गुरुवार, सितंबर 11, 2008

कल्पना के पँख

प्रियंकर पालीवाल जी ने "समकालीन सृजन" भेजा तो थोड़ी हैरानी हुई. इतनी सामाग्री से भरी और इतने सारे जाने माने लेखकों के आलेखों से भरी पत्रिका होगी, यह नहीं सोचा था और उनके बीच में अपना लापरवाही से लिखा ग्रीस यात्रा वाला लेख देखा तो स्वयं पर थोड़ा सा गुस्सा भी आया. प्रियंकर जी ने जब लिखा था कि वह यात्राओं के विषय पर एक पत्रिका का विषेश अंक निकाल रहे हैं और मुझसे एक आलेख मांगा था तो जाने किस व्यस्तता के चक्कर में उन्हें झटपट ग्रीस यात्रा की डायरी वाला आलेख भेज दिया, उसे एक बार ठीक से पढ़ा भी नहीं कि वह ढंग से लिखा गया है या नहीं.

समकालीन सृजन कोलकाता से निकलती है और "यात्राओं का जिक्र" नाम के इस विषेश अंक के विषेश सम्पादक हैं प्रियंकर पालीवाल. हिंदी लेखन में यात्रा‍ लेखन विधा का अधिक विकास नहीं हुआ है हालाँकि कभी कभार पत्रिकाओं पर यात्राओं पर लेख मिल जाते हैं. इस अंक की विषेशता है कि इसमें देश विदेश की बहुत सी यात्राएँ एक साथ मिल जाती हैं.



यात्राओं के बारे में पढ़ना मुझे अच्छा लगता है. हर किसी को यात्रा के बारे में लिखना नहीं आता. यहाँ गये, वहां गये, यह देखा, वह खाया जैसी बातें तो हर कोई लिख सकता है पर इसमें उतना रास नहीं आता. फ़िर भी अगर साथ में अच्छी तस्वीरें हों तो भी कुछ बात बन जाती है. लेकिन सचमुच के बढ़िया यात्रा लेखक अपनी दृष्टि से जगह दिखाते हैं, उन बातों की ओर ध्यान खींचते हैं जो आप अक्सर नहीं देखते या सोचते, उनमें भावनाएँ होती हैं, इतिहास होता है, यादें होती है, जीते जागते लोग होते हैं. इस दृष्टि से "समकालीन सृजन" का यह अंक सफल है. तभी मैंने खुद पर संयम करके धीरे धीरे एक महीना लगाया पूरा अंक पढ़ने में, हर रोज रात को सोने से पहले बस एक दो आलेख पढ़ता.

जैसे जाबिर हुसेन की "नदी की पोशाक है रेत" में गीली रेत में घुली छुपी नदी में माँ का छुपा चेहरा है, "मेरे लिए फल्गु की रेतीली गोद मेरी मां के दूधिया आंचल की तरह है. जैसे फल्गु अपने दुख दर्द किसी को नहीं बताती, रेत के उन कणों को भी नहीं, जो खुद उसके वजूद का हिस्सा हैं, वैसे ही मेरी मां ने भी अपने दुख दर्द किसी को नहीं बताए. सारी ज़िन्दगी वो भी अपने दुखों पर मोटी चादर डाले रही. हम भी, जो रेत के कणों की तरह उसके वजूद का हिस्सा थे, कहाँ उसके दुख दर्द को जान पाये."

अमृतलाल बेगड़ "सौंदर्य की नदी नर्मदा" में पेड़ों से बातें करते हैं, और निमाड़ी और गुजराती भाषाओं में जुड़े शब्दों की बात करते हुए लिखते हैं, "नदी जहां समुद्र से मिलती है, वहां एकाएक समाप्त नहीं हो जाती. उसका प्रवाह समुद्र में दूर तक जाता है. भाषा भी प्रादेशिक सीमा पर एकदम से नहीं रुक जाती. उसका प्रवाह भी सीमा के पार काफी दूर तक धंसता चला जाता है."

कृष्णनाथ "नागार्जुनकोंडा की पहचान" में केवल नागार्जुनकोंडा पर्वत यात्रा की बात नहीं करते बल्कि बुद्ध दार्शनिक नागर्जुन की इतिहासिक छवि से ले कर, महायान बुद्ध धर्म के दूर विदेशों तक फैलने की कथा सुनाते हैं, "यह कथा अपने मूल देश में, नागार्जुन की घाटी में खो गयी है. कृष्णा के जल में डूब गयी है. यहां अब उसका कोई साहित्य नहीं है. पहले जरूर रहा होगा. अब लुप्त हो गया है. लेकिन हिमालय पार उत्तर, मध्य, पूर्व एशिया में नागार्जुन की कथा जीवित रही है. तिब्बत में है, चीन में है, जापान में है, कोरिया में है, मंगोलिया में है."

ओम थानवी "इतिहास में दबे पांव" में पाकिस्तान में मुअनजो-दड़ो की खोयी सभ्यता की जड़ों को अपने राजस्थान के जीवन में जीवित पाते हैं, "मुअनजो-दड़ो के घरों में टहलते हुए मुझे कुलधरा की याद आई. यह जैसलमेर के मुहाने पर पीले पत्थर के घरों वाला एक खूबसूरत गांव है. उस खूबसूरती में हर तरफ एक गमी तारी है. गांव में घर हैं पर लोग नहीं हैं... अतीत और वर्तमान का मुझमें यह अजीब द्वंद है. बाढ़ से बचने के लिए मुअनजो-दड़ो में टीलों पर बसी बस्तियाँ देख कर मुझे जैसलमेर, जोधपुर और बीकानेर से ले कर पोकरण-फलोदी तक के वे घर भी याद हो आये जो जमीन से आठ दस फुट उठाकर बनाये जाते थे."

"बंगाले में गंगाजल" में अष्टभुजा शुक्ल यात्रा में अनायास मिले एक बंधु के घर में आत्थिय और आत्मीयता पाते हैं और मन में छुपे विधर्मी कुंठाओं का सामना करते हैं, "स्वीकृति में ही संस्कृति निहित होती है. अस्वीकार की संस्कृति ही कट्टरता की जननी है. स्वीकार करता हूँ रसूल भाई कि हावड़ा में उजबकों की तरह आठ घंटे काटना चार युगों से कम तकलीफ़देह नहीं होगा, स्वीकार करता हूँ कि आपके घर बैंडल में दो चार घंटे आराम करने का हार्दिक निमंत्रण बहुत ही आत्मीय और सहज है, स्वीकार करता हूँ कि एक मुसलमान द्वारा एक अपरिचित हिंदू को अपने घर विश्राम करने का आमंत्रण देने की कोई कुंठा आप के मन में कतई नहीं ... भाई साहब भीतर अपनी पत्नी को बता रहे हैं कि परदेसी दादा निरामिष हाय. बंगाल और शाकाहार. वह भी एक मुस्लिम परिवार में एक खास महमान के लिए? आठवां आश्चर्य. कैसा बौड़म अतिथी है?"

पत्रिका का सबसे अधिक सुंदर आलेख लगा "वर्धाः अनुभवों के आईने में". वर्धा के बारे में गाँधी जी बारे में पढ़ते समय कुछ पढ़ा था, पर अधिक नहीं मालूम था. पी. एन. सिंह का आलेख आज के वर्धा और इतिहास के वर्धा के विवरण बहुत खूबी से देता है जिनमें बापू के समय का वर्धा शब्दों में जीवित हो जाता है. इस आलेख में गाँधी जी का कुष्ठ रोगियों की सेवा करने के बारे में पढ़ा जो मुझे बहुत अच्छा लगा. अक्सर लोग कुष्ठ रोग की बात उठाते हैं पर घृणा, पाप, गन्दगी या दर्द की बात करने के लिए. जैसे कि इसी पत्रिका में कृष्णनाथ जी के नागार्जुनकोंडा वाले लेख में पचास साल पहले के एक जेल कारावास के बारे में लिखा है, "फ़िर, बनारस से रायबरेली जेल तबादला हो गया जहाँ प्रदेश भर के कोढ़ी कैदी जमा किये जाते हैं. मुझे ही शरीर मन की इस यातना के लिए क्यों चुना गया, मैं आज तक नहीं जानता."

मेरे कार्य का क्षेत्र भी कुष्ठ रोग और विकलांगता है. बीच में कुष्ठ रोग के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कुष्ठ से जुड़ी एसोसियेशन का अध्यक्ष भी रहा. शुरु में लोगों को इसके बारे में कहते हुए हिचकता था क्योंकि लोग यह बात सुन कर ही पीछे हट जाते थे. कई देशों में देखा कि कुष्ठ रोगी होने से छूआछात और भेदभाव किया जाता है, उनके साथ काम करने वाले स्वास्थ्य कर्मचारी भी इस भेदभाव से नहीं बचते. गाँधी जी ने कैसे कुष्ठ रोगियों की सेवा की यह पढ़ कर बहुत अच्छा लगा.

एक अन्य आलेख पढ़ते हुए अपने एक पुराने मित्र से मुलाकात हुई. रीता रानी पालीवाल के आलेख "सूरज के देश में", उनकी मुलाकात तोक्यो में हिंदी पढ़ाने वाले प्रोफेसर तनाका से होती है. अचानक मन में आया दिल्ली विश्वविद्यालय में १९६८ में हिंदी पढ़ने आया जापानी छात्र तोशियो तनाका. मेरी बुआ डा सावित्री सिंहा दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी की प्रोफेसर थीं और तनाका जी उनके छात्र. दीदी की शादी में उनसे बहुत बातें की थीं, जो आज भी मुझे याद हैं. मन में आया कि क्या मालूम इस लेख के तनाका जी और मेरे बचपन की यादों की तनाका जी एक ही हों?

कल रात को पत्रिका पढ़ना पूरा किया तो थोड़ा सा दुख हो रहा था कि इतनी जल्दी समाप्त हो गयी, जैसी अच्छी किताब को समाप्त करने पर होता है. संभाल कर रखना होगा, क्योंकि कई आलेख हैं जिन्हें दोबारा पढ़ना चाहता हूँ. प्रियंकर पालीवाल जी को धन्यवाद कि उन्होंने मुझे इस अनुभव का हिस्सा बनने का मौका दिया.

सोमवार, सितंबर 08, 2008

हीरामन का क्या ?

जब भी गाँव के जीवन की बात होती है तो मन में "तीसरी कसम" का हीरामन या "मदर इँडिया" के राधू और शामू आते हैं. गाँव से सीधा रिश्ता कभी रहा नहीं, शहरों में रहे और शहरों में बड़े हुए, तो गाँव फ़िल्मों और किताबों में ही मिलते थे.

दिल्ली के पास नजफगढ़ के रास्ते पर आज जहाँ द्वारका मोड़ नाम का मेट्रो स्टेशन है, वहाँ नाना के खेत होते थे, पर गाँव की सोचूँ तो नाना के पास बीते दिन मन में नहीं आते, शायद इस लिए कि वह जगह दिल्ली के बहुत करीब थी और गाँव में रह कर भी लगता था कि शहर में ही हैं. शायद यह बात भी हो कि फ़िल्मों में दिखने वाले गाँव सुंदर दिखते थे पर सचमुच के नाना के खेतों में कड़ी धूप, खुदाई करने और गोबर जमा करने की मेहनत, उपलों की गंध वाला दूध, कूँए का खारा पानी सब मिल कर सचमुच के गाँव के जीवन को फ़िल्मों में दिखने वाले गाँवों के मुकाबले में अधिक कठिन बना देते थे.

जून के "हँस" में वरिष्ठ लेखक संजीव का लेख पढ़ रहा था, "कहाँ गये प्रेमचंद के हीरा मोती", जिसमें उन्होंने बढ़ते मशीनीकरण से गाँवों के बदलते जीवनों और गाँवों से लुप्त होते बैलों तथा मवेशियों के बारे के बारे में लिखा हैः


"कालचक्र घूमता रहा. पन्ने पटलते रहे ... मगर पन्ने इतनी तेजी से पलट जाएंगे कि जुताई, बोवाई, कटाई, मड़ाई और खलिहान की पूरी अवधारणा ही बदल जायेगी, कौन जानता था! जैसे जैसे ट्रैक्टर, थ्रैशर और कृषि की दीगर मशीनें आती गईं, वैसे वैसे फसल के उत्सव से कुछ लोग पीछे छूटते गए. ... लेकिन कहां गए वे लोग जो इन मशीनों के आते ही बाहर धकेल दिये गये? ... क्या विडंबना है कि आज प्रेमचंद का होरी गैर सरकारी नहीं, सरकारी ऋण से मर रहा है, गोबर मुंबई-दिल्ली में "भैया " या "बिहारी" की गाली खा रहा है, उसकी पत्नि सोसाइटियों में चौका बासन कर रही है. मैं सीवान के बीचोबीच खड़ा हूं, दूर दूर तक डंठलों की आम जल रही है. लगता है दूर कहीं धनिया विलाप कर रही है और हीरा मोती के "बां बां" के कातर स्वर उभर रहे हैं."

जिस जीवन को हमेशा देखा, जिया हो वह बदलने लगे तो दुख तो होगा ही. फ़िर गाँव का जीवन तो शायद पिछले चार पाँच हज़ार सालों से नहीं बदला था, जब से लोहे का आविष्कार हुआ था तब से. जितनी तेज़ी से यह बदलाव गाँवों, कस्बों, छोटे बड़े शहरों में आ रहे हैं, शायद इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ. यह बात नहीं कि यह बदलाव केवल भारत में आया है, यह तो सारे विश्व में है पर भारत के कच्ची सड़कों वाले, बैलगाड़ी वाले गाँवों में आ रहे और आने वाले बदलाव का सोच कर लगता है कि हाँ, शायद अब समय आयेगा जब जीवन सचमुच बदलेगा.

अपने जाने पहचाने खेतों में बैल की जगह पर ट्रैक्टर देख कर बीते समय का सोच कर दुख होना स्वाभाविक तो है पर शायद गाँवों के लिए जीवित रहने का यही उपाय है? संजीव अपने लेख में बात करते हैं प्रेमचंद की "दो बैलों की कथा" की, चंद्रगुप्त विद्यांलकार की "गोरा" की, बिजेंद्र अनिल की "माल मवेशी" की, स्वयं प्रकाश की "नैनसी का धूड़ा" की", और गाँवों के बारे में लिखने वाले लेखकों के लुप्त होने की, और इसमें संस्कृति और संस्कारों के टूटने को देखते हैं. पर संस्कृति और संस्कारों का यह बदलाव गाँवों के मशीनीकरण से नहीं बल्कि जीवन की तकनीकी तरक्की से आया है. टीवी और मोबाइल फोन ने शहरों के जीवन की एक छवि गाँवों को दिखाई है जिसमें केवल शहरों का उपभोगत्तावाद है, संस्कृति और संस्कार तो बस बिकने वाले टीवी सीरियल हैं जिनमें हर दस मिनट में विज्ञापन दिखाये जाते हैं.

इन भागते शहरों में गाँवों और कस्बों से आँखों में सपने लिए आने वालों के लिए "भैया" और "बिहारी" की गालियाँ हैं, शायद उनके भोले गँवारपन और अँग्रेजी न जानने के बारे में उपहास भी है. वर्तिका नंदा ने अपनी एक कविता "टीवी एंकर और वो भी तुम" में लिखा हैः

तुम नहीं बन सकती एंकर
तुम कहीं और ही तलाशो नौकरी
किसी कस्बे में या फ़िर
पंजाब के उसी गाँव में
जहां तुम पैदा हुई थी
पर बड़े शहरों में बसने वाले गाँवों और कस्बों से आये लोग जानते हैं उनका भविष्य उनके बच्चे होंगे, जो शहरों में पल बढ़ कर शहरों वाली भाषा बोलेंगे, जिनकी कोई हँसी नहीं उड़ायेगा. वह हिम्मत नहीं हारते, जान लड़ाते हैं अपने जीवन बेहतर करने के लिए. गाँवों, बैलों और पाराम्परिक जीवनों के लुप्त होने में अगर मानव का जीवन अधिक आसान हो जाता है तो यही भला है, अगर उसे तपती धूप में खून पसीना नहीं बहाना पड़ता तो यही भविष्य अच्छा है. और अगर उस भविष्य में जातपात, ऊपर नीचे, छोटे बड़े की दूरियाँ कम हो सकेंगी तो वह भविष्य जितनी जल्दी आ सकता है, आये. हीरामन नहीं तो न सही, कथाकार कुछ और सोच लेंगे मन द्रवित और आँखें नम करने के लिए. हज़ारों वर्षों से, पीढ़ियाँ दर पीढ़ियों से पिसने वाले इंसान को अगर कमर सीधा करके सिर उठा कर चलने का मौका मिलेगा तो मुझे उस भविष्य से कोई शिकायत नहीं.

शनिवार, सितंबर 06, 2008

वह दोनो

बस स्टाप पर बस आ कर खड़ी हुई तो तुरंत लोग भागम भाग में चढ़े, लेकिन बस ड्राईवर साहब को जल्दी नहीं थी, बस से उत्तर कर बाहर खड़े वह धूँआ उड़ा रहे थे. तब उन दोनो पर नज़र पड़ी. दोनो की उम्र होगी करीब चौदह या पंद्रह साल की. उनके चेहरों में अभी भी बचपन था.

लड़की के बाल ज़रा से लम्बे थे, कानो को कुछ कुछ ढक रहे थे. दोनो ने ऊपर छोटी छोटी बनियान जैसी कमीज़ पहनी थी. और नीचे छोटी निकेर पहनी थी, नाभि से इतनी नीचे कि भीतर के जाँघिये का ऊपरी हिस्सा बाहर दिखे, जैसा कि आजकल का फैशन है. यानि अगर दोल्चे गब्बाना या केल्विन क्लाईन के जाँघिये पहनो तो उन्हें दुनिया को दिखाओ. लड़के की निकेर थोड़ी खुली ढीली सी थी, लड़की की तंग थी.

जहाँ तक अन्य साज सँवार का प्रश्न है, लड़का ही लड़की से आगे था. उसके गले में अण्डे जैसे बड़े बड़े सफेद मोतियों की माला थी, कानों में चमकते हुए बुंदे और कलाई पर किसी चमकती धातु का ब्रेस्लेट. उसके सामने लड़की साधी साधी लग रही थी, उसके गले में न तो माला थी, न कानों में बालियाँ, बस दाँहिनी कलाई पर तीन चार रंगबिरंगी मोतियों वाली ब्रेस्लेट थी. दोनो के चेहरे साफ़ थे, कोई मेकअप नहीं था.

दीवार से सटे दोनो एक दूसरे के मुख, जिव्हा, दाँतों की भीतर से सूक्ष्म जाँच कर रहे थे, या शायद एक दूसरे के टोंसिलों की सफाई. एक दूसरे के गले में बाँहें और चिपके हुए शरीर मानों वहीं सड़क पर ही एक दूसरे में समा जायेंगे.

उन्हें देखा तो अचानक मन में बहुत ईर्ष्या हुई. हमारे ज़माने में इस तरह का क्यों नहीं होता था?

एक तो लड़के यह रंग नहीं पहनते, ऐसा नहीं करते, वैसा नहीं करते, लड़कियाँ यह नहीं करती, वैसा नहीं पहनती के झँझटों से मुक्ती, स्त्री और पुरुष अपनी मन मरजी से पहने जिसमें स्त्री और पुरुष की बाहरी भिन्नता कुछ घुल मिल सी जाये. एक बार दाढ़ी निकल आयेगी तो थोड़ी दिक्कत आ सकती है पर किशोरो को वह दिक्कत भी नहीं.

दूसरे किशोरावस्था में घुसते ही शरीर में जब होरमोन का तूफ़ान छाता है तो दिमाग यौन सम्बंधों के विषय पर ही अटका रहता है. फ़िर अठारह बीस वर्ष की आयु तक शरीर का यौन विकास अपने चरम पर पहुँच जाता है और उसके बाद धीरे धीरे कम होने लगता है. यह दोनो किशोर किशोरी, उसी होरमोन के तूफ़ान में आनंद से बेपरवाह बह रहे थे.

सब बँधनों से मुक्ति और इस मुक्त संसार में पैदा बड़ा हुआ इंसान क्या नयी बेहतर दुनिया बनायेगा? बचपन में ही शुरु हो जाता है कि लड़कों को क्या पहनना चाहिये. अरे कैसे लड़कियों जैसे कपड़े पहने हैं, क्या कभी किसी लड़के को गुलाबी रंग की कमीज़ पहने देखा है, बदलो इसे तुरंत वरना लोग क्या कहेंगे? लड़के खाने में खट्टा नहीं खाते, चोट लग जाये तो वह लड़कियों की तरह नहीं रोते, उन्हें गुड़िया नहीं कारें और फुटबाल अच्छी लगती हैं. लड़कियों के आसपास लगी यह कर सकते हैं, यह नहीं वाली दीवारें शायद और भी ऊँची होती हैं. पर उन दोनों को देख कर लग रहा था कि यह सब बँधन पुराने हो गये, टूट गये हैं और नहीं टूटे तो आने वाली दुनिया इन्हें तोड़ देगी.

यौन सम्बंधों की दीवारें भी हमारे समय में कितनी ऊँची होती थीं. जहाँ तक मुझे याद है उस लड़के की उम्र में मुझे यौन सम्बँधों की पूरी समझ भी नहीं आयी थी, जबकि वह दोनो इस विषय में पीएचडी कर चुके लगते थे. ब्रह्मचर्य, कौमार्य, इज़्जत बचाना, शरीर को बचा कर रखना, इन सब बातों की उन्हें परवाह नहीं लगती.

इस मुक्ति में ही उनका विनाश छुपा है, यौन स्वच्छंदता और शरीर के सुख सब माया हैं, समय के साथ यह भी गुज़र जायेंगे और जीवन के संघर्ष और कठिन हो जायेंगे, मैं खुद को समझाता हूँ. पर क्या सचमुच ऐसा जीवन जीने का मौका मिलता तो क्या मैं न कह पाता? आप को ऐसा जीवन जीने का मौका मिलता तो क्या आप उसे न कह पाते?

बुधवार, सितंबर 03, 2008

इंसान की कीमत

पिछले सप्ताह जब कँधमाल में दंगे हुए जिनमें कुछ हिंदु दलों ने ईसाई गिरजाघरों, घरों और लोगों पर हमले किये तो इटली में समाचार पत्रों और टीवी चैनलों पर इस विषय पर काफ़ी चर्चा हुई, जो आज तक पूरी नहीं रुकी है. उड़ीसा से हिँसा की घटनाओं के समाचार रुके नहीं हैं और इटली की सरकार ने यह मामला योरोपियन यूनियन की संसद में भी उठाया तथा भारतीय राजदूत को बुला कर भी इस बारे में कहा गया.

कुछ दिनों के बाद भारत में बिहार में बाढ़ आयी, कई लाख व्यक्ति बेघर हुए, कई सौ की जाने गयीं, पर इटली के समाचार पत्रों और टीवी चैनलों पर इस समाचार को न के बराबर दिखाया गया, इस पर किसी तरह की बहस नहीं हुई.

इटली के गूगल से उड़ीसा में हो रहे दँगो पर खोज कीजिये तो 25 हज़ार से अधिक इतालवी भाषा के पन्ने दिखते हैं, जबकि बिहार की बाढ़ पर खोज करिये तो पाँच सौ पन्ने मिलते हैं.

हालाँकि बिहार में भी मरने वालों में सभी धर्मों के लोग होंगे, बाढ़ों और तथाकथित प्राकृतिक दुर्घटनाओं में गरीब लोग ही कीमत चुकाते हैं चाहे उनका कोई भी धर्म हो, पर अगर सब धर्मों के लोग मर रहें हों तो शायद बढ़िया समाचार नहीं बनता. जब धर्मों में लड़ाई हो तब अच्छा समाचार बनता है!

मंगलवार, अगस्त 19, 2008

अँग्रेज भगवान

सलमान खान की नयी फ़िल्म "गोड तुस्सी ग्रेट हो" की तस्वीरें देख रहा था तो समझ में आया कि यह फ़िल्म अँग्रेजी में बनी अमरीकी फ़िल्म "ब्रूस आलमाईटी" का हिंदी रूप है और इसमें अमिताभ बच्चन जी भगवान का रूप निभा रहे हैं जो कि कुछ दिनों के लिए भगवान की सभी ताकतें एक नवयुवक यानि सलमान खान को दे देते हैं.

विदेशी फ़िल्मों से प्रभावित हो कर उन पर हिंदी फिल्म बनाना, उसकी फ्रेम टू फ्रेम नकल करना और फ़िर साक्षात्कार देना कि नहीं हमने तो केवल प्रेरणा ली है, बहुत से फ़िल्म निर्माताओं की पुरानी आदत है. पर इतनी लापरवाही कि फ़िल्म लो पर उसे भारतीय वातावरण में ढालने की रत्ती भर कोशिश भी न करो, इसका क्या अर्थ हो सकता है?

कोट पैंट पहनने वाले आफिस के मैनेजर जैसे लगने वाले भगवान भारत में किस धर्म में होते हैं भला? मैंने फ़िल्म नहीं देखी, इसलिए यह नहीं कह सकता कि सारी फ़िल्म में भगवान का यही रूप है या फ़िर जब भगवान जी धरती पर आते हैं और अपना सही रूप छुपाने के लिए कोट पैंट जैसे कपड़े पहनते हैं, जिसे वैचारिक तौर पर समझा जा सकता है क्योंकि शायद आज अगर राम या कृष्ण धरती पर आयें तो अपने पुराने रूप में नहीं आ सकते.

कुछ इसी तरह की बात लगी थी कुछ समय पहले जब यश चोपड़ा की फ़िल्म "थोड़ा प्यार थोड़ा मैजिक" देखी थी, जो कहानी थी स्वर्ग से धरती पर आयी पर एक परी की. इस फ़िल्म में यह परी भारतीय स्वर्ग में नहीं अमरीकी स्वर्ग में रहती है, गाऊन पहनती है, साइकल पर घूमती है, न उसके परियों जैसे पँख हैं, न भारतीय परिकल्पना की परियों जैसे बातें. वह पश्चिमी सभ्यता में बड़ी हुई आधुनिक युवती है जो धरती पर आती है तो भी लंदन में उतरी मेरी पोपिनस ही लगती है.

फ़िल्मों में इस तरह के चरित्र बनाये जायें इसका अर्थ है कि इसे बनाने वाले उसी दुनिया में रहते हैं, और इन फ़िल्मों को देखने वाले भी उसी दुनिया में रहते हैं जहाँ सब कुछ यूरोप या अमरीका से उधार लिया गया हो जहाँ अपना कुछ भी न हो, चेहरा और नाक नक्श छोड़ कर.

रंग भेद में तो अपना हिंदी जगत पहले से ही माहिर है, थोड़ा सा भी साँवला रंग वाले हीरो हिरोइन, उनके माता पिता, दोस्त सखियाँ, खोज कर ही शायद कोई इक्का दुक्का मिलती हैं. फ़िल्मों में देखो तो भारत के रहने वाले सब गोरे चिट्टे लोग हैं. असली भारत का कालापन इन फ़िल्मों की लुक न बिगाड़े इसलिए आम जनता वाले दृश्य विदेशों में शूट कर लेते हैं.

बस एक ही दिक्कत है इन बेचारे फ़िल्मकारों की, अपनी फ़िल्में भारत में काले, पिछड़े लोगों को ही दिखानी पड़ती हैं.

सोमवार, अगस्त 04, 2008

अंतर्राष्ट्रीय मीडिया का भविष्य

हम लोग साथ वाले पड़ोसी, साजिद भाई के आँगन में खेल रहे थे, अचानक सड़क पर लोगों को कहते सुना था कि सँजय गाँधी की मृत्यु हो गयी है. भाग कर रेडियो सुनने गये थे पर आल इँडिया रेडियो पर इसकी कोई खबर नहीं थी, तब तुरंत सुझाव उठा था कि बीबीसी लगा कर उसे सुनने की कोशिश करनी चाहिये.

विपत्ती के समय पर आल इँडिया रेडियो का भरोसा नहीं कर सकते बल्कि बीबीसी का भरोसा अधिक है यह बात तो स्वयं राजीव गाँधी ने भी स्वीकारी थी जब उन्होंने एक साक्षात्कार में बताया था कि अपनी माँ इंदिरा गाँधी की मृत्यु का समाचार जब उन्हें मिला तो वह किसी यात्रा पर थे और तुरंत उन्होंने बीबीसी लगा कर यह जानना चाहा था कि इस समाचार में सच था या नहीं. यह बातें १९८० के आसपास की हैं और तब भारत में प्राईवेट टेलिविज़न नहीं थे, न ही प्राईवेट एफएम रेडियो थे.

मीडिया की बात हो तो भारत में सरकारी सोच विचार अब भी पुराने ढर्रे की लगते हैं, कुछ भी बात हो सुरक्षा और आतंकवाद की दुहाई दे कर, हर क्षेत्र में बात को दबाने और निषेध लगाने की कोशिश की जाती है, हालाँकि प्राईवेट समाचार चैनलों से आज स्थिति बिल्कुल बदल चुकी है.

लेकिन अगर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मीडिया का सोचा जाये तो क्या आप आज भी बीबीसी को विश्वासनीय मानेंगे?

व्यक्तिगत स्तर पर मेरे लिए ईराक युद्ध ने स्थिति को इतना बदल दिया है कि आज मेरे लिए बीबीसी या सीएनएन जैसी चैनलों पर विश्वास कम हो गया है. ईराक युद्ध में दोनो ही चैनलों ने इस तरह से अमरीकी और अँग्रेजी शासनों की सरकारी नीति का पालन किया जिसमें निष्पक्षता का नामोनिशान नहीं था. शायद इस स्वमानित सैंसरशिप में सीएनएन सबसे आगे था, उसने निष्पक्षता का नाटक करने की भी कोशिश नहीं की थी, बीबीसी उससे थोड़ा पीछे था. जिस तरह से अमरीकी मिलेटरी ने अल ज़जीरा के पत्रकारों पर हमला कर के उन्हें मारा था, जिस तरह पश्चिमी देशों के पत्रकार फौज में मिल कर एमबेडिड पत्रकारिता कर रहे थे, उस सब से इन चैनलों की विश्वास्नीयता जितनी नीचे गिरी थी, वैसा पहले कभी नहीं हआ था.

आज उस बात को पाँच साल बीत गये, इन पाँच सालों में बीबीसी ने और कुछ हद तक सीएनएन ने निष्पक्षता की साख को फ़िर से बनाने की कोशिश की है, पर अगर कोई भी बात हो जिसमें यह चैनलें अंग्ररेजी या अमरीकी बात को उठाती हैं तो उनकी बात पर पूरा विश्वास नहीं होता. जैसे कि आज भी अफगानिस्तान के बारे में कोई समाचार इन दो चैनलों से सुनो तो भी पूरा विश्वास नहीं होता कि इन्होंने सारी बात बतायी होगी या नहीं.

पर जहाँ दस साल पहले, यही दो अंतर्राष्ट्रीय समाचार चैनलें थीं, आज मीडिया की स्थिति बदल चुकी है. सबसे अधिक महत्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय समाचार चैनल आज इंटरनेट बन गया है, कुछ भी बात हो ब्लोगर, यूट्यूब के शौकीन, वहाँ सबसे पहले पहुँच कर आँखों देखा हाल सुनाते हैं. टेलिविज़न का सोचा जाये तो अल ज़ज़ीरा की अँग्रेजी चैनल, फ्राँस इंटरनेशनल चेनल, रूस इंटरनेशनल चैनल, यूरोन्यज़ जैसी चैनलों से आप हर समाचार के विभिन्न पहलुओं पर अलग दृष्टिकोणों को देख सुन सकते हैं. विकासशील देशों में से, आज चीन के सीसीटीवी ने यूरोप में अपनी पहुँच बढ़ायी है जिसे बिना किसी कीमत के हर जगह देखा जा सकता है. समाचारों में अफ्रीकी और दक्षिण अमरीकी दृष्टिकोणों की कमी महसूस होती है, पर यह तो समय की बात है, अवश्य ही आने वाले समय में यह कमी भी पूरी हो जायेगी.

भारत इस दौड़ में थोड़ा पीछे है. भारत की सरकार का किसी बात के बारे में क्या सोच है, क्या दृष्टिकोण है, यह दुनिया को बताना शायद भारत के लिए इतना महत्वपूर्ण नहीं. दूरदर्शन को यूरोप में कैसे देखें, वह आसान नहीं. इस दृष्टि से दूरदर्शन टीवी, चीनी सीसीटीवी से मीलों पीछे है. इंटरनेट के मीडिया से कैसे देश के दृष्टिकोण को बाहर अन्य देशों तक कैसे पहुँचाया जाये, यह भी दूरदर्शन नहीं बल्कि प्राईवेट मीडिया ही कर रहा है. हैरानी होती है कि दुनिया इंटरनेट से टीवी देखने लगी और भारत का आल इँडिया रेडियो तक इटरनेट पर लाईव नहीं सुन सकते.

भारतीय मीडिया की स्थिति चाहे कुछ भी हो, अंतर्राष्ट्रीय मीडिया में आज दुनिया बदल रही है. जब दुनिया में बीबीसी या सीएनएन का एकछत्र राज होता था, वह जमाना गया. आज यह जानते हैं कि मीडिया में निष्पक्षता कठिन है, इसलिए किसी विषेश बात को समझना हो तो विभिन्न दृष्टिकोणों को देखिये और समझिये.

सोमवार, जुलाई 28, 2008

संस्कृति पर विदेशी प्रभाव

जब भी भारतीय संस्कृति की बात होती है तो संस्कृति को कैसे उसके मूल रूप में बना कर और बचा कर रखा जाये, इसकी बात भी अवश्य होती है. इस बहस के आधार में एक सोच छुपी होती है कि मूल भारतीय संस्कृति वेदों और आर्यों की संस्कृति है, जो पाँच हज़ार वर्षों से भी पुरानी धरोहर है जिसे हमें सहेज कर रखना है. इसी मूल विचार को मान कर अक्सर भारतीय संस्कृति की रक्षा की बात करने वाले रुष्ठ हो जाते हैं जब कोई आर्यों के विदेश में मध्य एशिया से भारत में आने की बात करता है, क्योंकि उन्हें लगता है कि आर्यों का विदेश से आना मान लेने से यह हमारी संस्कृति भी विदेशी बन जाती है, उसकी भारतीयता में खोट सा आ जाता है.

मैं सोचता हूँ कि इस सारी बहस के मूल में दो गलतियाँ हैं.

पहली गलती: द्विवाद या बहुवाद ?

पश्चिमी विचार पद्धति के "द्विवाद" के तर्क को सोचने का एकमात्र तरीका मान कर हम लोग अपने "बहुवाद में एकता" के तर्क से सोचने के तरीके भुला देते हैं. पश्चिमी सोच द्विवाद (dichotomy) के तर्क पर बनी है, यानि एक वस्तु एक समय में एक ही हो सकती है, दो या अधिक नहीं. यह सोच का वैज्ञानिक तरीका है, सारा आधुनिक विज्ञान और तकनीकी इस सोच पर ही बना है. जीव जंतुओं और प्राणियों को विभिन्न श्रेणियों में बाँटने से ले कर, भौतिकी में अणु को बनाने वाले कणों की खोज तक सब इसी वैज्ञानिक द्विवाद के तर्क पर ही टिका है. यही तर्क पश्चिमी विचार पद्धति जो विज्ञान पर लगाती है, उसी तरह गैरभौतिक जगत यानि समाज, धर्म, संस्कृति पर भी लागू करती है, जैसे एकइश्वरवाद या बहुदेवपूजा के आधार पर धर्मों को विभिन्न गुटों में बाँटना, स्त्रियों पुरुषों को विषमलैंगिक, समलैंगिक जैसे हिस्सों में बाँटना, संस्कृतियों को देशी विदेशी गुटों में बाँटना, इत्यादि.

मैं द्विवाद (dichotomous thinking) के महत्व को कम या छोटा नहीं दिखाना चाहता, यह सचमुच मानव विकास के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है. पर एक अन्य तरीका भी है सोचने का जिसमें एक वस्तु एक साथ विभिन्न वस्तूओं का रूप ले सकती है, जो द्विवाद के तर्क से देखो तो समझ नहीं आते पर "बहुवाद में एकता" के तर्क से देखों तो समझ आ जाते हैं. इस तर्क में बहुत से भगवान, देवी देवता मान कर भी हम समझते हैं कि उन सबके पीछे ईश्वर एक ही है. मेरे विचार में विज्ञान के नये विकास इसी बहुवाद में एकता की सोच से ही आयेंगे, जैसे कि क्वाँटम भौतिकी (Quantum physics) या काओस थ्योरी (chaos theory) जैसी धारणाएँ. इस सोच में आपस में विराधाभास होने वाली बातों में समन्जस्व और एकता बनायी जाती है.

कुछ दिन पहले मैंने इस विषय पर अमरीकी लेखिका रेबेक्का सोलिंट (Rebecca Solint) का एक लेख पढ़ा था जिसमें उन्होंने बर्मा में बुद्ध भिक्षुकों द्वारा बर्मा के मिलेटरी शासन के विरुद्ध किये जाने वाले संघर्ष के बारे में लिखा था. उनका कहना है कि यूरोपीय सोच "कर्म जीवन" और "आध्यात्मिक जीवन" को दो अलग श्रेणियों में बाँट कर देखती है और इसी बँटवारे की सोच की वजह से नहीं समझ पाती कि ध्यान और पूजा करने वाले बुद्ध भिक्षुक क्यों शासन के विरुद्ध सड़कों पर उतर आये?

ऐसा नहीं कि भारतीय सोच में केवल बहुवाद है और द्विवाद बिल्कुल नहीं, या कि अँग्रेजों से पहले भारत में धर्मों के लिए लड़ाईयाँ नहीं होती थीं. पर मेरे विचार में भारतीय या फ़िर पूर्वी सोच में बहुवाद सोचने के तरीके का महत्वपूर्ण स्थान था जिससे विभिन्न गुटों को साथ रहने पनपने का मौका मिलता था, जिसे हम बहुत कुछ भूल रहे हैं. धार्मिक कट्टरवाद की जड़ें भी द्विवाद सोच में गहरी दबी हैं और भारतीय बहुवाद की सोच इस लड़ाई से बाहर निकलने की राह दिखा सकती है.

दूसरी गलतीः शास्वत, बदलावहीन संस्कृति

दूसरी गलती है यह सोचना कि संस्कृति कोई स्थायी वस्तु है, जैसी थी वैसी ही रहेगी, बदलेगी नहीं. संस्कृति तो समय के साथ साथ बदलती रहती है, उसमें नयी सोच जुड़ती रही है और रहती है. आज के भारत में स्त्री शरीर को ढकने का, घूँघट या परदा करने की सोच प्राचीन भारत की संस्कृति की सोच नहीं थी यह भारत में अँग्रेजी और मुसलमान प्रभाव से पहले की चित्रकला, वास्तुकला, ग्रंथ स्पष्ट दिखाते हैं. यह सोच पिछले पाँच सौ सालों में भारतीय संस्कृति का हिस्सा बनी है.

भारतीय इतिहास, सभ्यता, संस्कृति, समाज शास्त्र, पुरातत्व जैसे सभी क्षेत्रों में हमारी अधिकतर जानकारी विदेशी विद्वानों के शौधों पर टिकी है. विदेशी होने से ही वह सब गलत नहीं हो जाते बल्कि उनका इस बारे में योगदान अमूल्य है, इसलिए भी कि अक्सर नये और बढ़िया के चक्कर में हम लोग अपने पुराने ज्ञान को संभाल को नहीं रख पाते.

पर साथ ही, अपने अतीत को भारतीय, पू्र्वी और गैरपश्चिमी सोच से जाँचने, परखने का भी हमारा कर्तव्य है, क्योंकि यह कोई अन्य नहीं कर सकता. आर्य मध्य एशिया से आये थे या नहीं आये थे, आर्य संस्कृति और द्रविड़ संस्कृति में क्या सम्बंध थे, और इन सब से विभिन्न अन्य अनेक विषयों और बातों पर बहस और शौध, राष्ट्रवाद और धर्मवाद के कैदखानों में बंद हो कर नहीं, स्वतंत्र निर्भीक हो कर की जानी चाहिये.

note: यह पोस्ट मेरे एक लेख का हिस्सा है, अगर पूरा लेख पढ़ना चाहें तो उसे कल्पना पर पढ़ सकते हैं.

इस वर्ष के लोकप्रिय आलेख