शनिवार, दिसंबर 11, 2010

इच्छा मृत्यु या हत्या ?

संजय लीला भँसाली की फ़िल्मों से अन्य जो भी शिकायत हो, उनके मौलिक कलात्मक अंदाज़ को, तथा उसकी सौंदर्यपूर्ण और संवेदशनशील अभिव्यक्ति को, नहीं नकारा जा सकता. उनकी फ़िल्मों के विषयों की प्रेरणा तो अक्सर विश्व सिनेमा से मिली लगती है, लेकिन फ़िल्म को कहने का तरीका उनका अपना है.

मेरे विचार में उनकी फ़िल्मों की विशेषता है कि उनमें एक ओर मानव भावों को प्रधानता दी जाती है, दूसरी ओर उन भावनाओं की संकेतात्मक अभिव्यक्ति करने के लिए अक्सर वह कोई विशेष वातावरण बनाते हैं जिसमें प्रकृति, रंग, भवन वास्तुकला, संगीत आदि, कला के हर पक्ष को वह खोज कर गढ़ा जाता है. इस तरह उनकी फ़िल्मों का वातावरण भव्य, सुंदर और भावपूर्ण तो होता है, पर साथ ही, अगर सोच कर देखा जाये तो नकली या नाटकीय भी. यह तो उनकी कला अभिव्यक्ति की व्यक्तिगत शैली है, जो विषेशकर पिछली कुछ फ़िल्मों में गहरी हो गयी है. कोई कलाकार अपनी कला की अभिव्यक्ति के लिए किस शैली को चुनता है, यह तो उसका निजि निर्णय है, लेकिन मुझे लगता है कि बहुत से आलोचक उनकी फ़िल्मों को केवल इस शैली के मापदँड से देख कर उनकी आलोचना लिखते हैं, उसके परे नहीं जा पाते.

"खामोशी" से ले कर "देवदास", "साँवरिया" और "ब्लैक" तक, मुझे अब तक उनकी कोई फ़िल्म सिनेमा हाल में देखने का मौका नहीं मिला था, टेलीविज़न पर ही डीवीडी से देखा था, और हर बार सोचता था कि उनकी फ़िल्मों के हर दृश्य की भव्य नाटकीयता को सिनेमा हाल के बड़े परदे पर देखना अच्छा लगेगा. इसलिए इस बार भारत में था तो उनकी नयी फ़िल्म "गुज़ारिश" को सिनेमा हाल में देखने का मौका मिला, तो बहुत अच्छा लगा.

Guzaarish by Sanjay Leela Bhansali

इस फ़िल्म में भी वह अपनी कला शैली पर ही डटे हैं, यानि फ़िल्म में देखने में भव्य भी है और सुंदर भी, हर एक दृश्य जैसे चित्रकार ने तूलिका से बनाया हो. घने बादलों और बारिश के रंगों का फ़िल्म में प्रभुत्व हैं - गहरा नीला, भूरा, कत्थई, काला.

गोवा की जो सामान्य छवि मन में होती है, नीला समुद्र तट और उस पर अठखेलियाँ करते पर्यटक, या "आयेंगा खायेंगा, तुम हमको क्या बोलता" जैसी भाषा बोलने वाले मछुआरे, वे सब नहीं दिखते इस फ़िल्म में. फ़िल्म के तीनो मुख्य चरित्र, ईथन, सोफ़िया, उसकी देखभाल करने वाली नर्स देवयानी और जादू सीखने वाला शिष्य ओमार, गोवा के गाँवों के पुर्तगाली घर, वहाँ के पुर्तगाली रहन सहन, वस्त्रों आदि के साथ, भारतीय और पुर्तगाली सम्मिश्रण से रचा गया है, कुछ कुछ वैसा जैसे "ब्लैक" के लिए रचा गया था.

फ़िल्म के सभी अभिनेता अभिनेत्रियाँ, हृतिक रोशन और एश्वर्या राय से ले कर छोटे बड़े सभी चरित्र, चाहे वह डाक्टर हो या रसोई में काम करने वाली मारिया या चर्च का पादरी, हर एक को सोच कर सावधानी से रचा गया है जिससे कि सभी पात्रों हाड़ माँस के व्यक्ति हैं, केवल कहानी को बढ़ाने वाले कागज़ी चरित्र नहीं. अभिनय की दृष्टि से सभी प्रशंसनीय हैं, किसी के अभिनय के सुर में बेसुरापन नहीं लगता. हृतिक रोशन ने तो ईथन के भाग में जान डाली ही है, लेकिन बहुत समय के बाद मुझे एश्वर्य राय भी अच्छी लगीं.

भँसाली जी ने पहले भी "खामोशी" और "ब्लैक" फ़िल्मों में विकलाँगता की बात बहुत संवदेना के साथ की थी और "गुज़ारिश" में एक बार फ़िर इस विषय को छूना प्रशंसनीय है. आज के मल्टीप्लेक्स वातावरण में, व्यवसायिक प्रेम कहानियों से निकल कर, गम्भीर बातों को छूने का साहस सामान्य बात नहीं.

लेकिन जहाँ फ़िल्म एक ओर कला अनुभव के रूप में खरी उतरती है, उसकी कथा के संदेश, यानि विकलाँगता और इच्छा मृत्यु, के बारे में मेरे मन में कुछ दुविधाएँ हैं. लेकिन उन दुविधाओं के बारे में बात करने से पहले, मैं कुछ माह पहले अंग्रेज़ी साप्ताहिक पत्रिका "तहलका" में छपे एक लेख के बारे में कहना चाहूँगा जिसमें बात थी तमिलनाडू तथा दक्षिण भारत में गरीब परिवारों में, वृद्ध माता पिता को जान से मारने की.

इस लेख के अनुसार, कुछ गरीब परिवारों में वृद्ध माता पिता की जबरदस्ती तेल से मालिश की जाती है और दिन भर उन्हें नारियल का पानी पिलाया है जिससे उनके गुर्दे काम करना बन्द देते हैं और दो तीन दिनों में बूढ़े मर जाते हैं. अगर तेल मालिश और नारियल के पानी से बात न बने तो नाक बन्द करके जबरदस्ती मुँह में मिट्टी या जहर भी दिया जा सकता है. कुछ वृद्ध इसी डर से घर छोड़ कर चले जाते हैं, पर साथ ही वे अपने बच्चों को दोष नहीं देना चाहते क्योंकि वह जानते हैं कि गरीबी में बूढ़े माता पिता का ध्यान रखना आसान नहीं. कई बार इस तरह मारने से पहले, सब रिश्तेदारों को बुलाया जाता हैं ताकि मरनेवाले से मिल कर सब लोग ठीक से विदा ले सकें.

जीवन और मानव अधिकारों को बात करते हुए भी, मुझे मालूम है कि गरीब घर में भूखे प्यासे लोग जो जीवन मृत्यु के निर्णय लेते हैं, उन्हें वह लोग नहीं समझ सकते जिन्होंने स्वयं भूख न झेली हो. नैतिकता की बात करना आसान है पर जब छोटे छोटे खर्चों पर पूरे परिवार के जीने मरने का भविष्य टिका हो तो असली अनैकतिकता, गरीबी और भुखमरी हैं. अनचाही बच्चियों या विकलाँग बच्चों को मारने के लिए ज़हर या गला घोंटने की ज़रूरत नहीं, बस इतना काफ़ी है कि खाने के लिए कम दो या बीमारी में डाक्टर के पास न ले जाओ.

लेकिन आज के जीवन में, जिसमें खरीदना, दिखना, सफलता पाना ही जीवन के सबसे महत्वपूर्ण ध्येय हैं, शायद बात भुखमरी वाली गरीबी की नहीं, मनचाहा न खरीद पाने वाली गरीबी की है जिसमें बूढ़े माता पिता या विकलाँग बच्चों की जानें, हमारी आकाक्षाओं की राह में रुकावट बन जाती है और जिन्हें राह से हटाना अधिक आसान है? सचमुच स्वेच्छा से मरना चाहने वालों से, लालच में मारने वाले कई गुणा अधिक हैं और इसी लिए मानव जीवन रक्षा के कानून बने हैं. इस दृष्टि से देख कर मेरे मन में "गुज़ारिश" से कुछ दुविधाएँ उठीं थीं.

"गुज़ारिश" फ़िल्म के नायक ईथन को, 14 वर्ष पहले एक दुर्घटना की वजह से शरीर के गर्दन से नीचे के भाग को लकवा मार गया है. वह न हाथ पाँव हिला सकते हैं न शरीर पर स्पर्श का अनुभव कर सकते हैं. अपने आप वह करवट भी नहीं ले सकते और लेटे रहने की वजह से, उनकी पीठ पर घाव बन रहे हैं और उनके गुर्दे भी काम नहीं कर रहे जिससे उन्हें नियमित रूप से डायलेसिस की आवश्यकता होने लगी है. उनका जिगर भी ठीक से काम नहीं कर रहा. इन सब का अर्थ है कि उनका शरीर धीरे धीरे मृत्यु के करीब जा रहा है और वह उनके जीवन के कुछ ही महीने बचे हैं.

इस हालत में, यह जान कर कि अंत समय आ रहा है, कुछ महीनों की बात है, और घुट घुट कर मरने के बजाय, ईथन चाहता है कि उसे शान्ति से मरने दिया जाये, यह बात मेरी समझ में आती है. लेकिन फ़िल्म में ईथन के मरने की इच्छा की बात इस दृष्टि से नहीं की जाती, या की जाती है पर बहुत सीमित रूप में.

बजाय यह कहने के कि ईथन कुछ ही महीनों में मरने वाला है, और शायद वह घुट घुट के, तड़प तड़प के मरेगा, अदालत में बहस के दौरान तर्क दिये जाते हैं कि चूँकि ईथन कुछ महसूस नहीं कर सकता, अपने आप हिल भी नहीं सकता, और इसकी वजह से मानसिक तकलीफ़ में है इसलिए उसे मरने दिया जाये. लेकिन अगर इस विचार को सही मान लिया जाये तो शायद यह नहीं माना जायेगा कि जिनका आधा या पूरा शरीर लकवे से बँधा है, या जो विकलाँगता की वजह से सीमित है, उन सबको मरने दिया जाये या मार दिया जाये? वैसे "गुज़ारिश" में कई बार कहा जाता है कि बात सभी या अन्य विकलाँग व्यक्तियों की नहीं, केवल ईथन की है लेकिन ईथन के बारे में जो तर्क दिये जाते हैं वे तर्क तो अन्य व्यक्तियों के लिए भी कहे जा सकते हैं.

बोलोनिया में मेरे एक मित्र क्लाऊडियो इमप्रूदेंते का, जन्म से ही गर्दन से नीचे का हिस्सा लकवाग्रस्त है. वह बोल भी नहीं सकते लेकिन पारदर्शी बोर्ड जिसपर ए, बी, सी, डी, लिखा हो, के माध्यम से आँखों के इशारे से बात करते हैं, लिखते हैं, मानव अधिकारों की बात करते हैं, स्कूलों में बच्चों को विकलाँगता और मानव अधिकारों की बात समझाते हैं. अगर "गुज़ारिश" के तर्कों को मान लिया जाये तो क्या यह समाज इस बात की अनुमति देगा कि क्लाऊडियो जैसे लोगों को जन्म होते ही जीवित न रखा जाये?

मैं सोचता हूँ कि जीवन की गुणवत्ता को मापने की कसौटी विकलाँगता का होना या होना नहीं है. बहुत से लोग, विकलाँगता के बावजूद जीवन को खुल कर, पूरा जीते हैं, और कुछ लोग विकलाँग न हो कर भी, जीवन को उस तरह से नहीं जी पाते.

मैं यह नहीं कहता कि हर हालत में जबरदस्ती मानव शरीर को मशीनों के सहारे ज़िन्दा रखा जाये. जीवन और मृत्यु, दोनों जुड़े हुए हैं और प्रकृति का हिस्सा हैं, बिना मृत्यु के जीवन नहीं हो सकता. मैं मानता हूँ कि जब वह समय आये जिसमें जीवन केवल पीड़ा भरी मृत्यु की प्रतीक्षा भर ही रह जाये, तो व्यक्ति को शान्ति से मरने का अधिकार चुनने की स्वतंत्रता होनी चाहिये. लेकिन मेरे विचार में "गुज़ारिश" में इस विचार को बिल्कुल ठीक ढंग से नहीं प्रस्तुत किया गया है. बजाय ईथन की विकलाँगता के तर्क दे कर, अगर फ़िल्म ईथन के सम्मान से और शांति से मर पाने के मानव अधिकार की बात करती तो वह बेहतर होता.

Guzaarish by Sanjay Leela Bhansali

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गुरुवार, दिसंबर 09, 2010

यादों के दर्पण

जुगनू जी को घर पर पहली बार कब देखा, यह ठीक से याद नहीं. पापा से जुड़े नवजवानों को हम लोग घर में "शिष्य" कहते थे, जुगनू शारदेय जी उनमें से ही थे. यह उनकी पहली तस्वीर हमारे दिल्ली के राजेन्द्र नगर वाले घर से है जो शायद 1984 में खींची गयी थी.

Jugnu Shardeya, Hindi writer, thinker

पिछले सालों में बीच बीच में उनसे मुलाकात होती रही है. पिछले वर्ष से उनकी तबियत ठीक नहीं चल रही थी, लेकिन कुछ सप्ताह पहले जब वह मिले तो उनका स्वास्थ्य कुछ ठीक लगा और बहुत अच्छा लगा. यह दूसरी तस्वीर इसी मौके से है.

Jugnu Shardeya, Hindi writer, thinker

उनको शुभकामनाओं के साथ, आज उनका एक पुराना लेख प्रस्तुत है जो उन्होंने करीब चालिस साल पहले लिखा था और "जन" पत्रिका में छपा उनका पहला आलेख था.

यादों के दर्पण में सिमटा हुआ अतीत

(आत्मकथा, ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार खाँ, हिन्द पाकेट बुक्स, शाहदरा दिल्ली)

एक सीधे साधे और सच्चे आदमी ने अपनी कहानी, अपनी ही जुबानी प्रस्तुत की है. न लाग, न लपेट, सिर्फ मन की पीड़ा, अतीत के स्मरण और भविष्य का सपना. इस इन्सान को हिन्दुस्तान की पुरानी पीढ़ी भूल गयी है और जिन्हें उसकी याद है वे विवश हैं और नयी पीढ़ी जो इतिहास कक्षाओं में पढ़ती है उसमें इस आदमी का कहीं जिक़र नहीं होता. इस इन्सान की कहानी "संयक्त भारत और बँटे हुए पाकिस्तान के लिए एक आलोक स्तम्भ है." जीवन भर संघर्षशील रहने वाले, हर जोर ज़ुल्म के ख़िलाफ़ आवाज उठाने वाले खान अब्दुल गफ़्फ़ार खाँ की आत्मकथा पहली बार किसी भाषा में प्रकाशित हुई है (मुझे खुशी है वह भाषा हिन्दी है)

एक ओर जहाँ अंग्रेजों के अत्याचार का भण्डाफोड़ है वहीं दूसरी ओर खिलाफ़त आन्दोलन, मुस्लिम लीग और पाकिस्तान की हकीकत का प्रस्तुत पुस्तक द्वारा पता चलता है. उस वक्त के समाज की सही स्थिति, पिछड़ापन, गरीबी और अशिक्षा के मूल कारणों का पता चलता है. ब्राह्मणवादी परम्पराएँ किसी भी समाज की वास्तविक प्रगति में बाधक रही हैं. इसका मर्मगाही उदाहरण पुस्तक में से दे रहा हूँ. पश्तनु बच्चे जब पढ़ने पाठशाला में जाते थे तबके ब्राह्मण अर्थात मुल्ला मौलवी कहते थेः

सबक चिः द मद्रसे वाई
द पराइ द पैसे वाई.
जन्नत के बः जाए नवी,
दोजख के बः धंसे वही.

(जो लोग मदरसे में सबक पढ़ते हैं, वे पैसों के लिए ऐसा करते हैं. उनको जन्नत में जगह नहीं मिलेगी. वे दोजख में धक्के खाते रहेंगे.)

सीमान्त गांधी लिखते हैं, "इस्लाम के प्रादुर्भाव से पहले पख्तून हिन्दू थे और हमारे समाज में भी वह गलत नियम नियम प्रचलित था कि विद्या केवल ब्राह्मणों के लिए है. इस नियम के अधीन हम भी उसी तरह विभिक्त हो गये, जैसे बाकी हिन्दू अलग अलग टुकड़ों और वर्गों में थे."

पुस्तक में आत्मकथ्य के साथ सीमांत गांधी के विचारों, आस्थाओं और सिद्धान्तों का दर्शन है. पन्द्रह वर्षों तक स्वाधीनता संग्राम में जेल में रहने वाले रहबर बादशाह को पाकिस्तान की तथाकथित इस्लामी सरकार ने भी पन्द्रह वर्षों तक जेल में रखा. इस्लाम और पाकिस्तान के सम्बंध में वह कहते हैं, "... इस्लाम जिस समय इस देश में आ रहा था, उस समय आँखों में वह आध्यात्मिक आलोक, ईश्वरीय विचार, त्याग और तपस्या का भाव बाकी नहीं रहा था, जो इस्लामी पैगम्बर लाये थे या जिनका प्रचार अबूबकर और उमर जैसे महान पुरुषों ने किया था. ... इस्लाम जब हमारे देश पहुँचा, अरब राज्य साम्राज्यशाही और निरंकुशता में उन्मत हो चुके थे. उनमें धर्म प्रचार की लगन और नेकी फैलाने के भाव का अभाव हो चुका था ... इन्हीं महान व्यक्तियों के बलिदान के कारण अब पाकिस्तान स्थापित हुआ है. यह बात अलग है कि जिन पठानों ने पाकिस्तान के पूर्वजों को इस्लाम में दीक्षित किया था, उनके साथ पाकिस्तान का बर्ताव क्या है?"

मातृभाषा के सच्चे भक्त बाचाखान कने एक बार अफगानिस्तान के शाह अमानुल्ला खाँ से साफ कहा, "कितने शर्म की बात है कि आप को अन्य भाषाएँ आती हैं पर पश्तो नहीं आती. ... जाति की उन्नति अपनी भाषा से होती है." पुस्तक पढ़ने से यह स्पष्ट ज्ञात हो जाता है कि अहिंसा, विषेश तौर से सिविल नाफ़रमानी के बल पर अन्याय को खत्म किया जा सकता है. भाचाखान ने खूँखार पठानों को अपने स्नेह और प्रेम के बल पर अहिंसक बना कर सत्याग्रह का मार्ग दिखाया. (अंग्रेजों ने कहा था, "अहिंसावादी पठान हिंसावादी पठान से अधिक खतरनाक होता है.")

पुस्तक की भाषा और शब्दावली में कहीं कोई जाल नहीं, अपने मन के विचार हैं जिसके कारण कुछ लोग इसे प्रचारात्मक भी कह सकते हैं. स्थान स्थान पर बाचाखान ने, पाकिस्तान, भारत और दुनिया के अन्य मुल्कों के प्रति अपने विचार प्रस्तुत किये हैं. यहाँ कुछ बातों को मैं रखना चाहता हूँ, "मेरे निकट पाकिस्तान से दोस्ती मुमकिन नहीं, क्योंकि पाकिस्तान की बुनियाद नफरत है. पाकिस्तान की घुट्टी में नफरत, जलन, द्वेष, दुश्मनी वैमनस्य आदि दुर्भाव सने हैं. इसकी पैदाइश अंग्रेजों की कृपा से हुई है. पाकिस्तान तो शांति और मैत्री की बात सोच भी नहीं सकता. वह श्रेय साधना, सलह, सफाई का घेर विरोधी है. वह फर्जी जिहादी नारों से जनता को काबू में रखना चाहता है."

"... कांग्रेस ने, जो भारत की प्रतिनिधि संस्था थी, हमें न केवल अपने से दूर फेंक गिया, अपितु शत्रुओं के हवाले कर दिया था ..."

रहबर बादशाह के विचार, दर्शन और आस्थाएँ पुस्तक में बड़ी सच्चाई के साथ प्रस्तुत किये गये हैं, इसमें कोई प्रचार नहीं है, किसी से शिकवा शिकायत नहीं, सिर्फ सपना है स्वतंत्र पख्तूनिस्तान का, और गुस्सा है, नामर्दगी पर (चाहे वह भारत सरकार की तथाकथित तटस्थता हो अथवा पाक सरकार द्वारा निहत्थे पठानों पर गोली वर्षा) और गरीबी और अन्याय के खिलाफ एक आवाज है जिसे सुनना "कांग्रेसी" पसंद नहीं करते. पुस्तक में तीन भाषण हैं जो अत्यंत ही महत्वपूर्ण और पख्तूनिस्तान की वास्तविक स्मस्या को रखने वाले हैं.

इस पुस्तक को लिपिबद्ध करने वाले श्री कुँवर भानु नारंग और श्रीराम सरन नगीना तथा हिन्दी रूपांतरकार श्री जगन्नाथ प्रभाकर बधाई के पात्र हैं, जिन्होंने यादों के दर्पण में बिखरे हुए अतीत को बाँधा है.

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मंगलवार, दिसंबर 07, 2010

चर्चा - भाषा की पूजा

कुछ दिन पहले 1967 की "जन" पत्रिका में छपा, हिन्दी लेखक और विचारक श्री रघुवीर सहाय के हिन्दी भाषा के बारे में लिखे आलेख को "भाषा की पूजा" के नाम से प्रस्तुत किया था. आज प्रस्तुत है इसी आलेख के बाद में हुई चर्चा की रिपोर्ट जिसमें हिन्दी लेखन जगत के बहुत से जाने माने नाम इस बहस पर और रघुवीर सहाय के आलेख के बारे में, हिन्दी या प्रान्तीय भाषाएँ या अँग्रेजी के विषय पर कहते हैं. इन नामों में हैं श्रीकांत वर्मा, मुद्राराक्षस, मनोहर श्याम जोशी, नेमीचन्दर जैन, इत्यादि. यह रिपोर्ट श्री रमेश गौड़ ने तैयार की थी.

चर्चा

श्री नेमिचन्द्र जैनः लेख में स्वतः सिद्ध प्रकार के वक्तव्य हैं. भावुक अभिव्यक्ति और चिन्तन का यह एक नमूना है. सभी मातृभाषाएँ इस्तेमाल की जायें तो समस्या सुलझ जायेगी, इस तरह की धारणा लगती है जो गलत है.

श्री विनय कुमारः  यह मान लिया गया है कि राजनीतिक ही अन्ततः भाषा के सम्बंध में निर्णय करेगा. भाषा की सड़न आदि के लिए केन्द्रीय सत्ता या सत्ताधारी दल को ही ज़िम्मेदार माना गया है. वास्तव में समस्या अधिक व्यापक है. सुविधा प्राप्त ऊँची हैसियत का पूरा वर्ग स्थिति के लिए ज़िम्मेदार है. अंग्रेज़ी हटाने का एहसास रखने वालों में भी चिंतन के स्तर पर अंग्रेज़ी का प्रभाव है. अंग्रेज़ी का इस्तेमाल एक तो स्वार्थ सिद्धि के लिए होता है, दूसरे दिमागी मजबूरी में. अंग्रेज़ी व्यक्तित्व के साथ जुड़ गयी है. इसलिए उसे सत्ताधारी दल तक ही सीमित नहीं करना चाहिये.

श्री भारतभूषण अग्रवालः अंग्रेज़ी जानने वाले शायद दो प्रतिशत ही नहीं हैं, आज़ादी के बाद बढ़े हैं.

श्री विनय कुमारः तीन चार साल पहले दसवें दर्जे तक अंग्रेज़ी पढ़े लोग 1.3 प्रतिशत थे, इसलिए दो प्रतिशत से अधिक नहीं.

श्री भारत भूषण अग्रवालः यह कहना आसान तरीका है कि मातृभाषा चले. लेकिन यह व्यवहारिक नहीं है. सारी अखिल भारतीय सेवाएँ केन्द्र की हैं. मातृभाषा चलने पर एक क्षेत्र के लोग दूसरे में कैसे काम करेंगे. केन्द्र में चौदह भाषाएँ चलें, यह कहना भी ठीक नहीं. करना यह होगा कि केन्द्र में हिन्दी चले और प्रान्तों में प्रान्तीय भाषाएँ, इतना ज़रूर है कि पिछले बीस सालों में मामला इतना बिगड़ गया है कि क्रांती जैसी चीज़ अब इसे सुलझा सकती है.

श्री रामानंद दोषीः भाषा सुविधा का माध्यम है. रोजमर्रा की भाषा और होती है, नौकरी आदि प्राप्त करने की दूसरी. हिन्दी या अंग्रेज़ी, कोई एक भाषा तो सीखनी ही होगी. केन्द्र में एक भाषा हो चाहे हिन्दी हो या कोई और भारतीय भाषा. चौदह भाषाओं का केन्द्र मे् चलना असम्भव है.

श्री श्रीकांत वर्माः चौदह भाषाओं की बात सही है. हिन्दी भाषी राजनीतिक और हिन्दी के लेखक, पराने तो सभी, कुछ नये भी, साम्राज्यवादी मनोवृति के हैं. लोक सभा में अन्य भाषओं के प्रयोग का विरोध हिन्दी वालों ने ही किया. वे समझते हें कि इससे हमारा नेतृत्व खतम हो जायेगा. हिन्दी भी एक क्षेत्रीय भाषा है. वह सम्पर्क भाषा है, उसे वही स्थान मिलना चाहिये, झूठी या अन्धी श्रद्धा नहीं. हिन्दी के साम्राज्यवाद की मनोवृति को खतम करना चाहिये. एकता भाषा के कारण नहीं होती. भारत की एकता का आधार पहले धर्म था, जैसे जैसे धर्म का ह्वास होता जायेगा, राजनीति उसकी जगह ले लेगी. स्वाधीनता आंदोलन में हिन्दी युद्ध के प्रचार की भाषा थी. अब वह स्थिति नहीं है. इसलिए सभी भाषाओं को उनका स्थान देना होगा. तमिलनाड में तमिल समर्थकों के जीतने से राष्ट्रीय एकता बढ़ी है. फ़िलहाल सभी भाषाओं का इस्तेमाल हो. हिन्दी राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकृत होती है या नहीं, यह बाद की बात है.

डा. सदाशिव कारन्थः एक राष्ट्र के लिए एक भाषा की ज़रूरत नहीं. आर्थिक एकता हो तो विभिन्न भाषाएँ होते हुए भी राष्ट्र एक हो सकता है. केंद्रीय प्रशासन में एक ही भाषा होनी चाहिये, लेकिन राजनीति और हिन्दी को जोड़ने के कारण अभी यह मुश्किल है. जब तक मातृभाषा को ले कर जनता तक नहीं पहुँचते, तब तक कुछ नहीं हो सकता. पहले से ही हिन्दी को केन्द्रीय भाषा घोषित करने से उसका घोर विरोध होगा, देश टूट भी सकता है.

श्री परिमल दासः सन 1947 में ही हिन्दी को राजभाषा बना देना चाहिये था. एक भाषा होने से ही राष्ट्रीय एकता हो सकती है. जिसे हिन्दी का साम्राज्यवाद कहा जा रहा है, वह साम्राज्यवाद है नहीं, लेकिन अगर हो भी तो मैं उसे राष्ट्रहित में मानता हूँ. भाषा के प्रश्न को भौगोलिक राजनीतिक दृष्टि से देखना चाहिये, उत्तर दक्षिण, मध्य क्षेत्र और तटवर्ती क्षेत्र की दृष्टि से नहीं. गांधी जी और नेता जी ने महसूस किया था कि मध्यक्षेत्र ही कुछ करने में समर्थ हो सकता है, हिन्दी ही राष्ट्रीय एकता को बचा सकती है. लेकिन हिन्दी भाषी लोगों ने हिन्दी के प्रति प्रेम नहीं. वे नपुसंक हैं. गैर हिन्दी इलाकों के लोग ही फैलायेंगे, और राष्ट्रभाषा के रूप में मान्यता दिलायेंगे.

श्री वेदप्रताप वैदिकः अंग्रेज़ी ने अभिव्यक्ति, चिंतन और दफ़्तर दोनो का स्थान घेर रखा है. हिन्दी को दफ़्तर के स्तर पर तो ला सकते हैं, अभिव्यक्ति और चिंतन के स्तर पर नहीं. सारी भाषाओं का दफ़्तर के स्तर पर प्रयोग बहुत मुश्किल, लेकिन अगर अभिव्यक्ति के स्तर पर सभी भाषाओं को स्वीकार कर लिया जाये, तो छोटे मोटे दफ़्तरी कामों के लिए हिन्दी के प्रयोग का विरोध नहीं होगा.

श्री रुद्र नारायण झाः लेख में भाषा समस्या का राजनीतिक समाधान खोजा गया है. प्रान्तीय भाषाओं को प्रान्तों में पूरी छूट होनी चाहिये, लेकिन सुनने की भी तो कोई भाषा होनी चाहिये. हिन्दी ने कोई भी साम्राज्यवादी काम नहीं किया है. सभी भाषाएँ चलें लेकिन एक केंद्रीय भाषा को भी तो मान्यता देनी पड़ेगी.

श्री ओम प्रकाश दीपकः जब तक अहिंदी भाषी इलाके हिन्दी को स्वीकार नहीं करते, तब तक क्या करें?

श्री रुद्र नारायण झाः इस प्रकार तो अंग्रेज़ी केन्द्रीय भाषा बनी रहेगी.

श्री ओम प्रकाश दीपकः आप के तर्क से तो यही नतीजा निकलता है.

श्री मन्थन नाथ गुप्तः राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान एक नारा उठा था, हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान. इसमें हिन्दू की वजह से पाकिस्तान बना. अब हिन्दी से देखिये क्या हो. जब दूसरे देश कई भाषाएँ ले कर एक रह सकते हैं तो भारत क्यों नहीं रह सकता. अभी तो सभी भाषाओं को मान्यता देनी होगी. फ़िर उस स्थिति से उत्पन्न प्रभावों के फ़लस्वरूप हो सकता है कि किसी एक भाषा पर सहमति हो जाये.

श्री रामधनीः भाषा का सवाल सामाजिक और आर्थिक सवालों से जुड़ा है. राष्ट्रभाषाएँ तो सभी हैं. बहुमत की भाषा को सम्पर्क भाषा मानना होगा, लेकिन हिन्दी के लिए जेहाद करने की ज़रूरत नहीं. यह जेहाद ही साम्राज्यवाद है. अंग्रेज़ी को तो हटा ही देना चाहिये. अंग्रेज़ी का मुल्क की ज़िन्दगी में कोई स्थान नहीं है. राष्ट्रीय एकता का इस साम्राज्यवाद से लाभ नहीं, नुकसान होगा. केन्द्र में सभी प्रान्तीय भाषाओं के प्रयोग को सिद्धान्ततः स्वीकार कर लेना चाहिये, अकेले हिन्दी का आग्रह और उसके लिए आन्दोलन अंग्रेज़ी के साम्राज्यवाद के स्थान पर नये साम्राज्यवाद की स्थापना करना है.

श्री मुद्राराक्षसः धर्म या भाषा को एकता का आधार बताना इतिहास की गलत व्याख्या है. भारत जितना बड़ा आज है, पहले कभी नहीं था. और यह एकता उसे अंग्रेज़ी शासन ने दी. पाकिस्तान बनने से आज यह ज़रूरत पैदा हो गयी है कि यह एकता बनी रहे. हिन्दी को जो साम्राज्यवादी बना रहे हैं, वे किसी को भी बना सकते हैं, लेकिन इससे क्या हम हिन्दी को छोड़ दें? अगर दक्षिण और बंगाल कट जाते हें तो यह कोई दुर्घटना नहीं होगी, भला ही होगा. भाषा नहीं होगी तो विभाजन के लिए दूसरे कारण पैदा हो जायेंगे. हिन्दी को अपनी सही छोटी जगह पर लाने की बात कहना समय को गलत समझना है, यह बड़ी बात कहना है. आज की राजनीतिक स्थिति में हिन्दी के साम्राज्यवाद की बात कहने में कुछ निहित स्वार्थ हैं.

श्री ओम प्रकाश दीपकः श्री मुद्राराक्षस ने इरादों के बारे में जो बात कही है उसे गम्भीरता से नहीं लेना चाहिये..

श्री मनोहर श्याम जोशीः भाषा का सवाल देश की अधूरी क्रांति से जुड़ा है. इसलिए साम्राज्यवाद आदि के सवाल उठते हैं. जब तक यह पूरी नहीं होती, तब तक समस्या बनी रहेगी.

श्री रमेश उपाध्यायः भाषा के सम्बन्ध में इतने भाषणों, बहसों आदि के बाद भी कोई क्रांतिकारी कदम नहीं उठाया जा सका इसके लिए वे लोग ज़म्मेदार हैं जो यथास्थिति को बनाये रखना चाहते हैं, स्वयं को खतरों से दूर रखने, जो मिल रहा है और उसे लेते रहने का लालच, और बिगड़ी परिस्थिति से अधिकतम लाभ उठाने की इच्छा के कारण हिन्दी के सम्बन्ध में यथास्थिति को कायम रखना, या केवल राजनीतिक लाभ के लिए असम्भव सुझाव रखना या पूँजीवादी व्यवस्था पर आँच न आये इसलिए अंग्रेज़ी की गुलामी चालू रखना, इन तीनों दृष्टियों से एक तरफ़ तो भाषा सम्बन्धी कोई क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं होने पाता, दूसरी तरफ़ भाषा विवाद का नशा लोगों को सामाजिक चेतना से पृथक रखता है.

श्री ओम प्रकाश दीपकः हिन्दी को हम लोक भाषा के रूप में लेते हें या अंग्रेज़ी की तरह सामन्ती राजभाषा के रूप में? मैं नहीं समझता कि हिन्दी साम्राज्यवादी हो सकती है, लेकिन हिन्दी नेताओं की दृष्टि जरूर ऐसी या संकीर्ण स्वार्थ वाली हो सकती है. बहस के लिए मान भी लें कि देश के अन्य टुकड़े होना अनिवार्य है, तो आखिर उससे भी तो हिन्दी एक क्षेत्र की ही भाषा रह जायेगी. देश की एकता के लिए मातृभाषाओं के अधिकार क्यों न स्वीकार करें? देश की एकता अंग्रेज़ों ने स्थापित नहीं की, बहुत पुरानी है, वरना बर्मा और श्री लंका के भारत से निकलने पर भी खून खराबा होता या फ़िर पाकिस्तान भी आसानी से बन जाता. लोकसभा में विभिन्न भाषाओं को मान्यता देनी ही होगी. उसी तरह केन्द्रीय सरकार का काम भी जनता के साथ उसी की भाषा में होना चाहिये. जब तक कोई एक भाषा सभी के लिए मातृभाषा जैसी नहीं होती, सभी भाषाओं का इस्तेमाल करना पड़ेगा. रह गये, केन्द्रीय सरकार के दफ़्तर. उनमें भी कोई ऐसा रास्ता निकालना पड़ेगा जो सबको मान्य हो. आगे चल कर कोई एक भाषा मान्य हो, इसके लिए भी फिलहाल सभी भाषाओं को मान्यता देना अनिवार्य लगता है. अन्ततः तो जैसा जोशी जी ने कहा है, मामला देश की अधूरी क्रांति के साथ जुड़ा है.

शनिवार, नवंबर 27, 2010

भाषा की पूजा

अप्रैल 1967 में डा. राम मनोहर लोहिया और समाजवादी पार्टी से जुड़े बहुत से लेखकों तथा विचारकों ने मिल कर नियमित रूप से देश के विभिन्न प्रश्नों पर विचार विमर्श करने के लिए मासिक गोष्ठियों का आयोजन करने का निर्णय लिया था, और पहली गोष्ठी का विषय था हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं के भविष्य के बारे में. इस गोष्ठी के लिए श्री रघुवीर सहाय को आमान्त्रित किया गया था कि वह इस विषय पर लेख लिखें, जिस पर बहस की जाये. यह लेख और उस पर हुई बहस, मई 1967 की "जन" पत्रिका में छपे थे. वही विचारोत्तेजक लेख यहाँ प्रस्तुत है.

अपने पिता के पुराने साथियों में रघुवीर सहाय की याद मेरे मन में बहुत सालों बाद भी ताजा है. उनका सिगार पीना, उनकी मृदुल हँसी और उनका हम बच्चों से गम्भीरता से बात करना, सब याद है. उनके बच्चों में से, उनकी बड़ी बेटी मँजरी जो मेरी उम्र के कुछ करीब थी, की याद है, लेकिन छोटी बेटी और बेटे के नाम भी याद नहीं, पिता की अकस्मात मृत्यु के बाद उनसे सम्बंध नहीं रहे, लेकिन आज रघुवीर जी के इस लेख को प्रस्तुत करते समय सब याद आ गया.

भाषा की पूजा बन्द करो - रघुवीर सहाय

(यह लेख बहस के लिए लिखा गया है. इसमें लेखक ने अन्तिम विश्लेषण करके बहस खत्म कर देने का दावा नहीं किया है. पर वह यह मान कर चलता है कि भाषा पर बहस यह समझने के लिए की जा रही है कि भाषा के मामले में इस वक्त क्या करना है.)

भाषा के मामले पर पिछले 20 वर्षों में जो कुछ हुआ है, उसका जायज़ा एक वाक्य में लिया जा सकता हैः थोड़े से लोगों को, जो भाषा का इस्तेमाल करने की जरूरत से प्रतिश्रुत रहे हैं उन बहुत से लोगों के विरुद्ध संघर्ष करने को मजबूर किया गया है जो भाषा की पूजा करते रहे हैं. इस संघर्ष में वह लेखक - और इस लेखक की भी यही स्थिति है - जो थोड़े लोगों में शामिल रहा अब एक कोने में धकेल दिया गया है जहाँ उसे अपनी आखिरी जी तोड़ कोशिश के साथ छटपटाती हुई एक लड़ाई लड़नी है. बहस के लिए सच पूछिये तो उसके पास वक्त नहीं रह गया हैः बहस पुकार कर शायद कुछ एक अन्य लेखकों को पास बुला सकती है मगर पास खड़े हो जाने वाले अगर खुद छटपटा कर लड़ नहीं सकते तो बहस सिर्फ़ आततायी को और अधिक आक्रमण का मौका देने का साधन बनती है.

एक अच्छे योद्धा की तरह अपनी क्षति स्वीकार कर लेनी चाहिये - भाषा बुरी तरह टूट चुकी है. राजनीतिक दिमाग एक भाषा में वोट माँगता है, दूसरी में वक्तव्य देता है तीसरी में शपथ लेता है. कलाकार दिमाग़ एक भाषा में सोचता है, दूसरी में लिखता है और फ़िर पहली में यश प्राप्त करना चाहता है. बाकी लोग, किसी भाषा में सोच नहीं पाते, किसी भाषा में बोल नहीं पाते. उनके लिए दो व्यक्तियों के मध्य भाषा की एक बड़ी उपलब्धी - मतभेद संभव नहीं रह गया है, अधिक से अधिक वे एक अव्यक्त समझौता कर सकते हैं जो एक दूसरे के भ्रष्ट चरित्र के लिए चुपचाप हामी भरने का समझौता होता है. यह सब इतना जानते हुए कह रहा हूँ कि ये राजनीतिक, कलाकार और लोग कोई आदर्श नहीं हैं.

परन्तु कुछ आदर्श इन तीन वर्गों में कहीं न कहीं हैं. जो भी हैं वे भाषा को पूजा की नहीं इस्तेमाल की चीज़ बनाने के लिए लड़ते रहे हैं. इस लड़ाई में अब अंतिम दौर शुरु हो गया है. एक जगह हम देखते हैं कि सरिहन सरासर झूठ बोल कर अब उसे छिपाने की कोशिश चल भले ही कर जाये, सच्चाई को उजागर किया जा सकता है. दूसरी जगह विद्रोह को भटकाने में भाषा का सहारा लेने की चेष्टा, आकर्षण भले दिख ले, भले दिख ले, भाषा इसमें दग़ा जरूर दे जाती है, तीसरी जगह, कहने का कोई असर न हो और यहाँ तक न हो कि शब्द की जगह पत्थर ही एक रास्ता रह जाये, फिर भी विचार जनमत बन सकता है. ये सब मुक्ति के, विजय के लक्षण हैं. परन्तु लम्बी लड़ाई के दौरान पीछे हटते हुए प्रतिद्वन्द्वी ने इतनी बस्तियाँ उजाड़ दी हैं कि अब सारी दुनिया नये सिरे से बसानी होगी.

सबसे पहले तो राष्ट्रीय एकता को नये सिरे से समझना और बनाना पड़ेगा. यह एक चीज़ है जो सबसे ज़्यादा जलायी फ़ूँकी गयी है. एक से एक सूक्ष्म अस्त्र काम में लाये गये हैं जैसे यह कि सारे देश की एक राजभाषा जिस संविधान द्वारा स्थापित की गयी है उस सम्बन्ध में विहित समता के किसी भी आदेश का पालन नहीं किया गया है. जिस भाषा को राजभाषा बनाने का संकल्प किया गया है, उसके बहुमत का शोषण किया गया है, उसकी भाषा का नहीं. स्वामी शासक के जाने के बाद उसकी जगह उस बहुमत के समृद्ध प्रतिनिधियों ने ले ली है और शासक की भाषा के रूप में उस भाषा को बिठा दिया है जिसे आज़ादी भी नहीं मिल पायी थी. उसे स्वामिभाषा का स्थान दिलाने के लिए लालच दिया गया कि वह दासभाषा बन कर रहे और दासत्व का मुआवजा उपभोग करे. यदि वह भाषा आज़ाद होती तो काफ़ी बड़ा शासक वर्ग अपनी जगह से हटता. इसलिए उसे अधिक से अधिक समय तक मुआवज़ा देने की पेशकश की गयी. उसका विकास करने के लिए बड़े पैमाने पर राष्ट्रीय धन का व्यय किया गया जिसमें हिस्सा बंटाने वह लोग आये जिन्होंने भाषा का विकास करते रहने का और उसे इस्तेमाल न होने देने का बीड़ा उठाया. राष्ट्रीय खर्च से एक भाषा को जो घूस दी गयी वह दूसरी राष्ट्रभाषाओं का पेट काट कर दी गयी. भाषाओं में एक भाषा के लिए घृणा फैलाने का काफ़ी इन्तज़ाम था. तब भाषा की दासता का मोर्चा यों बँधाः अंग्रेजी शासन की भाषा, हिन्दी प्रमुख दास भाषा और बाकी प्रतिद्वन्द्वी दासभाषाएँ.

यहाँ वह सम्पूर्ण कहानी दोहराना बहुत सी जानी मानी बातें दुहराना होगा जो हिन्दी के इस दास वैभव से उपजी विकृतियों की कहानी है. बहुत बड़े पैमाने पर हिन्दी क्षेत्र की प्रतिभा का विविध विद्याओं से, विविध भाषाओं और परम्पराओं से और अपने क्षेत्र के मनुष्य से अलगाव ही संक्षेप में वह कहानी है. एक प्रश्न अवश्य यहाँ अनुतरित नहीं छोड़ना चाहता हूँ. अक्सर कहा जाता है कि यदि स्वतंत्रता मिलते ही हिन्दी को सीधे राजभाषा घोषित करके स्थापित कर दिया होता तो अनन्तर जो कुछ हुआ, वह न होता - वैसा नहीं किया गया, यह बड़ी भूल हुई. पर ऐसा नहीं किया जा सका तो क्यों? क्यों कि जिन्होंने हिन्दी के नाम पर नेतृत्व सम्भाला था - सचमुच उन अल्प प्रतिशत लोगों के साथ थे जो बाद में अमीर से अमीर बने और इन नेताओं में स्वभावतः नैतिक शक्ति की कमी थी. और भी बहुत से काम हैं जो तब नहीं हुए और बाद में बहुत धीरे धीरे और तकलीफदेह तरीके से गलती सुधारने के प्रयत्न होते रहे. पर वे इतने दिखावटी थे कि उन्होंने न सिर्फ कोई परिवर्तन नहीं किया बल्कि हर बार समस्या को एक नयी उलझी हुई शक्ल दे डाली.

आज़ादी के बाद के पहले वर्षों में जब हिन्दी क्षेत्र में जन्म लेने के कारण हिन्दी भाषी को राजनीतिक सम्मान प्राप्त करने का निर्विवाद अधिकार दे दिया गया तभी उस क्षेत्र के असमपन्न हिन्दीभाषी को अपनी भाषा में अपना सामान्य सामाजिक अधिकार प्राप्त करने से निरन्तर वंचित रखा गया - उसे बताया गया कि कुछ लोग अभी उसकी हिन्दी का विकास करने के लिए अंग्रेज़ी से अनुवाद कर हैं और वह चाहे तो अपनी भाषा का इस्तमाल करने के खतरे और नुक़सान छोड़ कर अनुवाद के अनुष्ठान में शामिल हो सकता है. हिन्दी में अभिव्यक्ति की सामर्थ्य का जीवन में व्यवहार तब इस शकल में हुआ कि विद्याओं का, कौशल का और अन्ततः चरित्र का विकास नहीं, इन सबके अंग्रेज़ी नमूनों का भाषानुवाद ही हिन्दी भाषी का सामाजिक प्रतिष्ठा का माध्यम है. एक नतीजा इसका यह है कि हिन्दी में लिखने वाले लोग दिन ब दिन कम होते गये जो भाषा के अतिरिक्त किसी विद्या में पारंगत हों. सम्पूर्ण समाज रोक कर रखा गया, उस दिन की प्रतीक्षा में जब संविधान के अनुसार रातोंरात हिन्दी राजभाषा हो जायेगी और उस दिन भाषा का अधिकार हर एक को मिल जायेगा. यह दिन हिन्दीतर भाषाओं के सम्पन्न वर्ग को स्वभावतः खतरे का दिन दिखायी देने लगा क्योंकि यह प्रकट हो चुका था कि यह खुद हिन्दी भाषा के उतने ही सम्पन्न वर्ग के लिए खतरे का दिन है जिसे वे टालना चाहते हैं.

जब यह भय हिन्दीतर क्षेत्रों के सम्पन्न नेताओं ने प्रकट किया तो इसकी प्रतिक्रियाएँ हिन्दी क्षेत्र में और हिन्दीतर क्षेत्रों में प्रायः एक सी हुईं. हिन्दी नेताओं ने इसे हिन्दी विरोध का नाम दिया जबकि यह हिन्दी नेताओं का ही समधर्मी अंग्रेज़ी समर्थन था. हिन्दीतर क्षेत्र के वंचित पिछड़े वर्ग को भी अपने नेताओं का यह अंग्रेज़ी समर्थन मातृभाषा की रक्षा के साधन के रूप में दिखायी दिया, या कम से कम दिखाया गया और बहुत समय तक एक झूठी बहस हिन्दी और हिन्दीतर दोनो पक्षों के स्वार्थी नेताओं में चली जिससे वास्तव में दोनो अपने अपने क्षेत्र की भाषा शक्ति को आगे बढ़ने से रोकने के मामले में सहमत थे. हिन्दी नेताओं ने अपनी जनताओं से कहा, चूँकि सरकार और हिन्दीतर भाषी हिन्दी का विरोध कर रहे हैं इसलिए हम हिन्दी में हस्ताक्षर करने, हिन्दी में नामपट लिखवाने और हिन्दी में पुरस्कार दिलाने के कार्यक्रम और आंदोलन चला रहे हैं. हिन्दीतर क्षेत्र की जनता से इन्होंने कहा - हम दूसरी भाषाओँ हम दूसरी भाषाओं के विरोधी नहीं हैं, दूसरी भाषाओं का भी वैसा ही विकास होना चाहिये जैसा हम अपनी भाषा का कर रहे हैं, अर्थात उनके इस्तमाल को रोक रखने वाला विकास. फलतः केन्द्र ने सब भाषाओं के विकास का नारा उठाया, क्योंकि सत्ताधारी नेतृत्व इन दोनो क्षेत्रों के सम्पन्न नेतावर्ग को अपने साथ रखना चाहता था. हिन्दी के इस वर्ग की जो राजनीतिक शक्ति इस बीच बढ़ गयी थी. उसका पलड़ा दूसरी भाषाओं के समानधर्मी वर्ग की राजनीतिक शक्ति के बराबर लाने के लिए बन्दर बाँट का रास्ता केन्द्रीय नेतृत्व ने अपनाया, हिन्दीवालों का घमण्ड चूर करने के लिए सरल और सर्वसुगम हिन्दी का डँडा श्री नेहरू जब तब चलाते रहे. इस दौर की एक छोटी सी घटना का उल्लेख यहाँ किया जा सकता है जो दिखाती है कि हिन्दी का नेता इस काण्ड में किस तरह शामिल था. जब नये रेडियोमंत्री गोपाल रेड्डी से हिन्दी वालों की अक्ल दुरुस्त करने को नेहरू ने कहा तो मंत्री के स्वागत में सेठ गोविनददास के घर पर प्रीतिगोष्ठी का आयोजन हुआ. उसमें सेठ जी ने हिन्दी विरोधी रेड्डी की खूब खबर ली. मंत्री इस सत्कार के लिए तैयार न थे. बहुत नाराज हुए. डा. नगेन्द्र ने उन्हें शान्त होने में सहायता दी. उन्होंने बड़े अबदकायदे से कुछ बहस भी चलायी, पर उन्होंने या किसी बड़े आदमी ने मंत्री से एक बार भी नहीं कहा कि आप अंग्रेज़ी से अनुवाद बंद करा दें और मौलिक हिन्दी में लिखाना शुरु करें तो भाषा सरल हो सकती है. आखिरकार नेताओं और मंत्री के बीच तयतोड़ अनुवाद की जाँच कराने पर हुआ, मौलिक लेखन पर नहीं. भाषा की आज़ादी की बात नहीं उठी, भाषा की गुलामी का फायदा नयी अनुवाद जाँच समिति के रूप में उठाया गया. बन्दर बाँट ने जो टुकड़ा भाषा में से काटा वह भाषा के इस्तेमाल का टुकड़ा था.

फ़िर 1963 में अंग्रेज़ी को सहभाषा के रूप में बनाये रखने का कानून पास होते ही, विकास का ढोंग खत्म हो कर, एक नया ढोंग, पूजा का ढोंग शुरु हुआ, जिसके बीज विकास के ढोंग में पहले से ही थे. अब द्वार पर नामपट पर हिन्दी में नाम लिखाना भी भगवान को दरदर भटकाने का पाप समझा जाने लगा और हिन्दी सम्बंधी छोटे बड़े सराकारी कार्यलय शुद्ध रूप से मन्दिर बन गये जिनमें पूजा पाठ की विधियों पर शास्त्रीय उपदेश करते हुए छोटे बड़े पुजारी आज जय हिन्दी, जय नागरी कर रहे हैं. हिन्दी के विकास के काम में कभी मजबूरन कुछ गतिशीलता का जो बन्धन था वह भी अब आत्महत्या, न्यस्त स्वार्थ की हत्या, माना जाने लगा है. भाषा को कमरे में बैठ कर गढ़ने का काम दिन प्रतिदिन कम होने वाला काम हो तभी वह गतिशील कहला सकता है, पर अब तो प्रश्न उसे अनन्त बनाने का रह गया है, क्योंकि संविधान में हिन्दी के प्रकरण से हिन्दी भाषी को यह जो सामाजिक प्रतिष्ठा उपलब्ध हुई है अब कम से कम इसे बचाये रखने का सवाल हिन्दी नेता के लिए हिन्दी के नाम पर सबसे महत्वपूर्ण सवाल है.

तो भी कुछ अपनी नेतागिरी जताने के लिए और कुछ सचमुच पदहानि के दुख से हिन्दी नेता जनता के सामने आ कर "हा हिन्दी का दुर्भाग्य" कह कर रोया था. साथ ही उसने कहना शुरु किया था कि दूसरी भारतीय भाषाओं की मदद के बिना हम अंग्रेजी को नहीं हटा सकते. सुनने में यह हृदय परिवर्तन जैसा लगता है पर है यह केवल वेश परिवर्तन. वह अभी भी "अंग्रेजी को हटा नहीं सकते" के बाद "और हिन्दी को नहीं स्थापित कर सकते" जोड़ देता है और अभी भी समझौता उस हिन्दीतर भाषी से करना चाहता है जो अपने क्षेत्र में अपनी भाषा का इस्तेमाल रोक कर उसके विकास के लिए मोहलत और पैसा माँग रहा है और कहता है कि अंग्रेज़ी तभी हटे जब मेरी भाषा भी हिन्दी जितनी रिश्वत खा ले.

यह सब केन्द्रीय नेतृत्व के हित में है. प्रदेशों में वास्तविक जनमत को भटकाने दबाने नहीं तो भटकाने का कितना सीधा नुस्खा है. अंग्रेज़ी और हिन्दी को एक ही कोटि की भाषाएँ बताते रहना और देशी भाषाओं का अंग्रेज़ी विरोध, हिन्दी विरोध की तरफ़ भटकाते रहना. इस सिलसिले की अब वह घड़ी आ गयी है जब पीछे को जाने वाले दो गलत रास्ते बहुत आकर्षक हो उठे हैं. एक यह है कि अंग्रेज़ी को - दो प्रतिशत भारतीयों की जानी भाषा को जिसमें वह किसी तरह लड़खड़ाते हुए ही चल सकते हैं - सत्ता की, सामाजिक प्रतिष्ठा की भाषा हमेशा के लिए बनाये रखा जाये, और इसकी सिद्धी के लिए जो ढोंग, पाखण्ड और चरित्रपतन ज़रूरी हो वह मातृभाषाओं में प्रोतसाहित किया जाये. दूसरा रास्ता है, प्रदेशों को करने दो जो करते हैं, अपनी मातृभाषाओं में पढ़ायें, लिखायें, सरकार चलायें, केन्द्र में हमें अंग्रेज़ी के साथ हिन्दी को ही लगाये रखने दो फ़िर चाहे प्रदेश में आपस में कितनी भी दूरी बढ़े. "सम्पर्क भाषा ही राष्ट्र एकता है, प्रदेशों की परस्पर दूरी कम करने की, सम्पर्क बढ़ाने की ज़रूरत नहीं क्योंकि उससे विदेशी सम्पर्क भाषा की ज़रूरत कम होती है.

परन्तु मेरे विचार में आगे जाने वाले रास्तों की संख्या दो से भी कम है, एक ही रास्ता है और वह भी ऊबड़ खाबड़ ज़मीन पर से हो कर जाता है. वह भाषा की पूजा तुरंत बंद करके उसके इस्तेमाल का रास्ता है. अंग्रेज़ी का इस्तेमाल करने को संविधान बाध्य नहीं करता, हिन्दी का इस्तेमाल करने की इज़ाज़त देता है. परन्तु सरकारी काम में भी हिन्दी नेता हिन्दी न खुद इस्तेमाल करते हैं न दूसरों को करने देते हैं, क्योंकि उनका तर्क है कि जो हिन्दी नहीं चाहते वे भी केन्द्र की प्रजा हैं और उनके लिए अंग्रेज़ी इस्तेमाल करनी पड़ेगी. इस तरह बिल्कुल स्पष्ट है कि संघ भारतीय भाषाओं को दबाये और 2 प्रतिशत अंग्रेज़ी को बनाये रखने के लिए ही यह किया जा रहा है. अब प्रश्न यह है कि यह सब देखते हुए जो अंग्रेज़ी हटाना चाहते हैं वे लोग क्या पहले आपस में लड़ कर यह बात तय करेंगे कि कौन सी भाषा अंग्रेज़ी की जगह ले तब अंग्रेज़ी जायेगी? अंग्रेज़ों को हटाने के पहले यह निणर्य करने की ज़रूरत बहुत से भारतीय बताते थे और वे वही थे जो अंग्रेज़ों के जाने से सबसे अधिक दुखी होने वाले थे. भारतीय एकता की जो परिकल्पना हमनें अंग्रेज़ी शासनकाल में की थी उसमें भाषा की स्वतंत्रता का मुख्य स्थान था, परन्तु भाषा के प्राधान्य की कल्पना नहीं थी. सब भाषाओं के बोलनेवालों को एक सूत्र में बाँधने के लिए गाँधी ने एक राजनीतिक कार्यक्रम को साधन बनाया था, हिन्दी नामक भाषा के तंत्र मंत्र को नहीं. बाकी उन्होंने कई प्रकार से बार बार कहा था कि मातृभाषा में शिक्षा देना ही स्वाधीन व्यक्ति बनाने का उपाय है और अगर यह काम आज शुरु कर दिया जाये तो पाठ्यपुस्तकें झक मार के बन जायेंगी. भाषावार राज्यों का सिद्धांत भी इसी भावना के अंतर्गत माना गया था. परंतु स्वतंत्रता के बाद भारतीय एकता के सभी प्रतिमान सत्ताधारी पार्टी की एकता के प्रतिमान के साथ जोड़ दिये गये और हम लोगों को कुछ समय के लिए ऐसा समझाया गया कि भाषावार राज्यों में बाँटना तो बहुत अच्छी चीज़ है क्योंकि उससे देश की विविधता को समृद्धि मिलती है और जन समुदाय भावाभिव्यक्ति पाते हैं, परन्तु यदि यह सब भाषाएँ एक जगह एकत्र हो जायें तो देश टूटने लगता है. दरअसल देश नहीं सत्ताधारी दल टूटने लगता है क्योंकि विचार और कर्म के एक होने की प्रक्रिया और तेजी से चलने लगती है.

प्रश्न यह था कि अंग्रेज़ी हटाने के लिए हम ठीक इसी समय क्या करेंगे? जो 1951 में नहीं किया गया, वह क्या था, हिन्दी को निर्णयपूर्वक रातोंरात राजभाषा बना देना या सब भाषाओं को साथ मिला कर प्रयोग करना कि देश अपने लिए रास्ता निकाले. तब सरकार को काम करना था. वह सरकार प्रयोग नहीं कर सकती थी, पर वह सरकार तो निर्णय भी नहीं ले सकी. जो राजनीतिक शक्तियाँ अब देश में उभर रहीं हैं तथा जो परिवर्तन की प्रक्रिया चल रही है उनके सन्दर्भ में अब क्या किया जाना चाहिये जिससे 28 वर्ष की गलतियाँ दूर हों सकें?

ऊबड़खाबड़ रास्ते पर चलने के लिए तैयार होना ही एक उपाय है. रास्ता बनाने की ज़िम्मेदारी जिन पर है उनको भारतीय एकता की एक कहीं अधिक जीवित और स्पंदित परिकल्पना करनी होगी. छत्र के नीचे एक भारत की कल्पना जिसमें न यह भय रहता है कि केन्द्र में सिर्फ़ अंग्रेज़ी या हिन्दी रहने से ही एकता सम्भव है, न यह भ्रम कि दोनो रहने से अंग्रेज़ी जायेगी. आज भाषा के अन्दर के उस खोखल को जो पुजारियों ने उसका ढोल बजाने के लिए किया था, अस्वीकार करने वाली शक्तियाँ उदित हो रहीं हैं. शब्द में सत्य की अवधारण करने के लिए भाषा ने कोई दीप नैवद्य नहीं बरता, उसने असत्य को तोड़ा और वहीं सत्य स्थापित हुआ. 14 भाषाओं के एकत्र इस्तेमाल से देश की एकता टूटेगी इस असत्य को हम तोड़ें तो वास्तविक एकता का सत्य स्थापित होता है. इस सत्य में कोई शास्त्रीयता नहीं है. जीवन की शक्तियों के परस्पर टकराव से एक या दो या तीन बहुमान्य रास्ते निकालना ही इस सत्य की खोज है. भाषाओं की आंतरिक एकता, शब्दों की समानता और संस्कृतियों की समान धर्मिता के बहुत गुणगान करने वाले अंग्रेज़ी समर्थकों को संविधान सम्मत भाषाओं के टकराव से घबराना नहीं चाहिये. यदि प्रत्येक प्रदेश में ऊपर से नीचे तक मातृभाषा और केन्द्र में सभी भाषाओं के इस्तेमाल की व्यवस्था तुरंत की जाये तभी पिछले वर्षों से स्वार्थी नेताओं के हाथों नष्ट हुई राष्ट्रीयता आज सही रास्ते पर चल कर अपनी भारतीयता खोज सकती है, अन्यथा वह अंग्रेज़ी की खिड़की खोल कर बाहर का विश्वदृश्य निहारती रहेगी और भीतर भाषायिक भुखमरी और "श्टारवेशन डेथ" में अर्थभेद करते रहेंगे और शब्दकोश की पूजा होती रहेगी. जो लोग भाषा को मथ कर, कूट कर उसमें से बरतने योग्य कुछ गढ़ते रहे हैं, वे लोग ही आज मातृभाषाओं के इस्तेमाल का मामला आगे बढ़ा सकते हैं. उनकी छटपटाती हुई लड़ाई का यह आखिरी दौर होगा.

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रविवार, नवंबर 07, 2010

गिरगिट

सुबह तौलिये से सिर पौँछ रहा था तो अचानक हाथ में कुछ लिजलिजा सा लगा. घबरा कर देखा तो छोटा सा हरे रंग कर गिरगिट नीचे गिरा. डरा हुआ था बेचारा. जाने कैसे हमारी तीसरी मंजि़ल तक पहुँच गया था. सोचा कि उसे उठा कर बाहर छोड़ा जाये. उसे पकड़ा तो पहले तो उसने भागने की कोशिश नहीं की, पर थोड़ी देर में ही बचने की कोशिश में कसमसाने लगा. मैने पत्नी से कहा कि उसे उँगली से पकड़ कर रखे तो जल्दी से उसकी एक तस्वीर खींची जाये.

Lizard, Italy

यहाँ के गिरगिट भारतीय गिरगिटों से भिन्न लगते हैं. इनसे मिलता जुलता एक छोटा सा जन्तु दिल्ली में भी दिखता था जिसे हम लोग साँप की नानी कहते थे, जो एक जगह रुकता नहीं था, बहुत तेज़ी से निकल जाता था. यहाँ के यह हरे चितकबरे से गिरगिट बाहर बाग में बहुत बार देखे थे पर उनकी तस्वीरे लेने का मौका पहले नहीं मिला था.

गिरगिट की बात से मन में बचपन की एक भूली बिसरी याद उभर आयी. शायद पाँच या छः साल का था, कमरे में चारपाई पर लेटा था कि छत से एक छिपकली मेरे पेट पर गिरी. मैं डर के मारे उठा और काँपता हुआ माँ से लिपट गया था. फ़िर याद आयी बचपन में स्कूल में खेले जाने वाले खेल लँगड़ी टाँग की जिसमें मैं एक टाँग से बहुत तेज़ी से भागता था और लोग मुझे छिपकली कहते थे. तब था भी बहुत दुबला पतला, हड्डियाँ बाहर निकली हुई, छिपकली जैसा.

तब लोगों का मुझे छिपकली कहना अच्छा नहीं लगता था. अब मोटापे को कम करने की चिंता लगी रहती है और लगता है कि अगर पहले जैसा पतला हो सकूँ तो कितना अच्छा हो!

बचपन में मेरा एक और सपना था, पालतू गिरगिट पालने का. एक दो बार गिरगिट को पकड़ कर उसे धागे से बाँध कर पालतू बनाने की कोशिश भी की थी, लेकिन उसे खिलाने के लिए मक्खियाँ या कीड़े पकड़ना बहुत कठिन लगता था. बेचारा मुझे काटने की कोशिश करता, लेकिन छोटे गिरगिट के दाँत इतने तेज़ नहीं होते थे कि ठीक से काट सके. एक दो बार की कोशिश में ही, कुछ घँटों में गिरगिट को पालतू बनाने का भूत सर से उतर गया. लेकिन तब से गिरगिट का डर मन से निकल सा गया.

खैर आज छोटे गिरगिट से मुलाकात की खुशी में विभिन्न देशों से खींची गिरगिटों की कुछ तस्वीरें प्रस्तुत हैं -

यह पहली तस्वीर कुछ दिन पहले की है, नाईजीरिया की राजधानी अबूजा में जहाँ के गिरगिट, का सिर तो मुझे गिरगिट जैसा लगता है, पर नीचे वाला हिस्सा भारतीय छिपकली जैसा.

Lizard, Abuja Nigeria

यह दूसरी तस्वीर, दिल्ली के महरौली पुरात्तव बाग से एक गिरगिट की है.

Lizard, Mehrauli, Delhi, India

तीसरी तस्वीर में ब्राज़ील के पोर्तो नेस्योनाल शहर में बड़े गिरगिट जैसे गोह की है.

Iguana, Porto Nacional, Brazil

यह आखिरी तस्वीर है इतली के एक चिड़ियाघर में रँग बदलने वाले गिरगिट की जो हरी दीवार पर बिल्कुल हरा हो गया है.

Chameleon, Italy

क्या आप को गिरगिट अच्छे लगते हैं? क्या कभी आप ने किसी पालतू गिरगिट को देखा है? आप को मौका मिले तो क्या आप पालतू गिरगिट रखना चाहेंगे?

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मंगलवार, नवंबर 02, 2010

हिंदी राष्ट्रवाद का इतिहास

हिन्दी पत्रिका हँस के अगस्त, सितंबर और अक्टूबर के अंकों में, तीन हिस्सों में "राष्ट्रवाद और हिन्दी समाज" के शीर्षक से प्रसन्न कुमार चौधरी का लम्बा आलेख छपा है जिसे इन दिनों बहुत रुची से पढ़ा. हिन्दी लेखन और विमर्श जगत की सीमाएँ अक्सर अपनी घरेलू बातों तक ही रुक जाती हैं, या बहुत अधिक हो तो, अंग्रेज़ी बोलने वाले विश्व की कुछ बात कर लेती हैं.

उन घरेलू बातों की भी सीमाएँ संकरी हैं, अधिकतर साहित्य, कविता तक के विषयों पर रुकी हुई, ऐसा कुछ विमर्श मौहल्ला लाईव पर हो रहा है जहाँ पर इन्हीं दिनों में अविनाश ने "भारतीयता" पर ओम थानवी, पवन कुमार वर्मा आदि की बहस के बारे में लिखा, फ़िर उस पर विजय शर्मा का एक आलेख भी निकला.

प्रसन्न चौधरी का आलेख सभ्यता, संस्कृति, भाषा के विषयों पर विहंगम दृष्टि है जिसमें सारे विश्व के विभिन्न क्षेत्रों तथा ऐतिहासिक युगों के अनेक उदाहरण हैं. यह आलेख उन्होंने सुधीर रंजन सिंह की पुस्तक "हिंदी समुदाय और राष्ट्रवाद" की आलोचना के रूप में लिखना शुरु किया था, लेकिन पुस्तक की आलोचना आलेख का छोटा सा हिस्सा है.

वह लेख का प्रारम्भ राष्ट्र, राष्ट्र राज्य और राष्ट्रवाद के आधुनिक यूरोप के देशों के बनने से जुड़े अर्थों के विवेचन से करते हैं, कैसे राष्ट्रवाद के सिद्धांतों को विख्यातित किया गया, इन सिद्धांतों की क्या आलोचनाएँ हुईं, आदि. इस हिस्से में उनका विमर्श कि किस तरह यूरोप ने अपने नागरिकों के लिए सदियों से चले आ रहे शोषण को बदल कर नये आधुनिक समतावादी समाज की संरचना की और साथ ही, उपनिवेशवाद द्वारा, अपने देशों की सीमाओं के बाहर शोषण के नये रास्ते खोले, बहुत अच्छी तरह से किया गया है. इस विमर्श में वह पूर्व में रूस से ले कर पश्चिमी यूरोप तक की बात करते हैं, और साथ साथ, भारत तथा अन्य उपनिवेशित देशों में होने वाले विमर्श की परम्परा का ज़िक्र भी.

आलेख के दूसरे हिस्से में बात है भारत में प्रभाव डालने वाली पश्चिमी विचार परम्परा की और दूसरी ओर, भारत के अपने इतिहास, धर्म और दर्शन से जुड़ी सोच की, और किस तरह से यह दो दृष्टियाँ कभी एक दूसरे से मिलती हैं, और कभी एक दूसरे से अलग हो कर प्रतिद्वंदी बन जाती हैं. इस दूसरी दृष्टि को वह भारत से बाहर के भी विचारकों में खोजते हैं. आलेख का तीसरा भाग, हिंदी समुदाय और आधुनिक हिंदी साहित्य के इतिहास से ले कर, हिंदी समुदाय के राष्ट्रवाद का विश्लेषण करता है.

आलेख का पूरा अर्थ समझने के लिए उसे दो बार पढ़ा. उनकी हर बात से सहमत होना संभव नहीं, लेकिन यह मानना पड़ेगा कि उन्होंने अपनी बात को उसके ऐतिहासिक संदर्भ से ले कर, आज तक के विकास तक, बहुत खूबी से व्यक्त किया है. लेख पढ़ते हुए कई बार मन में आया कि काश वह यहीं कहीं आसपास रहते तो उनके साथ बहस करने में कितना आनंद आता!

हँस को इस लम्बे आलेख को पूरा छापने की लिए धन्यवाद.

सोमवार, नवंबर 01, 2010

शाह रुख और महाश्वेता देवी

रोम फ़िल्म फेस्टीवल में कल रात को एक ओर थे कर्ण जौहर और शाहरुख खान, "माई नेम इज़ खान" के साथ. दूसरी ओर थी महाश्वेता देवी जिनकी कहानी पर इतालवी निर्देशक इतालो स्वीनेल्ली (Italo Spinelli) ने फ़िल्म बनायी है, "गँगोर" (Gangor).

शाहरुख रोम आने वाले हैं इसका हल्ला तो इटली के बोलीवुड प्रेमियों में कई हफ्तों से चल रहा था. पहले यही बहस थी कि आयेंगे या नहीं? रोम में बोलीवुड के नृत्य करने वाली लड़कियों से जब पूछा गया कि क्या वह शाहरुख की फ़िल्म से पहले वहाँ रेड कार्पट पर नृत्य करेंगी तो उनके हर्ष की सीमा नहीं थी. उनमें से एक युवती कुछ महीने पहले जब मुंबई में जोन एब्राहम से मिल कर आयी थी, तो फेसबुक पर कई महीनों तक उस एक मिलन की गाथा के किस्से सुने थे. अब जिन युवतियों को शाहरुख के सामने नृत्य दिखाने का मौका मिलेगा, तो उसके किस्से तो अगले बारह महीने तक सुनने को मिलेंगे!



खैर आज सुबह के अखबारों में "माई नेम इज़ खान" की आलोचना ठीक ठाक ही है. सबसे अधिक बिकने वाले अखबार "कोरिएरे देल्ला सेरा" (Corriere della Sera) ने शाहरुख को भारत का टाम क्रूज़ कहा है.

स्पीनेल्ली की फ़िल्म "गँगोर" की आलोचना अधिक दिलचस्प है. फ़िल्म की मुख्य अभिनेत्री प्रियँका बोस की बहुत प्रशँसा की गयी है. फ़िल्म की कहानी है, बच्चे को दूध पिलाती युवती गँगोर की, जिसके नँगे वक्ष की तस्वीर पर हल्ला मच जाता है और पुलिस अत्याचार जिसे शरीर बेचने वाली बना देता है.

"माई नेम इज़ खान" इतालवी सिनेमा हालों में 26 नवम्बर को प्रदर्शित होगी, गँगोर को सिनेमा में निकलने का मौका मिलेगा या नहीं, यह नहीं पता.

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