय साम्राज्यवाद में छुपी हैं. साम्राज्यवाद के समाप्त होने के बाद भी, यूरोप ने विभिन्न तरीकों से अफ्रीका, अमरीका और एशिया के देशों में अपने स्वार्थ के लिए तानाशाहों को सहारा दिया है, जिसमें देशों में रहने वाले विभिन्न गुटों को समान अधिकार नहीं मिले. आज जहाँ एक ओर विभिन्न अरब देशों में इजिप्ट, टुनिज़ि, लिबिया जैसे देशों में हो रहे जनतंत्र के आन्दोलन इस्लाम की नहीं, मानव अधिकारों के मूल्यों की आवाज़ उठा रहे हैं, वहीं जनतंत्र की दुहायी देने वाले यूरोपी नेता अपने तानाशाह मित्रों पर आये खतरे से घबरा कर "इस्लामी रूढ़िवाद" के डर की बात कर रहे हैं.

दूसरी ओर, यूरोप में रहने वाले अन्य देशों से आये प्रवासियों में रूढ़िवादी धार्मिक नेताओं की आवाज़, अपने मानव अधिकारों के नाम पर पारम्परिक रीति रिवाज़ों और मूल्यों को बनाये रहने की लिए ही उठती है. यही लोग अक्सर विदेशों से अपने देशों में रुढ़िवादी और देशों को बाँटने वाली ताकतों को पैसा भेजते हैं. वह यूरोप या अमरीका जैसे देशों में रह कर भी संस्कृति बचाने के नाम पर अपने परिवारों और गुटों पर पूरा काबू बना कर रखते हैं और आवश्यकता पड़ने पर मारने मरवाने से नहीं घबराते. उनमें नारी के समान अधिकारों या विकास की बात कम ही होती है. इस विषय यूरोप में रहने वाले मुसलमान नेताओं के बारे में फरवरी के "हँस" में शीबा जी ने लिखा हैः
कठमुल्ला वर्ग बड़ी बेशर्मी से फ्रांस के बुरक़ा बैन पर टीवी, अखबार आदि में अवतरित हो कर फ्रांस की सरकार को लोकताँत्रिक मूल्य याद दिलाने लगता है. तब इन्हें शर्म नहीं आती कि जिस मुँह से यह ज़बरदस्ती बुरक़ा उतारने को बुरा कह रहे हैं "चुनाव की आज़ादी" के आधार पर, उसी मुँह से इन्हें अरब ईरान आदि देशों में ज़बरदस्ती औरतों को बुरक़ा पहनाने की भर्त्सना भी तो करनी चाहिये जो उतना ही चुनाव के अधिकार का हनन है. लेकिन नहीं, इन्हें अरब ईरान पर उंगली उठाने की ज़रूरत महसूस नहीं होती क्योंकि वहाँ की ज़बरदस्ती इन्हें जायज़ लगती है.
पर यह बात केवल मुसलमान गुटों की नहीं है. अमरीका में रहने वाले कट्टरपंथी यहूदी गुट एक अन्य उदाहरण है जिनका ईज़राईल पर गहरा प्रभाव है.

धार्मिक रूढ़िवाद और परम्परा बनाये रखने वालों की लड़ाई है कि अपने आप को कैसे अन्य गुटों से अलग किया जाये, दुनिया को कैसे बाँटा जाये, कैसे अपने धर्म का झँडा सबसे ऊँचा किया जाये और कैसे अन्य सब धर्मों को नीचा किया जाये. उदारवाद और मानव अधिकारों की दृष्टि से देखें तो धर्म व्यक्तिगत मामला है, कानून के लिए सभी समान होने चाहिये, सबको समान अधिकार और मौके मिलने चाहिये. समय के साथ इन दोनों में से किसका पलड़ा भारी होगा, कौन से रास्ते पर जायेगी मानवता?

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हमारी भाषा कैसे बनी

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