गुरुवार, सितंबर 11, 2008

कल्पना के पँख

प्रियंकर पालीवाल जी ने "समकालीन सृजन" भेजा तो थोड़ी हैरानी हुई. इतनी सामाग्री से भरी और इतने सारे जाने माने लेखकों के आलेखों से भरी पत्रिका होगी, यह नहीं सोचा था और उनके बीच में अपना लापरवाही से लिखा ग्रीस यात्रा वाला लेख देखा तो स्वयं पर थोड़ा सा गुस्सा भी आया. प्रियंकर जी ने जब लिखा था कि वह यात्राओं के विषय पर एक पत्रिका का विषेश अंक निकाल रहे हैं और मुझसे एक आलेख मांगा था तो जाने किस व्यस्तता के चक्कर में उन्हें झटपट ग्रीस यात्रा की डायरी वाला आलेख भेज दिया, उसे एक बार ठीक से पढ़ा भी नहीं कि वह ढंग से लिखा गया है या नहीं.

समकालीन सृजन कोलकाता से निकलती है और "यात्राओं का जिक्र" नाम के इस विषेश अंक के विषेश सम्पादक हैं प्रियंकर पालीवाल. हिंदी लेखन में यात्रा‍ लेखन विधा का अधिक विकास नहीं हुआ है हालाँकि कभी कभार पत्रिकाओं पर यात्राओं पर लेख मिल जाते हैं. इस अंक की विषेशता है कि इसमें देश विदेश की बहुत सी यात्राएँ एक साथ मिल जाती हैं.



यात्राओं के बारे में पढ़ना मुझे अच्छा लगता है. हर किसी को यात्रा के बारे में लिखना नहीं आता. यहाँ गये, वहां गये, यह देखा, वह खाया जैसी बातें तो हर कोई लिख सकता है पर इसमें उतना रास नहीं आता. फ़िर भी अगर साथ में अच्छी तस्वीरें हों तो भी कुछ बात बन जाती है. लेकिन सचमुच के बढ़िया यात्रा लेखक अपनी दृष्टि से जगह दिखाते हैं, उन बातों की ओर ध्यान खींचते हैं जो आप अक्सर नहीं देखते या सोचते, उनमें भावनाएँ होती हैं, इतिहास होता है, यादें होती है, जीते जागते लोग होते हैं. इस दृष्टि से "समकालीन सृजन" का यह अंक सफल है. तभी मैंने खुद पर संयम करके धीरे धीरे एक महीना लगाया पूरा अंक पढ़ने में, हर रोज रात को सोने से पहले बस एक दो आलेख पढ़ता.

जैसे जाबिर हुसेन की "नदी की पोशाक है रेत" में गीली रेत में घुली छुपी नदी में माँ का छुपा चेहरा है, "मेरे लिए फल्गु की रेतीली गोद मेरी मां के दूधिया आंचल की तरह है. जैसे फल्गु अपने दुख दर्द किसी को नहीं बताती, रेत के उन कणों को भी नहीं, जो खुद उसके वजूद का हिस्सा हैं, वैसे ही मेरी मां ने भी अपने दुख दर्द किसी को नहीं बताए. सारी ज़िन्दगी वो भी अपने दुखों पर मोटी चादर डाले रही. हम भी, जो रेत के कणों की तरह उसके वजूद का हिस्सा थे, कहाँ उसके दुख दर्द को जान पाये."

अमृतलाल बेगड़ "सौंदर्य की नदी नर्मदा" में पेड़ों से बातें करते हैं, और निमाड़ी और गुजराती भाषाओं में जुड़े शब्दों की बात करते हुए लिखते हैं, "नदी जहां समुद्र से मिलती है, वहां एकाएक समाप्त नहीं हो जाती. उसका प्रवाह समुद्र में दूर तक जाता है. भाषा भी प्रादेशिक सीमा पर एकदम से नहीं रुक जाती. उसका प्रवाह भी सीमा के पार काफी दूर तक धंसता चला जाता है."

कृष्णनाथ "नागार्जुनकोंडा की पहचान" में केवल नागार्जुनकोंडा पर्वत यात्रा की बात नहीं करते बल्कि बुद्ध दार्शनिक नागर्जुन की इतिहासिक छवि से ले कर, महायान बुद्ध धर्म के दूर विदेशों तक फैलने की कथा सुनाते हैं, "यह कथा अपने मूल देश में, नागार्जुन की घाटी में खो गयी है. कृष्णा के जल में डूब गयी है. यहां अब उसका कोई साहित्य नहीं है. पहले जरूर रहा होगा. अब लुप्त हो गया है. लेकिन हिमालय पार उत्तर, मध्य, पूर्व एशिया में नागार्जुन की कथा जीवित रही है. तिब्बत में है, चीन में है, जापान में है, कोरिया में है, मंगोलिया में है."

ओम थानवी "इतिहास में दबे पांव" में पाकिस्तान में मुअनजो-दड़ो की खोयी सभ्यता की जड़ों को अपने राजस्थान के जीवन में जीवित पाते हैं, "मुअनजो-दड़ो के घरों में टहलते हुए मुझे कुलधरा की याद आई. यह जैसलमेर के मुहाने पर पीले पत्थर के घरों वाला एक खूबसूरत गांव है. उस खूबसूरती में हर तरफ एक गमी तारी है. गांव में घर हैं पर लोग नहीं हैं... अतीत और वर्तमान का मुझमें यह अजीब द्वंद है. बाढ़ से बचने के लिए मुअनजो-दड़ो में टीलों पर बसी बस्तियाँ देख कर मुझे जैसलमेर, जोधपुर और बीकानेर से ले कर पोकरण-फलोदी तक के वे घर भी याद हो आये जो जमीन से आठ दस फुट उठाकर बनाये जाते थे."

"बंगाले में गंगाजल" में अष्टभुजा शुक्ल यात्रा में अनायास मिले एक बंधु के घर में आत्थिय और आत्मीयता पाते हैं और मन में छुपे विधर्मी कुंठाओं का सामना करते हैं, "स्वीकृति में ही संस्कृति निहित होती है. अस्वीकार की संस्कृति ही कट्टरता की जननी है. स्वीकार करता हूँ रसूल भाई कि हावड़ा में उजबकों की तरह आठ घंटे काटना चार युगों से कम तकलीफ़देह नहीं होगा, स्वीकार करता हूँ कि आपके घर बैंडल में दो चार घंटे आराम करने का हार्दिक निमंत्रण बहुत ही आत्मीय और सहज है, स्वीकार करता हूँ कि एक मुसलमान द्वारा एक अपरिचित हिंदू को अपने घर विश्राम करने का आमंत्रण देने की कोई कुंठा आप के मन में कतई नहीं ... भाई साहब भीतर अपनी पत्नी को बता रहे हैं कि परदेसी दादा निरामिष हाय. बंगाल और शाकाहार. वह भी एक मुस्लिम परिवार में एक खास महमान के लिए? आठवां आश्चर्य. कैसा बौड़म अतिथी है?"

पत्रिका का सबसे अधिक सुंदर आलेख लगा "वर्धाः अनुभवों के आईने में". वर्धा के बारे में गाँधी जी बारे में पढ़ते समय कुछ पढ़ा था, पर अधिक नहीं मालूम था. पी. एन. सिंह का आलेख आज के वर्धा और इतिहास के वर्धा के विवरण बहुत खूबी से देता है जिनमें बापू के समय का वर्धा शब्दों में जीवित हो जाता है. इस आलेख में गाँधी जी का कुष्ठ रोगियों की सेवा करने के बारे में पढ़ा जो मुझे बहुत अच्छा लगा. अक्सर लोग कुष्ठ रोग की बात उठाते हैं पर घृणा, पाप, गन्दगी या दर्द की बात करने के लिए. जैसे कि इसी पत्रिका में कृष्णनाथ जी के नागार्जुनकोंडा वाले लेख में पचास साल पहले के एक जेल कारावास के बारे में लिखा है, "फ़िर, बनारस से रायबरेली जेल तबादला हो गया जहाँ प्रदेश भर के कोढ़ी कैदी जमा किये जाते हैं. मुझे ही शरीर मन की इस यातना के लिए क्यों चुना गया, मैं आज तक नहीं जानता."

मेरे कार्य का क्षेत्र भी कुष्ठ रोग और विकलांगता है. बीच में कुष्ठ रोग के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कुष्ठ से जुड़ी एसोसियेशन का अध्यक्ष भी रहा. शुरु में लोगों को इसके बारे में कहते हुए हिचकता था क्योंकि लोग यह बात सुन कर ही पीछे हट जाते थे. कई देशों में देखा कि कुष्ठ रोगी होने से छूआछात और भेदभाव किया जाता है, उनके साथ काम करने वाले स्वास्थ्य कर्मचारी भी इस भेदभाव से नहीं बचते. गाँधी जी ने कैसे कुष्ठ रोगियों की सेवा की यह पढ़ कर बहुत अच्छा लगा.

एक अन्य आलेख पढ़ते हुए अपने एक पुराने मित्र से मुलाकात हुई. रीता रानी पालीवाल के आलेख "सूरज के देश में", उनकी मुलाकात तोक्यो में हिंदी पढ़ाने वाले प्रोफेसर तनाका से होती है. अचानक मन में आया दिल्ली विश्वविद्यालय में १९६८ में हिंदी पढ़ने आया जापानी छात्र तोशियो तनाका. मेरी बुआ डा सावित्री सिंहा दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी की प्रोफेसर थीं और तनाका जी उनके छात्र. दीदी की शादी में उनसे बहुत बातें की थीं, जो आज भी मुझे याद हैं. मन में आया कि क्या मालूम इस लेख के तनाका जी और मेरे बचपन की यादों की तनाका जी एक ही हों?

कल रात को पत्रिका पढ़ना पूरा किया तो थोड़ा सा दुख हो रहा था कि इतनी जल्दी समाप्त हो गयी, जैसी अच्छी किताब को समाप्त करने पर होता है. संभाल कर रखना होगा, क्योंकि कई आलेख हैं जिन्हें दोबारा पढ़ना चाहता हूँ. प्रियंकर पालीवाल जी को धन्यवाद कि उन्होंने मुझे इस अनुभव का हिस्सा बनने का मौका दिया.

9 टिप्‍पणियां:

  1. इसमें हसन जमाल का हज यात्रा का विवरण है। उससे मुझे बहुत जानकारी मिली।

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  2. प्रियंकर पालीवाल को 'समकालीन सृजन ' का यह दुर्लभ अंक सम्पादित करने के लिए हार्दिक बधाई ।

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  3. अच्छी जानकारी है...पढ़कर अच्छा लगा...

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  4. आपको बहुत बधाई एवं प्रियंकर जी को साधुवाद.

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  5. पहले लेखन सहयोग देकर और अब इस तरह समीक्षा लिख कर उत्साह बढाने के लिए आभारी हूं . आप सबकी आत्मीयता और सहयोग से ही यह अंक आ पाया है . बहुत-बहुत धन्यवाद सुनील जी.

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  6. बहुत संतुलित समीक्षा की है आपने. अंक पढने को व्याकुल हो उठा हूं, लेकिन अगस्त तक प्रतीक्षा के सिवा कोई चारा नहीं है. अभी अमरीका में हूं. भारत लौटने पर ही अंक देखना मयस्सर होगा.

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  7. @मेरे कार्य का क्षेत्र भी कुष्ठ रोग और विकलांगता है...
    आपका यह रूप आज ही जाना। क्या इससे सम्बन्धित विषयों पर आपने ब्लॉग पर लिखा है?

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    1. शायद मेरे भीतर दो जगत बसते हैं, एक काम का और दूसरा बाकी सारी दुनिया का. कोशिश करता हूँ कि चिट्ठे आदि पर काम के बारे में कम ही लिखूँ, उसके लिए सारा दिन काम के दौरान तो लिखता ही हूँ लेकिन वह साहित्य की दृष्टि से नहीं, बल्कि डाक्टर और वैज्ञानिक दृष्टि से! :)

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  8. travelwithmanish.blogspot.com/
    मुसाफ़िर हूँ यारों ... ( Musafir Hoon Yaaron ...) हिंदी का एक यात्रा चिट्ठा (A Travel Blog in Hindi) ...

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"जो न कह सके" पर आने के लिए एवं आप की टिप्पणी के लिए धन्यवाद.

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