पिछले दो दशकों से बदलते पर्यावरण के बारे में बहुत कुछ पढ़ा सुना है. एक तरफ कहा जाता है कि मानव क्रियाओं, जिनमें मानव निर्मित फैक्टरियाँ आदि भी शामिल हैं, की वजह से पर्यावरण प्रदूषण का स्तर खतरे की सीमा से बाहर जाने वाला है, पर साथ ही विभिन्न देशों की सरकारें इसी चिंता में रहती हैं कि किस तरह उन का विकास न रुके और विकास रोकने के लिए नयी फैक्टरियाँ बनाना, अधिक से अधिक नयी वस्तुएँ बेचना, बड़ी बड़ी कारें बनाना और उन्हें भी अधिक से अधिक बेचना, जैसी नीतियाँ बनाती रहती हैं, जिनसे प्रदूषण का रोना बिल्कुल बनावटी लगता है.
कुछ थोड़े से लोग हैं जो यह कहते हैं कि मानव जीवन के विकास के दृष्टिकोण को बदलने की आवश्यकता है पर उन्हें बाकी के लोग उन्हें आदर्शवादी या पागल ही कह कर टाल देते हैं.
कुछ दिन पहले जब अमरीकी पत्रिका अटलाँटिक के जुलाई अंक के एक लेख को पढ़ने का मौका मिला तो पर्यावरण की बहस की गम्भीरता को समझने के लिए नयी बात जानी. इस लेख का विषय था कि किस तरह नयी तकनीकों के माध्यम से पर्यावरण के बदलाव के बुरे प्रभावों को रोका जाये. इस लेख में बहुत सारी तकनीकों का विवरण है जिनके बारे में वैज्ञानिक विचार कर रहे हैं.
कई वैज्ञानिकों का सुझाव है कि आकाश में करीब बीस हज़ार मीटर की ऊँचाई पर सल्फर डाईओक्साइड गैस छोड़ी जायी जिससे विश्व के बड़े हिस्से पर इस गैस के बादल छा जायें और कई महीनों या सालों तक छाये रहें, जिससे सूरज की रोशनी तथा गर्मी धरती तक न पहुँचे या कम पँहुचे. उनका विचार है कि इस तरह से थोड़े समय में ही धरती ठँडी होने लग जायेगी और समुद्र का तापमान कम हो जायेगा. इस सुझाव में यह उपाय नहीं बताया गया कि जब बारिश से सल्फर की गैस सल्फूरिक एसिड बन कर धरती पर गिरेगी और पेड़, खेत, फसलें जला देगी और लोंगो को साँस की बीमारी से मारेगी, उसका क्या किया जाये?
इस सुझाव में एक अन्य कठिनाई है कि इससे मानसून के बादल बनने बंद हो जायेगे, जिससे भारत और अफ्रीका के कई देशों पर बुरा असर पड़ेगा, पर चूँकि यह मानवता को बचाने के लिए किया जायेगा तो इस "कोलेटरल डेमेज" को स्वीकार किया जा सकता है?
दूसरी ओर इस सुझाव की अच्छाई है कि हमें कार्बन डाईओक्साइड को कम करने की या अपनी जीवन पद्धिति को बलने की चिंता नहीं करनी पड़ेगी, हम जितना चाहें प्रदूषण बढ़ाते रहें, उसकी कोई चिंता नहीं.
जोह्न लाथाम तथा स्टेफन साल्टर का विचार है कि अगर समु्द्र से पानी की भाप को बादलों पर छोड़ा जाये तो बादल घने और गहरे हो जायेंगे और उनका रंग भी अधिक सफेद हो जायेगा, जिससे सूरज की रोशनी धरती पर नहीं आ सकेगी और धरती ठँडी हो जायेगी. इस तरह से धरती को ठँडा करने के लिए १५०० जहाज़ो की आवश्यकता होगी, जिसके लिए इन वैज्ञानिकों ने बहुत सी जहाज़ कम्पनियों से बात की है कि और छह सौ करोड़ डालर के खर्च पर इसकी कोशिश की जा सकती है. यानि चाहें तो बिल गेटस जैसे अमीर लोग अपनी सम्पत्ति का थोड़ा सा हिस्सा दे दें तो यह किया जा सकता है. पहले साल अधिक खर्च होगा फ़िर हर साल करीब सौ करोड़ डालर के खर्च से इसकी मैंन्टेनेन्स हो सकती है.
अरिज़ोना के रोजर एँजेल का विचार है कि आकाश में एक विशालकाय छतरी खोली जाये, जिससे सूर्य ग्रहण जैसा वातावरण बन जाये. एँजेल कहते हैं कि "यह बात आप को पागलपन की लग सकती है, पर जिस तरह पर्यावरण बदल रहा है, उससे जो जीवन बदलने वाला है उसके असर को हम लोग समझ नहीं पा रहे हैं, चूँकि मानव प्रकृति को बदला नहीं जा सकता, बस इसी तरह के पागलपन के विचार ही शायद मानवता को बचा सकते हैं."
इस तरह की बात करने वाले लोग कोई अनजाने वैज्ञानिक नहीं बल्कि उनमें थोमस शैलिंग जैसे नोबल पुरस्कार विजेता भी हैं, जिनका कहना है कि पर्यवरण के बदलाव में प्रकृति चक्र इतना आगे जा चुका है कि अब वापस लौटना सँभव नहीं, बस इसी तरह की किसी तरकीब से इस विपत्ति को टाला जा सकता है. मानवता को अगर सौ या दो सौ साल और मिल जायें तो ऊर्जा की नयी तकनीकें खोजी जा सकती हैं जिनसे प्रदूषण कम हो जायेगा और भविष्य में इस तरह की तरकीबों की आवश्यकता नहीं पड़ेगी.
कल जब कीनिया के सूखे में मर रही गायों की तस्वीर देखी तो जी मिचला गया. रोयटर के फोटोग्राफर थोमस मूकोया ने यह तस्वीर कीनिया की राजधानी नैरोबी से करीब पचास किलोमीटर दूर अथी नदी पर खींची है.
शायद यही भविष्य है हमारा, या हमारे बाद आने वाली पीढ़ी का, प्यासे तड़प तड़प कर मरना?
रविवार, नवंबर 01, 2009
घादा जमशीर की लड़ाई
घादा जमशीर (Ghada Jamshir) बहरेन की रहने वाली हैं और उन्होंने स्त्री अधिकारों की माँग के लिए एक संस्था बनायी है जिसका ध्येय है कि शरीयत कानून के द्वारा होने वाले स्त्रियों के मानव अधिकारों के विरुद्ध होने वाले फैसलों के बारे में आवाज़ उठायें. उन्होंने इस संस्था को बनाने का निर्णय आठ वर्ष पहले लिया जब उनकी मुलाकात एक अदालत के बाहर एक स्त्री से हुई जिसे उसके पति ने तलाक दिया था और साथ ही अदालत ने फैसला किया था कि उसकी बेटी पिता के साथ रहेगी. जमशीर का भी तलाक हुआ है.
धीरे धीरे जमशीर की संस्था वुमेनज़ पेटिशन कमेटी (Women's petition committee) को स्थानीय स्त्रियों का सहारा मिला है और घादा जमशीर का नाम जाने जाना लगा है. जमशीर ने देश में घूञ घूम कर शरीयत अदालयतों में होने वाले फैसलों से प्रभावित स्त्रियों की कहानियाँ एकत्रित की, उन्हों लोगों तक पहुँचाया और सरकार से माँग की न्याय पद्धती में बदलाव आवश्यक है.
जिन मुद्दों को जमशीर की संस्था ने उठाया है उनमें बड़ी संख्या में तलाकशुदा स्त्रियाँ हैं जिनके अधिकारों को पुरुषों के अधिकारों से कम माना गया, पर साथ ही अन्य मुद्दे भी हैं जैसे कि नवयुवतियों से कच्ची शादी करके उनसे शारीरिक सम्बंध करना और फ़िर उन्हें छोड़ देना, जबरदस्ती की शादियाँ और नाबालिग लड़कियों से बलात्कार, जिनमें अदालतें केवल पुरुषों की बात सुनती हैं और स्त्रियों को न्याय नहीं मिलता.
घादा जमशीर पर अदालत की मान हानि करने का आरोप लगाया गया है, उनके पीछे खुफ़िया पुलिस कई सालों से लगी है, उन्हें जान से मारे जाने की धमकियाँ मिल चुकी हैं और कई लोगों ने घूस देने की कोशिश भी की. सन 2006 में अमरीकी पत्रिका फोरबस (Forbes) ने घादा का नाम अरब जगत की दस सबसे महत्वपूर्ण स्त्रियों मे गिना था, लेकिन उनके अपने देश में अखबारों आदि में उनकी लड़ाईयों के बारे में समाचार नहीं छपते और उन पर विदेशी एजेंट होने का आरोप लगाया जाता है.
जमशीर की सबसे प्रमुख माँग है कि पारिवारिक झगड़ों में शरीयत का कानून नहीं केवल सामान्य सिविल कानून का प्रयोग होना चाहिये.
जमशीर ने एक साक्षात्कार में कहा कि, "बहरेन में शिया मुसलमान मुता'ह करते हैं, यानि कुछ तो इस तरह के विवाह जिनमें पत्नी को सभी हक हों और कुछ "आनंद" लेने के लिए विवाह जैसे रिश्ते, जिसमें स्त्री को कोई हक नहीं. किसका आनंद है, केवल पुरुष का? और स्त्री का क्या? इस तरह के रिश्तों से होने वाले बच्चों को क्या मिलता है, कुछ नहीं. मुझे यह बताईये कि क्या यह कुरान शरीफ़ के नाम पर किया जा रहा है? मुता'ह के नाम पर नाबालिग लड़कियों से जबरदस्ती शारीरिक सम्बंध बनाना क्यों जायज़ है? क्या कोई धर्म इस तरह की बात की अनुमति दे सकता है? क्यों स्त्रियों से परिवार नियोजन की बात नहीं की सकती?"
तो कहा गया कि वह शिया मुसलमानों के विरुद्ध बोलती हैं क्योंकि स्वयं सुन्नी हैं. पर जमशीर इस आरोप ने नहीं डरती, "हमारे देश में शिया बहुसंख्यक हैं पर उन्हें हमेशा दबाया गया है, यह तो शब्दों और पोलिटि्कस का खेल है. जो धर्म सुधार होने चाहिये वह अल खलीफ़ा राज घराने ने कुछ नहीं किया, बस पारिवारिक कानून बनाया है जिससे लोगों का ध्यान हटाया जाये और कट्टरपंथियों से समझौता किया जाये."
जमशीर सुन्नी मुसलमानों के रिवाज़ो के बारे में बोली हैं, "हमारे सुन्नियों में जवाज़ यानि कानूनी विवाह है, और साथ में पुरुष मिसयार भी कर सकते हैं यानि कानूनी रिश्ता जिसमें औरत को कोई हक नहीं, वह अपने परिवार में रहती है और उसका "पति" जब उसका दिल करे उससे मिलने जाता है. यह कैसी पत्नी है, यह तो कोई और रिश्ता है, क्या इससे औरत को इज़्जत मिलती है, क्या उसे अधिकार मिलते हैं?
जमशीर के विरुद्ध कहते हैं कि वह पर्दा नहीं करती, धर्म के खिलाफ़ हैं, तो वह उत्तर देती हैं, "मेरे बारे में मसजिदों में क्या कहा जाता है, इससे मुझे कोई चिंता नहीं, अल्ला तालाह फैसला करेंगे कि मुझे स्वर्ग मिले या नर्क. किसने इनको यह हक दिया कि मेरे फैसले करें? इन्हें मालूम है कि मैं रोज़े रखती हूँ या नहीं? इन्हें मालूम है कि मैं कितनी बार नमाज पढ़ती हूँ?"
जमशीर से पूछा गया कि अगर तुम्हें जेल में डाल देंगे तो डर नहीं लगता? वह बोलीं, "बाहर भी बड़ा जेलखाना है जिसमें औरतों का जीवन बंद है. मेरी लड़ाई है कि अरब समाज में औरतों को पुरुषों के समान अधिकार मिलें और मैं इसके लिए हमेशा बोलने को तैयार हूँ."
(From nomulla.net)
धीरे धीरे जमशीर की संस्था वुमेनज़ पेटिशन कमेटी (Women's petition committee) को स्थानीय स्त्रियों का सहारा मिला है और घादा जमशीर का नाम जाने जाना लगा है. जमशीर ने देश में घूञ घूम कर शरीयत अदालयतों में होने वाले फैसलों से प्रभावित स्त्रियों की कहानियाँ एकत्रित की, उन्हों लोगों तक पहुँचाया और सरकार से माँग की न्याय पद्धती में बदलाव आवश्यक है.
जिन मुद्दों को जमशीर की संस्था ने उठाया है उनमें बड़ी संख्या में तलाकशुदा स्त्रियाँ हैं जिनके अधिकारों को पुरुषों के अधिकारों से कम माना गया, पर साथ ही अन्य मुद्दे भी हैं जैसे कि नवयुवतियों से कच्ची शादी करके उनसे शारीरिक सम्बंध करना और फ़िर उन्हें छोड़ देना, जबरदस्ती की शादियाँ और नाबालिग लड़कियों से बलात्कार, जिनमें अदालतें केवल पुरुषों की बात सुनती हैं और स्त्रियों को न्याय नहीं मिलता.
घादा जमशीर पर अदालत की मान हानि करने का आरोप लगाया गया है, उनके पीछे खुफ़िया पुलिस कई सालों से लगी है, उन्हें जान से मारे जाने की धमकियाँ मिल चुकी हैं और कई लोगों ने घूस देने की कोशिश भी की. सन 2006 में अमरीकी पत्रिका फोरबस (Forbes) ने घादा का नाम अरब जगत की दस सबसे महत्वपूर्ण स्त्रियों मे गिना था, लेकिन उनके अपने देश में अखबारों आदि में उनकी लड़ाईयों के बारे में समाचार नहीं छपते और उन पर विदेशी एजेंट होने का आरोप लगाया जाता है.
जमशीर की सबसे प्रमुख माँग है कि पारिवारिक झगड़ों में शरीयत का कानून नहीं केवल सामान्य सिविल कानून का प्रयोग होना चाहिये.
जमशीर ने एक साक्षात्कार में कहा कि, "बहरेन में शिया मुसलमान मुता'ह करते हैं, यानि कुछ तो इस तरह के विवाह जिनमें पत्नी को सभी हक हों और कुछ "आनंद" लेने के लिए विवाह जैसे रिश्ते, जिसमें स्त्री को कोई हक नहीं. किसका आनंद है, केवल पुरुष का? और स्त्री का क्या? इस तरह के रिश्तों से होने वाले बच्चों को क्या मिलता है, कुछ नहीं. मुझे यह बताईये कि क्या यह कुरान शरीफ़ के नाम पर किया जा रहा है? मुता'ह के नाम पर नाबालिग लड़कियों से जबरदस्ती शारीरिक सम्बंध बनाना क्यों जायज़ है? क्या कोई धर्म इस तरह की बात की अनुमति दे सकता है? क्यों स्त्रियों से परिवार नियोजन की बात नहीं की सकती?"
तो कहा गया कि वह शिया मुसलमानों के विरुद्ध बोलती हैं क्योंकि स्वयं सुन्नी हैं. पर जमशीर इस आरोप ने नहीं डरती, "हमारे देश में शिया बहुसंख्यक हैं पर उन्हें हमेशा दबाया गया है, यह तो शब्दों और पोलिटि्कस का खेल है. जो धर्म सुधार होने चाहिये वह अल खलीफ़ा राज घराने ने कुछ नहीं किया, बस पारिवारिक कानून बनाया है जिससे लोगों का ध्यान हटाया जाये और कट्टरपंथियों से समझौता किया जाये."
जमशीर सुन्नी मुसलमानों के रिवाज़ो के बारे में बोली हैं, "हमारे सुन्नियों में जवाज़ यानि कानूनी विवाह है, और साथ में पुरुष मिसयार भी कर सकते हैं यानि कानूनी रिश्ता जिसमें औरत को कोई हक नहीं, वह अपने परिवार में रहती है और उसका "पति" जब उसका दिल करे उससे मिलने जाता है. यह कैसी पत्नी है, यह तो कोई और रिश्ता है, क्या इससे औरत को इज़्जत मिलती है, क्या उसे अधिकार मिलते हैं?
जमशीर के विरुद्ध कहते हैं कि वह पर्दा नहीं करती, धर्म के खिलाफ़ हैं, तो वह उत्तर देती हैं, "मेरे बारे में मसजिदों में क्या कहा जाता है, इससे मुझे कोई चिंता नहीं, अल्ला तालाह फैसला करेंगे कि मुझे स्वर्ग मिले या नर्क. किसने इनको यह हक दिया कि मेरे फैसले करें? इन्हें मालूम है कि मैं रोज़े रखती हूँ या नहीं? इन्हें मालूम है कि मैं कितनी बार नमाज पढ़ती हूँ?"
जमशीर से पूछा गया कि अगर तुम्हें जेल में डाल देंगे तो डर नहीं लगता? वह बोलीं, "बाहर भी बड़ा जेलखाना है जिसमें औरतों का जीवन बंद है. मेरी लड़ाई है कि अरब समाज में औरतों को पुरुषों के समान अधिकार मिलें और मैं इसके लिए हमेशा बोलने को तैयार हूँ."
मंगलवार, सितंबर 29, 2009
क्षमता की सोच
बचपन से ही जाने किन बातों की वजह से मेरे मन में जो अपनी छवि बनी थी उसमें हाथों से कुछ भी काम न कर पाने की भावना थी. यानि सोचने विचारने वाले काम कर सकता था, लिख पढ़ सकता था पर बत्ती का फ्यूज़ उड़ा हो या साईकल का पंक्चर ठीक करना हो, तो मेरे बस की बात नहीं. समय के साथ, यही सोच तकनीकी विषयों के बारे में भी होने लगी. यानि गणित हो, या केलकुलस या ईंजीनियरिंग से जुड़ी कोई बात, यह सब अपनी समझ से बाहर थीं.
पहली बार कम्प्यूटर शायद 1988 या 1989 में देखा तो सोचा कि भैया यह तो अपने बस की बात नहीं लगती. तब ईलैक्ट्रोनिक टाईपराईटर से भी मुझे दिक्कत होती थी, टेलेक्स का उपयोग बहुत दूभर सा लगता था. दो तीन साल तक मैं कम्प्यूटर के करीब नहीं गया. मुझे मेरे साथ काम करने वाले बहुत लोगों ने कहा कि कम्प्यूटर से कुछ लिखना टाईपराईटर से अधिक आसान है पर मैं कहता कि मुझे टाईपराईटर की टिप टिप ही पसंद है. फ़िर हमारे दफ्तरवालों नें कम्प्यूटर से लिखने के प्रोग्राम वर्डस्टार का कोर्स का आयोजन किया और कहा कि मुझे उसमें भाग लेना ही पड़ेगा. तब पहली बार कम्प्यूटर को छुआ. तब लगा कि भाई इतना कठिन तो नहीं था, बल्कि आसान ही था.
1992-93 की बात है कि जब ईमेल का प्रयोग होने लगा था. मुझे भी कहा गया कि ईमेल के कोर्स में भाग लूँ, तो मैंने मना कर दिया. कहा कि सैकरेट्री सीख लेगी, मुझसे यह नयी नयी तकनीकें नहीं सीखी जातीं. तब आज के कम्प्यूटरों वाली बात नहीं थी, डास पर कैसे डायरेक्टरी देखी जाये, फारमेट की जाये, कोपी की जाये, सब याद करना पड़ता था.
बदलाव आया 1994 में जब अमरीका में इंटरनेट देखा, जाना कि लोग ईमेल से हर दिन भारत के समाचार पढ़ सकते थे. वापस इटली आये तो ईमेल इंटरनेट के बारे में सीखा भी, घर के लिए भी कम्प्यूटर लिया और इंडिया मेलिंग लिस्ट से भारत के समाचार पाने लगे.
उसके बाद का बड़ा बदलाव आया 2001 के पास जब अपनी बेवसाईट बनाने की सोची. हाँ, न करते करते कई महीने निकल गये, धीरे धीरे एच टी एम एल भाषा को सीखा और सृजन नाम से बेवसाईट बनी जो बाद में कल्पना में बदल गयी. 2005 में इँटरनेट के माध्यम से बने मित्रों ने, विषेशकर देबू ने ब्लाग बनाने में सहायता की, तो वे भी बन गये. धीरे धीरे कल्पना के पृष्ठ फैलते बढ़ते गये.
अब पिछले एक साल से परेशान हूँ. एच टी एम एल से कल्पना के नये पृष्ठ बनाना, कुछ भी बदलाव करना हो तो इतना समय लग जाता है कि कुछ अन्य करने का समय ही नहीं मिलता. जानकार लोग बोले, "यार तुम सी एस एस का प्रयोग क्यों नहीं करते? या फ़िर जुमला या वर्डप्रेस से कल्पना को चलाओ." देबू और पंकज ने कुछ सलाह दीं. पर मन में वही बात आ जाती कि जाने मुझसे होगा या नहीं, यह नयी तकनीकें कैसे सीखूँगा? अपनी अक्षमता की बात के साथ मन में उम्र की बात भी जुड़ गयी है कि भैया अब अपनी उम्र देखो, अब नयी बातें सीखना उतना आसान नहीं.
खैर न न करते करते भी, सी एस एस पढ़ने लगा हूँ. शुरु शुरु में लगा कि यह तो अपनी समझ से बाहर की बात है, पर अब लगता है कि धीरे धीरे आ ही जायेगी. इसी चक्कर में इधर उधर जुमला, वर्डप्रेस आदि के बारे में कुछ जानकारी ली, तो सोचा कि सबसे आसान काम है इस चिट्ठे को बदलना. कल्पना पर जिस टेम्पलेट पर यह चल रहा है, वह 2006 में बना था, तबसे ब्लाग चलाने की तकनीकों में बदलाव आ गया है और चार सालों में लिखीं 396 पोस्ट के भार से बेचारा दबा हुआ है कि नयी पोस्ट जोड़ना कठिन हो गया है.
इसलिए यह इस चिट्ठे की आखिरी पोस्ट है. इसके बाद सभी पोस्ट "जो न कह सके" के नये चिट्ठे पर ही होंगी.
31 अक्टूबर 2009: सोचा तो यही था, वर्डप्रेस पर नया चिट्ठा भी बनाया था, लेकिन फ़िर एक मित्र ने पुराने चिट्ठे को नये ब्लागर टेम्पलेट पर लगाने का तरीका सिखाया. एक बार फ़िर लगा, अरे इतना कठिन तो नहीं था, अगर थोड़ी मेहनत करता तो शायद अपने आप ही समझ में आ जाता. खैर, देर आये पर दुरस्त आये, और लौट कर बुद्धू वापस पुराने चिट्ठे पर आ गये. यानि "जो न कह सके" कहीं नहीं गये, जहाँ थे, वहीं रहेंगे.
लोग कहते थे कि वर्डप्रेस बहुत बढ़िया है, अवश्य होगा, पर मुझे शुरु से ब्लागर की आदत बनी थी, अब लगता है कि अपने लिये यही ठीक है!
31 अक्टूबर 2009: सोचा तो यही था, वर्डप्रेस पर नया चिट्ठा भी बनाया था, लेकिन फ़िर एक मित्र ने पुराने चिट्ठे को नये ब्लागर टेम्पलेट पर लगाने का तरीका सिखाया. एक बार फ़िर लगा, अरे इतना कठिन तो नहीं था, अगर थोड़ी मेहनत करता तो शायद अपने आप ही समझ में आ जाता. खैर, देर आये पर दुरस्त आये, और लौट कर बुद्धू वापस पुराने चिट्ठे पर आ गये. यानि "जो न कह सके" कहीं नहीं गये, जहाँ थे, वहीं रहेंगे.
लोग कहते थे कि वर्डप्रेस बहुत बढ़िया है, अवश्य होगा, पर मुझे शुरु से ब्लागर की आदत बनी थी, अब लगता है कि अपने लिये यही ठीक है!
रविवार, अगस्त 23, 2009
श्वास की मिठास
इस साल तो कोई भी अच्छी हिंदी फ़िल्म देखने को तरस गये. "न्यू योर्क" या "लव आज कल" जैसे नामी फ़िल्मों से भी उतना संतोष नहीं मिला. "संकट सिटी" और "कमीने" के बारे में अच्छा पढ़ा है पर देखने का मौका नहीं मिला. पर कुछ दिन पहले 2003 की बनी एक मराठी फ़िल्म देखी "श्वास" तब जा कर लगा कि हाँ कोई बढ़िया फ़िल्म देखी.
फ़िल्म को बनाया था संदीप सावंत ने और सीधी साधी सी कहानी है, कोई बड़े नामी अभिनेता या अभिनेत्री नहीं हैं, लेकिन फ़िल्म मन को छू गयी. कहानी है परशुराम (अश्विन छिताले) की, छोटा सा बच्चा जो अपनी उम्र के सभी बच्चों की तरह खेल कूद और शरारतों में मस्त रहता है, बस एक ही कठिनाई है कि बच्चे को कुछ दिनों से देखने में कुछ परेशानी हो रही है, जिससे न पढ़ लिख पाता है, न ठीक से खेल पाता है. परशु के पिता बस में कँडक्टर थे पर एक सड़क दुर्घटना से विकलाँग हो कर घर में रहते हैं, इसलिए परशु की चिंता उसके दादा जी केशवराम (अरुण नालावड़े) करते हैं. दादा जी ही परशु को ले कर पहले गाँव के डाक्टर के पास ले कर जाते हें जो उन्हें परशु को शहर के बड़े आँखों के डाक्टर के पास जाने की सलाह देता है.
दादा जी और परशु के मामा दिवाकर (गणेश मंजरेकर) बच्चे को ले कर पूना डा. साने (संदीप कुलकर्णी) के क्लीनिक में जाते हैं. साने जी अच्छे डाक्टर हैं पर बहुत व्यस्त हैं, उनके पास अपनी पत्नी, अपनी बेटी के लिए भी अधिक समय नहीं और गाँव से आये दादा जी, शहर के तेज भागते जीवन जिसमें लोगों के पास रुक कर प्यार से बोलने समझाने का समय नहीं, बेचारे परेशान से हो जाते हैं. डा साने उन्हें कहते हैं कि कुछ टेस्ट आदि करवाने होंगे और शहर में रुकना पड़ेगा. टेस्ट करवाने में भी खतरा हो सकता है यह जान कर दादा जी घबरा जाते हें तब उनकी मुलाकात सोशल वर्कर आशावरी (अम्रुता सुभाष) से होती है जो उन्हें धर्य से समझाती है और टेस्ट पूरे होते हैं. (तस्वीर में डा. साने दादा जी को बच्चे की बीमारी के बारे में बताते हैं)
टेस्ट से मालूम चलता है कि परशु की आँख में कैसर है. बीमारी अभी शुरु में ही है इसलिए अगर ओपरेशन किया जाये तो परशु बच सकता है पर उस ओपरेशन में वह अपनी दोनो आँखें खो देगा और अँधा हो जायेगा. दादा जी पहले रोते हैं, किसी अन्य डाक्टर की सलाह लेने की सोचते हैं, पर आशावरी की सलाह से मान जाते हैं कि ओपरेशन के अतिरिक्त कोई चारा नहीं. डा. साने का कहना है कि परशु को ओपरेशन से पहले बताना पड़ेगा कि वह ओपरेशन के बाद देख नहीं पायेगा, पर न दादा जी में हिम्मत है न आशावरी में कि इतनी बड़ी बात परशु को बता सकें. डा. साने भी हिचकिचाते हें कि कैसे यह बात बच्चे को कहे, पर परशु समझ गया है कि उसके दादा उसे देख कर क्यों रोते हैं, क्यो डाक्टर साहब उसे आँख बंद कर खेलने को कहते हैं. (तस्वीर में दिवाकर, परशु, नर्स और दादा जी)
परशु अस्पताल में भरती होता है पर अंतिम समय में किसी वजह से ओपरेशन नहीं हो पाता और उसके अगले दिन होने की बात होती है. वापस वार्ड में दादा जी परशु को ले कर अचानक गुम हो जाते हैं. वार्ड में सब परेशान हैं कि भरती हुआ मरीज कहाँ चला गया, किसकी लापरवाही से यह हुआ? आशावरी को चिंता है कि निराश दादा जी ने आत्महत्या न कर ली हो. अस्पताल में घूमने वाले पत्रकार टीवी चैनल इस बात को उछाल देते हैं कि अस्पताल लापरवाही से काम करता है और इसी लापरवाही से बच्चा और उसके दादा जी खो गये हैं. परेशान डा. साने पहले अस्पताल के अधिकारियों पर बिगड़ते हैं, फ़िर अपने सहयोगियों पर, पर पत्रकारों के प्रश्नों का उनके पास कोई उत्तर नहीं. (तस्वीर में, परशु के खोने से परेशान, डा. साने और आशावरी)
थके हारे डा. साने अस्पताल से बाहर निकलते हैं तो बाहर रंगबिरगी टोपी पहने दादा जी दिखते हैं, साथ में भोंपू बजाता खुश परशु. डाक्टर साहब बहुत बिगड़ते हैं, गुस्से से चिल्लाते हैं कि तुम जैसे जाहिल लोग कुछ अच्छा बुरा नहीं समझते, मैं तुम्हारे पोते का मुफ्त ओपरेशन कर रहा था और तुमने उसका यह जबाव दिया मुझे, जाओ ले जाओ अपने पोते को, मैं उसका ओपरेशन नहीं करुँगा.
दादा जी, डाँट खा कर पहले तो रुआँसे हो जाते हें फ़िर गुस्से से चिल्लाते हैं, आखिरी 24 घँटे थे मेरे परशु के पास इस रोशनी की दुनिया के, उन्हें क्या वार्ड के दुख भरे वातावरण में गुजारने देता? कौन सा संसार याद रहता परशु को, हमेशा के लिए अँधेरे में जाने के बाद?
फ़िल्म के सभी पात्रों का अभिनय बहुत बढ़िया है, विषेशकर दादा जी के भाग में केशव नालावड़े, परशु के भाग में अश्विन छिताले का और डाक्टर साने के भाग में संदीप कुलकर्णी का. हालाँकि फ़िल्म कम बजट में बनी है, पर गाँव वाले भाग का चित्रण बहुत सुंदर है. अस्पताल के दृश्य बिल्कुल असली लगते हैं.
आशावरी के भाग में अम्रुता सुभाष कुछ बनावटी लगती हैं पर मुझे अपने कार्य के सिलसिले में कई सोशल वर्कर को जानने का मौका मिला है, और मुझे लगता है पैशे से संवदेनापूर्ण होने की वजह से शायद उनके सुहानुभूती जताने के तरीके में, जाने अनजाने कुछ बनावटीपन सा आ जाता है, इसलिए वह भी बहुत असली लगीं.
हालाँकि फ़िल्म का विषय गम्भीर है पर उसमें न कोई अतिरंजना है, न बेकार की डायलागबाजी या रोना धोना. फ़िल्म के अंत में यही समझ आता है कि यह जीवन अँधा होने से रुक नहीं जाता, अँधा हो कर भी जीवन में कुछ बनने के, कुछ करने के, आत्मनिर्भर होने के रास्ते हैं. इस दृष्टी से फ़िल्म का वह छोटा सा हिस्सा जब दादा जी परशु को ले कर अँधे बच्चों के स्कूल जाते हैं, बहुत प्रभावशाली लगा.
अगर आप ने श्वास नहीं देखी और मौका मिले तो इसे अवश्य देखियेगा. फ़िल्म मराठी में है, पर चाहें तो इसकी डीवीडी में अंग्रेजी, हिंदी के अलावा भी कई भारतीय भाषाओं में सबटाईटल चुन सकते हैं. मुझे मराठी भाषा बहुत अच्छी लगती है पर पूरा नहीं समझ पाता, मैंने इसे हिंदी के सबटाईटल के साथ देखा. श्वास को 2003 की सबसे सर्वश्रैष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था और 2004 में यह भारत की ओर से ओस्कर पुरस्कार के लिए नामांकित की गयी थी.
फ़िल्म को बनाया था संदीप सावंत ने और सीधी साधी सी कहानी है, कोई बड़े नामी अभिनेता या अभिनेत्री नहीं हैं, लेकिन फ़िल्म मन को छू गयी. कहानी है परशुराम (अश्विन छिताले) की, छोटा सा बच्चा जो अपनी उम्र के सभी बच्चों की तरह खेल कूद और शरारतों में मस्त रहता है, बस एक ही कठिनाई है कि बच्चे को कुछ दिनों से देखने में कुछ परेशानी हो रही है, जिससे न पढ़ लिख पाता है, न ठीक से खेल पाता है. परशु के पिता बस में कँडक्टर थे पर एक सड़क दुर्घटना से विकलाँग हो कर घर में रहते हैं, इसलिए परशु की चिंता उसके दादा जी केशवराम (अरुण नालावड़े) करते हैं. दादा जी ही परशु को ले कर पहले गाँव के डाक्टर के पास ले कर जाते हें जो उन्हें परशु को शहर के बड़े आँखों के डाक्टर के पास जाने की सलाह देता है.
दादा जी और परशु के मामा दिवाकर (गणेश मंजरेकर) बच्चे को ले कर पूना डा. साने (संदीप कुलकर्णी) के क्लीनिक में जाते हैं. साने जी अच्छे डाक्टर हैं पर बहुत व्यस्त हैं, उनके पास अपनी पत्नी, अपनी बेटी के लिए भी अधिक समय नहीं और गाँव से आये दादा जी, शहर के तेज भागते जीवन जिसमें लोगों के पास रुक कर प्यार से बोलने समझाने का समय नहीं, बेचारे परेशान से हो जाते हैं. डा साने उन्हें कहते हैं कि कुछ टेस्ट आदि करवाने होंगे और शहर में रुकना पड़ेगा. टेस्ट करवाने में भी खतरा हो सकता है यह जान कर दादा जी घबरा जाते हें तब उनकी मुलाकात सोशल वर्कर आशावरी (अम्रुता सुभाष) से होती है जो उन्हें धर्य से समझाती है और टेस्ट पूरे होते हैं. (तस्वीर में डा. साने दादा जी को बच्चे की बीमारी के बारे में बताते हैं)
टेस्ट से मालूम चलता है कि परशु की आँख में कैसर है. बीमारी अभी शुरु में ही है इसलिए अगर ओपरेशन किया जाये तो परशु बच सकता है पर उस ओपरेशन में वह अपनी दोनो आँखें खो देगा और अँधा हो जायेगा. दादा जी पहले रोते हैं, किसी अन्य डाक्टर की सलाह लेने की सोचते हैं, पर आशावरी की सलाह से मान जाते हैं कि ओपरेशन के अतिरिक्त कोई चारा नहीं. डा. साने का कहना है कि परशु को ओपरेशन से पहले बताना पड़ेगा कि वह ओपरेशन के बाद देख नहीं पायेगा, पर न दादा जी में हिम्मत है न आशावरी में कि इतनी बड़ी बात परशु को बता सकें. डा. साने भी हिचकिचाते हें कि कैसे यह बात बच्चे को कहे, पर परशु समझ गया है कि उसके दादा उसे देख कर क्यों रोते हैं, क्यो डाक्टर साहब उसे आँख बंद कर खेलने को कहते हैं. (तस्वीर में दिवाकर, परशु, नर्स और दादा जी)
परशु अस्पताल में भरती होता है पर अंतिम समय में किसी वजह से ओपरेशन नहीं हो पाता और उसके अगले दिन होने की बात होती है. वापस वार्ड में दादा जी परशु को ले कर अचानक गुम हो जाते हैं. वार्ड में सब परेशान हैं कि भरती हुआ मरीज कहाँ चला गया, किसकी लापरवाही से यह हुआ? आशावरी को चिंता है कि निराश दादा जी ने आत्महत्या न कर ली हो. अस्पताल में घूमने वाले पत्रकार टीवी चैनल इस बात को उछाल देते हैं कि अस्पताल लापरवाही से काम करता है और इसी लापरवाही से बच्चा और उसके दादा जी खो गये हैं. परेशान डा. साने पहले अस्पताल के अधिकारियों पर बिगड़ते हैं, फ़िर अपने सहयोगियों पर, पर पत्रकारों के प्रश्नों का उनके पास कोई उत्तर नहीं. (तस्वीर में, परशु के खोने से परेशान, डा. साने और आशावरी)
थके हारे डा. साने अस्पताल से बाहर निकलते हैं तो बाहर रंगबिरगी टोपी पहने दादा जी दिखते हैं, साथ में भोंपू बजाता खुश परशु. डाक्टर साहब बहुत बिगड़ते हैं, गुस्से से चिल्लाते हैं कि तुम जैसे जाहिल लोग कुछ अच्छा बुरा नहीं समझते, मैं तुम्हारे पोते का मुफ्त ओपरेशन कर रहा था और तुमने उसका यह जबाव दिया मुझे, जाओ ले जाओ अपने पोते को, मैं उसका ओपरेशन नहीं करुँगा.
दादा जी, डाँट खा कर पहले तो रुआँसे हो जाते हें फ़िर गुस्से से चिल्लाते हैं, आखिरी 24 घँटे थे मेरे परशु के पास इस रोशनी की दुनिया के, उन्हें क्या वार्ड के दुख भरे वातावरण में गुजारने देता? कौन सा संसार याद रहता परशु को, हमेशा के लिए अँधेरे में जाने के बाद?
फ़िल्म के सभी पात्रों का अभिनय बहुत बढ़िया है, विषेशकर दादा जी के भाग में केशव नालावड़े, परशु के भाग में अश्विन छिताले का और डाक्टर साने के भाग में संदीप कुलकर्णी का. हालाँकि फ़िल्म कम बजट में बनी है, पर गाँव वाले भाग का चित्रण बहुत सुंदर है. अस्पताल के दृश्य बिल्कुल असली लगते हैं.
आशावरी के भाग में अम्रुता सुभाष कुछ बनावटी लगती हैं पर मुझे अपने कार्य के सिलसिले में कई सोशल वर्कर को जानने का मौका मिला है, और मुझे लगता है पैशे से संवदेनापूर्ण होने की वजह से शायद उनके सुहानुभूती जताने के तरीके में, जाने अनजाने कुछ बनावटीपन सा आ जाता है, इसलिए वह भी बहुत असली लगीं.
हालाँकि फ़िल्म का विषय गम्भीर है पर उसमें न कोई अतिरंजना है, न बेकार की डायलागबाजी या रोना धोना. फ़िल्म के अंत में यही समझ आता है कि यह जीवन अँधा होने से रुक नहीं जाता, अँधा हो कर भी जीवन में कुछ बनने के, कुछ करने के, आत्मनिर्भर होने के रास्ते हैं. इस दृष्टी से फ़िल्म का वह छोटा सा हिस्सा जब दादा जी परशु को ले कर अँधे बच्चों के स्कूल जाते हैं, बहुत प्रभावशाली लगा.
अगर आप ने श्वास नहीं देखी और मौका मिले तो इसे अवश्य देखियेगा. फ़िल्म मराठी में है, पर चाहें तो इसकी डीवीडी में अंग्रेजी, हिंदी के अलावा भी कई भारतीय भाषाओं में सबटाईटल चुन सकते हैं. मुझे मराठी भाषा बहुत अच्छी लगती है पर पूरा नहीं समझ पाता, मैंने इसे हिंदी के सबटाईटल के साथ देखा. श्वास को 2003 की सबसे सर्वश्रैष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था और 2004 में यह भारत की ओर से ओस्कर पुरस्कार के लिए नामांकित की गयी थी.
शनिवार, अगस्त 22, 2009
चाँद और आहें
कुछ दिन पहले आयी एक फ़िल्म "शार्टकट" का एक गीत सुना तो बहुत अच्छा लगा.
"कल नौ बजे तुम चाँद देखना, मैं भी देखूँगा, और फ़िर दोनो की निगाहें चाँद पर मिल जायेंगी"
मन में तीस या चालिस साल पहले देखी फ़िल्म "शारदा" की याद आ गयी जिसमें कुछ इसी तरह का गीत था, "ऐ चाँद जहाँ वो जायें, तुम साथ चले जाना". जब हीरो राजकपूर कहीं पर चला जाता है और पीछे से उसकी पत्नी या प्रेयसी यह गीत गाती है. इस फ़िल्म की कहानी बहुत अज़ीब थी. राजकपूर जी प्यार करते हैं शारदा यानि मीना कुमारी से, वह कहीं जाते हैं तो पीछे से शारदा का विवाह उनके पिता से हो जाता है, और जब वह घर वापस आते हें तो पिता की नयी पत्नी को देख कर दंग रह जाते हैं. इस तरह भी हो सकता है, इस बात को माना जा सकता है, बिमल मित्र के उपन्यास "दायरे के बाहर" में भी यही होता है, लेकिन शारदा का यह कहना कि उनके पुराने प्रेमी अब उन्हें माँ कह कर पुकारें और माँ के रूप में सोचें, मुझे बहुत अजीब लगा था और बेचारे राज कपूर पर बहुत दया आयी थी. बिमल मित्र ने अपने नायक शेखर से इस तरह की बात नहीं की थी.
खैर शारदा की बात छोड़ें और "शार्टकट" के गीत की बात पर वापस लौट चलें. गीत सुन कर लगा कि वाह कितना रोमाँटिक गाना है, दूर से चाँद को देख कर एक दूसरे के लिए विरह में जलना. पुराने दिन याद आ गये. यही झँझट है हम प्रौढ़ों का, कुछ भी हो, बस पुरानी बातों को सोच कर भावुक हो जाते हैं.
फ़िर इंटरनेट पर यह गीत देखा तो सब रोमाँस छू मंतर की तरह गायब हो गया, वही स्कर्ट या बिकनी पहने, समुद्र किनारे नाचते इतराते अक्षय खन्ना और अमृता राव. यह बात नहीं कि समुद्र या अमृता सुंदर नहीं, पर इस गाने के बोलों के साथ ठीक नहीं बैठ रहे थे. लगा कि इस फ़िल्म के निर्देशक को इतने सुंदर गाने को इस तरह से बिगाड़ने की सजा दी जानी चाहिये. आप स्वयं इस वीडियो को देखिये और बताईये कि क्या मेरा दुखी होना सही है या नहीं?
शायद यह आशा करना कि आज के ज़माने में चाँद तारों की बातें की जायें, यह बात ही गलत है? दूर से चाँद को देख कर आहे भरने का गीत गाना, साठ सत्तर के दशक तक के वातावरण में तो फिट हो सकता है, आज के ज़माने में चाँद तारों के लिए किसके पास समय है? अगर प्रेमी युगल में से एक व्यक्ति विदेश गया है तो "नौ बजे चाँद देखना" गाने का क्या औचित्य होगा, क्योंकि जब लंदन में नौ बजे होंगे तब भटिंडा या मुंबई में रात को दो बजे होंगे, तो अलग अलग समय में चाँद देखने से निगाहें कैसे मिलेंगी? और आज के ज़माने में जब मोबाईल, फेसबुक, टिव्टर, ईमेल, चेटिंग आदि के होने से किसी से बिछड़ कर सचमुच का विरह महसूस करना नामुमकिन सा हो गया है, चाँद देखने की बात करना बेमतलब सा है. साथ ही, हमारी पुरानी यादों की भी घँटी बज जाती है. इन आधुनिक फ़िल्मवालों को कुछ ध्यान रखना चाहिये कि हम जैसे पके बालों वालों की भावनाओं को ठेस लग सकती है कि हमारी प्रिय रोमाँटिक सिचुएशन को इस तरह से बिगाड़ा जाया.
कुछ इसी तरह लगा था जब "लव आज कल" देखी जिसकी बहुत चर्चा हो रही है कि बहुत रोमाँटिक फ़िल्म है. वीर सिंह और हरलीन वाले भाग में तो मुझे रोमाँस दिखा था पर आधुनिक रिश्ते जिस तरह इस फ़िल्म में दिखाये गये हैं, जय और मीरा के बीच, उनमे रोमाँस कहाँ था, कुछ स्पष्ट समझ नहीं आया. लगा कि जय और मीरा का बस एक आधुनिक रिश्ता था, जिसमें साथ रहने का आनंद, साथ सोने का सुख तो था पर प्रेम नहीं दिखा.
प्रियतमा हमेशा के लिए जा रही है, पर हमें समझ न आये कि हमें उससे प्रेम है या नहीं, उसके बाद दो साल बीत जायें, हम कुछ प्रेम अन्य जगह बाँट कर, अचानक अपने सुविधापूर्ण जीवन और सहेलियों से, जिसमें कोई चुनौती नहीं दिखती, बोर या उदास हो जायें, और फ़िर कहें कि वैसे सचमुच में हम मीरा से ही प्यार करते थे, पर हमें पता नहीं था, कुछ बेतुका सा नहीं लगता? और मीरा, जो साल भर अपने साथ काम करने वाले के साथ रह चुकी हैं, दोनो साथ रहते थे तो सोते भी होंगे, उन्हें अचानक सुहागरात को याद आता है कि भाई हमारा सच्चा प्यार तो जय था? कुछ कन्फूसड लोगों वाली बात नहीं लगती, जिन्हें प्रेम क्या होता है यह सचमुच देखने का मौका ही नहीं मिला?
क्या यह केवल प्रेम की बदलती परिभाषा है, जीवन के व्यस्तता में मन की भावनाओं को न पहचान पाने की दुविधा है या कुछ और? या शायद, प्रेम के लिए, दूरी और विरह की आवश्यकता है, कोई रुकावट या दुख भी चाहिये बीच में जिसके बिना हम अपने प्रेम को पहचान नहीं पाते?
जुलाई की अमरीकी मासिक पत्रिका "द एटलाँटिक" (The Atlantic) में साँद्रा त्सिंग लोह (Sandra Tsing Loh) का लेख छपा था जिसमें उन्होंने अपने तलाक के बारे में लिखा था. उनका कहना है कि आज जब स्त्री पुरुष के सामाजिक रोल और अपेक्षाएँ बदल चुकी हैं, आज लोगों की औसत उम्र लम्बी हो गयी है, सौ वर्ष पहले की सोचें तो दुगनी हो गयी है, तो इस बदले हुए परिपेश में सोचना कि स्त्री और पुरुष वही पुराने तरीकों से साथ रहेंगे, प्रेम करेंगे, विवाह करेंगे, आदि यह ठीक नहीं.
तो क्यों बात करें वही पुराने प्रेम और विवाह की? क्यों बात करें चाँद तारों की? क्या इस नयी दुनिया को "प्रेम" शब्द के बदले में कोई नया शब्द नहीं खोजना चाहिये, जो आधुनिक जीवन की इस नयी भावना की सही परिभाषा दे सके?
शुक्रवार, जुलाई 17, 2009
रिश्ते
करीब तीस साल पहले की बात है, तब मैं उत्तरी इटली के एक अस्पताल में ट्रेनिंग ले रहा था. अस्पताल में साथ काम करने वाली अन्ना मुझे बहुत अच्छी लगती थी. जल्दी ही उससे दोस्ती हो गयी, अक्सर शाम को उसके घर जाता. अन्ना की दस साल की बेटी थी जूलिया और उसका पहले पति, यानि जूलिया के पिता से तलाक हो चुका था. अन्ना तब एक युवक से साथ बिना विवाह के रहती थी. अन्ना के साथी से मेरी कभी कोई विषेश बात नहीं हुई और आज उसका नाम भी याद नहीं. शाम को उसके घर के बाग में बैठ कर, कई बार अन्ना से मेरी लम्बी बातचीत और बहस होती.
जैसे कि एक बार बात शादी की हुई तो उसने पूछा कि भारत में कैसे युवक युवतियाँ परिवार के पसंद किये हुए जीवनसाथी से विवाह को मान जाते हैं? उसे यह बात समझ में नहीं आती, उसे लगता कि यह तो युवक और युवती दोनों के साथ अन्याय है. जब आप किसी संस्कृति में पले बड़े हुए हों तो कई बातें आप को स्वाभाविक लग सकती हैं, लेकिन जब कोई उनके बारे में प्रश्न पूछता है तो आप उस स्वाभाविक लगने वाली बातों के छुपे पहलुओं के बारे में सोचने को विवश हो जाते हैं.
इस तरह अन्ना से हुई बहसों ने मुझे मन ही मन में स्वाभाविक लगने वाली कई बातों पर सोचने का मौका दिया. अन्ना से सिर ढकने, शरीर ढकने के बारे में एक बार बात हुई तो वह बोली कि इटली में और यूरोप में सभी लड़कियाँ और स्त्रियाँ बदन दिखाती हैं तो क्या इसका अर्थ है कि यहाँ के लड़कों और पुरुषों में अधिक सभ्यता है, कि वह लड़कियों को नहीं छेड़ते? उसका तर्क था कि बात यह नहीं कि यूरोपीय पुरुष, एशिया या अरब देशों के पुरुषों से अधिक सभ्य हैं बल्कि फर्क है कि यहाँ का समाज इस तरह के व्यवहार को पुरुषों के पिछड़ेपन की तरह से देखता है, उसे सामाजिक स्वीकृति नहीं है और कानून ऐसे मामलों में सख्ती से आता है. कुछ दिन पहले एक पत्रिका में बुर्का पहनने के बारे में तर्क दिया जा रहा था कि इससे औरतें अधिक सुरक्षित महसूस करती हैं तो अन्ना की कही वही बात मन में आ गयी.
मध्यमवर्ग में पला बड़ा हुआ, मुझे अन्ना की उन्मुक्ता बहुत आकर्षित करती. उसका गर्मियों में छोटे छोटे कपड़े पहनना, खुल कर हँसना, देर रात तक बाहर साथ घूमना, उसका बिना विवाह के अपने साथी के साथ रहना, उसका सेक्स के बारे में बेझिझक बात करना.
मेरी ट्रेनिंग समाप्त हुई, शहर बदला और अन्ना से सम्पर्क छूट गया. करीब एक साल बाद, टेलीफोन पर बात हुई तो उसने बताया कि उसने अपने साथी से, जिसके साथ कई सालों से रह रही थी, विवाह करने का फैसला किया था. फ़िर बहुत समय तक कोई सम्पर्क नहीं हुआ और करीब दो साल बाद, एक अन्य पुराना मित्र मिला जिसने बताया कि विवाह के एक साल बाद ही, अन्ना और उनके दूसरे पति ने तलाक ले लिया था. वह दोनों तो अनजान नहीं थे, शादी से पहले छह या सात साल साथ रहे थे. इतने साल साथ रह कर भी क्या वह एक दोनो को ठीक से नहीं पहचान पाये थे, मेरे मन में इस तरह के बहुत प्रश्न उठे. जूलिया का सोच कर बुरा भी लगा.
अभी कुछ समय पहले अमरीकी पारिवारिक मनोविज्ञान की पत्रिका (Journal of Family Psychology) में एक शौध के बारे में पढ़ा जिसमें यह निष्कर्श निकला है कि पहले बिना शादी के साथ रहने वाले युगल जब विवाह करते हें तो उनमें असंतोष तथा तलाक अधिक होते हैं, तो अन्ना की शादी की बात याद आ गयी. शौध करने वालों का कहना है कि कई बार साथ रहने वाले युगल विवाह के बारे में ठीक से नहीं सोचते, बस चूँकि साथ रह रहे हैं तो चलो शादी भी करलो यहीं सोच कर विवाह करते हैं पर मन में इस बात को स्पष्ट नहीं करते कि विवाह किस लिये, क्या बदलेगा, और इस तरह जल्दी शादी से असंतुष्ट हो जाते हैं. बिना विवाह के साथ रहने वाले क्या विवाह करके बदल जाते हैं?
शायद बात मन में विवाह के प्रति बने विचारों की, निष्ठा की भी है?
***
समाचार पत्र में पढ़ा कि जर्मनी में बर्लिन के एक वेश्याघर ने बदलते पर्यावरण की रक्षा के लिये नया कदम उठाया है. अगर आप वेश्याघर में कार के बजाय साईकल या जन यातायात जैसे कि बस से जायें तो वेश्याघर आप को 5 प्रतिशत की छूट देगा. इस वेश्याघर के मालिक का कहना है कि इस बात से उन्हें मुफ्त की प्रसिद्धी मिलेगी ही, पर्यावरण की रक्षा भी होगी. वेश्याघर के रेट पहले से पक्के हैं, 45 मिनट के सत्तर यूरो (करीब 4,200 रुपये).
यानि पत्नी से उकताए पुरुष अब यह कह सकते हैं कि वह तो वेश्याघर समाजसेवा की भावना से पर्यावरण को बचाने के लिए गये थे. अब आवश्यकता है कि पुरुष वेश्याओं वाले वेश्याघर भी कुछ इसी तरह का काम करे ताकि पत्नियाँ भी पर्यावरण को बचाने में समाजसेवा कर सकें और पतियों को सहयोग दे सकें!
***
पति पत्नी की बातें, एक दूसरे को न समझ पाने की उल्झनें, और झगड़े. इस विषय पर चीनी कवि वांग जिंगझी (Wang Jingzhi) की एक प्रेम कविता मुझे बहुत संदर लगती है, जो 1995 में छपी थी जब वह 93 साल के थे. कविता छपने के एक वर्ष बाद उनका देहांत हो गया. 1922 में वांग अपनी प्रेम कविताओं के लिए प्रसिद्ध हो गये थे क्योंकि वह उन्मुक्त प्यार की बात करते थे और चीनी पारम्परिक मान्यताओं को ललकारते थे. 1925 में क्म्यूनिस्ट पार्टी का सदस्य बनने के बाद उन्होंने कविता लिखना छोड़ दिया था और दोबारा कविता लेखन वृद्ध हो कर किया. उनकी एक कविता की यह पक्तियाँ देखियेः
"कल रात मैंने तुम्हारी चिट्ठी का सपना देखाजिसे मैं समझ नहीं पा रहा था, बस एक ही शब्द, "प्रेम" समझ में आ रहा था,आशा करता हूँ कि आगे से मेरे सपने में अधिक स्पष्ट करके लिखोगी."
यानि, प्रेयसी, सच में तो तुमसे यह अपेक्षा नहीं कर सकता कि हम एक दूसरे से बात करें, और शायद आमने सामने एक दूसरे की बात को सुनना कठिन भी है, जाने कितनी बीती बातें बीच में टाँग अड़ाने आ जाती हैं. तो कम से कम सपने में कुछ समझने की आशा की जा सकती है!
बुधवार, जून 24, 2009
अपनी भाषा
पिछले कई वर्षों से किताबें खरीदना बंद कर दिया है मैंने.
कहाँ रखो और एक बार पढ़ कर उनका क्या करो, यही दुविधा थी जिसका उत्तर नहीं मिला. किताबें रखने की जगह सीमित हो और जब अलमारी किताबों से भरी हो तो नयी किताबें कहाँ रखी जायें? खरीदी किताबों को रद्दी के कूड़े में फ़ैंकने से दुख होता था, लेकिन इसके अतिरिक्त चारा भी नहीं था. कुछ किताबें तो हमारे घर के पास वाले पुस्तकालय में दे दीं, पर बाकी बहुत सी किताबें पहले बेसमैंट में रखीं और जब बेसमैंट की छोटी सी कोठरी में जगह की आवश्कता हुई तो बहुत सी किताबें फैंकनीं ही पड़ीं.
तो निर्णय लिया कि अब से अँग्रेज़ी, इतालवी जैसी भाषाओं में कोई किताब नहीं खरीदूँगा क्योंकि इन सब भाषाओं की नयी किताबें हमारे स्थानीय पुस्तकालय में तुरंत मिल जाती हैं. अगर कोई पुस्तक पुस्तकालय में नहीं हो, तो उसको खरीदने के लिए फार्म भर देने से, कुछ दिन में पुस्तकालय उसे खरीद लेता है. तो सोचा कि केवल पुस्तकालय से ले कर पढ़ूँगा. पर हिंदी की किताबें पढ़ने के लिए क्या किया जाये, वह तो इटली के किसी पुस्तकालय में नहीं मिलती? अंत में यही सोचा कि हर वर्ष भारत यात्रा में कुछ सीमित हिंदी की किताबें खरीदी जायें, पर इस निर्णय का पालन करना भी कठिन है.
प्रश्न है कि हिंदी की किताबें कहाँ से खरीदी जायें और कौन सी?
पहले क्नाटप्लेस में मद्रास होटल में आयर्वेदिक डिस्पेंसरी के पीछे हिंदी किताबों की दुकान थी, पर वह भी कुछ साल पहले बंद हो गयी. कुछ दिन पहले भाँजा बता रहा था कि दरियागंज में हिंदी किताबों के विभिन्न प्रकाशकों के शो रूम हैं पर अगर आप को कोई किताब चाहिये तो उसी प्रकाशक के पास मिलेगी जिसने छापा हो और ऐसी कोई जगह नहीं जहां आप विभिन्न प्रकाशकों की किताबें खरीद सकें. विश्वास नहीं होता कि इतने बड़े सुपरपावर बनने वाले भारत की राजधानी दिल्ली में रहने वाले लाखों लोगों में इतने हिंदी की किताबें खरीदने वाले लोग नहीं कि उनके लिए इसकी दुकानें हों, एक भी दुकान हो?
फ़िर झँझट कि कौन सी किताब खरीदी जाये. कुछ पत्रिकाओं में नयी किताबों की समीक्षा छपती रहती हैं लेकिन जिस तरह नियमित रूप से अँग्रेज़ी की सबसे अधिक बिकने वाली किताबों की टाप टेन जैसी लिस्ट छपती हैं, जिससे आप देख सकते हें कि इस समय कौन सी नयी किताबें चर्चित हैं या पसंद की जा रही हैं, वैसा हिंदी में नहीं होता. या शायद मुझे मालूम नहीं? अगर पुस्तकालय से किताब लो तो सब कुछ पढ़ सकते हें, अगर न पसंद आये तो वापस दे दीजिये और किसी अन्य नये लेखक को पढ़ने के लिए ले लीजिये. लेकिन अगर मेरी तरह, साल में एक बार भारत आते हैं और कुछ गिनी चुनी किताबें खरीदना चाहते हैं तो इस तरह नहीं कर सकते. नतीजा यही होता है कि हर बार पहले से जाने पहचाने पुराने लेखकों की किताबें खरीदये.
ऐसा क्यों है?
कुछ दिन पहले अँग्रेजी दैनिक इंडियन एक्सप्रेस में तवलीन सिंह ने अपने लेख "आयतुल्लाह के पाठ" (Lessons from Ayatullah) में लिखा था:
"अपने प्राचीन हिंदू भारत के विषय में बहुत सी बातें हें जिन्हें हमें समझने और सम्भालने की कोशिश करनी चाहिये. मुझे दुख होता है जब मैं दक्षिण पूर्वी एशिया के किसी देश में जाती हूँ और देखती हूँ कि भारत की प्राचीन सभ्यता का कितना गहरा असर था जो आज भी बना हुआ है और जो अपने यहाँ खोया जा चुका है. अगर हम यह चाहते हैं कि भारत की सभ्यता बस बोलीवुड की सभ्यता मात्र बन कर न रह जाये तो हमें यह समझना चाहिये कि क्यों वह यहाँ खो गया है? हमें यह समझना चाहिये कि क्यों हमारे महानगरों में कोई दुकाने नहीं जहाँ भारतीय भाषाओं कि किताबें मिलें? अगर करोड़ों लोग प्रतिदिन हिंदी की अखबारें पढ़ रहे हैं तो वह हिंदी की किताबें क्यों नहीं खरीदते? क्यों छोटे शहरों में किताबों की कोई दुकान नहीं मिलती? क्यों हमारे गाँवों में कोई किताबें नहीं बेचता?"
स्थिति को समझने के लिए उसे विभिन्न दृष्टिकोणों से देखना होगा. जुलाई 2008 की "सामायिक वार्ता" पत्रिका में योगेंद्र यादव ने अपने सम्पादकीय में लिखा था:
"हाल ही में जारी इन आकंड़ों के मुताबिक सन् 2001 में देश भर में अंग्रेजी को अपनी मातृभाषा बताने वाले लोग सिर्फ 0.02 फीसदी थे, यानि हर दस हजार में से सिर्फ दो व्यक्ति अपने घर में पहली भाषा के रूप में अंग्रेजी बोलते थे. ... सन 2006 में देश भर में छह फीसदी बच्चे अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में पढ़ रहे थे. ज्यादा चौकाने वाला आंकड़ा है कि सन् 2003 और 2006 के बीच सिर्फ तीन सालों में जहां भारतीय भाषाओं में पढ़ने वाले विद्यार्थियों की संख्या 24 फीसदी बढ़ी वहीं अंग्रेजी में पढ़ने वाले विद्यार्थियों की संख्या में 74 फीसदी की बढ़ोतरी हुई. अगर स्कूली शिक्षा देश के भविष्य का दर्पण है तो अंग्रेजी बढ़ रही है और भयावह दृष्टि से बढ़ रही है."
दूसरी ओर हिंदी तथा भारतीय भाषाओं में अखबार पढ़ने वालों की संख्या भी बढ़ी है. देश के 22 करोड़ अखबार पढ़ने वालों में से बीस करोड़ लोग हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं में अखबार पढ़ते हैं. टीवी पर हिंदी की चैनल देखने वाले लोगों के सामने, अंग्रेजी चैनल देखने वाले लोगों की संख्या बहुत कम है. इस स्थिति के बारे में यादव जी ने लिखा कि, "भारतीय भाषाँए अंगरेजी के साये तले सूखने या मरने वाली नहीं है लेकिन जहां उनका शरीर फल फूल रहा है वहीं उनका ओज घट रहा है, आत्मा सिकुड़ रही है." इसे वह भाषा की राजनीति को नये तरीके से परिभाषित करने के मौके के रूप में देखते है, और पुराने "अंग्रेजी हटाओ" के नारे को छोड़ कर, वह अंग्रेजी को भारतीय भाषा मानने की सलाह देते हैं और अंग्रेजी को कम करने की बात को छोड़ कर "हिंदी बनाओ" की बात पर जोर देने की सलाह देते हैं.
यह सच है कि आज की दुनिया में तकनीकी और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के क्षेत्रों में अंग्रेजी न जानने का अर्थ है कि इन क्षेत्रों में होने वाले विकास से कट जाना. कुछ दिन पहले मेरठ में हो रहे एक संस्कृत सम्मेलन की बात पढ़ी थी जिसमें लिखा था कि क्मप्यूटर की प्रोग्रामिंग की भाषा के रूप में संस्कृत बहुत उपयुक्त है, पर इस तरह की बात आज व्यावहारिक नहीं मानी जा सकती जहां फ्राँस, जर्मनी, स्पेन जैसे विकसित देश भी जो अन्य सब काम अपनी भाषा में करते हैं, इन क्षेत्रों में अंग्रेजी के वर्चस्व को मानने को मजबूर हैं.
मुझे ब्राजील, चीन और कोंगो जसे देशों का अनुभव है. जानता हूँ कि ब्राजील में पोर्तगीस भाषा में शौध कार्य में बहुत बढ़िया काम हुआ है, चीन में चीनी भाषा में काम हुआ है, कोंगो में फ्राँसिसी भाषा में काम हुआ है, पर इस काम को अपने देश की सीमा से बाहर दूसरे लोगों तक पहुँचाना कठिन है, और किसी भी अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक सभा में इन देशों की उपस्थिति नगण्य ही रहती है, वे लोग नये होने वाले विकासों से कटे रहते हैं. इटली में, जहाँ मैं रहता हूँ, पंद्रह साल पहले तक अंग्रेजी या फ्राँसिसी भाषा पढ़ने का मौका कुछ उसी तरह मिलता था जिस तरह हमें मिडिल स्कूल में तीन साल तक संस्कृत पढ़ने का मौका मिलता था. पर पंद्रह साल पहले फैसला लिया गया कि प्राईमरी विद्यालय से ले कर, हाई स्कूल तक, सब छात्रों को अंग्रेजी दूसरी भाषा के रूप में पढ़ायी जायेगी. हालैंड ने फैसला लिया कि सारी पढ़ाई अंग्रेजी में होगी और उनकी अपनी डच भाषा को केवल भाषा के रूप में पढ़ाया जायेगा.
अगर हिंदी में उच्चतम स्तर तक तकनीकी तथा वैज्ञानिक शिक्षा कि सुविधा हो भी जाये तो भी यह स्नातक बाकी विश्व से किस तरह से बात करेंगे, उनका काम किन अंतर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं में छपेगा, जबकि उनके क्षेत्रो में होने वाले नये विकासों को अनुवादित करके उन तक पहुँचाया जा सकता है? तो क्या इसका अर्थ है कि अंग्रेजी न जानने वालों को इन क्षेत्रों में उच्च स्तर पर पढ़ाई करने का मौका नहीं मिलना चाहिये? मैं सहमत हूँ कि यह मौका अवश्य मिलना चाहिये पर इस तरह के स्नातकों की सीमाओं को स्पष्ट माना जाना चाहिये और उनसे बाहर निकलने के साधनों को भी तैयार किया जाना चाहिये. इसका एक उदाहरण है कि इसी तरह का एक समाचार पढ़ा था कि इस बार के सिविल सर्विस इम्तहान में छह लोग भी हैं जिन्होंने हिंदी माध्यम से इन्तहान दिया और विदेश मंत्रालय के लिए चुने गये हैं, उनकी अंग्रेजी भाषा की जानकारी को सुदृढ़ करने के लिए कोर्स की सुविधा दी गयी है.
इस लिए मैं यादव जी के विचारों से सहमत हूँ कि बात अंग्रेजी से लड़ाई की नहीं बल्कि बात हिंदी को बनाने और दृढ़ करने की है, पर यह किस तरह हो, यह प्रश्न जटिल है. अन्य सब बातों को भूल भी जायें, एक बात के लिए ध्यान आवश्यक है कि यह बात गरीब, कमज़ोर वर्ग की भी है जो अंग्रेजी न जानने की वजह से दबाव सहता है क्योंकि शासन और ताकत की भाषा तो अंग्रेजी ही है. जो लोग इस दिशा में काम कर रहे हैं वह इस विषमता से किस तरह लड़ सकते हैं? क्या नयी तकनीकें कोई रास्ता दिखा सकती हैं जिनसे गरीब, कमजोर वर्ग का संशक्तिकरण हो जिसमें अंग्रेजी जानने या न जानने का उनके जीवन पर असर कम हो?
एक अन्य बात है प्राथमिक स्तर पर शिक्षा के माध्यम की बात. इस विषय में हुए शौध ने बताया है कि प्राथमिक शिक्षा अपनी मातृभाषा में ही होनी चाहिये. क्या ऐसा हो सकता है कि पूरे भारत में प्राथमिक स्तर पर सारी शिक्षा को अंग्रेजी माध्यम की बजाय स्थानीय भाषा में किया जाये और अंग्रेजी को केवल भाषा के रूप में पढ़ाया जाये?
हिंदी के लेखक, विचारक और शुभचिंतक जो नहीं कर पाये, उसे नीचा समझे जाने वाले बाज़ारी ताकत ने ही कर दिखाया है. जनसंस्कृति में हिंदी के महत्व को स्थापित करने में हिंदी अखबारों और पत्रिकाओं की बिक्री, हिंदी फिल्मों और फिल्मी संगीत ने, हिंदी टीवी चैनलों ने जितना किया है उतना शायद कोई सरकारी या गैरसरकारी संस्था नहीं कर पायी.
हिंदी और भारतीय भाषाओं के साहित्य का अंग्रेजी में अनुवाद और अंग्रेजी में छपने वाले विदेशी साहित्य का भारतीय भाषाओं में अनुवाद भी हो रहा है और शायद अगले कुछ वर्षों में और बढ़ेगा. अगर इतालवी, फ्राँसिसी, स्पेनिश, पोतर्गीस भाषाओं के प्रकाशक यह आसानी से जान सकें कि किन हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं में लिखने वाले लेखकों की किताबें सराही जा रही हैं, बिक रहीं हैं तो उनके लिऐ अन्य भाषाओं के बाज़ार खुल सकते हैं.
बालीवुड के सितारे, काम हिंदी फिल्मों के करते हैं पर बातचीत और साक्षात्कार और चिट्ठे अंगरेजी में देते हैं, लेकिन जब इंटरनेट पर भारतीय भाषाओं में पढ़ने वाले बढ़ेंगे तो वे लोग भी हिंदी में अपनी बात लिखने कहने की कोशिश करेंगे?
आजकल समाचार पत्र "देल्ही" का नाम "दिल्ली" में बदलने की बात भी कर रहे हैं. मुझे लगता है कि इस तरह की बातें वही लोग उठाते हैं जिनमें आत्मविश्वास नहीं, या जिन्हें सचमुच की समस्याओं से सरोकार नहीं, बल्कि अस्मिता की बात उठा कर उसका राजनीतिक लाभ उठाना चाहते हैं. मैंने तो आज तक कभी भी हिंदी पढ़ने लिखने वालों में देल्ही शब्द को नहीं देखा सुना, इसका उपयोग केवल अंग्रेजी बोलने वाले ही करते हैं. जब तक हिंदी सुरक्षित है तब तक दिल्ली को अपने नाम की अस्मिता को बचाने की कोई चिंता नहीं, हाँ अगर हिंदी ही नहीं रहेगी तो नाम देल्ही हो या दिल्ली, क्या फर्क पड़ेगा?
बात हिंदी किताबों को खरीदने से शुरु की थी. आखिर में पाया कि क्नाट प्लेस में प्लाज़ा सिनेमा वाली सड़क पर जैन बंधुओं की नयी दुकान खुली है जहाँ पहले माले पर कुछ हिंदी की किताबें भी हैं. इस बार भी मैंने पुराने जाने पहचाने लेखकों की किताबें ही खरीदी हैं. आशा है कि जनसत्ता जैसे दैनिक या फ़िर टीवी पर "भारत का सबसे बड़ा समाचार गुट" जैसा दावा करने वाला दैनिक भास्कर जैसे अखबार, हिंदी किताबें बेचने वाली दुकानों के सहयोग से नियमित रूप से अधिक बिकने वाली हिंदी की टाप टेन किताबों के बारे में छापेंगे, और हिंदी के बढ़ते फ़ैलते चिट्ठाजगत से जुड़े लोग हिंदी की किताबें बेचने वाली दुकानों पर जा कर नयी छपने वाली किताबों को खरींदेगे, उनके बारे में बात करेंगे, उनकी आलोचना और प्रशंसा करेंगे, और कभी मैं भी नये लेखकों की किताबें खरीदूँगा!
सदस्यता लें
संदेश (Atom)
इस वर्ष के लोकप्रिय आलेख
-
हिन्दू जगत के देवी देवता दुनिया की हर बात की खबर रखते हैं, दुनिया में कुछ भी ऐसा नहीं जो उनकी दृष्टि से छुप सके। मुझे तलाश है उस देवी या द...
-
अगर लोकगीतों की बात करें तो अक्सर लोग सोचते हैं कि हम मनोरंजन तथा संस्कृति की बात कर रहे हैं। लेकिन भारतीय समाज में लोकगीतों का ऐतिहासिक दृष...
-
अँग्रेज़ी की पत्रिका आऊटलुक में बँगलादेशी मूल की लेखिका सुश्री तस्लीमा नसरीन का नया लेख निकला है जिसमें तस्लीमा कुरान में दिये गये स्त्री के...
-
पिछले तीन-चार सौ वर्षों को " लिखाई की दुनिया " कहा जा सकता है, क्योंकि इस समय में मानव इतिहास में पहली बार लिखने-पढ़ने की क्षमता ...
-
पत्नी कल कुछ दिनों के लिए बेटे के पास गई थी और मैं घर पर अकेला था, तभी इस लघु-कथा का प्लॉट दिमाग में आया। ***** सुबह नींद खुली तो बाहर अभी ...
-
सुबह साइकल पर जा रहा था. कुछ देर पहले ही बारिश रुकी थी. आसपास के पत्ते, घास सबकी धुली हुई हरयाली अधिक हरी लग रही थी. अचानक मन में गाना आया ...
-
हमारे घर में एक छोटा सा बाग है, मैं उसे रुमाली बाग कहता हूँ, क्योंकि वो छोटे से रुमाल जैसा है। उसमें एक झूला है, बाहर की सड़क की ओर पीठ किये,...
-
हमारे एक पड़ोसी का परिवार बहुत अनोखा है. यह परिवार है माउरा और उसके पति अंतोनियो का. माउरा के दो बच्चे हैं, जूलिया उसके पहले पति के साथ हुई ...
-
२५ मार्च १९७५ को भी होली का दिन था। उस दिन सुबह पापा (ओमप्रकाश दीपक) को ढाका जाना था, लेकिन रात में उन्हें हार्ट अटैक हुआ था। उन दिनों वह एं...
-
गृत्समद आश्रम के प्रमुख ऋषि विद्यार्थियों को पढ़ा रहे थे, जब उन्हें समाचार मिला कि उनसे मिलने उनके बचपन के मित्र विश्वामित्र आश्रम के ऋषि ग...