गुरुवार, अगस्त 06, 2015

एक अकेला बूढ़ा

भारत की जनसंख्या में बदलाव आ रहा है, बूढ़ों की संख्या बढ़ रही है. अधिक व्यक्ति, अधिक उम्र तक जी रहे हैं. दूसरी ओर परिवारों का ध्रुविकरण हो रहा है. आधुनिक परिवार छोटे हैं और वह परिवार गाँवों तथा छोटे शहरों से अपने घरों को छोड़ कर दूसरे शहरों की ओर जा रहे हैं. जहाँ पहले विवाह के बाद माता पिता के साथ रहना सामान्य होता था, अब बहुत से नये दम्पत्ती अलग अपने घर में रहना चाहते हैं.

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कैसा जीवन होता है भारतीय वृद्धों का?

पिछले वर्ष मैं साठ का पूरा हुआ और सरकारी योजनाओं के लिए "वरिष्ठ नागरिक" हो गया. अपनी साठवीं वर्षगाँठ पर मैंने इटली में अपने परिवार से दूर, कुछ सालों के लिए भारत वापस आ कर अकेला रहने का निर्णय लिया.

मेरे अकेले रहने के निर्णय और भारत के आम वृद्ध व्यक्ति की स्थिति में बहुत दूरी है. यह आलेख बूढ़े होने, अकेलेपन, निस्सहाय महसूस करना, इन्हीं बातों पर मेरे व्यक्तिगत अनुभव को समाजिक परिवर्तन के साथ जोड़ कर देखने की कोशिश है.

इस आलेख की तस्वीरें गुवाहाटी के इस वर्ष के अम्बाबाशी मेले से बूढ़े साधू, साध्वियों और तीर्थ यात्रियों की हैं.

विवाह की वर्षगाँठ

पिछले रविवार को मेरे विवाह की तेंतिसवीं सालगिरह थी. उस दिन नींद सुबह के साढ़े तीन बजे ही खुल गयी. वैसे तो जल्दी उठने की आदत है मुझे, पर इतनी जल्दी नहीं. अधिकतर चार-साढ़े चार बजे के आसपास उठता हूँ. एक दिन पहले सोचा था कि इस बार की विवाह एनीवर्सरी को रोटी बना कर मनाऊँगा. काम से बाद घर वापस आते समय बाज़ार से आटा और बेलन दोनो खरीद कर ले आया था. शायद रोटी बनाने की चिन्ता या उत्सुकता ने ही जल्दी जगा दिया था?

मेरी पत्नी का फोन आया. "तुम विवाह की वर्षगाँठ मनाने के लिए क्या करोगो?", उसने पूछा. "रोटी बनाऊँगा", मैंने कहा तो वह हँसने लगी.

गुवाहाटी में रहते हुए करीब आठ महीने हो चुके हैं. सुबह क्या करना है, इसकी भी नियमित दिनचर्या सी बन गयी है. उठते ही, सबसे पहले शरीर के खुले हिस्सों पर मच्छरों से बचने वाली क्रीम लगाओ. फ़िर बल्ड प्रेशर की गोली खाओ. उसके बाद कॉफ़ी तथा नाश्ते का सीरियल बनाओ. जब तक कॉफ़ी पीने लायक ठँडी हो और कम्यूटर ओन हो तब तक थोड़ी वर्जिश करो.

सुबह उठ कर ध्यान करूँगा, यह कई महीनों से सोच रहा हूँ. लेकिन आँखें बन्द करके पाँच मिनट भी नहीं बैठ पाता हूँ. कहने को अकेला हूँ, समय की कमी नहीं होनी चाहिये, लेकिन ठीक से ध्यान करने के लिए समय निकालना अभी तक नहीं हो पाया. और भी बहुत सी बातें हैं जिनको करने के सपने देखे थे, पर जिन्हें करने का अभी तक समय नहीं खोज पाया - असमी बोलना सीखना, संगीत की शिक्षा लेना, चित्रकारी करना, नियमित रूप से लिखना, आदि.

सारा दिन तो काम में निकल जाता है. मैं यहाँ गुवाहाटी में एक गैर सरकारी संस्था "मोबिलिटी इँडिया" के लिए काम कर रहा हूँ.ऊपर से घर के काम अलग. कितनी भी कोशिश कर लूँ, उन्हें पूरा करना कठिन है. झाड़ू, पोचा, कपड़े धोना, बाज़ार जाना, खाना बनाना, बर्तन साफ़ करना, कपड़े प्रेस करना, मकड़ी के जाले हटाना, खिड़कियों के शीशे साफ़ करना, बिखरे कागज़ सम्भालना, कूड़ा फैंकना, और जाने क्या क्या! यह सब काम एक दिन में पूरे नहीं हो सकते. इसीलिए अभी तक टीवी भी नहीं खरीदा. सोचा कि वैसे ही समय नहीं मिलता, अगर टीवी देखने में लग गया तो बाकी के सब कामों को कौन करेगा?

भारत आने के बाद अकेला रहते रहते, धीरे धीरे सब खाना बनाना सीख चुका हूँ. बस अब तक कभी रोटी नहीं बनायी थी. मार्किट में बनी बनायी रोटियाँ मिलती हैं जिन्हें फ्रिज़र में रख सकते हैं और आवश्यकतानुसार गर्म कर सकते हैं. पर इधर दो-तीन बार मार्किट गया था लेकिन बनी बनायी रोटी नहीं मिली. दुकान में केवल पराँठे थे जो मुझसे ठीक से हज़म नहीं होते. फ़िर सोचा कि जिस तरह से बाकी सब खाना बनाना आ गया है तो रोटी बनाने में क्या मुश्किल होगी? बस इस शुरुआत के लिए किसी शुभ दिन की प्रतीक्षा थी. और विवाह की वर्षगाँठ से अच्छा शुभदिन कौन सा मिलता!

रविवार की सारी सुबह रसोई में गुज़री. रेडियो से गाने सुनता रहा और साथ साथ खाना बनाता रहा. जब थोड़ी गर्मी लगी, तो फ्रिज में ठँडी बियर इसीलिए रखी थी. शायद बियर का ही असर था कि जब कोई पुराना मनपसंद गाना आता तो खाना बनाते बनाते थोड़े नाच के ठुमके भी लगा लिए. जब कोई देख कर हँसने वाला न हो, तो जो मन में आये उसे करने से कौन रोकेगा?

तीन घँटों की मेहनत के बाद, उस दिन के खाने में केवल दाल ही सही बनी. रोटियाँ भी कुछ सूखी सूखी सी बनी थीं और आकार में ठीक से गोल भी नहीं थीं. पर अपनी मेहनत का बनाया खाना था, उसे बहुत आनन्द से खाया. मन को दिलासा दिया कि अगली बार रोटी भी अच्छी बनेगी!

यही सपना देखा था मैंने, भारत आ कर ऐसे ही रहने का. जहाँ तक हो सके, अपना हर छोटा बड़ा काम अपने आप करने का. जितना हो सके पैदल चलने का या सामान्य लोगों की तरह बस में यात्रा करने का.

वैसे सच में मेरा एक सपना यह भी था कि एक साल तक भगवा पहन कर, दाढ़ी बढ़ा कर, बिना पैसे के, भारत में इधर उधर भटकूँ. अगर कोई खाने को दे या सोने की जगह दे दे, तो ठीक, नहीं मिले तो भूखा ही रहूँ, सड़क के किनारे सो जाऊँ. पर जोगी बन कर जीने के उस सपने को जी पाने का साहस अभी तक नहीं जुटा पाया हूँ.

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यूरोप में रह कर आराम से जीना, काम के लिए विभिन्न देशों में घूमना, बड़े होटलों में तरह तरह के खाने खाना, सारा जीवन वैसे ही जिया था. इसीलिए मेरा सपना था कि भारत आ कर उस सब से भिन्न जीवन जियूँ. सपने देखना तो आसान है, सच में उन्हें जीना कठिन. सपनों में न मच्छर होते हैं, न गर्मी और उमस. पर मैंने जो सोचा था उसे मैं कर पाया. अब भी कभी कभी विश्वास नहीं होता कि मैं अपना सपना जी रहा हूँ.

वैसे गुवाहाटी में जिस तरह रहने का निर्णय लिया है, वह उतना कठिन नहीं है. यहाँ अम्बुबाशी के मेले में बहुत से बूढ़े साधू दिखे. सोचा कि खुले में रहने वाले यह वृद्ध लोग जब तबियत खराब हो तो क्या करते होंगे? शायद अन्य साधू ही उनका ख्याल करते होंगे? और बुखार हो या जोड़ों में दर्द हो तो खुले में गर्मी, सर्दी में बाहर रहना कितना कठिन होता होगा!

अकेला निस्सहाय बूढ़ा

रविवार को ही सुबह इंटरनेट पर एक नयी तमिल फ़िल्म की समीक्षा पढ़ी थी, जिसका अकेला वृद्ध नायक अपने अकेलेपन से बचने के लिए दिल का दौरा पड़ने का बहाना करता है ताकि एम्बूलैंस के चिकित्साकर्मियों से ही कुछ बात कर सके. उसे पढ़ कर सोच रहा था कि मैं भी तो एक अकेला बूढ़ा हूँ, तो मुझमें और उन अन्य बूढ़ों में क्या अन्तर है जो जीवन के आखिरी पड़ाव में खुद को अकेला तथा निस्सहाय पाते हैं? मैं स्वयं को क्यों अकेला तथा निस्सहाय नहीं महसूस करता?

शायद सबसे बड़ा अन्तर है कि मैंने यह जीवन स्वयं चुना है. अगर मेरा गुवाहाटी में ट्राँसफर हो गया होता, मुझे यहाँ अकेले रहने आना पड़ता, तो मुझे भी यहाँ रहना भारी लगता. जब परिवार से दूर रहना पड़े, करीब में न कोई बात करने वाला हो, न कोई मित्र, तो वह अकेलापन सहन करना कठिन हो सकता है. पर जब इस तरह जीने का सपना देखा हो और सोच समझ कर यह निर्णय लिया हो कि मैं कुछ वर्षों तक ऐसे ही रहूँगा, तो जीवन की हर बात देखने की दृष्टि बदल जाती है. खाना बनाना, सफाई करना, बस की भीड़ में धक्के खाना, सब कुछ एक सपने का हिस्सा हैं, अपने आप से स्पर्धा हैं कि मैं यह कर सकता हूँ या नहीं. इसमें किसी की जबरदस्ती नहीं है.

यह भी सच है कि मैं यह जीवन जीने के लिए मजबूर नहीं हूँ. जिस दिन चाहूँ, इसे छोड़ कर अपने पुराने जीवन में वापस जा सकता हूँ. बीच बीच कुछ दिनों के लिए यूरोप गया भी हूँ. अगर सामने कोई विकल्प न हो, केवल ऐसा ही जीने की मजबूरी हो तो शायद मुझे भी इससे डिप्रेशन हो जाये?

रिटायर होने में "अब समय का क्या करें" का भाव भी होता है. अचानक दिन लम्बे, निर्रथक और खाली हो जाते हैं. मेरे साथ यह बात भी नहीं. काम, किताबें पढ़ना, लिखना, इन्टरनेट, फोटोग्राफ़ी, जो सब कुछ मैं करना चाहता हूँ उसके लिए दिन थोड़े छोटे पड़ते हैं. लेकिन अगर आप ने अपना सारा जीवन अपने काम के आसपास लपेटा हो, और एक दिन अचानक वह काम न रहे, तो जीवन की धुरी ही नहीं रहती. लगता है कि हम किसी काम के नहीं रहे. औरतों पर तो फ़िर भी घर की ज़िम्मेदारी होती है, रिटायर हो कर भी वह उन्हीं की ज़िम्मेदारी रहती है. लेकिन मेरे विचार में सेवानिवृत पुरुषों को नया जीवन बनाना अधिक कठिन लगता है.

शायद बूढ़े होने में, निस्सहायता के भाव के पीछे सबसे बड़ी मजबूरी गरीबी या पैसा कम होने की है. और एक अन्य बड़ी बात शरीर के कमज़ोर होने तथा बीमारी की है. अगर अचानक कुछ बीमारी हो जाये, या शरीर के किसी हिस्से में दर्द होने लगे, या केवल बुखार ही आ जाये, तो शायद मैं भी वैसा ही निस्सहाय महसूस करूँगा!

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हमारे जीवन का अंत कैसे होना है, यह किसी को नहीं मालूम. कुछ दिन पहले जब भूतपूर्व राष्ट्रपति डा. अब्दुल कलाम साहब का देहाँत हुआ तो मन में आया कि मृत्यू हो तो ऐसी, जीवन के अंतिम क्षण तक काम करते करते आने वाली. वह भी तो अकेले ही थे, क्या उन्होंने अपने आप को कभी निस्सहाय बूढ़ा महसूस किया होगा?

हम लोग बढ़ापे को जीवन से भर कर जीयें या निस्सहाय बूढ़ा बन कर अकेलेपन और उदासी में रहें, क्या यह सब केवल नियती पर निर्भर करता है? अधिकतर लोगों के पास मेरी तरह से अपना जीवन चुनने का रास्ता नहीं होता. पैसा न हो, पैंशन न हो, स्वतंत्र जीने के माध्यम न हों तो चुनने के लिए कुछ विकल्प नहीं होते. और अगर बीमारी या दर्द ने शरीर को मजबूर कर दिया हो तो अकेले रहना कठिन है.

दुनिया के विभिन्न देशों में पिछले कुछ दशकों में जीवन आशा की आयू बढ़ी है. भारत में भी यही हो रहा है. इसलिए आज समय रहते स्वयं से यह प्रश्न पूछना कि बूढ़ा होने पर कैसे रहना चाहूँगा तथा इसकी तैयारी करना, बहुत आवश्यक हो गये हैं.

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1947 में जब भारत स्वतंत्र हुआ था, आम औसत भारतीय केवल 31 वर्ष तक जीने की आशा करता था, आज औसत जीवन की आयू करीब 68 वर्ष है. हर वर्ष हमारे देश में 75 वर्ष से अधिक आयू वाले लोगों की संख्या बढ़ रही है. पर हमारा सामाजिक ढाँचा नहीं बदला. जब थोड़े से लोग वृद्ध होते थे और परिवार बड़े होते थे, उनको आदर देना और ऐसी सामाजिक सोच बनाना जिसमें परिवार अपने वृद्ध लोगों की देखभाल खुद करे, आसान थे. आज परिवार छोटे हो रहे हैं और वृद्ध लोग अधिक, तो बूढ़े माता पिता की उपेक्षा, उनके प्रति हिँसा या उदासीनता, सब बातें बढ़ रही हैं.

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अगले दशकों में बूढ़ों की संख्या और बढ़ेगी. दसियों गुना बढ़ेगी. हमारे परिवेश में लोग अपने बुढ़ापे की किस तरह से देख भाल करें, इसके लिए सरकार और गैर सरकारी संस्थाओं को सोचना पड़ेगा. लेकिन सबसे अधिक आवश्यक होगा कि हम लोग स्वयं सोचे कि उस उम्र में आ कर किस तरह हम अधिक आत्मनिर्भर बनें, किस तरह से अपने जीवन के निर्णय लें जिससे अपना बुढ़ापा हम अपनी इच्छा से बिता सकें, और जीवन के इस अंतिम पड़ाव में वह सब कुछ कर सकें जो हमारे मन चाहे.

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सबके पास ऐसे साधन नहीं होते कि वह जीवन के अंतिम चरण में जैसा रहना चाहते हैं इसका चुनाव कर सकें. पर हमारे समाज को इस बारे में सोचना पड़ेगा.

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बूढ़ा होने पर दिखना सुनना कम होना, जोड़ों में दर्द होना, ब्लड प्रेशर या मधुमेह जैसी बीमारियाँ होना, सब कुछ अधिक होता है. इनका सामना करने के लिए कई दशक पहल पहले तैयारी करनी पड़ेगी. कहते हैं कि भारत जवान देश है, हमारे यहाँ जितने युवा हैं उतने किसी अन्य देश के पास नहीं. लेकिन साथ साथ, हमारे यहाँ जितने वृद्ध होंगे, वह भी किसी अन्य देश के पास कठिनाई से होंगे.

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आप ने क्या कभी बूढ़े होने के बारे में सोचा है? कैसे रहने का सोचा आपने और कितनी सफलता मिली आप को? स्वयं को आप खुशनसीब बूढ़ा मानते हैं या निस्साह बेचारा बूढ़ा? या शायद आप सोचते हें कि अभी तो बुढ़ापा बहुत दूर है और फ़िर कभी सोचेंगे इसके बारे में?

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18 टिप्‍पणियां:

  1. सोचने पर मजबूर करती है आप की लेखनी

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    1. शिव, अगर मेरे लिखने से आप को कुछ नया करने की प्रेरणा मिले, इससे बढ़ कर मेरे लिए सुखद बात क्या हो सकती है! धन्यवाद

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  2. समय बदलता है तो नियम भी बदलते हैं समाज के ! रहने के , समझने के ! और जब ये नियम लगातार दिखाई देते हैं तो एक स्थाई परिवर्तन होने लगता है ! ये जीवन का नियम है ! बेहतरीन पोस्ट लिखी है आपने ! आज आपके विषय में पूरा पढ़ा ! डॉक्टर और एक आर्टिस्ट और लेखक , बहुत कुछ है आपमें ! बहुत बहुत धन्यवाद आपका

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    1. योगी, चिट्ठा पढ़ने वालों की टिप्पणियाँ पढ़ कर भी उनसे जानपहचान भी बन जाती है. किसी का क्या अच्छा लगता है, क्यों अच्छा लगता है, उसे जानने का माध्यम है. पिछले कुछ सप्ताहों से आप मेरे चिट्ठों को पढ़ रहे हैं, अक्सर उनकी सराहना करते हैं, इसके लिए आप को बहुत धन्यवाद :)

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  3. आपने लिखा है -

    बूढ़ा होने पर दिखना सुनना कम होना, जोड़ों में दर्द होना, ब्लड प्रेशर या मधुमेह जैसी बीमारियाँ होना, सब कुछ अधिक होता है. इनका सामना करने के लिए कई दशक पहल पहले तैयारी करनी पड़ेगी.

    परंतु हम सब इन समस्याओं की ओर आंखें फेर कर पड़े रहते हैं. बुढ़ापा उतना दुखदायी नहीं है, बल्कि बुढ़ापा जन्य बीमारियाँ स्वयं व परिवार के लिए ज्यादा दुखदायी होती हैं.

    आप अपने मन की थोड़ी ही सही जी लेते हैं, तो वह अद्भुत है.

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    1. धन्यवाद रवि. मैं भी यही मानता हूँ कि बहुत खुशकिस्मत हूँ जो मुझे अपनी इच्छा पूरी करने का मौका मिला!

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  4. यदि शरीर स्वस्थ है और पैसा पास है, परिवार के सभी सदस्य ठीक-ठाक हैं तो बुढ़ापा मज़े से कटता है। कुछ सकारात्मक शौक हो और कार्य करने की इच्छा हो तो बुढ़ापा भार नहीं लगता, परंतु जीवन में किसी भी कारण आई निराशा सारे सुख छीन लेती है।
    साधु -सन्यासी बनना - ऐसा सोचना अच्छा लगता है पर यूँ बेघर रहना शायद मजबूरी होती होगी, वरना सन्यासी भी बड़े सुख-सुविधाओं में रहते हैं :-)

    आपने गुवाहाटी शहर ही क्यों चुना?

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    1. प्रेमलता जी, वैराग्य केवल मजबूरी हो मैं यह नहीं मानता, मेरे विचार में स्वेच्छा से साधू बनने वाले लोग भी होंगे.

      गुवाहाटी आने से पहले मैं हिमाचल प्रदेश से ले कर छत्तीसगढ़ तक बहुत जगह घूमा पर मन में कहीं रुकने की भावना नहीं आयी. जिस दिन गुवाहाटी पहुँचा अगले दिन सुबह सुबह एक ताल से बतखों के झुँड को निकल पर सड़क पर चलते देखा, कुछ देर तक उन बतखों के पीछे चला, लगा मानो उनका गड़रिया हूँ, और सोचा कि भगवान ने संकेत भेजा है, बस यह शहर भा गया! :)

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  5. Sir,
    I regularly wait and then read your posts.Web dialectics can confirm this as to who clicks most on your web link.Right now i am reasonably satisfied with my life at the age of 49,with good family life and stable income.I am unable to understand why on earth anyone who is reasonably happy would like to spend a solitary life like yours.You never seem to evade or lie as your posts suggest.Pls enlighten if possible.I really want to meet you also.

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    1. Thanks Rajesh for reading my writings and for sharing your thoughts. I think that each one of us follows different life paths and the life choices of another person may not be so easy to understand. My life choice was not to lead a solitary life but was rather to stay and work in India for those who are margianlized. It had to be solitary since my wife did not want to live this life, so the solitary life is a side-effect of other choices! :)

      However, I find the experience of solitary life very instructive. I would give it up gladly if my wife can come to stay with me, but since I have to undergo it, I can see its merits! :)

      If you ever come to Guwahati, it will be nice to meet you.

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    2. Sir,Your answer made me understand your perspective and induced me to think of living a part of life on similar lines.I am not very sure if i will be able to do so but a kind of fire is definitely kindled.More, when i get the opportunity to see you in person.Regards,

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    3. जोदि तोमार डाक शुनेर केउ न आछे तोबे एकला चलो रे - best of luck for finding your own path of life :)

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  6. सुन्दर रचना ......
    मेरे ब्लॉग पर आपके आगमन की प्रतीक्षा है |

    http://hindikavitamanch.blogspot.in/
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  7. सच बताऊं सुनील जी पोस्‍ट का आकलन और साधुओं के चित्र देखकर लगा कि इसमें आपने जीवन दर्शन उकेरा होगा, लेकिन जीवन दर्शन मेरे सोचे गए अनुसार न सही, वृद्ध लोगों के एकान्‍तवास और उससे उपजनेवाली समस्‍याओं के सन्‍दर्भ में तो था ही, यह पढ़कर अच्‍छा लगा। सच में इस दिशा में कुछ क्रान्तिकारी परिवर्तन होने चाहिए। कुल मिलाकर बहुत अच्‍छा चिंतन प्रस्‍तुत किया आपने। और आजकल कहां हैं। क्‍या भारत में ही। बीयर पीकर ठुमके जरूर लगाते रहें, शायद आपको अपने रचनात्‍मक रास्‍ते खोजने में और कारगर हो यह गतिविधि।

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    1. धन्यवाद विकेश जी. अभी भी गुवाहाटी में ही हूँ, लेकिन दुर्भाग्य से बीयर पी कर ठुमके लगाने वाली बात नहीं रही! कभी फ़र इसके बारे में लिखूँगा कि क्यों हुआ ऐसा! :)

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