उनकी बात सुन कर मैं भी इसके बारे में सोचने लगा। मुझे वीडियो बनाने की बीमारी नहीं है, कभी कभार आधे मिनट के वीडियो खींच भी लूँ, पर अक्सर बाद में उन्हें कैंसल कर देता हूँ। लेकिन मुझे भी फोटो खींचना अच्छा लगता है।
तो प्रश्न उठता है कि यह फोटो और वीडियो जो हम हर समय, हर जगह खींचते रहते हैं, यह अंत में कहाँ जाते हैं?
क्लाउड पर तस्वीरें
कुछ सालों से गूगल, माइक्रोसोफ्ट आदि ने नयी सेवा शुरु की है जिसमें आप अपनी फोटो और वीडियो अपने मोबाईल या क्मप्यूटर में रखने के बजाय, अपनी डिजिटल फाइल की कॉपी "क्लाउड" यानि "बादल" पर रख सकते हैं। शुरु में यह सेवा निशुल्क होती है लेकिन जब आप की फाईलों का "भार" एक सीमा पार लेता है तो आप को इस सेवा का पैसा देना पड़ता है।
शुरु में लगता था कि डिजिटल जगत में काम करने से हम प्रकृति को बचा सकते हैं। जैसे कि चिट्ठी लिखने में कागज़, स्याही लगेगें, उन्हें किसी को भेजने के लिए आप को उस पर टिकट लगाना पड़ेगा, पोस्ट करने जाना पड़ेगा, आदि। डिजिटल होने से फायदा होगा कि आप कम्प्यूटर या मोबाईल पर ईमेल या एस.एम.एस. या व्हाटसएप कर दीजिये, इस तरह आप प्रकृति की रक्षा कर रहे हैं। यानि हम सोचते थे कि आप का जो मन है करते जाईये, गाने डाऊनलोड कीजिये, तस्वीरें या वीडियो खींचिये, हर सुबह "गुड मॉर्निंग" के साथ उन्हें मित्रों को भेजिये, सब कुछ डिजिटल साइबर दुनिया में रहेगा, रोज़मर्रा के जीवन पर इसका प्रभाव नहीं पड़ेगा और इस तरह से आप प्रकृति की रक्षा कर रहे हैं।
प्रसिद्ध डिज़ाईनर जैरी मेकगोवर्न ने इसके बारे में एक आलेख लिखा है। वह कहते हैं कि पिछले वर्ष, 2021 में, केवल एक साल में 14 करोड़-गुणा-करोड़ तस्वीरें खींची गयीं (इस संख्या का क्या अर्थ है और इसमें कितने शून्य लगेंगे, मुझे नहीं मालूम)। इतनी तस्वीरें पूरी बीसवीं सदी के सौ सालों में नहीं खींची गयी थीं। उनके अनुसार इनमें से ९ करोड़-गुणा-करोड़ तस्वीरें, यानि दो तिहाई तस्वीरें और वीडियो गूगल, माइक्रोसोफ्ट आदि के क्लाउड पर रखी गयीं हैं और जिनमें से 90 प्रतिशत तस्वीरें और वीडियो कभी दोबारा नहीं देखे जायेंगे। यानि लोग उन तस्वीरों और वीडियो को अपलोड करके उनके बारे में सब कुछ भूल जाते हैं। इन क्लाउड को वह डिजिटल कूड़ास्थलों या कब्रिस्तानों का नाम देते हैं।
यह पढ़ा तो मैं इसके बारे में सोच रहा था। यह कूड़ास्थल किसी सचमुच के बादल में आकाश में नहीं बैठे हैं, बल्कि डाटा सैंटरों में रखे हज़ारों, लाखों कम्प्यूटर सर्वरों के भीतर बैठे हैं जिनको चलाने में करोड़ों टन बिजली लगती होगी। इन कम्प्यूटरों में गर्मी पैदा होती है इसलिए इन्हें ठँडा करना पड़ता होगा। डिजिटल फाईलों को रखने वाली हार्डडिस्कों की तकनीकी में लगातार सुधार हो रहे हैं, लेकिन फ़िर भी जिस रफ्तार से दुनिया में लोग वीडियो बना रहे हैं, तस्वीरें खींच रहे हैं और उनको क्लाउड पर डाल रहे हैं, उनके लिए हर साल उन डाटा सैंटरों को फ़ैलने के लिए नयी जगह चाहिये होगी? तो क्या अब हमें सचमुच के कूड़ास्थलों के साथ-साथ डिजिटल कूड़ास्थलों की चिंता भी करनी चाहिये?
मेरे फोटो और वीडियो
कुछ वर्ष पहले तक मुझे तस्वीरें खींचने का बहुत शौक था। हर दो - तीन सालों में मैं नया कैमरा खरीदता था। कभी किसी साँस्कृतिक कार्यक्रम में या देश विदेश की यात्रा में जाता तो वहाँ फोटो अवश्य खींचता। कैमरे के लैंस के माध्यम से देखने से मुझे लगता था कि उस जगह को या उस क्षण में होने वाले को या उस कलाकृति को अधिक गहराई से देख रहा हूँ। बाद में उन तस्वीरों को क्मप्यूटर पर डाउनलोड करके मैं उन्हें बड़ा करके देखता। बहुत सारी तस्वीरों को तुरंत कैंसल कर देता, लेकिन बाकी की तस्वीरों को पूरा लेबल करता कि किस दिन और कहाँ खींची थी, उसमें कौन कौन थे। मैंने बाहरी हार्ड डिस्क खरीदी थीं जिनको तस्वीरों से भरने में देर नहीं लगती थी, इसलिए यह आवश्यक था कि केवल चुनी हुई तस्वीरें रखी जायें और बाकियों को कैंसल कर दिया जाये। जल्दी ही उन हार्ड डिस्कों की संख्या बढ़ने लगी तो तस्वीरों को जगहों, देशों, सालों आदि के फोल्डर में बाँटना आवश्यक होने लगा।
तब सोचा कि एक जैसी दो हार्ड डिस्क रखनी चाहिये, ताकि एक टूट जाये तो दूसरी में सब तस्वीरें सुरक्षित रहें। यानि काम और बढ़ गया। अब हर तस्वीर को दो जगह कॉपी करके रखना पड़ता था। इस समय मेरे पास करीब सात सौ जिगाबाईट की तस्वीरें हैं। हार्ड डिस्क में फोटों को तरीके से रखने के लिए बहुत मेहनत और समय चाहिये। पहले आप सब फोटों को देख कर उनमें से रखने वाली तस्वीरों को फोटो चुनिये। उनको लेबल करिये कि कब, कहाँ खींची थी, कौन था उसमें। इसलिए हार्डडिस्क पर कूड़ा जमा नहीं होता, काम ती तस्वीरें जमा होती हैं।
अंत में
जो हम हर रोज़ फेसबुक, टिवटर, इँस्टाग्राम आदि में लिखते हैं, टिप्पणियाँ करते हैं, लाईक वाले बटन दबाते हैं, यह सब कहाँ जाते हैं और कब तक संभाल कर रखे जाते हैं? अगर दस साल पहले मैंने आप की किसी तस्वीर पर लाल दिल वाला बटन दबाया था, तो क्या यह बात कहीं किसी डाटा सैंटर में सम्भाल कर रखी होगी और कब तक रखी रहेगी? क्या उन सबके भी कोई डिजिटल कूड़ास्थल होंगे जो पर्यावरण में टनों कार्बन डाईओक्साईड छोड़ रहे होंगे और जाने कब तक छोड़ते रहेंगे?मैं गूगल, माईक्रोसोफ्ट आदि के क्लाउड पर भी कोई तस्वीरें या वीडियो नहीं रखता, मेरे पूरे आरकाईव मेरे पास दो हार्ड डिस्कों पर सुरक्षित हैं। मुझे लगता है कि जब मैं नहीं रहूँगा तो मेरे बाद इन आरकाईव को कोई नहीं देखेगा, अगर देखने की कोशिश भी करेगा तो देशों, शहरों, विषयों, सालों के फोल्डरों के भीतर फोल्डर देख कर थक जायेगा। भविष्य में शायद कृत्रिम बुद्धि वाला कोई रोबोट कभी उनकी जाँच करेगा और अपनी रिपोर्ट में लिख देगा कि इस व्यक्ति को कोई मानसिक बीमारी थी, क्योंकि उसने हर तस्वीर में साल, महीना, दिन, जगह, लोगों के नाम आदि बेकार की बातें लिखीं हैं।
यह भी सोच रहा हूँ कि भविष्य में जाने उन डिजिटल कूड़ास्थलों को जलाने से कितना प्रदूषण होगा या नहीं होगा? और जैसे सचमुच के कूड़ास्थलों पर गरीब लोग खोजते रहते हैं कि कुछ बेचने या उपयोग लायक मिल जाये, क्या भविष्य में डिजिटल कूड़ास्थलों पर भी इसी तरह से गरीब लोग घूमेंगे? आप क्या कहते हैं?
मेरे विचार में आप चाहे जितना मन हो उतनी तस्वीरें या वीडियो खींचिये, बस उन्हें आटोमेटिक क्लाउड पर नहीं सभाल कर रखिये। बल्कि बीच बीच में पुरानी तस्वीरों और वीडियो को देखने की कोशिश करिये और जिनको देखने में बोर होने लगें, उन्हें कैसल कीजिये। जो बचे, उसे ही सम्भाल के रखिये। इससे आप पर्यावरण की रक्षा करेंगे।
सोचने वाली बात है
जवाब देंहटाएंधन्यवाद अनीता जी
हटाएंसामयिक चिन्तन... जागरूक होना होगा
जवाब देंहटाएंविभारानी जी, आप को आलेख की सराहना के लिए धन्यवाद
हटाएंपम्मी सिंह त्रिप्ती जी, मेरे ब्लाग को पाँच लिंक में जगह देने के लिए धन्यवाद
जवाब देंहटाएंइस पर गंभीरता से सोचना चाहिए। मैं खुद अक्सर ये सोचती हूँ कि क्या आनेवाली पीढ़ियाँ मुझमें और मेरे खींचे गए फोटो में कोई रुचि रखेंगी ? परंतु डिजिटल कूड़ा इकट्ठा करने से संसाधनों की इतनी बर्बादी होती है, यह तो कभी सोचा ही नहीं था। महत्त्वपूर्ण आलेख । सादर।
जवाब देंहटाएंमीना जी, सराहना के लिए धन्यवाद
हटाएंसोच कर डर सा लगता है । मेले में खो जाने वाला भाव । आपके धैर्य की दाद देनी होगी । इतना सहेज कर रखा है
जवाब देंहटाएं। " सामान सौ बरस का , पल की ख़बर नहीं "
सामान सौ बरस का
जवाब देंहटाएंपल की ख़बर नहीं
पर आपके धैर्य की दाद देनी होगी । इतने सलीके से कौन संभालता है स्मृतियाँ ।
आप की बात भी ठीक है नूपुर जी, काम में फोटो का उपयोग करता था, इसलिए उनको सहेजने की आदत डाल ली थी, अब रिटायर होने के बाद भी आदत से छुटकारा नहीं मिला। :)
हटाएंयह बहुत उपयोगी चर्चा है. प्राय: अधिकतर लोग कुछ भी उपयोग करते समय यह नहीं सोचते कि इस वस्तु का, इसमें निर्माण से निकलने वाले वेस्ट आदि का क्या होता होगा. यदि हम यह सोचने भर लगें तो थोडा कम उपयोग करेंगे , थोडा कम कचरा पैदा करेंगे. डिजिटल वेस्ट पर और चर्चा की आवश्यकता है. मैं कोशिश करुँगी कि फालतू को डिलीट कर दूँ. आभार.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद। इस नयी दुनिया के लिए जीवन के कौन से नये नियम होने चाहिये, उसको समझने में समय लगता है। दिक्कत यह है कि जब तक हमें कुछ समझ में आता, दुनिया तब तक और बदल चुकी होती है। :)
हटाएंजानकारी युक्त और विचारणीय पोस्ट । आभार इसे साझा करने के लिए ।
जवाब देंहटाएंसंगीता जी, सराहना के लिए धन्यवाद
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