रामायण प्रेस द्वारा मुम्बई में 1999 में छपी इस रामायण को पढ़ कर सोच रहा था कि संवत 1554 का अर्थ हुआ कि तुलसीदास जी आधुनिक कैलेण्डर के हिसाब से सन 1497 में हुआ, यानि आज से करीब 500 वर्ष पहले.
स्वामी शिवानंद जी ने भी तुलसीदास जी की जीवनी लिखी है, उनके अनुसार तुलसीदास जी का जन्म संवत 1589 यानि सन 1532 में हुआ था. शिवानंद जी अधिक विस्तार से बताते हैं कि उन्हें एक पेड़ पर से एक प्रेत मिला था जिसने उन्हें हनुमान जी से मिलने का रास्ता बताया. उसने कहा कि एक हनुमान मंदिर में हनुमान जी एक कुष्ठ रोगी का रुप धारण करके रामायण का पाठ सुनने आते हैं.
अंतरजाल पर तुलसीदास जी के बारे में खोजने से पाया एक जगह लिखा है कि उनकी पत्नी का नाम बुद्धिमति था, दूसरी जगह लिखा है कि पत्नि का नाम रत्नावलि था.
सन 1497 में इटली के फ्लोरेंस शहर में सावानारोला नामक पादरी ने "पाप पूर्ण और धर्मविरुद्ध" कह कर हजारों पुस्तकों को जला दिया था. इसी सन में पोर्तगाल के वास्को देगामा भारत की यात्रा की ओर रवाना हुए थे. सन 1532 में माकि्यावैली की प्रसिद्ध पुस्तक "राजकुमार" उनकी मृत्यु के पाँच वर्ष बाद प्रकाशित हुई थी.
इनके अलावा उन सालों मे हुई हजारों घटनाओं का पश्चिमी देशों में तस्वीरें, चित्र, दस्तावेज इत्यादि आसानी से मिल जाते हैं. मेरे घर के पास एक छोटा सा नाला बहता है, और हमारे इलाके के गिरजाघर में दस्तावेज हैं जिनमें इस नाले के 1463 में बनवाये जाने की पूरी जानकारी है. एक बार फ्लोरेंस में एक पुराने अनाथआश्रम में 800 साल पुराने रजिस्टर देखे थे जिनमें बताया गया था कि किस साल उन्होने चद्दर कपड़े आदि खरीदने और धुलवाने में कितना खर्चा किया, किस दिन धोबी कपड़े ले कर गया, किस दिन वापस लाया, इत्यादि.
तो इस अंतर के बारे में सोच रहा था. तुलसीदास जी जैसे प्रसिद्ध और हिंदूँओं के लिए पूजनीय व्यक्तित्व के बारे में ठीक से कुछ इतिहासिक जानकारी उपलब्ध नहीं है जबकि यहाँ अनाथाआश्रम के कपड़ों तक की जानकारी है. क्या कारण हैं इस अंतर के ? क्या हमारी भारतीय दृष्टी इतिहास को "वैज्ञानिक" तरीके से नहीं देख पाती ? क्या तुलसीदास जैसे व्यक्ति के पूरे दस्तावेज नहीं सँभाल कर रखे गये ? क्या भारतीय सोच का तरीका माया के दर्शन से प्रभावित हो कर सच और कल्पना में अंतर नहीं कर पाता और इसलिए "प्रमाणित इतिहास" को बनाये रखने में असफल रहता है ?
यह बात तो मन में थी ही, आज आऊटलुक पत्रिका पर 1857 की क्राँती के बारे में अँग्रेजी लेखक और इतिहासकार विलियम डारलिम्पल का लम्बा लेख पढ़ा. वे कहते हें कि 1960-70 में मार्क्सवादी इतिहासकारों ने इस क्राँती को अँग्रेजों के आर्थिक शोषण के विरुद्ध उठे रोष की दृष्टि से समझाया है जोकि अँग्रेजी इतिहासकारों के छोड़े दस्तावेजों के आधार पर कहा गया था. डारलिम्पल ने अपने साथियों के द्वारा इस समय के बहुत से उर्दू और फारसी में लिखे दस्तावेजों के अनुवाद के आधार पर इस क्राँती के कारणों में धर्म और अन्य विषयों पर नया प्रकाश डालते हैं.
इसी लेख में डारलिम्पल लिखते हैं, "मेरा दिल टूट जाता है जब मैं कभी अपने मनपसंद प्राचीन भवन को देखने दोबारा जाता हूँ और पाता हूँ कि वह किसी झोपड़पट्टी के नीचे दब गया है या फिर भारतीय पुरातत्व विभाग द्वारा भद्दे तरीके से ठीक किया गया है या फिर उसे तोड़ दिया गया है. पुरानी दिल्ली की 99 प्रतिशत भव्य मुगल हवेलियाँ नष्ट कर दी गयीं हैं और शहर की प्राचीन दीवारों की तरह, लोगों की यादाश्त से गुम हो गयीं हैं. इतिहासकार पवन वर्मा के अनुसार, उनकी केवल दस वर्ष पहले लिखी पुस्तक संध्यावेला में भवन (Mansions at Dusk) में जिन हवेलियों की बात की गयी थी उनमें से अधिकाँश आज नहीं हैं... जो भी हो, दिल्ली जो खो रही है वह दोबारा नहीं बन पायेगा और हमारे आने वाले युग अपनी धरोहरों को ठीक से न बचा पाने को गहरे दुख से देखेंगे."
शायद इसकी भी एक वजह यही है कि हमारा इतिहास के बारे में सोचना, पश्चिमी सोच से भिन्न है ? भारत में ही यह हो रहा है ऐसा नहीं है. कुछ दिन पहले काठमाँडू में भी, पुराने नक्काशीदार जाली वाले घरों की जगह पर नये सीमेंट के घर देख कर मुझे भी ऐसा ही दुख हुआ था.