पिछले दिनों मुझे ब्राज़ील के
गोयास और
परा प्रदेशों में यात्रा का मौका मिला. उसी यात्रा से मेरी डायरी के कुछ पन्ने प्रस्तुत हैं.
24 मई 2011, गोयास वेल्यो
बोर्ड पर लिखा था, "
ओ कुआरो". मैंने मेक्स से उसका मतलब पूछा तो उसने बताया कि यह ब्राज़ील की ग्वारानी जनजाति के अमेरिंडियन लोगों का आपस में नमस्ते कहने का तरीका है.
मेक्स प्राथमिक स्कूल के बच्चों को प्राचीन अफ्रीकी और अमेरिंडियन सभ्याताओं के बारे में पढ़ाता है. वह बोला, "हम लोगों के खून में, यूरोप से आये लोगों के साथ साथ, अफ्रीका से लाये गुलामों और यहाँ के रहने वाले मूल अमेरिंडियन निवासियों का खून भी मिला है. एक ही ब्राज़ीली परिवार में तुम्हें सुनहरे बालों और नीली आँखों वाले यूरोपी चेहरे, काले अफ्रीकी चेहरे, भूरे अमेरिंडियन चेहरे और इन सबके सम्मिश्रिण से बने हर रंग के चेहरे मिलेंगे. लेकिन आज का ब्राज़ील वासी, अपने आप को यूरोपीय मानना बेहतर समझता है, हमारी सभ्यता पर यूरोपी भाषा, सोच विचार, धर्म हावी हैं."
"अफ्रीकी सभ्यता या अमेरिंडियन सभ्यता की हमारी जड़ों की, किसी को परवाह नहीं, वे तो आजकल नीचे दर्जे की सभ्यताएँ मानी जाती हैं. उनको याद रखना या बना कर रखना बेकार है, ऐसा कहते हैं. अधिकतर लोग उन भाषाओं और सभ्यताओं के बारे में कुछ जानना चाहते ही नहीं. लेकिन अपने खून में मिली सभ्यता, संस्कृति, किस्से कहानियाँ, पाराम्परिक ज्ञान को यूँ फैंक देना गलत है." मेक्स ने कुछ हताश हो कर बताया, "सच तो यह है कि आज चाहो भी तो ग्वारानी भाषा किससे बोलो? जो भाषा मर चुकी है, भुला दी गयी है, उसे मेरे कितना भी चाहने से फ़िर से जीवित नहीं किया जा सकता."
(नीचे की तस्वीरों में विला स्पेरान्ज़ा स्कूल में अफ्रीकी और अमेरिंडियन मुखौटे)
उसकी इस बात से मैं हिन्दी के बारे में सोचने लगा. आज भारत में भी सब माँ पिता चाहते हैं कि उनका बच्चा अंग्रेजी बोले, अंग्रेज़ी स्कूल में पढ़े. मैं खुद भी कितना ही "हिन्दी हिन्दी" बोलता सोचता रहूँ, सच तो यही है कि बात थोड़ी सी भी जटिल होने लगे तो मुझसे हिन्दी में बात नहीं की जाती, अंग्रेज़ी में की जाती है. धीरे धीरे क्या हिन्दी भी एक दिन ग्वारानी बन जायेगी?
***
25 मई 2011, गोयास वेल्यो
मैंने एड्रियानो से पूछा कि उसने अपनी बेटी को "
विला स्पेरान्सा" के स्कूल में क्यों पढ़ाना चाहा, तो उसने बताया, "मैंने इस स्कूल के बनाने का कुछ काम किया था. तब मुझे बच्चों के लिए इस स्कूल में इतने ध्यान से बनायी गयी बच्चों के खेलने की जगहें, सोचने की जगहें, पढ़ने की जगहें, आदि देख कर बहुत अच्छा लगा. जब मेरी बेटी ओलिन्दा को स्कूल में दाखिल करने का समय आया तो मैंने सोचा कि उसे इसी स्कूल में पढ़ाना चाहिये. मेरे कई मित्रों ने मुझसे कहा कि यह स्कूल बेकार है, यहाँ ठीक से पढ़ायी नहीं होती, बच्चों को खेल खिलाते रहते हैं, होम वर्क भी नहीं देते, किताबें भी कम है, वगैरह. पर वह लोग यह इस लिए कहते हैं क्योंकि यहाँ की पढ़ायी के तरीके को ठीक से नहीं समझते. मैं यहाँ के पढ़ने खेलने के मिले जुले तरीकों से बहुत खुश हूँ."
बाद में मैंने मेक्स से पूछा कि लोग तुम्हारे स्कूल के बारे में इस तरह क्यों सोचते हैं कि यहाँ ठीक से पढ़ायी नहीं होती?
मेक्स इस स्कूल का जन्मदाता है और कर्ता धर्ता भी. पहाड़ी पर,
रियो वेरमेलियो नदी के किनारे, एक बहुत सुन्दर जगह पर बना है "विला स्पेरान्सा" यानि "आशा का घर". हर तरफ़ रंग बिरंगी कुर्सिया मेज़, खेलने की चीज़ें और किताबें. बस एक दिक्कत है यहाँ कि एक क्लास से दुसरी में जाने के लिए बहुत सीढ़ियाँ चढ़नी उतरनी पड़ती हैं.
मेक्स ने कहा, "हम लोग पढ़ायी और खेल के साथ साथ सभ्यता की बात भी करते हैं जिसमें पुरानी अफ्रीकी और अमेरिंडियन कहानियाँ, रीति रिवाजों, नृत्य, संगीत और गीत, वस्त्र, पाराम्परिक खाने आदि के बारे में सप्ताह में एक दिन उत्सव मनाया जाता है. इसका ध्येय है कि हम अपनी प्राचीन जड़ों के प्रति शर्मिन्दा न हों. बल्कि अपनी साँस्कृतिक धरौहर को पहचाने, उसे सम्भाल कर रखें और उस पर गर्व करें. लेकिन यहाँ एवान्जलिक और कैथोलिक दो तरह के ईसाई धर्म का बहुमत हैं, उनके कुछ लोगों ने कहना शुरु कर दिया कि हम बच्चों में पुराने अफ्रीकी और अमेरिंडियन धर्म जैसे मुकम्बा या ओरिशा, का बढ़ावा दे रहे हैं, ताकि बच्चे अपना धर्म बदल दें. यह बात ठीक नहीं क्योंकि हम किसी को धर्म बदलने के लिए नहीं कहते, पर फ़िर भी इस बात से बहुत से लोगों ने यह कहना शुरु कर दिया है कि विला स्पेरान्सा में बच्चों को नहीं पढ़ाना चाहिये. वही लोग हमारे स्कूल के बारे में गलत अफवाहें फैलाते हैं."
(नीचे की तस्वीरों में विला स्पेरान्ज़ा स्कूल से दिखती रियो वेरमेल्यो नदी और स्कूल में अफ्रीकी सभ्यता का कार्यक्रम)
मैं भारत में होने वाली विभिन्न धर्मों के बीच होने वाली बहस के बारे में सोचने लगा. देश, परिवेश बदल जाते हैं, लेकिन मानव अपनी भिन्नताओं को ले कर लड़ने झगड़ने का कोई न कोई बहाना खोज ही लेता है! धर्म बदलने बदलवाने को ले कर तो इतनी बहस और लड़ाईयाँ होती हैं. कर्णाटक में गया था तो वहाँ गाँवों में कुष्ठ रोग तथा एडस रोग के लिए काम करने वाली कैथोलिक ननस् पर वहाँ के कुछ हिन्दु दल धर्म बदलने का प्रचार करने का आरोप लगा रहे थे. मेक्स की तरह सिस्टर आइडा ने भी मुझसे कुछ ऐसी ही बात कही थी.
मुझे मेक्स का स्कूल बहुत अच्छा लगा. दिल किया कि काश बचपन में मुझे भी इस तरह के स्कूल में पढ़ने का मौका मिलता, जहाँ कुछ रटना नहीं पढ़ता, हर बात में बच्चों को स्वयं सोचने समझने के लिए प्रेरित किया जाता है.
***
28 मई 2011, गोयानिया
जूनियर मेरे साथ काम करने वाली मेरी ब्राज़लियन मित्र का बेटा है, वह होटल में मुझे लेने आया. करीब पंद्रह साल बाद उससे मिल रहा था. मुझसे गले लग कर मिला. जब अंतिम बार मिले थे, तब वह स्कूल में पढ़ता था, अब वह विवाहित है दो बच्चे हैं और वकील का काम करता है. पर यह जूनियर उस पंद्रह साल पहले वाले खेल कूद और सिनेमा में दिलचस्पी रखने वाले लड़के से बहुत भिन्न था जिससे पिछली बार मिला था. अब उसके चेहरे पर मृदुल मुस्कान थी, और धीरे धीरे सोच समझ के बोलने वाला हो गया था.
करीब दस साल पहले, एक दिन जूनियर कार में कहीं जा रहा था, चौराहे पर लाल बत्ती के हरा होने का इन्तज़ार कर रहा था, जब किसी ने कार की खिड़की से उसे बन्दूक दिखा कर लूटने की कोशिश की थी. जूनियर ने कार चला कर भागने की कोशिश की थी, तो लूटने वाले ने उसके सिर पर गोली मारी थी. किस्मत अच्छी थी, जूनियर मरा नहीं, कई महीनों तक बेहोश पड़ा रहा, जब होश आया तो बोल नहीं पाता था, उसने फ़िर से बोलना सीखा. अब भी बोलते बोलते कई बार अटक सा जाता है, इसलिए धीरे धीरे बोलता है.
स्वास्थ्य मंत्रालय में गया. वहाँ काम करने वाली एक अन्य पुरानी मित्र के बारे में पूछा, तो मालूम चला कि वह कई महीनो से छुट्टी पर चल रही है. मेरी मित्र खरीदारी करने सुपरमार्किट गयी थी. खरीदे सामान की ट्राली को ले कर निचले तल पर कार पार्क में पहुँची तो दो लोगों ने उसे चाकू दिखाया. सब सामान, पैसा, घड़ी, कार, पर्स आदि ले लिया. बेचारी को इतना धक्का लगा कि तब से मनोविज्ञान विशेषज्ञ से चिकित्सा चल रही है.
ब्राज़ील यात्रा में इस तरह की कहानियाँ इतनी सारी सुनने को मिलती हैं कि अकेले बाहर जाने से बहुत डर लगता है. कार में कहीं जाते हैं तो हमेशा दरवाज़ा लोक्क करके खिड़कियाँ बन्द करके जाते हैं. मुझे यह भी सलाह दी गयी कि उँगली से सोने की अँगूठी को उतार देना ही बेहतर है, लेकिन बहुत कोशिश करने पर भी उसे उँगली से नहीं निकाल पाया, तो मेरी मित्र बोली, "भगवान न करे कि वह अँगूठी लेने के लिए तम्हारी उँगली ही काट लें!"
सभी पैसे वाले लोग यहाँ ऊँचे गगनचुम्बी घरो में रहते हैं, जिनके आसपास ऊँची दीवारें हैं और गेट पर बन्दूक लिये हुए संतरी.
बेलेम विश्वविद्यालय में पढ़ाने वाले प्रोफेसर क्लाउदियो कह रहे थे, "हम लोग शौध कार्य के लिए पिछले दो सालों से शहर के बाहरी हिस्से और आसपास के गाँवों में घूम रहे हैं. वहाँ की हालत कितनी बुरी है, इसका शहर में रहने वालों को पता नहीं. न ठीक से बिजली पानी, न सफ़ायी, न रहने के लिए ठीक से घर. मैंने सोचा भी नहीं था कि हमारे ब्राज़ील में लोग इस तरह भी रह सकते हैं. इसीलिए वहाँ के लोगों में हिँसा है, बहुत गुस्सा है. इस तरह का जीवन होगा तो गरीब नवयुवक तरह तरह के नशे करेंगे ही."
यह सच है कि ब्राज़ील के शहर देखो तो लगता है यूरोप या अमरीका में हो, जबकि शहर के बाहरी हिस्सों तथा गाँवों में रहने वालों की स्थिति पिछड़ी हुई है. लेकिन जिस तरह की भूखी नँगी गरीबी और गन्दगी भारत में दिखती है, उसके हिसाब से तो ब्राज़ील की गरीबी कम ही लगती है. अमीरों और गरीबों के बीच विषमताएँ भारत में कम नहीं, लेकिन भारत में गरीबों में इस तरह की हिँसा क्यों नहीं है, यहाँ क्यों है?
भारत में किसी भी गरीब से गरीब जगह पर भी, किसी भी झोपड़पट्टी में अकेले जाते मुझे कभी डर नहीं लगा, बल्कि मैं सोचता हूँ कि गरीब झोपड़ियों में लोग बहुत प्यार और भोलेपन से मिलते हैं. पर यहाँ की झोपड़पट्टी में अकेले जाने का अर्थ लूट और हिँसा हैं. लेकिन यह भी सच है कि मैं कभी भारत में नक्सलवादी हिँसा क्षेत्र में नहीं गया, शायद वहाँ जा कर इसी तरह का डर लगे?
***