शनिवार, सितंबर 09, 2006

बेतरतीब डॉयरी के पन्ने

लगता था कि हिंदी का प्रेम अपनी पीढ़ी तक आ कर ही रुक जायेगा. पापा, बुआ के परिवार में हिंदी जीवन यापन का माध्यम भी थी और सृजनात्मकत्ता का प्रेम भी. यही सिलसिला हमारी पीढ़ी में बहुत लोगों ने जारी रखा था. पर पिछले कुछ महीनों में हमारे बाद की नयी पीढ़ी ने हिंदी ने लिखना प्रारम्भ किया है इससे बहुत खुशी होती है और गर्व भी. पहले भाँजे मुकुल ने निरंतर के लिए फ़िल्मों तथा एडस् पर लिखना स्वीकार किया और अब भतीजी पियुली ने अपने चिट्ठे में कविता लिखी है "आशा के पथ पे"-

निराशा का लिहाफ
आरामदायक है
अपने अन्धेरे आगोश मे
भर लेता है
असलियत की कडी धूप से
बचने का आसरा है
राह मे वही थम जाने का
बहाना है

आशा का सूरज
चुना है मैने
तपता तो है
मगर
राह नई दिखाता है
गर्म बाहो से सहला
हौसला दिलाता है

सूरज से अब तो
सारी उम्र का करार है
मन्ज़िल मिले ना मिले
सफर से मुझे प्यार है

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कुरबान अली ने बीबीसी के नये हिंदी पृष्ठ के बारे में बताया जो हिंदी पत्रिका के रुप में आया है. इस नये रुप के पहले अतिथि सम्पादक है अभिनेता देव आनंद और पत्रिका की सम्पादक हैं सलमा ज़ैदी. बीबीसी जैसी प्रशिष्ठावान संस्था हिंदी लेखन को प्रोत्साहन दे तो खुशी होना स्वाभाविक ही है. पत्रिका का पहला अंक पठनीय है.
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बहुत दिनों के बाद बँगला फिल्म देखने का मौका मिला. फिल्म थी ऋतुपूर्ण घोष की "अंतरमहल". बचपन में घर के पास दुर्गा पूजा पर उत्तम कुमार और सुचित्रा सेन की रोने रुलाने वाली भावुक फिल्में मुझे बहुत पसंद थीं. कुछ बड़ा हो कर कभी फिल्म फेस्टिवल में और दूरदर्शन पर मृणाल सेन और सत्याजित राय के सिनेमा को जानने का मौका मिला था. हिंदी सिनेमा में भी बँगला साहित्य की सँवेदना लाने वाले निर्देशकों, बिमल राय, ऋषीकेष मूखर्जी, बासू चैटर्जी भी बहुत प्रिय थे.

ऋतुपूर्ण का सिनेमा जगत उसी समाज को देखता है पर उसकी दृष्टि ऊपर से केवल अच्छा अच्छा दिखने वाली, आसानी से रुलाने वाली भावनाओं जिन्हे भूलना आसान है, पर नहीं रुकती, वह अंदर घुस कर बाहर से सुंदर दिखने वाले उस समाज की परतें खोल कर अंदर सड़ते सच को अँधेरे से रोशनी में लाता है.



"अंतरमहल" को केवल "समय बिताने" को देख कर भुला पाना सँभव नहीं है. बार बार फिल्म में, गरीब घर से आई छोटी उम्र की सुंदर नयी बहु यशोमती (सोहा अली खान) को पुत्र की आशा में तड़पते, हाँफते हुए प्रोढ़ उम्र के राजा भुवनेश्वर चौधरी (जैकी श्रौफ़) के नीचे उनके बिस्तर में पिसता दिखाया जाता है, तब भी जब मँत्र पढ़ते, लार टपकाते पँडित जी बिस्तर के साथ बैठ कर उसके युवा शरीर को देख कर मजे ले रहे होते हैं. बड़ी बहु महामाया (रूपा गाँगुली) छोटी बहु को सलाह देती हैं कि रात को प्रोढ़ पति के सोने के बाद रात को उसे नीचे सो रहे युवा शिल्पकार (अभिशेख बच्चन) के बिस्तर में जाना चाहिए क्योंकि वह जानती है कि बच्चा न कर पाने का कमी पत्नियों में नहीं, स्वयं राजा साहब में हैं.

सोहा अली खान को देख कर लगता है मानो समय की सुई पीछे मुड़ गयी हो और उनकी माँ, "देवी" की शर्मीला टैगोर वापस लौट आईं हों. पर फिल्म समाप्त होने पर उस सड़न की गँध मन में रह जाती है.

4 टिप्‍पणियां:

  1. आप सरल शब्दो में सहजता से विचार बयान कर जाते हैं.
    हिन्दी की जिम्मेदारी अगली पीढ़ी की नहीं हमारी हैं, हमे हिन्दी को कमाने लायक भाषा बना कर छोड़ना होगा.
    फिल्म की अच्छी समिक्षा की हैं आपने.

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  2. स्तिथि बहुत खराब है. सभी गुण अन्ग्रेज़ी पर अटक गये हैं. छोटे शहरों में बच्चे गणित विग्यान छोड़ आधा समय अन्ग्रेज़ी में लगाते हैं, ट्यूशन पड़ते हैं, और फ़िर भी inferiority complex से ग्रस्त. स्कूल में एडमीशन सम्भव नहीं बच्चों का यदि बच्चा व मां बाप भी धाराप्रवाह अन्ग्रेज़ी न बोलते हों. यह् दिल्ली में हाल् है. अन्ग्रेज़ी नहीं आती तो आप talented हो ही नहीं सकते, चाहे नौकरी हो, IIM का इन्टरव्यू, या के-जी में एडमीशन.

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  3. सुनिल जी,

    आपको अपने सारे लेखो को पुस्तक की शक्ल मे प्रकाशित करना चाहिये।
    आप के लेख मे हर घट्ना को देखने का एक अलग नजरिया मिलता है।

    जवाब देंहटाएं

"जो न कह सके" पर आने के लिए एवं आप की टिप्पणी के लिए धन्यवाद.

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