बचपन में घर में दूसरे शहरों से मेहमान आते तो कहते, "बाप से बाप, यहाँ दिल्ली में रहना क्या आसान है!"
लखनऊ अधिक सभ्य है, हैदराबाद में लोग कितनी इज़्ज़त से बात करते हैं, बम्बई में यातायात किस तरह नियमों का पालन करते हुए चलता है जैसी बहुत सी बातें सुनने को मिलतीं, यह बतलाने के लिए कि उनके मुकाबले दिल्ली वाले सभ्यताविहीन थे, उनके बात करने में लड़ाकापन था, उनके यातायात में कोई नियम न पालन करने का ही नियम था.
"दिल्ली के लोग या तो पंजाब से आये शरणार्थी हैं जिनका सब कुछ पाकिस्तान में रह गया और सब कुछ खोने के बाद जिन्होंने जीने के लिए लड़ लड़ कर अपने जीने की जगह बनाई है, उनसे सभ्यता की आकाँक्षा रखना बेकार है. दूसरे दिल्ली के रहने वाले देश भर से आये बाबू लोग हैं जो सरकारी दफ्तरों में काम करते हैं, उन्हें दिल्ली अपना शहर ही नहीं लगता, उनके घर तो अन्य प्रदेशों में हैं जहाँ से वे आये हैं, उन्हें इसलिए दिल्ली की कुछ परवाह नहीं है."
तब कहते कि दिल्ली में सभ्यता तब आयेगी जब यहाँ पैदा होने वाली या यहाँ पलने वाली पीढ़ी बड़ी होगी. दिल्ली से उनका अपनापन होगा, दिल होगा उनका इस शहर में, दिल्ली उनका शहर होगा. वे लोग लायेंगे दिल्ली में सभ्यता.
उन बातों को गुज़रे चालीस साल हो गये हैं. कैसी है आज दिल्ली की सभ्यता? अगर कारों की गिनती से, फ्लाईओवरों और विदेशी सामान बेचने वाले मालस् से सभ्यता गिनी जाये तो दिल्ली बहुत सभ्य हो गयी है. व्यक्तिगत आमदनी के मापदँड पर भी दिल्ली ने बहुत तरक्की की है. पर दिल्ली का दिल, उसमें अपने शहर में रहने वालों का प्यार जागा है, इंसानियत जागी है?
दिल्ली के बारे में संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट निकली है जिसके अनुसार दिल्ली बच्चों के लिए दुनिया का सबसे खतरनाक शहर है और औरतों के लिए भी असुरक्षित शहरों के लिस्ट में बहुत ऊपर के स्थान पर है. एक तरफ़ अच्छी बात है कि दिल्ली में पाँच साल से कम वर्ष वाले बच्चों की मृत्यु दर का अनुपात बाकी देश के मुकाबले में बहुत कम है दूसरी तरफ़ बुरी बात कि छोटे बच्चों से काम करवाने में दिल्ली भारत में सबसे उच्च स्थान पर है. देश की राजधानी में पल कर बड़े होने वाले अक्सर यह काम करने वाले बच्चे कोई शिक्षा नहीं पाते. रिपोर्ट के अनुसार, उनमे से एक लाख अस्सी हज़ार बच्चे दिल्ली की सड़कों पर रहते हैं.
ढाबे में बरतन धोते, सड़क किनारे नटी दिखाते, जूते पालिश करने के डब्बे उठाये घूमते, प्लास्टिक तथा कागज़ जमा करते, या फ़िर बाज़ार में आप के पीछे पीछे चल कर भीख माँगते, हर तरफ़ यह बच्चे दिखते हैं. हर बार प्रश्न "भीख दूँ या न दूँ" यहीं तक आ कर रुक जाता है, एक अकेला और क्या कर सकता है? कुछ लोग है जो बाग में बच्चों को जमा कर उन्हें खेल के साथ पढ़ाते भी हैं, पर इन सब बच्चों तक पहुँचने के लिए उनके जैसे कई हज़ार अन्य चाहिये. मुझे बुरा तब लगता है जब किसी को भीख माँगते बच्चे को क्रोध से दुदकारते हुए या गाली देते हुए सुनता हूँ. कुछ भी न देना हो तो न दो, दुदकारते क्यों हो?
जिस घर में बच्चे कोनवेंट में या पब्लिक स्कूल में पढ़ने जाते हैं, उसी घर में सफाई करने वाला, खाना बनाने वाला बच्चा बिना पढ़ लिख कर बड़ा होता है, जो बाकी बच्चों के साथ खेलता नहीं, उनकी तरह खाता नहीं. कब सोता है, कब छुट्टी मिलती है उसे यह मालिक की दया पर निर्भर है, उसके अधिकार कुछ नहीं. कहते हैं कि उसे काम दे कर उस पर अहसान किया गया है, गाँव में जहाँ गरीबी में पैदा हुआ था वहाँ उसे शायद दो वक्त की रोटी न मिल पाती, न ही कोई शिक्षा, न शहर के करिश्मे देखने का मौका, न टीवी पर फ़िल्में आदि. पर उसे काम के साथ थोड़ा सा बचपन जीने का मौका नहीं मिलता और न ही घरेलू नौकर के जीवन से बाहर निकलने के लिए कोई सहारा.
दिल्ली का ही दिल निष्ठुर है शायद ऐसा नहीं है, सारे भारत में यही हाल है पर दिल्ली जैसे महानगरों में और भी अधिक है. हम सब के बीच में भूतों से घूमते यह बच्चे और बड़े, जिन्हें उनकी गरीबी ने पारदर्शी बना दिया है, उन्हें देख कर भी नहीं देख पाते.
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
इस वर्ष के लोकप्रिय आलेख
-
हिन्दू जगत के देवी देवता दुनिया की हर बात की खबर रखते हैं, दुनिया में कुछ भी ऐसा नहीं जो उनकी दृष्टि से छुप सके। मुझे तलाश है उस देवी या द...
-
अगर लोकगीतों की बात करें तो अक्सर लोग सोचते हैं कि हम मनोरंजन तथा संस्कृति की बात कर रहे हैं। लेकिन भारतीय समाज में लोकगीतों का ऐतिहासिक दृष...
-
अँग्रेज़ी की पत्रिका आऊटलुक में बँगलादेशी मूल की लेखिका सुश्री तस्लीमा नसरीन का नया लेख निकला है जिसमें तस्लीमा कुरान में दिये गये स्त्री के...
-
पिछले तीन-चार सौ वर्षों को " लिखाई की दुनिया " कहा जा सकता है, क्योंकि इस समय में मानव इतिहास में पहली बार लिखने-पढ़ने की क्षमता ...
-
पत्नी कल कुछ दिनों के लिए बेटे के पास गई थी और मैं घर पर अकेला था, तभी इस लघु-कथा का प्लॉट दिमाग में आया। ***** सुबह नींद खुली तो बाहर अभी ...
-
सुबह साइकल पर जा रहा था. कुछ देर पहले ही बारिश रुकी थी. आसपास के पत्ते, घास सबकी धुली हुई हरयाली अधिक हरी लग रही थी. अचानक मन में गाना आया &...
-
हमारे घर में एक छोटा सा बाग है, मैं उसे रुमाली बाग कहता हूँ, क्योंकि वो छोटे से रुमाल जैसा है। उसमें एक झूला है, बाहर की सड़क की ओर पीठ किये,...
-
हमारे एक पड़ोसी का परिवार बहुत अनोखा है. यह परिवार है माउरा और उसके पति अंतोनियो का. माउरा के दो बच्चे हैं, जूलिया उसके पहले पति के साथ हुई ...
-
२५ मार्च १९७५ को भी होली का दिन था। उस दिन सुबह पापा (ओमप्रकाश दीपक) को ढाका जाना था, लेकिन रात में उन्हें हार्ट अटैक हुआ था। उन दिनों वह एं...
-
गृत्समद आश्रम के प्रमुख ऋषि विद्यार्थियों को पढ़ा रहे थे, जब उन्हें समाचार मिला कि उनसे मिलने उनके बचपन के मित्र विश्वामित्र आश्रम के ऋषि ग...
भौतिक रूप में दिल्ली बहुत बदल गई हैं. समृद्ध भी हुई हैं. पर मेरा नीजि अनुभव के आधार पर कहुं तो दिल्लीवाले बहुत अखड़ हैं. भगवान थोड़ी-सी विनम्रता दे दे तो दिल्ली खिले फूल जैसी हो जाए.
जवाब देंहटाएंबाल मजदूरी की हालत आघात जनक हैं. कहीं ज्यादा कही कम बाल मजदूरी एक रोग की भांती मौजुद हैं. केवल दिल्ली को क्या दोष दें.
अति सुन्दर।
जवाब देंहटाएंநல்லா இருக்கு .
जवाब देंहटाएंदिल्ली के साथ सबसे बडा कडवा सच ये है कि यहां के लोगो मे दिखावा काफी ज्यादा है।
जवाब देंहटाएंसटीक चित्रण है.बहुत खूब.
जवाब देंहटाएंदिल्ली के दिलवालों की है वेरूखी या मजबूरी,
जहाँ बचपन करता है पेट के लिए मजदूरी.
Sir Ji,
जवाब देंहटाएंAaj azadi ke 60~65 sal ke baad to sharanaarthiyo ki kam se kam to do peedia hi gujar gayi tab bhi to logo ki sooch me parivartan hi nahi aaya hai. Karo ki ginti, Shopping mall ki chakachond me aur dil me gajah hone me farq hai. Meri rai me delli ke log gajhayanya upbhojvadita ke sikar hai aur is vichardhara me sirf aadmi ka ahan hi sarvopari hota hai. Doosre chote sahero me yeh isthithi nahi hai.
Hindi typing nahi aati hai isliye roman me likh raha hu.
Best Regards.
Shardu Kumar Rastogi.
Beira. Mozambique.