लेकिन माँ को कुत्ते बिल्कुल पसंद नहीं थे. "गंदा करते हैं, कौन साफ़ करेगा? नहीं, हमारे पास कुत्ते रखने की जगह नहीं", माँ कहती.
कभी सोचता, अगर पास में बिल्ली हो तो कैसा रहे? घर के आसपास कभी कोई बिल्ली के बच्चे मिल जाते तो कुछ दिन तक उनके पीछे दौड़ता. पर किसी बिल्ली से दिल का तार कभी ठीक से नहीं मिल पाया. कभी किसी बिल्ली के नाखूनों की खरौंचे खा कर मन दुखी हो जाता, कभी लगता कि बिल्ली को किसी की परवाह ही नहीं होती, वह अपनी ही दुनिया में रहती है, कभी मन किया तो करीब आ गयी, कभी मन न किया तो आप की ओर देखे भी नहीं.
कभी मन में सोचता कि पास में अगर बोलने वाला तोता हो तो कैसा रहे? यह इच्छा भी एनिड ब्लाईटन की ही पुस्तकों की वजह से ही मन मे आई थी. एडवेंचर श्रृँखला का तोता किकी भी मुझे टिम्मी कुत्ते जैसा ही पसंद था. उन सपनों के बहुत सालों के बाद दक्षिण अमरीका में एक यात्रा में एक बार रंग बिरंगे बड़े तोते देखे तो सोचा कि वैसा ही तोता होना चाहिए पर उन तोतों को अमेज़न के जँगल से बाहर ले जाना मना है इसलिए मन मसोस कर रह गया.
पर मन में कभी किसी कछुए के लिए ऐसा कुछ मससूस नहीं किया. मेरा स्कूल दिल्ली में बिरला मंदिर के साथ जुड़ा हुआ था और हर रोज़ दोपहर को खाने की छुट्टी का समय बिरला मंदिर के बागों में ही खेलते हुए गुज़रता था. वहाँ पानी में कछुए भी घूमते थे. हाई स्कूल के दिनों में एक दिन वहाँ एक मरा हुआ कछुआ मिला. मेरे साथी उसे देख कर नाक सिकोड़ रहे थे पर मैं उसे कागज़ में लपेट कर घर ले आया और माँ से छुप कर रसोई के चाकू से उसे काट कर उसके भीतर देखने की कोशिश करनी चाही. तब स्कूल में जीव विज्ञान की कक्षा में मेंढ़क जैसे जंतु काट चुके थे. पर रसोई का चाकू इस काम के लिए तेज़ नहीं था और कुछ नहीं काट पाया. अंत में तंग आ कर कछुए जी का बिना पोस्ट मार्टम किये ही दाह संस्कार कर दिया गया.
लेकिन आज हमारा घर कछुओं से भरा है. इस कथा का प्रारम्भ हुआ करीब पंद्रह सोलह साल पहले जब कोंगो से मेरा एक मित्र वहाँ से मेरे लिए हरे रंग के मेलाकीट पत्थर के बने दो कछुए ले कर आया. फ़िर पाकिस्तान से आने वाली एक मित्र मेरे लिए पेशावर से एक गुलाबी संगमरमर का कछुआ ले कर आई. बस वहाँ से शुरु हो गया हमारा कछुए जमा करने का शौक. ब्राज़ील, एक्वाडोर, केनिया, दक्षिण अफ्रीका, भारत के विभिन्न राज्यों से, अलग अलग देशों से कछुए हैं हमारे घर में. धातू की जाली के, पत्थर के, लकड़ी के, मिट्टी के, सब तरह के, सब रंगो के कछुए हैं. जब भी किसी नये देश में जाने का मौका मिलता है तो मैं कछुए खोजना नहीं भूलता.
पर शायद अब यह कछुए जमा करने का शौक शायद छौड़ना पड़े. "क्या, एक और कछुआ?", हमारी श्रीमति जी हर बार मेरे कछुओं को देख कर कहती है. पिछले दिनों में दो कछुए सफ़ाई करते हुए "गलती" से गिर कर टूट चुके हैं. मुझे लगता है कि और कछुए घर में आयेंगे तो यह गलतियाँ बढ़ सकती हैं. बहुत सोच कर भविष्य में मुखौटे जमा करने का फैसला किया है. दीवार के ऊपर लटके होंगे तो गलती से गिरेंगे भी नहीं.
आज की तस्वीरों में मेरे सकंलन से कुछ कछुए
हाँ सुनील जी, मैंने लोगों को गणेश, नाना तरह के देश विदेश के मग, यहाँ तक की बटन भी कलेक्ट करते देखा है। कछुये का पहली बार सुना। सुंदर कलेक्शन है।
जवाब देंहटाएं"कमाल का कछुआ कलेक्शन" हैं.
जवाब देंहटाएंआगे बढ़ा पाते तो अच्छा संग्रह होता. कम से कम जो हैं वे तो गल्ती से कम न हो ऐसी प्रार्थना करूंगा. :)
सुंदर कछुये !
जवाब देंहटाएंएनिड बलाईटन की किकी, टिम्मी और बस्टर मुझे भी बहुत भाते थे ।
कछुए बहुत प्यारे लगते हैं. काश मैं कछुआ पाल सकता. आपके बचपन की यादें पढ़कर मेरी मुराद पूरी हो गई. एक बार मैंने आपसे निवेदन किया था इसी ज़िक्र का. कभी प्रसंगवश उन दिनों का उल्लेख अवश्य कीजिएगा. आपका कलेक्शन और बढ़े इन्हीं कामनाओं के साथ धन्यवाद
जवाब देंहटाएंनीरज दीवान
बड़ा नायाब शौक है, सुनील जी. जिंदा कछुये का शौक तो सुना था.मगर यह तो पहली बार देख(फोटो मे) और सुन रहा हूँ.
जवाब देंहटाएंशुभकामनाऎं..
समीर लाल
सुनील जी,बचपन में, बिर्ला मंदिर के बागों में तो हम भी बहुत बार खेले है मगर कछुए नहीं ला पाए कभी, हां मगर ये बात तो है कि कछुआ कलैक्शन का अपन ये अंदाज़ ना ही छोड़ें तो अच्छा क्योंकि कछुए और खरगोश की कथा में भी कछुआ निरंतर चलता ही रहा और जीत गया, आपका संग्रह भी हो सकता है कि दुनिया में नायाब हो, और अब जब इतना संग्र्ह बन ही गया है, तो उसे छोड़ना क्या..........जारी रखे इस संग्रह को संभव है, कि विशव में कछुओं का ये अनोखा संगर्ह कल को चर्चित हो जाए..!
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