जिसकी मुक्त आत्मीयता हर व्यक्ति के लिए एक खुली पुस्तक हो, उस व्यक्ति के अन्तरंग क्षणों का वैशिष्ट्य व्याख्या विश्लेषण की अपेक्षा नहीं रखता. परन्तु इस बार दद्दा के दिल्ली प्रवास की संक्षिप्त अविधि में कई बार ऐसा भास हुआ जैसे उनकी स्निग्ध आत्मीयता और कातर आर्द्रता जाने अनजाने ही बहुत बार हृदय के किसी बड़े ही अन्तरंग अंश को छू जाती है, सामान्य सहज से अधिक वह विशिष्ट आर्द्र हो उठती है.

एक दिन जब हम उनके यहाँ पहुँचे दद्दा वात्स्यायन जी के यहाँ जाने को व्यग्र थे. बाबू गंगाशरण सिंह जी के साथ उन्हें जाना था जो किसी मीटिंग में व्यस्त हो जाने के कारण समय पर नहीं आ पाये थे. गंगा बाबू के आते ही उनके मुख पर ऐसी सहज प्रसन्नता दौड़ गयी जैसे किसी बालक को मिठाई मिल गयी हो. हर्षातुर हो कर उन्होंने मुझसे फ़ोन द्वारा कपिला से उनके घर का पता और उसका रास्ता पुछवाया. चलने से पहले मैंने खूब अच्छी तरह से उन्हें रास्ता समझा दिया, पर सत्य मार्ग के आसपास 45 मिनट तक चक्कर लगा कर वे लौट आये. उनके मुँह पर ऐसी कातरता थी जैसे मिठाई हाथ से छिनने पर कोई बालक रुँआसा हो गया हो. मुझे उलाहना सा देते हुए बोले, "मैं कह रहा था सावित्री जी आप चलिए हमारे साथ, आप नहीं गयी इसीलिए हमें रास्ता नहीं मिला." उस शाम को काफ़ी देर तक वे अपनी सहज प्रफुल्ल मनःस्थिति में नहीं आ सके.
दद्दा जैसे इस बार दिल्ली में हर परिचित व्यक्ति से मिल कर जाने का निश्चय करके आये थे. "अमुक का कोई कार्य अड़ा हुआ है, वो आ जाता तो शायद मैं कुछ कर सकता", न जाने कितने फ़ोन कराये. अमुक बड़ा दुखी है उससे मिलना चाहता हूँ, अमुक का पत्र मेरे पास चिरगाँव गया था, वह मिल जाता तो अच्छा था, अमुक को मेरे आने का पता नहीं है, अमुक दिल्ली से बाहर है उससे नहीं मिल सका, इत्यादि, इत्यादि. अतिशय भावनामयता की इन घड़ियों के अतिरिक्त दद्दा खूभ प्रसन्न और स्वस्थ रहे. वही खुली हुई हँसी, विनोद हास्य, छेड़ छाड़, चुभते हुए संस्मरण, हँसाने वाले चुटकले, जो छोटो को विश्वास और साहस देते थे, और उनके मित्रों को मनोरंजन की सामग्री. उस दिन डा. नगेन्द्र के रस सिद्धांत ग्रन्थ के विमोचन समारोह के बाद दद्दा बहुत प्रसन्न थे. सेठ गोविन्ददास और श्री नरेंद्र शर्मा समारोह से लौटते समय उन्हीं के साथ कार में आये. रास्ते भर दद्दा अपने सरल आर्द्र शब्दों में सेठ जी को सान्तवना देने का प्रयास करते रहे. कई सन्तानों को अपने हाथ से पृथ्वी में सुला देने वाले पिता के हृदय का मौन क्रन्दन जैसे स्वतः ही उनके कण्ठ में हिल हिल उठता था, उधर जवान पुत्र की मौट से विषण्ण पिता के मुख पर करुणा साकार हो रही थी. अन्ततः दद्दा बोले, "तुम मेरी कविता 'सान्त्वना' पढ़ो उससे तुम्हारा मन अवश्य स्थिर होगा, सावित्री जी, उच्छवास (जिसमें सान्त्वना कविता छपी है) की अपनी कापी इनके पास भिजवा दें, मैं आप को और भेज दूँगा." "तुम" सम्बोधन उस व्यस्क मित्र के लिए था जिसके करुणा विगलित हृदय की द्रवित व्यथा को दद्दा बाँट लेना चाहते थे और "आप" सम्बोधन उस व्यक्ति के प्रति जिसे उन्होंने पिता का सा वात्सल्य और स्नेह दे कर कृतकृत्य कर दिया था. शायद दद्दा की सामन्तीय कुलीनता, वैष्णव शील और मर्यादा के संस्कार का आग्रह नारी के प्रति "आप" सम्बोधन का स्थान "तुम" को नहीं लेने देता था. सेठ जी को उनके निवास स्थान पर छोड़ कर हम मीना बाग़ आये. घर आते आते दद्दा स्वस्थ और प्रकृतिस्थ हो चुके थे जैसे जानबूझ कर वे हमारे मन पर छा गये अवसाद को दूर करने का प्रयास करते रहे.
विविध प्रसंगों पर चर्चा होते होते बात कविता में प्रयुक्त लय और छन्द विधान पर पहुँची. मैंने नरेन्द्र जी से एक प्रश्न पूछ लिया, "गीतों की रचना करते समय आप का ध्यान लय की गेयता पर रहता है या मात्राओं की संख्या पर?" इसी प्रसंग को स्पष्ट करने के लिए दद्दा ने दर्जनों संस्कृत के श्लोक सुनाये, हिन्दी में उनका अनुवाद किया, उनमें निहित सौष्ठव और लय तथा छन्द के अन्योन्याश्रित सम्बन्धों को स्पष्ट किया. घण्टे डेढ़ घण्टे हम उनकी बातों में विभोर, तन्मय मुग्ध रहे. इस आयु में यह स्मरण शक्ति! लड़ी में पिरोई हुई मुक्ताओं के समान श्लोक उनके मुख से निकलते रहे और कक्षा के लिए आवश्यक उद्धरणों को भी याद कर सकने में असमर्थ मैं उनकी स्मरण शक्ति पर अवाक् आश्चर्यान्वित होती रही.
जिस दिन दद्दा को जाना था उसके एक दिन पहले कुछ परिस्थितियोंवश मैं मीना बाग नहीं पहुँच पायी. दूसरे दिन जब हम पहुँचे दद्दा का सामान बँध चुका था. उनकी गाड़ी यद्यपि साढ़े नौ के लगभग छूटती थी, परन्तु शीत का आधिक्य और कुछ दूसरे कारणों से उन्होंने जल्दी स्टेशन पहुँचने का निर्णय कर लिया था. मुझे देखते ही बोले, "कल मैं आप के लिए बड़ा दुखी रहा. कई बार फ़ोन किया पर वह भी न मिला." मैं भावविमूढ़, ठगी सी उनका मुँह देखती रह गयी. आज दद्दा होते तो यह वाक्य अपने मित्रों के बीच दुहरा कर मैं कितनी बार गौरावान्वित होती, पर अब तो वह हृदय में एक फाँस बन कर समाया हुआ है जिसकी चुभन जिन्दगी भर न मिट सकेगी.
नयी दिल्ली स्टेशन पर हम उन्हें पहुँचाने गये. पटना विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष डा. देवेन्द्र शर्मा, डा. दशरथ ओझा, डा. नगेन्द्र और कई व्यक्ति साथ थे. स्टेशन पहुँचते ही मुझे अलग बुला कर धीरे कहा, "मेरे पास रुपये काफी हैं, इसलिए सामान पर ध्यान रखियेगा." डा. साहब के पास जा कर उनके कान में भी यही बात कही. पर उसकी हमें अधिक चिन्ता नहीं थी, क्योंकि गिरधारी जैसा स्वामीभक्त और सतर्क परिचारक और सजग प्रहरी उनके साथ था. वेटंग रूम में काफी देर तक मैं उनके साथ अकेली रही. अभिनव कुर्सियाँ खीचता, शोर मचाता, और मुँह से सीटी बजा कर रेलगाड़ी चलाता रहा, दद्दा उसको देखते रहे और बोले, "बड़ा ही चंचल है यह." फ़िर न जाने कैसे उन्हें मेरे पुत्र अन्नु की याद आ गयी. बड़ी कोमलता से कहा उन्होंने, "अन्नु तो अब बड़ा हो गया है, अब वह हम लोगों की परवाह नहीं करता. वह भी छोटेपन में बड़े हज़रत थे. इस बार उसको नहीं देख सका." दद्दा के मन में पौत्र देखने की साध छिपी हुई थी. बातों ही बातों में कहने लगे, "मेरे सामने उर्मिल जी का एक भी लड़का हो जाता तो अच्छा था, पर मेरे यहाँ तो एक और देवी अवतरित हुई है." मैंने कहा "दद्दा! चार पौत्रियाँ पा कर तो आप अब पूरी तरह से विदेह हो गये हैं." दद्दा के ठहाके से सारा वेटिंग रूम गूँज उठा. आज सोचती हूँ न जाने किस मनहूस घड़ी में मेरे मुँह से यह शब्द निकला था. मेरे होठों में मन्थरा बैठ गयी थी क्या! विभिन्न शब्द शक्तियों की अर्थवत्ता के वैपरीत्य की इतनी कठोर, यथार्थ और तीक्ष्ण अनुभूति शायद ही कभी किसी को हुई होगी. श्लेष का इतना क्रूर मजाक शायद ही किसी ने झेला होगा.
थोड़ी देर में फ़िर बोले, "सावित्री जी! अब की दिसम्बर की छुट्टियों में आप चिरगाँव आइये, चार पाँच दिन रहिये निश्चिंत हो कर, कार मे सारा बुन्देलखण्ड घूमेंगे." कुछ देर रुक कर बोले, "आप को विश्वास नहीं आयेगा, मुझे आप की चिरगाँव में बहुत बार याद आती है, कुछ संस्कार होंगे हमारे आप के", और उनकी आँखों से आँसू टप टप गिरने लगे, मैं कृतकृत्य, अभिभूत भावावेश को गले और आँखों में सम्हाले मौन सिर झुकाये रही, आँख उठा कर उनकी ओर देखने का साहस भी नहीं हुआ. वात्सल्य का अपार समुद्र मेरी झोली में भरकर दद्दा संयत हो गये, मैं उसी में अवगाहन करती डूबती उतरती रही. गाड़ी चलने का समय हुआ, डा. नगेन्द्र को उन्होंने मोहाकुल आलिंगन में बाँध लिया, अभिनव को प्यार किया, सबसे विदा ली और मेरे भर्राये हुए चेहरे को देख सिर पर हाथ रख कर मौन आशीर्वाद दिया, बोले, "अब आप लोग जाइये, बहुत देर हो गयी है, सर्दी भी बहुत हो रही है. हमारे चलने का भी समय हो गया है." एक स्निग्ध दृष्टि उन्होंने हम सब पर डाली और कम्पार्टमेण्ट का दरवाजा खींच दिया. हमें क्या मालूम था कि वह हमारे लिए उस महानायक के जीवन नाटक का अन्तिम पटाक्षेप था.
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टिप्पणीः यह आलेख डा. सावित्री सिन्हा के आलेख संग्रह "तुला और तारे", (नेशनल पब्लिशिंग हाउस दिल्ली, 1966) से है. दद्दा (राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त) का देहांत 12 दिसंबर 1964 में हुआ.
मैथिलीशरण गुप्त की मूल तस्वीर कविताकोष के साभार
महानायक के क और भावुक पक्ष से परिचय। पढ़कर बहुत अच्छा लगा।
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