शनिवार, सितंबर 09, 2006

बेतरतीब डॉयरी के पन्ने

लगता था कि हिंदी का प्रेम अपनी पीढ़ी तक आ कर ही रुक जायेगा. पापा, बुआ के परिवार में हिंदी जीवन यापन का माध्यम भी थी और सृजनात्मकत्ता का प्रेम भी. यही सिलसिला हमारी पीढ़ी में बहुत लोगों ने जारी रखा था. पर पिछले कुछ महीनों में हमारे बाद की नयी पीढ़ी ने हिंदी ने लिखना प्रारम्भ किया है इससे बहुत खुशी होती है और गर्व भी. पहले भाँजे मुकुल ने निरंतर के लिए फ़िल्मों तथा एडस् पर लिखना स्वीकार किया और अब भतीजी पियुली ने अपने चिट्ठे में कविता लिखी है "आशा के पथ पे"-

निराशा का लिहाफ
आरामदायक है
अपने अन्धेरे आगोश मे
भर लेता है
असलियत की कडी धूप से
बचने का आसरा है
राह मे वही थम जाने का
बहाना है

आशा का सूरज
चुना है मैने
तपता तो है
मगर
राह नई दिखाता है
गर्म बाहो से सहला
हौसला दिलाता है

सूरज से अब तो
सारी उम्र का करार है
मन्ज़िल मिले ना मिले
सफर से मुझे प्यार है

*****

कुरबान अली ने बीबीसी के नये हिंदी पृष्ठ के बारे में बताया जो हिंदी पत्रिका के रुप में आया है. इस नये रुप के पहले अतिथि सम्पादक है अभिनेता देव आनंद और पत्रिका की सम्पादक हैं सलमा ज़ैदी. बीबीसी जैसी प्रशिष्ठावान संस्था हिंदी लेखन को प्रोत्साहन दे तो खुशी होना स्वाभाविक ही है. पत्रिका का पहला अंक पठनीय है.
*****

बहुत दिनों के बाद बँगला फिल्म देखने का मौका मिला. फिल्म थी ऋतुपूर्ण घोष की "अंतरमहल". बचपन में घर के पास दुर्गा पूजा पर उत्तम कुमार और सुचित्रा सेन की रोने रुलाने वाली भावुक फिल्में मुझे बहुत पसंद थीं. कुछ बड़ा हो कर कभी फिल्म फेस्टिवल में और दूरदर्शन पर मृणाल सेन और सत्याजित राय के सिनेमा को जानने का मौका मिला था. हिंदी सिनेमा में भी बँगला साहित्य की सँवेदना लाने वाले निर्देशकों, बिमल राय, ऋषीकेष मूखर्जी, बासू चैटर्जी भी बहुत प्रिय थे.

ऋतुपूर्ण का सिनेमा जगत उसी समाज को देखता है पर उसकी दृष्टि ऊपर से केवल अच्छा अच्छा दिखने वाली, आसानी से रुलाने वाली भावनाओं जिन्हे भूलना आसान है, पर नहीं रुकती, वह अंदर घुस कर बाहर से सुंदर दिखने वाले उस समाज की परतें खोल कर अंदर सड़ते सच को अँधेरे से रोशनी में लाता है.



"अंतरमहल" को केवल "समय बिताने" को देख कर भुला पाना सँभव नहीं है. बार बार फिल्म में, गरीब घर से आई छोटी उम्र की सुंदर नयी बहु यशोमती (सोहा अली खान) को पुत्र की आशा में तड़पते, हाँफते हुए प्रोढ़ उम्र के राजा भुवनेश्वर चौधरी (जैकी श्रौफ़) के नीचे उनके बिस्तर में पिसता दिखाया जाता है, तब भी जब मँत्र पढ़ते, लार टपकाते पँडित जी बिस्तर के साथ बैठ कर उसके युवा शरीर को देख कर मजे ले रहे होते हैं. बड़ी बहु महामाया (रूपा गाँगुली) छोटी बहु को सलाह देती हैं कि रात को प्रोढ़ पति के सोने के बाद रात को उसे नीचे सो रहे युवा शिल्पकार (अभिशेख बच्चन) के बिस्तर में जाना चाहिए क्योंकि वह जानती है कि बच्चा न कर पाने का कमी पत्नियों में नहीं, स्वयं राजा साहब में हैं.

सोहा अली खान को देख कर लगता है मानो समय की सुई पीछे मुड़ गयी हो और उनकी माँ, "देवी" की शर्मीला टैगोर वापस लौट आईं हों. पर फिल्म समाप्त होने पर उस सड़न की गँध मन में रह जाती है.

बुधवार, सितंबर 06, 2006

दुर्गा माँ की वापसी

बिनिल का टेलीफ़ोन आया, बोला कि एक बहुत आवश्यक काम के लिए उसे मेरी सहायता की आवश्यकता है, कब मिल सकते हैं? बिनिल यहाँ की "सनातन साँस्कृतिक परिषद" का सभापति है. इस परिषद के सदस्य हैं भारत और बँगलादेश से आये बोलोनिया में रहनेवाले करीब ४० बँगाली हिंदु परिवार. दिक्कत यह है कि परिषद में किसी को भी ठीक से बँगला के अलावा कोई अन्य भाषा नहीं बोलनी आती. जबसे बिनिल को मालूम हुआ कि मुझे कुछ कुछ बँगला की समझ है तो तब से मुझे उनकी परिषद में माननीय सलाहकार की पदवी मिल गयी है जिसका अर्थ है कि जब भी बिनिल को किसी काम के लिए इतालवी या अँग्रेज़ी में कुछ तैयार करना होता है या फ़िर क्मप्यूटर पर कुछ करना होता है तो वह मुझे ही टेलीफ़ोन करते हैं.

शाम को बिनिल हमारे घर आया तो मालूम हुआ कि आवश्यक काम है आनेवाली दुर्गा पूजा के लिए विभिन्न भाषाओं में कुछ पोस्टर आदि बनाना.

बिनिल बात करते समय कुछ शब्द हिंदी के बोलता है और बाकि सर्राटेदार बँगला में. मैं बार बार कहता हूँ, "बिनिल बाबू, बेशी बाँगला आमारके बोलते पाड़बे ना, ओल्पो ओल्पो जानिश", यानि कि अगर आप इस तरह तेजी से बोलेंगे तो कुछ नहीं समझ सकता, धीरे धीरे बोलिये. हाँ कह कर सिर हिलाता है पर थोड़ी देर में फ़िर यह भूल जाता है.

पूजा प्रारम्भ होगी २८ सितम्बर को अधिवास से और उस दिन तो बस अधिवास पूजा ही होगी जब दुर्गा माँ की मूर्ती ला कर स्थापित की जायेगी. पूजा का महूर्त उनके पँडित ने बताया है शाम छहः बज कर तीस मिनट से ले कर रात आठ बज कर उन्नतीस मिनट.

"पर प्रोग्राम में लिखेंगे कि पूजा रात आठ बज कर उन्नतीस मिनट तक होगी तो कुछ अजीब सा नहीं लगेगा? मैंने पूछा. बिनिल मेरी तरफ़ बहुत दया से देखता है जब मैं ऐसे बेवकूफ़ी वाले प्रश्न पूछता हूँ. जब पँडित जी ने महूर्त का समय बताया है तो इसमे अज़ीब क्या? उसके कहने का तात्पर्य है कि हिंदू धर्म के प्रति मेरी श्रद्धा में कुछ कमी है.

"अच्छा साईं बाबा के बारे में आप का क्या विचार है?", इस बार प्रश्न पूछने की बारी बिनिल की थी. साई बाबा! मुझे पहले तो समझ नहीं आया क्या कहूँ. बहुत साल पहले दिल्ली में मेरी सीमा मौसी को साई बाबा की भक्ति का भूत चढ़ा था. उनके घर में एक बहुत बड़ी तस्वीर लगी थी जहाँ घर में आनेवाले सभी को जा कर दर्शन कराये जाते थे. "बाबा जी की विभूति", तस्वीर के सामने उन्होंने मुझे इशारा किया था. "विभूति माने क्या?, मैंने पूछा.

"बाबा का चमत्कार. उनकी तस्वीर से यह विभूति अपने आप ही आ जाती है!" कहते हुए उन्होंने हाथ जोड़ दिये थे. शायद मौसा की सिगरेट की राख होगी जो हवा से उड़ कर वहाँ गिर गयी, मैंने मन ही मन कहा था और सोचा था कि भारत में उनके इतने गरीब भक्त हैं उनका जीवन सुधारते तो चमत्कार होता. खैर अपने परिवार की यह सब पुरानी बातें बिनिल को क्या सुनाता, बोला, "साई बाबा का क्या? वह तो बहुत चमत्कार करते है, सुना है."

साई बाबा की एसोशियेशन वाले दुर्गा पूजा में "भोजन" करना चाहते हैं. पिछले साल भी किया था पर यह बात परिषद के सभी सदस्यों को अच्छी नहीं लगी थी, जिनका विचार था कि साईबाबा मुसलमान हैं. बँगलादेश से आये हिंदू इस पूजा में मुसलमानों से जुड़ा कुछ भी नहीं चाहते. कुछ देर लगी मुझे समझने में कि बात भोजन की नहीं भजन की थी. पर मुझे क्या मालूम था साई बाबा के बारे में जो इसका उत्तर देता? वह केवल हिंदुओं द्वारा पूजे जाते हैं या फ़िर उनके भक्तों में मुसलमान भी हैं, यह मुझे नहीं मालूम. सोचा कि चुपचाप सिर हिलाने में ही भलाई है. नहीं साईंबाबा मुसलमान नहीं हैं, अंत में बिनिल ने निर्णय लिया.

पाँच दिन का प्रोग्राम लिखने में दो घँटे निकल गये. बस बिनिल बाबू अब आप जाईये, मैंने कहा. पत्नी मुझे तीखी नजर से देख रही थी. ड्राईंगरुम में बैठे थे हम, इसलिए आज उसने टीवी नहीं देखा था. मैंने खाना भी नहीं खाया था और अभी कुत्ते को सैर कराना बाकी था. बेमन से उठे बिनिल बाबू जैसे कि मुझे छोड़ते समय बहुत दुख हो रहा हो, फ़िर जाते जाते, दरवाजे पर रुक गये, "आप इस प्रोग्राम को बँगला में भी लिख सकते हैं क्या क्मप्यूटर पर?"

शुक्रवार, सितंबर 01, 2006

सांस्कृतिक भिन्नता

मैं अपनी मित्र के साथ बाग में बने केफ़े में बैठा था. बहुत समय के बाद मुलाकात हुई थी. वह यहाँ से करीब सौ किलोमीटर दूर रिमिनी शहर में रहती है. बोली, "तुम्हें 16 सितम्बर को रिमिनी आ सकते हो क्या, हम लोग एक सभा कर रहे हैं, तुम भी होगे तो अच्छा लगेगा."

सोचना नहीं पड़ा, बोला, "16 को तो शायद नहीं आ पाऊँगा, उस दिन भारत से मेरे दादा भाभी यहाँ आ रहे हैं, दादा की पेरिस में मीटिंग है और वहाँ से वे दोनो तीन चार दिनों के लिए यहाँ आएँगे."

"पर तुम्हारा तो कोई भाई नहीं है!" उसने कहा तो मैंने बुआ के परिवार के बारे में बताया और कुछ भारतीय परिवारों के बारे में कि बुआ या मामा के बच्चे अपने सगे भाई बहनों से कम नहीं होते.

"एक शाम की ही तो बात है, उन्हें कुछ घँटों के लिए घर के बाकी लोगों के साथ रहने देना, तुम्हारे बिना सभा अच्छी नहीं होगी", उसने ज़िद की.

मुझे हँसी आ गयी, "वाह, इतने सालों के बाद भाभी के साथ रहने का मौका मिलेगा, उसमे से एक पल भी नहीं खोना चाहूँगा." मैंने उसे उन दिनों के बारे में बताया जब दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ता था, तब दादा और भाभी का प्रेम चल रहा था, विवाह नहीं हुआ था, मुझे लगता था कि भाभी से सुंदर लड़की दुनिया में हो ही नहीं सकती. शादी के बाद कहता था कि भाभी जैसी लड़की मिलनी चाहिए!

"लगता है कि भाभी से कुछ विषेश ही प्यार है, उनकी बात करते हो तो तुम्हारी आँखों में चमक आ जाती है", मित्र बोली और मैंने सिर हिलाया. "क्या केवल मन ही मन प्यार करते थे या बात कुछ आगे भी बढ़ी कभी?" वह प्रश्न पूछते समय मुस्करायी.

स्तब्ध रह गया मैं. छीः, यह कैसा बेहूदा प्रश्न हुआ? अचानक गुस्सा आ गया, कुछ बोला नहीं पाया. शायद उसने मेरे चेहरे से भाँप लिया था कि उसका प्रश्न कुछ ठीक नहीं था, बोली, "क्या हुआ? नाजुक सवाल था शायद, इस बारे में बात नहीं करना चाहते?"

मैंने स्वयं को समझाया कि गुस्सा करना बेकार था, यह हमारी सोच की सांस्कृतिक भिन्नता थी. उसे भारतीय परिवार में देवर भाभी के रिश्ते की क्या समझ हो सकती थी? उसे क्या मालूम था रामायण के बारे में और सीता और लक्षमण के आदर्श के बारे में? उसे इसके बारे में कुछ तो बताया पर अंदर से लगा कि ठीक से समझाना कठिन होगा.

गुस्सा ठँडा हुआ तो शाम को घूमते समय, मन में छुपे सामाजिक और नैतिक निषेधों के बारे में सोचने लगा, जो बचपन से ही रामायण और अन्य कथाओं से, या फ़िर आम व्यावहार से हमारे विचारों में इस तरह घुलमिल जाते हैं. उन्हे छेड़ना सोते शेर को जगाना है. उसका इशारा मात्र ही हिला कर रख देता है.

संयुक्त परिवार में जहाँ विभिन्न भाई साथ रहते हैं, उस समाज में जहाँ किशोरावस्था के बाद युवक और युवतियों को मिलने का, साथ रहने का मौका मिलना कम हो जाता है या नहीं रहता, उस स्थिति में देवर भाभी के रिश्ते को निषेधों में इस तरह बाँधना कि रिश्ते की सीमाओं को पार करना का विचार भी पाप लगे, परिवार की शाँती और समाज की स्थिरता के लिए आवश्यक होगा, पर जब स्थिति बदल जाती है तो क्या पुराने निषेध भी बदल जाते हैं? जैसे आज जब संयुक्त परिवार टूट रहे हैं या कम हो रहे हें तो क्या भारतीय समाज में भी देवर भाभी के नाते बदल जायेंगे?
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बहुत साल पहले डेविड लीन की फ़िल्म रायन की बेटी (Ryan's Daughter) देखी थी. आयरलैंड के समुद्री तट पर बसे एक गाँव के पब मालिक रायन की बेटी रोज़ी (Sarah Miles) की कहानी थी. जीवन से भरी, चंचल रोज़ी का विवाह होता है गाँव के शाँत प्रौढ़ स्कूल मास्टर (Roberto Mitchum) से. रोज़ी की दोस्ती हो जाती है गाँव में आये एक अँग्रेजी सिपाही (Christopher Jones) से. बाद में जब आयरिश क्राँतीकारियों की बँदूकें पकड़ी जाती हैं तो सबका शक रोज़ी पर ही पड़ता है, गद्दार हो कर दुश्मन के पुरुष को प्यार करने के अपराध की सजा मिलती है उसे जब गाँव के लोग उसका सिर मूढ़ कर, मुँह काला कर देते हैं.

द्वितीय महायुद्ध के दौरान इतालवी और फ्राँसिसी महिलाओं के जर्मन सिपाहियों से प्यार और सम्बंधों को भी युद्ध के बाद ऐसी ही सजा दी गयीं थीं.

कल रात को समाचारों में जब चेचेन्या की मल्लिका को पुलिस द्वारा नँगा करके, सिर मूढ़ा कर, माथे पर हरा निशान बना कर मार खाने का वीडियो देखा तो रायन की बेटी की याद आ गयी. मल्लिका का कसूर है कि उस पर चेचेन्या की मुसलमान हो कर रुसी दुश्मनों के इसाई सिपाही से प्यार करने का शक है. यह वीडियो न्यू योर्क टाईमस के वेबपृष्ठ पर देखा जा सकता है.

सच है कि इतिहास नहीं बदलता, बार बार हम अपना सभ्य होना भूल कर पुरानी बर्बरता में गिर जाते हैं. कमज़ोर पर ही इस बर्बरता की भड़ास निकाल जाती है, सबसे अधिक औरतों पर. नेपाल में जब घर में होने वाली हिंसा की बात हो रही थी तो गाँव की औरते कहती थीं कि पतियों को गर्भवती स्त्री के पेट पर लात मारने में विषेश आनंद आता है. गर्भवती मल्लिका को लात मारने वाले पुलिस वालों को भी इसी आनंद की खोज है. कितने भिन्न हैं हम आपस में और कितने मिलते हैं एक दूसरे से!

गुरुवार, अगस्त 31, 2006

बदलती रुचियाँ

एक समय था जब रविवार के आनंद का महत्वपूर्ण भाग होता था बिस्तर में लेटे लेटे गर्म चाय की चुस्कियाँ लेते हुए, अखबार पढ़ना. पढ़ने का इतना शौक था कि अखबार भी पहले से आखिरी पन्ने तक पढ़ी जाती थी. आदत के मारे सुबह आँख जल्दी ही खुल जाती थी, पर रविवार को अखबार देरी से आता था. जैसे ही अखबार वाला बाहर से अखबार को फ़ैंकता तो उसके गिरने की आवाज़ सुनते ही अखबार उठाने के लिए बाहर भागता, फ़िर उसके पन्ने घर में सब लोगों में बँट जाते ताकि किसी को भी उसे पढ़ने के लिए अधिक इंतज़ार न करना पड़े.

बचपन में तो घर में अखबार हिंदी का ही आता था, "नवभारत टाईमस". पर किशोरावस्था में आते आते, उसके साथ अँग्रेज़ी का "इँडियन एक्सप्रैस" भी जुड़ गया था. बुआ जो करीब ही रहतीं थीं, के यहाँ आता था अँग्रेज़ी का "हिंदुस्तान टाईमस", पर उसके तीन चार पन्नों के शादियों, घरों और नौकरियों के विज्ञापनों को देख कर मुझे खीज आती थी. सोचता था यह भी कैसा अखबार है, अखबार कम विज्ञापन की दुकान है.

वे दिन थे जब अरुण शौरी और चित्रा सुब्रामणियम "इँडियन एक्सप्रैस" में प्रति दिन राजीव गाँधी के विरुद्ध बोफोरस के घपले की नयी पोल खोलते थे. अखबार पढ़ना तब रोमाँचक उपन्यास पढ़ने से कम नहीं था. उन दिनों में अरुण शौरी का कुछ भी छपता तो उसे पढ़ने की बहुत उत्सुक्ता रहती थी. तब उनके लिखने का ढ़ँग भी अलग था. आजकल जैसे बाल की खाल निकाल कर उसे हज़ार टुकड़ों में बाँट कर, यहाँ वहाँ से रेफेरेंस दे कर वह कुछ उबा सा देते हैं, तब वैसा नहीं लिखते थे. वही दिन थे जब "इंडियन एक्सप्रैस" के प्रति मन में इतना विश्वास बन गया था कि जब तक भारत में रहे वही अखबार घर में आया.

"इँडियन एक्सप्रैस" के प्रति श्रद्धा का एक अन्य कारण भी था. पापा की अक्समात मृत्यु के बाद श्री जयप्रकाश नारायण के कहने पर अखबार के मालिक गोयनका जी ने छात्रविती दे कर मेरी और मेरी छोटी बहन की मेडिकल कालिज की पढ़ाई पूरी कराई, वरना कम से कम मुझे तो पढ़ाई छोड़ कर काम खोजना पड़ता.

यहाँ आ कर अपने चहेते अखबारों और पत्रिकाओं से धीरे धीरे नाता टूट गया. जब सारिका, धर्मयुग और साप्ताहिक हिंदुस्तान के प्रकाशन रुक गये तो भारत से पत्रिकाएँ मँगवाना बस "हँस" तक ही सीमित रह गया.

केवल पिछले कुछ वर्षों में अंतर्जाल की सुविधा के साथ भारतीय लेखन से नाता दोबारा जुड़ा है पर यह नाता पिछले नातों से भिन्न है. समय सीमित होता है इसलिए उपयोग सिर्फ़ उस जगह होता है जहाँ अधिक आनंद और संतोष मिले. आज कल अधिकतर समय, ८० प्रतिशत तक समय तो चिट्ठों के साथ गुजरता है, हिंदी और अँग्रेजी के भारतीय मूल के छिट्ठाकारों के जगत में.

अखबारों में कभी "हिंदुस्तान टाईमस" के पृष्ठों को देख लेता हूँ पर भारत के राजनीतिक समाचारों में रुचि कम हो जाने से वहाँ भी कम ही पढ़ता हूँ. अंतर्जाल के संस्करणों में बाकी के अखबार उतने अच्छे नहीं लगते. इसलिए मन में अभी भी कृतज्ञता की भावना के होते हुए भी, अंतर्जाल पर "इंडियन एक्सप्रैस" पढ़ना नहीं अच्छा लगता.

हिंदी फिल्म जगत में दिलचस्पी अवश्य बनी हुई है पर जिन पत्रिकाओं को भारत में पढ़ना अच्छा लगता था जैसे फिल्मफैयर इत्यादि, अंतर्जाल पर उनको पढ़ने में उतना आनंद नहीं आता बल्कि इंडिया एफएम या रिडिफ कोम जैसे अंतर्जाल पृष्ठ अधिक अच्छे लगते हैं क्योंकि वहाँ हर दिन नये समाचार मिलते हैं. जबकि फिल्मफैयर जैसी पत्रिकाओं के अंतर्जाल पृष्ठ छपे कागजं से सीधे अंतर्जाल पर उतार दिये गये लगते हैं.

अँग्रेजी की पत्रिकाएँ आऊटलुक और द वीक जिन्हें भारत में पढ़ना अच्छा लगता था, कोशिश करता हूँ कि उन्हें पढ़ने के लिए समय नियमित रुप से निकाला जाये, पर समय चिट्ठों मे निकलने की वजह से कभी कभी उन्हे पढ़े भी हफ्ते हो जाते हैं.

प्रवासी भारतीयों ने भारतीय फिल्मों पर अपना प्रभाव छोड़ा है, प्रवास में बाज़ार का मूल्य बढ़ने से, फिल्में अब प्रवासियों की रुचि को देख कर भी बनायी जाती हैं, पर क्या प्रवासियों का प्रभाव अखबारों और पत्रिकाओं पर भी पड़ेगा? आज की बढ़ती नयी तकनीकों का क्या प्रभाव पड़ेगा भारतीय मीडिया पर?

आप लोगों के इसके अनुभव कैसे हैं मालूम नहीं पर अगर सभी लोग मेरी तरह के होने लगे तो भविष्य में हमारी रुचियों के इन बदलावों का भारतीय पत्रकारिता पर क्या असर होगा? आज भारत में अधिकतर लोगों के लिए अंतर्जाल केवल एक शब्द है जिसका उन्हें व्यक्तिगत अनुभव न हो, न ही शायद अधिकतर भारतीयों के जीवन इतनी तेज़ी से भाग रहे हैं कि उन्हें मेरी तरह रुक कर सोचने की फुरसत ही न हो, इसलिए हो सकता है कि निकट भविष्य में इसका असर शायद कुछ न हो?

शुक्रवार, अगस्त 25, 2006

जीवन मृत्यु

रोम के भारतीय दूतावास पर प्रवासी भारतीय नागरिकता के कार्ड के लिए अपने और पुत्र के कागज़ जमा करवाने थे, सुबह सुबह बोलोनिया से गाड़ी में हम लोग निकले, मैं, पुत्र और पुत्रवधु. तीन महीने हो गये पुत्रवधु को इटली आये, सोचा कि काम समाप्त होने के बाद रोम की सैर भी जाये तो चार घँटे की जाने की और चार घँटे की वापस आने की यात्रा का कुछ लाभ होगा.

भारतीय दूतावास पहुँचते पहुँचते ग्यारह बजने लगे थे. छोटे से तँग गलियारे से घुसने का रास्ता, अँदर वीसा लेने वाले विदेशियों और पासपोर्ट नये बनवाने वाले भारतीयों की भीड़, उमस भरी गर्मी में छत पर टँगा धीरे धीरे घूमता पँखा, और ऊपर दफ्तर में फाईलों के पहाड़ों के पीछे छुपे बाबू लोग, यानि अगर भारत जाने के लिए पैसे न हों और मातृभूमि की बहुत याद आ रही हो तो दूतावास में घुसते ही लगता है कि दिल्ली के किसी सरकारी दफ़्तर में ही पहुँच गये हों. पर एक महत्वपूर्ण अंतर था, प्रवासी भारतीय नागरिकता के जिम्मेदार व्यक्ति का हमसे इज्जत से बात करना और सब कुछ ठीक से समझाना. हालाँकि भीड़ बहुत थी पर इंतज़ार भी बहुत अधिक नहीं करना पड़ा सब काम पूरा करने में.

काम पूरा करके सारी दोपहर और शाम रोम घूमने में निकल गयी. पहले कोलोसियम, फ़िर रोम के प्राचीन सम्राट के महलों के खँडहर, फ़िर मार्को आउरेलियो का भव्य भवन काम्पी दोलियो जहाँ आजकल नगरपालिका का दफ़्तर है और कला सँग्रहालय भी है, फ़िर युद्ध में मरे सैनिकों की याद में बने विटोरियानो, फ़िर नाव के आकार में बना नवोना चौबारा और त्रेवी का फुव्वारा, फ़िर वेटीकेन में सेंट पीटर. पाँच छहः घँटों में रोम के एक कोने से दूसरे कोने तक पर्यटकों के लिए सभी महत्व वाले स्थानों को बाहर बाहर से देख चुके थे. बस अब और कुछ नहीं होगा, वापस बोलोनिया की ओर चलना चाहिए सोच कर उस कार पार्क की तरफ़ लौटे जहाँ गाड़ी रखी थी.

चलते चलते तो मालूम नहीं हुआ था पर गाड़ी में बैठते ही दर्द की आह को नहीं रोक पाया. हल्का सा थैला था कँधे पर जिसमें दूतावास के कागज़ और कैमरा थे, वह दर्द से जकड़ गया था, दोनों घुटनों का बाजे अलग बज रहे थे. पुत्र और पुत्रवधु थके अवश्य थे पर मेरी तरह दर्द से नहीं कराह रहे थे. घर पहुँचते रात के ग्यारह बज रहे थे और शरीर का कोई अंग ऐसा नहीं था जहाँ दर्द न हो रहा हो, सी सी करते सीढ़ियाँ चढ़ीं. रात को पत्नी ने बाम लगा कर कँधे, कमर और टाँगों की मालिश की और बोली, "अब बचपना छोड़ो और अपनी उम्र को याद रखो. अब बच्चे नहीं हो कि कुछ भी भागा दौड़ी कर लो, हड्डियाँ माँस पेशियाँ अपनी उम्र दिखाने लगी हैं, उनका नहीं सोचेगो तो रहे सहे से भी जाते रहोगे."
*****
शायद यह जोड़ों में हो रहे दर्द का असर था, या फ़िर बिना वजह कभी कभी अचानक मन में आ जाने वाली उदासी का असर था. ओम थानवी जी का निर्मल वर्मा की मृत्यू पर लिखे आलेख को पढ़ कर मन बार बार मृत्यु और गुजरते समय के बारे में सोच रहा था. भारत में रहते हुए मृत्यु को भुलाना आसान नहीं है, जीवन और मृत्यु दोनो ही अपनी पूरी शक्ति के साथ जीवन के हर पहलू में घुले मिले हैं. किसी के दाह संस्कार पर जाईये तो अग्नि में भस्म होते शरीर को देख कर समझ आता है कि मृत्यू जीवन का ही दूसरा पहलू है, उसका अभिन्न अंग.

पर किसी के दाह संस्कार में गये बरसों बीत गये हैं. हर बार भारत जाओ तो मालूम है ये नहीं रहे या वे नहीं रहे. नाना नानी, बुआ फूफा, मौसी, मित्र. पर सबके समाचार मिले जब भारत से दूर था. और इटली में पत्नी के परिवार में या फ़िर जान पहचान के लोगों में जब भी किसी की मृत्यु हुई तो मैं कहीं विदेश यात्रा में था. हालाँकि इसाई कब्र में रखते शरीर की छवि में मुझे वह दाह संस्कार वाली "यही अंत है, धूल में मिल गया सब फ़िर से" जैसी बात कम लगती है पर यहाँ भी मुझे किसी प्रियजन की मृत्यु पर साथ रहने का मौका नहीं मिला.

ओम जी ने अपने आलेख में लिखा है, "हम चिता की बगल में एक पत्थर की बैंच पर बैठे हुए थे. चिता की राख और आँच रह रह कर इसी तरफ़ आती थी. हर झोंका आग की लपटों के साथ यादों के अनगिनत थपेड़े साथ लाता था. मेरी सूनी नज़र चिता पर टिकी थी, बल्कि उनके कपोल पर..." . पढ़ कर झुरझुरी सी आ गयी.

यहाँ जीवन में लगता है कि मौत जैसे है ही नहीं, जैसे हम सब शास्वत अंतहीन जीवन का वरदान पाये हुए हैं, यह करो, वह बनाओ, इसको कैसे काटो, उसको कैसे नीचा दिखाओ, जवान लगो, पतले लगो, स्वस्थ रहो, यह खाओ, यह न खाओ, अंतहीन चक्कर जिसमें मृत्यु कहीं भूलभुल्लियाँ में छुपी हुई है, उसकी कोई बात न करो, लगना चाहिए कि वह है ही नहीं और शायद वह सचमुच खो ही जायेगी!

यमराज का नचिकेता को उत्तर, "सस्यमिव मर्त्यः पच्यते सस्यमिवाजायते पुनः" मानो हमारे ऊपर नहीं लागू होता, वह तो केवल अन्य लोगों के लिए बना है. पर जब शरीर आने वाली वृद्धावस्था के संकेत महसूस करने लगता है, तो शायद हमें उस आने वाले अंतिम पल के बारे में भी सोचना चाहिए, उसकी तैयारी करनी चाहिए?

जब तक कमर, कँधे और टाँगों का दर्द कम हुआ तो बिस्तर पर लेटे लेटे यही सब विचार मन में आ रहे थे.
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पुस्तकालय जा रहा था तो बस स्टाप वह दिखा. करीब आ कर उसने धीरे से पूछा, "आप पाकिस्तान से हैं क्या?"

"नहीं मैं भारत से हूँ, क्या आप पाकिस्तान से हैं?" मैंने पूछा. यहाँ बोलोनिया में भारतीय बहुत कम हैं और पाकिस्तानी बहुत अधिक इसलिए अपने जैसा चेहरा दिखे तो पहला विचार यही मन में आता है कि "पाकिस्तानी होगा". वह मुस्कुरा कर बोला, "नहीं मैं भी इंडिया से हूँ, होशियार पुर से".

साथ में बस में सफ़र करते करते उसने अपनी कहानी सुनाई. दसवीं पास है वह और मेटल का काम जानता है. 29 साल का है पर देखने में बहुत छोटा लगता है. सोलह महीने की यात्रा की है उसने यहाँ पहुँचने के लिए. पंजाब में बरोड़ नाम के किसी एँजेंट को पाँच लाख रुपये दिये और रूस में मोस्को पहुँचा, जहाँ पाँच महीने जेल में रहा. फ़िर एँजेंट के किसी आदमी ने जेल से निकलवाया. फ़िर यूक्रेन पहुँचा, वहाँ अन्य पाँच महीनो के लिए जेल. फ़िर किसी ने जेल से निकलवाया. यात्रा उसे अन्य कई देश ले गयी जिनके बारे में वह कुछ अधिक नहीं बता पाता. अंत में समुद्र में लहरों से लड़कर छोटी सी नाव में पहुँचा इटली की सीमा रक्षा करने वालों के हाथ यहाँ की एक जेल में. किसी मानव अधिकारों की बात करने वाले ने बाहर निकलने में सहायता की और शरणार्थी के फोर्म भरने की सहायता की. अब उसे कोई भारत वापस नहीं भेज सकता, क्योंकि वह किसी को नहीं बताता कि उसका पासपोर्ट और कागज़ कहाँ हैं और बिना कागजों के न तो भारत उसे स्वीकारेगा न पाकिस्तान. आजकल श्रीलँका के एक व्यक्ति के साथ रहता है और काम खोज रहा है. तब तक भूखा न मरने के लिए घर से पाँच सौ यूरो मँगवाये हैं.

उसकी आँखों में आशावान जीवन चमकता है, "एक बार काम मिल जायेगा तो घर की दरिद्री दूर हुई समझो, सब ठीक हो जायेगा. सब काम करने को तैयार हूँ, कुछ भी थोड़ा सा दे दो. कोई काम हो तो बताईयेगा."

साथ आने वाले कितने मरे और कितनों ने यह यात्रा पूरी की, पूछने का साहस नहीं हुआ. हर रोज़ टीवी पर समुद्र में गैरकानूनी आने वालों के मरने के समाचार बताते हैं, वह किसमत वाला है, मरा नहीं, जीवित पहुँच गया. जीवन जीवित रहने के लिए हिम्मत नहीं हारता, एक मुठ्ठी भर जगह चाहिए उसे, बस खड़ा होने भर की, जिंदा रहने के लिए पत्थर में भी जड़े खोद कर पानी खोज लेगा.
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रोम यात्रा से कुछ तस्वीरें प्रस्तुत हैं.








सोमवार, अगस्त 21, 2006

सही या गलत

मैं लंदन में अपनी पुरानी मित्र पाम के यहाँ बैठा था और बात हो रही थी यूरोपीय जन स्वास्थ्य अभियान की एक मीटिंग के आयोजन की. बात आयी कि विषय पर विशिष्ट भाषण देने के लिए किस जानी माने व्यक्ति को बुलाया जाये. कुछ नाम लेने के बाद मैंने कहा कि सुप्रसिद्ध अमरीकी लेखक व जाने पहचाने सहयोगी को बुलाया जाये (जानबूझ कर उनका नाम यहाँ लेना ठीक नहीं समझता) तो पाम ने न कहते हुए सिर हिला दिया. क्यों, वह बहुत अच्छा बोलता है और उसके आने से हमारी सभा में लोग भी बहुत आयेंगे. "तुमने उसके पीडोफिलिया (किशोरावस्था से छोटे बच्चों के साथ यौन सम्बंध करना) की बात नहीं सुनी?" पाम ने पूछा. छीः, मुझे विश्वास नहीं हुआ कि कोई इतने अच्छे व्यक्ति के बारे में ऐसा भी सोच सकता है! सिर्फ बातें नहीं हैं, सच है, पाम ने बताया, "मैंने स्वयं उससे इस विषय में बात की है, सब सच है. वह स्वीकारता है पर वह कहता कि वह कुछ गलत नहीं कर रहा. वह किसी बच्चे से कभी जबरदस्ती नहीं करता. बच्चों में भी यौनता होती है और उन सभी बच्चों से उसे बहुत प्रेम है, कहता है."

बहुत धक्का लगा यह सुन कर.

अँग्रेजी में वैज्ञानिक साहित्य के सुप्रसिद्ध लेखक आर्थर सी क्लार्क जिन्होंने "2001 ए स्पेस ओडिसी" जैसी फिल्मों की कहानी लिखी, जो कि श्रीलंका में बहुत सालों से रहते हैं, उनके बारे में एक बार ऐसी ही बात सुनी थी और कहा गया था कि उन्होंने अपने बचाव में ऐसा ही कुछ कहा था कि वह तो उन गरीब बच्चों की मदद कर रहे हैं और उन्होंने कभी किसी बच्चे से जबरदस्ती नहीं की. बाद में श्री क्लार्क पर से यह इलज़ाम हटा लिया गया था और उन्हें ब्रिटिश सरकार से नाईट (Knight) का खिताब भी मिला था.

यह सोचना कि बच्चों के साथ जबरदस्ती नहीं होती, प्रेम का सम्बंध होता है, मेरे विचार में सच्चाई से भागना है. छोटा बच्चा जिसका व्यक्तित्व नहीं बना, अपने साथ रहने वाले व्यस्क व्यक्ति पर शारीरिक जरुरतों के साथ साथ भावात्मक जरुरतों पर भी निर्भर होता है और बच्चों से यौन सम्बंध उसी भावात्मक निर्भरता का गलत उपयोग करते हैं. यह तो हर हालत में बाल बलात्कार ही होगा, एक घृणित अपराध.
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मैं और मेरे इतालवी साथी रोबर्तो दक्षिण अमरीकी देश गुयाना में एक स्टीमर में नदी पार कर रहे थे. रोबर्तो और मेरी बहस करने की पुरानी आदत है, उसे मुझे भड़काना अच्छी तरह से आता है. जहाँ मुझे हर बात के विभिन्न पहलू देखना अच्छा लगता है, रोबर्तो की नजर में दुनिया की हर बात के दो ही पहलू होते हैं, एक सही और दूसरा गलत. उस दिन भी हम दोनो बहस में उलझे थे. तभी एक छोटा सा बच्चा हारमोनिका बजाता हुआ सामने आ खड़ा हुआ. बच्चे के संगीत के समाप्त होने पर मैंने उसे कुछ पैसे दिये और पास बुला कर उससे उसका नाम पूछा और पूछा कि वह स्कूल जाता है या नहीं? कुछ देर तक बाते करते रहे तो मैंने बच्चे से पूछा कि क्या मैं उसकी तस्वीर ले सकता हूँ? बच्चे के हाँ कहने पर उसकी तस्वीर ले रहा था कि रोबर्तो ने इतालवी में कहा, "ध्यान रखो, अधिक छूओ नहीं बच्चे को, दूर दूर से बात करो, अगर इस बच्चे का बाप यहाँ आसपास होगा तो समझेगा कि तुम भी पीडोफाईल (किशोरावस्था से छोटे बच्चों से यौन सम्बंध रखने वाला व्यक्ति) हो!"

हमारी भारतीय संस्कृति में बच्चों को लाड़ना पुचकारना सामान्य बात समझी जाती है और जाने अनजाने किसी को भी हम अंकल जी और आंटी जी बना लेते हैं, इस तरह की बात मेरे मन में आ ही नहीं सकती थी कि कोई मेरे कोतूहल को इस दृष्टि से भी देख सकता था. मैंने सुना है गोवा में कुछ पर्यटक इसी लिए पकड़े गये थे कि छोटे बच्चों को पैसे दे कर उनसे यौन सम्बंध बनाते थे. बैंकाक की बच्चियाँ या कलकत्ता के सोना गाची की बच्चियाँ जिन्हें छोटी सी ही उम्र में शरीर बेचने के काम में लगा दिया जाता है, उसके बारे में भी सुना है इसलिए मानता हूँ कि दुनिया में ऐसे लोग भी होते हैं जिनसे माँ पिता को सावधान रहना चाहिए.

पर यह सोच कर कि कोई हमें इस संदेह से न देखे, इसलिए हम अपनी प्राकृतिक जाने अनजाने बच्चों को प्यार करने की भावना को दबा दें, मुझे ठीक नहीं लगता. दूसरी तरफ़ किसी के मुख पर नहीं लिखा होता कि उसके मन में क्या होता है, तो फ़िर क्या करें? क्या सही है और क्या गलत?

शनिवार, अगस्त 19, 2006

स्ट्रिंग आप्रेशन और स्त्री भ्रूण हत्या

भारत से एक मित्र ने समाचार दिया है कि सहारा टीवी पर एक स्ट्रिंग आप्रेशन दिखाया गया है जिसमे राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात और उत्तर प्रदेश के डाक्टरों को भ्रूण की लिंग जाँच करते हुए तथा स्त्रीलिंग के भ्रूणों का गर्भपात करते हुए दिखाया गया है. करीब सौ डाक्टरों के बारे में दिखाया जा चुका है. कई जगह पर गर्भपात कानूनी सीमा के बाहर, यानि कि २० सप्ताह से बड़े भ्रूणों के गर्भपात भी किये जा रहे हैं. राजस्थान सरकार ने कुछ डाक्टरों को सस्पैंड किया है पर उनके विरुद्ध कोई कानूनी कार्यवाही नहीं प्रारम्भ की गयी है. राजस्थानी डाक्टरों के सहयोग में भारतीय मेडिकल काऊँसिल ने पत्रकार तथा टीवी चैनल के विरुद्ध बाते कहीं हैं और स्ट्रिंग आप्रेशनों पर रोक लगाने की माँग की है. मेरे मित्र का कहना है कि इन डाक्टरों को सजा देने के लिए अंतरजाल के द्वारा राजस्थान सरकार को पेटीशन भेजने के लिए सबको सहयोग देना चाहिए.

संदेश पढ़ कर मन बहुत से बातें उठीं, जिनमें कुछ विरोधाभास भी है. जाने क्यों, मुझे स्ट्रिंग आप्रेशनों का सुन कर अच्छा नहीं लगता. कुछ गलत होते हुए की छुप कर तस्वीरें तथा वीडियो लेना और उसे टीवी पर दिखाना मुझे मुकदमा सा लगता है जिसमें अपराधी के पास अपने बचाव के लिए कोई रास्ता नहीं होता है और जन समान्य के सामने, वह तुरंत दोषी साबित हो जाता है. यह बात मुझे ठीक नहीं लगती क्योंकि मेरे विचार में सभी के मानव अधिकार हैं, अपराधियों के भी जब तक वे अपराधी साबित न हो जायें और सभी को कानून में अपनी रक्षा करना का हक होना चाहिए. मैं मानता हूँ कि एक बार कानून का रास्ता छोड़ कर हम स्वयं लोगों को दोष देने और सजा सुनाने का अधिकार ले लेते हैं तो सही या गलत कहना सब हमारे हाथ में होता है और सभ्य समाज में यह अधिकार केवल कानून को होना चाहिए. वीडियो में क्या दिखाया जाये, किस बात को काट कर छुपा लिया जाये, यह सब दिखाने वाले पर निर्भर करता है.

दूसरी ओर यह भी मानना पड़ेगा कि कानून कुछ भी फैसला करने में इतनी देर लगाता है और ताकतवर संघों के हिस्से बने लोगों के विरुद्ध कानून भी कुछ नहीं कर पाता, जबकि टीवी पर दिखाने से तुरंत कुछ न कुछ न्याय तो हो जाता है. तीसरी बात यह है आज जब नये तकनीकी उपकरण हैं तो पत्रकार उनका सहारा क्यों न लें. इसी विषय पर अखबार में या किसी पत्रिका में अगर पत्रकार लिखते हैं और वह ठीक लगता है तो टीवी के पत्रकारों द्वारा वीडियो का इस्तमाल क्यों गलत माना जाये? यानि इस विषय पर मेरे विचारों में कुछ विरोधाभास है और मुझे अन्य लोगों की राय जानना अच्छा लगेगा.

रही बात स्त्री भ्रूण हत्या की, यह दुर्भाग्य है भारत का कि ऐसे घृणित अपराध को समाजिक समर्थन सा मिल गया है वरना इतने कानून होने के बाद भी यह समस्या यूँ न बढ़ती जाती. करीब पंद्रह वर्ष पहले अमर्त्या सेन ने जनसँख्या सम्बंधी आँकणे देख कर भारत की 10 करोड़ "गुमशुदा औरतों" का प्रश्न उठाया था. उनका कहना था कि हर देश में पुरुषों और स्त्रियों की संख्या करीब बराबर या स्त्रियों की संख्या कुछ अधिक ही होती है और इस हिसाब से भारत में करीब दस करोड़ स्त्रियाँ कम हैं. तब यह सोचा गया था कि स्त्रियों के साथ भेदभाव की वजह से है, क्योंकि उन्हें खाना कम दिया जाता है, उनकी पढ़ाई कम होती है, बीमार पड़ने पर उनका इलाज कम होता है. आज स्थिति और भी बिगड़ गयी है क्योंकि नयी तकनीकों से पैदा होने से पहले ही जाना जा सकता है कि पैदा होना बच्चा लड़का होगा या लड़की, और लड़की होने पर भ्रूण का गर्भपात कर दिया जाता है.

पिछले वर्ष की भारतीय स्वास्थ्य मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार हर 1000 पुरुषों के मुकाबले में स्त्रियों की संख्या विभिन्न प्रदेशों में कुछ इस प्रकार की है - आँध्र प्रदेश 978, बिहार 919, दिल्ली 821, गुजरात 920, गोवा 961, हरियाणा 861, केरल 1058, पंजाब 876, त्रिपुरा 948, आदि. यानि यह समस्या अधिकतर उत्तरी और विषेशकर उत्तर पश्चिमी भारत में अधिक है. दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, गुजरात जैसे समृद्ध प्रदेशों में.

मेरी एक गायनेकोलोजिस्ट मित्र जो दिल्ली के पास गाजियाबाद में अक्सर ऐसे गर्भपात के आप्रेशन करती है, उससे एक बार इसी विषय पर बात कर रहा था. वह बोली, "जब कोई औरत तुम्हारे सामने आ कर रोये, पैर पकड़ कर मदद माँगे, जिसके सास ससुर और पति उसे तंग करते हों, लड़की हुई तो उसे छोड़ कर दूसरी शादी करने की धमकी देते हों, तो न न करते करते भी दिल पसीज जाता है. आजकल अल्ट्रासाऊँड करना तो टेकनिशयन जानते हैं, उसके लिए डाक्टर की जरुरत नहीं. एक बार स्त्री को मालूम हो जाये कि पेट में लड़की पल रही है तो वह अपना सोचे या होने वाले बच्चे का? लड़की की कोई कीमत नहीं हमारे समाज में, सिर्फ बोझ है, यह सिर्फ उनके लिए नहीं जो गरीब हैं बल्कि उनमें अधिक है जिनके पास सब कुछ है."

सब डाक्टर केवल दया के लिए गर्भपात करते हैं यह मैं नहीं मानता. पैसे कमाने का लालच इसकी सबसे बड़ी वजह है. कानून बन कर भी कोई इसके विरुद्ध कुछ नहीं कर पा रहा तो समाज को कौन बदलेगा? जब तक समाज नहीं बदलेगा हर रोज़ हजारों बच्चों के खून की यह धारा कैसे रुकेगी? कौन बदलेगा हमारे धर्मग्रंथों को जो बेटे को सब कुछ मानते हैं और "पुत्रवती हो" का आशीर्वाद देते हैं?

गुरुवार, अगस्त 17, 2006

मेरे प्रिय कछुए

कछुआ भी कभी किसी का प्रिय पशु हो सकता है, मुझे विश्वास नहीं होता. मेरा सबसे प्रिय पशु तो कुत्ता है. बचपन से मुझे कुत्ते ही अच्छी लगते थे. नाना के यहाँ लूसी, मौसी के यहाँ राजा, जब भी किसी कुत्ते को देखता तो मन में सोचता कि काश मेरा भी कोई कुत्ता होता! एनिड ब्लाईटन की फेमस फाईव श्रृँखला की कोई किताब पढ़ने को मिलती तो जोर्ज और उसका कुत्ता टिम्मी मेरे सबसे प्रिय पात्र थे. किताब पढ़ता तो सपने देखता कि एक दिन मेरा भी कुत्ता होगा.

लेकिन माँ को कुत्ते बिल्कुल पसंद नहीं थे. "गंदा करते हैं, कौन साफ़ करेगा? नहीं, हमारे पास कुत्ते रखने की जगह नहीं", माँ कहती.

कभी सोचता, अगर पास में बिल्ली हो तो कैसा रहे? घर के आसपास कभी कोई बिल्ली के बच्चे मिल जाते तो कुछ दिन तक उनके पीछे दौड़ता. पर किसी बिल्ली से दिल का तार कभी ठीक से नहीं मिल पाया. कभी किसी बिल्ली के नाखूनों की खरौंचे खा कर मन दुखी हो जाता, कभी लगता कि बिल्ली को किसी की परवाह ही नहीं होती, वह अपनी ही दुनिया में रहती है, कभी मन किया तो करीब आ गयी, कभी मन न किया तो आप की ओर देखे भी नहीं.

कभी मन में सोचता कि पास में अगर बोलने वाला तोता हो तो कैसा रहे? यह इच्छा भी एनिड ब्लाईटन की ही पुस्तकों की वजह से ही मन मे आई थी. एडवेंचर श्रृँखला का तोता किकी भी मुझे टिम्मी कुत्ते जैसा ही पसंद था. उन सपनों के बहुत सालों के बाद दक्षिण अमरीका में एक यात्रा में एक बार रंग बिरंगे बड़े तोते देखे तो सोचा कि वैसा ही तोता होना चाहिए पर उन तोतों को अमेज़न के जँगल से बाहर ले जाना मना है इसलिए मन मसोस कर रह गया.

पर मन में कभी किसी कछुए के लिए ऐसा कुछ मससूस नहीं किया. मेरा स्कूल दिल्ली में बिरला मंदिर के साथ जुड़ा हुआ था और हर रोज़ दोपहर को खाने की छुट्टी का समय बिरला मंदिर के बागों में ही खेलते हुए गुज़रता था. वहाँ पानी में कछुए भी घूमते थे. हाई स्कूल के दिनों में एक दिन वहाँ एक मरा हुआ कछुआ मिला. मेरे साथी उसे देख कर नाक सिकोड़ रहे थे पर मैं उसे कागज़ में लपेट कर घर ले आया और माँ से छुप कर रसोई के चाकू से उसे काट कर उसके भीतर देखने की कोशिश करनी चाही. तब स्कूल में जीव विज्ञान की कक्षा में मेंढ़क जैसे जंतु काट चुके थे. पर रसोई का चाकू इस काम के लिए तेज़ नहीं था और कुछ नहीं काट पाया. अंत में तंग आ कर कछुए जी का बिना पोस्ट मार्टम किये ही दाह संस्कार कर दिया गया.

लेकिन आज हमारा घर कछुओं से भरा है. इस कथा का प्रारम्भ हुआ करीब पंद्रह सोलह साल पहले जब कोंगो से मेरा एक मित्र वहाँ से मेरे लिए हरे रंग के मेलाकीट पत्थर के बने दो कछुए ले कर आया. फ़िर पाकिस्तान से आने वाली एक मित्र मेरे लिए पेशावर से एक गुलाबी संगमरमर का कछुआ ले कर आई. बस वहाँ से शुरु हो गया हमारा कछुए जमा करने का शौक. ब्राज़ील, एक्वाडोर, केनिया, दक्षिण अफ्रीका, भारत के विभिन्न राज्यों से, अलग अलग देशों से कछुए हैं हमारे घर में. धातू की जाली के, पत्थर के, लकड़ी के, मिट्टी के, सब तरह के, सब रंगो के कछुए हैं. जब भी किसी नये देश में जाने का मौका मिलता है तो मैं कछुए खोजना नहीं भूलता.

पर शायद अब यह कछुए जमा करने का शौक शायद छौड़ना पड़े. "क्या, एक और कछुआ?", हमारी श्रीमति जी हर बार मेरे कछुओं को देख कर कहती है. पिछले दिनों में दो कछुए सफ़ाई करते हुए "गलती" से गिर कर टूट चुके हैं. मुझे लगता है कि और कछुए घर में आयेंगे तो यह गलतियाँ बढ़ सकती हैं. बहुत सोच कर भविष्य में मुखौटे जमा करने का फैसला किया है. दीवार के ऊपर लटके होंगे तो गलती से गिरेंगे भी नहीं.

आज की तस्वीरों में मेरे सकंलन से कुछ कछुए




शुक्रवार, अगस्त 11, 2006

उपदेश देना और कर के दिखाना

मेडस्केप पर आजकल एक नई बहस शुरु हुई है मोटे डाक्टरों के बारे में. बहस का विषय है "क्या मोटे डाक्टर अपना काम करने के लिए उपयुक्त हैं?"

मोटा होना स्वास्थ्य के लिए हानीकारक माना गया है क्योंकि इससे बहुत सी बीमारियों जैसे हृदय रोग, रक्तचाप का बढ़ना, डायबाटीज़, इत्यादि के होने की सम्भावना बढ़ जाती है. प्रश्न यह है कि डाक्टर का काम क्या केवल दूसरों का इलाज करना और सलाह देना है या उन्हें स्वयं प्रेरणादायद उदाहरण बन कर रहना चाहिए? अगर कोई मोटा डाक्टर किसी दूसरे व्यक्ति को सैर करने, कसरत करने, खाना कम खाने और पतला होने की सलाह दे, तो उसका असर होगा या नहीं?

जब कोई बात खुद पर लागू होती है तो उसे पढ़ने की रुचि भी बढ़ जाती है. क्योंकि पिछले दस सालों में मेरा वजन भी करीब दस किलो से अधिक बढ़ा है तो इस बहस का प्रश्न पढ़ कर दिल पर तीर की तरह लगा. और तुरंत पढ़ने लगा. मेडस्केप डाक्टरों के लिए शिक्षा और नयी जानकारी पाने का वेबपृष्ठ है, जो मुफ्त है बस केवल रजिस्ट्रेशन करना पड़ता है.

बहस के प्रश्न के उत्तर देने वाले दो पक्षों में बँट गये हैं. एक ओर है रोबर्ट सेंटोर जैसे लोग जो कहते है कि डाक्टर कोई फिल्मी सितारा या फुटबाल का खिलाड़ी नहीं, उनका कर्तव्य है कि जनता को अच्छा उदाहरण दें और दूसरों के लिए प्रेरणात्मक जीवन जीयें. वह सिगरेट पीने वाले डाक्टरों की भी बात करते हैं और कहते हैं कि आज ऐसे डाक्टर धीरे धीरे कम हो रहे हैं और अगर मोटापे पर भी वैसा ही प्रचार किया जाये तो भविष्य में मोटे डाक्टर भी कम हो जायेंगे. वह कहते हैं कि मोटे डाक्टर की दूसरों को पतले होने की सलाह मरीज़ों द्वारा गम्भीरता से नहीं ली जायेगी.

बहस के दूसरे पक्ष में हैं पेन्नी मारकेत्ती जैसे लोग जो मानते हैं कि दुनिया में वैसे ही मोटे लोगों के विरुद्ध सोचना, उन्हें सुस्त, गंदा और बेवकूफ समझना जैसे विचार फ़ैले हुऐ हैं, और इस तरह की बात उठाने वाले डाक्टर कट्टरपंथी हैं जो मानव की कमजोरियों को नहीं समझ पाते और अपनी बात सही होने की सोच में इतने लीन होते हैं कि दूसरों से सुहानूभूति से बात नहीं कर पाते, इसलिए उनकी सलाह का कम असर पड़ता है. दूसरी ओर मोटे डाक्टरों में मरीज़ों की स्थिति के बारे में अधिक समझ और सुहानुभूति होती है और उनका सम्बंध अपने मरीज़ों से अधिक अच्छा होता है.

बीच में कुछ और लोग भी हैं जो डाक्टरों के अधिक काम के बोझ तले मरने की बात करते हैं, कहते हैं कि वैसे ही बेचारों के पास साँस लेने की फुरसत नहीं. उनके घरवाले पहले ही नाराज रहते हैं कि उनके पास घर और परिवार के लिए कुछ समय नहीं होता. अगर अब उन्हें मरीज़ों को प्रेरणा देने के लिए पतले होने के लिए अगर हर रोज कसरत करने के लिए एक घँटे का समय और निकालना पड़े, तो यह समय वे कहाँ से निकालें?

मुझे भी लगता है कि ठीक से रहो, ऐसे करो, वैसे न करो, जब जरुरत से ज्यादा होने लगे तो जीवन की खुशी कुछ कम हो जाती है. काफी न पियो, वाईन न पियो, ऊँची ऐड़ी के जूते न पहने, तंग कपड़े न पहने, मिठाई न खाओ ... उपदेश सुनने लगो तो कभी खत्म ही नहीं होते. और ऐसे लम्बे जीवन का क्या फ़ायदा जिसमें कुछ भी ऐसा न हो जिससे आनंद मिले?

और यह भी है कि आधुनिक जीवन में मोटा होना जैसे घोर पाप बन गया है. सुंदरता का जमाना है. अगर आप जवान, सुंदर, पतले नहीं तो आप की कीमत कुछ कम है. कुछ समय पहले हाँगकाँग में एक कपड़े की दुकान में घुसा तो वहाँ काम करने वाली पतली सी नवयुवती मेरी ओर भागी भागी आई, "नहीं, आप के लिए यहाँ कुछ नहीं मिलेगा". उसके चेहरे का भाव देख कर, "यह मोटू बूढ़ा यहाँ कैसे घुस आया", मन को धक्का सा लगा और बिना कुछ कहे दुकान से बाहर निकल आया, यह नहीं कहा कि मैं अपने लिए नहीं, बेटे के लिए कुछ लेना चाहता था.

पर यह भी है कि वजन अधिक होने से सुस्ती सी रहती है, कपड़े ठीक से नहीं फिट होते है, और आजकल कुछ पतले होने के चक्कर में खूब वर्जिश हो रही है. वजन कम हुआ या नहीं, यह देखने की अभी हिम्मत नहीं आई. डरता हूँ कि अगर मशीन पर चढ़ूँ और सूई अपने स्थान से घटने की बजाय बढ़ गयी होगी तो कितना धक्का लगेगा. पर यह मेरी कोशिश किसी को प्रेरणा देने के लिए नहीं है, यह सिर्फ मेरे अपने लिए है.

और आप क्या कहते हैं? मोटे डाक्टरों की सलाह को क्या आप मानेंगे? और अगर मोटे और पतले डाक्टरों में से चुनना हो तो किसे चुनेंगे?

बुधवार, अगस्त 09, 2006

अंतरजाल पर वीडियो

हमारी हाऊसिंग कोलोनी में कई साल से बहस चल रही है कि छत पर तश्तरी वाला एंटेना लगाया जाये या नहीं. फैसला तो यही हुआ था कि हर घर अपनी तश्तरी अलग से न लगाये क्योंकि देखने में अच्छी नहीं लगती, बल्कि छत पर एक बड़ी तश्तरी सभी घरों के लिए लगे, पर चूँकि उसकी बहस ही पिछले दो सालों से खत्म नहीं हो रही, कुछ इक्का दुक्का लोगों ने अपनी बालकनी पर छोटी तश्तरियाँ लगवा ली हैं और कहते हैं कि जब बड़ी तश्तरी लगेगी, वे अपनी छोटी तश्तरियाँ उतरवा देंगे.

यहाँ केबल से टीवी चैनल दिखाने का प्रचलन नहीं है क्योंकि अधिकतर लोग केवल इतालवी भाषा बोलते हैं और घर के टेलीविज़न पर साधारण एंटेना से दस पंद्रह चैनल इतालवी में आती हैं जो अधिकतर लोगों के लिए बहुत हैं. तश्तरी का एंटेना सिर्फ वह लोग चाहते हैं जो फुटबाल के मैच देखना चाहते हैं क्योकि अच्छे वाले मैच साधारण टीवी चैनल पर नहीं प्रसारित होते, या फ़िर प्रवासी जो अन्य भाषाओं में प्रोग्राम देखना चाहते हैं.

क्योंकि इटली में भारतीय बहुत कम हैं इसलिए यहाँ भारतीय चैनल देखना उतना आसान नहीं. अगर आप के पास अपनी तश्तरी वाला एंटेना है तो सोनी या ज़ी में से एक चुन कर उसके लिए डिकोडर खरीद कर उनके कार्ड खरीद सकते हैं, और एक साल के कार्ड की कीमत है 200 यूरो. सुना है कि अगर आप के पास 1.80 मीटर वाला तश्तरी का एंटेना हो तो मध्य‍पूर्व में प्रसारित होने वाली सभी भारतीय चैनलों को एक कार्ड से देख सकते हैं जिसकी वार्षिक कीमत है 500 यूरो.

अपने यहाँ तश्तरी न होने की वजह से जो भी भारतीय टेलीविज़न हो वह फिलहाल तो केवल अंतरजाल से ही देखा जा सकता है. आजकल हमारा तीव्रगति वाला अंतरजाल का कनेक्शन 20 मेगाबाईट का है जिससे अंतरजाल पर आनेवाले टीवी बहुत अच्छे आते हैं, लगता है डीवीडी देख रहे हों. दिक्कत केवल यह थी कि अंतरजाल पर वीडियो प्रसारित करने में भारत कुछ पीछे है. दूरदर्शन का अंतरजाल पृष्ठ केवल समाचार देखने की सुविधा देता है, पर उसकी बैंडवेव इतनी संकरी है कि अधिकतर समय उससे जुड़ नहीं पाते, किस्मत से जुड़ भी जाईये तो छोटी सी ४५ केबीएस का प्रसारण है जिसकी छोटी सी तस्वीर, कभी आती है कभी नहीं.

सरकारी टेलीविज़न का तो बुरा हाल है पर कुछ दिनों से आबीएन-सीएनएन के समाचार प्रसारित होने लगे हैं जिन्हें देखना अपेक्षाकृत आसान है और प्रसारण भी बहुत बेहतर है. यह सच है कि अंतरजाल पर प्रसारित होने वाली चीन और ब्राज़ील की सत्तर अस्सी चेनल के सामने यह कुछ कम है पर कम से कम शुरुआत तो है.

वीडियो को तो छोड़िये, भारत आउडियो में भी बहुत पीछे है. इटली, ब्रिटेन जैसे देशों में आज करीब करीब हर रेडियो अंतरजाल पर भी आता है, चीन और ब्राज़ील जैसे देश भी इस बात में आज यूरोप या अमरीका से पीछे नहीं. पर भारतीय रेडियो सुनने हों तो केवल लंदन, दुबाई या अमरीका से प्रसारित होने वाले भारतीय रेडियो सुन सकते हैं. भारत का राष्ट्रीय रेडियो पिछले चार पाँच सालों से लाईव प्रसारण नहीं कर रहा, बटन दबाईये तो संदेश मिलता है कि अभी यह सुविधा उपलब्ध नहीं है.

ऐसे में मुम्बई का हिंदी सिनेमा जगत कुछ आशा दे रहा है. स्मेशहिट्स, वाहइंडिया, सिफ़ी मेक्स, बीडब्बलयू सिनेमा, इरोस इंटरनेशनल जैसे अंतरजाल पृष्ठ आप को मुफ्त में या फ़िर, केवल दो या तीन डालर में वीडियोक्लिप या पूरी फ़िल्म देखने की सुविधा देते हैं. शायद एक दिन ऐसा भी आयेगा जब भारत में मिलनेवाले सारे चैनल अंतरजाल से कोई कहीं भी ले पायेगा, तब न तश्तरी लगवाने की चिंता करनी होगी, न डिकोडर और कार्ड बनवाने की.

मंगलवार, अगस्त 08, 2006

एडस के चेहरे

अमरीका में जाह्न होपकिनस में एक कोर्स करने गया था, सन 1989 में. वह पहला मौका था कि एडस के रोगियों को करीब से देखने का मौका मिला था. तब तक पश्चिमी संसार में एडस के बारे में बहुत शोर हो रहा था. तब इस रोग का संक्रमण अधिकतर समलैंगिक यौन सम्बंधों के साथ जुड़ा था. उस समय यह तो समझता था कि समलैंगिक सम्बंध क्या होते हैं पर "समलैंगिक सभ्यता" क्या होती है यह पहली बार करीब से देखने का मौका मिला.

कोर्स के दौरान कुछ समलैंगिक युगलों से मिल कर बात करने का मौका मिला जिनमें से एक को एडस का रोग था. इन मुलाकातों ने मन में बने समलैंगिक रिश्तों के बारे में बैठे विश्वासों को हिला दिया था. सोचता था कि समलैंगिक सम्बंध रखने वाले युवक किसी के साथ प्रेम नहीं, बल्कि जितने अधिक शारीरिक सम्बंध हो सकते हैं सिर्फ वही खोजते हैं.

उस समय इस रोग के फ़ैलने के बारे में जानकारी बहुत अधिक नहीं थी, और बाहर से छुपाने की कोशिश करने के बावजूद, मन में किसी रोगी के करीब जाने या छूने में बहुत डर लगता था. रोगियों के प्रति कैसे अमानवीय व्यवहार हो रहे हैं, इसकी बात उठती तो मन में अपने डर के प्रति क्षोभ उठता पर फ़िर भी डर पर पूरा काबू नहीं कर पाता. ऐसे में जो रोगी नहीं थे उनका अपने रोगी साथियों के प्रति प्रेम देख कर विश्वास नहीं होता था कि उन्हें इस तरह रोगी के साथ रहने में डर नहीं लगता?

तब से विभिन्न देशों में एडस के रोगियों को करीब से देखने का मौका मिला है. आज एडस के बारे में सोचूँ तो मन में समलैंगिक शब्द नहीं आता, बल्कि अफ्रीका के गाँव आते हैं जहाँ नवजवान पीढ़ी की फसल को इस रोग ने काट दिया है और पूरे गाँव में केवल बूढ़े और बच्चे दिखते हैं जिनमें खेतों में काम करने की शक्ति नहीं है. कितने ही मित्र जो अफ्रीका में डाक्टर और नर्स थे, पिछले सालों इस रोग की वजह से खो चुके हैं. कुछ को आज यह बीमारी है और सबको एआरवी दवाईयाँ नहीं मिल पाती.

पर आज इस बीमारी का विश्व प्रतिमान भारत को मिल गया है, जहाँ दुनिया के सबसे अधिक रोगी हैं. निरंतर के माध्यम से मुझे इस स्थिति पर लिखने का मौका मिला है. नया निरंतर कल 7 अगस्त से अंतरजाल पर एक साल के अंतराल के बाद नया रुप ले कर फ़िर से आया है, उसे पढ़ना न भूलियेगा.
*****

आषीश, तुम्हारी टिप्पणी के लिए धन्यवाद. तुमने ठीक ही कहा है कि शब्द तो हैं, बात कहने का साहस चाहिए. पर मैंने सोचा कि जब यौन विषयों पर ऐसी बात लिखूँ जो केवल व्यस्कों के लिए हो, तो उसे चिट्ठे में लिखना ठीक नहीं होगा. इसलिए ब्राज़ील के यौन व्यवहार के सर्वेक्षण के बारे में जो लिखा है, उसे आप कल्पना पर पढ़ सकते हैं, वह "जो न कह सके" में नहीं कहा जायेगा.

सोमवार, अगस्त 07, 2006

हिंदी फिल्मों में मानसिक रोग (2)

अब बात करें 15 पार्क एवेन्यू की.

"15 पार्क एवेन्यू" देखने की बहुत दिनों से इच्छा थी. अपर्णा सेन ने "परोमा" और "36 चौरँगी लेन" जैसी फ़िल्में बनायी हैं इसलिए उनकी फिल्मों से भावपूर्ण कथानक और सुरुचि की आशा स्वस्त ही बन जाती है. फ़िर अगर फ़िल्म में वहीदा रहमान, शबाना आज़मी, कोंकणा सेन शर्मा, शेफाली शाह, सोमित्र चैटर्जी, ध्रृतिमान चैटर्जी, राहुल बोस जैसे सुप्रसिद्ध अभिनेता हों तो न भूल पाने वाली फ़िल्म देखने की आशा और भी बढ़ जाती है.

पर जब आशाएँ इतनी ऊँचीं उठी हों तो उनका पूरा होना भी उतना ही कठिन हो जाता है, और शायद इसीलिए फिल्म देख कर अच्छा तो लगा पर यह नहीं लगा कि "वाह क्या बढ़िया फिल्म थी".




कथा साराँशः 15 पार्क एवेन्यू कहानी है श्रीमति गुप्ता (वहीदा रहमान) की और उनकी दो बेटियों, अँजली (शबाना आज़मी) और मिताली यानि मिट्ठू (कोंकणा सेन) की. मिट्ठू मानसिक रोगी हैं, उन्हें स्कित्जोफ्रेनिया है और वह अपनी कल्पना के घर को खोजना चाहती हैं जो 15 पार्क एवेन्यू पर है जहाँ उनके अनुसार उनके पति और बच्चे उनकी राह देख रहे हैं. अँजली तलाकशुदा हैं और विश्वविद्यालय में पढ़ाती हैं और उनके सम्बंध अपने साथ पढ़ाने वाले एक अन्य शिक्षक (कँवलजीत) से हैं. अँजली के मन में एक तरफ घर में प्रतिदिन का मानसिक रोगी के साथ रहने का तनाव है, दूसरी तरफ अपनी छोटी बहन के लिए प्यार भी है, और किसी की देखभाल में अपना जीवन पूरा न पाने का क्रोध भी है.

इस रोजमर्रा के एक तरह चलते जीवन में नयी घटना घटती है जब एक दिन अँजली के कालेज जाने के बाद घर में एक झाड़फूँक करने वाले बाबा जी को बुलाया जाता है. बाबा जी मिट्ठू में घुसी "चुड़ेल" को भगाने के लिए उसे झाड़ू से खूब मारते हैं और कहते हैं अब वह ठीक हो जायेगी. शाम को जब अँजली घर वापस लौटती है तो मिट्ठू अन्य बातों के साथ उसे बताना चाहती है कि दिन में उसे खूब मारा गया पर अँजली अपने जीवन की बातों और काम में व्यस्त है और मिट्ठू की बातें सुन कर भी नहीं सुनती, उसे लगता है कि हर बार की तरह मिट्ठू बिना सिर पैर की काल्पनिक बाते कर रही है.

उसी दिन रात को मिट्ठू कलाई काट लेती है. अँजली अपराध बोध से घिर जाती है, उसने अपनी बातों में खो कर, अपनी छोटी बहन की सही बात को झूठ माना. कुछ ठीक होने पर मनोचिकित्सक (ध्रृतिमान चैटर्जी) की सलाह पर अँजली माँ और मिट्ठू के साथ कुछ दिन आराम करने भूटान चली जाती है.

भूटान में एक नदी के किनारे घूमती मिट्ठू को जयदीप (राहुल बोस) देख लेता है जो अपनी पत्नी (शेफाली शाह) और बच्चों के साथ वहाँ छुट्टियों में आया है. दस साल पहले जयदीप और मिट्ठू का विवाह होने वाला था, जब बलात्कार के बाद मिट्ठू अपना मानसिक संतुलन खो बैठी थी और जयदीप मँगनी तोड़ कर चला गया था. जयदीप के मन में भी मिट्ठू को ले कर अपराध बोध है और वह उससे मिलने की कोशिश करता है.

पहले तो अँजली गुस्सा होती है, उसे डर है कि मिट्ठू की तबियत फ़िर से न बिगड़ जाये पर फ़िर देखती है कि मिट्ठू ने जयदीप को नहीं पहचाना और उससे एक अजनबी की तरह बात करती है. दूसरी तरफ, जयदीप की पत्नी परेशान है, उसे विश्वास है कि जयदीप अपनी पुरानी प्रेमिका के चक्कर में पड़ गया है, तब जयदीप उसे बताता है कि मिट्ठू मानसिक रोगी है और वह सिर्फ अपने पिछले बरताव के अपराध बोध से मुक्त होने की कोशिश कर रहा है.

टिप्पणीः फ़िल्म के सभी अभिनेता बहुत बढ़ियाँ हैं. कोंकणा सेन की तरीफ़ सबसे अधिक करनी चाहिये क्योंकि मानसिक रोग जो चेहरे से झलक कर चेहरे को बदल देता है, इसको वे बहुत प्रभावशाली ढ़ँग से दिखातीं हैं. फ्लैशबेक में दिखाये कुछ भागों को छोड़ कर बाकी सारी फिल्म में कोंकणा का नीचे झुकते होंठ और आँखों में झलकता खोयापन उनके रोग को विश्वासनीय बना देता हैं हाँलाकि उसकी वजह से वे "हीरोइन" नहीं लगतीं. उनका मिर्गी का दौरा पड़ने का दृश्य बिल्कुल विश्वासनीय है.




बाकी सभी अभिनेता भी बढ़ियाँ हैं. छोटे से भाग में मिट्ठू के पिता के भाग में सोमित्र चैटर्जी को देख कर बहुत अच्छा लगा. ध्रृतिमान चैटर्जी जिन्हें देखे पँद्रह बीस साल हो गये थे और जो "गोपी गायन बाघे बायन" के दिनों से मुझे बहुत अच्छे लगते थे, उन्हें देख कर भी बहुत अच्छा लगा.

इन सब अच्छे अभिनेताओं के होते हुए भी, फ़िल्म में क्या कमियाँ थीं जिनकी वजह से मेरे विचार में यह फ़िल्म उतनी प्रभावशाली नहीं बनी?

मेरे विचार में फ़िल्म का कथानक ही इसकी सबसे बड़ी कमज़ोरी है. कथानक में वह नाटकीय घटनाएँ, मिट्ठू का जयदीप से प्यार, उसका बलात्कार, जयदीप का रिश्ता तोड़ कर उसे छोड़ कर चले जाना, यह सब बातें जो फिल्म में उतार चढ़ाव और दिलचस्पी ला सकती थीं, सभी छोटे छोटे फ्लैशबैक में ही सीमित रह जाती हैं. फिल्म का मुख्य केंद्र है दस साल बाद जयदीप का मिट्ठू से मिलना पर इसमें कोई अंतर्निहित नाटकीयता या तनाव नहीं बनता क्योकि मिट्ठू उसे पहचान भी नहीं पाती.

इस सारे हिस्से में तनाव बनाया गया है जयदीप की पत्नी के शक का और समझ नहीं आता कि जयदीप पत्नी को ठीक से सब कुछ क्यों नहीं बताता? इसकी वजह से फिल्म का कथानक कुछ नकली सा हो जाता है.

फ़िल्म अँग्रेज़ी में है. फ़िल्म के सभी मुख्य कलाकार आपस में अँग्रेजी में ही बात करते हैं पर कभी सड़क पर या काम करने वाली से हिंदी और बँगाली में भी बात कर सकते हैं. यह सच है कि आज का पढ़ा लिखा भारतीय उच्च मध्यम वर्ग अँग्रेजी में ही अपनी बात आसानी से कह पाता है और उसके सोच तथा व्यवहार में पश्चिमी उदारवादी विचार उसकी भारतीयता के साथ घुलमिल गये हैं. श्रीमति गुप्ता का पति के छोड़ जाने के बाद दूसरा विवाह करना या अँजलि का अपने मित्र के साथ अमरीका न चलने पर उसका पूछना "क्या तुम बिना विवाह के शारीरक सम्बंधों की नैतिकता की बात तो नहीं सोच रही हो?", जैसी बातें इसी बदलाव को दर्शाती हैं.

मानसिक रोग के साथ जीने में फ़िल्म के पात्रों के जीवन में कोई परिवर्तन नहीं आने वाला, जैसे पहले जीवन चल रहा था, वैसा ही चलता रहेगा, कोई चमत्कार नहीं होने वाला, यही फ़िल्म का अंतिम संदेश है. ऐसे आशाहीन जीवन में अचानक निर्देशक अपर्णा सेन अंत में नया प्रश्न उठा देती हैं, "सोचो कि अगर मिट्ठू की बातों को कल्पना कहने और सोचने वाले अगर गलत हों? अगर सचमुच कोई ऐसा जीवन स्तर हो जहाँ मिट्ठू के कल्पना का जीवन सच हो पर हम उस जीवन स्तर को नहीं देख सकते तो कैसा होगा?" फिल्म का अंत इसी फँतासी वाले प्रश्न से होता है जब मिट्ठू किसी अन्य स्तर पर बने अपने 15 पार्क एवेन्यू वाले अपने घर को खोज लेती हैं जहाँ उनका मिलन अपने पति और पाँच बच्चों से होता है.

कुछ यही अंत था ख्वाजा अहमद अब्बास की 1963 की फिल्म "शहर और सपना" का जिसमें सड़क पर पुरानी पाईप में जीवन बिताने को मजबूर युगल अंत में उसी पाईप में छुपा अपने सपने का घर पाता है. शायद यही एक रास्ता है आशाहीन जीवनों को परदे पर निराशा से बचाने का!

रविवार, अगस्त 06, 2006

हिंदी फिल्मों में मानसिक रोग (1)

कुछ दिन पहले अपर्णा सेन द्वारा निर्देशित फिल्म "१५ पार्क एवेन्यू" देखी, जिसका विषय है स्कित्जोफ्रेनिया, वह मानसिक रोग जिसमे रोगी सच और कल्पना का अंतर खो बैठता है. फिल्म देख कर हिंदी फिल्मों में मानसिक रोग के विषय को किन विभिन्न तरीकों से लिया गया है इसके बारे में सोच रहा था.

बढ़ते शहरीकरण, टूटते संयक्त परिवार, काम में तरक्की पाने और पैसे कमाने की होड़, इन सब बदलावों से जीवन स्तर अच्छे हुए हैं पर साथ ही साथ अकेलापन, उदासी और तनाव जैसे मानसिक रोग बहुत तेज़ी से बढ़े हैं. मानसिक रोगों को दो श्रेणियों में बाँटा जा सकता है. पहली श्रेणी में वह मानसिक रोग आते हैं जैसे गहरी उदासी, जिसमें व्यक्ति यथार्थ और कल्पना का अंतर समझता है. दूसरी श्रेणी में आते हैं स्कित्जोफ्रेनिया जैसे रोग, जिसमें व्यक्ति यथार्थ के जीवन और कल्पना के जीवन की सीमारेखा नहीं पहचान पाता. विश्व स्वास्थ्य संसथान का कहना है कि अगले दशकों में मानसिक रोग बहुत तेज़ी से बढ़ेंगे.

मानसिक रोग फ़िल्म को नाटकीय तनाव देने का काम अच्छा कर सकते हैं हालाँकि मानसिक रोग का प्रतिदिन का यथार्थ इतना निराशात्मक और बोझिल हो सकता है जिससे फिल्म देखने वालों को हताशा और तकलीफ़ हो जाये. शायद इसीलिए हिंदी फिल्मों ने मानसिक रोग के विषय को अक्सर असफल प्रेम का नतीजे के रुप में प्रस्तुत किया है और उसे कथा के दुखांत से जोड़ कर ट्रेजेडी फिल्म बनाई हैं. इस रुप में मानसिक रोग फिल्म का मुख्य विषय नहीं होता बल्कि प्रेम कथा को नया मोड़ देने का माध्यम बन कर रह जाता है.

स्कित्जोफ्रेनिया को कई बार व्यक्तित्व के दो हिस्सों में बँट जाने, यानि एक शरीर में दो विपरीत व्यक्तित्वों का रहना, स्टीवनसन के सुप्रसिद्ध उपन्यास डा जैकिल और मिस्टर हाईड से प्रभावित हुआ कथानक भी कुछ भारतीय फिल्मों ने चुना है जिनमें से उन्लेखनीय हैं "रात और दिन" (1967, निर्देशक सत्येन बोस) जो नरगिस की सशक्त अभिनय की वजह से प्रभावशाली बन गयी थी. इसी से कुछ मिलते जुलते कथानक वाली एक अन्य फ़िल्म जो कुछ समय पहले आई थी, "मदहोश" (2004) जिसमें बिपाशा बसु ने स्कित्जोफ्रेनिया के रोग को सतही और अप्रभावशाली तरीके से दिखाया था. इस तरह की फ़िल्में इस रोग की सही तस्वीर नहीं दिखातीं बल्कि उसे केवल कहानी में अप्रत्याशित मोड़ लाने का बहाना बना कर रह जाती हैं.



असफल प्रेम और मानसिक रोग के विषय पर केंद्रित फ़िल्मों के बारे में सोचा जाये तो सबसे पहले असित सेन की "खामोशी" (1967) को भूल पाना कठिन है. "खामोशी" में थी वहीदा रहमान, प्रेम में ठुकराए आहित प्रेमियों को मानसिक पीड़ा से निकालने के प्रेम का नाटक करने वाली नर्स के रुप में, जो हर बार खुद प्रेम करने लगती है और रोगी के जाने के बाद पागल हो जाती है. उनके साथ असफल प्रेमी के रुप में थे राजेश खन्ना और धर्मेंद्र. हालाँकि खामोशी की कहानी मानसिक रोगियों की पीड़ा दिखाने में सक्षम थी पर साथ साथ कुछ नकली भी, उसके पागलपन में किसी उपन्यास की नाटकीयता थी. प्रमुख पात्रों को छोड़ कर, फ़िल्म में दिखाये गये मानसिक रोग अस्पताल में अन्य सभी रोगी, रोगी कम और विदूषक अधिक थे जिनका काम फ़िल्म को कुछ हल्के फुल्के क्षण देना था.



खामोशी जैसी ही कहानी थी कुछ दिन पहले आई प्रियदर्शन द्वारा निर्देशित फ़िल्म "क्यों कि" (2005) की. "खामोशी" की अतिनाटकीयता, उसके मानसिक रोग के चिकित्सकों के केरिकेचर, उसके विदूषक जैसे मानसिक रोगी, सभी कमियाँ "क्यों कि" में और भी कई गुणा बढ़ा चढ़ा कर प्रस्तुत की गयीं थीं. कोशिश कर भी मैं यह फिल्म पूरी नहीं देख पाया, उसकी चीख चिल्लाहट से सिर दुखने लगा था, इसलिए इसके बारे में और कुछ कहना बेकार है.

एक और फ़िल्म थी कुछ साल पहले की, "तेरे नाम" (निर्देशक सतीश कौशिक, 2003) जिसका विषय भी मानिसक रोग ही था. हालाँकि "क्यों कि" की तरह इसमें भी व्यवसायिक फ़िल्म वाली अतिश्योकत्ताएँ थी, पर इसमें मानसिक रोगियों पर अकसर होने वाले अमानवीय व्यवहार, हिंसा और अँधविश्वास का चित्रण था जो वे सब लोग पहचान सकते हैं जिन्हें कभी किसी मानसिक अस्पताल में जाने का मौका मिला है. मानसिक अस्पताल अक्सर अस्पताल नहीं पागलखाने कहलाते हैं और वहाँ मानव अधिकारों को बात तो छोड़िये, मानसिक रोगियों से अमानवीय व्यवहार होता है.

नई फ़िल्मों में मुझे अधिक विश्वासनीय लगी थी "मैंने गाँधी को नहीं मारा" (2005, निर्देशक जाह्नू बरुआ) जिसमें मानसिक रोग का असफल प्रेम से कोई सम्बंध नहीं था, बल्कि जिसका मानसिक रोगी एक बूढ़ा प्रोफेसर था जिसकी अल्सहाईमर जैसे रोग से यादाश्त गुम रही थी. फिल्म में रोगी की बेटी, फिल्म की नायिका का प्रेमी उसे ठुकरा देता है. समाज में मानसिक रोगों के साथ बहुत से अंधविश्वास जुड़े हैं और रोगियों और उनके परिवारों को इसकी वजह से बहुत कठिनाईयाँ उठानी पड़ती हैं.

"सदमा" तथा "कोई मिल गया" जैसी फ़िल्मों ने मानसिक विकास की कमी की बात को लिया है पर यह बात मानसिक रोगों की बात से भिन्न है, हालाँ कि दोनो बातों में कुछ साम्यताएँ भी हैं और लोगों का दोनो ही तरह के रोगियों के प्रति व्यवहार अक्सर घृणा और भर्त्सना भरा होता है.

गुरुवार, अगस्त 03, 2006

सँकरा नर दिमाग

आज बात का विषय नर के सँकरे दिमाग का है. बात मानव जाति के पुरुष पर उतनी लागू नहीं होती, बल्कि अधिकतर यह बात कुत्ता जाति के नरों की है. मेरे बहुत से उच्च विचारों की तरह, यह उच्च विचार भी उस समय मन में आया जब अपने कुत्ते, श्री ब्राँदो को ले कर कल शाम को बाग में सैर को निकला.

अगर आप ने कभी नर कुत्ते को करीब से कुछ समय के लिए जाना पहचाना हो तो आप जानते ही होंगे कि सैर को बाहर निकलते समय, आप को अन्य नर कुत्तों से बच कर चलना पड़ता है. पिल्ले, बहुत बूढ़े कुत्ते और वह कुत्ते जिनका आपरेश्न से गोली हरण हो चका हो, उनको छोड़ कर बाकि के सभी नर कुत्ते हमारे ब्राँदो जी के जानी दुश्मन हैं. उन्हें यह दूर से ही पहचान लेता है, शायद उनकी नर सूँघ से, और देखते ही उनकी तरफ़ ऐसे झपटता है कह रहा हो, "छोड़ो मुझे, रोको मत, इसका खून पी जाऊँगा." और दोनो जोर शोर से एक दूसरे की ओर भौंकते हैं.

फ़िर जैसे ही हो सके उसे वहीं मूतना होता है जहाँ दूसरे कुत्ते ने मूता हो. यह उनके "क्षेत्र" पर झँडे गाड़ने वाली बात है. वह बात और है कि कई क्षत्रों पर इतनी तरह के झँडे गड़े होते हैं कि स्वयं वे खुद भी नहीं पहचान सकते कि उनका झँडा वहाँ गड़ा भी या नहीं.

कितने सालों से हर दिन वही कुत्ते एक दूसरे को देख कर ऐसे ही भौंकते रहते हैं, हालाँकि कई बार लगता है कि यह भौंकना केवल आदत की वजह से है और बेमन से किया जा रहा है.

पर किसी भी मादा कुत्ते को देखते ही पूँछ हिलनी शुरु हो जाती है. अगर आप थोड़ी सी ढील दें तो उसके आसपास जा कर सूँघाई शुरु हो जाती है. थोड़ी सी और ढील दें तो टाँगे उठा कर उसके ऊपर चढ़ने की कोशिश शुरु हो जाती है. आप कहते रह जाईये, "अरे यार, थोड़ा शाँत हो, तुम्हें हर समय क्या एक ही बात सूझती है? क्या नर और मादा में केवल यही रिश्ता होता है? किसी को केवल मित्र बना कर देखो, और भी तो रिश्ते हो सकते हैं पुरुष और नारी के बीच!", वह कुछ नहीं सुनता.

मानव किशोरावस्था भी शायद कुछ कुछ एसी ही होती है, जब अचानक जवान हुए शरीर में नर होरमोन टेस्टोस्टिरोन तूफ़ान मचा देता है. सड़कों पर रोमियो बन कर सीटियाँ बजाने वाले या बस में झीड़ में लड़कियों के शरीरों को छूने की कोशिश करने वाले शायद हमारे ब्राँदो जी जैसे ही होते हैं, जिनका जीवन होरमोन से संचालित होता है. उनके लिए रुक कर सोचना कि क्या कर रहा हूँ और क्यों, बहुत कठिन होता है.

आज की तस्वीरें हमारे ब्राँदो जी की हैं.








मंगलवार, अगस्त 01, 2006

भारतीय पत्रकारिता समाज

कल शाम को जनसत्ता के सम्पादक श्री ओम थानवी का नया आलेख "अपने पराए" पढ़ा तो बहुत देर तक मन क्षुब्ध रहा. आलेख का प्रारम्भ में है इफ्तिखार गीलानी की नई पुस्तक के लोकार्पण के अवसर पर, गीलानी जी के जेल में डाले जाने और उस स्थिति में भारतीय पत्रकारिता के आचरण के बारे में थानवी जी के विचार.

इफ्तिख़ार बड़े अफ़सोस भरे स्वर में कहते हैं कि जेल में उन्होंने जो अत्याचार झेला, वह "मीडिया ट्रायल" का नतीजा था. "पत्रकार के शब्द लोग इतना भरोसा करते हैं, इसका अहसास मुझे पहले न था. और न इसका कि हम अपने फर्ज को कितने हलके ढंग से लेते हैं.
आलेख के अंतिम भाग में थानवी जी ने भारतीय पत्रकारिता समाज के बढ़ते बेहाल की चर्चा की है.

कुछ अखबारों का सारा सम्पादकीय विवेक तो जैसे इस फिक्र में सिमट कर रह गया है कि दुनिया के किस कोने में शराब की कैसी महक पाई जाती है या किस सात तारा होटल का खानसामा झींगामछली किस हुनर से पकाता है... अँग्रेजी मानसिकता में, साहित्य हो चाहे पत्रकारिता, हिंदी वालों को किस तिरस्कार से देखा जाता है, हम सब जानते हैं....
शायद आप कहेंगे कि इसमें नया क्या है? विश्वीकरण के साथ जुड़े उपभोक्तावाद की संस्कृति की वजह से समाचार पत्रों का और नामनीय सम्पादकों का सभ्यता छोड़ कर पन्ने बेच कर विज्ञापन बनाने और उत्पादन बढ़ाने का लालच आसानी से समझा जा सकता है. हिंदी बोलने वाले उपभोक्ताओं से पैसे तो कमाये जा सकते हैं पर उच्च स्तर की फर्राटेदार अँग्रेजी न बोल पाने वालों को तो नीचा समझा ही जाता है. जात पात और वर्ग भेद की आकुण्ठाओं से जकड़े भारतीय समाज को इस सब की आदत है. हिंदी बोलने वालों के मन में अक्सर विश्वास है कि वे हीन हैं तो इसका फायदा अँग्रेज़ी का "सभ्य" समाज उठाये तो उसमे अचरज क्यों?

सोमवार, जुलाई 31, 2006

शब्दों की शक्ति

जेनेवा में अखबार में एक लेख पढ़ा जिसमे हँगरी के सुप्रसिद्ध लेखक पेटर ऐस्तरहाज़ी (Péter Esterhàzy) ने अपने लेखन के बारे में एक साक्षात्कार में कहा, "अचानक मुझे समझ में आया कि मेरे मन में सच और कल्पना के बीच की सीमा रेखा स्पष्ट नहीं थी, शब्दों में कहा गया या सचमुच कुछ बात हुई मेरे लिए एक बराबर ही था. यानि मेरे लिए शब्दों की महत्वता उतनी ही थी जितनी जीवन में होने वाली बातों की... अपनी कल्पना से लिखी वह पहली कहानी मुझे अभी भी याद है, वह अनूठी शक्ति का अनुभव कि मैं सब कुछ कर सकता हूँ, चाहूँ तो किसी को मोटा या पतला, गंदा या पसीने से लथपथ, उसका वक्ष छोटा हो या बड़ा, सब कुछ मेरी इच्छा पर निर्भर है. पहली बार सृजन का आनंद मिला, भगवान को भी कुछ कुछ ऐसा ही लगता होगा."

पेटर की बात कि वह कल्पना में सोची बात और जीवन में होने वाली बातों के बीच की सीमारेखा में अंतर नहीं समझ पाते, मुझ पर भी कुछ कुछ लागू होती है. शाम को बाग में घूमते समय, या रात को सोने से पहले किसी बात को सोचते हुए या सपने में हुई बात, कई बार मुझे लगता है कि वह सचमुच हुई थी. अक्सर पुरानी बातों के बारे में मैं यह नहीं बता पाता कि वह सचमुच हुआ था या फ़िर केवल मैंने सोचा था.

कई बार मन ही मन में किसी मित्र को पत्र लिखता हूँ, सोचता हूँ कि उसे यह बताऊँगा, वह समझाऊँगा, आदि. बाद में लगता है कि मैंने सचमुच वह बात मित्र को लिखी थी और कभी कभी गुस्सा हो जाता हूँ कि मित्र ने उसका जवाब क्यों नहीं दिया!

काम पर भी ऐसा कभी कभी होता है. फेलिचिता, मेरी सचिव अब मेरी इस प्रवृति को समझने लगी है. कभी कभी कुछ काम के बारे में पूछूँ तो कहती है, ठीक से सोचो कि तुमने मुझे सचमुच वह काम दिया था या फ़िर सिर्फ शाम को सोचा था कि मुझे वह काम करना चाहिए?

शायद इसका अर्थ यह हुआ कि मैं भी पेटर की तरह उच्च दर्जे का लेखक बन सकता हूँ?
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जेनेवा से वापस आते समय हवाई जहाज में इंटनेशनल हेराल्ड ट्रीब्यून (International Herald Tribune) अखबार में हर तरफ भारत को पाया. एक समाचार था किसी सरीन के बारे में जो कि यूरोप के सबसे बड़ी टेलोफ़ोन कम्पनी वोदाफ़ोन के डायरेक्टर हैं. दूसरा समाचार था रतन टाटा के बारे में जिन्होंने फियट कार वालों के साथ कोई समझोता किया है.

तीसरा समाचार एक लेख था श्रीमति अनुपमा चोपड़ा का मुम्बई के सिनेमा संसार में आते बदलाव के बारे में. अनुपमा जी बात प्रारम्भ करती हैं करण जौहर की नयी फ़िल्म "कभी अल्विदा न कहना से" जिसमें पति परमेश्वर मानने वाली स्त्री पात्र के बदले में एक विवाहित पुरुष के एक विवाहित स्त्री से प्रेम की कहानी है.

कल्पना जी लिखती हैं, "जौहर जैसे फ़िल्म निर्माता इसलिए उन प्रश्नों से जूझ रहे हैं जैसे आत्मीयता (intimacy) के बारे में (क्या दर्शक स्वीकार करेंगे कि इनके प्रिय सितारे साथ सोते हैं), नैतिकता के बारे में (जौहर जी बोले मैं अपनी फ़िल्म में विवाह के रिश्ते से विश्वासघात करने को स्वीकृति नहीं दे सकता), भाषा के बारे में (सेक्स के विषय में हिंदी में बात करना कठिन है क्योंकि इससे जुड़े शब्द यह तो पुराने और कठिन हैं या फ़िर भद्दे). इस आखिरी परेशानी का हल जौहर जी ने यह खोजा कि इस सब बातों के बारे में बातें अँग्रेज़ी में हों."
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जेनेवा में ग्रेगोर वोलब्रिंग से मुलाकात हुई. ग्रगोर केनेडावासी हैं और जन्म से विकलाँग. ग्रगोर ने सभा में कृत्रिम प्राणीविज्ञान (synthetic biology), और अतिसूक्षम तकनीकी (nanotechnology) इत्यादि विधाओं के मिलन से हो रहे नये प्रयासों के बारे में बोला जिससे अगले 20 या 30 वर्षों में विकलाँगता के बारे में हमारे सोचने का तरीका बदल सकता है. ग्रेगोर का कहना है कि इन तकनीकों से मानव शरीर और मस्तिष्क का ऐसा विकास हो सकता है जो मानव को नयी दिशाओं में ले जा सकता है, ऐसे समाज में विकलाँग वह लोग होंगे जिनके पास इन तकनीकों को खरीदने के लिए साधन नहीं होंगे. ग्रेगोर के बारे में पढ़ना चाहें तो उनके वेबपृष्ठ पर पढ़ सकते हैं.

आज की सभी तस्वीरें जेनेवा से हैं और पहली तस्वीर में मेरे साथ हैं ग्रेगोर वोलब्रिंग.







रविवार, जुलाई 30, 2006

जेनेवा की गर्मी

एक अंतर्राष्ट्रीय सभा के लिए स्विटज़रलैंड में जेनेवा आया हूँ. घर से चला था तो बोलोनिया में इतनी गरमी थी कि बुरा हाल था. पहले, जून तक, इस लिए रो रहे थे सब कि इस साल गरमियाँ ही नहीं आ रहीं थीं, अब इस लिए रो रहे हैं, बहुत गरमी पड़ रही है. खैर स्विटज़लैंड में पहली बार अपने कमरे में छोटा सा मेज़ वाला पँखा देखा. कमरे में गरमी और उमस से बुरा हाल था और उस छोटे से पँखे से कुछ विषेश राहत नहीं मिल रही थी पर दिल को थोड़ी तसल्ली अवश्य होती थी.

चाहे बुश जी माने या न माने और क्योटो के समझोते पर हस्ताक्षर करें या नहीं, यहाँ रह कर कहना कि पर्यावरण में तेज़ी से परिवर्तन नहीं आ रहा, असम्भव है. हमने यहाँ अपने घर में पहला पँखा करीब 1992 या 1993 के आसपास खरीदा था. फ़िर कई पँखे खरीदे, हर कमरे के लिए एक. इस साल घर को वातानाकूलित बनाना ही पड़ा. केवल दस पंद्रह सालों में इतना बदलाव आ गया है. इस साल पहली बार स्विटज़रलैंड में भी पँखे दिख रहे हैं, यानि गरमी और बढ़ती जा रही है.

एक जगह पढ़ा था कि अगले कुछ सालों में वातावरण परिवर्तन से पूरे यूरोप में बरफ़ छा जायेगी और उत्तरी देशों से लोग दक्षिणी देशों के ओर प्रवास करेंगे. यानि भारत, अफ्रीका, मेक्सिको आदि से यूरोप, अमरीका, कनाडा जाने के बदले, लोग भारत, अफ्रीका और मेक्सिको की ओर जायेंगे. वह बर्फ़ीली सर्दी कब आयेगी यह तो मालूम नहीं, अभी तो गरमी भुगतने का मौका है.

अब जब गरमी की लहर की वजह से रोम, लंदन इत्यादि में बिजली उड़ने के समाचार आते हैं तो मन ही मन खुशी होती है. ऐसी ही खुशी तब होती है जब मूसलाधार बारिश के बाद यहाँ के शहरों का जीवन अस्त वयस्त हो जाता है और नालियाँ पानी से भर कर, पानी सड़कों पर आ जाता है. पहले यहाँ के लोग भारत या अफ्रीका की ओर जाते तो नखरे दिखाते थे कि वहाँ बिजली चली जाती है, विकास अच्छी तरह से नहीं हुआ और बेचारे गरीब देश हैं! ये तो मौसम की कृपा थी, न कभी तेज़ गरमी न कभी तेज़ बारिश, जिसकी वजह से सब कुछ अच्छा चलता था और अब मौसम बदलने से यहाँ भी वही हाल होने वाला है ?


जेनेवा झील के किनारे, गरमियों का आनंद लेते हुए




जेनेवा में पर्यावरण पर लगी दो प्रशनियाँ - पहली प्रदर्शनी में दुनियाँ के बच्चों ने अपने देश के बदलते जीवन के चित्र बनाये हैं, उसी में से अफगानिस्तान के बच्चे द्वारा बनाये गये बोनियान के बुद्ध की मूर्ती जो कट्टरवादी तालीबानों ने धवंस कर दी थी.



दूसरी प्रदर्शनी में विभिन्न देशों में आते पर्यवरण परिवर्तन जिसमें चीन में पीली नदी पर बन रहे दुनिया के सबसे बड़े बाँध के बनने से आये परिवर्तनों की तस्वीर


मंगलवार, जुलाई 25, 2006

जिया लागे न

हर साल की तरह गर्मियाँ फ़िर आ गयीं. कुछ दिन तो परिवार के साथ छुट्टियाँ बिताने का मौका मिला पर फ़िर काम पर वापस आना पड़ा जबकि बाकी का सारा परिवार अभी भी छुट्टियाँ मना रहा है. पँद्रह दिनों से घर पर अकेला हूँ.

सुबह उठते ही सोचना पड़ता है, "आज खाने में क्या ले जाये? सलाद, टमाटर और पनीर या खीरा, टमाटर और पनीर?" कुछ ऐसा होना चाहिये जिसे बनाना न पड़े और बर्तन न गन्दे हो तो अच्छा है. सलाद, टमाटर, खीरे और पनीर देख कर ही भूख कम हो जाती है, पर क्या किया जाये? आज फ़िर वही खाना, यह शिकायत किससे कहें?

शाम को घर वापस आओ तो फ़िर एक बार वही दुविधा, क्या बनाया जाये? सुपरमार्किट में जाओ तो मेरे जैसे गम्भीर चेहरों वाले पुरुष दिखते हैं जो अँडे, डिब्बे में बंद खाने, गर्म करने वाले पिज्जे, ले कर घूम रहे होते हैं. शाम को उनके भी घरों में यही दुविधा उठती होगी! आधी दुकाने तो छुट्टियों के लिए बंद हैं. समाचारों में कह रहे थे कि शहर के 60 फीसदी लोग छुट्टियों में शहर से बाहर गये हैं. कार पार्क करने के लिए जगह नहीं खोजनी पड़ती, सड़कों पर यातायात बहुत कम है.

रात को पत्नी से टेलीफ़ोन से बात होती है. आज दिन में क्या किया? जैसे प्रश्न का उत्तर क्या दूँ समझ नहीं आता. आसपास घर गन्दा सा लगता है, रोज़ होने वाली सफाई, सप्ताह में एक दो बार हो जाये तो बहुत है. उठो नाश्ता बनाओ, पौधों को पानी दो, साथ ले जाने के लिए खाना तैयार करो, काम पर जाओ, घर वापस आ कर, फ़िर खाना बनाओ, बर्तन धोओ और रात हो जाती है. मेरे बिना घर में कैसा लगता है, पत्नी पूछती है, जाने अकेले क्या गुलछर्रे उड़ा रहे होगे?

हाँ, गुलछर्रे ही उड़ रहे हैं, पर उनसे मन नहीं भरता. अकेले लोग सारा जीवन कैसे रहते हैं, कुछ कुछ समझ में आता है और थोड़ा सा डर लगता है. अगर घर से अलग लम्बे समय के लिए रहना पड़े तो कैसे होगा? नहीं, कुछ और दिनों की तो बात है, मन को समझाता हूँ.

आज कुछ तस्वीरें में है अकेली शामें.






गुरुवार, जुलाई 20, 2006

आतंकवाद का जवाब

कई चिट्ठों पर इन दिनों इजराईल और लेबनान तथा पालिस्ताईन पर हमलों के बारे में पढ़ा कि ऐसी हिम्मत होनी चाहिए, कट्टरवादी दो मारें तो पचास को मार दो, कुछ सोचो नहीं, अगर आम जनता मरती है, अगर बच्चे मरते हैं, कोई चिता नहीं, आतंकवाद का जवाब हो जैसे ईंट के जवाब में बम. यह चिट्ठे लिखने वाले सोचते हैं कि भारत का उत्तर भी मुम्बई के बमों के बाद भी ऐसा ही होना चाहिए था, पाकिस्तान पर बम बरसाने चाहिये थे. पढ़ कर हँसी आई, उस इज़राईल का उदाहरण देते हैं जहाँ पिछले बीस सालों में बम फटने बंद नहीं हुए और जो देश अपने आस पास ऊँची दीवार बना कर जीने के लिए मजबूर है.
मैं सोचता हूँ कि जिस तरह के उत्तर इज़राईल देता है, उससे आतंकवाद बढ़ता है और जेनेवा कन्वेंशन के अनुसार यह युद्ध अपराध हैं. एक सैनिक के बदले में दस औरतों या बच्चों को मार दो, इसकी नैतिकता नाजी जर्मनी की नैतिकता से मिलती है और अगर इज़राईल को ज़िन्दा रहने के लिए नाज़ियों जैसा बनना पड़ता है तो इज़राईलियों को सोचना चाहिए कि क्या इस लिए उन्होंने अपना देश माँगा था?

आज के भारत के लिए युद्ध की कीमत क्या होगी? थोमस फ्रीडमेन अपनी पुस्तक द फ्लेट अर्थ (The flat earth) में सन 2002 में पाकिस्तान और भारत के बीच तनाव होने और युद्ध की सम्भावना होने के बारे में कहते हैं -

"विवेक कुकलर्णी जो उस समय कर्नाटक राज्य के इंफोर्मेशन तकनीकी के सचिव थे,
उन्होंने मुझे बताया कि हम राजनीति में दखल नहीं देना चाहते पर हमने सरकार को बताया
कि अगर भारत युद्ध में जाता है तो हमारे उद्योग को क्या दिक्कतें हो सकती हैं...
भारत सरकार को संदेश मिल गया. क्या केवल भारत का दुनिया के उद्योग में बढ़ता हुआ
स्थान ही अकेला कारण था जिसकी बजह से वाजपेयी सरकार ने झगड़े की बात कम कर दी और
युद्ध की कागार से देश पीचे हट गया, यह तो नहीं था. और भी कारण थे ..."
सन 2002 के मुकाबले में आज भारत का स्थान विश्व व्यापार में और बढ़ गया है, और आज युद्ध की कीमत और भी अधिक होगी, तो क्या बेहतर नहीं होगा कि और बातों को भूल कर भी, सिर्फ भारत की आर्थिक प्रगति का सोच कर, आतंकवाद के विरुद्ध अन्य तरीके खोजे जायें?

पाकिस्तान में कट्टरवादियों की कमी नहीं है और निकट भविष्य में उन्हें रोकने की क्षमता और इच्छा शायद वहाँ की सरकार में नहीं है. इसलिए भारत में आतंकवादियों को पकड़ने, थामने के लिए जो भी जरुरी हो वह करना चाहिए, पर यह सोच कर जिससे वह कमज़ोर हों, न कि आतंकवाद को बढ़ावा मिले.

एक और पाकिस्तान है जो आम लोगों का है. किसी मैच के सिलसिले में जब पाकिस्तानी लोग भारत आये थे और परिवारों के साथ ठहरे थे तब बात करते थे भारत और पाकिस्तान की साझा संस्कृति के बारे में. कल सिफी पर सामुएल बैड का लेख निकला है जिसमें वह "पाकिस्तान में भारत का सांस्कृतिक धावे" (Indian "cultural invasion" welcome in Pakistan) की बात करते हैं. उनके अनुसार दूरदर्शन में प्रसारित होने वाले रामायण और महाभारत पाकिस्तान में बहुत लोग देखते थे. उनके लेख में पीपलसं पार्टी के एक युवक कहता है कि उसे इन कहानियों से उसे बहुत प्रेरणा मिलती है. फैज़ अहमद फैज़ ने कहा कि पाकिस्तानी संस्कृति की जड़ें आगरा और दिल्ली में हैं. इस पाकिस्तान को मज़बूत करना भारत के अपने हित में है.

मैं नहीं मानता कि भारत को इज़राईल से सीख लेनी चाहिए कि कट्टरवाद से कैसे लड़ा जाये. भारत को कट्टरवाद और आतंकवाद का कड़ा जवाब देते हुए साथ ही इस दूसरे मुसलमान समाज को प्रोत्साहन देना चाहिए जो भारत और पाकिस्तान में है जो अपने साझे इतिहास को मानता है. ऐसी लड़ाई जिससे आतंकवादी कमज़ोर हों और अज़ीम प्रेम जी, सानिया मिर्जा, शबाना आज़मी, शाहरुख खान, जैसे लोगों की बात मज़बूत हो.

धर्म के बूते से बने देश, पाकिस्तान और बँगलादेश, इसको आसानी से नहीं होने देंगे. जहाँ विभिन्न धर्मों वाले, प्रगतिशील भारत में मुसलमान उन दोनो से अधिक हैं, और वह देश सब नागरिकों को जीवन स्तर सुधारने का अवसर देता है, जहाँ सभी धर्मों के मानने वालों के मानव अधिकारों का सम्मान है, इससे अच्छा क्या सबूत चाहिऐ कि धर्म की बिनाह पर अलग देश माँगना बेवकूफी है?

बुधवार, जुलाई 19, 2006

किसकी सम्पत्ती?

रवि की टप्पणी पढ़ी कि किसी ने चिट्टा "चुरा" लिया है तो बहुत कौतुहल से देखने गया. सोच रहा था कि रवि तुमने कैसे जाना? क्या प्रतिदिन तुम हर तरह के चिट्ठे देखते हो जो कोई भी इस तरह की बात हो तुरंत पकड़ी जाये या फ़िर इस बार किस्मत से तुम्हे दिख गया?

मैं ईशेडो की बात से सहमत हूँ कि यह भी प्रशँसा का एक तरीका हो सकता है, हालाँकि इस बार मेरा विचार है कि बेचारे ने मेरे विज्ञापन जैसे चिट्ठे को इस लिए छाप दिया ताकि और लोग उसे पढ़ सके और मुझे अधिक सुझाव मिलें! अच्छा होता कि वह साथ ही लिखता कि उसने यह कहाँ से लिया है पर हो सकता है कि उसने यह अधिक सोचे बिना किया.

मैं क्रियेटिव कोम्मन्स (Creative Commons) में विश्वास रखता हूँ. मेरे विचार में मैं जो भी लिखता हूँ वह बिल्कुल निजी या नया और अपूर्व हो, यह कहना गलत होगा. अक्सर लिखने का विचार किसी और का लिखा कुछ पढ़ कर ही आता है, और अतर्मन में जाने अब तक पढ़ी कितनी किताबें, लेख, आदि होंगे जिनका मेरे लिखने पर प्रभाव होगा. इसलिए यह सोंचू कि मेरे लिखने पर मेरा कोपीराईट हो, मुझे लगता है कि गलत होगा.

यह बात भी है मैं अपने लिखने से नहीं जीता, यह तो समय बिताने का तरीका और अपनी सृजनात्मक इच्छाओं को व्यक्त करने का साधन है, इसलिए कोपीराईट को भूल जाना, उसकी परवाह न करना, इससे मुझे कुछ फर्क नहीं पड़ता. पर जो जीवनयापन के लिए अपने लेखन पर निर्भर हैं, अवश्य उनके लिए ऐसा सोचना कठिन होगा.

यह बात वैज्ञानिक खोज पर लागू हो सकती है. कोपीराईट की बात सुन कर, और यह कि लोग या कम्पनियाँ अपनी नयी कोज से करोड़ या अरबपति बन जायें, मुझे कुछ ठीक नहीं लगता. जिस खोज में पैसा, समय, मेहनत लगी हो, उसका सही मेहनताना उन्हें मिलना चाहिए, पर दस बीस साल तक कोई उनकी "खोज" को छू नहीं सकता, यह गलत लगता है. कोई भी "नयी" वैज्ञानिक खोज, हज़ारों लोगों की पुरानी खोजों के बिना नहीं हो पाती. जीवित प्राणियों से जुड़े कोपीराईट पर तो मुझे और भी गलत लगता है. पर शायद इस सब पर विचार करने के लिए समय चाहिए, एक छोटे से चिट्ठे में यह सब बातें कहना और उनका विवेचन करना कठिन है.
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आप सबको जिन्होंने मेरे पर्श्नों को बारे में सुझाव दिये, धन्यवाद.

मंगलवार, जुलाई 18, 2006

तलाश

पिछले दिनों में जाने कैसे बहुत से इतालवी लोग भारत सम्बंधी बातों के लिए मुझसे सम्पर्क करने लग गये हैं. बातें भी ऐसी पूछते हैं, जैसे "मुझे जयपुर जाना है, वहाँ कोन सी जगह देखने की हैं?" "मुझे नोयडा में काम से जाना है, यह दिल्ली से कितना दूर होगा और वहाँ दिल्ली से कैसे जा सकते हैं?" कुछ दिन पहले टीवी के लिए भारतीय अभिनेता खोजने के लिए भी कहा गया था.

लगता है कि किसी ने खबर फ़ैला दी है कि हमारे यहाँ "भारत सूचना दफ्तर" की एजैंसी है, और सब काम छोड़ कर अब इसी में लगना चाहिए!

अब दो नये प्रश्न पूछे गये हैं, जिनके उत्तर देने के लिए शायद आप में से कोई मेरी सहायता कर सकेः

1. हिंदी सीखने वाले विदेशियों के लिए क्या डिपलोमा या उच्च शिक्षा के कोई कोर्स हैं भारत में? कहाँ पर हैं?

2. एक इतालवी कम्पनी जो डोमोटिक्स (घर में विभिन्न टेकनोलोजियों और वायरलेस को मिला कर आटोमेटशन करने की तकनीकें) के क्षेत्र में काम करती है और किसी इंजीनियरिंग कोलिज से सम्पर्क चाहती है जहाँ से नये स्नातकों और अंतिम वर्ष के छात्रों को स्कालर्शिप पर अपने दफ्तर में कुछ दिन के लिए बुला सकें.

दोनों प्रश्नों के लिए अगर आप में से कोई कुछ सुझाव दे सकें तो आप का अभी से धन्यवाद.

जब कोई सम्पर्क करता है तो उसे सीधा न कहना या कहना कि मुझे नहीं मालूम आप किसी और जगह से कोशिश कीजिये, मुझे अच्छा नहीं लगता पर अगर यही हाल रहा तो करना ही पड़ेगा. अभी तो लगता है कि यह प्रश्न भारत की बढ़ती हुई प्रगति और नाम की वजह से आ रहे हैं, तो मन में गर्व होता है.

शनिवार, जुलाई 15, 2006

गिनती

गिनती में तो शुरु से ही कमज़ोर था. एलजेबरा और ट्रिगनोमेट्री का पूछिये ही नहीं, इम्तहान देते समय मालूम नहीं होता था कि पास भी हो पाऊँगा या नहीं. आठवीं कक्षा में आते आते मैं इस बारे में लोगों के ताने सुन सुन कर परेशान हो गया था, शायद इसीलिए फैसला किया था कि डाक्टरी ही पढ़ूँगा, कम से कम गणित से तो छुट्टी मिलेगी.

पर मानव बुद्धि भी अजीब है, एक तरफ़ से गणित से इतना डर और दूसरी तरफ़ से, कुछ भी गिनना हो बहुत आत्मविश्वास से बिना कागज़ या कलम के, बिना केलकूलेटर के, मन में ही मन में जोड़ घटा कर बताने का शौक भी है. जहाँ काम करता हूँ, वहाँ किसी भी यात्रा से वापस लौट कर जब हिसाब देता हूँ तो वित्त विभाग में काम करने वाले माथा पीट लेते हैं. बहुत बारी तो अपनी जेब से ही भरना पड़ता है. कुछ खरीदने जाऊँ तो पैसे ध्यान से गिन कर देता लेता हूँ पर अक्सर कुछ न कुछ गलती हो ही जाती है.

एक तो पहले से ही यह हाल था, उस पर रही सही कसर इस पश्चिमी गिनती के तरीके ने निकाल दी. पश्चिमी देशों में मिलियन, बिलियन (million, billion) होते हैं और भारत में लाख और करोड़, पर आपस में इनके शून्यों की मात्रा नहीं मिलती.
1 लाखः 1,00,000
1 करोड़ः 1,00,00,000
1 मिलियनः 1,000,000
1 बिलियनः 1,000,000,000

अगर भारत की जनसँख्या करीब 1 बिलियन है तो कितने करोड़ हुई?

इतने सारे शून्य देख कर पहले से ही मुझे घबराहट होने लगती है, और गलती होते देर नहीं लगती. मैंने हिसाब कैसे लगाया सुनिये. मैंने सोचा कि सात आठ करोड़ तो सुना है कि शाह रुख खान और आमिर खान एक फ़िल्म में काम करने का लेते हैं, तो करोड़ इतना अधिक भी नहीं हो सकता. यानि 1 बिलियन कम से कम 1000 करोड़ तो होगा.

एक बार कुछ महीनों के लिए चीन में काम पर रहा था, वहाँ तो चार चार शून्यों को जोड़ कर गिनती गिनते हैं जैसे किः
श्रवानः 10,0000
यीबाइवानः 100,0000
यीछयानवानः 1000,0000

आप सोच ही सकते हैं कि मेरा क्या हाल हुआ वहाँ. पढ़ाते हुए जब भी कोई बड़ी सँख्या आती तो अनुवादक के साथ साथ, विद्यार्थी भी हँसी से लोट पोट हो जाते.

बचपन में गणित की मैडम कहती कि मैं बिल्कुल बुद्धू हूँ और जाने क्या होगा मेरा! वो तो किस्मत अच्छी थी कि भगवान ने दिमाग में गिनती का हिस्सा, बाकी हिस्सों से अलग बनाया. खैर जब मैं लाखों करोड़ों की बात करूँ तो आप समझ ही गये होगें की उसे ध्यान से पढ़िये. फ़िर नहीं कहियेगा कि पहले क्यों नहीं बताया.

गुरुवार, जुलाई 13, 2006

डर

मुम्बई के बम विस्भोट में मेरी भाँजी भी माहिम की रेलगाड़ी में थी. केवल मानसिक धक्का लगा उसे, चोट नहीं आई. पिछले साल जुलाई में जब लंदन में बम विस्फोट हुआ था तब भी एक गाड़ी में मेरा भतीजा इसी तरह बचा था. जिस तरह इतना कुछ तहस नहस हुआ, इतनी जाने गयीं, मन विचलित हो गया, कुछ लिखा नहीं गया.

सागर जी का चिट्ठा पढ़ा तो ऐसी बहुत सी बातें याद आ गयीं. बहुत छोटा था तो सुना था कि भारत विभाजन के समय माँ ने दिल्ली में एक मुसलमान लड़की की जान बचाई थी जिस पर उन्हें प्रधानमंत्री जवाहरलाल नहरु ने सर्टिफिकेट दिया था.

माँ और पापा दोनो पहले गाँधी जी के, फ़िर समाजवादी नेता डा. राम मनोहर लोहिया के साथ जुड़े थे, एक बार बचपन में ही डा. लोहिया के निवास पर पेशावर से आये खान अब्दुल गफ्फार ख़ान को देखा था और उनसे बहुत प्रभावित हुआ था. माँ ने मौलाना आजाद की स्टेनो के रुप में काम किया था. उन सब के बारे में यह सोचना कि वह हिंदू हैं या मुसलमान हैं, इसका कभी प्रश्न ही नहीं उठा.

कुछ बड़े हुए तो साथ वाले घर में मुसलमान परिवार था, पटौदी की रियासत के मैनेजर साजिद भाई, उनकी पत्नी आइरिन और उनके बच्चे, बबला यानि अहमद और निधा. उन्हीं दिनो पापा के एक मित्र अख्तर भाई पटना से जब भी दिल्ली आते तो उनसे खूब गप्प लगती. साजिद भाई के यहाँ आल इंडिया रेडियो में उर्दू के समाचार पढ़ने वाले जावेद भाई आते, उनसे भी बहुत पटती. उदयपुर में काम से गया तो पापा की ही एक पुरानी साथी के घर पर रुका. तब यह नहीं सोचना पड़ा था कि वह मुसलमान परिवार है.

आज भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बहुत से मुस्लिम मित्र हैं. कहने का अर्थ यह है कि सामान्य, प्रगतीवादी मुसलमान समाज से अनजान नहीं हूँ मैं, पर अगर यह कहूँ कि मुस्लिम कट्टरवाद से डर नहीं लगता, तो झूठ होगा. शायद यह कहना ठीक होगा कि हर कट्टरवाद से डर लगता है और पिछले सालों में मुस्लिम कट्टरवाद सबसे अधिक समाचारों मे आया है, इसलिए उससे कुछ अधिक डर लगता है.

बचपन में ही नानी से विभाजन के समय की पाकिस्तान का घर छोड़ने और उस समय के खून खराबे की बातें भी सुनीं थीं और उनके अंदर बसे मुसलमानों के विरुद्ध जमे रोष को भी महसूस किया था, पर तब इस तरह का डर नहीं लगता था. यह डर पिछले दस पंद्रह सालों में ही आया है.

सामने कभी किसी कट्टरवादी से बातचीत नहीं हुई, तो यह डर कहाँ से आया? शायद समाचारों, पत्रिकाओं में जो छपता है और टेलीविजन पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रम यह डर बनाते और बढ़वाते हैं? सामान्य मुस्लिम जैसे बचपन के लोग जिन्हें मैं जानता था या आज के मु्स्लिम मित्र, वे याद क्यों नहीं आते जब मुसलमानों और कट्टरवादियों की बात होती है?

मेरे विचार में इसका एक कारण यह भी है कि आजकल कुछ भी बात हो, कोई भी विषय हो जिसका सम्बंध मुसलमान समाज से है, हर बार रुढ़िवादी मुल्ला टाईप के लोगों के ही आवाज़ ऊँची सुनाई देती है, सामान्य लोग जो अपने भविष्य, काम, पढ़ाई कि बात करते हों, जो आधुनिक हों, पढ़े लिखे हों, उनकी आवाज़ कहीं सुनने को नहीं मिलती.

यह बात नहीं कि अन्य धर्मों में कट्टरवादी नहीं, हिंदू, सिख और इसाई कट्टरवादी भी हैं,पर शायद अन्य धर्मों में बहुत से लोग विभिन्न विचार रखने वाले भी हैं, जिनकी आवाज़ दबती नहीं है. तो भारत के पंद्रह करोड़ से अधिक मुसलमानों में विकासवादी, साहिष्णुक लोगों की आवाज़ ही क्यों दब जाती है? शायद उन्हे डर है कि उनके बोलने से उन्हें खतरा होगा या फ़िर मीडिया वाले बिक्री बढ़ाने के लिए पुराने रुढ़ीवादी विचारों वालों को ही मुस्लिम समाज के सही प्रतिनिधि मानते हैं और केवल उनकी ही बात सुनते और छापते हैं? राजनीतिक नेताओं की "वोट के लिए कुछ भी करो, कुछ भी मान लो, बाँट दो लोगों को धर्म की, जाति की, भाषा की सीमाओं में" की नीति ने भी इसमें अपना योगदान दिया है.

कुछ महीने पहले विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक मीटिंग में मिस्र गया था. बात का विषय था विकलाँगता. देख कर बहुत हैरत हुई कि अधिकतर बोलने वालों ने कुरान का या खुदा का नाम ले कर बोलना प्रारम्भ किया. एक दो लोगों ने तो पहली स्लाईड में एक मस्जिद दिखाई. पिछले पाँच सालों में मैं इस तरह की मीटिंग में विश्व के विभिन्न कोनों में जा चुका हूँ पर यह पहली बार हुआ और सभा के विषय में धर्म के इस तरह घुसने से मन में थोड़ा डर सा लगा. सोचा कि दिल्ली के क्षेत्रीय विश्व स्वास्थ्य संगठन की किसी मीटिंग में इस तरह की बात होती तो हल्ला हो जाता.

कुछ महीने पहले दिल्ली में अपनी बड़ी दीदी से बात कर रहा था, बोलीं, "मुसलमान तो सभी कट्टर होते हैं, चाहे जितने भी पढ़े लिखे हों, बाकी सब धर्मों को नीचा ही मानते हैं." दीदी की बात सुन कर दंग रह गया. थोड़ी बहस की कोशिश की पर वह सुनने के लिए तैयार नहीं थीं. मेरी दीदी संकीर्ण विचारों वाली तो नहीं थीं, न ही हिंदू कट्टरपंथीं. उनकी बात सुन कर भी डर लगा. मैं नहीं मान सकता कि भारत के सभी पंद्रह करोड़ मुसलमान कट्टर हैं या पुराने रुढ़िवादी विचारों के हैं, पर अगर मेरी दीदी जैसे लोग इस तरह की बात सोच सकते हैं या सोचने लगे हैं, तो सचमुच चिंता की बात है.

बात केवल हिंदुओं या अन्य धर्मों की गलतफ़हमी दूर करने की नहीं बल्कि स्वयं पूरे मुस्लिम समाज के भविष्य की है. प्रगितिवादी, उदारवान, भविष्यमुखी मुसलमान विचारक ही यह काम कर सकते हैं कि उनकी आवाज़ ऊँचीं हो कर उनके समाज के विभिन्न विचारों को सबके सामने रख सके.

पिछले साल लंदन गया था तो बोलोनिया की भारतीय एसोसिशन वालों ने वहाँ से अलग अलग रंगों के गुलाल खरीद कर लाने की जिम्मेदारी सौंपी थी. गुलाल खोजते हुए साउथहाल पहुँच गया. कई दुकानों में गया पर नहीं मिला. एक दुकान में घुसा तो कुछ पूछने से पहले देखा कि एक वृद्ध सफ़ेद दाढ़ी वाले मुसलमान पुरुष थे. उन्हे देख कर बाहर निकल रहा था तो उन्होंने पीछे से आवाज़ दे कर पूछा, "क्या चाहिए?". हिचकिचा कर कहा कि गुलाल खोज रहा था. वह मुस्कुराए और मुझे बाहर ले आये, उँगली उठा कर इशारा कर के कहा, "वहाँ कोने वाली दुकान दिख रही है न, लिटिल इँडिया, वहाँ सब भगवान की मूर्तियाँ, गुलाल वगैरा मिल जायेगा." उन्हे धन्यवाद दे कर निकला तो मन में थोड़ा पश्चाताप हुआ. यह सोच कर ही कि वह मुसलमान हैं मैं उनसे गुलाल की बात करने को घबरा रहा था, यह भूल गया था कि बचपन में साजिद भाई के बच्चों ने भी मेरे साथ होली खेली थी.

इस तरह की सोच से जो किसी को जाने बिना, उसके धर्म के आधार पर ही उसके बारे में विचार बना लेती है, उससे भी डर लगता है.

शुक्रवार, जून 30, 2006

हिंदी के उपन्यासकार

रत्ना जी ने लिखा है कि मेरे लिखने के अन्दाज़ में उसे मेरी प्रिय लेखिका शिवानी की झलक दिखती है. शिवानी की कोई किताब पढ़े तो वर्षों बीत गये, पर उनके लिखने के तरीके की झलक मेरे लिखने में मिलती है, सोच कर बहुत खुशी हुई.

अपने मनपसंद हिंदी लेखकों के उपन्यास पढ़े तो अब यूँ ही साल गुजर जाते हैं क्योकि मेरे बहुत से प्रिय लेखक अब नहीं रहे या कम लिखते हैं. और नये लेखकों से मेरी जान पहचान कुछ कम है.

कुछ महीने पहले दिल्ली से गुज़रते समय मुझे डा. राँगेय राघव की एक अनपढ़ी किताब मिल गयी थी, "राह न रुकी" (भारतीय ज्ञानपीठ, पहला संस्करण, 2005).

आजकल उपन्यास पढ़ना कम हो गया है और कभी पढ़ने बैठूँ भी तो रुक रुक कर ही पढ़ पाता हूँ, एक बार में नहीं पढ़ा जाता. पर मई में जेनेवा जा रहा था, "राह न रुकी" सुबह पढ़ना शुरु किया और पूरा पढ़ कर ही रुका. इस उपन्यास में उन्होने जैन धर्म के सिद्धातों का विवेचन किया है चंदनबाला नाम की जैन संत के जीवन के माध्यम से. भगवान बुद्ध का जीवन और उनका संदेश के बारे में तो पहले से काफी कुछ जानता था पर कई जैन मित्र होने के बावजूद भगवान महावीर के बारे में बहुत कम जानता था, शायद इसीलिए यह उपन्यास मुझे बहुत रोचक लगा और जब पढ़ कर रुका तो सोचा था कि भगवान महावीर के बारे में और भी पढ़ना चाहिए.

मुझे ऐसे ही उपन्यास आजकल भाते हैं जिनमें रोचक कथा के साथ सोचने को नया कुछ भी मिले. इसी से सोचने लगा कौन थे मेरे प्रिय हिंदी के उपन्यासकार?

सबसे पहले, बहुत बचपन में जब पराग, चंदामामा और नंनद पढ़ने के दिन थे, तभी से उपन्यास पढ़ने का चस्का लग गया था मुझे. घर में पैसे कि चाहे जितनी तंगी हो, उपन्यासों की तंगी कभी नहीं लगी. पापा के पास आलोचना के लिए नये उपन्यास आते रहते थे और जब घर में नई किताब न मिले तो दिल्ली पब्लिक लायब्रेरी से मिल ही जाती थी.

जो पहला नाम मन में आता है वह है सोमा वीरा का, जिनकी एक कहानियों की किताब "धरती की बेटी" (आत्माराम एंड सन्स, दिल्ली, 1962) आज भी मेरे पास है. यह पहली किताब थी जो आठ का साल का था, तब पढ़ी थी. उन्होंने अन्य कुछ लिखा या नहीं मालूम नहीं.



उन्हीं दिनो के अन्य नाम जो आज भी याद हैं उनमे थे राँगेय राघव, किशन चंदर, नानक सिंह, और जाने कितने नाम जो आज भूल गये हैं. किशन चंदर की "सितारों से आगे" और आचार्य चतुरसेन की "वैशाली की नगरवधु" बचपन की सबसे प्रिय पुस्तकों मे से थी. धर्मयुग और साप्ताहिक हिंदुस्तान से जान पहचान हुई शिवानी, महरुन्निसा परवेज़, बिमल मित्र, मन्नु भँडारी, धर्मवीर भारती जैसे लेखकों से. बँगला लेखकों से मुझे विषेश प्यार था, लायब्रेरी से किताबें ले कर बिमल मित्र, आशा पूर्णा देवी, शरतचंद्र, बँकिमचंद्र चैटर्जी, सुनील गंगोपाध्याय और असिमया के बीरेंद्र कुमार भट्टाचार्य जैसे लेखको को बहुत पढ़ा.

किशोरावस्था तक आते आते, अँग्रेजी की किताबें पढ़ना शुरु कर दिया था और धीरे धीरे हिदी में उपन्यास पढ़ना बहुत कम हो गया. आजकल कभी कोई इक्का दुक्का किताब पढ़ लेता हूँ पर श्रीलाल शुक्ल, पंकज विष्ट, दिनकर जोशी, अजीत कौर, मैत्रयी पुष्प, अलका सराओगी जैसे कुछ नाम छोड़ कर आज कल के नये लेखकों के बारे में बहुत कम मालूम है.

हिंदी छूटी तो उसके बदले में जर्मन को छोड़ कर बाकी सभी यूरोपीय भाषाओं मे पढ़ना शुरु हो गया था. ब्राजील के कई लेखक मुझे बहुत प्रिय हैं.

इसलिए पिछले साल हिंदी का चिट्ठा शुरु करने से पहले, हँस पत्रिका को छोड़ कर हिंदी में नया कुछ पढ़ना तो लगभग समाप्त ही हो गया था. अब चिट्ठे के माध्यम से ही दोबारा हिंदी पढ़ने की इच्छा जागी है इसलिए जब भी भारत जाने का मौका मिलता है, हिंदी की किताबें ढूँढना शुरु कर दिया है. पर नयी किताबें ढूँढने के बजाय, मन वही पुरानी किताबें खोजना चाहता है जिनकी यादें अपने अंदर अभी भी बसीं हैं.

मंगलवार, जून 27, 2006

कुछ इधर उधर की

पुरस्कार के साथ साथ "सबसे सक्रिय हिंदी चिट्ठाकार" की पदवी पाने का पढ़ कर अचरज भी हुआ, खुशी भी. जिसने भी मेरे चिट्ठे को इस योग्य समझा, उन सब को धन्यवाद.
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लिखनेवाले के लिए सबसे बड़ी सुख होता है उसे पढ़नेवालों की राय जानना. इस दृष्टि से चिट्ठा लिखना, लेखन की अन्य सभी विधाओं से बेहतर है क्योंकि पढ़ने वाले चाहें तो सीधा ही उसपर अपनी राय दे सकते हैं.

बचपन में हिंदी लेखिका शिवानी मुझे बहुत पसंद थीं, पर उनसे कभी सीधा कोई सम्पर्क नहीं हुआ. फ़िर कुछ वर्ष पहले छोटी बहन से सुना कि अमरीका में शिवानी जी उसके ही क्लिनिक में साथ काम करने वाले एक डाक्टर की सम्बंधीं हैं और उनके घर पर ठहरीं हैं. लगा कि हाँ, अपने प्रिय लेखक से सम्पर्क हो सकता है पर इससे कुछ समय बाद ही मालूम चला कि शिवानी जी नहीं रहीं.

फ़िर अचानक पिछले वर्ष अमरीका से शिवानी जी के पुत्र का संदेश मिला. उन्होंने कल्पना पर शिवानी जी के बारे में मेरा लिखा पढ़ा था जो उन्हे अच्छा लगा था. लगा जैसे कोई पूजा थी, जिसके लिए मुझे वरदान मिल गया हो.
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मैंने अपनी एक इतालवी मित्र को अपनी नई लाल मेज़ और अलमारी के बनाने की कठिनाईओं के बारे में बताया और लिखा कि यह अलमारी मेरे लिए ताजमहल जैसी है.

मेरी मित्र ने मुझे उत्तर में लिखा है, "मैंने शब्दकोश में ढूँढा, वहाँ लिखा है कि ताजमहल मुगल भवन निर्माण कला का उच्च उदाहरण है जिसे एक राजा ने अपनी रानी की कब्र के लिए बनवाया था, समझ नहीं आया कि इसका तुम्हारी मेज से क्या सम्बंध हो सकता है, ज़रा ठीक से समझाओ ?"
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आज कल वर्ल्डकप के दिन हैं. जिस दिन इटली का कोई खेल होता है, उस समय सड़कें ऐसे खाली हो जाती हैं जैसे भारत में क्रिकेट के मैच के दौरान होता है, जब भारत खेल रहा हो. हर तरफ सड़कों और घरों पर इटली के झँडे दिखाई देते हैं. जब लगे कि कोई गोल होने वाला है तो हर ओर से ऐसी ध्वनि उठती है जो दूर से सुनाई देती है, और फ़िर अगर गोल हो जाये तो बादलों की गरज जैसी बन जाती है.

कल दोपहर को इटली और आस्ट्रेलिया का मैच था. हर तरफ सन्नाटा था. पर वह गूँजने वाली ध्वनि नहीं थी हर तरफं. जो दिखता, कुछ परेशान सा दिखता. अंतिम मिनट तक वह सन्नाटा रहा फ़िर आखिर जब गोल हुआ तो वह सन्नाटा टूटा. यानि कि अब अगले मैच का इंतज़ार है.

मैंने स्वयं कभी कोई फुटबाल का मैच टेलीविजन पर पूरा नहीं देखा, सिवाय एक बार, 1982 में जब इटली ने वर्ल्डकप जीता था. उस रात का पागलपन अभी तक याद है. उत्तरी इटली के एक छोटे से शहर में रहते थे और लगता था कि सारा शहर सड़कों पर निकल आया था, नाचने गाने के लिए.

अगर बार बार जीत होती रहे तो शायद उत्साह कम हो जाये पर जब कभी कभार हो तो आनंद दुगना हो जाता है.

मुझसे मेरे कुछ इतालवी मित्रों ने पूछा कि अगर फाइनल का मुकाबला इटली और भारत के बीच हो तो मैं किसकी जीत चाहूँगा ? मैंने कहा कि इटली में किसी को क्रिकेट का नाम भी ठीक से नहीं आता, भला फाईनल में साथ कैसे मुकाबला हो सकता है ? वह बोले, नहीं कल्पना करो कि फुटबाल में अगर ऐसा हो तो ?

तब सोच कर मैंने कहा, सच में चाहूँगा कि भारत जीते, क्योंकि कुछ भी हो मन से सबसे पहले भारतीय ही हूँ. पर इससे एक और फायदा यह होगा कि हम लोग क्रिकेट के अलावा अन्य खेलों के बारे में भी सोचेंगे, पर अगर भारत न भी जीता तो उतना दुख नहीं होगा क्योंकि यह मुकाबला तो माँ पिता का मुकाबले की तरह हुआ, एक तरफ वह देश है जिसने जन्म दिया, दूसरी ओर ससुराल का देश है.



सोमवार, जून 26, 2006

शक्तिवान का भय

कल टेलीविजन में फ़िर से गाज़ा में घुसते इज़राईली टैंकों को देख कर झुरझुरी सी आ गयी. भारत में समाचारों में कभी पालिस्तानियों का नाम नहीं आता था पर यहाँ तो शायद ही कोई दिन होता है जब वहाँ कि किसी बमबारी या बम विस्फोट का समाचार न हो. अभी कुछ दिन पहले गाज़ा के समुद्र तट पर इज़राईली मिसाइल से मरे लोगों की तस्वीरों में पिता की लाश के पास खड़ी ग्यारह वर्ष की रोती हुई लड़की मन को छू गयी थी, पर अधिकतर तो ऐसी तस्वीरों को देखने की आदत सी हो गयी है.

ईंट का जवाब पत्थर से दो, यह है इज़राईल की आतंकवाद से लड़ने की नीति. पालिस्तीनी हमास के या अन्य दलों के लोग बम फैंकें या फ़िर नवजवान लड़के स्वयं को इज़राईलियों की भीड़ में बम से उड़ा दें, तो इज़राईली बम और मिसाईल उसी दिन या अगले दिन अपना काम करते हैं. मरने वालों के आँकणे देखें तो हर मरने वाले इज़राईली के बदले में कम से कम तीन पालिस्तीनी मरना चाहिये, ऐसा लगता है.

ताकतवर अपनी ताकत से जितना कुछ कर सकता है, चाहे वह जायज हो या नाजायज, सब कुछ कर रहा है. जहाँ पालिस्तीनी रहते हें, इनके घरों के बीच ऊँची जेल जैसी दीवार खड़ी गयी है ताकि पालिस्तीनी बाहर न निकल सकें. कुछ वर्ष पहले पालिस्तान में संयुक्त राष्ट्र की तरफ से काम करने गये मेरे इतालवी मित्र आँजेलो ने जेनिन के शरणार्थी कैम्प में हुए इज़राईली हमलों के बारे में वह बातें बतायीं थीं, जिनको सोच कर ही काँप उठता हूँ.

स्वयं को स्वतंत्र कहने वाले समाचार पत्र और टेलीविज़न अपने शरीर पर बम बाँध कर स्वयं को उड़ा देने वालों को तो आतंकवादी कहते हैं पर निहत्थी जनता पर मिसाइल और टैंक चलाने वालों को आत्मरक्षा कहते हैं.

जब सुनता हूँ कि भारत को इज़राईल से सीखना चाहिये कि कैसे मुस्लिम आतंकवाद से लड़ें तो लगता है कि शायद यह कहने वाले किसी और दुनिया में रहते हैं. यह आतंकवाद से लड़ाई है या आतंकवाद को बढ़ावा देने का तरीका ? अन्याय से आतंकवाद समाप्त होगा या उससे नये आतंकवाद के बीज बोये जायेंगे ?

पर आज कुछ भी बात खुल कर पाना कठिन है. अगर आप पालिस्तीन में होने वाले के बारे में कुछ भी कहते हैं तो इसका अर्थ है कि आप यहूदियों के विरुद्ध हैं, पालिस्तानी आतंकवादियों के विरुद्ध बोलें तो इसका अर्थ बन जाता है कि आप मुस्लिम विरोधी हैं.
*****

मेरे मन में बचपन से ही इज़राईल के लिए बहुत आकर्षण था. द्वितीय विश्व महायुद्ध में हुए यहुदियों के नरसंहार की कहानियों में और उनके अन्याय और शोषण से लड़ने की कहानियों में मेरी बहुत दिलचस्पी थी. उस विषय पर कोई भी किताब देखता तो उसे अवश्य पढ़ता. मन में सोचता था कि शायद पिछले जन्म में मैं भी किसी कंसनट्रेशन कैम्प में मरने वाला यहूदी रहा हूँगा. इज़राईल की रेगिस्तान में प्रकृति से लड़ कर खेती बनाने के बारे में भी पढ़ना बहुत अच्छा लगता था. सोचता था कि यूरोप में 40 लाख यहूदियों के बलिदान से मानव जाति के खून की प्यास मिट गयी होगी और दोबारा ऐसे पाप कभी नहीं होंगे.

उन्हीं कंसनट्रेशन कैम्पों के कुछ वशंज डर से एक दिन अत्याचार करने वालों जैसे बन जायेंगे यह नहीं सोचा था. मेरे कुछ यहूदी मित्र हैं जो इस बात को मानते हैं. सारे इज़राईली ऐसा सोचते हों कि दमन ही बुराई से लड़ने का एकमात्र तरीका है यह बात नहीं पर इतने भयभीत इज़राईली तो हैं जो बार बार कट्टरपंथी सरकार को चुनते हैं, जोकि यह सोचते हैं.

हिटलर की सरकार के पास कितनी शक्ति थी, जो चाहते थे वह किया उन्होनें, भट्टियाँ बनाईं जिनमें हजारों निरीह बच्चों, बड़ों को झौंक दिया, पर कितनों को मार पाये, 30 या 40 लाख को, पर क्या अन्याय से लड़ने वाले यहूदी समाज को समाप्त कर पाये ? उस नरसंहार के घाव लिये, यहूदी समाज ने कितनी तरक्की की है, पर मन से भय को नहीं निकाल पाया. यही भय है जो उसे अन्याय के रास्ते पर चलने से नहीं रोक पाता.

मैं मानता हूँ कि केवल बातचीत से, समझोते से ही समस्याएँ हल हो सकती हैं, युद्ध से, बमो से नहीं. अगर एक आँख के बदले दो आँखें लेने की नीति चलेगी तो एक दिन सारा संसार अँधा हो जायेगा.

रविवार, जून 25, 2006

हमारा इतिहास

एक दोहा खोजने के लिए रामायण निकाली तो नजर उसके प्रारम्भ में दी गयी तुलसीदास जी की जीवनी पर पड़ी. इसमें लिखा था, "तुलसीदास जी का जन्म संवत 1554 ई. में बाँदा जिले में राजापुर ग्राम में हुआ था ... चल कर वे प्रयाग होते हुए काशी आये और वहाँ रामकथा कहने लगे. उन्हें एक प्रेत मिला, उसने उन्हें हनुमान जी का पता बताया. हनुमान जी से मिल कर तुलसीदास जी ने अपनी श्रीराम दर्शन की अभिलाषा पूरी करने पूर्ण करने का प्रयत्न किया ..."

रामायण प्रेस द्वारा मुम्बई में 1999 में छपी इस रामायण को पढ़ कर सोच रहा था कि संवत 1554 का अर्थ हुआ कि तुलसीदास जी आधुनिक कैलेण्डर के हिसाब से सन 1497 में हुआ, यानि आज से करीब 500 वर्ष पहले.

स्वामी शिवानंद जी ने भी तुलसीदास जी की जीवनी लिखी है, उनके अनुसार तुलसीदास जी का जन्म संवत 1589 यानि सन 1532 में हुआ था. शिवानंद जी अधिक विस्तार से बताते हैं कि उन्हें एक पेड़ पर से एक प्रेत मिला था जिसने उन्हें हनुमान जी से मिलने का रास्ता बताया. उसने कहा कि एक हनुमान मंदिर में हनुमान जी एक कुष्ठ रोगी का रुप धारण करके रामायण का पाठ सुनने आते हैं.

अंतरजाल पर तुलसीदास जी के बारे में खोजने से पाया एक जगह लिखा है कि उनकी पत्नी का नाम बुद्धिमति था, दूसरी जगह लिखा है कि पत्नि का नाम रत्नावलि था.

सन 1497 में इटली के फ्लोरेंस शहर में सावानारोला नामक पादरी ने "पाप पूर्ण और धर्मविरुद्ध" कह कर हजारों पुस्तकों को जला दिया था. इसी सन में पोर्तगाल के वास्को देगामा भारत की यात्रा की ओर रवाना हुए थे. सन 1532 में माकि्यावैली की प्रसिद्ध पुस्तक "राजकुमार" उनकी मृत्यु के पाँच वर्ष बाद प्रकाशित हुई थी.

इनके अलावा उन सालों मे हुई हजारों घटनाओं का पश्चिमी देशों में तस्वीरें, चित्र, दस्तावेज इत्यादि आसानी से मिल जाते हैं. मेरे घर के पास एक छोटा सा नाला बहता है, और हमारे इलाके के गिरजाघर में दस्तावेज हैं जिनमें इस नाले के 1463 में बनवाये जाने की पूरी जानकारी है. एक बार फ्लोरेंस में एक पुराने अनाथआश्रम में 800 साल पुराने रजिस्टर देखे थे जिनमें बताया गया था कि किस साल उन्होने चद्दर कपड़े आदि खरीदने और धुलवाने में कितना खर्चा किया, किस दिन धोबी कपड़े ले कर गया, किस दिन वापस लाया, इत्यादि.


तो इस अंतर के बारे में सोच रहा था. तुलसीदास जी जैसे प्रसिद्ध और हिंदूँओं के लिए पूजनीय व्यक्तित्व के बारे में ठीक से कुछ इतिहासिक जानकारी उपलब्ध नहीं है जबकि यहाँ अनाथाआश्रम के कपड़ों तक की जानकारी है. क्या कारण हैं इस अंतर के ? क्या हमारी भारतीय दृष्टी इतिहास को "वैज्ञानिक" तरीके से नहीं देख पाती ? क्या तुलसीदास जैसे व्यक्ति के पूरे दस्तावेज नहीं सँभाल कर रखे गये ? क्या भारतीय सोच का तरीका माया के दर्शन से प्रभावित हो कर सच और कल्पना में अंतर नहीं कर पाता और इसलिए "प्रमाणित इतिहास" को बनाये रखने में असफल रहता है ?

यह बात तो मन में थी ही, आज आऊटलुक पत्रिका पर 1857 की क्राँती के बारे में अँग्रेजी लेखक और इतिहासकार विलियम डारलिम्पल का लम्बा लेख पढ़ा. वे कहते हें कि 1960-70 में मार्क्सवादी इतिहासकारों ने इस क्राँती को अँग्रेजों के आर्थिक शोषण के विरुद्ध उठे रोष की दृष्टि से समझाया है जोकि अँग्रेजी इतिहासकारों के छोड़े दस्तावेजों के आधार पर कहा गया था. डारलिम्पल ने अपने साथियों के द्वारा इस समय के बहुत से उर्दू और फारसी में लिखे दस्तावेजों के अनुवाद के आधार पर इस क्राँती के कारणों में धर्म और अन्य विषयों पर नया प्रकाश डालते हैं.

इसी लेख में डारलिम्पल लिखते हैं, "मेरा दिल टूट जाता है जब मैं कभी अपने मनपसंद प्राचीन भवन को देखने दोबारा जाता हूँ और पाता हूँ कि वह किसी झोपड़पट्टी के नीचे दब गया है या फिर भारतीय पुरातत्व विभाग द्वारा भद्दे तरीके से ठीक किया गया है या फिर उसे तोड़ दिया गया है. पुरानी दिल्ली की 99 प्रतिशत भव्य मुगल हवेलियाँ नष्ट कर दी गयीं हैं और शहर की प्राचीन दीवारों की तरह, लोगों की यादाश्त से गुम हो गयीं हैं. इतिहासकार पवन वर्मा के अनुसार, उनकी केवल दस वर्ष पहले लिखी पुस्तक संध्यावेला में भवन (Mansions at Dusk) में जिन हवेलियों की बात की गयी थी उनमें से अधिकाँश आज नहीं हैं... जो भी हो, दिल्ली जो खो रही है वह दोबारा नहीं बन पायेगा और हमारे आने वाले युग अपनी धरोहरों को ठीक से न बचा पाने को गहरे दुख से देखेंगे."

शायद इसकी भी एक वजह यही है कि हमारा इतिहास के बारे में सोचना, पश्चिमी सोच से भिन्न है ? भारत में ही यह हो रहा है ऐसा नहीं है. कुछ दिन पहले काठमाँडू में भी, पुराने नक्काशीदार जाली वाले घरों की जगह पर नये सीमेंट के घर देख कर मुझे भी ऐसा ही दुख हुआ था.




शनिवार, जून 24, 2006

अभिनय का शौक?

अगर आप को अभिनय का शौक है, आप इटली में रहते हैं और अच्छी इतालवी भाषा बोलते हैं तो मुझसे तुरंत सम्पर्क कीजिये. इतालवी राष्ट्रीय टेलीविज़न के लिए एक सिरीयल में कुछ भारतीय अभिनेताओं की आवश्यकता है और उन्होने मुझसे सहायता माँगी है. अगर आप किसी ऐसे व्यक्ति को जानते हैं जिसको इसमें दिलचस्पी हो सकती है तो उसे मुझसे इस ब्लाग के माध्यम से या कल्पना पर दिये गये मेरे ईमेल के पते से संपर्क करने के लिए कहिये. अंतिम तारीख 30 जून 2006.

गुरुवार, जून 22, 2006

एक अधूरा ताजमहल

मेरे हाथ डबलरोटी की तरह फूल गये हैं. क्मप्यूटर के कीबोर्ड पर उँगलियाँ चलाते हुए लगता है मानो जोड़ों के दर्द की बीमारी का पुराना रोगी हूँ. यह सब हाथों की मेहनत का कमाल है.

कई सालों से मन में अपनी छवि सी थी ऐसे मानव की जिससे दिमागी चाहे जितने काम करवा लीजिये पर हाथों से कुछ करने के लिए न कहिए. "अरे भाई तुमसे तो एक कील भी सीधा नहीं लगता", "यह कैसी टेढ़ी लकीर लगाई है श्रीमान जी, बँगाल की खाड़ी का नक्शा लगता है" जैसी बातें सुन सुन कर, मन में पक्का हो गया था कि जो काम ठीक से न करना आये, उसे न करने में ही भला है. सोचता कि दुनिया में कुछ लोग हाथ से मेहनत मजदूरी करते हैं और दूसरे कुछ लोग दिमाग से वह मेहनत करते है, और मैं उन दूसरों मे से हूँ.

इसलिए जब भी कभी कुछ "सचमुच" का काम करने की बात आती है, मैं अक्सर चुप ही रहता हूँ या फ़िर करीब खड़े हो कर सलाह देने की जिम्मेदारी निभाता हूँ.

जब अचानक क्मप्यूटर वाली मेज की एक टाँग को हिलते हुए महसूस किया तो तुरंत श्रीमति जी को आवाज लगाई. उन्होंने सलाह दी कि मेज खतरनाक हालत में था और उसे जल्दी से जल्दी बदलना ही बेहतर होगा. किसी लकड़ी के काम वाले को बुला कर मेज की टाँग करवाने का तो यहाँ सवाल ही नहीं उठता, उतने में तो दो मेज नये खरीद ले सकते हैं. तो श्रीमति के साथ हम मशहूर सुपरमार्किट इकेआ (IKEA) गये जहाँ स्वीडन में बना फर्नीचर बिकता है. "यह लाल रंग की मेज अच्छी रहेगी, उपर अलमारी भी है, उसमें कुछ किताबें भी आ जायेंगी", हमने कहा.

सुपरमार्किट वाली ने बताया कि वह मेज खुले टुकड़ों में मिलती है, जिन्हे जोड़ कर, नट, बोल्ट, कील लगा कर तैयार करना पड़ेगा. साथ में यह भी कहा कि अगर हम यह मेज स्वयं ही तैयार करना चाहें तो तुरंत मिल सकती है पर अगर यह चाहे कि सुपरमार्किट वाला आदमी घर आ कर उसे बनाये तो करीब दस दिन प्रतीक्षा करनी पड़ेगी. उसके लिए 20 प्रतिशत अलग देना पड़ेगा, यानि 340 यूरो की मेज पर 80 यूरो बनवाई और पूरा खर्च हुआ 420 यूरो का.

श्रीमति जी बोलीं कि दस दिन इंतज़ार करने में ही भलाई थी, क्योंकि उनके पास तो और बहुत से काम थे, और मेज देखने में सरल नहीं लगता था. ताव आ गया हमें. अरे एक मेज ही तो जोड़ कर बनाना है, सब टुकड़े तो बने ही हैं, उनमें सब छेद बने हैं, छोटी सी किताब में सब समझाया हुआ है कि कौन सा नट, बोल्ट और कील कहाँ लगेगा, इतना कठिन नहीं होगा, मैं स्वयं ही कर लूँगा.

परसों सुबह से जो लगे मेज बनाने, रात के साढ़े दस बज गये. भरतनाट्यम देखने जाना था, वह भी रह गया. हाथों का बुरा हाल था और मेज थी कि ठीक से जम कर ही नहीं देती. उसकी टाँगे टेढ़ी सी लगती थीं. कल रात को काम से लौट कर मेज पूरी कर रहा था कि आखिरकार श्रीमति जो मुझ पर तरस आ गया, बोलीं, "अभी रहने दो ऐसे ही, कल शाम को घर लौटोगे तो तुम्हारे साथ मिल कर इसे पूरा करने की कोशिश करेंगे."

एक बात तो है कि मेहनत के बाद नींद बहुत अच्छी आती है. साथ ही यह समझ भी आ गया कि शारीरिक मेहनत करने वाले के लिए लिखना पढ़ना आसान नहीं, जब सारा शरीर थकान और दर्द से भरा हो तो किताब हाथ में लेते ही, आँखें बंद सी होने लगती हैं.

खैर मेरी स्टडी में खड़ा यह अधूरा मेज लगता है कि यह मेज न हो, एक ताजमहल हो. पसीने के साथ साथ, रक्त की कुछ बूँदें भी इसके लाल रंग में मिली हैं. जब तक यह मेज रहेगी, दोबारा मेहनत का काम ढूढने से पहले, सौ बार सोचूँगा.

मंगलवार, जून 20, 2006

लाल सलाम

कलकत्ता, सन १९७०. रात को टेलीफोन की घँटी बजती है. सुजाता चैटर्जी उठ कर टेलीफोन उठाती है तो कोई उससे काँतीपोखर आ कर अपने बेटे ब्रती चैट्रजी की पहचान करने के लिए कहता है. सुजाता समझ नहीं पाती कि क्यों उसके पति, उसका बड़ा बेटा, इस समाचार से चिंतित हो जाते हैं और पुलीस में जान पहचान ढूँढते हैं कि मामला दबा दिया जाये. दिव्यानाथ चैटर्जी, ब्रती के पिता काँतीपोखर अपनी कार में नहीं जाना चाहते, क्योंकि कोई उनकी कार को न पहचान ले. अंत में सुजाता ही जाती है बेटे की पहचान करने. एक कमरे में फर्श पर कपड़े से ढकी पाँच लाशे पड़ीं हैं, कोने में दो तीन लोग स्तब्ध से बैठे हैं. उनमें से एक लाश है उसके बेटे की, पाँव के अँगूठे पर लाश का नम्बर बँधा है, १०८४. पुलीस उसे लाश देने से इंकार कर देती है और सुजाता बेटे के साथ अन्य चार लाशों का दहन देखती है.

इस तरह शुरु होती है गोविंद निहलानी की फिल्म "हजार चौरासी की माँ".

कहानी है मध्यवर्गी, प्रौढ़ सुजाता चैटर्जी की. उसके अपराध बोध की कि अपने पेट के जने बेटे की चीत्कार नहीं सुन पायी, घर में साथ रहने वाले बेटे की केवल हँसी देख सकी, वह क्या कर रहा है, कहाँ जाता है, किसके साथ रहता है, क्या सोचता है, कुछ नहीं देख पायी. अपने आसपास देखती है तो पाती है कि उसके समाज में ब्रती खूँखार अपराधी की तरह देखा जाता है, जिसको जल्दी से जल्दी भूल जाना ही बेहतर है, मानो वह कभी उस घर में रहा ही नहीं. पर सुजाता स्वयं को रोक नहीं पाती, एक एक करके वह ब्रती के साथियों को खोजती है, उनके परिवारों से मिलती है, यह जाने की कोशिश करती है कि क्यों उसका बेटा नक्सलबाड़ी के आंदोलन का सपना देखता था. इस खोज में वह समाज में व्याप्त सामाजिक विषमताओं को भी समझती है और स्वयं अपने मध्यमवर्गीय जीवन के अंतरनिहित झूठ को जो बाह्य समाज के सामने ढकोसला है, जिसमें वह केवल अपने पति की पायदान है, उसका अपना कोई व्यक्तित्व नहीं है.

महाश्वेता देवी द्वारा लिखित इसी नाम के उपन्यास पर लिखी फिल्म का कथानक राजनीतिक है, सुजाता की कहानी के द्वारा लेखिका ने नक्सलबाड़ी और नक्सल आंदोलन की जड़ों के कारणों का विवेचन किया है. फिल्म के निर्माता, निर्देशक और फोटोग्राफर हें गोविंद निहलानी.



फिल्म में जया भादुड़ी, सीमा विश्वास, नंदिता दास जैसी जानी मानी अभिनेत्रियाँ हैं. ब्रती का भाग निभाया है नये अभिनेता जोय सेनगुप्ता ने और नंदिता दास बनी हैं बर्ती की सखी और आंदोलन में सहयोगी, नंदनी मित्रा. सीमा विश्वास हैं ब्रटी के साथ मरने वाले बिहारी सोमू की माँ. मिलिंद गुणाजी हें पुलीस अफसर.

फिल्म का वह हिस्सा जिसमें सीमा विश्वास मरने वाले पाँचों युवकों की कहानी सुनाती हैं और उनकी आखिरी रात के बारे में बताती हैं, बहुत सशक्त है और इस भाग में सीमा विश्वास से दृष्टि हटाना कठिन है. निश्चय ही वह भारत की सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्रियों में से हैं.

नंदिता दास वाला हिस्सा मुझे कुछ कमज़ोर लगा. नक्सलवाद के कारण बताना और आंदोलन करने वालों का माओ, मार्क्स आदि से प्रेरणा पाना, पार्टी का संचलन, आदि समझाना, कुछ किताबी सा लगता है, शब्दों पर निर्भर और फिल्मी माध्यम की असली नींव, चित्रों की दृष्टि से कमज़ोर. नंदिता का अभिनय ठीक है और उनके व्यक्तित्व में वह लौह तत्व जो आंदोलन करने वाली लड़की में होना चाहिये, कुछ बनावटी सा लगा.



ब्रती के पिता के रुप में अनुपम खेर शुरु के हिस्सों मे तो ठीक लगे पर आखिरी हिस्से में जब उनका हृदयपरिवर्तन दिखाया गया है, कुछ कमजोर लगे.

पर यह फिल्म तो जया भादुड़ी की है. ब्रती की माँ के रुप में उनका अभिनय शायद इतना प्रभावशाली किसी फिल्म में नहीं रहा. मध्यमवर्गी प्रौढ़ा, जिसे कुछ समझ नहीं आ रहा, जिसकी आँखों में पीड़ा के साथ धीरे धीरे बेटे की समझ चमकती है, जिसमें आत्मसम्मान से जन्में विद्रोह का दीप जलता है, उनके अभिनय से जीवित हो जाती है.

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