पिछले तीन चार सालों से, जब से डिजिटल कैमरे से तस्वीरें लेने का शौक पाला है, शहरों में घूमने का मेरा तरीका ही बदल गया है. काम के सिलसिले में यात्राएँ तो पिछले बीस साल से लगातार चल रहीं हैं पर पहले कहीं जाता तो अधिकतर काम से ही काम रखता, बाहर घूमने कम ही जाता. कई बार ऐसा हुआ कि नये देश में जा कर भी, केवल हवाई अड्डे से होटल तक या सभा स्थल तक जाने का रास्ता देखा, और कुछ नहीं देखा. अब तस्वीरें खींचने का इतना शौक है कि हमेशा यही कोशिश रहती है कि कैसे काम से थोड़ी सी भी फुरसत मिले तो कुछ न कुछ देखने का कार्यक्रम बने.
जेनोवा पहले चार पाँच बार जा चुका था पर शहर के बारे में कुछ नहीं मालूम था, न ही कोई जगह देखी थी. इस बार तीन दिन का ठहरने का कार्यक्रम था, कानफ्रैंस थी भी सागर तट पर पुराने बंदरगाह पर, जैसे ही कुछ समय खाली मिलता तुरंत बाहर घूमने निकल जाता.
जेनोवा का पुराना बंदरगाह देख कर दक्षिण अफ्रीका में केपटाऊन के पोर्ट की याद आ गयी. जेनोवा का इतिहास है कि यह बहुत सदियों तक स्वतंत्र गणतंत्र था और अपने नावों, जहाज़ों की ताकत से व्यापार बना कर अमीर देश था. यह सन 1850 के आसपास इटली देश का हिस्सा बना जब इटली के सरदार पटेल यानी गरिबाल्दी ने छोटी रियासतों में बँटे देश को जोड़ा था. जेनोवा की बंदरगाह पर यूरोप का सुप्रसिद्ध मछलीघर यानी एक्वारियम है जिसमें आप डोल्फिन, शार्क, आदि बड़ी मछलियाँ तो देख ही सकते हैं साथ साथ मादागास्कार और केरिबयन सागरों की रंगबिरंगी मछलियों को भी देख सकते हैं.
एक्वारियम के पास ही उष्म प्रदेशों के जँगल के पेड़ पौधे और जीव जंतु दिखाने वाला बायोस्फीयर, और ऊँचाई से शहर का विहगम दृष्य दिखाने वाला बीगो और रोमन पोलांस्की की फ़िल्म पायरेटस के लिए बनाई गये जहाज नेप्च्यून जैसी देखने वाली चीज़ें भी हैं.
जेनोवा की सड़कों पर बने भव्य मकान वेनिस के मकानों जैसे लगते हैं, जो जेनोवा की तरह जहाज़ों के बल पर बना व्यापारी गणतंत्र देश था. यहाँ के रहने वालों में से शायद सबसे अधिक प्रसिद्ध नाम है क्रिस्टोफर कोलोम्बस का. नक्काशीदार, मूर्तियों से सजी हवेलियाँ हैं जो बहुत सुंदर हैं. जेनोवा पहाड़ियों का शहर है, और ऊँची नीची पहाड़ियों पर बने घरो में अक्सर पुल जैसी सीढ़ियाँ दिखती हैं जिनसे लोग सड़क पर ऊपर या नीचे उतर सकते हैं. पहाड़ियों के बीच में बनी ऊँची नीची सड़कें सेनफ्राँसिस्को की याद दिलाती हैं.
शहर में घूमते हुए ध्यान आया कि बहुत से घरों पर नक्काशी या मूर्तियाँ नहीं बल्कि चित्रकारी से काम हुआ है. इस तरह की दीवारों पर चित्रकारी पहले भी कई जगह देखी है पर जिस तरह कि जेनोवा में दिखती है उस तरह की कहीं नहीं देखी. दूर से बिल्कुल नक्काशी ही लगती है पर वह केवल देखने का धोखा है. सोचा कि शायद कुछ कम पैसे वालों लोगों ने बजाय नक्काशी और मूर्तियाँ बनवाने के चित्रकारी करवाई हो, फ़िर मन में विचार आया कि अगर घर पर नक्काशी हुई हो या मुर्तियाँ आदि बनी हों तो उनको बदलवाना आसान नहीं होगा जबकि अगर आप के घर पर चित्रकारी हुई हो तो कुछ सालों बाद आप उस पर नयी चित्रकारी करवा सकते हैं, इस तरह से आप का घर हमेशा नया लगेगा. क्या असली कारण है इस तरह की चित्रकारी का, और मेरा इस तरह सोचना कहाँ तक ठीक हो सकता है, यह तो नहीं मालूम.
बंदरगाह के सामने वाला पुराना शहर तंग गलियों से भरा है. देखा तो लगा कि चाँदनी चौक पहुँच गया हूँ, हालाँकि चाँदनी चौक के मुकाबले में यहाँ सफ़ाई अधिक है. उन गलियों में कई बार घुसा पर हर बार रास्ता खो बैठा. कहीं जाने की सोच कर निकलता पर पहुँचता कहीं और ही. आखिर हार कर शहर के नक्शे को बंद करके जेब में रख लिया, सोचा किस्मत जहाँ ले जायेगी, वहीं जाऊँगा.
तंग गलियों के बीच में से गुजर कर ही शहर के प्रमुख पर्यटक स्थल देखे - ड्यूक का महल, सन लोरेंज़ो का कैथेड्रल, ओपेरा हाउस, इत्यादि. शाम के धुँधलके में जब रोशियाँ जलती हैं तो शहर और भी सुंदर बन जाता है.