पिछले दशक में भारत में केंद्रित कई दवा बनाने वालों ने विश्व में सस्ती और अच्छी दवाएँ बनाने के लिए ख्याति पाई है. आज भारत की यह क्षमता खतरे में है, क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय दवा बनाने वाली कम्पनी नोवार्टिस (Novartis) ने भारत सरकार पर दावा किया है.
एडस की दवाएँ जो पहले केवल पश्चिमी देशों की दवा कम्पनियाँ बनाती थीं, उनके एक साल के इलाज की कीमत 20,000 डालर तक पड़ती थी, भारतीय सिपला जैसी कम्पनियों ने पर इन्हीं दवाओं को 2,000 डालर तक की कीमत में दिया. कुछ वर्ष पहले, जब दक्षिण अफ्रीका की सरकार ने पश्चिमी देशों के बजाय जब भारत से बनी इन सस्ती दवाओं को खरीदना चाहा तो 39 बड़ी दवा कम्पनियों ने मिल कर दक्षिण अफ्रीका की सरकार पर दावा कर दिया. इस पर सारी दुनिया में स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करने वाली गैर सरकारी और स्वयंसेवी संस्थाओं ने जनचेतना अभियान प्रारम्भ किया और दुनिया के विभिन्न देशों से लाखों लोगों ने इस अपील पर अपने दस्तखत किये. अपनी जनछवि को बिगड़ता देख कर घबरा कर अंतर्राष्ट्रीय दवा कम्पनियों ने दक्षिण अफ्रीका सरकार पर किया दावा वापस ले लिया.
इस तरह की सस्ती दवा बना पाने के लिए भारत के बुद्धिजन्य सम्पति अधिकारों (intellectual property rights) से सम्बंधित कानूनो ने बहुत अहम भाग निभाया था. यह कानून दवा बनाने के तरीको को सम्पति अधिकार (patents) देते थे जिसका अर्थ था कि वही पदार्थ अगर कोई किसी नये तरीके से बनाये तो उस पर यह अधिकार लागू नहीं होगा. इसका यह फायदा था कि कहीं पर कोई भी नयी दवा निकले, हमारे दवा बनाने वाले उसे बनाने के लिए नये और सस्ते तरीके खोज सकते थे. इस कानून का फायदा उठा कर भारतीय दवा बनाने वालों ने बहुत सी जान रक्षक दवाओं के नये और सस्ते संस्करण बनये और उन्हें कम कीमत पर बाज़ार में बेचा.
इन कानूनों से अंतर्राष्ट्रीय दवा बनाने वाली कम्पनियाँ बहुत परेशान थीं क्योंकि इससे उनके लाभ में कमी आती थी और उन्होंने भी भारत सरकार पर जोर डाला कि भारत विश्व व्यापार संस्थान (World Trade Organisation, WTO) का हिस्सा बन जाये और अंतर्राष्ट्रीय बुद्धिजन्य सम्पत्ति अधिकारों के कानूनों को मानने को बाध्य हो. सन 2005 में भारत डब्ल्यूटीओ का सदस्य बन गया.
पर जब भारत की सरकार ने WTO के हिसाब से अपने कानून बदला तो इस नये कानून के हिसाब से कोई पदार्थ बनाने के तरीका वाले कोपीराईट के साथ साथ पदार्थ पर भी कोपीराईट हो गया है ताकि कोपीराईट की अविधि तक कोई उस पदार्थ को किसी भी तरीके से न बना सके. अब भारतीय दवा बनाने वाले नयी दवाओं को बनाने के नये और सस्ते तरीके नहीं खोज सकते जब तक उस दवा की कोपीराइट अविधि न समाप्त हो जाये.
पर भारत सरकार इस नये कानून में अपनी दवा बनाने वाली कम्पनियों के पक्ष में कुछ कानून भी रखे हैं जैसे कि उसने यह कानून भी रखा कि कापीराईट करने के लिए बिल्कुल नया आविष्कार होना चाहिये. बहुत सी अंतर्राष्ट्रीय कम्पनिया अपनी दवाओं का कापीराईट बनावाती हैं पर कापीराईट की अविधि समाप्त होने से पहले उसी दवा में थोड़ा सा फेरबदल करके उसका नया कापीराईट बनवा लेती हैं (evergreeing of patents) ताकि वह दवा और बीस सालों तक केवल उनकी सम्पत्ति रहे. भारतीय कानून इसकी रोकथाम करने में सहायता देता है.
पिछले वर्ष स्विटज़रलैंड की नोवार्टिस कम्पनी ने कैसर के इलाज में प्रयोग की जाने वाली दवा ग्लीवेक (Glivec) के फारमूले में कुछ बदलाव करके उसके नये कोपीराईट के लिए अर्जी दी, जो भारत सरकार ने यह कह कर नामंजूर करदी कि यह नया आविष्कार नहीं बल्कि पुराने फारमूले में थोड़ी सी बदली करके किया गया है. इसी पर नोवार्टिस ने़ भारत सरकार पर दावा कर दिया है कि भारत का यह कानून डब्ल्यूटीओ के नियमों के विरुद्ध है और इस कानून को रद्द कर दिया जाना चाहिये.
अगर नोवार्टिस यह मुकदमा जीत जायेगा तो भारत सरकार का यह कानून कि केवल बिल्कुल नये आविष्कार की ही रजिस्ट्री होनी चाहिये, अपने आप ही रद्द हो जायेगा और भारत सरकार को अंतर्राष्ट्रीय दवा बनाने वाली कम्पनियों की बहुत सी पुरानी दवाओं के पेटेंट को मानना पड़ेगा. इससे कम कीमत पर भारतीय दवा बनाने वालों को रोक लग जायेगी जिसका असर केवल भारत पर ही नहीं, बहुत से देशों में रहने वाले गरीबों पर पड़ेगा.
भारत सरकार ने इस बात की जाँच के लिए अपनी एक अंदरूनी कमेटी बिठायी थी जिसके अध्यक्ष थे श्री मशालकर. गत दिसम्बर में मशालकर कमेटी ने नोवर्टिस की माँग को जायज बताया है और इस कानून को बदलने की सलाह दी है.
अंतर्राष्ट्रीय गैरसरकारी संस्थाओं तथा स्वास्थ्य क्षेत्र के बुद्धिजीवियों ने तुरंत श्री मशालकर कमेटी के निर्णय की आलोचना की. उन्होने बताया कि मशालकर कमेटी ने इंग्लैंड की एक कम्पनी की एक रिपोर्ट को ले कर वैसे ही नकल कर के अपनी रिपोर्ट में लिख दिया है. अँग्रेजी क्मपनी की वह रिपोर्ट अंतर्राष्ट्रीय दवा बनाने वाली कम्पनियों ने पैसा दे कर बनवायी थी. उनका आरोप है कि श्री मशालकर खुद वैसी ही कम्पनियों के सलाहकार के रुप में सारा जीवन बिता चुके हैं और उनसे इस विषय पर निक्षपक्ष राय की आशा नहीं की जा सकती.
इसी के विरुद्ध विभिन्न देशों में जनचेतना अभियान शुरु किये जा रहे हैं. लोगों से कहा जा रहा है कि नोवार्टिस पर दबाव डाला जाये कि वह यह मुकदमा वापस ले ले. अब तक करीब 3 लाख लोगों ने उस अपील पर दस्तखत किये हैं जिनमें स्विटज़रलैंड की पूर्व राष्ट्रपति श्रीमति रुथ ड्रैयफुस, नोबल पुरस्कार विजेता आर्चबिशप डेसमैंड टूटू, संयुक्त राष्ट्र संघ के अफ्रीका अधिकारी स्टीफेन लुईस जैसे लोग भी शामिल हैं. प्रसिद्ध अंतर्राष्ट्रीय कम्पनियों के लिए उनकी जनछवि बहुत महत्वपूर्ण होती है जिसके बलबूते पर उनकी बिक्री टिकी होती है. आशा है कि अपनी जनछवि बिगड़ती देख कर नोवार्टिस यह मुकदमा वापस ले लेगी.
आप भी इस अपील पर दस्तखत कीजिये और नोवार्टिस पर दबाव डालने में सहायता कीजिये. अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएँ जैसे कि "सीमाविहीन चिकित्सक" (Doctors without Borders) तथा "ओक्सफाम" (Oxfam) के अंतरजाल पृष्ठों पर इस अपील पर दस्तखत किये जा सकते हैं.
मंगलवार, फ़रवरी 20, 2007
सोमवार, फ़रवरी 19, 2007
ज्वालामुखिँयों की राह
दक्षिण अमरीका में एक्वाडोर में उत्तर में देश की राजधानी कीटो से दक्षिण में कुएँका जाने वाला रास्ता "ज्वालामुखियों की राह" के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि दोनो तरह पहाड़ों के बीच में गुजरते हुए इस रास्ते पर बहुत से ज्वालामुखी हैं.
एक समय में इटली में भी कुछ ऐसे ही था, उत्तर से दक्षिण तक, पूरे देश के बीचों बीच रीड़ की हड्डी की तरह उठे पहाड़ों के बीच में बहुत से ज्वालामुखी थे. उत्तरी इटली के सभी ज्वालामुखी आदिकाल में ही ज्वाला फ़ैंक और लावा उगल कर शाँत हो गये और आज उन ज्वालामुखियों के मुखों में झींलें हैं. रोम से थोड़ी ही दूर उत्तरी दिशा में तीन इस तरह की ज्वालामुखियों वाली झीलें हैं - ब्राचानो, बोलसेना और वीको.
रोम के दक्षिण में पोमपेई के पास खड़ा वासूवियो ज्वालामुखी करीब दो हजार वर्ष पहले फूटा था और उसके लावे ने पोमपेई के रहनेवालों को अपनी कैद में बंद लिया था. उस लावे की खुदाई से निकला पोमपेई आज हमें दो हजार वर्ष पहले के जीवन की अनोखी झलक देखने का मौका देता है.
इटली के दक्षिणी कोने पर ऐत्ना पहाड़ का ज्वालामुखी आज भी आग और लावा उगलता है. बीच बीच में यह लावा उगलने की प्रक्रिया जब तेज होती है तो उसे देखने आने वाले पर्यटकों की सँख्या तुरंत बढ़ जाती है.
****
पिछले सप्ताह काम के सिलसिले में रोम जाना हुआ था, तो रोम के उत्तर में बसे प्राचीन शहर वितेर्बो को देखने का मौका मिला. शहर का मध्ययुगीन संकरी गलियों वाला हिस्सा मुझे बहुत अच्छा लगा. हालाँकि आज वितेर्बो छोटा सा शहर है पर इटली के इतिहास में इसका बहुत महत्व है. मध्ययुग में पोप को वेटीकेन छोड़ कर यही भाग कर आना पड़ा था और बहुत से सालों तक यह शहर दूसरा वेटीकेन बन गया था.
वितेर्बो से थोड़ी दूर ही है ब्राचानो की पुराने ज्वालामुखी के मुख में बनी झील. ब्राचानो शहर का नाम कुछ माह पहले अंतर्राष्ट्रीय समाचार पत्रों में आया था जब होलीवुड के अभिनेता टाम क्रूस ने यहाँ के किले में केटी होल्मस नाम की अभिनेत्री से विवाह किया था.
आज कुछ तस्वीरें वितेर्बो और ब्राचानो से.
एक समय में इटली में भी कुछ ऐसे ही था, उत्तर से दक्षिण तक, पूरे देश के बीचों बीच रीड़ की हड्डी की तरह उठे पहाड़ों के बीच में बहुत से ज्वालामुखी थे. उत्तरी इटली के सभी ज्वालामुखी आदिकाल में ही ज्वाला फ़ैंक और लावा उगल कर शाँत हो गये और आज उन ज्वालामुखियों के मुखों में झींलें हैं. रोम से थोड़ी ही दूर उत्तरी दिशा में तीन इस तरह की ज्वालामुखियों वाली झीलें हैं - ब्राचानो, बोलसेना और वीको.
रोम के दक्षिण में पोमपेई के पास खड़ा वासूवियो ज्वालामुखी करीब दो हजार वर्ष पहले फूटा था और उसके लावे ने पोमपेई के रहनेवालों को अपनी कैद में बंद लिया था. उस लावे की खुदाई से निकला पोमपेई आज हमें दो हजार वर्ष पहले के जीवन की अनोखी झलक देखने का मौका देता है.
इटली के दक्षिणी कोने पर ऐत्ना पहाड़ का ज्वालामुखी आज भी आग और लावा उगलता है. बीच बीच में यह लावा उगलने की प्रक्रिया जब तेज होती है तो उसे देखने आने वाले पर्यटकों की सँख्या तुरंत बढ़ जाती है.
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पिछले सप्ताह काम के सिलसिले में रोम जाना हुआ था, तो रोम के उत्तर में बसे प्राचीन शहर वितेर्बो को देखने का मौका मिला. शहर का मध्ययुगीन संकरी गलियों वाला हिस्सा मुझे बहुत अच्छा लगा. हालाँकि आज वितेर्बो छोटा सा शहर है पर इटली के इतिहास में इसका बहुत महत्व है. मध्ययुग में पोप को वेटीकेन छोड़ कर यही भाग कर आना पड़ा था और बहुत से सालों तक यह शहर दूसरा वेटीकेन बन गया था.
वितेर्बो से थोड़ी दूर ही है ब्राचानो की पुराने ज्वालामुखी के मुख में बनी झील. ब्राचानो शहर का नाम कुछ माह पहले अंतर्राष्ट्रीय समाचार पत्रों में आया था जब होलीवुड के अभिनेता टाम क्रूस ने यहाँ के किले में केटी होल्मस नाम की अभिनेत्री से विवाह किया था.
आज कुछ तस्वीरें वितेर्बो और ब्राचानो से.
वितेर्बो की मध्ययुगीन संकरी गलियाँ
वितेर्बो का "मृत्यु का फव्वारा"
ब्राचानो की झील
ब्राचानो का किला
गुरुवार, फ़रवरी 15, 2007
कान खींचो
हर वर्ष एलास्का और केनेडा में रहने वाले एस्कीमो अपने ओलिम्पिक खेलों का आयोजन करते हैं जिसमें सभी प्रतियोगिताएँ पाराम्परिक एस्कीमो खेलों की होती हैं.
कुछ खेल जिनकी प्रतियोगिता इन ओलिम्पिक खेलों में होती हैं उनके नाम हैं एस्कीमो डँडा खींच, मशाल दौड़, मछली काटो, कँबल फ़ेंको, इत्यादि.
बहुत सी प्रतियोगियातिएँ ऊँचा कूदने, तथा कूद कर लात मारने की होती हैं. एक ऊँची कूद में लोगों द्वारा खींच कर पकड़ी हुई तनी हुई रेनडियर की त्वचा पर छलाँग लगाते हैं तो एक दूसरी प्रतियोगिता में 2 मीटर ऊँची रस्सी को कूद कर पैर से छूना होता है.
पर मेरे विचार में सबसे रोचक प्रतियोगिताएँ कानो को पीड़ा देने वाली होती हैं, जैसे कान खींचो और कान से बोझा उठाओ. कान खींचने की प्रतियोगिता में हिस्सा लेने वाले एक दूसरे की कान पर रस्सी लपेट देते हैं और आमने सामने बैठ कर रस्सी को खींचते हैं. जो पहले दर्द से घबरा कर सिर पीछे खिंच कर कान से रस्सी को निकाल दे, वह हार जाता है. खेल पहले एक तरफ़ के कान से खेला जाता है फ़िर दूसरी तरफ़ से. कान से बोझा उठाओ खेल में कान से भारी वजन बाँध कर यह देखते हैं कि खिलाड़ी उसे कितनी दूर तक खींचने में समर्थ है. इन कान वालों खेलों में खिलाड़ियों के आसपास बर्फ ले कर उनके साथी खड़े होते हैं जो कि बीच बीच में कानों पर बर्फ लगा कर उनको ठँडक और दर्द से राहत देने की कोशिश करते हैं.
खेलों में एस्कीमो मिस वर्ल्ड भी चुनी जाती है ( नीचे तस्वीर में २००6 की मिस एस्कीमो वर्ल्ड)
****
ऐसे खेल और भी देशों में होते हैं जहाँ लोग अपने पाराम्परिक खेलकूद को सुरक्षित रखना चाहते हैं. जैसे कि मँगोलिया में नादाम का उत्सव हर वर्ष अगस्त में मनाते हैं. नादाम में छोटे छोटे चार पाँच साल के बच्चों को घोड़ों पर दौड़ लगाते देखना बहुत रोमाँचकारी लगता है.
अगर भारत में हम इसी तरह अपने पाराम्परिक खेलों की धरोहर को बचाना चाहें तो उनमें कौन से खेल रखेंगे? खो खो, कुश्ती, मुदगर, आँखें बंद करके शब्दभेदी बाण, और क्या क्या?
कुछ खेल जिनकी प्रतियोगिता इन ओलिम्पिक खेलों में होती हैं उनके नाम हैं एस्कीमो डँडा खींच, मशाल दौड़, मछली काटो, कँबल फ़ेंको, इत्यादि.
बहुत सी प्रतियोगियातिएँ ऊँचा कूदने, तथा कूद कर लात मारने की होती हैं. एक ऊँची कूद में लोगों द्वारा खींच कर पकड़ी हुई तनी हुई रेनडियर की त्वचा पर छलाँग लगाते हैं तो एक दूसरी प्रतियोगिता में 2 मीटर ऊँची रस्सी को कूद कर पैर से छूना होता है.
पर मेरे विचार में सबसे रोचक प्रतियोगिताएँ कानो को पीड़ा देने वाली होती हैं, जैसे कान खींचो और कान से बोझा उठाओ. कान खींचने की प्रतियोगिता में हिस्सा लेने वाले एक दूसरे की कान पर रस्सी लपेट देते हैं और आमने सामने बैठ कर रस्सी को खींचते हैं. जो पहले दर्द से घबरा कर सिर पीछे खिंच कर कान से रस्सी को निकाल दे, वह हार जाता है. खेल पहले एक तरफ़ के कान से खेला जाता है फ़िर दूसरी तरफ़ से. कान से बोझा उठाओ खेल में कान से भारी वजन बाँध कर यह देखते हैं कि खिलाड़ी उसे कितनी दूर तक खींचने में समर्थ है. इन कान वालों खेलों में खिलाड़ियों के आसपास बर्फ ले कर उनके साथी खड़े होते हैं जो कि बीच बीच में कानों पर बर्फ लगा कर उनको ठँडक और दर्द से राहत देने की कोशिश करते हैं.
खेलों में एस्कीमो मिस वर्ल्ड भी चुनी जाती है ( नीचे तस्वीर में २००6 की मिस एस्कीमो वर्ल्ड)
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ऐसे खेल और भी देशों में होते हैं जहाँ लोग अपने पाराम्परिक खेलकूद को सुरक्षित रखना चाहते हैं. जैसे कि मँगोलिया में नादाम का उत्सव हर वर्ष अगस्त में मनाते हैं. नादाम में छोटे छोटे चार पाँच साल के बच्चों को घोड़ों पर दौड़ लगाते देखना बहुत रोमाँचकारी लगता है.
अगर भारत में हम इसी तरह अपने पाराम्परिक खेलों की धरोहर को बचाना चाहें तो उनमें कौन से खेल रखेंगे? खो खो, कुश्ती, मुदगर, आँखें बंद करके शब्दभेदी बाण, और क्या क्या?
बुधवार, फ़रवरी 14, 2007
विवाह की धूम
हाल में ही दो हिंदी फ़िल्में देखने का मौका मिला, "विवाह" और "धूम 2". इन फ़िल्मों को देख कर मन में आज के भारतीय सिनेमा में पारिवारिक मूल्यों के चित्रण के बारे में सोच रहा था.
ताराचंद बड़जात्या और राजश्री फिल्मों का मैं बचपन से ही प्रशंसक था. उनके पुत्र सूरज बड़जात्या की फ़िल्में मुझे उतनी अच्छी नहीं लगतीं. उनकी नयी फ़िल्म "विवाह" के बारे में तो बहुत कुछ बुरा भला पढ़ चुका था कि बिल्कुल पुराने तरीके की फ़िल्म है.
यह सच भी है कि फ़िल्म के धनवान पर अच्छे दिल वाले अनुपम खेर और शाहिद कपूर का परिवार राजश्री फ़िल्मों का पुराना जाना पहचाना भारतीय परिवार है, जहाँ भाई, भाभी और देवर के साथ प्रेम से रहने वाले दृष्यों में इतना मीठा भरा है कि अच्छे खासे आदमी को डाईबीटीज़ हो जाये. ऐसे संयुक्त परिवार जहाँ सभी एक दूसरे से प्यार करते हों, आपस में कोई खटपट न हो, कोई ईर्ष्या न हो, अविश्वासनीय हैं पर हमारे मन में छुपी इच्छा "कि काश ऐसा हो" को संतुष्टी देते हैं.
शाहिद कपूर और अमृता राव की कहानी, लड़की देखने जाना, मँगनी होना और उनके बीच में पनपता प्यार, इस सब की आलोचना की गयी थी कि बिल्कुल पुराने तरीका का है. मुझे लगा कि शायद कुछ बातें बड़े शहरों में रहने वालों के कुछ पुरानी लग सकती हैं पर वह भी इतनी तो पुरानी नहीं हैं. शहरों में भी अधिकतर विवाह के प्रस्ताव आज भी माता पिता द्वारा ही जोड़े जाते हैं, लड़की देखने जाने की रीति भी बंद नहीं हुई है तो इसमें पुराना क्या है? शायद लड़की के परिवार का आपस में हिंदी में बात करना, यह कहना कि वह हिंदी की किताबें पढ़ती है, यह सब पुराने तरीके का है जो आजकल बड़े शहरों में बदल में रहा है?
दूसरी ओर, आलोक नाथ और सीमा विस्वास का परिवार कुछ सिंडरेला की कहानी पर आधारित है, सौतेली माँ के बदले में चाची बना दी गयी है. पर इस भाग में मुझे अच्छा लगा कि घर दो बेटियों का होना सकारात्मक तरीके से दिखाया गया है और आग में जली युवती से उसके मँगेतर का विवाह करने का निश्चय भी सकारात्मक तरीके से दिखाया गया है. उत्तरी भारत में जहाँ पढ़े लिखे, सम्पन्न राज्यों में जहाँ बच्चियों के जन्म से पहले उनकी भ्रूणहत्या करना बढ़ता जा रहा है, इस तरह के संदेश देना बहुत आवश्यक है. ऐसी तथाकथित आधुनिक फ़िल्में जिनमें आधुनिकता केवल सतही होती है, उनसे यह पुराने तरीके की फ़िल्म ही अधिक अच्छी है.
जहाँ "विवाह" में परिवारों की बात फ़िल्म का केंद्र है, दूसरी फ़िल्म "धूम 2" में परिवार हैं ही नहीं. फ़िल्म में किसी भी पात्र के माता पिता नहीं दिखाये गये हैं, न ही किसी के कोई भाई बहन है. परिवार के बंधन न होने से फ़िल्म के सभी पात्र अपना जीवन अपनी तरह से जीने के लिए स्वतंत्र हैं. सिर्फ एक जय दीक्षित का पात्र है जो विवाहित है और जिसकी पत्नी गर्भवति है पर उनकी पत्नी को कुछ क्षणों के लिए दिखा कर परदे से गुम कर दिया जाता है, जिससे अर्थ बनता है कि गर्भवति पत्नी को मायके भेज देना चाहिये ताकि अपने जीवन में कोई तकलीफ़ न हो.
फ़िल्म की एक नायिका सुनहरी, चोर है पर क्यों चोर बनी यह आप समझ नहीं पाते अगर उसे मिनी स्कर्ट पहन कर डिस्को में नाचने का शौक है. अनाथाश्राम में पली बड़ी हुई हो ऐसी नहीं लगती. हाँ, आधुनिक है, अँग्रेजी बोलती है, अकेली विदेश यात्रा पर जा सकती है और बिना विवाह के एक दूसरे चोर के साथ रह सकती है.
फ़िल्म की दूसरी नायिका, चूँकि रियो दी जेनेयिरो में समुद्र तट पर रहती हैं, इसलिए उनका बिकिनी पहनना तो स्वाभाविक है, पर आश्चर्य होता है उन पर फ़िदा श्री अली पर. भिण्डी बाज़ार के मेकेनिक से पुलिस वाला बना अली, अकेला पात्र है जो माँ का नाम ले कर उसे याद करता है पर वह भी आधुनिक है और अगर पत्नि बिकिनी पहने है तो वह भी कम नहीं, वह नेकर पहन लेता है, और दोनो कोपाकबाना के समुद्रतट पर नारियल का पानी पीते हैं.
जिस तरह की फ़िल्म की कहानी है इसमें परिवार की आवश्यकता है ही नहीं, न ही किसी बड़े बूढ़े की. होते तो केवल समय बरबाद करते!
ताराचंद बड़जात्या और राजश्री फिल्मों का मैं बचपन से ही प्रशंसक था. उनके पुत्र सूरज बड़जात्या की फ़िल्में मुझे उतनी अच्छी नहीं लगतीं. उनकी नयी फ़िल्म "विवाह" के बारे में तो बहुत कुछ बुरा भला पढ़ चुका था कि बिल्कुल पुराने तरीके की फ़िल्म है.
यह सच भी है कि फ़िल्म के धनवान पर अच्छे दिल वाले अनुपम खेर और शाहिद कपूर का परिवार राजश्री फ़िल्मों का पुराना जाना पहचाना भारतीय परिवार है, जहाँ भाई, भाभी और देवर के साथ प्रेम से रहने वाले दृष्यों में इतना मीठा भरा है कि अच्छे खासे आदमी को डाईबीटीज़ हो जाये. ऐसे संयुक्त परिवार जहाँ सभी एक दूसरे से प्यार करते हों, आपस में कोई खटपट न हो, कोई ईर्ष्या न हो, अविश्वासनीय हैं पर हमारे मन में छुपी इच्छा "कि काश ऐसा हो" को संतुष्टी देते हैं.
शाहिद कपूर और अमृता राव की कहानी, लड़की देखने जाना, मँगनी होना और उनके बीच में पनपता प्यार, इस सब की आलोचना की गयी थी कि बिल्कुल पुराने तरीका का है. मुझे लगा कि शायद कुछ बातें बड़े शहरों में रहने वालों के कुछ पुरानी लग सकती हैं पर वह भी इतनी तो पुरानी नहीं हैं. शहरों में भी अधिकतर विवाह के प्रस्ताव आज भी माता पिता द्वारा ही जोड़े जाते हैं, लड़की देखने जाने की रीति भी बंद नहीं हुई है तो इसमें पुराना क्या है? शायद लड़की के परिवार का आपस में हिंदी में बात करना, यह कहना कि वह हिंदी की किताबें पढ़ती है, यह सब पुराने तरीके का है जो आजकल बड़े शहरों में बदल में रहा है?
दूसरी ओर, आलोक नाथ और सीमा विस्वास का परिवार कुछ सिंडरेला की कहानी पर आधारित है, सौतेली माँ के बदले में चाची बना दी गयी है. पर इस भाग में मुझे अच्छा लगा कि घर दो बेटियों का होना सकारात्मक तरीके से दिखाया गया है और आग में जली युवती से उसके मँगेतर का विवाह करने का निश्चय भी सकारात्मक तरीके से दिखाया गया है. उत्तरी भारत में जहाँ पढ़े लिखे, सम्पन्न राज्यों में जहाँ बच्चियों के जन्म से पहले उनकी भ्रूणहत्या करना बढ़ता जा रहा है, इस तरह के संदेश देना बहुत आवश्यक है. ऐसी तथाकथित आधुनिक फ़िल्में जिनमें आधुनिकता केवल सतही होती है, उनसे यह पुराने तरीके की फ़िल्म ही अधिक अच्छी है.
जहाँ "विवाह" में परिवारों की बात फ़िल्म का केंद्र है, दूसरी फ़िल्म "धूम 2" में परिवार हैं ही नहीं. फ़िल्म में किसी भी पात्र के माता पिता नहीं दिखाये गये हैं, न ही किसी के कोई भाई बहन है. परिवार के बंधन न होने से फ़िल्म के सभी पात्र अपना जीवन अपनी तरह से जीने के लिए स्वतंत्र हैं. सिर्फ एक जय दीक्षित का पात्र है जो विवाहित है और जिसकी पत्नी गर्भवति है पर उनकी पत्नी को कुछ क्षणों के लिए दिखा कर परदे से गुम कर दिया जाता है, जिससे अर्थ बनता है कि गर्भवति पत्नी को मायके भेज देना चाहिये ताकि अपने जीवन में कोई तकलीफ़ न हो.
फ़िल्म की एक नायिका सुनहरी, चोर है पर क्यों चोर बनी यह आप समझ नहीं पाते अगर उसे मिनी स्कर्ट पहन कर डिस्को में नाचने का शौक है. अनाथाश्राम में पली बड़ी हुई हो ऐसी नहीं लगती. हाँ, आधुनिक है, अँग्रेजी बोलती है, अकेली विदेश यात्रा पर जा सकती है और बिना विवाह के एक दूसरे चोर के साथ रह सकती है.
फ़िल्म की दूसरी नायिका, चूँकि रियो दी जेनेयिरो में समुद्र तट पर रहती हैं, इसलिए उनका बिकिनी पहनना तो स्वाभाविक है, पर आश्चर्य होता है उन पर फ़िदा श्री अली पर. भिण्डी बाज़ार के मेकेनिक से पुलिस वाला बना अली, अकेला पात्र है जो माँ का नाम ले कर उसे याद करता है पर वह भी आधुनिक है और अगर पत्नि बिकिनी पहने है तो वह भी कम नहीं, वह नेकर पहन लेता है, और दोनो कोपाकबाना के समुद्रतट पर नारियल का पानी पीते हैं.
जिस तरह की फ़िल्म की कहानी है इसमें परिवार की आवश्यकता है ही नहीं, न ही किसी बड़े बूढ़े की. होते तो केवल समय बरबाद करते!
मंगलवार, फ़रवरी 13, 2007
सीमाओं में बंद ऐश्वर्या
अँग्रेज़ी दैनिक हिंदुस्तान टाईमस् में सिनेमा पृष्ठ पर सुप्रसिद्ध सिनेमा समीक्षक और निर्देशक खालिद मुहम्मद का अभिषेख बच्चन से साक्षात्कार पढ़ रहा था कि उनका प्रश्न देख कर रुक गया. उन्होंने पूछा था, "क्या आप विवाह के बाद ऐश्वर्या को फिल्मों में काम करने देंगे?"
भारतीय पारम्परिक सोच के अनुसार लड़की का अपना कोई महत्व नहीं, वह शादी से पहले अपने पिता की होती है और शादी के बाद अपने पति की. शहरों में इस तरह की पाराम्परिक सोच से ऊपर उठने की कोशिश की जा रही है, पर इस प्रश्न से लगता है कि लड़कियाँ अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व बना सकें इसमें अभी बहुत सा काम करना बाकी है, वरना प्रतिष्ठित, संवेदनशीन फिल्में बनाने वाले इस तरह का प्रश्न पूछ पाते? जिससे वह प्रश्न कर रहे हैं उसके दादा प्रसिद्ध कवि थे, नाना जाने माने पत्रकार, माता पिता तो प्रसिद्ध हैं ही. और जिस लड़की की बात हो रही है वह कोई सामान्य युवती नहीं, मिस वर्ल्ड रह चुकी हैं, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जानी पहचानी अभिनेत्री हैं. अगर इन सब के बाद इस तरह का प्रश्न पूछा जा सकता है तो आप सोचिये कि साधारण युवतियों के लिए यह सोच कैसे बदलेगी?
शायद इस तरह का प्रश्न इस लिए पूछा गया क्योंकि पिछले दिनो में बच्चन राय विवाह के सम्बंध में आने वाले बहुत से समाचार पुराने दकियानूसी तरह के हैं जैसे कुण्डियाँ मिलवाना, मंदिरों में कन्या के माँगलिक होने के बुरे प्रभाव को हटाने के लिए पूजा करवाना और उसकी पेड़ से शादी करवाना? यानि कि जब सब कुछ पाराम्परिक सोच में है तो विवाह होने के बाद ऐश्वर्या के भविष्य की बात भी पाराम्परिक ही होनी चाहिये और इसलिए उन्हें विवाह के बाद काम करने के लिए पति की अनुमति चाहिये?
पर क्या जब हरिवँशराय बच्चन ने तेजी जी से प्रेमविवाह किया था तो क्या कुण्डली मिलवा कर किया था? या अमिताभ बच्चन ने जया भादुड़ी से विवाह के लिऐ कुण्डली मिलवायी थी? उनकी जो जनछवि है उसको सोच पर तो यह नहीं लगता पर शायद उस ज़माने में प्रेस इस तरह की बातों में इतनी दिलचस्पी नहीं लेती थी और शायद वह सभी इस तरह की परम्पराओं में विश्वास करते थे?
मैं यह नहीं कहता कि सभी युवतियों को विवाह के बाद काम करना चाहिये. पति और पत्नी दोनों काम करें या उनमें से कोई एक घर पर रहे, यह उनका आपस का निर्णय हो सकता है, उनकी अपनी इच्छा या आर्थिक परिस्थिति पर निर्भर हो सकता है. पर अगर पति को विवाह के बाद काम के लिए पत्नी की अनुमति नहीं लेनी पड़ती तो पत्नि को ही क्यों इसकी अनुमति लेनी चाहिये, यह समझ में नहीं आता?
कुछ समय पहले एक फ़िल्म आयी थी "लक्ष्य" जिसमें प्रीति जिंटा जो पत्रकार का भाग निभा रहीं थी कुछ ऐसी ही बात कहती हैं अपने मँगेतर से जब वह उसे कारगिल जाने से रोकता है, और वह इस बात पर शादी तोड़ देतीं हैं. परदे पर जो भी ही, असली जीवन में शायद ऐसा कम ही होता हो. यह भी सच है कि विषेशकर छोटे शहरों में और गावों में, आज भी नयी बहु को कुछ भी करने के लिए सास ससुर या पति की अनुमति चाहिये, पर क्या एश्वर्या जैसी लड़की के साथ यह हो सकता है?
फ़िल्मों में और सच के जीवन में यही फर्क होता है. यह सोच कर कि पढ़े लिखे परिवार से हैं, विदेश में पढ़े हैं, फ़िल्मों में उदारवादी और अन्याय से लड़ने वाले पात्रों का भाग निभाते हैं तो हम लोग सोचने लगते हैं कि शायद व्यक्तिगत जीवन में भी ऐसे ही हों. यही भ्रम है, सच और परदे के जीवन का!
भारतीय पारम्परिक सोच के अनुसार लड़की का अपना कोई महत्व नहीं, वह शादी से पहले अपने पिता की होती है और शादी के बाद अपने पति की. शहरों में इस तरह की पाराम्परिक सोच से ऊपर उठने की कोशिश की जा रही है, पर इस प्रश्न से लगता है कि लड़कियाँ अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व बना सकें इसमें अभी बहुत सा काम करना बाकी है, वरना प्रतिष्ठित, संवेदनशीन फिल्में बनाने वाले इस तरह का प्रश्न पूछ पाते? जिससे वह प्रश्न कर रहे हैं उसके दादा प्रसिद्ध कवि थे, नाना जाने माने पत्रकार, माता पिता तो प्रसिद्ध हैं ही. और जिस लड़की की बात हो रही है वह कोई सामान्य युवती नहीं, मिस वर्ल्ड रह चुकी हैं, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जानी पहचानी अभिनेत्री हैं. अगर इन सब के बाद इस तरह का प्रश्न पूछा जा सकता है तो आप सोचिये कि साधारण युवतियों के लिए यह सोच कैसे बदलेगी?
शायद इस तरह का प्रश्न इस लिए पूछा गया क्योंकि पिछले दिनो में बच्चन राय विवाह के सम्बंध में आने वाले बहुत से समाचार पुराने दकियानूसी तरह के हैं जैसे कुण्डियाँ मिलवाना, मंदिरों में कन्या के माँगलिक होने के बुरे प्रभाव को हटाने के लिए पूजा करवाना और उसकी पेड़ से शादी करवाना? यानि कि जब सब कुछ पाराम्परिक सोच में है तो विवाह होने के बाद ऐश्वर्या के भविष्य की बात भी पाराम्परिक ही होनी चाहिये और इसलिए उन्हें विवाह के बाद काम करने के लिए पति की अनुमति चाहिये?
पर क्या जब हरिवँशराय बच्चन ने तेजी जी से प्रेमविवाह किया था तो क्या कुण्डली मिलवा कर किया था? या अमिताभ बच्चन ने जया भादुड़ी से विवाह के लिऐ कुण्डली मिलवायी थी? उनकी जो जनछवि है उसको सोच पर तो यह नहीं लगता पर शायद उस ज़माने में प्रेस इस तरह की बातों में इतनी दिलचस्पी नहीं लेती थी और शायद वह सभी इस तरह की परम्पराओं में विश्वास करते थे?
मैं यह नहीं कहता कि सभी युवतियों को विवाह के बाद काम करना चाहिये. पति और पत्नी दोनों काम करें या उनमें से कोई एक घर पर रहे, यह उनका आपस का निर्णय हो सकता है, उनकी अपनी इच्छा या आर्थिक परिस्थिति पर निर्भर हो सकता है. पर अगर पति को विवाह के बाद काम के लिए पत्नी की अनुमति नहीं लेनी पड़ती तो पत्नि को ही क्यों इसकी अनुमति लेनी चाहिये, यह समझ में नहीं आता?
कुछ समय पहले एक फ़िल्म आयी थी "लक्ष्य" जिसमें प्रीति जिंटा जो पत्रकार का भाग निभा रहीं थी कुछ ऐसी ही बात कहती हैं अपने मँगेतर से जब वह उसे कारगिल जाने से रोकता है, और वह इस बात पर शादी तोड़ देतीं हैं. परदे पर जो भी ही, असली जीवन में शायद ऐसा कम ही होता हो. यह भी सच है कि विषेशकर छोटे शहरों में और गावों में, आज भी नयी बहु को कुछ भी करने के लिए सास ससुर या पति की अनुमति चाहिये, पर क्या एश्वर्या जैसी लड़की के साथ यह हो सकता है?
फ़िल्मों में और सच के जीवन में यही फर्क होता है. यह सोच कर कि पढ़े लिखे परिवार से हैं, विदेश में पढ़े हैं, फ़िल्मों में उदारवादी और अन्याय से लड़ने वाले पात्रों का भाग निभाते हैं तो हम लोग सोचने लगते हैं कि शायद व्यक्तिगत जीवन में भी ऐसे ही हों. यही भ्रम है, सच और परदे के जीवन का!
शुक्रवार, फ़रवरी 09, 2007
रुकावटें
कुछ दिन पहले रवि ने एक टिप्पणी में लिखा थाः
कुछ ऐसा ही हाल मेरा अपना भी था. कंप्यूटर का मोनिटर अधिक करीब हो तो ऐनक उतार कर पढ़ने की कोशिश करता, कुछ दूर हो तो ऐनक लगाता, पर अपने ही चिट्ठे के अक्षर ठीक से नहीं दिखते थे. झँझट यह था कि इस चिट्ठे के टैम्पलेट के रंगों को कौन ठीक करे? जब छायाचित्रकार वाले फोटो चिट्ठे के रंग ठीक करने थे तो राम ने मदद की थी, दुबारा किसी से कहने में शर्म आ रही थी. फ़िर मन में सोचा कि इतना भी क्या कठिन होगा, कोशिश करके देखें. कुछ दिनों तक सारा खाली समय टेम्पलेट से छेड़खानी में बिताया और आखिरकार कल रात को लगा कि अब कुछ ठीक दिख रहा है.
इतनी मेहनत करनी पड़ी, पर कुछ संतोष भी है कि आखिरकार काम हो ही गया. यह तो आप लोग ही बता सकते हैं कि इस चिट्ठे के नये रुप में क्या कमियाँ रह गयीं हैं.
उम्र के साथ साथ इस तरह की परेशानियाँ बढ़तीं जातीं हैं. दिखता कम है, सुनता कम है, अधिक चलना पड़े तो भी मुश्किल, सीढ़ियाँ हों तो भी मुश्किल. और दुनिया है कि दिन ब दिन तेज़ गति से चलती जा रही है, या शायद यह अपना भ्रम है क्योंकि अपनी गति धीमी हो रही है!
पर यह सच है कि उम्र के साथ ही समझ में आता है जब विकलाँग लोग कहते हैं कि दुनिया हर तरफ़ से रुकावटों से भरी हुई है. विकलाँगता को हमेशा से व्यक्तिगत या पारिवारिक समस्या की तरह देखा जाता था. यानि अगर आप विकलाँग हैं तो इसका अर्थ है कि आप के शरीर में कोई कमी है और उस कमी को ठीक करने की कोशिश की जाये.
कुछ दशक पहले विकलाँग लोगों की संस्थाओं ने एक दूसरा दृष्टिकोण पेश किया. उनका कहना था कि विकलाँगता व्यक्ति के शरीर में नहीं समाज में होती है क्योंकि यह समाज केवल अविकलाँग, जवान लोगों के लिए सोचा और बना है. यह समाज अन्य सभी लोगों के लिए उनके आस पास कुछ रुकावटें खड़ी कर देता है जिनके कारण वह लोग जीवन में ठीक से भाग नहीं ले पाते. उनका कहना था कि इलाज व्यक्ति का नहीं, समाज में बिखरी इन रुकावटों का होना चाहिये.
इस सोच ने कुछ सामाजिक परिवर्तनों को प्रेरित किया है जैसे कि पटरी से चढ़ने उतरने के लिए ढलानें बनाना, सीढ़ियों के साथ रेम्प बनाना, लाल बत्ती पर अँधे लोगों के लिए ध्वनि वाला सिगनल बनाना, लिफ़्ट में विभिन्न मंज़िलों के नम्बर ब्रेल में भी लिखना, इत्यादि. इनका लाभ केवल विकलाँग लोगों को नहीं मिलता बल्कि सारे समाज को मिलता है. जैसे कि अगर पटरी पर चढ़ने उतरने के लिए ढलान है तो व्हीलचेयर को चलाने में आसानी तो होगी ही पर साथ ही, बच्चे के साथ जा रहे परिवारों को भी होगी, उन बूढ़ों को भी होगी जिनके घुटनों मे दर्द हो.
अंतर्जाल पर ही उतना ही आवश्यक है कि हम जाल स्थलों को इस तरह बनाये कि विभिन्न विकलाँग लोग भी उनका प्रयोग कर सकें.
पर बहुत सी बातें कहना आसान है पर करना कठिन. एक उदाहरण हमारे शहर बोलोनिया से. यहाँ की सरकार विकलाँग लोगों के बारे में बहुत सचेत है., पर कुछ समय पहले यहाँ निर्णय लिया गया कि बहुत सी चौराहों पर लाल बत्ती के बदले में गोल चक्कर बना दिया जायेंगे क्योंकि उससे यातायात अधिक तेज़ चलता है. अगर कारों, ट्रकों को चलने में फ़ायदा होगा और लाल बत्ती पर नहीं रुकना पड़ेगा तो प्रदूषण कम होगा और पेट्रोल का खर्चा भी. पर यह देखा गया है कि गोल चक्कर बनने से यातायात की गति तीव्र हो जाती है और पैदल चलने वालों और साईकल पर जाने वालों को अधिक कठिनाई होती है. विकलाँग, वृद्ध, गर्भवति स्त्रियाँ आदि लोगों को सड़क पार करने में और भी कठिनाई होती है.
तो किसका सोचे सरकार, यातायात का या पैदल चलने वालों का? मेरा बस चले तो पहले पैदल चलने वालों का सोचा जाये पर अगर आप सरकार में हों तो आप क्या फैसला करेंगे?
"साथ ही, मेरे जैसे 50 वर्ष की सीमा की ओर पहुँच रहे लोगों की आँखों में श्याम पृष्ठभूमि पर सफेद अक्षर तो दिखाई ही नहीं देता..."
कुछ ऐसा ही हाल मेरा अपना भी था. कंप्यूटर का मोनिटर अधिक करीब हो तो ऐनक उतार कर पढ़ने की कोशिश करता, कुछ दूर हो तो ऐनक लगाता, पर अपने ही चिट्ठे के अक्षर ठीक से नहीं दिखते थे. झँझट यह था कि इस चिट्ठे के टैम्पलेट के रंगों को कौन ठीक करे? जब छायाचित्रकार वाले फोटो चिट्ठे के रंग ठीक करने थे तो राम ने मदद की थी, दुबारा किसी से कहने में शर्म आ रही थी. फ़िर मन में सोचा कि इतना भी क्या कठिन होगा, कोशिश करके देखें. कुछ दिनों तक सारा खाली समय टेम्पलेट से छेड़खानी में बिताया और आखिरकार कल रात को लगा कि अब कुछ ठीक दिख रहा है.
इतनी मेहनत करनी पड़ी, पर कुछ संतोष भी है कि आखिरकार काम हो ही गया. यह तो आप लोग ही बता सकते हैं कि इस चिट्ठे के नये रुप में क्या कमियाँ रह गयीं हैं.
उम्र के साथ साथ इस तरह की परेशानियाँ बढ़तीं जातीं हैं. दिखता कम है, सुनता कम है, अधिक चलना पड़े तो भी मुश्किल, सीढ़ियाँ हों तो भी मुश्किल. और दुनिया है कि दिन ब दिन तेज़ गति से चलती जा रही है, या शायद यह अपना भ्रम है क्योंकि अपनी गति धीमी हो रही है!
पर यह सच है कि उम्र के साथ ही समझ में आता है जब विकलाँग लोग कहते हैं कि दुनिया हर तरफ़ से रुकावटों से भरी हुई है. विकलाँगता को हमेशा से व्यक्तिगत या पारिवारिक समस्या की तरह देखा जाता था. यानि अगर आप विकलाँग हैं तो इसका अर्थ है कि आप के शरीर में कोई कमी है और उस कमी को ठीक करने की कोशिश की जाये.
कुछ दशक पहले विकलाँग लोगों की संस्थाओं ने एक दूसरा दृष्टिकोण पेश किया. उनका कहना था कि विकलाँगता व्यक्ति के शरीर में नहीं समाज में होती है क्योंकि यह समाज केवल अविकलाँग, जवान लोगों के लिए सोचा और बना है. यह समाज अन्य सभी लोगों के लिए उनके आस पास कुछ रुकावटें खड़ी कर देता है जिनके कारण वह लोग जीवन में ठीक से भाग नहीं ले पाते. उनका कहना था कि इलाज व्यक्ति का नहीं, समाज में बिखरी इन रुकावटों का होना चाहिये.
इस सोच ने कुछ सामाजिक परिवर्तनों को प्रेरित किया है जैसे कि पटरी से चढ़ने उतरने के लिए ढलानें बनाना, सीढ़ियों के साथ रेम्प बनाना, लाल बत्ती पर अँधे लोगों के लिए ध्वनि वाला सिगनल बनाना, लिफ़्ट में विभिन्न मंज़िलों के नम्बर ब्रेल में भी लिखना, इत्यादि. इनका लाभ केवल विकलाँग लोगों को नहीं मिलता बल्कि सारे समाज को मिलता है. जैसे कि अगर पटरी पर चढ़ने उतरने के लिए ढलान है तो व्हीलचेयर को चलाने में आसानी तो होगी ही पर साथ ही, बच्चे के साथ जा रहे परिवारों को भी होगी, उन बूढ़ों को भी होगी जिनके घुटनों मे दर्द हो.
अंतर्जाल पर ही उतना ही आवश्यक है कि हम जाल स्थलों को इस तरह बनाये कि विभिन्न विकलाँग लोग भी उनका प्रयोग कर सकें.
पर बहुत सी बातें कहना आसान है पर करना कठिन. एक उदाहरण हमारे शहर बोलोनिया से. यहाँ की सरकार विकलाँग लोगों के बारे में बहुत सचेत है., पर कुछ समय पहले यहाँ निर्णय लिया गया कि बहुत सी चौराहों पर लाल बत्ती के बदले में गोल चक्कर बना दिया जायेंगे क्योंकि उससे यातायात अधिक तेज़ चलता है. अगर कारों, ट्रकों को चलने में फ़ायदा होगा और लाल बत्ती पर नहीं रुकना पड़ेगा तो प्रदूषण कम होगा और पेट्रोल का खर्चा भी. पर यह देखा गया है कि गोल चक्कर बनने से यातायात की गति तीव्र हो जाती है और पैदल चलने वालों और साईकल पर जाने वालों को अधिक कठिनाई होती है. विकलाँग, वृद्ध, गर्भवति स्त्रियाँ आदि लोगों को सड़क पार करने में और भी कठिनाई होती है.
तो किसका सोचे सरकार, यातायात का या पैदल चलने वालों का? मेरा बस चले तो पहले पैदल चलने वालों का सोचा जाये पर अगर आप सरकार में हों तो आप क्या फैसला करेंगे?
बुधवार, फ़रवरी 07, 2007
36 का आँकणा
एक तरफ़ से आधुनिक दुनिया इतनी जानकारी हम सबके सामने रख रही है जैसा इतिहास में पहले आम लोगों के लिए कभी संभव नहीं था, दूसरी ओर, अक्सर हम लोग उस जानकारी की भीड़ में खो जाते हैं और उसका अर्थ नहीं समझ पाते.
जब कोई कुछ भी जानकारी आप को देता है तो पहला सवाल मन में उठना चाहिये कि कौन है और किस लिए यह जानकारी हमें दे रहा है? शायद इस तरह से सोचना बेमतलब का शक करना लग सकता है पर अक्सर लोग अपना मतलब साधने के लिए बात को अपनी तरह से प्रस्तुत करते हैं. अगर राजनीतिक नेता हैं तो अपनी सरकार द्वारा कुछ भी किया हो उसे बढ़ा चढ़ा कर बतायेंगे और विपक्ष में हों तो उसी को घटा कर कहेंगे. अगर मीडिया वाले बतायें तो समझ में नहीं आता कि यह सचमुच का समाचार बता रहे हैं या टीआरपी के चक्कर में बात को टेढ़ा मेढ़ा कर के सुना दिखा रहे हैं. अगर व्यवसायिक कम्पनी वाला कुछ कह रहा हो तो विश्वसनीयता और भी संद्दिग्ध हो जाती है.
आँकणे प्रस्तुत करना भी एक कला है. एक ही बात को आप विभिन्न तरीकों से इस तरह दिखा सकते हैं कि देखने वाले पर उसका मन चाहा असर पड़े.
उदाहरण के लिए मान लीजिये कि आप किसी नयी परियोजना के गरीब लोगों पर पड़े प्रभाव के बारे में बता रहे हैं कि 2005 में 10 प्रतिशत लोग लाभ पा रहे थे, और 2006 में परियोजना की वजह से लाभ पाने वाले गरीब लोगों की संख्या 12 प्रतिशत हो गयी.
अगर आप इस परियोजना के विरुद्ध हैं तो आप इसे नीचे बने पहले ग्राफ़ से दिखा सकते हैं, जिसमें लगता है कि लाभ पाने वालों पर कुछ विषेश असर नहीं पड़ा.
अगर आप इस परियोजना के बनाने वाले या लागू करने वाले हें तो आप इसे नीचे दिये दूसरे ग्राफ़ जैसा बना कर प्रस्तुत कर सकते हैं, जिसमें लगता है कि परियोजना का असर अच्छा हुआ.
यानि दोनो ग्राफ़ों में बात तो एक ही है पर उसे पेश करने का तरीका भिन्न है और अगर ध्यान से न देखें तो उनका असर भी भिन्न पड़ता है.
अधिकतर लोग जैसे ही विभिन्न खानों (tables) में भरे अंक देखते हैं, उनकी समझ में कुछ नहीं आता. आँकणे पेश करने वाला जिस बात को बढ़ा कर दिखाना चाहता है उसे वैसे ही दिखाता है, और वही लोग प्रश्न उठा सकते हैं जिन्हें सांख्यिकीय विज्ञान (Statistics) की जानकारी हो. इसीलिए कहते हैं कि झूठ कई तरह के होते हैं पर साँख्यिकीय झूठ सबसे बड़ा होता है.
अगर आप को अंतर्राष्ट्रीय या राष्ट्रीय स्तर पर देशों के बीच और एक ही देश में विभिन्न सामाजिक गुटों के बीच अमीरी-गरीबी, स्वास्थ्य-बीमारी, आदि विषयों पर आकँणो को समझना है तो स्वीडन के एक वैज्ञानिक हँस रोसलिंग के बनाये अंतर्जाल पृष्ठ गेपमाईंडर को अवश्य देखिये. कठिन और जटिल आँकणों को बहुत सरल और मनोरंजक ढंग से समझाया है कि बच्चे को भी समझ आ जाये. रोसलिंग जी कोपीलेफ्ट में विश्वास करते हें और उनकी सोफ्टवेयर निशुल्क ले कर अपने काम के लिए प्रयोग की जा सकती है.
जब कोई कुछ भी जानकारी आप को देता है तो पहला सवाल मन में उठना चाहिये कि कौन है और किस लिए यह जानकारी हमें दे रहा है? शायद इस तरह से सोचना बेमतलब का शक करना लग सकता है पर अक्सर लोग अपना मतलब साधने के लिए बात को अपनी तरह से प्रस्तुत करते हैं. अगर राजनीतिक नेता हैं तो अपनी सरकार द्वारा कुछ भी किया हो उसे बढ़ा चढ़ा कर बतायेंगे और विपक्ष में हों तो उसी को घटा कर कहेंगे. अगर मीडिया वाले बतायें तो समझ में नहीं आता कि यह सचमुच का समाचार बता रहे हैं या टीआरपी के चक्कर में बात को टेढ़ा मेढ़ा कर के सुना दिखा रहे हैं. अगर व्यवसायिक कम्पनी वाला कुछ कह रहा हो तो विश्वसनीयता और भी संद्दिग्ध हो जाती है.
आँकणे प्रस्तुत करना भी एक कला है. एक ही बात को आप विभिन्न तरीकों से इस तरह दिखा सकते हैं कि देखने वाले पर उसका मन चाहा असर पड़े.
उदाहरण के लिए मान लीजिये कि आप किसी नयी परियोजना के गरीब लोगों पर पड़े प्रभाव के बारे में बता रहे हैं कि 2005 में 10 प्रतिशत लोग लाभ पा रहे थे, और 2006 में परियोजना की वजह से लाभ पाने वाले गरीब लोगों की संख्या 12 प्रतिशत हो गयी.
अगर आप इस परियोजना के विरुद्ध हैं तो आप इसे नीचे बने पहले ग्राफ़ से दिखा सकते हैं, जिसमें लगता है कि लाभ पाने वालों पर कुछ विषेश असर नहीं पड़ा.
अधिकतर लोग जैसे ही विभिन्न खानों (tables) में भरे अंक देखते हैं, उनकी समझ में कुछ नहीं आता. आँकणे पेश करने वाला जिस बात को बढ़ा कर दिखाना चाहता है उसे वैसे ही दिखाता है, और वही लोग प्रश्न उठा सकते हैं जिन्हें सांख्यिकीय विज्ञान (Statistics) की जानकारी हो. इसीलिए कहते हैं कि झूठ कई तरह के होते हैं पर साँख्यिकीय झूठ सबसे बड़ा होता है.
अगर आप को अंतर्राष्ट्रीय या राष्ट्रीय स्तर पर देशों के बीच और एक ही देश में विभिन्न सामाजिक गुटों के बीच अमीरी-गरीबी, स्वास्थ्य-बीमारी, आदि विषयों पर आकँणो को समझना है तो स्वीडन के एक वैज्ञानिक हँस रोसलिंग के बनाये अंतर्जाल पृष्ठ गेपमाईंडर को अवश्य देखिये. कठिन और जटिल आँकणों को बहुत सरल और मनोरंजक ढंग से समझाया है कि बच्चे को भी समझ आ जाये. रोसलिंग जी कोपीलेफ्ट में विश्वास करते हें और उनकी सोफ्टवेयर निशुल्क ले कर अपने काम के लिए प्रयोग की जा सकती है.
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