पढ़ कर कल्पना पर भारतीय लेखकों के बारे में अँग्रेजी और इतालवी भाषाओं में परिचय देने का जो काम करने का सोचा था, उसमें भी रेणु जी का बारे में लिख सकता हूँ, यह विचार भी मन में था. यह काम भी बहुत समय से अधूरा सा पड़ा है. मुझे लगता है कि अच्छा लेखक केवल अपनी भाषा के लोगों के बोलने वालों में जाना जाये और वृहद जगत में उसके बारे में कुछ भी न मालूम हो यह ठीक नहीं.
रेणु जी का नाम मेरे मानस में तीसरी कसम फ़िल्म और उसके हीरामन से जुड़ा है. उनकी कुछ किताबें, जैसा मैला आँचल और परती परिकथा पढ़े तीस पैंतीस साल हो गये थे. लड़कपन के अधकच्चे मन को कहानियाँ अच्छी अवश्य लगी थीं पर क्या कहानी थी उस सब की यादें धुँधलाई सी थीं.
"कलंक मुक्ति" की कहानी की नायिका है सुश्री बेला गुप्त, भारतीय स्वत्रंता संग्राम के जोश में गाँव छोड़ने वाली बेला गुप्त को अपने क्राँतीकारी साथी से धोखा और बलात्कार मिलता है. बेला गुप्त को शरण मिलती है अनपढ़ और साहसी मुनिया और उसकी बेटी रामरति से, और सहारा मिलता है रमला बैनर्जी से जो उसे कामकारी स्त्रियों के होस्टल में काम दिलवाती हैं. बेला गुप्त को अपने बीते जीवन का पश्चाताप करना है, वह जन साधरण की सेवा में जुट जाती हैं और निर्बल कमज़ोर युवतियों को सहारा देना ताकि वे शिक्षा के माध्यम से आत्मनिर्भर बन सकें, में जुट जाती हैं और इसके लिए किसी रिश्वतखोर या भ्रष्ट अफसर से जूझने से नहीं डरती. आँख की किरकिरी बेला गुप्त और उसकी निडर सहायिका रामरति को जेल मिलती है होस्टल में वेश्याघर चलाने और दवा के पैसे खाने के जुर्म में, और दलाली और अत्याचार करने वाले सरकारी अफसरों को कुछ नहीं होता. बेला गुप्त चुपचाप न्याय के इस अन्याय को स्वीकार रकती हैं, अपने बीते कल के पश्चाताप के लिए.
सारी कहानी को फ्लैशबैक में लिखा गया जब लेखक "अजीत भाई" की मुलाकात रात को रामरति से होती है जो बताती है कि वह और बेला गुप्त जेल से मुक्त हो गयीं हैं. अजीत भाई कौन हैं, बेला गुप्त से उनका क्या सम्बंध था यह बात उपन्यास में स्पष्ट नहीं होती. जेल से छूट कर बेला गुप्त और रामरति वेश्या बन गयीं है, प्रारम्भ के रामरति के बोलने से कुछ कुछ ऐसा लगता है पर यह बात भी स्पष्ट नहीं होती. जेल से निकल कर बेला गुप्त के पास जीवन यापन का कुछ और रास्ता नहीं था, यह बात पूरी किताब में बेला गुप्त के बनाये व्यक्तित्व से मेल नहीं खाती.
किताब छोटी सी है, कुल ११२ पन्ने (राजकमल पेपरबैक्स, मूल संस्करण का असंक्षिप्त रूप, पहला संस्करण १९८६) और कापीराइट है पद्मपराग राय रेणु का जो शायद रेणु जी के पुत्र थे. रेणु जी का देहांत १९७७ में हुआ था, यानि यह पैपरबैक्स संस्करण उनकी मृत्यु के ९ साल बाद प्रकाशित किया गया. एक बार पढ़नी शुरु की तो पूरी पढ़ कर ही दम लिया.
पुस्तक की सबसे सुंदर बात है उसकी भाषा जो शायद बिहार के उस भाग की भाषा है जहाँ रेणू जी रहते थे? भोजपुरी, मैथिली, अवधी, आदि भाषाओं में क्या अंतर है और इन सब भाषाओं को पहचानना मेरे बस की बात नहीं, पर उन्हें पढ़ना मुझे बहुत अच्छा लगता है, शायद क्योंकि इन भाषाओं में बचपन के कई रिश्तों की यादें छुपी हैं!
कई जगह शब्दों के ठीक अर्थ पूरी तरह समझ नहीं आते पर उन्हें ऊँची आवाज में पढ़ना बहुत अच्छा लगता है. जैसे उपन्यास से लिया यह हिस्साः
चंगेरी, झुमाई, निहुरी जैसे शब्द समझ नहीं आते है पर पढ़ने अच्छे लगते हैं. इसी तरह की भाषा का एक अन्य नमूना हैःजानकी देवी के उत्साहित करते ही वह गाने लगी, गुनगुनाकर. बेला गुप्त चुप खड़ी सुनती रही. ... गीत सुनते समय, एक ग्रामीण बालिका वधु की छवि उतर आयी आँखों के सामने. चंगेरी भर गेहूँ लेकर पीसने बैठी है चक्की पर. हमदर्द पड़ोसन पूछती है, "औ सुकुमारी! किस पत्थरदिल सास ने तुझे चंगेरी भर गेहूँ दिया है तौल कर, किस ननद ने तुझे अकेली नौ मन की चक्की चलाने को भेजा है. हाय हाय, चक्की का हत्था पकड़ कर, झुमाई हुई निहुरी सी, घूँघट के अंदर ही रोती है, छोटी गुड़िया जैसी दुलहिन...
के तोरा देलकउ सुन्दरि दस सेर गेहूँआ
के तोरा भेजलकउ एकसरि जँतसारे ना कि.
कौन रे निदरदो के तेहुँ रे पुतौहिया
कौन रे मुरुखवा पुरुखवा तोर भतार न कि
"हथड़ा" पकड़ि सुन्दरि झमरि...
गौरी बोली, "तो, सुरती सहुआइन ने तेरा क्या बिगाड़ा है, कुन्ती मौसी? ...हरिजन तो वह मुझे समझती है.यही बात मुझे रेणू जी की अच्छी लगती है, सुघड़ कथान्यास की संवेदना और भाषा का सौँधापन.
"मुझे मौसी पीसी मत कहे कोई."
"क्यों री गौरी. छोटी मेम के घर कोंहड़े के लत्तर की भाजी कैसी बनती है, सूखा या रसदार? छोटी मेम खुद बनाती है."
"उँहु! खुद नहीं बनाती है, बनाता है उनका वह डिब्बावाला ... क्या नाम है भला - कूकड़! सभी चीजें डाल देती है, एक साथ. और जब उतारती है तो भात अलग, दाल अलग, तरकारी अलग."