सोमवार, नवंबर 28, 2005

बेचारे आलोचक

किसी को बताना कि उसमें क्या कमी है, सबके बस की बात नहीं. खुले आम दो टूक बात करने के लिए पत्थर दिल चाहिये. मेरे पास कभी कभी वैज्ञानिक या चिकित्सा संबंधी पत्रिकाओं से रिव्यू करने के लिये लेख आते हैं. बहुत सी अंतर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं में बिना इस तरह के "पीयर रिव्यू" के बिना कुछ नहीं छपता. अंत में लेखक को सारी आलोचनाँए भेज दी जाती हैं ताकि वे अपने लेखों को सुधार सकें, हालाँकि उन्हें यह नहीं बताया जाता कि किन व्यक्तियों ने ये आलोचनाँए दी हैं. इसी अनुभव के बल पर जानता हूँ कि आम व्यक्तियों के लिए किसी की आलोचना करना कितना कठिन है.

आलोचना अगर आप लेखक की सहायता के लिए कर रहे हैं यानि आप चाहते हैं कि लेखक का लेखन सुधरे, तो उसे सृजनात्मक होना चाहिये. लेख के विभिन्न हिस्सों के बारे में, कहाँ क्या ठीक नहीं है या क्या कमजोर है, आदि बताना चाहिये और सुंदर, बोरिंग, बेकार जैसे शब्द नहीं इस्तेमाल करने चाहिये क्योंकि ये तो व्यक्तिगत अनुभूतियाँ हैं. पर ऐसा शायद वैज्ञानिक लेखों में करना आसान है और यह बात चिट्ठों पर लागू नहीं होती !

आलोचना करना अगर कठिन है तो अपनी आलोचना सुनना उससे भी अधिक कठिन. इसलिए जब वह अनाम संदेश पढ़ा कि किसी को मेरा लिखा नीरस लगता है तो धक्का सा लगा. पहले सोचा कि लिखूँ, "मैं भी आप की बात से बहुत सहमत हूँ, मुझे भी अपना लिखा नीरस लगता है और इसलिए अपना लिखा नहीं पढ़ता, अन्य दिलचस्प चिट्ठे बहुत हैं, उन्हे पढ़ता हूँ. आप भी ऐसा ही करिये." पर कुछ सोच कर लगा कि इस तरह आलोचना की हँसी उड़ाना ठीक नहीं, उसे गम्भीर सोच विचार कर दिये गये उत्तर की आवश्यकता है.

पर कल चिट्ठे के बाद जो संदेश आने शुरु हुए तो बंद ही नहीं हो रहे. सुहानूभूति और प्रोत्साहन के संदेश. आप सब को धन्यवाद.

पर मेरे मन में कुछ शक सा आ रहा है. पिछले दिनों कुछ "टिप्पड़ियाँ कम होने" पर बहस हो रही थी, यह कहीं कोई खुराफात तो नहीं है ? अगर है तो मैं सच कहता हूँ कि मेरा इसमे कोई हाथ नहीं था !

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जेनेवा यात्रा के दौरान, शाम को खाली होटल में बैठे, दो पुरानी कहानियों को क्मप्यूटर पर टाईप किया. एक कहानी है मेरे पिता द्वारा लिखी "आँसू और इंद्रधनुष" जो १९५६ में ज्ञानोदय में छपी थी और दूसरी कहानी है, "जूलिया" जो मैंने १९८३ में लिखी थी और धर्मयुग में छपी थी.


आज दो तस्वीरें कल के हिमपात की.


4 टिप्‍पणियां:

  1. मुझे आपके लेख बहुत अच्छे लगते हैं. उनमें एक अपना प्रवाह गति और समय दिखता है, जो खींच कर ले जाता है आपकी दुनिया में.
    लिखते रहिये हमेशा ऐसे ही.

    प्रत्यक्षा

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  2. आपकी लिखने की शैली बहुत अच्‍छी है। कृपया निराधार आलोचना पर ध्‍यान न दें और यूं ही लिखते रहें।

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  3. सुनील भाई,
    आप तो बहुत परिपक्व,प्रेक्टीकल और अनुभवी इसलिये आप तो जानते ही होंगे कि तारीफ़ और आलोचना दोनो ही एक लेखक के लिये जरुरी हैं। यदि हम तारीफ़ की आकांक्षा रखते है तो हमे आलोचना को झेलने की भी क्षमता होनी चाहिये, लेकिन क्या करें हम लेखक(ब्लॉगर) होने के साथ साथ एक इन्सान भी तो है, इसलिये कभी कभी आलोचना बुरी भी लगती है।

    आजकल मै आपके ब्लॉग नियमित रुप से नही पढ पा रहा हूँ, थोड़ा व्यस्त हूँ,इसलिये टिप्पणी नही कर पा रहा,अगले महीने एक साथ पढूंगा, तब तक के लिये टिप्पणी उधार रही।

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  4. आलोचना के बारे में बचपन में पढ़ा एक चुटकुला याद आ रहा है। एक समीक्षक ने एक फ़िल्म का बहुत ही खराब रिव्यू लिखा, तो फ़िल्मकार ने समीक्षक को फोन किया, "तुम ने कभी खुद फिल्म बना कर देखी है, जो मेरी इतनी मेहनत से बनाई फिल्म की आलोचना कर रहे हो?" समीक्षक बोला, "प्रोड्यूसर साहब, मैं ने कभी अंडा भी नहीं दिया, पर आमलेट बनाना खूब जानता हूँ।"
    खैर मज़ाक को परे रख कर, मैं आप के चिट्ठे की दोबारा तारीफ करना चाहता हूँ। आजकल के हिन्दी के सभी चिट्ठों में आप का चिट्ठा ऊपर की चन्द पायदानों पर आता है - ऐसे ही लिखते रहिए। यदि मुझे आप के चिट्ठे के बारे में कुछ बदलने को कहा जाए तो मैं उसकी पृष्ठभूमि का रंग बदलूँ। मेरे विचार में हल्की पृष्ठभूमि बढ़िया रहती है, पर सब का अपना अपना दृष्टिकोण होता है। दफ्तर में काम से चोरी करते हुए चिट्ठा पढ़ना हो तो भी हल्की पृष्ठभूमि बेहतर रहती है :-)। आप के चिट्ठे की हिन्दी भी सुलझी हुई होती है, पर "टिप्पणी" के स्थान पर "टिप्पड़ी" लिखा हुआ मैं ने केवल आप के चिट्ठे पर देखा है। क्या यह शब्द सही है?

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"जो न कह सके" पर आने के लिए एवं आप की टिप्पणी के लिए धन्यवाद.

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