शुक्रवार, अप्रैल 25, 2008

चाँदनी चौक से सनफ्राँसिस्को

कोई ऐसे शहर भी होते हैं जहाँ जा कर बहुत से दूसरे शहरों की याद आती रहती है. या फ़िर शायद यह यायावर की नियति है कि जितना अधिक घूमोगे, उतना ही पाओगे कि हर जगह में पुरानी यादें उतनी अधिक उभरेंगीं. कुछ ऐसा ही लगा इटली के उत्तरी पश्चिम तट पर बसे शहर जेनोवा जा कर.

पिछले तीन चार सालों से, जब से डिजिटल कैमरे से तस्वीरें लेने का शौक पाला है, शहरों में घूमने का मेरा तरीका ही बदल गया है. काम के सिलसिले में यात्राएँ तो पिछले बीस साल से लगातार चल रहीं हैं पर पहले कहीं जाता तो अधिकतर काम से ही काम रखता, बाहर घूमने कम ही जाता. कई बार ऐसा हुआ कि नये देश में जा कर भी, केवल हवाई अड्डे से होटल तक या सभा स्थल तक जाने का रास्ता देखा, और कुछ नहीं देखा. अब तस्वीरें खींचने का इतना शौक है कि हमेशा यही कोशिश रहती है कि कैसे काम से थोड़ी सी भी फुरसत मिले तो कुछ न कुछ देखने का कार्यक्रम बने.

जेनोवा पहले चार पाँच बार जा चुका था पर शहर के बारे में कुछ नहीं मालूम था, न ही कोई जगह देखी थी. इस बार तीन दिन का ठहरने का कार्यक्रम था, कानफ्रैंस थी भी सागर तट पर पुराने बंदरगाह पर, जैसे ही कुछ समय खाली मिलता तुरंत बाहर घूमने निकल जाता.

जेनोवा का पुराना बंदरगाह देख कर दक्षिण अफ्रीका में केपटाऊन के पोर्ट की याद आ गयी. जेनोवा का इतिहास है कि यह बहुत सदियों तक स्वतंत्र गणतंत्र था और अपने नावों, जहाज़ों की ताकत से व्यापार बना कर अमीर देश था. यह सन 1850 के आसपास इटली देश का हिस्सा बना जब इटली के सरदार पटेल यानी गरिबाल्दी ने छोटी रियासतों में बँटे देश को जोड़ा था. जेनोवा की बंदरगाह पर यूरोप का सुप्रसिद्ध मछलीघर यानी एक्वारियम है जिसमें आप डोल्फिन, शार्क, आदि बड़ी मछलियाँ तो देख ही सकते हैं साथ साथ मादागास्कार और केरिबयन सागरों की रंगबिरंगी मछलियों को भी देख सकते हैं.





















एक्वारियम के पास ही उष्म प्रदेशों के जँगल के पेड़ पौधे और जीव जंतु दिखाने वाला बायोस्फीयर, और ऊँचाई से शहर का विहगम दृष्य दिखाने वाला बीगो और रोमन पोलांस्की की फ़िल्म पायरेटस के लिए बनाई गये जहाज नेप्च्यून जैसी देखने वाली चीज़ें भी हैं.















जेनोवा की सड़कों पर बने भव्य मकान वेनिस के मकानों जैसे लगते हैं, जो जेनोवा की तरह जहाज़ों के बल पर बना व्यापारी गणतंत्र देश था. यहाँ के रहने वालों में से शायद सबसे अधिक प्रसिद्ध नाम है क्रिस्टोफर कोलोम्बस का. नक्काशीदार, मूर्तियों से सजी हवेलियाँ हैं जो बहुत सुंदर हैं. जेनोवा पहाड़ियों का शहर है, और ऊँची नीची पहाड़ियों पर बने घरो में अक्सर पुल जैसी सीढ़ियाँ दिखती हैं जिनसे लोग सड़क पर ऊपर या नीचे उतर सकते हैं. पहाड़ियों के बीच में बनी ऊँची नीची सड़कें सेनफ्राँसिस्को की याद दिलाती हैं.












शहर में घूमते हुए ध्यान आया कि बहुत से घरों पर नक्काशी या मूर्तियाँ नहीं बल्कि चित्रकारी से काम हुआ है. इस तरह की दीवारों पर चित्रकारी पहले भी कई जगह देखी है पर जिस तरह कि जेनोवा में दिखती है उस तरह की कहीं नहीं देखी. दूर से बिल्कुल नक्काशी ही लगती है पर वह केवल देखने का धोखा है. सोचा कि शायद कुछ कम पैसे वालों लोगों ने बजाय नक्काशी और मूर्तियाँ बनवाने के चित्रकारी करवाई हो, फ़िर मन में विचार आया कि अगर घर पर नक्काशी हुई हो या मुर्तियाँ आदि बनी हों तो उनको बदलवाना आसान नहीं होगा जबकि अगर आप के घर पर चित्रकारी हुई हो तो कुछ सालों बाद आप उस पर नयी चित्रकारी करवा सकते हैं, इस तरह से आप का घर हमेशा नया लगेगा. क्या असली कारण है इस तरह की चित्रकारी का, और मेरा इस तरह सोचना कहाँ तक ठीक हो सकता है, यह तो नहीं मालूम.












बंदरगाह के सामने वाला पुराना शहर तंग गलियों से भरा है. देखा तो लगा कि चाँदनी चौक पहुँच गया हूँ, हालाँकि चाँदनी चौक के मुकाबले में यहाँ सफ़ाई अधिक है. उन गलियों में कई बार घुसा पर हर बार रास्ता खो बैठा. कहीं जाने की सोच कर निकलता पर पहुँचता कहीं और ही. आखिर हार कर शहर के नक्शे को बंद करके जेब में रख लिया, सोचा किस्मत जहाँ ले जायेगी, वहीं जाऊँगा.






तंग गलियों के बीच में से गुजर कर ही शहर के प्रमुख पर्यटक स्थल देखे - ड्यूक का महल, सन लोरेंज़ो का कैथेड्रल, ओपेरा हाउस, इत्यादि. शाम के धुँधलके में जब रोशियाँ जलती हैं तो शहर और भी सुंदर बन जाता है.













शनिवार, अप्रैल 19, 2008

फ़ुल गेंदवा न मारो

शायद यहाँ बसंत का मौसम है इसलिए या न जाने क्यों, अचानक मन में गीत के शब्द आयेः

"फ़ूलों के रंग से दिल की कलम से तुझको लिखी रोज़ बाती ..." , फ़िल्म थी प्रेमपुजारी और इसे गा रहे थे देवआनंद. साथ में थी वहीदा रहमान और जाहिदा.

जैसे अक्सर विचारों के साथ होता है, बात शुरु कहाँ से होती है और कहाँ जाती है, पता नहीं चलता. सोचा फ़ूलों से शुरु होने वाले अन्य कौन से गाने हैं?

दो अन्य गाने तो तुरंत याद आ गयेः

"फ़ूलों का तारों का सबका कहना है, एक हज़ारों में मेरी बहना है", यह भी देवआनंद साहब की फ़िल्म थी "हरे रामा हरे कृष्णा", साथ में थीं मुम्ताज़ और ज़ीनत अमान.

और, "फ़ूलों ने कहा कलियों से, कलियों ने कहा भँवरों से...". यह कौन सी फ़िल्म का है, यह नहीं मालूम.

फ़िर बहुत सोच कर याद आया, "फ़ुल गेदवा न मारो, न मारो लगत कलेजवा में चोट..". यह कौन सी फ़िल्म से है, यह भी याद नहीं पर शायद महमूद पर फ़िल्माया गया था. बस, और कोई गीत याद नहीं आता जो फ़ूल शब्द से शुरु होता हो. अगर आप में से किसी को कोई ऐसा गीत मालूम हो तो मुझे बताईयेगा.

साथ ही कुछ फ़ूलों की तस्वीरें भी प्रस्तुत हैं.

















रविवार, अप्रैल 13, 2008

शोर्य का अर्थ

समर खान की नयी फ़िल्म "शोर्य" बार बार यही प्रश्न पूछती है कि शोर्य का क्या अर्थ है और इस प्रश्न का अपना उत्तर फ़िल्म के अंत में शाहरुख खान की आवाज़ में देती है, कि शोर्य का अर्थ है निर्बलों की, जिनकी आवाज़ न हो, उनकी रक्षा करना. फ़िल्म के बारे में कुछ अच्छा सुना पढ़ा था इसलिए शायद मन में आशाएँ अधिक थीं जिन पर यह फ़िल्म पूरी नहीं उतरी.



फ़िल्म की कहानी है सिद्धांत और आकाश की, जो आर्मी में मेजर हैं और वकील भी, और पक्के दोस्त भी. दोनो अपने आप को एक मुकदमें में पाते हैं जिसमें गुनाहगार है कप्तान जावेद खान जिसने अपने एक साथी राठौर का खून किया है, उस पर आरोप है कि वह आतंकवादियों का साथी था, राठौर द्वारा पकड़े जाने पर उसने राठौर को मार दिया. आकाश हैं आरोप पक्ष का वकील और सिद्धांत हैं बचाव पक्ष का वकील. साथ में हैं एक पत्रकार काव्या शास्त्री जो जावेद की कहानी को समझना चाहती है. जावेद जी स्वयं अपने बचाव में कुछ नहीं कहते हैं और चुपचाप आरोप को स्वीकार करने के लिए तैयार हैं. आर्मी के उच्च अधिकारी ब्रिगेडियर प्रताप चाहते हैं कि जावेद को कड़ी से कड़ी सजा मिले. पर सच्चाई कुछ और है और कैसे सिद्धांत उस सच्चाई तक पहुँच कर जावेद को बेकसूरवार साबित करने में सफल होता हैं यही फ़िल्म की कहानी, उसका रहस्य और उसकी दिलचस्पी का विषय है.



फ़िल्म अच्छे अभिनेताओं से भरी है. सिद्धांत के रुप में हैं राहुल बोस, आकाश हैं जावेद जाफरी, काव्या हैं मनीषा लाम्बा, दीपक दोब्रियाल हैं कप्तान जावेद, सीमा विश्वास बनी हैं जावेद की माँ, के के मेनन बने हैं ब्रिगेडियर प्रताप और अमृता राव हैं राठौर की विधवा. शुरु में एक गाने में नाचती हुई सैफ अली खान की भूतपूर्व मित्र रोज़ा भी हैं. सभी अभिनेताओं में राहुल बोस ही कुछ ढीले से लगे. जावेद जाफरी ठीक हैं. सीमा विश्वास दो दृष्यों में थोड़ी सी देर के लिए आती हैं पर बहुत प्रभावशाली हैं. दोब्रियाल भी अधिक डायलाग न होने पर भी अच्छे हैं. के के जी बहुत बढ़िया हैं. मनीषा और अमृता सुंदर भी लगती हैं और अभिनय भी अच्छा है.

पर इस सब के बावजूद फ़िल्म में मुझे कुछ कमी लगी, यानि लगा कि जितनी प्रभावशाली हो सकती थी, उतनी नहीं हुई. फ़िल्म का एक गुण है कि कहानी के प्रति इमानदारी है और शुरु के नाच गाने के बाद, कहानी अपनी मुख्य धारा पर ही बनी रहती है, इधर उधर की बातों में नहीं बहकती.

राठौर की हत्या के पीछे क्या रहस्य है, मुकदमें के दौरान कैसे इसकी तह तक पहुँचते हैं यह फ़िल्म के केद्रीय मुद्दा था जिसका निर्माण इस तरह का होना चाहिये था कि वह लोगों की उत्सुकता को बाँध ले, पर फ़िल्म में मुझे यह बात कुछ कमजोर से लगी. सिद्धांत बस एक सिपाही से एक सवाल ठीक पूछते हैं, वह घबरा कर भाग जाता है और उसके बाद शाम को अकेले में बुला कर वह सब कुछ पूरा सुना देता है. यानि रहस्य खुलने में कोर्टरूम में जिस तरह तरह वकील अपनी काबलियत से, तर्क से, सच को निकाल लेता है, वह बात नहीं. राठौर की विधवा द्वारा सभी कागज भेज देना जिससे वकील साहब छुपी सारी बातें समझ जायें, भी विश्वास्नीय नहीं लगा. फ़िल्म के कसूरवार बहुत सालों से निर्दोष लोगों को मार रहे हैं, क्या वकील साहब इसके सबूत नहीं निकाल सकते थे?



सबसे कमज़ोर बात लगी, अंत के दृष्यों में सिद्धांत का ब्रिगेडियर साहब से सवाल करना और कोर्ट मार्शल करने वालों का सब कुछ चुपचाप देखना. जब वह बरिगेडियर जी गवाह के रूप में बुलाये गये हैं तो क्या गवाह से आप कुछ भी पूछ सकते हैं, उसके बचपन के बारे में, उसके अपने परिवार के बारे में, कोर्ट को बिना बताये कि पिछली इन बातों से केस का क्या सम्बंध है? जो व्यक्ति घटना के समय पर वहाँ नहीं था, उसे गवाह बनाना और उससे कुछ भी पूछ कर उसे दोषी साबित करना, फ़िल्मी सा लगा. यह बात नहीं कि मैं वकील हूँ या मुझे आर्मी के कोर्ट मार्शल के मुकदमों की जानकारी है पर यह सब बातें, मुझे विश्वास्नीय नहीं लगी.

और किसी आर्मी अफसर के इलाके में बेकसूर लोग, बच्चे, औरतें मारी जा रहीं हैं, और आर्मी को इस बारे में कुछ शक नहीं होता, न ही ब्रिगेडयर के जान पहचान वाले मित्रों को पता है कि उनकी सोच कैसी कट्टरवादी हैं, यह बात भी अविश्वास्नीय लगी.

न ही जावेद के चुप रहने वाली बात का तुक समझ में आया. वह जानता है कि ब्रिगेडियर निर्दोषों को मार रहा है, अत्याचार कर रहा है पर वह चुप रहते हैं क्योंकि इससे आर्मी का नाम बदनाम होगा? इससे उनकी देश भक्ती दिखायी गयी है.



राहुल बोस का चरित्र कुछ कुछ फरहान की फ़िल्म "लक्ष्य" में हृतिक रोशन के चरित्र से मिलता जुलता लगा, फर्क केवल इतना है कि वह वकील हो कर और आर्मी में मेजर हो कर भी निठल्ले मस्ती करना चाहते हैं. यानि आर्मी में मेजर बनना और वकील बनने में कोई मेहनत नहीं चाहिये? उसी तरह काव्या का चरित्र भी "लक्ष्य" की प्रीति ज़िन्टा से मिलता जुलता लगा. ब्रिगेडियर प्रताप का चरित्र और उनका व्यवहार निहलानी की फ़िल्म "देव" में ओम पुरी के चरित्र से मिलता लगा. यानि कि लगता है कि पटकथा लिखने वालों ने कुछ प्रेरणा इधर उधर से पायी, फ़िल्म की कहानी तो एक अँग्रेज़ी फ़िल्म से प्रभावित है ही.

फ़िल्म का संगीत है अदनान सामी का और एक गीत, "धीमे धीमे" बहुत सुंदर है. फ़िल्म के बाद जहाँ पात्रों के अच्छे अभिनय और बहुत सारे अच्छे दृष्य याद रहते हें वहाँ कहानी की पटकथा की कमज़ोरियों से दुख भी होता है कि शायद और भी बढ़िया बन सकती थी. यह नहीं कहूँगा कि फ़िल्म बुरी है, शायद आम फ़िल्मों से बहुत अच्छी है पर जितनी बढ़िया हो सकती थी, उससे कुछ कम रह गयी.

बुधवार, अप्रैल 09, 2008

हाथ न लगाना

इटली में गर्भपात के विषय में बात करना कभी कभी कठिन हो जाता है, यहाँ तक कि डाक्टर या नर्स तक इस विषय में बात नहीं करना चाहते. कैथोलिक धर्म में गर्भपात को पाप मानते हैं और कैथोलिक प्रधान देशों में बहुत समय तक किसी भी हालत में गर्भपात की अनुमति नहीं होती थी. आज भी कुछ देश जैसे कि आयरलैंड, निकारागुआ जैसे देशों में गर्भपात नहीं हो सकता, तब भी नहीं जब माँ की जान को खतरा हो या बच्चा बलात्कार का नतीजा हो या बच्चे को कोई बीमारी हो.

मैं सोचता हूँ कि जैसे भारत में हिंदु धर्म में गौ मास खाने के प्रति गहरी सामाजिक धारणाएँ हैं, कैथोलिक समाज में गर्भपात के विषय पर भी कुछ कुछ वैसा ही है और जब कोई बात हमारी भावनाओं से गहरी जुड़ी हो उस विषय पर बहुत से लोग तर्क या बिना तर्क, किसी बात को नहीं सुनना चाहते. कैथोलिक धर्म में परिवार नियोजन यानि कण्डोम या गोलियों के उपयोग से स्त्री का गर्भवति होने से बचने को भी गलत माना जाना है. जब समाज में किसी विषय पर इस तरह को सोच हो तो उस पर खुल कर बात करना कठिन हो जाता है.

बींसवीं सदी में बदलते इतालवी समाज ने सेक्स और बच्चा पैदा करना, इन दोनो बातों को अलग कर दिया. युवतियाँ काम करने लगीं, उनके विवाह करने या न करने से जुड़े सामाजिक विचार बदलने लगे, शादी करने की उम्र बढ़ गयी और बच्चे पैदा होना कम होने लगा. पिछले चालिस सालों से इटली की जनसंख्या की विकास दर नेगेटिव है यानि पैदा होने वालों की संख्या मरने वालों से कम है और हर वर्ष यहाँ की जनसंख्या कुछ कम हो जाती है. तब गर्भपात के विषय पर भी विमर्श होने लगा. लोगों को मानना पड़ा कि चाहे धर्म इसे गलत कहता है पर हज़ारों औरतें हर साल गैरकानूनी गर्भपात में जान खोती हैं या दूसरी बीमारियाँ ले लेतीं हैं, और उन्हें कानून गर्भपात की सुविधा मिलनी चाहिये.

जब लोगों की माँगे बढ़ीं तो इतालवी सरकार ने स्वयं निर्णय न लेने के लिए जनमत का आयोजन किया जिसका निर्णय था कि इटली की अधिकाँश जनता कानूनी गर्भपात की सुविधा चाहती है. इसकी वजह से नया कानून बनाया गया जिसका नाम है कानून नम्बर 194. इस कानून के अनुसार अस्पतालों को गर्भवती औरतों को सलाह और सहारा देना होगा, वह अगर चाहे तो अपना नाम बिना बताये बच्चा पैदा होने के बाद उसे अस्पाल में छोड़ सकती है या गोद लेने के दे सकती है, पर अगर वह गर्भपात का निर्णय लेती है तो यह भी संभव है.

तीस साल पहले बने इस कानून पर चर्चा होती ही रहती है, बहुत से धार्मिक लोगों का कहना है कि यह कानून गलत है और इस पर पुनर्विचार होना चाहिये. हालाँकि स्वास्थ्य मंत्रालय के अनुसार धीरे धीरे इटली में गर्भपात कराना बहुत कम हो गया है और इसका अर्थ है कि यह कानून अच्छा काम कर रहा है. आजकल अधिकतर गर्भपात प्रवासी स्त्रियाँ करवातीं हैं क्योंकि उनके पास परिवार का सहारा नहीं होता और पैसा भी कम होता है. पर फ़िर भी कुछ राजनीतिक दल चुनावों में इस बात को उछाल रहे हैं कि अगर वह जीतेंगे तो इस कानून को बदला जायेगा. इस तरह की बातों का विरोध करने वाले भी मैदान में उतर आये हैं, जिनमें से एक ने नया वेबपृष्ठ बनाया है "हाथ न लगाना" (Non Toccarla) जिस पर जाने माने लोग जैसे अभिनेत्रियाँ, लेखक, आदि अपने पेट पर लिखते हैं "194 को हाथ न लगाना" और उनकी फोटो इस वेबपृष्ठ पर लगा दी जाती है.






विश्व स्वास्थ्य संघ के अनुसार दुनिया में हर वर्ष हज़ारों औरतें गैरकानूनी गर्भपात की वजह से मरती हैं, बहुत सी औरतों को इंफैक्शन हो सकता है जिससे भविष्य में उन्हें कठिनाईयाँ हो सकती हैं. इस लिए मैं कानूनी गर्भपात के पक्ष में हूँ.

भारत में स्थिति कुछ उलटी है. कानूनी गर्भपात को परिवार नियोजन का हिस्सा बनाया गया है. और अल्ट्रासाउँड से टेस्ट करवा कर लड़की हो तो गर्भपात करवाना इतना अधिक बढ़ गया है कि देश के बहुत से हिस्सों में लड़कों के अनुपात में लड़कियों की सँख्या बहुत कम होती जा रही है. अर्थशास्त्री अमर्तयासेन के अनुसार भारत में एक करोड़ गुमशुदा लड़कियाँ हैं, यानि वे लड़कियाँ जिन्हें गर्भपात द्वारा पैदा नहीं होने दिया गया. इसके विरुद्ध कानून बना कर भी कुछ करना कठिन है और जनता की सोच को बदलने के लिए औरतों का आर्थिक विकास और स्वतंत्रता बहुत आवश्यक हैं.

रविवार, अप्रैल 06, 2008

खुरदरी आवाज़ का जादू

बेटे ने इंटरनेट से खोज कर राहुलदेव बर्मन के संगीत वाली बहुत से फ़िल्मों का संगीत डाउनलोड कर के दिया, उनमें कुछ बँगाली संगीत भी था. कुछ अलग सुनने को मिलेगा सोच कर उनमें से कुछ बँगला गाने मैंने अपने आईपोड में डाले. साईकल पर जा रहा था संगीत सुनते हुए कि अचानक बहुत सालों के बाद वह खुरदरी, मस्त आवाज़ सुनी जिसका कभी दीवाना था, यानि कि उषा उत्थप की आवाज़.

मुझे जहाँ तक याद था वह दक्षिण भारत की रहने वाली थीं और अँग्रेज़ी में गाने गाती थीं. फ़िर उन्होंने कुछ हिंदी फ़िल्मों में हिंदी गाने भी गाये थे, पर वह बँगाली में भी गाती हैं, यह नहीं सोचा था. उनका बँगला गाना "मानो, मानो ना.." बहुत बढ़िया लगा. फ़िर सुना "शुखो नाईं गो गो गोपाले" तो और भी अचरज हुआ, बँगाली शब्द और दक्षिण का कर्नाटक संगीत एवं धुन, मज़ा आ गया.

साठ-सत्तर के दशकों में उनकी बड़ी गोल बिंदी, भारी आवाज़, खुल कर पटाखे फटने जैसी हँसी, साड़ी पहने हुए अँग्रेजी गाना गाती वे, अज़ीब सी भी लगतीं और आकार्षित भी करतीं. तभी अंग्रेजी के उपन्यास पढ़ने शुरु किये थे और दिल्ली बी रेडियो स्टेशन पर "ए डेट विद यू" और "फोर्सिस रिक्वेस्ट" जैसे कार्यक्रमों में अंग्रेज़ी के गाने सुनते थे. जेएस यानि जूनियर स्टेटसमेन की अँग्रेज़ी पत्रिका निकलती, तो आधुनिकता और प्रगति उसमें दिये गये अँग्रेज़ी गायकों, फ़िल्मों, फैशनों में ही दिखती थी. उस समय लगता था कि अँग्रेज़ी तो अँग्रेज़ो की भाषा है. तब उषा उत्थप का कुछ भारतीय आवाज़ और अंदाज़ में साड़ी पहन कर अँग्रेज़ी में गाना अनौखा लगता, मानो वह किसी अदृष्य सीमा को तोड़ कर उससे बाहर निकल गयीं थीं, जहाँ अँग्रेज़ी संगीत भी भारतीय हो सकता था.

शाम को इंटरनेट पर उषा उत्थप के बारे में खोजा तो उनका वेबपृष्ठ मिला. उनकी कुछ ताज़ी तस्वीरें भी देखीं जैसे कि नीचे वाली तस्वीर (from Mallupride dot com) जिसमें वे अभिनेत्री मालायका अरोड़ा खान के साथ हैं. तस्वीर देख कर लगता है कि मानो वह बिल्कुल बदली नहीं. उनके वेबपृष्ठ पर उनके बारे में पढ़ा उन्हें परिवार के लोग और काम करने वाले दीदी बुलाते हैं, कि वह बम्बई में बड़ी हुईं और 1969 से गा रहीं हैं, तेरह भारतीय भाषाओं में और आठ विदेशी भाषाओं में गा सकती है. उन्होंने कुछ फ़िल्मों में काम भी किया है, गीत लिखे हैं, फ़िल्मों में सगींत भी दिया है. यानि बहुमुखी प्रतिभा की धनी हैं. पर यह पढ़ कर कुछ आश्वर्य हुआ कि उन्होंने एक फ़िल्म में मिथुन चर्कवर्ती यानि हीरो के लिए भी गाना गाया है.



गूगल पर उनके बारे में खोजा. सत्तर के दशक में ही कलकत्ता आ कर रहने लगीं. कलकत्ता क्यों आईं इस बारे में कुछ नहीं लिखा पर अवश्य इसमें प्रेम या विवाह की बात ही होगी. उनका पहला नाम उषा अईय्यर होता था. एक अन्य साक्षत्कार में लिखा है कि वे चार बहनें थीं, उषा, उमा, इंदिरा और माया, चारों का गाने का शौक था पर केवल उषा ओर इंदिरा ने गाने को गम्भीरता से लिया. पर इस साक्षात्कार में उनका नाम "सामी" बहने और उनके पिता का नाम बम्बई के पुलिस कमिश्नर वी. एस. सामी था. शायद इसका मतलब है कि उषा जी का पहला विवाह किसी अय्यर से हुआ था और बाद में उन्होंने किसी उत्थप से विवाह किया? एक अन्य साक्षात्कार में लिखा है कि वह बाह्मण परिवार में पैदा हुई और शाकाहारी हैं पर कलकत्ता में उनके पति का परिवार माँसाहारी है इस लिए उन्होंने माँसाहारी भोजन बनाना भी सीखा और उनकी एक बेटी भी है.

इंटरनेट पर यह सब खोजते हुए सोच रहा था कि जीवन कितना बदल गया. तीस पैंतीस साल पहले के प्रिय कलाकार के गाने सुनना, उसके जीवन के बारे में समाचार खोज कर पढ़ना, सब कुछ दूर विदेश में अपने घर में बैठे बैठे, शायद यह सब बातें एक ज़माने में कोई कहता कि इस तरह होगा तो विश्वास नहीं होता. यही आज के जीवन का आम चमत्कार है, फर्क केवल इतना है कि इसकी भी आदत हो गयी है ओर इसमें कुछ विषेश नहीं लगता, न ही इस बारे में कोई सोचता है!

शनिवार, अप्रैल 05, 2008

अपनी बात कहने का अधिकार

इतालवी राष्ट्रीय चुनाव होने वाले हैं और आजकल हर तरफ़ चुनाव रैलियाँ हो रहीं हैं. इसी तरह की एक रैली में दो दिन पहले हमारे शहर बोलोनिया में श्री जूलियानो फैरारा आये. फैरारा जी पत्रकार हैं, एक समाचार पत्र के सम्पादक हैं, टीवी पर कार्यक्रम भी करते हैं और पहले बहुत समय तक इतालवी उद्योगपति और पूर्व प्रधानमंत्री बेरलुस्कोनी के दल में थे. अब उन्होंने अपनी पार्टी बनायी है "जीवन का अधिकार पार्टी" जिसका प्रमु्ख ध्येय है कि देश में गर्भपात न करा सकने का कानून बनना चाहिये क्योंकि उनका कहना है कि जीवन का अधिकार सबसे बड़ा और ऊपर है, और किसी को दूसरे का जीवन लेने का हक नहीं, किसी न पैदा हुए बच्चे का भी नहीं. उनके दल को तुरंत पोप द्वारा समर्थन भी मिला है पर आम जनता उनके प्रति कुछ उत्साह नहीं दिखा रही.

बोलोनिया में उनकी रैली में करीब एक हज़ार औरतों और नवजवानों ने उनका बहुत उत्साह से स्वागत किया, उन पर सिक्के, टमाटर और अँडे फ़ैंके और स्टेज पर चढ़ कर उनको बोलने से रोकने की कोशिश की. मारामारी में लाठियाँ चलीं, कुछ लोग घायल हुए और फैरारा जी को पुलिस संरक्षण में वापस जाना पड़ा.

पिछले कुछ समय से इटली में पोप द्वारा कही जाने वाली इस तरह की बातों पर जैसे कि गर्भपात न होने दीजिये, समलैंगिक युगलों को सामान्य दम्पति के अधिकार नहीं दीजिये, मानव भ्रूँड़ पर जेनेटिक शौध नहीं होना चाहिये, कुछ राजनीतिक लोगों ने उनके पक्ष में बोलना शुरु कर दिया है कि हमें अपने कानून बदल लेने चाहिये, पोप ठीक कहते हैं, इत्यादि. विश्वविद्यालय के विद्यार्थी गुटों ने और मानव अधिकारों की बात करने वालों ने और कूछ आम जनता ने इस तरह की बातों को पिछड़ापन और पुराने समय में लौट जाने की कोशिश बताया है और इनका विरोध किया है. फैरारा जी पर हमला और उन्हें न बोलने देना इसी बहस का हिस्सा माना जा सकता है.

मैं इस बात से बिल्कुल सहमत नहीं कि कोई बोल रहा हो और उस पर हमला किया जाये और उसे अपनी बात न कहने का मौका मिले. मेरे विचार में इस तरह का विरोध बिल्कुल गलत है. मैं फैरारा जी का प्रशंसक नहीं हूँ, बल्कि मानता हूँ कि वह मुझे बिल्कुल पसंद नहीं. टीवी पर उनका कार्यक्रम हो तो मैं तुरंत चैनल बदल देता हूँ क्योंकि मुझे उनके बोलने का आक्रामक तरीका अच्छा नहीं लगता. मैं उनके गर्भपात रोकने का कानून बनाओ वाली बात से भी बिल्कुल सहमत नहीं, पर मैं मानता हूँ कि उनको भी बोलने का उतना ही हक है जितना अन्य किसी को है. मुझे नहीं पसंद तो न मैं उन्हें सुनने जाऊँगा, न उन्हें वोट दूँगा.

इस बात पर मेरी अपने कुछ युनियन वाले मित्रों से बहस हो गयी. मुझे लगता है कि मेरे कुछ वामपंथी मित्र किसी किसी बात पर उतने ही असहिष्णु और कट्टर हैं जितने रूढ़िवादी लोग, उनके लिए मानव अधिकार वही हैं जिन बातों में वह विश्वास करते हैं. उनका कहना है कि फैरारा जी बहुत ताकतवर हैं यानि उनको बहुत जगह मिल रही रही है अपनी बात कहने के लिए, टीवी में, अखबार में, और उन्हें रोकना आवश्यक है, किसी भी तरीके से. मुझे लगता है कि इस तरह से सोचने वाले गलत हैं.

मैं मानता हूँ कि हर व्यक्ति को अपनी बात कहने का, लिखने का, कला में बनाने का, फ़िल्म में बनाने का, हर तरह से अभिव्यक्त करने का हक है, जाहे वह जिस विषय पर हो, चाहे वह किसी धर्म के बारे में हो, किसी देवता के बारे में, सेक्स के बारे में, राजनीति के बारे में. बस दो ही शर्तें हैं, एक किसी के मरने मारने को, किसी तरह की हिंसा के लिए न उकसाया जाये, और दूसरी, अन्य किसी व्यक्ति विषेश की निजी बातों के बारे में नहीं बोल सकते. साथ ही छोटे बच्चों के बचाव के लिए स्पष्ट जानकारी होनी चाहिये.

यह कहना कि इससे या उससे इस धर्म का अपमान होता है, या फ़िर नैतिक रूप से यह बात गलत है, इत्यादि और किसी की अभिव्यक्ति को रकने की कोशिश करना मुझे गलत लगता है. कुछ भी पढ़ कर आहत महसूस करना, अपमानित महसूस करना, इस लिए इसे बैन करो, उसे बंद करो, मुझे गलत लगते हैं क्योंकि आप कुछ भी करलो, कोई न कोई नाखुश हो ही जाता है. कोई जबरदस्ती नहीं कि आप यह फ़िल्म देखो, या वह किताब पढ़ो, या इसकी बात सुनो, आप कुछ और करो, जो आप को अच्छा लगता है, पर यह कहना कि दूसरे भी इसे न पढ़े, देखें, सुने, जबरदस्ती है.

शुक्रवार, अप्रैल 04, 2008

ऊँट बनने के सपने

जब समाचार पढ़ा कि आबु धाबी में ऊँटों की प्रतियोगिता हुई और सबसे सुंदर ऊँट को पाँच करोड़ का ईनाम मिला तो अपने लड़कपन के दिन याद आ गये. एक तो दुबला पतला था, उस पर किशोर होते होते अचानक लम्बाई बढ़ने लगी. इतनी लम्बी गर्दन लगती थी कि माँ कहती, "इतना बड़ा ऊँट सा हो गया पर अक्ल हमेशा घास चरने में लगी रहती है." सुन कर मन को बहुत दुख पहुँचता, मन में आता कि कैसे मोटा हुआ जाये, और यह ऊँट सी गर्दन कुछ छोटी लगे. एक पत्रिका में पढ़ा कि दूध और केला खाने से शरीर अधिक तंदरुस्त होता है और वज़न बढ़ता है, तो सुबह दूध के साथ केला खाना शुरु कर दिया.

तब बेचारे ऊँटों को कौन पूछता था और ऊँट कहलाने का अर्थ था कि स्वयं को बदसूरत समझना. आज जब स्वयं को हाथी के रूप में देखता हूँ तो समझ में आता है कि शायद ऊँट होना उतना बुरा भी नहीं था. सुबह जब पत्नी दोपहर के खाने के लिए सलाद देते हुए कहती है कि तुम्हारा वज़न बहुत बढ़ गया है, आज खाने में केवल सलाद ही खाओ तो समझ में आता है कि ऊँट होना कितना सुखदायक हो सकता है. और जब यह पढ़ा कि सुंदर ऊँट को पाँच करोड़ का ईनाम मिला तो लगा काश हम भी ऊँट प्रतियोगिता में इतराते, हमारी भी तस्वीर अखबारों मे छपती. क्या पता शायद किसी हिंदी फ़िल्म में कोई ओफ़र भी मिल जाता.

मिस इंडिया या मिस युनिवर्स जैसी प्रतियोगिताओं में कैसे जीता जाता है इसकी कुछ समझ तो है हमें. शरीर का बोतल सा आकार होना चाहिये, स्वाभाविक बत्तीस दाँतों वाली मुस्कान होनी चाहिये जिससे मुँह खोलते ही ट्यूबलाईटें जल जायें, कुछ अदाएँ होनी चाहिये और प्रश्नों के उत्तर में हाज़िरजवाबी होनी चाहिये और गरीबों पिछड़े हुए लोगों के प्रति सुहानुभूति होनी चाहिये, जैसे कि "जी मैं अपना जीवन मदर टेरेसा और बाबा आमटे को समर्पित कर चुका हूँ". मिस्टर इंडिया और मिस्टर युनिवर्स बनने के टोटके भी कुछ इसी तरह के होंगे. पर मिस्टर ऊँट बनने के लिए क्या देखा जाता है? पीठ पर कूब का कोण कितना बड़ा है, या कितने ऊँचे पेड़ से पत्तियाँ तोड़ कर खा सकता हूँ?

कौतुहल से इंटरनेट पर खोजा तो पाया कि ऊँटों की सुंदरता नापने के लिए देखते हैं कि कानों की आकृति कैसी है, नाक की लम्बाई बाकी के चेहरे के अनुपात में कैसी है, और पीठ पर कूब कितना फ़ूला है, आदि. मैंने शीशे में अपने कानों की आकृति को देखा है, काफ़ी सुंदर लगते हैं, नाक का अनुपात बाकी चेहरे की लम्बाई से बहुत बढ़िया है. बस पीठ पर कूब थोड़ा छोटा है पर उसे बढ़ाने की कोशिश मैं कर रहा हूँ, सारा दिन कम्प्यूटर के सामने बैठूँगा तो कूब तो बढ़िया विकसित होगा ही!

पर दिक्कत यह है कि गर्दन दिखती ही नहीं, माँस के बीच दबी है, बहुत सिर को इधर उधर मारा, सामने आने का नाम नहीं लेती! मुझे नहीं लगता कि मिस्टर ऊँट का पुरस्कार मुझे मिलेगा. सुना है कि वियतनाम में मिस काओ यानि कि सुकुमारी गाय की प्रतियोगिता होती है, वहाँ भेस बदल कर कोशिश की जा सकती है. अगर आप को मालूम हो कि कहीं मिस्टर हाथी या मिस्टर साँड की प्रतियोगिता होती है तो मुझे अवश्य बताईयेगा.

सोमवार, मार्च 31, 2008

भूले मुर्दे

पत्थर की दीवारों के भग्न अवशेषों पर न आग की कालिख दिखती है न बमों की झुलस. घास पर खून के निशान नहीं, सुंदर मार्गरीता के फ़ूल खिले हैं. कोई सड़े माँस की बास नहीं आती, फ़ूलों की महक है बस. न ही कोई चीख गूँजतीं है, सन्नाटे में कभी कभी चिड़ियों की चूँ चूँ सुनाई देती है. हरियाली से ढके सुरमयी पहाड़ों की सुंदरता को देखो तो मौत की बातें सुनाई ही नहीं देतीं, सुनों भी तो लगता है कि कोई कहानी सुना रहा हो.



"यहाँ मेरे मित्र का घर था. यहाँ रसोई थी उनकी. कितनी बार बचपन में यहाँ बैठ कर मीठी चैरी खाते थे. .. इस जगह "कपरारा दी सोपरा" नाम था इस गाँव का, 29 सितंबर था उस दिन जब चालिस लोगों को मारा. उस घर में सब लाशें इक्ट्ठी थीं, बच्चे, बूढ़े, औरतें, सबको अंदर बंद करके अंदर बम फैंके थे, जो बाहर निकलने की कोशिश करता उसे मशीनगन से भून देते. ... यहाँ फादर फेरनान्दो की लाश मिली थी, गिरजाघर में ... इधर पड़ी थी लुईजी की लाश, साथ में उसकी बहन थी. कहता था भूख लगी है कुछ खाने का ले कर आऊँगा. हम सब लोग नौ दिनों से तहखाने में छुपे बैठे थे. ... बम से उड़ा दिया उन्होंने गिरजाघर के दरवाज़े को. साठ लोग थे भीतर छुपे हुए सबको बाहर निकाला गया. डान उबाल्दो मारकियोनी पादरी थी, रोकने लगे तो उन्हें सबसे पहले यहीं मारा. बाकी सब लोगों को वहाँ कब्रिस्तान में ले गये. बच्चे, बूढ़े, औरतें, सभी को. दीवार ऊँची थी, कहीं भागने की जगह नहीं थी. मशीनगन चलाई, सभी यही मिले. औरतें और बूढ़े, बच्चों को बचाते हुए, पर किसी को नहीं बचा पाये... ऊपर से फूस डाल कर आग लगा दी..."












बोलते बोलते पिएत्रो की आवाज़ भर्रा जाती. उन मरने वालों में उसकी चौदह साल छोटी बहन थी, गर्भवती भाभी थी और पिता थे. "बोली थी मैं भी साथ जँगल में चलूँगी तो मैंने रोक दिया. सोचा कि भाभी को ज़रूरत पड़ सकती है. फ़िर सोचा बेचारी बच्ची है, बच्ची को कुछ नहीं करेंगे...". भाभी के नौ महीने होने को थे, भागमभाग में खतरा था. पिएत्रो के आँसू नहीं रुकते थे.

पिछले साल पिएत्रो गुज़र गये. आज उन्हीं को याद करने हम लोग मारज़ाबोत्तो गये थे. यहाँ पर 1944 में द्वितीय महायुद्ध में सितंबर के अंत में और अक्टूबर के प्रारम्भ में जर्मन सिपाहियों ने 771 लोगों को मारा था, अधिकतर बच्चे, बूढ़े और औरतें. जर्मन लड़ाई हारने लगे थे. वहाँ के बहुत से नवयुवक मुसोलीनी और फासिसम के विरुद्ध युद्ध में कूद पड़े थे, पहाड़ों में छुप छुप कर ज़र्मन सिपाहियों पर हमला करते थे और जर्मन सिपाही बदला लेना चाहते थे, किसी पर अपना गुस्सा निकालना चाहते थे.

मारज़ाबोत्तो छोटा सा गाँव सा है, हालाँकि आसपास के पहाड़ों पर बिखरे गाँवों के मुकाबले में उसे शहर कहा जाता है. शहर के प्रारम्भ में ही उन 771 मुर्दों की कब्रों के लिए सकरारियो यानि पूजा स्थल बना है. सँगमरमर की दीवारें हैं कब्रिस्तान की जिस पर हर मरने वाले का नाम और उम्र लिखी है. अदा 3 साल, रेबेक्का 26 साल, ज्योवानी चौदह साल, मारिया 74 साल ... उनमें से 315 औरतें और 189 बच्चे 12 साल से छोटे. यहीं पर आ कर पिएत्रो छोटी बहन के पत्थर पर हाथ रख कर बैठा रहता था. उसका बड़ा भाई जिसकी पत्नी अनजन्मे बच्चे के साथ मरी थी, कई साल पहले गुज़र चुका था. "मेरी ही गलती से वह मरी, मैं उसे अपने साथ आने देता तो बच जाती", बार बार यही कहता.

काज़ालिया गाँव के कब्रिस्तान की दीवार पर जहाँ 195 लोग मारे गये थे जिनमें से 50 बच्चे थे, बाहर लिखा है, "हिटलर ने कहा कि हमें शाँत हो कर क्रूरता दिखानी होगी, बिना हिचकिचाये, वैज्ञानिक तरीके से, बढ़िया तकनीक से यह काम करना है हमें."



जाने क्यों मेरे मन वो लोग आते हैं जिनकी मौत का कोई ज़िम्मेदार नहीं, जिनको मारने वाले खुले आम घूम रहे हैं. 1984 में दिल्ली में मरने वाले, 2002 में गुजरात में मरने वाले, 2007 में नंदीग्राम में मरने वाले. कुछ भी बात हो अपने हिंदुस्तान में सौ-दौ सौ लोग मरना मारना तो साधारण बात है. क्या नाम थे, किसने मारा, क्यों मारा, कोई बात नहीं करता. न ज़िंदा लोगों की कोई कीमत और न मरने वालों की. फ़ालतू की बातों में समय बरबाद नहीं करते. उन माओं, पिताओं, बहनो, भाभियों को कोई याद करता. उनके नाम कहीं नहीं लिखे, कानून के लिए तो शायद वह मरे ही नहीं. सोचता हूँ कि अपने जीवन की हमने इतनी सस्ती कीमत कैसे लगायी?

भारत से आने वाले समाचारों से इन दिनों बहुत निराशा हो रही है. मुंबई में गुँडागर्दी करने वाले बिहारियों पर हमला करते हैं, देश चूँ नहीं करता. मुट्ठी भर कट्टरपंथी मुसलमान दँगा करते हैं, खुले आम टेलिविज़न पर तस्लीमा को मारने की धमकी देते हैं, सरकार तस्लीमा पर शाँती भंग करने का आरोप लगाती है और खूलेआम कत्ल की धमकी देने वाले खुले घूमते हैं. हिंदू गुँडे धमकी देते हैं विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम से रामनुजम की रामायण के बारे में लिखी किताब हटायी जाये. इस गुँडाराज में कोई न्याय नहीं, कोई आदर्श नहीं, सबके मुँह पर ताले लगे हैं.

जीवतों की कोई पूछ नहीं, मुर्दों की चीखों को कौन सुने?

रविवार, मार्च 16, 2008

चुरा के दिल बन रहे हैं भोले

विश्वविद्यालय का चिकित्सा विभाग शहर के पुराने हिस्से में है, वहाँ जब भी जाना पड़ता है तो साईकल से ही जाना पसंद करता हूँ. बोलोनिया के पुराने हिस्से में छोटी छोटी संकरी गलियाँ हैं, और वहाँ केवल शहर के उस हिस्से में रहने वाले ही कार से जा सकते हैं. वैसे भी अधिकतर गलियाँ वन-वे हैं और अगर कार से जायें भी तो भूलभुलईयाँ की तरह इस तरह घुमाते हें कि थोड़ी देर में ही भूल जाता हूँ कि किधर जाना था और किधर जा रहा हूँ. बस से भी जा सकते हैं पर फ़िर चिकित्सा विभाग तक थोड़ा चलना पड़ता है. क्लास समाप्त हुई और वापस आ रहा था तो प्याज़ा वेर्दी (piazza verdi) में एक सज्जन ने हाथ उठा कर कहा "एक मिनट, प्लीज, एक मिनट!"

प्याज़ा वेर्दी पिछले कई महीनों से शहर में चर्चा का विषय बना हुआ है. विश्वविद्यालय के छात्र रोज़ रात को वहाँ हुल्लड़ करते हैं. खुली जगह है पुराने मध्ययुगीन घरों से घिरी, बीच में बैठ कर बियर पीते हैं, गप्प मारते हें और किसी को ज़्यादा जोश आया तो वह खाली बोतलें को तोड़ने लग जाता है. आसपास रहने वाले लोग शोर से, गंदगी से परेशान हैं, कहते हैं कि नशे का सामान भी लोग खुले आम बेचते हैं. वहाँ रहने वाले माँग कर रहे हैं कि वहाँ छात्रों के एकत्रित होने को मना कर दिया जाये. छात्र कहते हें कि यह लोग छात्रों को महँगे महँगे सब चीज़ बेचते हैं, घरों के किराये इतने अधिक हैं कि बेचारे छात्र परेशान हो जाते हैं, इन्हें केवल अपना लाभ दिखता है और कुछ नहीं.

जब तक इस बात का कुछ निर्णय लिया जाये, नगरपालिका ने उस इलाके में रात को दस बजे के बाद शीशे की बोतलों में बियर बेचने पर रोक लगा दी है और वहाँ के सभी पब बार आदि को एक बजे बंद होना पड़ता है.

"हाँ कहिये?", मैं तुरंत रुक गया. यही बुरी आदत है मुझमें, कोई कुछ भी कह कर रोक सकता है मुझे. सुने को अनसुना करके निकल जाना नहीं आता. इस तरह रुक कर जाने कितनी अनचाही चीज़ें, किताबें खरीद लेता हूँ क्योंकि इस तरह के बेचने वालों पर मुझे जल्दी तरस आ जाता है. फ़िर घर वापस आ कर समझ नहीं आता कि बेकार की खरीदी चीज़ो का क्या किया जाये, कहाँ फ़ैंका जाये.

कुछ अजीब सा लगा वह व्यक्ति जिसने मुझे पुकारा था. हल्के पीले रंग का रेनकोट जैसा पहने था, बाल यूँ सेट हो रहे थे मानो पुरानी होलीवुड फिल्मों में क्लार्क गेबल के या अपनी हिंदी फ़िल्मों में के एल सेहगल के होते थे. उनके पीछे पीछे एक आदमी बड़ा कैमरा लिये था, दूसरे के हाथ में लम्बा वाला माईक्रोफोन था. "एक मिनट का समय चाहिये. हम लोग मनोविज्ञान के बारे में डीवीडी बना रहे हैं, आप का थोड़ा सहयोग चाहिये. आप को एक तस्वीर को देखना है और यह बताना है कि अगर आप उस तस्वीर वाली जगह पर हों तो क्या करेंगे?"

एक क्षण के लगा कि शायद कोई बकरा बनाने वाला कार्यक्रम न हो. कुछ झिझक कर कहा कि दिखाईये कौन सी तस्वीर है?

तस्वीर में एक पहाड़ था, सुंदर फ़ूलों से भरी एक घाटी थी और सुंदर नदी थी. इस तरह की जगह पर हूँ तो मैं क्या करूँगा? इससे पहले कि मैं कुछ कहता वह बोले, "आप को कहना है कि मैं चुपचाप प्रकृति की स्वर सुनूँगा".

यानि, मुझे केवल उनका बताया डायलाग बोलना था. सचमुच में मैं वहाँ क्या करूँगा, इसकी उन्हें परवाह नहीं थी. जब उन्होंने "एक्शन" कहा तो मैंने कुछ सोचने का अभिनय करते करते, वही उनका कहा बोल दिया.

"अच्छा, क्या मैं आप की तस्वीर ले सकता हूँ?", मैंने थैले से कैमरा निकाला, पर उत्तर देने का उनके पास समय नहीं था, कैमरा और माईक ले कर वह किसी और से कोई अन्य डायलाग बुलवाने चल पड़े थे.

मैं मन में बोला, सचमुच उस तरह की जगह पर होता तो क्या करता? ज़ोर ज़ोर से गाना गाता, "सुहाना सफ़र और यह मौसम हसीन" या फ़िर, "भीगी भीगी हवा, सन सन करता जिया".

उस शाम को घर पर बेटे और पुत्रवधु को यह बात सुना रहा था तो बात हिंदी संगीत पर जा अटकी. कोई भी बात हो, कुछ भी स्थिति हो, हर स्थिति के लिए मेरे मन में कोई न कोई हिंदी गाना है और वह गाने ही तो मन की बात को अभिव्यक्त करते हैं! लता, किशोर, रफ़ी, आशा के गाये गीत हमारी भावनाओं के साथ इस तरह जुड़े हैं कि अगर गाना न हो तो भावना अधूरी सी लगती है.

मैंने कहा कि आर डी बरमन मेरे सबसे प्रिय संगीतकार थे, उनके हर गाने के शब्द मुझे याद थे. कुछ और बात बढ़ी तो मैंने बताया कि उनकी पहली फ़िल्म "छोटे नवाब" के गाने मुझे बहुत अच्छे लगते थे, जैसे "चुरा के दिल बन रहे हैं भोले, जैसे कुछ जानते नहीं" और कैसे मैंने इस फ़िल्म के कैसेट को कितने सालों तक दिल्ली की दुकानों में खोजा पर नहीं मिला. बेटे ने पूछा, "क्या नाम बोला आप ने उस संगीत निर्देशक का?"

कल मीटिंग में फ्लोरेंस गया था. शाम को घर लौटा तो बेटा मुस्करा रहा था, "आप के लिए आर डी बरमन के सभी गाने खोज लिये हैं, इंटरनेट पर सब मिल जाता है."

विश्वास नहीं हुआ पर सचमुच एसा ही है. जाने कहाँ से, कैसे, वह आर डी बरमन के सारे गाने खोज लाया है, सौ से भी अधिक फ़िल्में हैं, उनमें से बहुत सी हैं जिनका नाम भी पहले नहीं सुना कभी, शायद रिलीज़ ही न हुई हों, जैसे कि जलियाँवाला बाग, मज़ाक, मर्दोंवाली बात, आदि. कुछ प्रसिद्ध निर्देशकों भी फ़ल्में हैं जैसे विजय आनंद की "घुघरू की आवाज़" जिनके नाम भी मुझे नहीं मालूम थे. एक गाना है "मज़दूर" फिल्म से सलमा आगा का गाया हुआ जो पहले कभी नहीं सुना था. अभी तो चार या पाँच फ़िल्मों के गाने ही सुने हैं, सभी गानों को एक बार सुनते सुनते कई सप्ताह लग जायेंगे. 8 जिगाबाईट हैं उन गानों के.

और सबसे अच्छी बात, रात को बहुत सालों के बाद "चुरा के दिल बन रहे हें भोले" भी सुना.

कई बार मन में आता था कि जब कोई फ़िल्म नहीं रिलीज़ हुई हो या पूरी ही न हुई हो, तो उसका संगीत, उसकी रील कहाँ जाती होगी? जाने कितना काम हो सकता है हमारे प्रिय संगीतकारों का, निर्देशकों का, इस तरह से छुपा हुआ. शायद उनका बाज़ार न हो पर इंटरनेट के माध्यम से उनके प्रेमी उनका आनंद तो ले सकते हैं?

शुक्रवार, मार्च 14, 2008

अमलतास और टेसू की आग

आखिरकार बसंत आ ही गया. पिछले एक सप्ताह से सुबह चार बजे से ही बाहर के पेड़ों पर पक्षियों कि चहचहाहट शुरु हो जाती है. कई बार लगता है कव्वाली की प्रतियोगिता हो रही हो. पहले एक पक्षी तान बजाता है, फ़िर दूसरा उसके उत्तर में उसी तान को कुछ बदल कर, कुछ लम्बा कर कर उसका उत्तर देता है. तब पहले वाला दोबारा सा नया नमूना प्रस्तुत करता है. सो रहे हो तो यह सुबह उठने का अलार्म सुंदर तो है पर आवश्यकता से पहले बजने लगता है. सुबह जल्दी उठने की आदत है मुझे पर चार बजे तो मेरे लिए भी बहुत जल्दी है!

थोड़े ही दिन में आदत पड़ जायेगी, फ़िर सुबह सुबह चार बजे नींद नहीं खुलेगी, पर जब पाँच बजे हमेशा की तरह उठूँगा तो पक्षियों की चहचहाहट सुन कर मन प्रसन्न हो जाता है.

आज काम से छुट्टी है. सुबह आँख खुली तो भी बिस्तर पर लेटा रहा और किताब पढ़ता रहा. गुलज़ार की फ़िल्मों के बारे में साइबल चैटर्जी ने किताब लिखी है, ""गुलज़ार का जीवन और सिनेमा" (Echoes & Eloquences - life and cinema of Gulzaar), वही पढ़ रहा हूँ. गुलज़ार की फ़िल्में, उनकी कहानियाँ, उनकी कविताँए सब ही मुझे प्रिय हैं इसलिए उन फ़िल्मों के पीछे छुपी बातों को जानने की मन में बहुत उत्सुकता थी. आठ बजे उठना पड़ा क्योंकि आज घर पर होने से कुत्ते को सैर कराने की ज़िम्मेदारी मेरी ही थी.

बाहर निकले तो सब तरफ़ दूधिया धुँध थी, मानो पतीले से उबल कर बाहर बिखर गयी हो. गुलज़ार के बारे में पढ़ो तो साधारण जीवन की उपमाओं में बात करना अच्छा लगता है, इसमें उनके जैसा उस्ताद कोई अन्य नहीं.

बाग की ओर गये तो धुँध के साथ मखमली घास की हरियाली और फ़ूलों से भरे पेड़ देख कर लगा कि हाँ सचमुच बसंत आखिर आ ही गया. बाग में घुसते ही कुछ लम्बे और पँख जैसी आकृति वाले पेड़ हैं जिन्हें इतालवी भाषा में प्योप्पो कहते हैं. आम प्योप्पो की आकृति साधारण वृक्षों जैसी होती है जबकि हमारे बाग वाले पेड़ कुछ अजीब से हैं. जब उमस अधिक होती है तो यह पेड़ वातावरण से उमस को ले कर उसका पानी बना देते हें और पेड़ के नीचे खड़े हो तो पानी की बूँदें सी गिरती रहती हैं. जब गर्मी अधिक हो और उमस हो तो इस पेड़ के नीचे खड़ा होना सुखद लगता है. इसके फ़ूल कुछ शहतूत जैसे, कुछ कानखजूरे जैसे लग रहे थे, बाग की सारी सड़क को ढके हुए. (नीचे तस्वीर में प्योप्पो के पेड़)



बाग की हर सड़क पर अलग पेड़ लगे हैं, एक तरफ़ शहतूत, दूसरी ओर चेरी, एक ओर होर्स चेस्टनट यानि "घोड़े के अखरोट", पीछे नाशपाती और सेब. सभी पेड़ फ़ूलों से भरे हैं. अभी घास हरी है, वह फ़ूलों की चादर के नीचे नहीं छुपी है. पिछले साल इन्हीं दिनों में जब सारी घास फ़ूलों से छुप गयी थी, हम सब लोग एक रविवार को बाग में पिकनिक के लिए गये थे. इस बार भी, थोड़ी सी सर्दी कम हो तो पिकनिक का कार्यक्रम बने. (नीचे तस्वीर में पिछले साल की पिकनिक में बेटा और पुत्रवधु, और कुत्ता ब्राँदो)



देखा कि बाग में लगी एक बैंच को किसी ने तोड़ दिया है. रात को अक्सर नवजवान लड़के लड़कियाँ देर तक बैठे रहते हैं, हो सकता है कि उनमें से किसी ने अधिक पी ली हो या नशा किया हो, तो अपने करतब बेचारे बैंच को तोड़ कर दिखाये.

दूसरी ओर आदमी बच्चों के लिए नये झूले लगा रहे थे. यह गनीमत है कि शरारती लड़कों ने अभी तक बच्चों के झूलों से तोड़ फोड़ नहीं की है. तब सोच रहा था कि यहाँ हर झूले का अपना अलग नाम होता है, जब कि हिंदी में बस एक झूला ही होता है, चाहे वह झूलने वाला हो, या फ़िसलने वाला या गोल चक्कर लेने वाला या कोई और. शायद इसका कारण है कि भारत में पहले विभिन्न तरह के झूले नहीं होते थे और यह सब विदेशी प्रभाव से ही आये हैं?

सैर के बाद घर आने लगे तो अचानक मन में होली की बात आ गयी. इन दिनों में दिल्ली में बुद्ध जयंती वाली सड़क और बाग में अमलतास के पेड़ों पर पीले फ़ूलों और रिज से जाने वाली सड़क पर टेसू के फ़ूलों की लाल आग लगी होगी. दिन में गर्मी हो जाती होगी पर सुबह सुबह उस तरफ़ घूमने जाना कितना अच्छा लगता होगा. थोड़े दिनों में गुलमोहर के लाल फ़ूलों की बारी आती होगी! यह होली भी इसी तरह बीत जायेगी, बिना रँगो की, बिना मित्रों की. अचानक मन उदास हो गया.

मंगलवार, मार्च 11, 2008

संगीत और शोर

पिछले तीन चार सालों से काम करते समय जब भी अकेला होता हूँ तो संगीत सुनने की आदत सी पढ़ गयी है. इंटरनेट का कोई भारतीय स्टेशन खोज कर दुनिया में कहीं भी भारतीय संगीत सुनना आज जितना आसान है उतना पहले कभी नहीं था.

कल दिन भर घर पर था. बहुत दिनों से घर पर समय नहीं मिला था और अपनी स्टडी में बहुत सारे काम जमा हो गये थे. शेल्फ पर ढेर लगे किताबों के उन्हें ठीक करना, छाँट कर पुरानी किताबों को फैंकने के लिए निकालना, डीवीडी इधर उधर बिखरी हुई हैं उन्हें ठीक से सहेज कर रखना, फोटो को छाँटना और एल्बम में लगाना, अलमारी के द्राज साफ करना, कागज़ छाँटना, पुरानी पत्रिकाओं को छाँटना, आदि. कई घँटे लगे इस सब काम में और सारे समय संगीत बजता रहा.

रात का खाना लगा तो पत्नी ने खाना खाने को बुलाया और बोली अब इस शोर को बंद करो, सारा दिन यह चीं चीं सुन कर सिर दर्द हो गया है. मुझे थोड़ा सा बुरा लगा कि मेरे संगीत को शोर कह रही है पर बंद कर दिया. कमरे में से आखिरी कागज कूड़ा उठा रहा था जो बिना आवाज का कमरा अजीब सा पर अच्छा लगा. सोच रहा था कि कैसे संगीत भी अधिक हो जाये तो, या उसकी ध्वनी ज़रूरत से अधिक ऊँची हो शोर बन सकता है.

खाना खा कर कुत्ते को लिया और बाग में सैर को निकला. पहले दो दिन बारिश हो रही थी और सर्दी वापस लौट आई थी पर कल रात को न तो बारिश थी न ही वह हड्डियों तक घुसने वाली सर्दी. थोड़ी देर तक ही चला था कि पड़ोस के एक वृद्ध सज्जन दिखे, उनसे हैलो हुई तो वे भी साथ चलने लगे. वैसे तो मुझे तेज चलना अच्छा लगता है पर कुत्ता साथ हो तो तेज नहीं चल सकते, जहाँ कुत्ते को रुकना होता है, वहाँ रुकना ही पड़ता है. वे वृद्ध सज्जन जिनका नाम है अंतोनियो, उनका दायें कूल्हे का ओपरेशन हुआ है तो छड़ी के सहारे धीरे धीरे चलते हैं, उनके साथ साथ चलते हुए, और भी धीमे चलना पड़ रहा था.

अंतोनियो बहुत बातें करते हैं, लगता है कि सारा दिन घर में किसी से बात नहीं कर पाते या शायद घर पर अकेले रहते हैं, पर जब मिलते हैं, सारा समय कुछ न कुछ बोलते रहते हैं. उनके कूल्हे के ओपरेशन के बारे में तो पहले ही बहुत सुन चुका हूँ. कल रात को बात हो रही थी बदलते पर्यावरण के बारे में कि कैसे मौसम बदल रहे हैं, गर्मियों में गर्मी बढ़ गयी है और सर्दियों में सर्दी कम पड़ती है. तभी सामने से जोगिंग करता हुआ एक लड़का आया. अंतोनियो ने उसे हैलो बोला पर वह कानो में आईपोड लगाये संगीत सुनने में मस्त था, उसने शायद नहीं सुना और आगे निकल गया.

अंतोनियो मुझसे बोले, "आज कि दुनिया में साथ साथ कितने काम करते हैं, पर ध्यान किसी तरफ नहीं दे पाते. अगर पूछो कि कौन सा गाना सुना तो बता नहीं पायेगा कि क्या सुना, क्या बोल हैं उसके. आजकल संगीत सुनना इतना आसान हो गया है कि उसकी सुंदरता को हम समझ ही नहीं पाते. जब संगीत सुनने को नहीं मिलता था तो उसको कितने ध्यान से सुनते थे, उसके महत्व को समझते थे. जब मैं छोटा था तो संगीत सुनने का मौका साल में एक दो बार ही मिलता था, चर्च में कभी कोई आरगन बजाने वाला आता या कोई धार्मिक गानों को गाने वाला दल आता तब. हम लोग खुद ही अपने लोकगीत गाते, गिटार के साथ. न रेडियो था, न टीवी, न वाकमैन."

करीब अठ्ठासी वर्ष के हैं अंतोनियो और उनकी बात शायद द्वितीय महायद्ध से पहले की थी. जब उन्हें छोड़ कर घर की ओर आ रहा था तो उनकी बातों पर सोच रहा था.

मुझे याद है जब घर में पहला ट्राँज़िस्टर आया था और कैसे सिलोन रेडियो को मुश्किल से खोज कर गाने सुनते थे, तब विविध भारती नहीं होता था. तब किसी नये गीत को सुन कर कितना उत्साह होता था. पर कल सारा दिन संगीत सुनता रहा, क्या सुना, कुछ याद नहीं. आजकल हर समय बस यही चिंता रहती है कि कैसे नया सुना जाये. दो दिनों में ही नये का नयापन गुम हो जाता है और नये की तलाश चलती ही रहती है.

आज की दुनिया में संगीत सुनना तो बहुत छोटी सी बात है, शायद इसी लिए उसका महत्व कम हो गया है?

गुरुवार, फ़रवरी 28, 2008

नये बाँध, पुरानी गलतियाँ

कल २७ फरवरी के अँग्रेज़ी समाचार पत्र फाँनेंशियल टाईमस् में समाचार था चीन में बनने वाले दुनिया के सबसे बड़े बाँध के बारे में जिसका शीर्षक था "नया बाँध फ़िर से नादान गलतियाँ कर रहा है" (New dam repeats stupid mistakes). अगर यह समाचार कोई पत्रिका वाला छापे तो सोचा जाता है कि अवश्य ही कम्यूनिस्ट होंगे या पुरातनपंथी जो विकास नहीं चाहते और हर आधुनिक तरक्की के पीछे उसकी अच्छाईयाँ छोड़ कर उनकी कमियों को खोजते हैं और फ़िर उन कमियों को बढ़ा चढ़ा कर ढिँढ़ोरा पीटते हैं. पर जब वह समाचार व्यवसायिक अखबार में छपे जो हमेशा उदारवाद और उपभोक्तावाद की तरफ़दारी करता हो तो उसका क्या अर्थ निकाला जायेगा?

समाचार में बताया गया है कि 1950 के पास बने सनमेक्सिया बाँध के अनुभव से कुछ नहीं सीका गया. जब सनमेक्सिया बाँध बन रहा था तो कहते थे कि उससे देश कि एक तिहाई बिजली की माँग पूरी होगी, असलियत में उसका दसवाँ हिस्सा बिजली में नहीं दे पाया और पानी में बह कर आने वाले मिट्टी से धीरे धीरे बंद सा हो गया. हज़ारों लोग जिनके घर पानी में डूबे, जो धरती और वनस्पति पानी में डूबी, सब व्यर्थ और अब वे विस्थापित लोग धीरे धीरे मिट्टी से भरे बाँध की धरती पर वापस लौट रहे हैं जहाँ उनके घर थे.

समाचार का निष्कर्श है कि इस तरह के निर्णय जिनसे प्रकृति, लोगों पर इतना प्रभाव पड़ेगा, उन्हें लम्बा सोच कर लेना चाहिये न कि छोटे समय में क्या मिलेगा यह सोच कर. तो क्या यह जान कर नर्मदा पर बनने वाले सरदार सरोवर बाँध के बारे में कुछ दोबारा सोचा जा सकता है? उसका विरोध करने वालों को प्रगति का विरोधी मान कर चुप करा जायेगा?

रविवार, फ़रवरी 24, 2008

मधु किश्वर

मधु किश्वर का आऊटलुक में छपा लेख पढ़ कर दिल दहल गया. मानुषी जैसी पत्रिका निकालने वाली मधु जी का नाम जाना पहचाना है. अपने लेख में उन्होंने दिल्ली में कुछ जगह पर सड़कों पर सामान बेचने वालों के जीवन में सुधार लाने के लिए किये एक नये प्रयोग के बारे में लिखा है जिसका विरोध करने वाले कुछ स्थानीय गुँडों ने स्थानीय पुलिस वालों के साथ मिल कर उन पर तथा मानुषी के अन्य कार्यकर्ताओं पर हमले किये हैं. लेख पढ़ कर विश्वास नहीं होता कि हाईकोर्ट, गर्वनर, और यहाँ तक कि प्रधानमंत्री भी उन लोगों की रक्षा करने में असमर्थ हैं और इस प्रयोग के सामने आयीं रुकावटों को नहीं हटा पा रहे.

देश में कानून का नहीं स्थानीय गुँडों का राज चलता है यह तो तस्लीमा नसरीन, जोधा अकबर, मुम्बई में राज ठाकरे काँड जैसे हादसों से पहले ही स्पष्ट था. थोड़े से लोग चाहें तो मनमानी कर सकते हैं, पर सोचता था कि यह सब इसी लिए हो सकता है क्योंकि राजनीति में गुँडागर्दी का सामना करने का साहस नहीं क्योंकि वह वोट की तिकड़म का गुलाम है पर जान कर, चाह कर भी प्रधानमंत्री और गवर्नर कुछ नहीं कर पाते, इससे अधिक निराशा की बात क्या हो सकती है!

भारत दुनिया का सबसे बड़ा गणतंत्र है, आने वाले समय का सुपरपावर है और मुट्ठी भर लोगों के हाथ में कबुतर की तरह फड़फड़ाता है, अन्याय के सामने सिर झुका लेता है?

शुक्रवार, फ़रवरी 22, 2008

धर्म एवं आस्था

कुछ दिन पहले पुरी में जगन्नाथ मंदिर जाने का मौका मिला था, पर वहाँ का भीतरी कमरा जहाँ भगवान जगन्नाथ की प्रतिमा है वह उस समय बंद था, क्योंकि "यह प्रभु के विश्राम का समय था". पुजारी जी बोले कि अगर मैं समुचित दान राशि दे सकूँ तो विषेश दर्शन हो सकता है. यानि पैसा दीजिये तो प्रभु का विश्राम भंग किया जा सकता है. भुवनेश्वर के प्राचीन और भव्य लिंगराज मंदिर में, पहले दो पुजारियों में आपस में झड़प देखी कि कौन मुझे जजमान बनाये. भीतर पुजारियों ने सौ रुपये के दान की छोटेपन पर ग्यारह सौ रुपये की माँग को ले कर जो भोंपू बजाया तो सब प्रार्थना और श्रद्धा भूल गया.

मंदिर में फोटो खींचना मना है पर विदेशी, अहिंदू पर्यटकों के लिए अलग से छज्जा बनाया गया है जहाँ से तस्वीर खींच सकते हैं, क्योंकि उन्हें मंदिर में घुसना वर्जित है. उस छज्जे पर खड़ा हो कर धर्म और आस्था की बात को सोच रहा था कि क्यों हर धर्म में रूढ़िवाद का ही राज होता है? भगवान की पवित्रता बड़ी है या विदेशी अहिंदू पर्यटकों की अपवित्रता, तो क्यों नहीं अहिंदू पर्यटक मंदिर में घुस कर पवित्र हो जाते? कोई भगवान अपने ही बनाये मानवों से अपवित्र हो सकता है क्या?

वैसे व्यक्तिगत रूप में मेरे लिए धार्मिकता और मंदिर में जा कर पूजा करने में कोई विषेश सम्बंध नहीं क्योंकि मेरे लिए धार्मिकता अधिक आध्यात्मिक एवं अंतर्मुखी है. धर्म और आस्था पर बात करना मुझे कठिन भी लगता है क्योंकि महसूस करता हूँ कि इस बारे में मेरे विचार स्पष्ट नहीं, और कई बार अंतर्विरोधी भी है. यह भी लगता है कि कितना भी लिख लो, कुछ न कुछ बात अधूरी ही रह जायेगी.

ब्रिटिश पत्रकार और लेखक क्रिस्टोफर हिचिन्स ने धर्म और आस्था के बारे में बहुत कुछ लिखा है. इस विषय में उनकी दृष्टि अधिकतर आलोचक ही है और कई बार मुझे सोचने को मजबूर करती है. कुछ समय पहले की उनकी एक पुस्तक, "भगवान बड़ा नहीं" में उन्होंने आस्था के विषय पर लिखा है,
"धार्मिक आस्था को मिटाया नहीं जा सकता क्योंकि मानव जाति अभी अपने विकास मार्ग पर है, पूरी विकसित नहीं हुई. यह आस्था कभी नहीं मिटेगी, या यह कहें कि तब तक नहीं मिटेगी जब तक हम मृत्यु, अँधेरे, अज्ञान और अन्य भयों पर विजय नहीं पा लेंगे. (...) पर मुझमें और मेरे धार्मिक मित्रों में एक अंतर है. जो मित्र गम्भीरता, सच्चाई और ईमानदारी में विश्वास रखते हैं वह इस अंतर को मान लेंगे. मैं उनके बार मित्ज़वाह समारोहों में जाने को तैयार हूँ, मैं उनके विशालकाय गोथिक गिरजाघरों की प्रशंसा करने को तैयार हूँ, मैं यह मानने को तैयार हूँ कि कुरान को भगवान ने लिखवाया और कहा कि यह सिर्फ अरबी भाषा में हो और इसका मसीहा एक अनपढ़ व्यक्ति हो. मैं यह सब मानने को तैयार हूँ पर बदले में मैं कहता हूँ कि वे लोग मुझे छोड़ दें, मैं जैसा रहना चाहूँ जैसा करना चाहूँ, पर धार्मिक लोग यह नहीं कर सकते."
हर धर्म के धार्मिक इन्सानों को यह सोचना कि उनके पास सत्य का असली उत्तर है और केवल उनका सत्य ही असली सत्य है और उन्हें यह सत्य दुनिया में सब लोगों को समझाना है, कितनी लड़ाईयों का कारण बन चुका है. कुछ सप्ताह पहले फ्राँस के समाचार पत्र "ले मोंड २" की पत्रकार सिल्वी लासेर्र ने ताजिकिस्तान में पेंटेकोस्टल ईसाई धर्म के मिशनरियों के द्वारा धर्म परिवर्तन कराने के बारे में विस्तृत रिपोर्ट छापी है. उनके अनुसार, पिछले पंद्रह सालों में ताजिकिस्तान में इस धर्म के अनुयायिओं की संख्या करीब पच्चीस हजार से बढ़ कर दो सौ पैंतीस हजार हो गयी है. धर्म परिवर्तन को व्यक्तिगत मामला मान सकते हैं पर दिक्कत यह है कि ताजिकिस्तान मुसलमान देश हैं और यहाँ धर्म परिवर्तन को नहीं माना जाता बल्कि धर्म बदलने वाले को मौत की सजा भी हो सकती है. यानि तनाव बढ़ने तथा बड़े स्तर पर झगड़े हो सकने की संभावना बढ़ गयीं हैं.

मुस्लिम धर्म और आस्था पर तो कोई भी बहस नहीं हो सकती क्योंकि कहते हैं कि कुरान शरीफ़ तो सीधा भगवान ने पैगम्बर मुहम्मद को लिखवायी थी. यानि आप इस्लाम की किसी बात की न आलोचना कर सकते हैं न ही कुछ बदलाव की माँग कर सकते हैं चाहे बातें कितनी ही पिछड़ी क्यों न हों, चाहे उसमें धर्म के नाम पर मानव अधिकारों का कितना भी हनन क्यों न हो.

जिन दिनों मैं उड़ीसा में था, उन दिनों भी राज्य के कुछ हिस्सों से धर्म के नाम पर होने वाली हिंसा के समाचार आ रहे थे. इस बारे में बात छिड़ी तो एक सज्जन बोले, "अन्य सब धर्मों वाले आ कर हिंदुओं का धर्म बदल रहे हैं तो हिंसा होगी ही. अब तो हिंदूओं को भी बाहर जा कर अपना धर्म फ़ैलाना चाहिये". मैं उस समय तो चुप रहा पर मन में सोच रहा था कि स्वयं को निक्ष्पक्ष रूप से देखना आसान नहीं, वरना वे कैसे भूल गये कि हिंदू धर्म भी भारत से सारे पूर्वी एशिया में फैला था और दुनिया का सबसे बड़ा हिंदु मंदिर, कम्बोदिया में अंगकोरवाट इसी की निशानी है.

दुनिया में होने वाले कितने झगड़ों और युद्धों के पीछे धर्म और आस्था की बातें जुड़ीं हैं इसकी सूची बहुत लम्बी होगी. झगड़े केवल विभिन्न धर्मों के बीच हों यह बात नहीं. एक ही धर्म के अनुयायी, अलग अलग टुकड़ों में बँटें हैं और आपस में अधिक से अधिक अनुयायी बनाने में एक दूसरे से लड़ रहे हैं. संगठित धर्मों में कहाँ धर्मग्रँथों के दिये गये संदेश समाप्त होते हैं और कहाँ ताकत और पैसे का लालच शुरु होता है, यह कहना कठिन हो जाता है.

मेरे एक इतालवी मित्र जो कैथोलिक थे पर अब बुद्ध धर्म के अनुयायी बन गये हैं, कहते हैं कि धर्म का सम्बंध मन से है, जो धर्म मेरे मन को आकर्शित करता है उसे अपनाने की स्वतंत्रता होनी चाहिये. पर मुझे लगता है कि गरीबी में यह बात इतनी सरल नहीं. लेकिन जब भगवान एक ही है तो फ़िर क्या फर्क पड़ता है कि कौन किस धर्म का अनुयायी है या फ़िर कौन धर्म बदलता है?

वैचारिक दृष्टि से मैं इस बात से सहमत हूँ कि धर्म व्यक्तिगत बात है लेकिन मुझे लगता है कि धर्म के साथ रीति रिवाज़, लोक कथाँए, पहनना ओढ़ना, खाना पीना, त्योहार, भाषा, बहुत सी अन्य बातें भी जुड़ी हैं. मुझे लगता है कि धर्म बदलने के साथ साथ बाकी सब रीति रिवाज, लोककथाँए, पहनना ओढ़ना, भाषा, सबमें भी बदलाव आ जाता है और मानव जाति की विविधता कम हो जाती है. दक्षिण अमरीका में रहने वाली जनजातियों ने यूरोपीय देशों के साम्राज्यवाद के तले अपने धर्म और संस्कृति को खोया और मानव जाति की विविधता को कमजो़र किया कुछ वैसे ही जैसे मेकडोन्ल्ड जैसे रेस्टोरेंट का प्रभाव देशों के खाने के तरीके पर पड़ रहा है या फ़िर हालीवुड की फ़िल्मों के प्रभाव यूरोपीय भाषा संस्कृति पर पड़ रहा है या मुम्बई की फ़िल्मों का प्रभाव भारत की विभिन्न बोलियों, उनके लोकसंगीत पर पड़ रहा है. मैं मानता हूँ कि मानव जाति की विविधता में उसकी सुंदरता है.

गुरुवार, फ़रवरी 21, 2008

खोयी यादें (भारत यात्रा डायरी, अंतिम)

इस बार दिल्ली में मेट्रो से द्वारका मोड़ तक की यात्रा की.

कितनी यादें जुड़ीं थी उस रास्ते से. पहली बार कब गया था उस तरफ़, यह याद नहीं. वह यात्रा मौसियों के साथ होती थी. "ज़मीन पर जाना है", सोच कर ही दिनों पहले तैयारी शुरु हो जाती थी. पाकिस्तान में छूटी ज़मीन जयदाद के बदले में नाना को मुवाअजे में वे खेत मिले थे जिन्हें हम "ज़मीन" के नाम से जानते थे. नाना ने उन्हें दीवनपुर का नाम दिया था. फिल्मिस्तान के पास शीदीपुरा से तिलक नगर आने में ही दो बसे बदलनीं पड़ती थीं. फ़िर तिलकनगर से 14 नम्बर की नजफ़गढ़ जाने वाली बस से ककरौला मोड़ उतरते थे.

नानी की रसोई में गोबर के उपले जलते थे. उपले बनाने के लिए सिर पर तसली ले कर गोबर उठाने जाना मुझे बहुत अच्छा लगता था. गरम, मुलायम गोबर जीता जागता जंतु सा लगता था. नानी की बनायी हर चिज़ में उसी की गंध होती थी, उबले दूध में भी. रसोई के पीछे छोटा कूँआ था जहाँ बरतन धोते और पीने का पानी लेते. कुछ दूर, पेड़ों के झुँड के बीच में एक और बड़ा कूँआ था जहाँ छोटा सा टैंक भी था. मोटर चलाने से पानी की मोटी धारा जब टैंक में आती तो गरम दोपहर में उसके नीचे नहाने में बहुत मज़ा आता. कूँए के पास मोटे और मीठे बेरों के पेड़ थे. पड़ोस वाले सुरजीत के खेत में टैंक और भी बड़ा और गहरा था जहाँ पर तैर भी सकते थे. रात को चारपाईयों पर लेट कर तारे देखते और अँताक्षरी खेलते.

करीब का गाँव था नवादा जहाँ तक जाने में 15 या 20 मिनट का रास्ता था. नवादा में अम्मा बापू का घर था. नवादे के प्राथमिक विद्यालय में माँ ने पढ़ाना शुरु किया था और तब वह एक निस्संतान दम्पति के साथ रहती थी जिन्हें वह अम्मा बापू बुलाती थी. वही अम्मा बापू हमारे दूसरे नाना नानी थे. बापू डीटीएस की बस चलाता था (जो बाद में डीटीसी बन गयी). अम्मा के घर में मोर थे और वहाँ जाने का सबसे बड़ा लालच, मक्खन वाली रोटी खाना और मोर के पँख लेना होता था. वहाँ गाँव में डँडे मारने वाले और कीचड़ से पोतने वाली हरयाणवी होली का सारा साल इंतज़ार रहता.

जब द्वारका मोड़ पर उतरा तो कुछ समझ में नहीं आया कि कहाँ हूँ. नाना की उस जमीन का एक टुकड़ा बचा है जहाँ मँझले मामा ने स्कूल बनाया है. मकानों के जँगल में यह सोचना कि नानी का घर कहाँ था असम्भव था. मामा मुझे स्कूल की छत पर ले गये. "वो सीढ़ियाँ हैं जहाँ मेट्रो स्टेशन की, उसकी पार्किंग की जगह वहाँ बीजी की रसोई थी, वहीं सीढ़ियों के साथ छोटा कूँआ था. जहाँ वह खेत थे, वहाँ पार्किंग बनी है. वह गुलाबी तीन मंजिला घर दिख रहा है न, वहाँ घर के कमरे थे. वह घरों के बीच में पेड़ दिख रहा है? बस पहले के पेड़ों में से एक वही पेड़ बचा है. उसी के साथ बड़ा कूँआ था जहाँ बेरों के पेड़ थे और पानी का टैंक था", मामा ने समझाया.

दूर नाले के साथ खड़े पेड़ लगता है कि नहीं बदले. उस तरफ़ नाना मुर्गाबियों और बतखों का शिकार करने जाते थे. पर नाले के साथ साथ नाँगलोई तक घर बन गये हैं. उस तरफ़ खेतों में एक पुराना खँडहर होता था. हम कहते कि वहाँ रात को चुड़ैलें जमा होती थीं पर दिन में डर नहीं लगता. गर्मियों की दोपहर को जब लू चलती तो उसी खँडहर में ही बैठ कर खेत से ले कर ठण्डे तरबूज या खरबूजे खाते थे. घरों के बीच वह खँडहर कहाँ खो गया था यह तो मामा को भी याद नहीं था.

मामा के स्कूल के मंदिर में नाना नानी की तस्वीर लगी है. बाकी की सब यादें उस गाँव के साथ ही खो गयीं हैं जिनकी कोई तस्वीर नहीं है मेरे पास.
















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बुधवार, फ़रवरी 20, 2008

भगवान की खोज (भारत यात्रा डायरी 3)

खुजराहो और कोणार्क की काम शास्त्र के सिद्धातों को सहज रुप में, बिना किसी पर्दों और शर्म के, प्रस्तुत करने वाली मूर्तियों के बारे में बहुत सुना था पर पहले देखने का मौका कभी नहीं मिला. इधर उधर कुछ तस्वीरें देखीं थीं इसलिए उन्हें देखने की उत्सुक्ता भी थी मन में.

कोणार्क की मूर्तियों में कामशास्त्र के सभी आसन दिखने को मिलते हैं. मूर्तियों के आकार से अपेक्षाकृत बहुत बड़े बने हुए पुरुष अंग स्पष्ट ही अपना ध्येय सामने रख देते हैं, जीवन को खुल कर आनंद से जीने का ध्येय. कामक्रीणा में रत मूर्तियाँ अलग से किसी कोने में नहीं बनी, बल्कि भगवान, देवी देवताओं की अन्य मूर्तियों के बीच ही मिली जुली हैं. उनमें आत्माओं या मन के मिलन की बात नहीं, उनका ध्येय तो शारीरिक आनंद है जो कि भारतीय दर्शन के मूलभूत विचार कि जग माया है और इंद्रियाँ मानव को मायाजाल में फँसातीं हैं से विपरीत लगता है. शायद इन मूर्तियों की प्रेरणा धर्म के तांत्रिक मार्ग से आती है क्योंकि सुना है कि तांत्रिक मार्ग में ही यौन सम्पर्कों को भी ईश्वर तक पहुँचने का माध्यम माना जाता है.

मंदिर के आसपास घूमते गावों के, शहरों के स्त्री पुरुषों के दल थे, विद्यालय के बच्चों के दल भी थे. उनमें से अधिकतर को रुक कर किसी यौनक्रीणारत मूर्तियों की ओर ठीक से देखते हुए नहीं पाया, सब लोग नीचा सिर करे ही निकले जा रहे थे. मुझे लगा कि कोई कोई पुरुष ही रुक कर कुछ थोड़ा सा देख लेता था. उस सुबह मुझे अपनी तरह मूर्तियों को ध्यान से देख कर, यौन प्रक्रियाओं का अध्ययन करने वाला और कोई नहीं दिखा.

काम और प्रेम को जीवन का अभिन्न अंग मानना अगर प्राचीन भारत में आसान था, आज वह बिल्कुल आसान नहीं. अन्य बातों में प्राचीन भारत के गौरव को याद करने वाले और उस गौरव के लिए मरने मारने को तैयार रहने वाले, आज काम और प्रेम की किसी भी जन अभिव्यक्ति को भारतीय संस्कृति का अपमान समझते हैं और अँग्रेजी विक्टोरियन मनोवृति जो शरीर को ढ़का देखना माँगती है और खुले आम दो व्यक्तियों के बीच में प्रेम के सभी अभिव्यक्तियों को गलत मानती है, उसी को ही असली भारतीय वृति मानते लगते हैं.

इस भारत यात्रा में कई प्राचीन स्मारक देखने का मौका मिला. हर जगह प्रेमी युगल एकांत की तलाश में तड़पते दिखे, और बहुत जगहों पर पुलिस वालों को उन्हें तंग करते देखा. वेलनटाईन डे की तोड़फोड़ के भी समाचार देखे. मेरा सुझाव है कि आगे से वेलनटाईन दिवस छोड़ कर खुजराहो दिवस या कोणार्क दिवस मनाया जाये, उस पर को तो शायद किसी भी भारतीय संस्कृति को मानने वाले को आपत्ती नहीं हो सकती. पर फ़िर मुझे अपने इस सुझाव से ही डर लगता है. अफ्गानिस्तान में तलिबानों ने बुमयान की प्राचीन बुद्ध प्रतिमाओं को ध्वंस कर दिया, अगर कोणार्क दिवस से रुष्ट हो कर किसी संस्कृति के रखवाले ने कोणार्क को ध्वंस करने की ठान ली तो?

कोणार्क के मंदिर को केवल कामक्रीणारत मूर्तियों के दृष्टिकोण से देखना गलती होगी. उसका वास्तुशिल्प अदभुत है. सूर्य के बारह चक्र और सूर्य देवता की मुर्तियाँ मुझे विषेश रूप से अच्छी लगीं.

प्रस्तुत हैं मंदिर की कुछ तस्वीरें.




































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रविवार, फ़रवरी 17, 2008

माघ पूजा (भारत यात्रा डायरी 2)

भुवनेश्वर से सुबह पाँच बजने से पहले ही निकल पड़े थे और छहः बजने से पहले कोणार्क पहुँच गये थे. आकाश बादलों से ढ़का था पर अँधेरे की कालिमा धीरे धीरे मध्यम पड़ रही थी. साथ में डा. मणि और डा. पति थे. बोले कि चलो पहले चाय पीते हैं. चाय के ढ़ाबे समुद्र तट की ओर थे, वहाँ पहुँचे तो समुद्र तट पर बैठी भीड़ को देखा. तट के साथ साथ राख जैसे समुद्र को ताकते बैठी थी उनकी कतार जैसे पानी पर तैरती धुँध में कुछ खोज रही हो.

कौन हैं वे लोग? मैंने डा. पति से पूछा तो उन्होंने बताया कि माघ के महीने में उगते सूर्य की पूजा करने वहाँ के आसपास के लोग हर सुबह वहाँ आते हैं और सूरज के निकलने की प्रतीक्षा कर रहे थे. सर्द सुबह में ठिठुरते हुए लोग रेत पर उकड़ु बैठे थे.

बायीं तरफ़ एक छोटा सा मंदिर दिख रहा था, पूजा करने वालों की एक लम्बी कतार उस ओर जा रही थी. समुद्र तट पर एक ऊँट वाला और एक घोड़े वाला पर्टकों के आने के इंतज़ार में थे.

पास ही गाँव की वृद्ध और प्रौढ़ औरतों का एक झुँड छोटा सा घेरा बना कर रेत पर बैठा था. घेरे के बीच में रेत में ही छोटा सा खड्डा बना कर उसके भीतर एक दिया जलाया था. धीमे स्वर में वह अपनी प्रार्थनाएँ बुदबुदा रहीं थीं. कभी हाथ में थाली उठातीं, कभी दिये जलाती, कभी कंदमूल का अर्पण करतीं. मंदिर से आते हुए एक पंडित जी उनके पास प्रसाद देने के लिए एक क्षण रुके.

छोटे बच्चे सागर के किनारे भाग रहे थे, कोई कोई साहसवान ही ठँड की परवाह न कर समुद्र में नहा रहा था. ऊँचीं उठती लहरों पर नावें रास्ता खोजने के लिए संघर्ष में जुटीं थीं.

तट पर बैठे लोगों की आँखों में इंतज़ार था, एकटक देख रहे थे बादलों के पीछे से सूर्य देवता को देखने की आशा में.

लगा कि सदियों से यही दृष्य इसी तरह जाने कितनी बार दोहराया गया होगा, वही शाश्वत सागर तट, वही नमन की सीधी सादी श्रद्धा लिये सामान्य गरीब नर नारी, वही सूर्य.

अचानक पास बैठा झुँड खड़ा हो गया, चेहरों पर मुस्कान बिखर गयी थी, बूढ़ी उँगलियाँ बादलों के पीछे से झाँकते सूरज की छोटी सी फ़ीकी सी फाँक की ओर इशारा कर रहीं थीं. उनके हाथ पूजा के लिए जुड़ गये. थोड़ी सी ईर्श्या हुई उनके इस सादे विश्वास को देख कर.

उसी सुबह की कुछ तस्वीरें प्रस्तुत हैं.






























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