सोमवार, फ़रवरी 03, 2014

रेखाचित्र और स्मृतियाँ - अंतिम भाग (भाग 3)

1980 में में इटली घूमते हुए एक डिज़ाईन पुस्तिका में मैं रेखाचित्र बनाता था. उन्हीं रेखाचित्रों पर आधारित यह एक स्मृति यात्रा के विवरण का तीसरा व अंतिम भाग है. ( पहला भाग - दूसरा भाग)

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अस्पताल में कुछ मित्रों ने एक एल्पस् के पहाड़ पर चढ़ाई का कार्यक्रम बनाया था. उन्होंने मुझे भी अपने साथ चलने को कहा तो मैं तुरंत तैयार हो गया. यह निर्णय मैंने बिना सोचे समझे लिया था क्योंकि इससे पहले कभी पहाड़ पर चढ़ाई पर नहीं गया था. मित्रों ने कहा कि पहाड़ पर चढ़ने के लिए कील वाले जूते होने चाहिये, जो मेरे पास नहीं थे, तो एक मित्र से उसके जूते ले लिये.

कार यात्रा से बर्फ़ से ढके पहाड़ों के पास पहुँचे तो मन में कुछ संदेह हुआ और थोड़ा डर भी लगा कि शायद यह काम उतना आसान नहीं था जितना मैंने सोचा था. सुबह छः बजे के करीब चढ़ाई शुरु हुई. थोड़ी देर में मैं हाँफने लगा, पर कोशिश की कि अन्य लोगों को मालूम नहीं चले. दोपहर तक मेरा बुरा हाल हो चुका था. थकान व टाँगों में दर्द के अतिरिक्त एक अन्य दिक्कत भी थी - मित्र से लिए उधार के जूते मेरे पाँवों पर ठीक से नहीं बैठे थे, और जूतों की रगड़ से पैरों पर छाले पड़ने लगे थे. इसे अपने साथियों से छुपाना असंभव था. मेरे साथी मेरे पैरों को देख कर चिन्तित हो रहे थे लेकिन मैंने कहा कि आधे रास्ते से वापस नहीं जाऊँगा. शाम को करीब पाँच बजे "करेगा" (Carega) नाम के पर्वत की चोटी पर पहुँचे तो जान में जान आयी.

पर्वत की चोटी से आसपास का विहँगम दृश्य बहुत सुन्दर था. वहाँ चोटी के पास ही चढ़ाई करने वालों के लिए एक पर्यटक होस्टल था जिसमें एक डारमेटरी थी. कुछ देर आराम किया तो पैरों को राहत मिली. गर्मियाँ थीं और सूरज रात को दस बजे के करीब अस्त होता था. उस शाम को वहीं पर्वत की चोटी पर बैठ कर मैंने उस होस्टल का चित्र बनाया.

Vicenza 1980

अगले दिन सुबह नाश्ता करने के लिए होस्टल के रेस्टोरेंट में गये तो भारत में परिवार को भेजने के लिए तस्वीर वाले पोस्टकार्ड खरीदे. उस समय ईमेल, फेसबुक जैसी कोई चीज़ नहीं थी, लोग यही पोस्टकार्ड भेजते और उन पर अपने सब लोगों से दस्तखत कराते. मैं अपने पोस्टकार्डों पर हिन्दी में लिख रहा था, तो मेरे आसपास स्काउट के किशोरों का झुँड एकत्रित हो गया, सब लोग मेरी हिन्दी की लिखायी देख कर चकित हो रहे थे. फ़िर सब मुझसे कहने लगे कि मैं उनके पोस्टकार्डों पर हिन्दी में अपना नाम लिखूँ ताकि उनके पोस्टकार्ड पाने वाले उनके परिवार व मित्रगण हिन्दी में लिखे शब्द देख कर चकित हो जायें. मुझे लगा जैसे मैं कोई प्रसिद्ध नेता या अभिनेता बन गया हूँ जिससे सब लोग आटोग्राफ़ ले रहे हों!

Vicenza 1980

नाश्ता करके हम लोग वापस नीचे की ओर चले. फ़िर से जूतों की रगड़ से और नीचे जाते हुए रास्ते की कठिनाई से मेरा बुरा हाल हो गया.

उस पहाड़ यात्रा के बाद कई दिनों तक मुझे पाँवों की पट्टी करवानी पड़ी और उसके बाद दोबारा कभी ऊँचे पहाड़ों की चढ़ाई की मैंने कोशिश नहीं की. थोड़ी बहुत चढ़ाई हो या पहाड़ों के बीच में सैर हो, बस वहीं तक किया. लेकिन उस यात्रा से मन में पर्वतों के प्रति जो प्रेम जागा वह कभी कम नहीं हुआ.

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जब दिल्ली में रहते थे तो फ्राँस में मेरी एक पत्रमित्र बनी थी, मेरीक्रिस्टीन. करीब पंद्रह सालों से एक दूसरे को जानते थे और पत्रों में जीवन के न जाने कितने सुख दुख आपस में बाँट चुके थे. मेरे लिए मेरीक्रिस्टीन बहन जैसी थी. मेरे विचार में इस तरह का रिश्ता आजकल के फेसबुक, ईमेल से नहीं बन सकता, इसके लिए तो कागज़ के पन्नों पर हाथों से लिखी दिल की बातें ही चाहियें जिन्हें हम दूर देश में रहने वाले मित्र से बाँटते हैं.

मेरीक्रिस्टीन फ्राँस से मुझसे मिलने विचेन्ज़ा आयी. मैं उसके साथ आसपास के शहरों में घूमने गया.

जिस दिन उसे वापस फ्राँस जाना था, उसकी रेलगाड़ी की वेनिस से बुकिन्ग थी, तो उस दिन हम लोग सुबह वेनिस के ओर निकले. स्टेशन पर उसने अपना सूटकेस रखा और हम लोग वेनिस घूमने लगे.

एक जगह वह एक चर्च को देखने भीतर गयी तो मैं वहीं बाहर नहर के किनारे सीढ़ियों पर बैठ कर वेनिस की एक तस्वीर बनाने लगा.

Vicenza 1980

मेरीक्रिस्टीन चर्च से निकली तो उसने मुझे तस्वीर बनाते देखा और उसने पास के पुल पर जा कर मेरी तस्वीर खींच ली.

Vicenza 1980

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मेरीक्रिस्टीन की फ्राँस जाने वाली रेलगाड़ी रात को थी. जब उसकी रेलगाड़ी चली गयी तो मैंने अपनी रेलगाड़ी की खोज की. तो मालूम चला कि विचेन्ज़ा वापस जाने के लिए आखिरी रेल जा चुकी थी और अगले दिन की सुबह तक कोई अन्य गाड़ी नहीं थी.

होटल में जा कर सोने के लिए तो पास मैं पैसे नहीं थे, बाहर जा कर रेलवे स्टेशन की सीढ़ियों पर बैठ गया.

आसपास सीढ़ियों पर बहुत से लोग बैठे थे. रात कैसे बीती पता ही नहीं चला. रात भर वहाँ कुछ न कुछ चलता रहा. कभी कोई गिटार बजाता, कभी कुछ लोग उठ कर नाचने लगते, कभी कोई आपस में झगड़ा करते. मेरी डिज़ाईन पुस्तिका सारी भर चुकी थी, बस एक अन्तिम पृष्ठ बाकी थी. वहीं सीढ़ियों पर बैठ कर मैंने उन सीढ़ियों का चित्र बनाया.

Vicenza 1980

वेनिस की मेरी यादों में उस रात भर का सीढ़ियों पर बैठना और अनजाने लोगों के साथ की मस्ती की याद सबसे अनूठी है. उस पहली वेनिस यात्रा के बाद जाने कितनी बार वेनिस गया. जब भी वेनिस लौटता हूँ, उन सीढ़ियों पर पैर रखते ही, उस जादुवी रात की याद आ जाती है!

***

तैंतीस वर्ष पुराने अपने रेखाचित्रों को दोबारा देख कर और उनसे जुड़ी बातों को व लोगों को याद करके बहुत अच्छा लगा. पर साथ ही कुछ दुख भी हुआ कि मैंने उसके बाद कभी रेखाचित्र नहीं बनाये. आज के डिजिटल कैमरे से तस्वीरें खींचने में आनन्द कम है, यह बात नहीं. बल्कि आज की डिजिटल तस्वीरों में जितनी स्मृतियाँ जुड़ जाती हैं वह रेखाचित्रों में सम्भव नहीं था. फ़िर भी दुख होता होता है कि रेखाचित्रों की आदत नहीं बनायी, उसे भूल गया! 

( पहला भाग - दूसरा भाग)

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16 टिप्‍पणियां:

  1. मैंने रेखाचित्र बनाये। सच की जा स्मृति दिलवाये।

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  2. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन १७ साल पुराने मामले मे रेलवे देगा हर्जाना - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  3. कब से तीसरी किश्त का इंतज़ार था कुछ तो है आपकी लेखनी में जिससे मैं जुड जाता हूँ पर एक शिकायत ये है कि आप बहुत कम लिखते हैं कितनी बार यूँ ही आपके ब्लॉग का चक्कर मारता रहता हूँ |
    शुभकामनाओं सहित

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    1. प्रिय मुकुल, इन शब्दों के लिए बहुत धन्यवाद. लिखने की बात तो बहुत बार मन में आती है लेकिन समय सीमित होने से मन में ही रह जाती है. :)

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    2. नयी रचना के इंतज़ार में शुक्रिया

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  4. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज बुधवार (05-02-2014) को "रेखाचित्र और स्मृतियाँ" (चर्चा मंच-1514) पर भी होगी!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  5. रूपचन्द्र जी, मेरे आलेख को चर्चामँच में जगह देने के लिए बहुत धन्यवाद :)

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  6. रेखा चित्रों की आदत फिर से बना लीजिये सर, अगर समय मिले तो।
    रेखा चित्र बनाने मे जो समय और दृष्टि लगी होती है मेरे विचार से वह आपको उस व्यक्ति या वस्तु से भावनात्मक रूप मे जोड़ देता है ; जबकि डिजिटल तस्वीरों मे स्मृतियाँ तो रहती हैं पर शायद भावनाएँ तुलनात्मक रूप में कम होती हैं।

    सादर

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    1. कला व रेखाचित्रों से फ़िर से जुड़ने का सोचा तो है, देखो कब सफल होगा. धन्यवाद यश :)

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  7. कल 06/02/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
    धन्यवाद !

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    1. धन्यवाद यश, इस पोस्ट को नयी पुरानी हलचल में जगह देने के लिए

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"जो न कह सके" पर आने के लिए एवं आप की टिप्पणी के लिए धन्यवाद.

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