रविवार, मई 14, 2006
भूख
आज देखा उसकी फिल्म १९९२ में बनी "राहत की आस में" (Waiting for a repreive) को. फिल्म मध्यप्रदेश के सतरा और रीवा जिलों में होने वाली बिमारी लैथरिसम के बारे में है. इस बीमारी का कारण है केसरी दाल जो इन जिलों में बोयी जाती है क्योंकि रूखी बँजर जमीन पर भी, थोड़े से पानी के साथ इसकी फसल उग जाती है. जहाँ अक्सर आकाल या सूखा पड़ता हो, वहाँ ऐसी फसल के बल पर ही गरीब लोग जी पाते हैं. अगर खाने में केसरी दाल की मात्रा बढ़ जाये तो खानेवालों की टाँगें अकड़ जाती हैं, धीरे धीरे बीमारी से प्रभावित लोग सीधे खड़े नहीं हो पाते और बिना डँडे के सहारे के चल नहीं सकते. और बढ़ जाये तो व्यक्ति सिर्फ घिसट घिसट कर चल सकता है.
बीमारी से बचने के तरीके हैं कि इस दाल को कम खाया जाये और अगर खानी ही पड़े तो उसे गर्म पानी में डुबो कर रखें ताकि उसका जहर निकल जाये. पर भूख से मारे लोगों के लिए दोनो बातें ही कठिन हैं. फिल्म के अंत में एक दृष्य है जिसमें एक स्त्री बैठी है, कातर स्वर में कहती है, "क्या करें, बच्चे भूख से बिलख रहे हों तो ? कभी दिन में एक बार ही खाने को मिलता है, कभी वह भी नहीं."
यह बीमारी सिर्फ भारत में ही नहीं होती. मध्य अफ्रीका के कई देशों में यह बीमारी मनिओक्का की जड़ खाने से भी होती है और उसे कहते हैं कोनज़ो. अप्रैल में जब मोज़ाम्बीक गया था वहाँ भी गाँव के लोगों ने यही उत्तर दिया था. भूख लगी हो तो कौन इंतजार करे कि दो दिन तक जड़ को पानी में डाल कर रखे ? "आज भूख से मरने से अच्छा है कि कल बीमारी से मरें." अगर बहुत अधिक खा लो जहरीली जड़ को तो लोग पेट दर्द और दस्त के साथ तड़प तड़प कर मरते हैं पर भूख के मारे खुद को रोक नहीं पाते.
एक बार ऐसी ही बात सुनी थी दक्षिण अफ्रीकी देश अँगोला में. "सुबह उठो तो पहली बात मन में आती है, आज क्या खायेंगे ? खायेंगे या नहीं ?"
ऐसी भूख क्या होती है, नहीं जानता. सोच कर ही डर सा लगता है.
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आज की तस्वीरें मोज़ाम्बीक यात्रा से.
शुक्रवार, मई 12, 2006
काने काका
दवा का नाम है "अंतकाल". सोचिये कि आप केमिस्ट की दुकान पर जाते हैं और माँगते हैं, "भाई एक पत्ता अंतकाल का दे दो". यह कैसा बेतुका नाम हुआ, सोचा. यह तो अच्छा है कि मैं वहमी या अंधविश्वासी नहीं, वरना तो इसे ऊपरवाले की चेतावनी देने का तरीका सोचता. इस दवा का काम है रक्त में केल्शियम के अणुओं का विरोध करे और उस तरह से "एन्टी केल्शियम" का सोच कर नाम अँग्रेजी में "एन्टकेल" ठीक ही बनता है, फर्क आता है इतालवी भाषा के उच्चारण से, जो उसे "अंतकाल " बना देता है.
बस यहाँ से सोचना शुरु हुआ तो सोचने लगा और कौन से शब्द हैं जिनका इतालवी में कुछ अर्थ बनता है और हिंदी में कुछ और.
इस शब्दयात्रा का प्रारम्भ करते हैं, मेरे बचपन के प्रिय मित्र राहुल से, जिसका घर का नाम था काका. और लोगों के लिए चाहे वो राहुल हो या कुछ और, मेरे लिए तो वह काका था. इटली में आ कर जब भी मैं अपने मित्र काके की कोई बात करता तो लोग मुझे अजीब सा देखते. फ़िर पत्नी ने समझाया किसी को काका बुलाना ठीक नहीं, जब उसका नाम राहुल है तो तुम उसे राहुल ही बुलाओ. काका इतालवी में पाखाने को कहते हैं.
इस शब्द यात्रा का दूसरा शब्द है, "कमीना". यहाँ आ कर कई बार लोगों को एक दूसरे को कमीना कहते सुना तो थोड़ा सा अचरज हुआ. कमीना शब्द बनता है संज्ञा "कम्मीनारे" से जिसका अर्थ है चलना. मैं कमिनो, तुम कमीनी, हम कम्मिनाआमो, वह कमीना, तुम सब कमीनाते, वे सब कम्मीनानो. किसी को चलने के लिए कहना हो तो बोलिए, कमीना.
इस यात्रा का तीसरा शब्द है काने, यानि कुत्ता. यह तो आप की मर्जी है कि आप अपने आप को काने कहलाना पसंद करेंगे या कुत्ता ?
मेरे दफ्तर में मेरे साथ काम करती थीं, श्रीमति मारा. मारा शब्द बनता है "मारे" से, यानि समुद्र और "मारा" का अर्थ हुआ समुद्र+कन्या. मैं मारा से कई बार कहता, "मारा तुझे किसने मारा ?", वह नाराज हो जाती, कहती, जाने कौन सी भाषा में मुझे गाली देता है!
यह बात नहीं कि ऐसे शब्दों के अर्थ केवल बुरे ही होते हैं. एक अच्छा शब्द है काँता जिसका इतालवी में अर्थ है "गीत गाना".
और आज की तस्वीरें हैं जलपक्षियों की - बतख और लाल इबिस
अंत में एक समाचार कल्पना के बारे में. लाल्टू जी के सौजन्य से अब कल्पना पर हिंदी दैनिक जनसत्ता के संपादक ओम थानवी के कुछ लेख उपलब्ध हैं.
गुरुवार, मई 11, 2006
प्रेरणा गीत
लाउरा का कहना है कि हमारे कानों के भीतर स्वर और शरीर तालमेल का अंग (कोकलिया) साथ साथ बने हैं. शरीर के बहुत से हिस्सों में ठीक से काम न कर पाने की वजह इन्हीं दोनो अंगों के तालमेल के बिगड़ना है. इसलिए उनके इलाज में कानों की ध्वनि का विभिन्न स्वर स्तरों का मापकरण और उसके हिसाब से सँगीत उपचार का विषेश रुप है.
बाद में लाउरा से बात करने का मौका भी मिला, तो इस बातों पर अन्य कुछ जानकारी भी उसने दी.
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फ़िर सोच रहा था सँगीत के बारे में और कैसे वह हमारे सारे जीवन में मिल जाता है. उत्तरी भारत में पैदा हो कर हिंदी फिल्मी सँगीत से आप का अनजान रहना हो ही नहीं सकता. आप अपने घर में रेडियो या टेलीविजन न भी रखें, आप के पड़ोसी या कोई भी उत्सव बिना इस सँगीत के पूरे नहीं होते. मुझे लगता है कि लता मँगेश्कर जी जैसे गायकों के गानों से बचपन से ही अपना सँगीत उपचार प्रारम्भ हो जाता है जिसे मुझ जैसे प्रवासी हर कठिनाई के क्षण में खोजते हैं!
लता जी के बहुत से गाने मुझे बहुत प्रिय हैं, विषेशकर एक गीत जिससे मुझे कठिनाई के क्षण में लड़ने की प्रेरणा मिलती है. गीत कौन सी फिल्म से है, यह मुझे ठीक से याद नहीं (इसमे शायद ईस्वामी की सहायता मिलगी, यह गीत जया भादुड़ी पर फिल्माया गया था और उनके साथ थे अनिल धवन) और गीत हैः
रातों के साये घने, जब बोझ दिल पर बने
न तो जले बाती, न हो कोई साथी
फिर भी न डर, अगर बुझे दिये
सहर तो है तेरे लिए
जब भी कभी मुझे कोई जो गम घेरें
लगता हैं होंगे नहीं, सपने ये पूरे मेरे
कहता है दिल मुझको, सहना है गम तुझको
फिर भी न डर, अगर बुझे दिए
सहर तो है तेरे लिए
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आज की तस्वीरों में हैं घोड़े
मंगलवार, मई 09, 2006
बेला महका रे महका
सुबह से बारिश आ रही थी. जब काम से निकला तो कुछ थम गयी लगती थी. सोचा कि घर जाने से पहले सुपर मार्किट जा कर कुछ सामान खरीदा जाये क्योकि फ्रिज में खाने के सामान की कमी हो रही थी. श्रीमति जी जाने से पहले जो विभिन्न पकवान बना कर छोड़ गयीं थी वे भी समाप्त होने को आ रहे थे. गाड़ी पार्किंग में लगायी और सुपर मार्किट जाने के लिए पेड़ों के बीच में से जा रहे एक रास्ते पर था तो देखा पेड़ की एक डाल पानी के जोर से कुछ नीचे सी आ गयी थी. उसे हटाने के लिए हाथ बढ़ाया तो ठिठक कर रुक गया. डाल पर लगे सफेद फ़ूलों से तेज खुशबू आ रही थी.
कभी कभी ऐसा होता है कि एक गँध से अचानक ढ़ेर सारी यादें अचानक बादलों की तरह घुमड़ कर छा जाती हैं. उन फ़ूलों की खुशबू से कुछ ऐसा ही हुआ. लगा राजेंद्र नगर के अपने उस घर में खड़ा हूँ जहाँ कोने में बेला और रात की रानी के पेड़ लगे थे. गर्मियों में रात में उनके पास चारपाई लगा कर सोने पर उनकी मनमोहक खुशबू चारों तरफ छा जाती थी. फ़िर मन में छवि उभरी हैदराबाद की, जब करीब पाँच बरस का था और पापा माँ के जूड़े में बेला के फ़ूलों की लड़ी बाँध रहे थे.
पल में ही सारी थकान दूर हो गयी. तब से गुनगुना रहा हूँ
मन क्यों बहका रे बहका आधी रात को
बेला महका रे महका आधी रात को
शनिवार, मई 06, 2006
प्राचीन सभ्यता के बदलते हुए रँग
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अधिकतर औरतें पूरे हाथों और नीचे तक पैर ढ़कने वाली पोशाकें पहनती हैं और सिर पर स्कार्फ बँधा रहता है. उनके साथ के पुरुष तो सब आधी बाँहों वाली कमीजें पहने थे. हालाँकि चेहरा ढ़कने वाला बुरका पहनने वाली औरतें अधिक नहीं दिखीं पर इस तरह से शरीर को छुपाने वाली औरतों को देख कर मन में कुछ घबराहट सी होती है. शायद कुवैत और दुबाई जैसी जगह रहने वालों को इसकी आदत सी हो जाती होगी.
बचपन में कई साल तक पुरानी दिल्ली की ईदगाह के सामने रहते थे जहाँ बुरके वाली औरतों को देखना आम था और उनमें से कई को जानता था. तब परदे के पीछे शरीर छुपाना अजीब नहीं लगता था और मेरे महबूब, चौदह्वीं का चाँद और पाकीजा जैसी फिल्में रोमांटक लगती थीं पर इतने साल इटली में रहने से शरीर को खुला देखना स्वाभाविक लगने लगा है और बुरका पहने या शरीर ढ़की औरतें अज़ीब सी लगती हैं.
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कुछ समय पहले सुना था कि उसकी शादी होने वाली है, पूछा तो बोली कि उसने वह रिश्ता तोड़ दिया. बोली कि इस्लाम औरतों को यह हक देता है कि अगर वह न करदें तो उनकी जबरदस्ती शादी नहीं हो सकती. जिस लड़के से रिश्ता हुआ था उसे कोलिज के दिनों से जानती थी और वह उससे प्यार भी करता था पर जेहान को उससे प्यार नहीं था और न ही उनके विचार मिलते थे, इसीलिए उसने वह रिश्ता तोड़ दिया था. फिर बात अंतरजातीय विवाह की हुई तो जेहान ने बताया कि मिस्र में मुसलमान लड़के ईसाई और यहूदी लड़कियों से विवाह कर सकते हैं पर मुसलमान लड़कियाँ अपने धर्म से बाहर विवाह नहीं कर सकतीं, उनके लिए सिविल मेरिज भी नहीं है. मेरा विचार था कि स्त्री को पुरुष से हर बात में बराबर मानने वाली जेहान को यह बात ठीक नहीं लगेगी पर वह बोली कि वह इस बात से सहमत है और अगर वह विवाह करेगी तो किसी मुसलमान लड़के से ही.
पर अगर किसी दूसरे धर्म के लड़के से प्यार हो जाये तो, मैंने पूछा तो वह बोली, उसे भी मुसलमान बनना पड़ेगा, वह भी सिर्फ कहने के लिए नहीं, सचमुच में.
अकेली गाड़ी चलाती है, रात देर तक मेरे साथ घूम सकती है, न सिर ढ़कती है न परदा करती है, पर साथ ही साथ इस तरह सोचती है, यह मुझे कुछ अजीब सा लगा. उससे कहा तो वह हँसने लगी. बोली, "मैं आधुनिक लड़की हूँ पर मुझे इस्लाम बहुत अच्छा लगता है, और मैं जानती हूँ कि मुझे अपना साथी अपने जैसे विचारों वाला लड़का ही चाहिए, और वह मुसलमान हो, तो इसें गलत क्या है ? हाँ यह अवश्य है कि इस तरह के लड़के मिलना आसान नहीं, अधिकतर पुरुष घर में रहने वाली औरत चाहते हैं जो पति की सेवा करे, बाहर काम न करे और पति से ज्यादा न पढ़ी लिखी हो. पर अगर मुझे मेरी पसंद का पुरुष नहीं मिलेगा तो मैं शादी नहीं करुँगी."
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वह बोली, "यहाँ तो बहुत सुंदर तरीके से फैशन वाले रुमाल बाँधते है, मुझे भी सीखना है और यह रुमाल खरीदने हैं. हमारे यहाँ तो सिर को ढ़कना सब औरतों के लिए आवश्यक है, चाहे वह मुसलमान हों या किसी और धर्म की. हम भी कोशिश करते हैं कि यह नियम मान कर भी अपनी मन के आकाक्षाएँ पूरी कर सकें इसलिए बहुत सी इरानी युवतियाँ आजकल छोटे छोटे रुमाल बाँधती हैं जिससे उनके बाल बाहर दिखते हैं और हालाँकि हमें मेकअप और श्रृंगार करना मना है पर युवतियाँ पूरा मेकअप करती हैं. एक चेहरा ही तो दिखा सकते हैं, कम से कम उसे तो मेकअप के साथ सुंदर बना कर दिखाएँ". मेरी मिस्री मित्र जो बिना सर ढ़के बाहर नहीं जातीं बोलीं, "मैं सिर ढ़कती हूँ क्योंकि मुझे अच्छा लगता है पर ऐसा करने की जबरदस्ती हो, यह तो बहुत गलत बात है."
हमारे एक इरानी साथी ने जब भोज में वाईन माँगी तो मैंने उनसे पूछा कि क्या इरान में वाईन मिलती है. वह बोले कि गाँवों में करीब ५० प्रतिशत पुरुष और थोड़ी सी महिलाएँ भी वाईन पीती हैं, पर वे घर में बनाते हैं, बाज़ार में नहीं मिलती.
पश्चमी देशों में मध्यपूर्व के अरब देशों की और मुसलमानों की जो तस्वीर दिखायी जाती है उसके सामने वहाँ के लोगों के विभिन्न विचार सुन कर लगा कि वह तस्वीर एक तरफा है और लोगों के विचारों की जटिलता से दूर है.
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अगर पूरी डायरी पढ़ना चाहते हैं तो मेरे वेब पृष्ठ कल्पना पर पढ़ सकते हैं.
शुक्रवार, अप्रैल 28, 2006
पैर तुम्हारे, आलूबुखारे
चित्रों पर आधारित भाषाओं में अक्षर नहीं होते, शब्द होते हैं. जब कोई नया शब्द आये तो आप को सबसे पहले उससे मिलते जुलते ध्वनी वाले शब्द खोजने पड़ते हैं जिनको मिला कर आप वह नया शब्द बना सकते हैं. मेरे नाम को ही लीजिए, सुनील. मंदारिन में लिखने के लिए मैं इससे मिलते जुलते शब्द खोजने लगा तो मुझे मिलेः
1. "ज़ू" यानि पैर - शब्दचित्र को ध्यान से देखिए, थोड़ी सी कल्पना से देखें तो इसमें आप को आदमी का सिर, हाथ और नीचे, लम्बा पैर दिखाई देगा.
2. "नि" यानि तुम, तुम्हारे - इसके शब्दचित्र में एक व्यक्ति खड़ा है तराजू के सामने जिस पर बैठा है एक और व्यक्ति
3. "लि" यानि आलूबुखारे का पेड़ + यह शब्दचित्र दो निशानों को मिला कर बना है, ऊपर है पेड़ का निशान और नीचे है बच्चे का निशान, यानि वह पेड़ जो बच्चों को पसंद है, यानि आलूबुखारा
और सबको मिला कर पढ़ियेः ज़ूनिलि यानि सुनील
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एक बार चीनी में अपना नाम लिखने लगा तो सोचा क्यों न यही काम मिस्र (Egypt) की पुरानी चित्रों पर आधारित भाषा (hieroglyphs) में भी किया जाये. मिस्र की यह भाषा पुराने पिरामिडों के साथ जुड़ी हुई है. इसमें वस्तुओं के चित्र किसी वस्तु की बात भी कर सकते हैं और उससे जुड़े विचारों की भी.
पहले प्रस्तुत है "देस" यानि चाकू. चित्र देख कर अर्थ पहचानने में कोई कठिनाई नहीं होती.
अब बारी है "परवेर" की, यानि कि पूजा स्थल या छोटा मंदिर, यह भी आसानी से पहचाना जाता है.
यह है "आ" यानि द्वार, इसे पहचानने में थोड़ी कठिनाई हो सकती है पर सोचिये कि एक दरवाजा जमीन पर रखा है तो पहचाना जायेगा. इसका स्वर और अर्थ हिंदी से मिलते हैं.
अंत में देखिये "का" यानि गुस्से में भरा बैल, नंदी. "का" को शाँत खड़े बैल से भी बनाया जा सकता है पर मुझे गुस्से से सिर मारता बैल अधिक अच्छा लगा.
मिस्र की भाषा लिखने वालों ने चीनी भाषा की कठिनाई से निकलने का तरीका भी ढ़ूँढ लिया था. अगर चित्रों को एक वर्गाकार रेखा की परिधी में बंद कर देगें तो हर शब्द का पहला स्वर अक्षर का काम करेगा. यानि ऊपर लिखे चित्रशब्दों को मिला दें और डिब्बे में बंद कर दें तो बनेगा "दपाक". दीपक ठीक से नहीं बना पाया, क्योंकि मेरा मिस्र की भाषा का ज्ञान कमजोर है!
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कल सुबह मुझे मिस्र की राजधानी कैरो जाना है इसलिए कुछ दिनों के लिए चिट्ठा लिखने से छुट्टी.
गुरुवार, अप्रैल 27, 2006
पीली पीली सरसों
खैर आसपास कोई नहीं था, सिर्फ अपना कुकुर मित्र ब्रान्दो था, जिसने मेरी आवाज़ सुन कर चौंक कर मेरी ओर देखा. पर उसे भी मालूम है मेरी यह पुराने हिंदी फिल्मों के गाने की बीमारी. कुछ भी मौका हो, कोई न कोई गीत ध्यान में आ ही जाता है.
आखिरकार बसंत आ ही गया. केलेंडर के हिसाब से बसंत 1 मार्च को आता है (इतालवी केलेंडर में दिसंबर से फरवरी तक शीत ऋतु होती है, मार्च से मई तक बसंत, जून से अगस्त तक ग्रीष्म और सितंबर से नवंबर तक पतझड़ ऋतु) पर 21 अप्रैल को जब ओस्तूनी जाने के लिए बोलोनिया से चला था तो ठँड थी और बाग में फ़ूल नहीं दिख रहे थे. बीच में कुछ दिन कुछ गरमी सी आयी थी तो तुरंत चैरी की पेड़ पर सफ़ेद फ़ूल निकल आये थे. तीन-चार दिन में जब ठँड वापस आयी तो बेचारे चैरी के फ़ठल भी शरमा कर कहीं छिप गये थे. पर 23 को ओस्तूनी से वापस आया तो रास्ते में ही गरमी लगने लगी थी और शाम को बाग में गया तो चारों ओर फ़ूल खिले थे.
हमारे बाग का एक हिस्सा वृद्ध लोगों के खेतों के लिए सुरक्षित है. जो भी वृद्ध चाहे थोड़े से पैसे दे कर 5 मीटर x 5 मीटर का प्लाट ले सकता है अपनी सब्जियाँ उगाने के लिए. इससे उनका अकेलापन घटता है, अच्छा मौसम हो तो एक साथ मिल कर सुबह शाम "खेतों" में बिताते हैं. मुझे लगता है कि धरती को छू कर पेड़ पौधों के साथ काम करने मानसिक स्वास्थ्य बढ़ता है. खेतों के पास ही उन्होंने अपना छोटा सा घर बनाया है जहाँ वे लोग गरमियों में कुछ पकाते खाते हैं, संगीत चलता है. देख कर लगता है मानो मेला लगा हो, और बाहर खुली हवा में बैठ कर बोलोनया के तली हुई भारतीय पूरी जैसी रोटी (यहाँ की भाषा में प्यादीना) और लाल वाईन खाने पीने में बहुत आनंद आता है.
पिछले वर्ष एक रात कुछ लोगों ने रात को वृद्धों के इस घर में आग लगा थी. तब से बाग में जाने वाले हर व्यक्ति से वे लोग चंदा जमा कर रहे थे और अब आपस में मिल कर, उन्होंने अपना नया घर बनाया है. 1 मई को उसका उदघाटन होगा, प्यादीने और लाल वाईन के साथ. मुझे दुख है कि उस दिन तो मैं कैरो (इजिप्ट) में होंगा.
बोलोनिया की नगरपालिका का विचार है कि हर बाग में कुत्ते घुमाने वाले लोग और वृद्ध लगों के खेत होने चाहिए क्योंकि यह दोनो लोग सारा साल, धूप हो या बर्फ, बाग में घूमना नहीं छोड़ते जिससे बाग में कुछ भी गलत काम करने वाले (यहाँ गलत काम से मेरा आश्रय नशे का सामान बेचने वालों या वेश्या इत्यादि से है) नहीं पनप पाते.
आज की तस्वीरों में हमारे बाग के कुछ दृष्यः वृद्धों के खेत बर्फ से ढ़के और अभी, और उनका नया घर.
मंगलवार, अप्रैल 25, 2006
भगवान कहाँ हैं ?
दोपहर को इतने दिनों से न पढ़े हुए चिट्ठे पढ़े.
फ़िर पंकज की पाठशाला में फोटोशाप के पाठ पढ़े. बढ़िया समझाया है, मुझ जैसे तकनीकी बुद्धू को भी समझ आ गया. पहले फोटोशोप फार डम्मिस जैसी किताबें खरीद कर भी नहीं पढ़ पाता था, समझ ही नहीं आती थीं. अब लगता है कि अगर पंकज इसी तरह से पाठ पढ़ाता रहा तो कुछ न कुछ तो समझ आ ही जायेगा. इसी खुशी में पंकज के "तरकश " को भी देखा और विभिन्न चिट्ठों को पढ़ा, जिसमें अनुगूँज कि पिछली धर्म पर हुई बहस भी थी. इस तरह घूमते फिरते, सोचा कि इस विषय पर कुछ लिखना चाहिये हालाँकि अनुगूँज का समय तो अब समाप्त हो गया है.
मैं स्वयं को हिंदू मानता हूँ और यह भी कि हिंदू धर्म में अन्य सभी धर्मों से अधिक सुविधा है कि आप भगवान और धर्म की हर बात को खुल कर सोच सकें, उसकी आलोचना कर सकें, उस पर बहस कर सकें. यह बात मुझे बहुत अच्छी लगती है. मेरे विचार में इसकी वजह है कि हिंदू धर्म में कोई एक पैगम्बर या मसीहा नहीं है और न ही एक किताब है जिसे सबसे ऊँचा माना जाये.
पर मुझे देवी देवताओं में विश्वास नहीं, न जात पात में, न पूजा पाठ में. मेरे विचार में हिंदू धर्म को खतरे में डालने वाले हैं वे लोग जो "हमारा धर्म खतरे में है" कह कर धर्म के नाम पर लड़ने के लिए तैयार रहते हैं और संकरे विचारों के साथ कट्टरपन दिखाते हैं.
बिना किसी देवी देवता में विश्वास किये बिना भी मुझे भगवान में विश्वास है, यह विश्वास किसी श्रद्धा के बल पर नहीं है बल्कि वैज्ञानिक तर्क के बल पर है. जानना चाहेगे मेरा वैज्ञानिक तर्क ?
मैं सोचता हूँ कि इस दुनिया की हर वस्तु, हवा, पानी, पत्थर, जीव, जानवर, पत्ते सब अणुओं के बने हैं जिनके भीतर एक जैसे न्यूट्रान, पोसिट्रोन (neutrone, positrones, etc.) आदि अतिसूक्ष्म कण अंतहीन घूमते हैं. हम यह तो कहते हैं कि विभिन्न तत्व विभिन्न एटम (atom) या मोलिक्यूल (molecule) के बने हैं, हाइड्रोजन का मोलिक्यूलर भार इतना है और कार्बन का उतना, पर एटम से नीचे स्तर पर उतरें तो हाइड्रोजन और कार्बन एक ही जैसे न्यूट्रान, पोसिट्रोन जैसे कणों से बने हैं. यानि कि जीवित और अजीवित, पत्थर और प्राणी, अंत में एक ही हैं, न दिखने वाले इतने छोटे कण. कणों का यह न समाप्त होने वाला नृत्य ही जीवन है जो पत्थर में भी है, प्राणियों में भी. प्राणियों में इस नृत्य की संज्ञा भी है, जो हमारी साँस बन कर चलती है. यह अतिसूक्ष्म कणों का अंतहीन नृत्य और कणों के बीच में घूमती संज्ञा, जो हम सबको एक दूसरे से जोड़ती है, यह ब्रह्म संज्ञा ही मेरे लिए ईश्वर हैं.
मुझे लगता है कि सभी आयोजित धर्म, एक सीमा के बाद अपनी शक्ति, पैसे, पहुँच, फैलाव आदि की चिंता करते हैं, अपनी रीति रिवाज़ो की रक्षा को परम लक्ष्य बना लेते हैं, दूसरों से स्वयं को कैसे भिन्न या अलग बनाया जाये की सोचते हैं, इश्वर की कम. अगर धर्मगुरुओं की चले तो शायद हम लोग हमेशा लड़ते मरते ही रहें. अच्छी बात यह है कि सभी धर्मों में कुछ समझदार लोग भी हैं जो अपने धर्म को आलोचना की नजर से देख कर उनके अच्छे बुरे पहलुओं पर विचार कर सकते हैं.
भाषा, संस्कृति और मर्यादा की सीमाएँ
बहुत हद तक यह बात सही है कि भाषा समाजिक व्यवहार की मर्यादा के दायरे में बंद होती है और अगर सामाजिक व्यवहार किसी विषय पर खुल कर बात करना या बातचीत में कई विषेश शब्दों का प्रयोग करना गलत नहीं मानता तो उस विषय पर बात करना आसान होता है.
पहली बात है किन शब्दों में यह बात करें. इतालवी भाषा में बहुत सारे वे शब्द जो हिंदी में गाली कहे जायेंगे, बातचीत में आम बोले जाते हैं, दोनो, पुरुषों और महिलाओं द्वारा. हिंदी में पुरुष ऐसे शब्द आपस में मित्रों के बीच तो बोल सकते हैं पर घर में या महिलाओं के सामने उस भाषा में बोलना अशिष्टा समझी जाती है. जनता के सामने भाषण देते समय इतालवी में भी उन शब्दों का प्रयोग करना भौँडा समझा जायेगा और आपको उनके पर्यायवाची कुछ "वैज्ञानिक" से शब्द ढ़ूँढने पड़ेंगे. यह वही बात है कि यौन विषय पर खुल कर स्पष्ट शब्दों में अपने शोध के बारे में अगर हिंदी में बात करनी पड़े तो मुझे पहले तो स्वीकृत शब्द खोजने पड़ेंगे जैसे लिंग या योनी या यौन सम्पर्क, फ़िर सामाजिक व्यवहार की सोच कर निर्धारित करना पड़ेगा कि क्या कह सकता हूँ, क्या नहीं. इतालवी भाषा में भी यही करना पड़ेगा.
दूसरी बात है कौन सी बात आप लोगों के सामने कह सकते हैं. यह सच है कि इटली में सेक्स सम्बंधी कुछ बातें परिवार में या टेलीविजन पर अन्य कई देशों के अपेक्षाकृत अधिक आसानी से कही जाती हैं. अँग्रेज़ी बोलने वाले देशों (इंग्लैंड, अमरीका, कैनेडा आदि) में मित्रों के परिवारों के अनुभव से मुझे लगता है कि वहाँ सेक्स के विषय पर बात करना कुछ कम आसान है, पर हो सकता है कि मेरा अनुभव सीमित हो. हिंदी में ऐसी बातें घर में करना तो मुझे असोचनीय सा लगता है.
बात केवल देश की नहीं, संस्कृति भी है. मेरे अनुभव में भारतीय परिवार ऐसे देशों में रह कर भी, जहाँ इन विषयों पर बात करना आम हो, अपनी भारतीय मर्यादा की सीमा को नहीं भूल पाते. यह बात उन पर लागू होती है तो भारत में पैदा और बड़े हुए हों. उनके विदेश में पले बड़े बच्चे जल्दी सीख जाते हैं कि बाहर मित्रों के साथ तो वे यह बातें कर सकते हैं, घर पर नहीं.
इन सब बातों का सोच कर, क्या यहाँ अनजान लोगों के सामने अपनी आपबीती कहना क्या अधिक आसान है ? एक तरह से हाँ, क्योंकि अपनी बात कहने के बाद आप को समाज के सामने शरमाने या छुपने की आवश्यकता नहीं पड़ती.
पर यौन सम्बंधी बातें हमारे भीतर के आत्मज्ञान और आत्मछवि का अभिन्न हिस्सा होती हैं, उन पर खुल कर लोगों के सामने बोलने के लिए हिम्मत बहुत चाहिये. शायद हिंदी में लिखने वालों को इस तरह के आत्मकथन के लिए और भी अधिक हिम्मत चाहिए, पर कई भारतीय लेखक और लेखिकाओं ने यह हिम्मत दिखाई ही है.
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आज की तस्वीरें मोजाम्बीक यात्रा से.
सोमवार, अप्रैल 24, 2006
आप बीती कहने का साहस
हम लोग होटल से तो सभीपति जी की गाड़ी के पीछे ही निकले थे पर थोड़ी दूर के बाद भीड़ में गड़बड़ हो गयी. मरीआँजेला किसी और गाड़ी के पीछे चल पड़ी जो कि वनवे (सिर्फ एक दिशा में यातायात वाली) वाली एक छोटी सी गली में घुस गयी. कुछ अंदर जा कर मालूम चला कि हम लोग गलत गाड़ी के पीछे गलत जगह आ गये थे तब तक बहुत देर हो गयी थी. आगे जा कर गली इतनी तंग थी कि मरीआँजेला की बड़ी गाड़ी न आगे जा पा रही थी न पीछे. पीछे से अन्य कुछ कारें भी आ पहुँची.
लगा कि बोतल में बंद हो गये हों.
आखिरकार, मैंने ही पीछे वाली गाड़ियों को हटवाया, फिर बहुत मुश्किल से पीछे घुमा कर गलत दिशा में ले जा कर ही बाहर निकल पाये. किस्मत अच्छी थी कि कोई पुलिसवाला नहीं टकराया. तब तक सभापति जी हमें खोज कर परेशान हो गये थे, मैंने अपना मोबाइल बंद किया हुआ था इसलिए वे मुझे टेलीफ़ोन नहीं कर पा रहे थे.
जब भी ओस्तूनी का सोचूँगा, इस बात को अवश्य याद करुँगा.
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पर ओस्तूनी की सभा मरीआँजेला की एक और बात से भी याद रहेगी, उसका सबके सामने अपनी आपबीती कहने का साहस. सभा का विषय था "स्त्री, विकलाँगता और यौनता" (Disabled women and sexaulity) जिसमें मुझे बुलाया गया अपने शोधकार्य के बारे में बताने जिसमें मैंने कुछ इतालवी विकलाँग स्त्रियों और पुरुषों से उनके यौन जीवन में आनेवाली रुकावटों पर शोध किया था. मरीआँजेला से मेरी इसी शोध के दौरान मुलाकात हुई थी. मैंने सोचा कि केवल शोध के बारे में कहना अधूरा सा रहेगा, अगर शोध में भाग लेने वाली कोई विकलाँग महिला मेरे साथ अपने व्यक्तिगत अनुभव के बारे में बात कर सके तो शोध के बारे में समझाना अधिक आसान होगा.
यह सोचना तो आसान था पर किसी को खोजना जिसमें भरी सभा के सामने अपने यौन अनुभवों के बारे में बात करने की हिम्मत हो, आसान नहीं था. इसलिए जब मरीआँजेला ने हाँ कही तो पहले मुझे विश्वास ही नहीं हुआ था.
सभा में हम दोनो ने मिल कर भाषण दिया. मैं बात करता वैज्ञानिक तरीके से, कैसे शोध तैयार हुआ, कैसे लोगों ने भाग लिया, क्या निश्कर्ष निकले, आदि और मरीआँजेला मेरी हर बात पर अपने अनुभव सुनाती. भीड़ के सामने अपने बलात्कार की बात करना या विकलाँगता की वजह से ठुकराये जाने की बात करना, अकेलेपन में पुरुष वेश्या खोजना जैसी व्यक्तिगत बातें भरे हाल में लोगों के सामने कहना कितना कठिन हो सकता है, इसका अंदाज़ा आप लगा सकते हैं. बोलते बोलते कई बार उसकी आवाज़ भर्रा आई पर रुकी नहीं वह. सारा हाल उसके सामने स्तब्ध सा था.
ओस्तूनी से गाड़ी में वापस आने में करीब आठ घँटे लगे, बहुत बातें की रास्ते में हमने. मरीआँजेला कहती है कि हम दोनो को मिल कर "विकलाँगता और यौनता" विषय पर किताब लिखनी चाहिये. मैं हाँ हाँ तो करता रहा पर यहाँ चक्करधुन्नी की तरह घूमने से फ़ुरसत मिलेगी तभी कुछ लिखने की बात सोच सकता हूँ. कल रविवार रात को ओस्तूनी से वापस आये. अभी तक फरवरी में की हुई नेपाल यात्रा की रिपोर्ट नहीं पूरी कर पाया हूँ और अगले शनिवार को कैरो (इजिप्ट - Egypt) जाना है.
आज की तस्वीरों में ओस्तूनी और मरीआँजेला, अपनी गाड़ी में.
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