दिसंबर 1956 में इटली के जगप्रसिद्ध फिल्मकार रोबर्तो रोस्सेलीनी (Roberto Rossellini) भारत में फ़िल्म बनाने आये, सोनाली उनके साथ काम कर रही थीं. नौ मास के बाद रोबेर्तो और सोनाली करीब एक वर्ष के अर्जुन यानि जिल को ले कर रोम आ गये, तब भारत में उनके प्रेम को ले कर तुफ़ान चल रहा था, अखबारों में तरह तरह की बातें लिखी जा रही थीं. कुछ महीने बाद पेरिस में रोबेर्तो तथा सोनाली की बेटी राफेल्ला पैदा हुई. उस समय रोबेर्तो रोस्सेलीनी भी विवाहित थे, होलीवुड की प्रसिद्ध अभिनेत्री इंग्रिड बर्गमैन (Ingrid Bergman) के साथ.
रोबेर्तो एवं सोनाली की कहानी के बारे में मैंने कुछ महीने पहले जाना जब मैंने दिलीप पदगाँवकर की एक पुस्तक की समीक्षा पढ़ी. सोनाली को अपना बड़ा बेटे राजा को भारत में छोड़ना पड़ा, उनका छोटा बेटा जिल, अपने पिता के होते हुए भी रोबेर्तो द्वारा गोद लिया गया. इन सब बातों को सोच कर मन में बहुत जिज्ञासा हुई तो इंटरनेट पर खोज की और इस बारे में एक लेख लिखा. उस लेख के द्वारा ही इस कहानी से जुड़े बहुत से लोगों से मेरा सम्पर्क और परिचय हुआ. इसी के दौरान मैंने जिल रोस्सेलीनी के बारे में जाना.
श्याम रंग वाले जिल रोम में बड़े हुए और उनके घर में काम करने वाले माली की पत्नी का एक साक्षात्कार पढ़ने को मिला जिसमे बताया था कि छोटे से जिल को अपने काले रंग का भेद महसूस होता था. जब इतालवी समाचार पत्रों में जिल की मृत्यु का समाचार पढ़ा तो धक्का सा लगा. लेख लिखते समय जब उस परिवार के बारे में जानकारी जमा कर रहा था तो व्यक्तिगत रूप से न जानते हुए भी अपने आप ही कुछ आत्मीयता सी बन गयी थी.
हर जगह जिल की मृत्यु की बात के साथ समाचार वही बात कहते थे कि जिल रोबेर्ती के गोद लिये भारतीय मूल के पुत्र थे और कई वर्षों से बीमार चल रहे थे. कुछ समाचार पत्रों में यह भी लिखा था कि गत जून में जिल ने कैथोलिक धर्म स्वीकारा और फ्राँचेस्को का नाम लिया. इन समाचारों में सोनाली जी का नाम रोबेर्तो की संगनी की तरह से दिया गया है, कहीं उन्हें पत्नी नहीं कहा गया है और न ही यह लिखा कि बेटे की मृत्यु पर वह कहाँ थीं, हालाँकि वह भी रोम में ही रहती हैं.
जिल के बारे में सोच रहा था तो लगा कि अगर उनका रंग भिन्न न होता तो आज किसी को याद नहीं होता कि वह गोद लिये गये थे. उनके मरने के समाचार के साथ यह कहना कि वह गोद लिये हुए थे मुझे क्रूरता सी लगी. सन 2006 में वेनिस फ़िल्म फेस्टिवल के दौरान अपनी बीमारी पर बनायी एक फ़िल्म "किल बिल्ल 2" (Kill Bill 2) प्रस्तुत करते समय, एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था "मैं फैरारी कार रेस पर फ़िल्म बनाना चाहता हूँ. तेज़ कारों का शौक तो मेरे रक्त में है. मेरे पिता की मौसी बेरोनेस मरिया अंतोनियेत्ता 1920 में कार रेस में भाग लेती थी और मेरे पिता ने भी मिल्ले मिलिया नाम की कार रेस में भाग लिया था". जिस पिता रोबेर्तो की बात वह कर रहे थे उनसे जिल का खून का सम्बंध नहीं था पर इस वाक्य से उनके मन में होने वाले द्वंद और अपने परिवार का पूरा हिस्सा होने की अभिलाषा छलकती है.
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लंदन पहुँचा तो इमिग्रेशन की जाँच कराने के लिए कौन से लाईन चुनी जाये इसका निर्णय करते हुए मेरी आँखें अपने आप ही भारतीय उपमहाद्वीप वाला चेहरा खोज रहीं थीं. मालूम था कि पासपोर्ट जाँचने वाला अगर कोई गोरा या काला अधिकारी होगा तो हमारे पासपोर्ट को अधिक ध्यान से देखा जायेगा, क्यों आये हैं, क्या करना है, कितने दिन रुकना है, इस सबकी पूरी जाँच होगी, जबकि कोई भारतीय महाद्वीप वाला मिल जाये तो उतने प्रश्न नहीं पूछे जायेंगे. भारतीय उपमहाद्वीप मूल के लोग पासपोर्ट देख कर अपने आप समझ जाते हैं कि सामने वाले का क्या धर्म है, वह हिंदू है, मुलमान है, सिख है, ईसाई है या पारसी. अधिकतर गोरे या काले लोग यह नहीं समझ पाते कि हमारे नामों से कैसे हमारे धर्म, जाति को समझा जाये.
सब जानते हैं कि आज अगर आप मुसलमान समझे जायेंगे तो आप की हर बात को अच्छी तरह से देखा जाँचा जायेगा. दिक्कत यह है कि अधिकतर यूरोपीय और अमरीकी मूल के लोगों को हमारे नामों से यह पहचानना नहीं आता, उनके लिए चेहरे और रंग में एक जैसा दिखने वाले भारतीय उपमहाद्वीप से आये हम सब लोग एक जैसे हैं. 2001 में जब न्यू योर्क में ट्विन टोवर्स में हवाई जहाजों के बम फ़टने के बाद कितने वृद्ध सिखों पर हमले हुए थे, जो आज तक नहीं रुके, उन्हें वृद्ध सिखों में बिन लादन का चेहरा दिखता है.
कभी यह नहीं सोचा था कि एक दिन पुलिस, इमिग्रेशन या किसी अन्य सुरक्षा जाँच में मैं यह कहना चाहूँगा कि मैं हिंदु हूँ. पापा क्या सोचेंगे, क्या यही सिखाया था, सोच कर मन में लज्जा आती है और अपनी कायरता पर, अपने आप को बचाने की इस कोशिश में माँ पापा ही याद आते हैं. क्या जाति है हमारी, माँ से पूछा था तो बोलीं थी कि कोई जाति नहीं हमारी. पर फ़िर भी, कुछ तो होगी, मैंने ज़िद की थी तो बोलीं थी कि कह दो कि हम सबसे नीच जाति के हैं, हम तो हिंदू हैं ही नहीं.
हिंदू, मुसलमान, जैन, सिख, ईसाई सब धर्मों के मित्र थे, पड़ोसी थे, पर घर में धर्म के नाम पर कभी कुछ नहीं होता था. न कोई मंदिर जाता या कभी किसी तरह का पूजा पाठ होता. दादी सारा दिन कागजों पर असंख्य बार राम राम लिखती रहती, अड़ोसी पड़ोसी, रिश्तेदारों में ही रीत रिवाज़, प्रार्थना सीखने का मौका मिला, पर बचपन से धर्म के लिए शंका की भावना बैठ गयी कि पूजा पाठ, धर्म केवल दिखावा है, असली धर्म तो मानवता है.
आज उस अतीत के बारे में सोचूँ तो लगता है कि वह अतीत उस समाज का परिणाम है जहाँ हिंदू बहुमत में हैं. चाहे आप माने या माने, अगर आप हिंदू समझे जाते हैं तो भारत में अधिकतर समाज आप से भिन्न तरीके से पेश आता है. आप लाख कहिये या सोचिये कि आप के लिए धर्म का कोई महत्व नहीं, अपने नाम से आप अपने हिंदू समझे जाने का लाभ उठाते हैं. जैन, या बुद्ध या सिख हों तो शायद दिक्कत कम होती है, क्योंकि आप को कुछ हद तक हिंदु ही माना जाता है. लेकिन आप का नाम मुसलिम हो या ईसाई, समाज आप से अलग तरह से पेश आता है. यह समझ तभी आयी जब ईसाई बहुमत के देश में रहने का मौका मिला. आप एक दिन मुसलमान नाम के साथ रह कर देखिये, आप को समझ आ जायेगा.
इटली कैथोलिक धर्म के बहुमत का देश है. धर्म जीवन के हर भाग में गहरा बसता है, जब तक यह बात आप के धर्म की होती है आप को शायद यह दिखे नहीं कि किस तरह जीवन की हर बात में धर्म बसा है, आप यह सोच सकते हैं कि आप को धर्म की परवाह नहीं पर ध्यान से देखिये तो आप उसके आम जीवन पर पड़े प्रभाव को झठला नहीं सकते. यहाँ हर विद्यालय में, कक्षा में, हर अदालत जैसी जगहों पर भी क्रोस लगा दिखता है, संसद में कोई भी बात उठे तो पोप क्या कहते हैं, कैथोलिक धर्म क्या कहता है, यह बात भी अवश्य उठती है. यह सब बातें केवल यहाँ के भारतीय जनता पार्टी जैसे धर्म से जुड़े राजनीतिक दलों द्वारा की जायें यह बात भी नहीं, रेडिकल पार्टी या कुछ राजनीतिक दलों को छोड़ कर, अन्य सभी राजनीतिक दल इन धार्मिक बातों को बहुत गम्भीरता से लेते हैं.
मेरा परिवार बहुधर्मी है, पत्नी कैथोलिक, पुत्रवधु सिख, बेटा हिंदू और कैथोलिक दोनो धर्मों के बीच पला बड़ा हुआ. इस धार्मिक बहुलता को गर्व से जीने का संदेश अपने बचपन की माँ पापा से मिली शिक्षा से मिला. पर मन में स्वयं को धार्मिक न मानते हुए भी आज जब लगता है कि यहाँ ईसाई धर्म के अलावा बाकी सब धर्मों को नीचा देखा जाता है तो अपनी धर्म भिन्नता की आवाज उठाना भी स्वाभाविक लगता है. बात मानव अधिकार की बन जाती है, सब धर्मों को गर्व से रहने का अधिकार होना चाहिये. दूसरी तरफ यही भिन्नता जब बढ़ते आतंकवाद के शीशे में पुलिस या सुरक्षा अधिकारियों के सामने आती है तो दूसरी तरह से चिंता का विषय बन जाती है.
पिछले वर्ष एक ईराकी पत्रकार से बात हो रही थी तो वह बता रहे थे कि बगदाद में टैक्सी चलाने वाले विभिन्न नामों वाले आईडेंटिटी कार्ड रखते हैं, कुछ शिया मुसलमान नाम के, कुछ सुन्नी मुसलमान नाम के, कुछ ईसाई नाम के. जाने कब कोई आतंकवादी रोक ले और जान लेने की धमकी दे, तो ठीक नाम वाला आईडेंटिटी कार्ड ही जान बचा सकता है. तब सोच रहा था कि जैसे यूरोपीय लोग हमारे नामों से यह नहीं पहचान पाते कि हम हिंदू हैं या मुसलमान या सिख, वैसे ही मुझे भी शिया और सुन्नी मुसलमान नामों के अंतर नहीं मालूम. सच कहूँ तो यह भी नहीं मालूम कि शिया, सुन्नी, अहमदिया, बोहरा जैसे मुस्लिम धर्म गुटों में क्या अंतर होता है!
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आप धर्म से कितना भागना चाहें, धर्म आप का पीछा नहीं छोड़ता जैसी बात दिल्ली में रहने वाली पत्रकार के. के. शाहीना के लेख में भी पढ़ी थी जो अँग्रेजी दैनिक हिंदुस्तान टाईमस में कुछ दिन पहले छपा था. कुछ सप्ताह पहले दिल्ली में बम विस्फोट करने वाले आतंकवादियों ने शाहीना जी के एक लेख से कुछ हिस्से ले कर उनका प्रयोग अपने बमों को जायज दिखाने के लिए अपनी ईमेल में उपयोग किया. शाहीना जी ने लिखा है:
"मुसलमान नाम का भारीपन दिल्ली में जीवन कठिन कर सकता है. .. एक अधिकारी से मिले, उन्होंने बहुत विनम्रता से बात की, पूछा, कि क्या तुम मुसलमान हो? मैं कहना चाहती थी कि नहीं, छत पर चढ़ कर चिल्लाना चाहती थी कि मैं नास्तिक हूँ, बचपन से मुझे धर्म से दूर रखा गया है. पर मैं यह नहीं कह सकती थी. मैंने कुछ उत्तर नहीं दिया. इस तरह का उत्तर क्या पोलिटिक्ली कोरेक्ट होगा इस बारे में मैंने सारा जीवन सोचा है. अपने धर्म से पीठ फ़ेर कर क्या मैं इस धर्म को मानने वाले लाखों निर्दोष लोगों से पीठ फ़ेर रही हूँ जो धर्म का पालन करते हैं और अपने धर्म के नाम पर होने वाले इन बातों का बुरा प्रभाव भी झेलते हैं? मेरे जीवनसाथी, जो कि जन्म से हिंदू हैं, उन्हे भी इसी तरह की बात कहने के लिए अधिकारी के सामने ज़ोर डाला गया ताकि यह साबित किया जा सके हम लोग सेक्युलर हैं, इस शहर में जहाँ हम लोग बस नाम ही हैं. यह पहली बार थी जब हमारे जीवन में धर्म इस तरह घुस रहा था. जब हमारा बेटा अनपु पैदा हुआ था तो फोर्म भरते समय उसमें धर्म वाला भाग खाली छोड़ने में हम लोग एक पल भी नहीं झिझके थे."जब शबाना आज़मी जी कहती हैं कि मुंबई में मुसलमान होने पर घर खरीदने में कठिनाई होती है, मुझे समझ में आता है. यह कहना कि वह बात को बढ़ा रही हैं, या झूठ कह रही हैं, इस बात को नकारना है. रंग भेद, जाति भेद, धर्म भेद हमारे रोज़ के जीवन में इतना घुला मिले हैं कि इसे तभी समझा जाता है जब आप अल्पसंख्यक हो. अगर आप हिंदू हैं और दलित नहीं उससे ऊँची जाति के हैं तो सोच सकते हैं कि भारत में यह भेद शायद इतना स्पष्ट और खुलेआम नहीं जितना पाकिस्तान, बँगलादेश या अरबी देशों में होता हो, पर दूसरे पक्ष से दृष्टि से देखिये तो यह भेद समझ आता है.
यह सच है कि धार्मिक रूढ़िवाद के साथ मुसलमान देशों में इसका कट्टर स्वरूप देखने को मिलता है जहाँ राजकीय धर्म इस्लाम माना जाता है और बाकि सब धर्मों के साथ भेदभाव को कानूनी स्वीकृति मिलती है. लेकिन इटली, इंग्लैंड, अमरीका जैसे विकसित देशों में भी इसके उदाहरण खोजने में कठिनाई नहीं होती. पिछले सप्ताह लंदन गया था तो वहाँ एक पत्रिका में पाकिस्तान से आये श्री जेम्स डीन का साक्षात्कार पढ़ रहा था जो कि आज एक सफल उद्योगपति हैं. इस साक्षात्कार में वह बताते हैं कि उनका असली नाम तो नज़ीम खान था पर वह जानते थे कि मुसलमान नाम होने से उन्हें इंग्लैंड में यह सफलता कभी न मिल पाती.
आज का जीवन इतनी तेजी से बदल रहा है कि शायद उसे समझना कठिन है. आतंकवाद, असहिष्णुता, उग्रवाद, धार्मिक कट्टरता, रूढ़िवाद के चक्करों में सभ्यता और मानवता के मानव मूल्य हार रहे हैं. शंका, संदेह, अविश्वास हमारे दिलों को कठोर और अमानवीय बना रहा है. देशों विदेशों में यात्राओं से शायद मुझे इस बढ़ती अमानवता को देखने का अधिक मौका मिलता है.
मुझे लगता है कि इस स्थिति में इस बारे में ईमानदारी से बात करना, एक दूसरे के दृष्टिकोण को समझने की कोशिश करना और करते रहना, बहुत आवश्यक है. बात न करना, उसे नकारना, सोचना कि यह तो हमारे लिए महत्वपूर्ण नहीं, इस सबसे नासूर भीतर ही भीतर बढ़ता जाता है. मीडिया में केवल उग्रवादियों और रूढ़िवादियों को जगह मिलती है, उनकी कही हर बात को इतनी बार दोहराया जाता है कि लगता है उस धर्म के सभी लोग कट्टरपंथी हैं. आवश्यक है कि इस बात पर सोचनेवाले पढ़े लिखे, शबाना जी जैसे उदारवादी लोगों की सोच को जगह दी जगह, उस पर खुल कर बहस की जाये.
बहूत सुन्दर लेख. इस पर इतना कहने को है कि लिख ही नहीं पा रहा.
जवाब देंहटाएंनाम से जाति का पता तो चल ही जाता है। अलबत्ता गोरों को ये भेद इतनी जल्दी नही मालूम पड़ता। ब्रिटिश लोग, वीजा देने मे जितनी परेशानी करते है, उतनी परेशानी एयरपोर्ट पर नही होती। इंडियन पासपोर्ट, फिर ढेर सारे वीजा देखकर बन्दा समझ जाता है कि घुमक्कड़ है। कम से कम मेरे साथ तो ऐसी परेशान नही पेश आयी। फिर भी यदि आप इमीग्रेशन वालों के ढेर सारे सवालों से बचना चाहे, तो एक आसान सा उपाय है, किसी भी लाइन मे किसी पाकिस्तानी/अरबी के पीछे खड़े हो जाएं, उस बन्दे से सारी पूछताछ हो चुकी होगी, आपका इंडियन पासपोर्ट देखकर वो ज्यादा नही बोलेगा।
जवाब देंहटाएंProducer Director Roberto Rossellini's life story is a script ready to be made into a Film !
जवाब देंहटाएंWas sorry to read about his adopted son's demise. & i am curious to know about Sonali Rosselini.
I had read your previous posts too -
&
abou the scrutiny on air ports due to gender caste & color, I would say I agree that it is very much prevelant.
For my Travels abroad, an American pass port has eased much of my problems now but I know how long the lines are in BRITISH Immigration process.
Good points raised by you here.
I'm curious about ITALY .
Do post about that society.
Sorry to post in Eng. I'm away from my PC hence this is the only option.
bahut hi achchhee jankari di hai aap ne jil ke bare men. eske dwara ek wyakititw ki puri pahachan ho jati hai.
जवाब देंहटाएंThanking you