मंगलवार, नवंबर 03, 2009

प्राकृतिक यानि जँगली, असभ्य

बहुत साल पहले जब पहली बार इटली में आया था तो अस्पताल में मेरे एक मित्र ने एक दिन मुझसे कुछ हिचकिचा कर कहा कि बुरा नहीं मानो पर तुम्हारे शरीर से तेज़ गंध आती है, तुम डियोडोरेंट क्यों नहीं लगाते? मुझे समझ नहीं आया कि क्या उत्तर दूँ. बुरा तो लगा पर साथ ही मन में कुछ दुविधा सी भी उठी. डियोडोरेंट क्या होता यह मालूम नहीं था, क्यों लगाते हैं, कैसे लगाते हैं, यह नहीं मालूम था. पर साथ ही मन में विचार था कि मानव शरीर की गंध, विषेशकर नये जवान होते पुरुष की गंध अच्छी होती है, सेक्सी होती है, जिससे लड़कियाँ आकर्शित होती हैं. जबकि मेरे इतालवी मित्र का कहना था कि इस तरह की तेज़ गंध से, लड़कियाँ मेरे करीब भी नहीं आयेंगी.

जब पहली बार प्रेम हुआ और एक लड़की के करीब आने का मौका मिला तो यही सबक दोबारा सुना कि लड़की की करीबी चाहिये तो पहले स्वयं को तैयार करना चाहिये, दाँत ब्रश करने चाहिये, माउथ फ्रेशनर यानि मुँह की गंध को सुगंधित करने वाला स्प्रे का प्रयोग करना चाहिये, अच्छी तरह से डेयोडोरेंट यानि शरीर की गंध मिटाने वाला स्प्रे बगल में और जहाँ बाल हों, वहाँ लगाना चाहिये. यह सब नहीं करेंगे तो आप असभ्य समझे जायेंगे.

अपनी प्रेयसी को करीब से जाना तो समझा कि यह उपदेश केवल मेरे लिए नहीं था, वह स्वयं भी इसमें पूरा विश्वास रखती थी. जब हम करीब होते तो उसके शरीर से सभी सुगंधित लगता, कहीं प्राकृतिक गंध नहीं मालूम चलती.

"मैं टेल्कम पाउडर लगाता हूँ" मैंने बताया था कि मैं शरीर से सुगंध आये, इसके लिए बिल्कुल अपरिचित नहीं हूँ. "पसीने से मिल कर, टेल्कम पाउडर भी दुर्गंध सी बन जाती है, और टेल्कम पाउडर की गंध तो अस्पताल वाली गंध लगती है", मेरी प्रेयसी ने नाक सिकोड़ ली थी.

बस में आप बैठे हों तो कोई पास न बैठे, या पास से उठ कर चला जाये, तो आप को कैसा लगेगा? फ़िर पीछे जा कर किसी अन्य से बात करते हुए कहे कि "जाने कहाँ से यह जँगली लोग चले आते हैं, कैसी अजीब सी गंध आती है इनसे!", तो आप को कैसा लगेगा? मुझ पर मित्र की कही या प्रेयसी की कही बात का उतना असर नहीं हुआ था जितना बस में हुई इस घटना का हुआ. तब सो जो डियोडोरेंट लगाना शुरु किया, कभी नहीं बंद किया, बल्कि कभी न मिले तो अजीब सी परेशानी होती है कि कैसे बाहर जाऊँगा, लोग क्या कहेंगे या सोचेंगे.

यही आज के बाजार केंद्रित जीवन का नियम बनता जा रहा है कि कुछ भी प्राकृतिक हो, वह असभ्य है, जँगली है, इसलिए आप बाज़ार से नयी नयी चीज़ें खरीदिये. शरीर ही, घर को भी डियोडोरेंट चाहिये, ताकि आप घर में घुसें तो सुंदर महक आये. हर कमरे से भिन्न महक आनी चाहिये. कमरे में सफाई करनी हो तो पानी में मिलाने वाला डिटर्जेंट सुगंधित होना चाहिये. कपड़े धोने हों तो उसमें साबुन सुगंधित होना चाहिये. टायलेट में तो सुगंधित करने वाले पदार्थों की कमी नहीं, नीचे पाखाना पोचने वाला सुंगधित कागज़ से ले कर, हाथ थोने के लिए सगंधित साबुन तक.

इनके विज्ञापन टीवी, पत्रिकाओं, अखबारों में हर जगह दिखते हैं, जो कहते हैं कि सुगंधित होंगे तो मनचाही लड़की मिलेगी, या फ़िर लड़कियाँ आपके पीछे लाईन लगायेंगी. यहाँ कुछ इसी तरह के विज्ञापन प्रस्तुत हैं.










तो आप किसमें विश्वास रखते हैं, प्राकृतिक असभ्यता में या कृत्रिम सुगंधता में?

4 टिप्‍पणियां:

  1. भारतीय दूरदर्शन पर "जागो ग्राहक" नाम से एक सन्देश दिया जा रहा है जिसमें बताया जा रहा है कि विज्ञापनों को अक्षरश: सत्य मत मानो, इन्हें जांचो-परखो। सोच-समझ कर खरीदो।

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  2. बात सही है. पर अगर इमानदारी से कहूँ तो मैं भी कृत्रिम सुगंधता पसंद करुंगा.

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"जो न कह सके" पर आने के लिए एवं आप की टिप्पणी के लिए धन्यवाद.

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