रविवार, मई 14, 2006

भूख

आजकल हर रोज़ अरुण की एक डाक्यूमेंट्री फिल्म देख रहा हूँ. अगले साल बोलोनिया के फिल्म स्कूल के साथ उसकी फिल्म का छोटा सा फेस्टिवल करने की बात हो रही है. उसके लिए चार या पाँच फिल्में चुननी हैं फिर उनके इतालवी भाषा में सबटाईटल्स बनाने पड़ेंगे.

आज देखा उसकी फिल्म १९९२ में बनी "राहत की आस में" (Waiting for a repreive) को. फिल्म मध्यप्रदेश के सतरा और रीवा जिलों में होने वाली बिमारी लैथरिसम के बारे में है. इस बीमारी का कारण है केसरी दाल जो इन जिलों में बोयी जाती है क्योंकि रूखी बँजर जमीन पर भी, थोड़े से पानी के साथ इसकी फसल उग जाती है. जहाँ अक्सर आकाल या सूखा पड़ता हो, वहाँ ऐसी फसल के बल पर ही गरीब लोग जी पाते हैं. अगर खाने में केसरी दाल की मात्रा बढ़ जाये तो खानेवालों की टाँगें अकड़ जाती हैं, धीरे धीरे बीमारी से प्रभावित लोग सीधे खड़े नहीं हो पाते और बिना डँडे के सहारे के चल नहीं सकते. और बढ़ जाये तो व्यक्ति सिर्फ घिसट घिसट कर चल सकता है.

बीमारी से बचने के तरीके हैं कि इस दाल को कम खाया जाये और अगर खानी ही पड़े तो उसे गर्म पानी में डुबो कर रखें ताकि उसका जहर निकल जाये. पर भूख से मारे लोगों के लिए दोनो बातें ही कठिन हैं. फिल्म के अंत में एक दृष्य है जिसमें एक स्त्री बैठी है, कातर स्वर में कहती है, "क्या करें, बच्चे भूख से बिलख रहे हों तो ? कभी दिन में एक बार ही खाने को मिलता है, कभी वह भी नहीं."

यह बीमारी सिर्फ भारत में ही नहीं होती. मध्य अफ्रीका के कई देशों में यह बीमारी मनिओक्का की जड़ खाने से भी होती है और उसे कहते हैं कोनज़ो. अप्रैल में जब मोज़ाम्बीक गया था वहाँ भी गाँव के लोगों ने यही उत्तर दिया था. भूख लगी हो तो कौन इंतजार करे कि दो दिन तक जड़ को पानी में डाल कर रखे ? "आज भूख से मरने से अच्छा है कि कल बीमारी से मरें." अगर बहुत अधिक खा लो जहरीली जड़ को तो लोग पेट दर्द और दस्त के साथ तड़प तड़प कर मरते हैं पर भूख के मारे खुद को रोक नहीं पाते.

एक बार ऐसी ही बात सुनी थी दक्षिण अफ्रीकी देश अँगोला में. "सुबह उठो तो पहली बात मन में आती है, आज क्या खायेंगे ? खायेंगे या नहीं ?"

ऐसी भूख क्या होती है, नहीं जानता. सोच कर ही डर सा लगता है.
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आज की तस्वीरें मोज़ाम्बीक यात्रा से.


6 टिप्‍पणियां:

  1. प्रेमलता पांडे14 मई 2006 को 9:48 am बजे

    महान आलोचक राम चंद्र शुक्ल ने लिखा है-
    "मोटे आदमियों तुम ज़रा से पतले हो जाते तो ना जाने कितनी सूखी हड्डियों पर मांस चढ़ जाता।"

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  2. खेसरी दाल (छत्तीसगढ़ी में लाखड़ी दाल)तो हमने भी बहुत खाई है. दरअसल छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश के कई इलाकों में इसे बोया जाता है. इसका स्वाद भी एक तरह से अच्छा ही होता है. इसका बेसन भी बनता है और आमतौर पर गांवों में इसी के भजिए बनते बिकते हैं.

    समस्या तब आती है जब इसकी रोटी बनाकर खाई जाती है. दरअसल यह बिना किसी ज्यादा देख भाल के ज्यादा उपज देती है इसीलिए धान के खेतों में इसे बो दिया जाता है. छत्तीसगढ़ में इसके पौधे के कोमल पत्ते की भाजी भी स्वाद से खाई जाती है जो बहुत ही सुस्वादु होती है. इसका कच्चा फल छोटे मटर की तरह होता है वह भी अच्छे स्वाद का होता है. मुझे ध्यान है, बचपन में हम खेतों में जाकर पेट भर कर यही कच्चे दाने खा लिया करते थे.

    परंतु समस्या लगातार, बिना उबाले खाने से होती है - जैसे कि रोटी - थोड़ी सी आंच में बन जाती है और इसका जहरीला पन दूर नहीं हो पाता. गरीबी और भुखमरी में कोई विकल्प भी तो नहीं होता.

    अभी भी सरगुजा के जंगली इलाकों में कंद-मूल खाकर आदिवासी अपना जीवन गुजारते हैं. नौकरी के अपने शुरूआती दिनों में मैं भी वहीं पोस्टेड था. हम लोग शौक से कंद-मूल खाया करते थे. एक कंद था जिसे झरने के बहते पानी में हप्ता दस दिन रखा जाता था ताकि उसका कड़वा पन निकल जाए - फिर उसे खाने पर उसका स्वाद बड़ा शानदार होता था. वहीं मैंने जंगली केले की प्रजाति भी खाई थी जो स्वाद में खट्टा होता था.

    अजीब बात यह है कि सरकार आदिवासी क्षेत्रों में करोड़ों रुपयों की परियोजनाएँ चलाती है, परंतु स्थिति में कोई खास परिवर्तन तो दिखाई ही नहीं देता.

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  3. खेसरी (लाखोडी) दाल तो हमने भी बचपन मे खुब खाई है, विशेषत: जब ये कच्ची होती है, इसके हरे दाने मटर से भी ज्यादा मिठे होते है।
    मैने ऐसे कई परिवार देखे है जो इसे सुबह शाम खाते है, लेकिन पूरी तरह स्वस्थ है।
    डा. शांतिलाल कोठारी, इस दाल पर से प्रतिबंध हटाने के लिये आंदोलन कर रहे है। उनके अनुसार ऐसा कोई प्रमाण नही है कि इस दाल से स्वास्थय पर कोई हानिकारक प्रभाव पढता है !

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  4. आषीश और रवि, खेसरी दाल पर अधिक जानकारी देने के लिए धन्यवाद.
    शायद आप के कहने का अर्थ है कि अगर ठीक से पकाया जाये तो इस दाल को खाने से शरीर को नुक्सान नहीं होता? डाक्यूमैंट्री में एक लेबोरेटरी का भी दृष्य था जिसमें वह दाल में सायनेट जैसे किसी पदार्थ की बात कर रहे थे जिससे शरीर के तंतुओं को हानि पहुँचती है. डाक्यूमेंट्री में यह भी कहा गया है कि बीमारी केवल गरीब घरों में ही दिखती है और वहाँ रहने वाले जमींदारों के घरो में नहीं पायी गयी.

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  5. मैंने पढ़ा था कि खेसरी दाल खाने से स्पाइनल फ़्लुइड में घाव हो जाते हैं जिससे लगतार इस दाल को खाने वाले को पैरालीसिस हो जाती है। शायद ये दाल अरहर दाल जैसी दिखती है और सस्ती होने की वजह से अरहर दाल के साथ मिलावट कर भी बेच देने की ख़बर सुनी थी। रवि जी, और जानकारी के लिये धन्यवाद।

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  6. सुनील जी, आपने जिले का नाम थोडा सा गलत कर दिया, यह सतना है न कि सतरा जैसा आपने लिखा

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"जो न कह सके" पर आने के लिए एवं आप की टिप्पणी के लिए धन्यवाद.

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