सोमवार, दिसंबर 03, 2007

दुनिया मुर्गीखाना

कामेरून के कामगार यूनियन के बरनार्ड न्जोंगा (Berbnard Njonga) ने मुर्गी युद्ध का पहला दौर जीता है और दुनिया में भूमँडलिकरण के विरुद्ध आवाज़ उठाने वालों के लिए उदाहरण बन गये हैं कि छोटे से गरीब देश का छोटा सा आदमी भी अगर चाहे तो बड़ी बहुदेशीय कम्पनियों को पछाड़ सकता है. यह कहानी पढ़ी जर्मन पत्रिका डेर श्पीगल (Der Spiegel) में.

न्जोंगा की लड़ाई को समझने के लिए विश्व मुर्गा व्यापार के पीछे छिपी आर्थिक और सामाजिक जड़ों को समझना पड़ेगा. यह जड़ें शुरु होती हैं उत्री अमरीका और यूरोप के विकसित देशों में जहाँ मुर्गी का माँस खाने का शौक तो है पर मुर्गी के शरीर के हर भाग की माँग बराबर नहीं है. यूरोप और अमरीका में सुपरमार्किट में मुर्गी की छाती का माँस सबसे अधिक बिकता है, तो बाकी बिना बिके हिस्सों का क्या किया जाये? मुर्गी का माँस बेचने वालों को केवल छाती के माँस बेचने से ही बहुत फायदा हो जाता है इसलिए वे मुर्गी के बचे हुए हिस्सों को कम कीमत पर बेचने के लिए तैयार हैं. इसलिए मुर्गी की विभिन्न हिस्सों को बाजार में उनकी माँग के हिसाब से विभिन्न देशों में निर्यात किया जाता है, यानि पँजे वियतनाम, थाईलैंड जैसे देशों का रास्ता पकड़ते हैं और टाँगे अफ्रीका जाती हैं.

यही हुआ कामेरुन में, जब दो तीन साल पहले उनकी सुपरमार्किट में यूरोप से सस्ती मु्रगी की टाँगे बिकने लगीं, रातों रात कामेरुन के मुर्गी उत्पादको की बिक्री कम हो गयी. लोगों ने बैंक से पैसा उधार ले कर मुर्गी पालने के फार्म लगाये थे, पर उनकी मुर्गियों की कीमत विदेश से आयात किये माँस से अधिक थी तो लोग उनका मँहगा माँस क्यों खरीदते?

कामेरून की राजधानी याउँडे के एक मु्र्गी फार्म वाले के कहने पर न्जोंगा ने इस बात की जाँच शुरु की यह समझने के लिए यह माँस कहाँ से आता है, किसका फायदा हो रहा है. पहले कस्टम वालों को घूस दे कर उन्होंने कागज निकलवाये और देखा कि 70 प्रतिशत आयात होलैंड की एक कम्पनी से हो रहा था. फ़िर उन्हें शक हुआ कि इतनी दूर से यह माँस कैसे लाया जाता है, क्या इसे हमेशा ठँडी जगह रखने की सहूलियतें हैं और क्या माँस में कुछ खराबी तो नहीं. इसके लिए उन्होंने माँस की एक स्थानीय लेबोरेटरी से जाँच करायी, हालाँकि लेबोरेटरी वालों ने पूरी रिपोर्ट देने से इन्कार कर दिया क्योंकि इस आयात के पीछे कुछ नेता थे, फ़िर भी न्याँगा यह जानने में सफल रहे कि उस माँस में बेक्टीरिया की मात्रा अधिक थी.

इस सब जानकारी के आधार पर न्यांगा ने साथियों के साथ मिल कर पर्चे छपवाये और जनता में बाँटने लगे, सभाएँ की और लोगों को बताया कि किस तरह से कुछ लोग अपने लाभ के लिए इस माँस का आयात करवा रहे थे जिसमें बीमारियाँ फैलने की भी आशंकाएँ थीं. कोई न्जोंगा की बातों को गलत नहीं कह सकता था क्योंकि उसके पास सारे सबूत थे. जब इस बारे में जन असंतोष बढ़ा तो राष्ट्रपति को कहना ही पड़ा कि यह आयात बंद कर दिया जायेगा और आयातित माँस पर कर लगया गया जिससे उसकी कीमत स्थानीय माँस से अधिक हो गयी और न्जोंगा यह मुर्गी युद्ध जीत गये. बड़े कामरुन के बड़े नेताओं के साथ हारने वाला यूरोप भी है जो सब कुछ जान कर भी अपने उत्पादकों और कृषकों को बढ़ावा देता है कि अपने उत्पादन कम कीमत पर गरीब देशों में भेज कर वहाँ की आर्थिक स्थिति में तूफान मचा दें.

1 टिप्पणी:

  1. घटिया माल के निर्यात के विषय में यह दृष्टांत सही और तर्क संगत है। पर अगर सामान स्तर का और सस्ता हो तो लोकल प्रोडक्शन को केवल प्रोटेक्शन देने के लिये निर्यात पर प्रतिबन्ध सही नहीं होगा।

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