गुरुवार, फ़रवरी 03, 2011

फुरसत के रात दिन

कुछ दिन पहले पंडित भीमसेन जोशी के देहावसान का समाचार पढ़ा तो 1975-76 के वो दिन याद आ गये जब उन्हें पहली बार सुना था. पहले तो परम्परागत शास्त्रीय संगीत में बिल्कुल दिलचस्पी नहीं थी, लगता था कि बस "आ आ" करते रहते हैं जिसमें मुझे कोई रस नहीं मिलता था. तब छोटी बुआ दिल्ली के जानकीदेवी महाविद्यालय में पढ़ाती थीं और महाविद्यालय परिसर के अन्दर ही हँसध्वनि के घरों में रहती थीं. मेरा खाली समय अक्सर वहीं गुज़रता था. दीदी या भाँजे के साथ बड़े मैदान में घूमते घूमते, बाते चुकती ही नहीं थीं.

जानकी देवी में नहीं होता था तो शंकर रोड पर मित्रों के साथ होता. कालिज से घर आ कर, एक बार मित्रों के साथ घूमने और गप्प मारने के लिए निकलता तो रात को देर तक घर वापस नहीं लौटता था. तब सब मित्रों के नाम, काका, मुन्ना, शिशु, नानी, पप्पू, आदि, सभी छोटे बच्चों को प्यार से पुकारने वाले नाम ही थे.

वहीं जानकी देवी में हँसध्वनि वाले घर में ही पहली बार शास्त्रीय संगीत की सुंदरता मन में समझ आयी थी जब पहली बार फ़ूफ़ा ने कुमार गंधर्व का निरगुणी भजनों वाला रिकार्ड सुनवाया था.
उड़ जायेगा, उड़ जायेगा
हँस अकेला
जग दर्शन का मेला
एक बार मन को शास्त्रीय संगीत का रस चखने का स्वाद लगा तो फ़िर तो लत ही पड़ गयी. उन्हीं दिनों में शाम को जानकी देवी महाविद्यालय वालों की तरफ़ से, छात्राओं की शास्त्रीय संगीत से पहचान कराने के लिए जाने माने गायकों और संगीतकारों को बुलाया जाने लगा. तब कुमार गँधर्व को सुना, पंडित भीमसेन जोशी को सुना, पंडित जसराज को सुना. कालेज के रंगमँच पर जब वह गाने की तैयारी करते तो हम बच्चे लोग वहीं आसपास घूमते, वैसे भी सुनने वालों की बहुत भीड़ नहीं होती थी, बस पचास सौ लोग जमा हो जाते थे. तो उन्हें सुनने के साथ साथ, व्यक्ति को भी करीब से देखने का मौका मिलता था.

अब पैंतीस साल बाद, शास्त्रीय संगीत को सुने ज़माना बीत गया. कुछ वर्ष पहले सुश्री अश्विनी भिड़े देशपाँडे और श्री उदय भवालकर जब बोलोनिया आये थे, तभी अखिरी बार ठीक से बैठ कर उन्हें सुना था. भारत से कोई गायक आये तो उसे सुनने जाना और बैठ कर ठीक से सुनना तो हो जाता है, लेकिन आम दिनों में अब नहीं सुना जाता, शायद क्योंकि अब ध्यान को एक जगह या एक बात पर रोकने की आदत कम होती जा रही है. इस लिए नयी फ़िल्म का गाना हो या भीमसेन जोशी का भजन, कुछ अन्य काम करते हुए साथ साथ सुनते रहो, यह तो होता है लेकिन ध्यान से बैठ कर पाँच दस मिनट से अधिक कुछ सुनना पड़े तो मन अधीर हो जाता है.

फेसबुक पर 700 से अधिक मित्र हैं. क्या नाम हैं, कौन क्या करता है, कहाँ रहता है, इस सब से कुछ मतलब नहीं. कभी किसी की लिखी किसी बात पर नज़र पड़ी तो "लाइक" का बटन दबा दिया, या फ़िर बहुत अच्छा लगा तो कुछ लिख भी दिया, दो मिनट बाद ही याद नहीं रहता कि किसको क्या लिखा था. मित्र सुख दुख के नहीं, नलके की टूटी हैं, जब दिल किया खोल कर एक घूँट पिया, नहीं किया तो टूटी बंद रखी. लगे कि अधिक बातें करके मित्र हमारा समय बरबाद कर रहे हैं तो कहा कि हम व्यस्त हैं और गूगल चेट को बंद कर दिया. दो मिनट कोई वीडियो देखा, विषेश आनन्द नहीं मिला तो बन्द किया और कुछ अन्य पन्ना खोल लिया.

तो ऐसे में लम्बी तान ले कर राग शुरु होगा, तो कैसे चलेगा? इसे तो धीमे स्वर में वातावरण बनाने के लिए चलाईये, बस पृष्ठभूमि हल्की सी आवाज़ आये. आवाज़ तेज़ होगी तो परेशानी होगी, जिससे काम ठीक से नहीं होता.

हाँ भूपेन्द्र का गाना आये कि "दिल ढूँढ़ता है फ़िर वही फुरसत के रात दिन", तो एक पल के लिए मन भावुक हो जाता है. कितने अच्छे दिन थे! कैसा लगा था जब पहली बार प्रभा अत्रे को सुना था, या जब पहली बार किशोरी आमोनकर का "म्हारो प्रणाम" सुना था. फ़िर कुछ क्षणों में मन किसी और बात में लग जाता है.

बस मस्त रहिये जी, अधिक सोचा नहीं करते, यही ब्रह्ममंत्र है आज का. बहुत भावुकता आ रही हो तो फेसबुक पर लिख दीजिये, "आज हम उदास हैं", आप के दसियों मित्र आप का "लाईक" का बटन दबा कर, या कुछ लिख कर, उदासी को भगा देंगे.

***

4 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत दिनों बाद आपका चिट्ठा पढ़ा.

    फैशबुक के दोस्त तो ऐसे होते है कि तस्वीर दिखाओ तो नाम न बता पाएं.

    भीमसेन जोशी का देहांत एक खालीपन छोड़ गया है.

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  2. मित्र सुख दुख के नहीं, नलके की टूटी हैं, जब दिल किया खोल कर एक घूँट पिया, नहीं किया तो टूटी बंद रखी. बहुत सुन्दर

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  3. लाइक बटन में वह भाव कहाँ जो सच में सुन कर आता है।

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  4. बढ़िया गुरुमंत्र है की बस मस्त रहिये जी, अधिक सोचा नहीं करते. वैसे फेसबुक पे मित्र उदासी बढ़ा देते हैं जब यह ख्याल आता है इतनी बड़ी भीड़ मैं तनहा रह गए.

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"जो न कह सके" पर आने के लिए एवं आप की टिप्पणी के लिए धन्यवाद.

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