रविवार, जून 25, 2006

हमारा इतिहास

एक दोहा खोजने के लिए रामायण निकाली तो नजर उसके प्रारम्भ में दी गयी तुलसीदास जी की जीवनी पर पड़ी. इसमें लिखा था, "तुलसीदास जी का जन्म संवत 1554 ई. में बाँदा जिले में राजापुर ग्राम में हुआ था ... चल कर वे प्रयाग होते हुए काशी आये और वहाँ रामकथा कहने लगे. उन्हें एक प्रेत मिला, उसने उन्हें हनुमान जी का पता बताया. हनुमान जी से मिल कर तुलसीदास जी ने अपनी श्रीराम दर्शन की अभिलाषा पूरी करने पूर्ण करने का प्रयत्न किया ..."

रामायण प्रेस द्वारा मुम्बई में 1999 में छपी इस रामायण को पढ़ कर सोच रहा था कि संवत 1554 का अर्थ हुआ कि तुलसीदास जी आधुनिक कैलेण्डर के हिसाब से सन 1497 में हुआ, यानि आज से करीब 500 वर्ष पहले.

स्वामी शिवानंद जी ने भी तुलसीदास जी की जीवनी लिखी है, उनके अनुसार तुलसीदास जी का जन्म संवत 1589 यानि सन 1532 में हुआ था. शिवानंद जी अधिक विस्तार से बताते हैं कि उन्हें एक पेड़ पर से एक प्रेत मिला था जिसने उन्हें हनुमान जी से मिलने का रास्ता बताया. उसने कहा कि एक हनुमान मंदिर में हनुमान जी एक कुष्ठ रोगी का रुप धारण करके रामायण का पाठ सुनने आते हैं.

अंतरजाल पर तुलसीदास जी के बारे में खोजने से पाया एक जगह लिखा है कि उनकी पत्नी का नाम बुद्धिमति था, दूसरी जगह लिखा है कि पत्नि का नाम रत्नावलि था.

सन 1497 में इटली के फ्लोरेंस शहर में सावानारोला नामक पादरी ने "पाप पूर्ण और धर्मविरुद्ध" कह कर हजारों पुस्तकों को जला दिया था. इसी सन में पोर्तगाल के वास्को देगामा भारत की यात्रा की ओर रवाना हुए थे. सन 1532 में माकि्यावैली की प्रसिद्ध पुस्तक "राजकुमार" उनकी मृत्यु के पाँच वर्ष बाद प्रकाशित हुई थी.

इनके अलावा उन सालों मे हुई हजारों घटनाओं का पश्चिमी देशों में तस्वीरें, चित्र, दस्तावेज इत्यादि आसानी से मिल जाते हैं. मेरे घर के पास एक छोटा सा नाला बहता है, और हमारे इलाके के गिरजाघर में दस्तावेज हैं जिनमें इस नाले के 1463 में बनवाये जाने की पूरी जानकारी है. एक बार फ्लोरेंस में एक पुराने अनाथआश्रम में 800 साल पुराने रजिस्टर देखे थे जिनमें बताया गया था कि किस साल उन्होने चद्दर कपड़े आदि खरीदने और धुलवाने में कितना खर्चा किया, किस दिन धोबी कपड़े ले कर गया, किस दिन वापस लाया, इत्यादि.


तो इस अंतर के बारे में सोच रहा था. तुलसीदास जी जैसे प्रसिद्ध और हिंदूँओं के लिए पूजनीय व्यक्तित्व के बारे में ठीक से कुछ इतिहासिक जानकारी उपलब्ध नहीं है जबकि यहाँ अनाथाआश्रम के कपड़ों तक की जानकारी है. क्या कारण हैं इस अंतर के ? क्या हमारी भारतीय दृष्टी इतिहास को "वैज्ञानिक" तरीके से नहीं देख पाती ? क्या तुलसीदास जैसे व्यक्ति के पूरे दस्तावेज नहीं सँभाल कर रखे गये ? क्या भारतीय सोच का तरीका माया के दर्शन से प्रभावित हो कर सच और कल्पना में अंतर नहीं कर पाता और इसलिए "प्रमाणित इतिहास" को बनाये रखने में असफल रहता है ?

यह बात तो मन में थी ही, आज आऊटलुक पत्रिका पर 1857 की क्राँती के बारे में अँग्रेजी लेखक और इतिहासकार विलियम डारलिम्पल का लम्बा लेख पढ़ा. वे कहते हें कि 1960-70 में मार्क्सवादी इतिहासकारों ने इस क्राँती को अँग्रेजों के आर्थिक शोषण के विरुद्ध उठे रोष की दृष्टि से समझाया है जोकि अँग्रेजी इतिहासकारों के छोड़े दस्तावेजों के आधार पर कहा गया था. डारलिम्पल ने अपने साथियों के द्वारा इस समय के बहुत से उर्दू और फारसी में लिखे दस्तावेजों के अनुवाद के आधार पर इस क्राँती के कारणों में धर्म और अन्य विषयों पर नया प्रकाश डालते हैं.

इसी लेख में डारलिम्पल लिखते हैं, "मेरा दिल टूट जाता है जब मैं कभी अपने मनपसंद प्राचीन भवन को देखने दोबारा जाता हूँ और पाता हूँ कि वह किसी झोपड़पट्टी के नीचे दब गया है या फिर भारतीय पुरातत्व विभाग द्वारा भद्दे तरीके से ठीक किया गया है या फिर उसे तोड़ दिया गया है. पुरानी दिल्ली की 99 प्रतिशत भव्य मुगल हवेलियाँ नष्ट कर दी गयीं हैं और शहर की प्राचीन दीवारों की तरह, लोगों की यादाश्त से गुम हो गयीं हैं. इतिहासकार पवन वर्मा के अनुसार, उनकी केवल दस वर्ष पहले लिखी पुस्तक संध्यावेला में भवन (Mansions at Dusk) में जिन हवेलियों की बात की गयी थी उनमें से अधिकाँश आज नहीं हैं... जो भी हो, दिल्ली जो खो रही है वह दोबारा नहीं बन पायेगा और हमारे आने वाले युग अपनी धरोहरों को ठीक से न बचा पाने को गहरे दुख से देखेंगे."

शायद इसकी भी एक वजह यही है कि हमारा इतिहास के बारे में सोचना, पश्चिमी सोच से भिन्न है ? भारत में ही यह हो रहा है ऐसा नहीं है. कुछ दिन पहले काठमाँडू में भी, पुराने नक्काशीदार जाली वाले घरों की जगह पर नये सीमेंट के घर देख कर मुझे भी ऐसा ही दुख हुआ था.




शनिवार, जून 24, 2006

अभिनय का शौक?

अगर आप को अभिनय का शौक है, आप इटली में रहते हैं और अच्छी इतालवी भाषा बोलते हैं तो मुझसे तुरंत सम्पर्क कीजिये. इतालवी राष्ट्रीय टेलीविज़न के लिए एक सिरीयल में कुछ भारतीय अभिनेताओं की आवश्यकता है और उन्होने मुझसे सहायता माँगी है. अगर आप किसी ऐसे व्यक्ति को जानते हैं जिसको इसमें दिलचस्पी हो सकती है तो उसे मुझसे इस ब्लाग के माध्यम से या कल्पना पर दिये गये मेरे ईमेल के पते से संपर्क करने के लिए कहिये. अंतिम तारीख 30 जून 2006.

गुरुवार, जून 22, 2006

एक अधूरा ताजमहल

मेरे हाथ डबलरोटी की तरह फूल गये हैं. क्मप्यूटर के कीबोर्ड पर उँगलियाँ चलाते हुए लगता है मानो जोड़ों के दर्द की बीमारी का पुराना रोगी हूँ. यह सब हाथों की मेहनत का कमाल है.

कई सालों से मन में अपनी छवि सी थी ऐसे मानव की जिससे दिमागी चाहे जितने काम करवा लीजिये पर हाथों से कुछ करने के लिए न कहिए. "अरे भाई तुमसे तो एक कील भी सीधा नहीं लगता", "यह कैसी टेढ़ी लकीर लगाई है श्रीमान जी, बँगाल की खाड़ी का नक्शा लगता है" जैसी बातें सुन सुन कर, मन में पक्का हो गया था कि जो काम ठीक से न करना आये, उसे न करने में ही भला है. सोचता कि दुनिया में कुछ लोग हाथ से मेहनत मजदूरी करते हैं और दूसरे कुछ लोग दिमाग से वह मेहनत करते है, और मैं उन दूसरों मे से हूँ.

इसलिए जब भी कभी कुछ "सचमुच" का काम करने की बात आती है, मैं अक्सर चुप ही रहता हूँ या फ़िर करीब खड़े हो कर सलाह देने की जिम्मेदारी निभाता हूँ.

जब अचानक क्मप्यूटर वाली मेज की एक टाँग को हिलते हुए महसूस किया तो तुरंत श्रीमति जी को आवाज लगाई. उन्होंने सलाह दी कि मेज खतरनाक हालत में था और उसे जल्दी से जल्दी बदलना ही बेहतर होगा. किसी लकड़ी के काम वाले को बुला कर मेज की टाँग करवाने का तो यहाँ सवाल ही नहीं उठता, उतने में तो दो मेज नये खरीद ले सकते हैं. तो श्रीमति के साथ हम मशहूर सुपरमार्किट इकेआ (IKEA) गये जहाँ स्वीडन में बना फर्नीचर बिकता है. "यह लाल रंग की मेज अच्छी रहेगी, उपर अलमारी भी है, उसमें कुछ किताबें भी आ जायेंगी", हमने कहा.

सुपरमार्किट वाली ने बताया कि वह मेज खुले टुकड़ों में मिलती है, जिन्हे जोड़ कर, नट, बोल्ट, कील लगा कर तैयार करना पड़ेगा. साथ में यह भी कहा कि अगर हम यह मेज स्वयं ही तैयार करना चाहें तो तुरंत मिल सकती है पर अगर यह चाहे कि सुपरमार्किट वाला आदमी घर आ कर उसे बनाये तो करीब दस दिन प्रतीक्षा करनी पड़ेगी. उसके लिए 20 प्रतिशत अलग देना पड़ेगा, यानि 340 यूरो की मेज पर 80 यूरो बनवाई और पूरा खर्च हुआ 420 यूरो का.

श्रीमति जी बोलीं कि दस दिन इंतज़ार करने में ही भलाई थी, क्योंकि उनके पास तो और बहुत से काम थे, और मेज देखने में सरल नहीं लगता था. ताव आ गया हमें. अरे एक मेज ही तो जोड़ कर बनाना है, सब टुकड़े तो बने ही हैं, उनमें सब छेद बने हैं, छोटी सी किताब में सब समझाया हुआ है कि कौन सा नट, बोल्ट और कील कहाँ लगेगा, इतना कठिन नहीं होगा, मैं स्वयं ही कर लूँगा.

परसों सुबह से जो लगे मेज बनाने, रात के साढ़े दस बज गये. भरतनाट्यम देखने जाना था, वह भी रह गया. हाथों का बुरा हाल था और मेज थी कि ठीक से जम कर ही नहीं देती. उसकी टाँगे टेढ़ी सी लगती थीं. कल रात को काम से लौट कर मेज पूरी कर रहा था कि आखिरकार श्रीमति जो मुझ पर तरस आ गया, बोलीं, "अभी रहने दो ऐसे ही, कल शाम को घर लौटोगे तो तुम्हारे साथ मिल कर इसे पूरा करने की कोशिश करेंगे."

एक बात तो है कि मेहनत के बाद नींद बहुत अच्छी आती है. साथ ही यह समझ भी आ गया कि शारीरिक मेहनत करने वाले के लिए लिखना पढ़ना आसान नहीं, जब सारा शरीर थकान और दर्द से भरा हो तो किताब हाथ में लेते ही, आँखें बंद सी होने लगती हैं.

खैर मेरी स्टडी में खड़ा यह अधूरा मेज लगता है कि यह मेज न हो, एक ताजमहल हो. पसीने के साथ साथ, रक्त की कुछ बूँदें भी इसके लाल रंग में मिली हैं. जब तक यह मेज रहेगी, दोबारा मेहनत का काम ढूढने से पहले, सौ बार सोचूँगा.

मंगलवार, जून 20, 2006

लाल सलाम

कलकत्ता, सन १९७०. रात को टेलीफोन की घँटी बजती है. सुजाता चैटर्जी उठ कर टेलीफोन उठाती है तो कोई उससे काँतीपोखर आ कर अपने बेटे ब्रती चैट्रजी की पहचान करने के लिए कहता है. सुजाता समझ नहीं पाती कि क्यों उसके पति, उसका बड़ा बेटा, इस समाचार से चिंतित हो जाते हैं और पुलीस में जान पहचान ढूँढते हैं कि मामला दबा दिया जाये. दिव्यानाथ चैटर्जी, ब्रती के पिता काँतीपोखर अपनी कार में नहीं जाना चाहते, क्योंकि कोई उनकी कार को न पहचान ले. अंत में सुजाता ही जाती है बेटे की पहचान करने. एक कमरे में फर्श पर कपड़े से ढकी पाँच लाशे पड़ीं हैं, कोने में दो तीन लोग स्तब्ध से बैठे हैं. उनमें से एक लाश है उसके बेटे की, पाँव के अँगूठे पर लाश का नम्बर बँधा है, १०८४. पुलीस उसे लाश देने से इंकार कर देती है और सुजाता बेटे के साथ अन्य चार लाशों का दहन देखती है.

इस तरह शुरु होती है गोविंद निहलानी की फिल्म "हजार चौरासी की माँ".

कहानी है मध्यवर्गी, प्रौढ़ सुजाता चैटर्जी की. उसके अपराध बोध की कि अपने पेट के जने बेटे की चीत्कार नहीं सुन पायी, घर में साथ रहने वाले बेटे की केवल हँसी देख सकी, वह क्या कर रहा है, कहाँ जाता है, किसके साथ रहता है, क्या सोचता है, कुछ नहीं देख पायी. अपने आसपास देखती है तो पाती है कि उसके समाज में ब्रती खूँखार अपराधी की तरह देखा जाता है, जिसको जल्दी से जल्दी भूल जाना ही बेहतर है, मानो वह कभी उस घर में रहा ही नहीं. पर सुजाता स्वयं को रोक नहीं पाती, एक एक करके वह ब्रती के साथियों को खोजती है, उनके परिवारों से मिलती है, यह जाने की कोशिश करती है कि क्यों उसका बेटा नक्सलबाड़ी के आंदोलन का सपना देखता था. इस खोज में वह समाज में व्याप्त सामाजिक विषमताओं को भी समझती है और स्वयं अपने मध्यमवर्गीय जीवन के अंतरनिहित झूठ को जो बाह्य समाज के सामने ढकोसला है, जिसमें वह केवल अपने पति की पायदान है, उसका अपना कोई व्यक्तित्व नहीं है.

महाश्वेता देवी द्वारा लिखित इसी नाम के उपन्यास पर लिखी फिल्म का कथानक राजनीतिक है, सुजाता की कहानी के द्वारा लेखिका ने नक्सलबाड़ी और नक्सल आंदोलन की जड़ों के कारणों का विवेचन किया है. फिल्म के निर्माता, निर्देशक और फोटोग्राफर हें गोविंद निहलानी.



फिल्म में जया भादुड़ी, सीमा विश्वास, नंदिता दास जैसी जानी मानी अभिनेत्रियाँ हैं. ब्रती का भाग निभाया है नये अभिनेता जोय सेनगुप्ता ने और नंदिता दास बनी हैं बर्ती की सखी और आंदोलन में सहयोगी, नंदनी मित्रा. सीमा विश्वास हैं ब्रटी के साथ मरने वाले बिहारी सोमू की माँ. मिलिंद गुणाजी हें पुलीस अफसर.

फिल्म का वह हिस्सा जिसमें सीमा विश्वास मरने वाले पाँचों युवकों की कहानी सुनाती हैं और उनकी आखिरी रात के बारे में बताती हैं, बहुत सशक्त है और इस भाग में सीमा विश्वास से दृष्टि हटाना कठिन है. निश्चय ही वह भारत की सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्रियों में से हैं.

नंदिता दास वाला हिस्सा मुझे कुछ कमज़ोर लगा. नक्सलवाद के कारण बताना और आंदोलन करने वालों का माओ, मार्क्स आदि से प्रेरणा पाना, पार्टी का संचलन, आदि समझाना, कुछ किताबी सा लगता है, शब्दों पर निर्भर और फिल्मी माध्यम की असली नींव, चित्रों की दृष्टि से कमज़ोर. नंदिता का अभिनय ठीक है और उनके व्यक्तित्व में वह लौह तत्व जो आंदोलन करने वाली लड़की में होना चाहिये, कुछ बनावटी सा लगा.



ब्रती के पिता के रुप में अनुपम खेर शुरु के हिस्सों मे तो ठीक लगे पर आखिरी हिस्से में जब उनका हृदयपरिवर्तन दिखाया गया है, कुछ कमजोर लगे.

पर यह फिल्म तो जया भादुड़ी की है. ब्रती की माँ के रुप में उनका अभिनय शायद इतना प्रभावशाली किसी फिल्म में नहीं रहा. मध्यमवर्गी प्रौढ़ा, जिसे कुछ समझ नहीं आ रहा, जिसकी आँखों में पीड़ा के साथ धीरे धीरे बेटे की समझ चमकती है, जिसमें आत्मसम्मान से जन्में विद्रोह का दीप जलता है, उनके अभिनय से जीवित हो जाती है.

सोमवार, जून 19, 2006

समयचक्र

कीर्ति-स्तम्भ नाम के लेख में हिंदी की लोकप्रिय लेखिका शिवानी ने लिखा थाः

"आजादी के बाद यदि हमने कुछ अंश में कुछ पाया भी है, तो खोया है उससे अधिक. हमारी संस्कृति धीरे धीरे हमारी मुट्ठियों से निकलती जा रही है और परायी संस्कृति के प्रति हमारी निष्ठा, हमारा मोह, हमारा ध्येय भावना को शिथिल करता जा रहा है. अतीत में हमारी सर्वोच्च निष्ठा धर्म के प्रति थी, इसे से हमारे पारंपरिक धर्मानुष्ठानों में हमारी संस्कृति भी अपने स्वाभाविक रुप में जीवंत थी... हमारी संस्कृति बनी रहे, अतीत के प्रति हमारी निष्ठा शिथिल न हो, इसके लिएआवश्यक है सदियों से प्रचलित हमारी ये प्रथा संस्थाएं बनी रहें. किंतु धीरे धीरे इन उत्सवों में भी अब न उत्साह रहा है न वह आकर्षण! हाथ में ट्राजिस्टर लिए ग्रामीणों की टोली अब न वह मीठे झोड़े गाती, न चांचरी! स्त्रियां अब सभ्य शिष्ट पर्दों की ओट से डोला देखती हैं, छतों पर उनके रुप की फुलझड़ी नायकों की टोली को नहीं गुदगुदा पाती. महिषों की भीड़ अब चमकीले तेल लगे सींग घुमाती झूलती झालती नहीं निकलती, कुमाऊं का ग्रामीण अब पूर्ण रुप से सभ्य हो चुका है, देवी यदि भैंसे की बलि न देने से अप्रसन्न होती है तो हुआ करें. यह मेले में धूम धाम, अब पहले की भांति तेल की जलेबियां नहीं खाता, वह अब खाता है छोले भटूरे. झोड़े, चांचड़ी, हुड़का में अब भला क्या रखा है! ट्रंजिस्टर खोलते ही तो लता कभी भी कानों में रसवृष्टि कर सकती है, फिर भला वह दुनाली पहाड़ी मुरली फूंकने में सांस क्यों फुलाए!"
आज अगर शायद शिवानी जी उस मेले में जा सकतीं तो पातीं कि ट्राजिस्टरों का जमाना जा रहा है. लता जी न जाने कहाँ खो गयीं. आजकल रिमिक्स का जमाना है, जिन्हें आप कान में नलकी लगा कर सुनिये, हर कोई अलग अलग, अपनी पसंद के एमपीथ्री सुन रहा है. छोले भटूरे तो पुराने हो गये, आज तो मोमो और हेमबर्गर का जमाना है. सदियों से एकांत में बढ़े, पनपे, हमारी धरती में अपनी जड़ें भीतर गहरे तक खोदने वाले हमारे रीति रिवाज आधुनिकता और विकास के रास्ते में अन्य रीति रिवाजों से घुल मिल गये हैं, इसमें मेरा तेरा सोचना केवल बूढों की नियती है जो बीते दिनों की यादों के पल्लू छोड़ नहीं पाते. आज बड़ी होने वाली पीढ़ी, कल जाने कौन सा संगीत सुनेगी और जाने क्या खायेगी, और मोमो तथा हेमबर्गरों को याद करके ठँडी सांसे भरेगी.

यही समयचक्र है, यही जीवनचक्र है.

सब बुरा ही हो, यह बात नहीं. पुराने, गुजरे कितने गीत, संगीत, लेखक, विचारक, जाने कहाँ गुम हो गये, कुछ निशान नहीं बचा उनका. आज सब कुछ संभाल कर चक्रडिस्क पर चढ़ाना अधिक आसान है, ताकि भविष्य के लिए यह धरोहर गुम न हो. पर भविष्य में किसके पास समय होगा कि धूल लगी अलमारियों में बंद इन चक्रडिस्कों को देखने या सुनने का ?

शनिवार, जून 17, 2006

मैं शिव हूँ

अक्सर मैं अपने चिट्ठे पर लिखी टिप्पणियाँ पढ़ने में देर कर देता हूँ. समय कम होता है और लिखने की, और दूसरे लोग क्या लिख रहे हैं, इसकी चिंता अधिक होती है, मेरे लिखे पर किसने क्या कहा, इसकी कम. पर कई बार टिप्पड़ियाँ पढ़ कर सोचता रह जाता हूँ. कई बार मालूम चलता है कि टिप्पणियों के माध्यम से थोड़ी बहस भी हो गयी और मैंने उस बहस में हिस्सा ही नहीं लिया. थोड़ी सी शर्म आती है कि इतनी दिलचिस्प बात हो रही थी जो मेरी बजह से शुरु हुई, जिसमें भाग नहीं लिया.

ऐसी ही टिप्पणी थी सृजनशिल्पी की जो उन्होंने मेरे कुछ दिन पहले के अंतरलैगिक (Transgender) चिट्ठे पर लिखी थी जिसे पढ़ कर सोचता रहा. उन्होंने लिखा था:
"हजारी प्रसाद द्विवेदी के उपन्यास वाणभट्ट की आत्मकथा में किसी व्यक्ति में पुरुष और स्त्री के द्वंद्व के संबंध में भारतीय दर्शन के दृष्टिकोण से प्रकाश डाला गया है, जिससे इस विषय के मनोविज्ञान को बेहतर ढंग से समझने में मदद मिलती है।"
मैं भी यह सोचता हूँ कि आजकल के भूमँडलीकरण के ज़माने में हम अक्सर बहुत से विषयों पर पश्चिमी विचारों को देवकथित सत्य वचन सा मान लेते हैं, जबकि हमारी अपनी सभ्यता में उस विषय पर, उससे भिन्न सोच थी, उसे भूल सा जाते हैं. मैं यह नहीं कहता कि हर विषय पर हमारी सोच या पश्चिमी सोच बेहतर या घटिया है, पर यह मानता हूँ कि भिन्न विचारों का होना मानव सभ्यता की धरोहर है और इस विभिन्नता को सम्भाल कर रखना चाहिये, खोने नहीं देना चाहिये.

जैसे कि नारीत्व (femminism) पर मानुषी पत्रिका की सम्पादक मधु किश्वर के विचार मुझे इसी लिए महत्वपूर्ण लगते हैं क्योंकि प्रचलित पश्चिमी विचारधारा से भिन्न अर्थ देते हैं.

अंतरलैंगिकी (Transgender) और यौन रुझान (sexual orientation) भी ऐसे ही विषय हैं जिनमें भारतीय दर्शन क्या कहता या सोचता है इस पर बहुत कुछ है जो खो सकता है और जिससे इन विषयों को समझने के नये अर्थ मिल सकते हैं. सृजनशिल्पी जी अगर हजारीप्रसाद द्विवेदी के उपन्यास में वर्णित दर्शन को समझा सकें तो अच्छा होगा.

उदाहरण के लिए, मेरे विचार में पश्चिमी प्रचलित सोच यौन रुझान को विषमलैंगिक (heterosexual) और समलैंगिक (homosexual) की श्रेणियाँ बना कर कैद कर देती है. यह श्रेणियाँ स्वयं पश्चिमी देशों में रहने वालों को अधूरी लगी, तो पिछले दो दशकों में इनमें एक नयी श्रेणी जुड़ गयी, द्विलैंगिक (Bisexual).

जबरदस्ती मानव यौन व्यवहार को श्रेणियों में बाँधना, शोध या चिंतन के लिए तो समझ आता है पर उसे सचमुच की बंद कैदघर की तरह सोचना मुझे लगता है कि बात को छोटा कर रहे हैं. अगर विषमलैंगिक, समलैंगिक और द्विलैंगिक को विभिन्न दिशाओं में बने कमरों की तरह सोचें तो मेरे विचार में विभिन्न मानव उन कमरों के बीच में, आगे पीछे, हर तरफ़ खड़े नज़र आयेंगे.

जब यौन रुझान की बात होती है तो इसे मानव को मापने वाला प्रथम या सबसे अधिक महत्वपूर्ण मापदँड मानना भी मुझे कुछ अजीब सा लगता है. इस विषय पर अपने कुछ इतालवी समलैगिक मित्रों से लम्बी बहस के बाद भी हम किसी निर्णय पर नहीं पहुँच सके. पर मुझे लगता है, भारत में समलैगिक लोग इसके बारे में क्या भिन्न सोचते होंगे ?

भारतीय दर्शन में शिव का अर्धनारीश्वर रुप मुझे इस विषय में हर मानव मन में साथ बसे पुरुष और स्त्री रुपों की बात करने का बेहतर तरीका लगता है.

किस संस्कृति में कौन सा रुप कितना बाहर आ सकता है यह उस संस्कृति की सामाजिक मान्यताओं पर निर्भर करता है. आज यहाँ इटली में पुरुष अक्सर छोटे बच्चों के साथ सुपरमार्किट में सामान खरीदते दिखाई देते हें, और यहाँ के लोग कहते हैं कि बीस साल पहले तक अधिकतर पुरुष ऐसा नहीं करते थे, क्योंकि छोटे बच्चे को उठा कर चलना पुरुष व्यक्तित्व के विरुद्ध माना जाता था.

जब पुरुषोचित व्यवहार के सामाजिक मापदँड बदल गये तो बाह्य व्यवहार भी बदल जाते हैं. कुछ दिन पहले फिल्म देखी थी जिसमें अभिनेता सैफ़ अपने मित्रों के साथ फिल्म देखने जाते हैं और कोई दृष्य देख कर रोते हैं, यह भी दस या बीस साल पहले पुरुषोचित व्यवहार नहीं माना जाता था. आज मेट्रोसेक्सूअल (metrosexual) पुरुष और स्त्री के लिए अपने भीतर छुपी स्त्री या पुरुष को स्वीकार करना अधिक आसान है!

शुक्रवार, जून 16, 2006

क्यों नहीं ?

"अंतर्राष्ट्रीय विकलाँग मानव" (Disabled Peoples International) के इतालवी प्रतिनिधि जाँपिएरो से बात कर रहा था. जाँपिएरो ने कहा, "विकलाँग लोगों के सामान्य जीवन अधिकारों का तो सदियों से उल्लँघन होता आया था पर तब उनमें इस अन्याय की चेतना नहीं थी. विकलाँग लोगों का घर से बाहर निकलना, अन्य विकलाँग लोगों से बात करना, कहीं आना जाना, आर्थिक दृष्टि से स्वतंत्र होना, आदि बहुत कठिन था. केवल द्वितीय विश्व महायुद्ध के आसपास जब उद्योगिक विकास से उत्तरी देशों की आर्थिक स्थिति मज़बूत हुई तो ऐसी संस्थाँए बनाई जाने लगीं जहाँ विकलाँग लोगों को अलग रखा जा सके और वह लोग आपस में मिलने जुलने लगे, एक दूसरे के जीवन अनुभव की बातें करने लगे. तब उन्हें पहली बार समझ में आया कि जिसे वह अपनी विकलाँगता की वजह से हुई कठिनाईयाँ समझते थे, वह उनकी विकलाँगता से नहीं, समाज की मानसिकता से जन्मी कठिनाईयाँ थीं और अगर वह सब मिल कर इस सामाजिक अन्याय और शोषण से लड़ें तो समाज बदल सकता है. अकेले मानव के शरीर के "नुक्स" देखने वाले मेडिकल कारणों की जगह उन्होंने विकलाँगता से सामाजिक कारणों की बात की."

इसी सोच की वजह से विकसित देशों में पटरी ऐसी बनाईये कि व्हील चेयर वाला व्यक्ति उसका इस्तमाल कर सके, सीढ़ियों के साथ लिफ्ट या रेम्प बनवाईये, मार्गदरशक बोर्ड ब्रेल में भी लिखिये, दूरदर्शन समाचार इशारों की भाषा में भी दिखाईये, जैसी बातें होनी लगीं.

जाँपिएरो की बात से मैं एक अन्य वर्ग की बात सोच रहा था जो शोषित है और जिसके मानव अधिकारों को सदियों से कुचला जाता है, दलित वर्ग. क्या हिंदी चिट्ठा जगत में दलित लेखक हैं और वह इस बारे में क्या सोचते हैं ?

ब्राज़ील और कीनिया जैसे देशों में गरीब इलाकों और झोपड़पट्टी में जाना बहुत कठिन है, वहाँ अगर आप अच्छे वस्त्र पहने हों तो आप को लूट लेने वाले बहुत मिल जायेंगे. कहते हैं कि वहाँ के गरीब वर्ग में सामाजिक विषमताओं के प्रति बहुत क्रोध है. जब गरीब, शोषित लोगों की हिंसा की बात होती है तो अक्सर मेरे मित्र मुझसे पूछते हैं कि तुम्हारे भारत में ऐसा क्यों नहीं होता ? क्यों वहाँ किसी गरीब कालोनी में तुम पर हमला नहीं करते, क्यों उनमें गुस्सा नहीं है? क्या कारण हैं इसके ?

मेरे कुछ विदेशी मित्रों का कहना है कि यह हिंदू धर्म की सोच की वजह से है, कि लोग कहते हैं, "किस्मत की बात है, पिछले जीवन में कोई पाप किया था उसकी सजा है". कुछ का कहना है कि अत्याचार से लड़ना चाहिये और अगर कोई धर्म तुम्हें अत्याचार से लड़ने के बजाय उसे स्वीकार करना सिखाता है और उसे तुम्हारी अपनी ही गलती बताता है तो वह धर्म गलत है.

मैं यह बात नहीं मानता. गरीब कालोनी में गुजरने वाले लोगों पर हमला कर या उन्हें लूटने से समाजिक विषमताँए नहीं बदलतीं. शायद हमें धर्म और प्रजातंत्र गरीब मन में यह आशा देता है कि मेहनत करके, कोशिश करके हम भी अपना जीवन बदल सकते हैं, जबकि हिंसा कुछ नहीं बदलती.
*****

कल की अतुल की टिप्पणी:

"पर मुद्दा यह है कि यह प्रसार होगा कैसे? गर इंटरनेट पर तीन सौ से बढ़कर तीन लाख
ब्लाग हो जायें उससे? कल कुछ हिंदी समाचार चैनल देख रहा था। एक छोटी सी घटना की
रिपोर्ट देने में कुल चार वाक्य बारह बार घुमाये गये, हर वाक्य के अस्सी प्रतिशत
शब्द अँग्रेजी के थे। यही हाल अभिनेताओं का है। बात सिर्फ इतनी नही कि ये लोग हिंदी
बोलने में शर्माते हैं, इन्हें ढँग से आती ही नही। "

पर सोच कर बताईये, क्या किया जा सकता है जिससे देश में अधिक चेतना आये कि अँग्रेज़ी जानने के साथ साथ हम अपनी भाषा पर गर्व कर सकें, उसे अच्छा समझना, बोलना बढ़ सके ?

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