सोमवार, जून 26, 2006

शक्तिवान का भय

कल टेलीविजन में फ़िर से गाज़ा में घुसते इज़राईली टैंकों को देख कर झुरझुरी सी आ गयी. भारत में समाचारों में कभी पालिस्तानियों का नाम नहीं आता था पर यहाँ तो शायद ही कोई दिन होता है जब वहाँ कि किसी बमबारी या बम विस्फोट का समाचार न हो. अभी कुछ दिन पहले गाज़ा के समुद्र तट पर इज़राईली मिसाइल से मरे लोगों की तस्वीरों में पिता की लाश के पास खड़ी ग्यारह वर्ष की रोती हुई लड़की मन को छू गयी थी, पर अधिकतर तो ऐसी तस्वीरों को देखने की आदत सी हो गयी है.

ईंट का जवाब पत्थर से दो, यह है इज़राईल की आतंकवाद से लड़ने की नीति. पालिस्तीनी हमास के या अन्य दलों के लोग बम फैंकें या फ़िर नवजवान लड़के स्वयं को इज़राईलियों की भीड़ में बम से उड़ा दें, तो इज़राईली बम और मिसाईल उसी दिन या अगले दिन अपना काम करते हैं. मरने वालों के आँकणे देखें तो हर मरने वाले इज़राईली के बदले में कम से कम तीन पालिस्तीनी मरना चाहिये, ऐसा लगता है.

ताकतवर अपनी ताकत से जितना कुछ कर सकता है, चाहे वह जायज हो या नाजायज, सब कुछ कर रहा है. जहाँ पालिस्तीनी रहते हें, इनके घरों के बीच ऊँची जेल जैसी दीवार खड़ी गयी है ताकि पालिस्तीनी बाहर न निकल सकें. कुछ वर्ष पहले पालिस्तान में संयुक्त राष्ट्र की तरफ से काम करने गये मेरे इतालवी मित्र आँजेलो ने जेनिन के शरणार्थी कैम्प में हुए इज़राईली हमलों के बारे में वह बातें बतायीं थीं, जिनको सोच कर ही काँप उठता हूँ.

स्वयं को स्वतंत्र कहने वाले समाचार पत्र और टेलीविज़न अपने शरीर पर बम बाँध कर स्वयं को उड़ा देने वालों को तो आतंकवादी कहते हैं पर निहत्थी जनता पर मिसाइल और टैंक चलाने वालों को आत्मरक्षा कहते हैं.

जब सुनता हूँ कि भारत को इज़राईल से सीखना चाहिये कि कैसे मुस्लिम आतंकवाद से लड़ें तो लगता है कि शायद यह कहने वाले किसी और दुनिया में रहते हैं. यह आतंकवाद से लड़ाई है या आतंकवाद को बढ़ावा देने का तरीका ? अन्याय से आतंकवाद समाप्त होगा या उससे नये आतंकवाद के बीज बोये जायेंगे ?

पर आज कुछ भी बात खुल कर पाना कठिन है. अगर आप पालिस्तीन में होने वाले के बारे में कुछ भी कहते हैं तो इसका अर्थ है कि आप यहूदियों के विरुद्ध हैं, पालिस्तानी आतंकवादियों के विरुद्ध बोलें तो इसका अर्थ बन जाता है कि आप मुस्लिम विरोधी हैं.
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मेरे मन में बचपन से ही इज़राईल के लिए बहुत आकर्षण था. द्वितीय विश्व महायुद्ध में हुए यहुदियों के नरसंहार की कहानियों में और उनके अन्याय और शोषण से लड़ने की कहानियों में मेरी बहुत दिलचस्पी थी. उस विषय पर कोई भी किताब देखता तो उसे अवश्य पढ़ता. मन में सोचता था कि शायद पिछले जन्म में मैं भी किसी कंसनट्रेशन कैम्प में मरने वाला यहूदी रहा हूँगा. इज़राईल की रेगिस्तान में प्रकृति से लड़ कर खेती बनाने के बारे में भी पढ़ना बहुत अच्छा लगता था. सोचता था कि यूरोप में 40 लाख यहूदियों के बलिदान से मानव जाति के खून की प्यास मिट गयी होगी और दोबारा ऐसे पाप कभी नहीं होंगे.

उन्हीं कंसनट्रेशन कैम्पों के कुछ वशंज डर से एक दिन अत्याचार करने वालों जैसे बन जायेंगे यह नहीं सोचा था. मेरे कुछ यहूदी मित्र हैं जो इस बात को मानते हैं. सारे इज़राईली ऐसा सोचते हों कि दमन ही बुराई से लड़ने का एकमात्र तरीका है यह बात नहीं पर इतने भयभीत इज़राईली तो हैं जो बार बार कट्टरपंथी सरकार को चुनते हैं, जोकि यह सोचते हैं.

हिटलर की सरकार के पास कितनी शक्ति थी, जो चाहते थे वह किया उन्होनें, भट्टियाँ बनाईं जिनमें हजारों निरीह बच्चों, बड़ों को झौंक दिया, पर कितनों को मार पाये, 30 या 40 लाख को, पर क्या अन्याय से लड़ने वाले यहूदी समाज को समाप्त कर पाये ? उस नरसंहार के घाव लिये, यहूदी समाज ने कितनी तरक्की की है, पर मन से भय को नहीं निकाल पाया. यही भय है जो उसे अन्याय के रास्ते पर चलने से नहीं रोक पाता.

मैं मानता हूँ कि केवल बातचीत से, समझोते से ही समस्याएँ हल हो सकती हैं, युद्ध से, बमो से नहीं. अगर एक आँख के बदले दो आँखें लेने की नीति चलेगी तो एक दिन सारा संसार अँधा हो जायेगा.

6 टिप्‍पणियां:

  1. सवाल यह है कि पहल कौन करे? हमास और फिलिस्तीनी भी दूध के धुले तो नहीं ही है.

    भारत आंतकवाद से निपटने में एकदम लचर साबित होता आया है. ना हममें इज़रायलीयों जैसी देशभक्ति है ना ही हिम्मत है.

    बातचीत से हल निकला जाना चाहिए. मासुमों का नरसन्हार उचित तो नहीं ही है, पर ताली तो दोनों हाथों से बजेगी. अकेले हाथ घुमाएंगे तो बेवकुफ नज़र आएंगे.

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  2. "बातचीत से, समझोते से ही समस्याएँ हल हो सकती हैं"
    इस बात को स्वीकर करता हुं. परतुं अगर इज्राइल अगर अपने अपनाए हुए रास्ते पर नहीं चलता तो अब तक दुनियाँ के नक्शे से अदृश्य हो चुका होता.
    हिटलर के बारे में दुनियाँ क्या सोचती हैं यह आप अधिक जानते हैं, पर मेरा मानना हैं कि अत्याचार के रूप में भले ही गलत काम हुए हो इन्हे शुरू क्यों करने पड़े इस पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए. प्रतांडीत जर्जर जर्मनी का स्वाभीमान लौटाने के लिए मुद्रा कि आवश्यक्ता थी जो यहुदीयों के स्वीस खातों में पडी थी. वे जर्मनी में यह पैसा लाना नहीं चाहते थे, यह देश के साथ गद्दारी थी. फिर सिरफिरे हिटलर ने जो किया वह इतिहास हैं.

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  3. Itihaas gavah hai muslimo ke atyachar ka. Jehad aur Islam ke naam par inhone har kamjor aur shantipriy desh ko kuchla, vaha ki sanskriti nasht ki aur jabardasti dharm parivartan karwaya. Israel ko pura adhikar hai apne nagriko ki rakhsha karne ka. Woh jo kar raha hai bahut uchit kar raha hai varna in jehadiyo ne uska naam duniya ke nakshe se mita diya hota. Bharat Sarkar ko bhi aisa hi karna chahiye Pakistan ke saath aur uske hamdard bhartiyo ke saath jo rahte Bharat mae hai par saath pakisatn ka dete hai apne majhab ke naam par. Jineke liye unka majhab bada hai na ki desh. Aise logo ke saath vahi karna chahiye jo Hitlar ne Germany me kiya tha.

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  4. इजराइल और भारत की सुरक्षा नीतियाँ परस्पर उल्टी हैं | दुनिया में भारत के अलावा शायद ही कोई दूसरा देश हो जो अपने उपर (आतंकी और विदेशी)अत्याचार को इतनी सरलता से लेता है | भारत आत्मघाती नीतियों के इतिहास का साक्षात रूप है |

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  5. सुनील जी, शुरू शुरू में मुझे भी टेलीविज़न पर ये सब देखने अजीब लगता था, लेकिन अब आदत सी हो गई है।

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  6. अणुशक्ति के अविष्कारकर्ता आइंस्टीन और अन्य दिग्गजों ने ९ जुलाई १९५५ को लंदन से साझा बयान जारी किया जो इस प्रकार है –
    हम इस सम्मेलन का और इसके ज़रिए दुनिया के वैज्ञानिकों और आम जनता का आह्वान करते हैं कि वह निम्नलिखित प्रस्ताव पर अपनी सहमति दे. ''भविष्य में होने वाले किसी भी विश्व युद्ध में परमाणु हथियारों का लाज़िमी तौर पर इस्तेमाल किया जाएगा. इस हक़ीक़ी आशंका को देखते हुए और इसकी वजह से मानव सभ्यता के अस्तित्व पर पैदा हो रहे ख़तरे के चलते हम दुनिया की सरकारों से आह्वान करते हैं कि वह इस बात को समझे और सार्वजनिक रूप से स्वीकार करे कि विश्व युद्ध से उनका कोई मक़सद हल नहीं हो सकता. हम उनसे आह्वान करते हैं कि वह तमाम आपसी झगड़ों का हल निकालने के लिए शांतिपूर्ण साधनों का इस्तेमाल करें.''
    हस्ताक्षर- मैक्स वॉर्न, परसी डब्ल्यू ब्रिजमेन, एल्बर्ट आइंस्टीन, लियोपोल्ड इनफ़ेल्ड, फ़्रेड्रिक जोलियॉट क्यूरी, हरमन जे मूलर, लिनस पाउलिंग, सेसिल एफ़ पावेल, जोसेफ़ रॉटब्लॉट, बट्रेंड रसेल और हिडेकी यूकावा.

    आप चाहें तो इसे पढ़ने के बाद अपना नाम भी दस्तख़त करने वालों में जोड़ सकते हैं. मेरा तो ऊपर आ ही गया है.

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"जो न कह सके" पर आने के लिए एवं आप की टिप्पणी के लिए धन्यवाद.

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