एक दो दिन पहले टीवी के सीरियल तथा फ़िल्में बाने वाली एकता कपूर का एक साक्षात्कार पढ़ा जिसमें उनसे पूछा गया कि क्या आप को अपने बीते दिनों की अपनी किसी बात पर पछतावा है, जिसके लिए आज आप चाह कर भी क्षमा नहीं माँग सकती. उन्होंने उत्तर दिया कि "हाँ, मेरे पास अम्मा के लिए समय नहीं था. उन्होंने 27 साल तक हमारी देख भाल की. जब वह मर रहीं थीं तो मैं अपने काम में इतना व्यस्त थी कि उनके पास नहीं थी."
"स्वदेश" के मोहन भार्गव (शाहरुख खान) ऐसे ही पछतावे से प्रेरित हो अपनी बचपन की कावेरी अम्मा को मिलने के लिए भारत आते हैं.
"आई एम कलाम" का छोटू भट्टी साहब के ढाबे में काम करता है. काम तो बहुत करना पड़ता है और उसे पढ़ने का समय भी नहीं मिलता, लेकिन भट्टी बुरा आदमी नहीं है, वह छोटू से प्यार से बात करता है.
साठ सत्तर के दशक में फ़िल्मों में मध्यवर्गीय बड़े परिवार होते थे जिनमें घर में काम करने वाले पुराना वफ़ादार नौकर अवश्य होता था जिसे घर के लोग अक्सर रामू काका कहते थे. मनमोहन कृष्ण, ए. के. हँगल, सत्येन कप्पू, नाना पलसीकर जैसे अभिनेता यह भाग निभाने के लिए प्रसिद्ध थे. महमूद ने भी यह भाग बहुत सी फ़िल्मों में निभाया था, पर उनके अभिनीत नौकर खुशमिज़ाज़ होते थे जिन्हें अक्सर घर में काम करनी वाली लड़की से प्यार होता था, जबकि बाकि लोगों द्वारा अभिनीत नौकरों को दुखी या गम्भीर दिखाया जाता था. नब्बे के दशक में राजश्री की फ़िल्मों में लक्ष्मीकाँत बिर्डे ने यही भाग कई फ़िल्मों में निभाये थे.
अगर उन फ़िल्मों की बात करें जिनमें घर में काम करने वाले नौकर का भाग प्रमुख था तो मेरे दिमाग में नाम याद आते हैं - ऋषीकेश मुखर्जी की "बावर्ची" जिसमें बावर्ची बने थे राजेश खन्ना और "चुपके चुपके" जिसमें नौकर-ड्राइवर थे धर्मेन्द्र , गुलज़ार की "अँगूर" जिसमें नौकर के जुड़वा भाग में थे देवेन वर्मा और इस्माइल मेमन की "नौकर" जिसमें नौकर बने थे महमूद लेकिन जिनकी जगह नौकर बन कर आ जाते हैं संजीव कुमार. ऋषीकेश मुखर्जी की ही फ़िल्म "मिली" में घर के पुराने नौकर के भाग में नाना पलसिकर की बेबसी ने मेरे दिल को छू लिया था, जो बचपन से पाले शेखर (अमिताभ बच्चन) के शराबी हो कर बरबाद होते देख समझ कर भी कुछ कर नहीं पाता.
आजकल की फ़िल्मों में माता, पिता, भाई बहन, के साथ साथ, घर में काम करने वाले लोग भी पर्दे से गुम से हो गये हैं, कभी कभार ही दिखते हैं.
लेकिन क्या यह फ़िल्मों वाले रामू काका या नन्हे सचमुच के जीवन में भी होते हैं? और सचमुच के घर में काम करने वालों से कैसा व्यवहार किया जाता है? पच्चीस साल पहले दिल्ली में जहाँ रहते थे वहाँ हमारे पड़ोसी प्रोफेसर साहब के यहाँ पूरन काम करता था, गढ़वाल से आया था, जब छोटा सा था. प्रोफेसर साहब ने स्वयं उसे पढ़ा कर स्कूल के सब इन्तहान प्राईवेट ही पास करा दिये थे, फ़िर सरकारी नौकरी भी लग गयी थी और अपने परिवार के साथ रहता था, लेकिन जब तक प्रोफेसर साहब व उनकी पत्नि रहे, वह दफ्तर से आ कर उनके लिए खाना बना देता था.
पर अधिकतर घरों में काम करने वाले लोग, चाहे बच्चे हो या बड़े, उन्हें इन्सान कितने लोग समझते हैं? घर के बच्चों के लिए शिक्षा, खिलौने, मस्ती, और उसी घर में काम करने वाला बच्चा सारा दिन खटता है और अपेक्षा की जाती है कि उसे अहसानमन्द होना चाहिये कि भूखा नहीं मर रहा, बस दो वक्त की रोटी जो मिल जाती है.
कई बार जान पहचान वाले लोगों के घर देखे हैं, बड़े, खुले और आलीशान पर उन्हीं घरों में घर में काम करने वाले के लिए केवल छोटी सी अँधेरी कोठरी ही होती है. बहुत से घरों में वह कोठरी भी नहीं होती, वह रात को रसोई या अन्य किसी कमरे में ज़मीन पर भी बिस्तर लगाते हैं. कई लोगों को जानता हूँ जहाँ घर के काम करने वाले घर की कुर्सी या सोफ़े पर नहीं बैठ सकते, उन्हें नीचे ज़मीन पर ही बैठना होता है.
घर में काम करने वालों का कुछ यही हाल अन्य देशों में भी है. फिल्लीपीनस् की कितनी स्त्रियाँ यूरोप और मध्यपूर्व के देशों में घरों के काम करती हैं, उनके बच्चे और पति फिल्लीपीनस् में रहते हैं और वह घर पैसा भेजने के लिए खटती मरती हैं. यहाँ इटली में फिल्लीपीनस् के अतिरिक्त, पूर्वी यूरोप की रोमानिया, मालदाविया, यूक्रेन आदि देशों से बहुत सी स्त्रियाँ भी हैं. यहाँ भी कभी कभी घर में काम करने वालों से दुर्व्यवहार की बात सुनायी देती है लेकिन यहाँ मध्य पूर्व तथा भारत के आसपास के देशों वाला बुरा हाल नहीं है.
ईथियोपिया की औरतें जो मध्य पूर्व के देशों में काम करने जाती हैं, उनके पासपोर्ट ले लेते हैं और उन्हें गुलामी की हालत में रखते हैं और उनका यौनिक शोषण भी करते हैं. समाजशास्त्री बीना फेरनान्डेज़ ने एक सर्वे किया था जिसमें निकला कि सन 2009 में बयालिस हज़ार औरते ईथियोपिया से साऊदी अरेबिया में काम करने आयीं. सर्वे में यह भी निकला कि उनसे दिन में दस से बीस घँटे काम करवाया जाता है और महीने में एक दिन की छुट्टी मिलती है.
पिछले दिनों पाकिस्तान में इस्लामाबाद से खबर आयी थी ग्यारह वर्ष के शान अली की मृत्यु की जिसको उसकी मालकिन श्रीमति अतिया अल हुसैन ने गुस्से में गला दबा कर मार डाला था. इसी रिपोर्ट में लिखा था कि पाकिस्तान में छोटे बच्चे अक्सर घरों में काम करते हैं और उनके साथ बुरा व्यावहार होना आम बात है. अन्तर्राष्ट्रीय कामगार संस्था के अनुसार पाकिस्तान में दो लाख चौंसठ हज़ार बच्चे घरों में नौकर हैं. उनका कहना कि बहुत से परिवार बच्चों को ही काम पर रखना पसंद करते हैं क्योंकि इससे उन्हें लगता है कि घर की औरतों और बच्चों को कोई खतरा नहीं होगा.
घर में काम करने वाले रखना चीन तथा मेक्सिको जैसे देशों में आम है, लेकिन वहाँ घरों में काम करने जाने वाले बच्चे आम नहीं हैं.
भारत में घरों में काम करने वालों का अनुमान लगाया गया है कि एक करोड़ हैं, उनमें से अधिकाँश औरते एवं लड़कियाँ हैं. जहाँ बड़े परिवार टूट रहे हैं और उनकी जगह माता-पिता और उनके एक या दो बच्चों वाले परिवार ले रहे हैं और जहाँ औरतें काम पर जाती हैं वहाँ घर में काम करने वाले के बिना गुज़ारा नहीं होता.
ऐसा कैसे हो कि वे "नौकर" नहीं "कामगार" माने जायें और हर कामगार की तरह उनके भी अधिकार हों?
***
रोचक अवलोकन...कितने ही घर ऐसे ही चल रहे हैं..
जवाब देंहटाएंधन्यवाद प्रवीण
हटाएंबहुत कुछ पारिवारिक संस्कारों पर निर्भर करता है...
जवाब देंहटाएंयह सच बात है काजल, परिवार में बड़ों को जैसा व्यवहार करते देखते हैं, बच्चे वही करते हैं
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हटाएंसारी दुनिया में मानव समाज अनेकानेक वर्गेों में विभाजित हो चुका है। काम लेने वाला और काम करने वाला दोनों ही भिन्न वर्गों के हैं। काम लेने वाला काम कराने वाले को कभी भी अपने समान अधिकार वाला मनुष्य नहीं समझता। मनुष्य़ों के बीच समान व्यवहार तो दुनिया से वर्गों की समाप्ति पर ही संभव है। लेकिन उस का केवल स्वप्न ही देखा जा सकता है। हाँ, दुनिया में यह मानने वाले लोग भी हैं कि एक दिन दुनिया से वर्गों की और राज्य जैसी संस्था की समाप्ति अवश्यंभावी है और यह संभव इसलिए भी है कि मानव समाज आरंभ में वर्गविहीन और राज्य विहीन ही था और उस ने लाखों वर्ष इसी रूप में जिए। मनु्ष्य समाज में वर्गों और राज्य की उत्पत्ति केवल कुछ हजार वर्षों की है। इस तरह के लोग इस अवश्यंभावी भविष्य की ओर समाज को ले जाने के लिए काम भी करते हैं।
जवाब देंहटाएंसारी दुनिया में मानव समाज अनेकानेक वर्गेों में विभाजित हो चुका है। काम लेने वाला और काम करने वाला दोनों ही भिन्न वर्गों के हैं। काम लेने वाला काम कराने वाले को कभी भी अपने समान अधिकार वाला मनुष्य नहीं समझता। मनुष्यों के बीच समान व्यवहार तो दुनिया से वर्गों की समाप्ति पर ही संभव है। लेकिन उस का केवल स्वप्न ही देखा जा सकता है। हाँ, दुनिया में यह मानने वाले लोग भी हैं कि एक दिन दुनिया से वर्गों की और राज्य जैसी संस्था की समाप्ति अवश्यंभावी है और यह संभव इसलिए भी है कि मानव समाज आरंभ में वर्गविहीन और राज्य विहीन ही था और उस ने लाखों वर्ष इसी रूप में जिए। मनु्ष्य समाज में वर्गों और राज्य की उत्पत्ति केवल कुछ हजार वर्षों की है। इस तरह के लोग इस अवश्यंभावी भविष्य की ओर समाज को ले जाने के लिए काम भी करते हैं।
जवाब देंहटाएंदिनेश जी, आप की बात सही है कि काम लेने वाले और काम करने वाले में अंतर होता है लेकिन भारत, पाकिस्तान, मध्य पूर्व के देश, वहाँ पर यह अंतर अक्सर बहुत अधिक होता है जिसमें काम करने वाला इन्सान नहीं रहता. आप यहाँ यूरोप में घर में काम करने आने वाले या वाली को कहिये कि हमारे सोफ़े पर मत बैठो या हमारी मेज़ पर हमारे साथ बैठ कर तुम खाना नहीं खा सकते या तुम्हें दिन रात जैसे मैं कहूँ काम करना होगा तो वह आप की शिकायत पुलिस से कर सकता है, आप पर मुकदमा कर सकता है. यहाँ लड़के लड़कियाँ विश्वविद्यालय में पढ़ते हुए अक्सर रेस्टोरेंट में वेटर का काम करते हैं या घरों में सफ़ाई का काम करते हैं, आप उनसे इज़्ज़त से बात न करें, यह सोचना भी कठिन है.
हटाएंधन्यवाद चन्द्र भूषण जी
जवाब देंहटाएंस्थिति सच में दुखद है , अपने देश में ही कई बार देखा है की जो महिलाएं स्वयं नौकरी करती हैं उनका घर बिना कामवाली बाई के नहीं चल सकता , पर फिर भी वे उनके साथ सभ्य व्यवहार नहीं करती , जबकि स्वयं एक महिला होती हैं और जहाँ खुद नौकरी करती है वहां उन्हें पूरा मान सम्मान चाहिए तो फिर घरेलू काम करने वाली बाई को मान क्यों नहीं दिया जाता ? सब कुछ मानसिकता की बात है शायद या फिर हम इनके योगदान को कुछ आंकते ही नहीं , इन्हें काम देकर अहसान करने की सोच रखते हैं
जवाब देंहटाएंधन्यवाद मोनिका जी
हटाएंघरेलू कामगारों के प्रति भारतीय माध्यम वर्ग का रवैया अमूमन अमानुषिक होता है.नौकरों को दाग देना, पीट-पीट कर घायल करना, यौन उत्पीडन, अक्सर अखबारों में आते रहते हैं. आपने बेहद जरूरी मसला उठाया है और बहुत ही रोचक ढंग से. बधाई.
जवाब देंहटाएंYaun utpeedan aur bal majdoori sampoorn vishw ki samsya hai....ham door kyon dekhen yah sara paridrishy hamare gali mullon me hi uplabdh hai ....abhi hamari mansikata viksit hone me varshon lg jayenge ..filhal is vishay pr aur adhik sargarbhit jankariyan milin bahut bahut dhanyvad.
जवाब देंहटाएंअसंगठित क्षेत्र के कामगारों का यही हाल है .घरेलू सहायकों के लिए कोई नहीं सोचता .सरकार के वह वोट बेंक नहीं हैं .यहाँ कानूनन बाल मजूरी जुर्म है लेकिन घरों में इनसे धड़ल्ले से काम करवाया जाता है ठंड में खुले में ठंडे पानी से नहाते देखा है मैंने इन बच्चों को उनमे जो सभ्रांत कहातें हैं .
जवाब देंहटाएंधन्यवाद @विकल्प मँच, @नवीन जी एवं @वीरुभाई.
जवाब देंहटाएंइस विषय में चेतना कैसे जगायी जाये यह बड़ा प्रश्न है. भूखे और गरीब घर में बच्चे की पगार उसके परिवार को सहारा दे सकती है, पर एक ओर बच्चे काम करते हैं और पिता शराबी. दूसरी बात है उन परिवारों की जहाँ यह बच्चे काम करते हैं, कैसे हो कि वह मानवता की दृष्टि से सोचें और अपने काम के साथ साथ बच्चे के भविष्य के बारे में सोच सकें.
नौकर को भी इंसानों की तरह व्यवहार की अपेक्षा कोई अनुचित बात तो नहीं है. लेकिन असंगठित कामगारों की हालत सभी जगह बहुत खराब है. उनके लिये कुछ बेहतर सोचना जरूरी है.
जवाब देंहटाएंसही कहा रचना जी, केवल घरों में काम करने वाले ही नहीं, सभी संगठित काम करने वालों के जीवन बहुत कठिन हैं.
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