पिछले तीन-चार सौ वर्षों को "लिखाई की दुनिया" कहा जा सकता है, क्योंकि इस समय में मानव इतिहास में पहली बार लिखने-पढ़ने की क्षमता का आम जनता में प्रसार हुआ। धीरे-धीरे इस युग में आम जीवन के बहुत से कामों के लिए लिखना-पढ़ना जानना आवश्यक होने लगा। डाक से चिट्ठी भेजनी हो, बस से यात्रा करनी हो, या बैंक में एकाउँट खोलना हो, बिना लिखना-पढ़ना जाने, जीवन कठिन हो गया, आप को अन्य लोगों की सहायता लेनी पड़ती। बहुत से लोगों का सोचना है कि मानवीय सोच और उसके साथ जुड़े वैज्ञानिक तथा तकनीकी विकास में, हमारी इसी लिखने-पढ़ने की क्षमता की वजह से, अभूतपूर्व वृद्धि हुई।
लेकिन मानवता का भविष्य कैसा होगा और क्या आने वाले समय में लिखने-पढ़ने का यही महत्व रहेगा? इसके बारे में भविष्यदर्शी वैज्ञानिकों की बहस प्रारम्भ हो चुकी है। भविष्य में क्या होगा, यह जानने की उत्सुकता हमेशा से ही मानव प्रवृति का हिस्सा रही है। जो कोई भविष्य को ठीक से पहचानेगा, वह उसकी सही तैयारी भी कर सकेगा और उसे भविष्य में समद्धि तथा ताकत प्राप्त करने का मौका अधिक मिलेगा। कुछ भविष्यदर्शियों का सोचना है कि मानवता का भविष्य लिखने-पढ़ने से नहीं, तस्वीरों और वीडियो से जुड़ा होगा।
आदिमानव और लिपि का विकास
मानव जाति का प्रारम्भिक विकास, श्रवण शक्ति और उससे भी अधिक, दृष्टि की शक्ति यानि आँखों से दुनिया देखने की शक्ति से ही हुआ था। प्राचीन मानव के द्वारा बनाये गये सबसे पहले निशान, गुफ़ाओं में बने जीव जन्तुओं तथा मानव आकृतियों के चित्र हैं। आदि-मानव सामाजिक जन्तु था, गुटों में रहता था और जीव-जन्तुओं के शिकार के लिए, भोजन की तलाश के लिए, और खतरों से बचने के लिए, इशारों और वाक-शक्ति का प्रयोग करता था जिनसे मानव भाषा का विकास हुआ। गले के ऊपरी भाग में बने वाक्-अंग (लेरिन्कस - Larynx) के विकास से हम आदि-मानव की वाचन-शक्ति के विकास के क्रम को समझ सकते हैं। कुछ लोग कहते हैं कि निआन्डरथाल मानव, जो कि करीब दो लाख वर्ष पहले धरती पर आया था, हमारी तरह बोल सकता था। अन्य लोग कहते हैं कि नहीं, आदि-मानव में आज के जैसी वाचन-शक्ति करीब तीस से चालिस हज़ार वर्ष पहले ही आयी, जिसके बाद भाषाओं का विकास हुआ। (नीचे तस्वीर में आदि-मानव की कला, दक्षिण अफ्रीका के मोज़ाम्बीक देश से)
भाषा विकसित होने के, कितने समय बाद लिखाई का आविष्कार हुआ, यह ठीक से जानना कठिन है क्योंकि प्राचीन लकड़ी या पत्तों पर लिखे आदि-मानव के पहले शब्द समय के साथ नष्ट हो गये, हमारे समय तक नहीं बच सके। मानव की यह पहली लिखाई तस्वीरों से प्रभावित थी, चित्रों से ही शब्दों के रूप बने, जैसा कि मिस्र के पिरामिडों में मिले तीन-चार हज़ार वर्ष पुराने ताबूतों तथा कब्रों से दिखता है। समय के साथ, मिस्र में चित्रों से शब्द दिखाने के साथ चित्रों की वर्णमाला का भी आविष्कार हुआ।
पुरातत्व विषेशज्ञों का कहना है कि मानव की पहली वर्णमाला पर आधारित लिखाई एतिहासिक युग के प्रारम्भ में प्राचीन बेबीलोन में हुई जहाँ आज ईराक है। इस पहली लिखाई में व्यापारियों की मुहरें थीं जिन पर तिकोनाकार निशान बनाये जाते थे, लेकिन समय के साथ यह विकसित हुई और इस तिकोनाकार लिखाई (cuneiform writing) की बनी पक्की मिट्टी की पट्टियों में उस समय के पूरे इतिहास मिलते हैं।
तीन हज़ार साल पहले की हड़प्पा की मुहरों का भी व्यापार के लिए उपयोग होता था, यह कुछ लोग कहते हैं और इसकी लिखाई में चित्र-शब्द जैसे निशान ही थे, जिनको आज तक ठीक से नहीं समझा जा सका है। (नीचे तस्वीर में मिस्र की चित्रों की भाषा)
प्राचीन समय में किताबों को छापने की सुविधा नहीं थी। हर किताब को हाथों से लिखा जाता और फ़िर हाथों से नकल करके जो कुछ प्रतियाँ बनती उनकी कीमत इतनी अधिक होती थी कि सामान्य नागरिक उन्हें नहीं खरीद सकते थे। इसलिए लिखना-पढ़ना जानने वाले लोग बहुत कम होते थे। (नीचे तस्वीर में तैहरवीं शताब्दी की हाथ की लिखी लेटिन भाषा की किताब)
छपाई की क्रांति और साक्षरता
हालाँकि वर्णमाला को जोड़ कर, शब्द बना कर, उनकी छपाई का काम चीन में पहले प्रारम्भ हुआ लेकिन चीनी भाषा में वर्णमाला से नहीं, चित्रों से बने शब्दों में लिखते हैं, जिससे चीन में इस छपाई का विकास उतना आसान नहीं था। चीन से प्रेरणा ले कर, सन् १४५० में यूरोप में भी वर्णमाला को जोड़ कर किताबों की छपाई का काम शुरु हुआ जिससे यूरोप में किताबों की कीमत कम होने लगी और यूरोप में समृद्ध परिवारों ने अपने बच्चों को लिखना-पढ़ाना शुरु कर दिया। कहते हैं कि इसी लिखने पढ़ने से ही यूरोपीय विचार शक्ति बढ़ी। दुनिया कैसे बनी हैं, क्यों बनी है, पेड़ पौधै कैसे होते हैं, मानव शरीर कैसा होता है जैसी बातों पर मनन होने लगा जिससे विभिन्न विषयों का विकास हुआ, वैज्ञानिक खोजें हुई और समय के साथ उद्योगिक क्रांती आयी।
भारत में लिखने-पढ़ने का काम ब्राह्मणों के हाथ में था, लेकिन उसका अधिक उपयोग प्राचीन ग्रंथों की, उनमें बिना कोई बदलाव किये हुए, उनकी नकल करके हस्तलिखित ग्रंथ या धार्मिक विषयों पर लिखने-पढ़ने से था, हालाँकि प्राचीन भारत में अंतरिक्ष के नक्षत्रों, गणित, चिकित्सा विज्ञान जैसे विषयों पर बहुत सा काम हुआ था। ब्राह्मणों ने प्राचीन ज्ञान को सम्भाल कर रखा लेकिन छपाई का ज्ञान न होने से, किताबें नहीं थीं और लिखना-पढ़ना सीमित रहा।
दूसरी ओर, यूरोप के उद्योगिक विकास के साथ, यूरोपीय साम्राज्यवाद का दौर आया, अफ्रीका से लोगों को गुलाम बना कर उनका व्यापार शुरु हुआ। इसी साम्राज्यवाद और गुलामों के व्यापार के साथ, छपाई तकनीकी फैली और पढ़ने-लिखने की क्षमता धीरे धीरे पूरे विश्व में फ़ैलने लगी। करीब पचास-साठ साल पहले, दुनिया में साम्राज्यवाद के अंत के साथ, पढ़ने-लिखने का विकास और भी तेज हो गया, हालाँकि पुराने गुलाम देशों ने अक्सर अपनी भाषाओं को नीचा माना और यूरोप के साम्राज्यवादी देशों की भाषाओं को अधिक महत्व दिया, जिससे उनकी अपनी सोच, सभ्यता और संस्कृति को भुला सा दिया गया।
समय के साथ, बच्चों को विद्यालय में पढ़ने भेजना, यह अमीर-गरीब, हर स्तरों के लोगों में होने लगा, हालाँकि बिल्कुल पूरी तरह से सारे नागरिकों में लिखने-पढ़ने की क्षमता हो, यह विकासशील देशों में अभी तक संभव नहीं हो पाया है। मसलन, १९४७ में जब भारत स्वतंत्र हुआ तो देश की केवल १२ प्रतिशत जनता साक्षर थी, जब कि २०११ के आँकणो के अनुसार करीब ७५ प्रतिशत जनता साक्षर है। लेकिन स्त्रियों के साक्षरता, पुरुषों से अभी भी कम है। दूसरी ओर, लंदन में आज से पांच सौ साल पहले, सन् १५२३ में ३३ छपाई प्रेस थीं, और सोलहवीं शताब्दी में लन्दन में अस्सी प्रतिशत जनता साक्षर हो चुकी थी (हालाँकि उस समय ईंग्लैंड के गाँवों में साक्षरता करीब ३० प्रतिशत ही थी)। अठाहरवीं शताब्दी के आते आते, पूरे पश्चिमी यूरोप में अधिकाँश लोग साक्षर हो चुके थे। सामाजिक शोधकर्ता कहते हैं कि इसी साक्षरता से यूरोप का उद्योगिक तथा आर्थिक विकास हुआ, जिससे यूरोप के देशों ने सारी दुनिया के विभिन्न हिस्सों में अपने शासन बनाये। इस तरह से भारत जैसे विकासशील देशों के सामाजिक तथा आर्थिक पिछड़ेपन का एक कारण, पढ़ने-लिखने की क्षमता की कमी को माना गया है (हमारी विश्वविद्यालय स्तर पर तकनीकी पढ़ाई अधिकतर केवल अंग्रेज़ी में होती है, इससे भी हमारे गांवों के युवाओं को समझने में कठिनाई होती है और उनका मानसिक विकास सही तरीके से नहीं हो पाता, इसकी वजह से भी पिछड़ापन रहा है)।
कम्पयूटर युग और तस्वीरों की दुनिया
आज दुनिया मोबाईल फोन, कम्प्यूटरों तथा इंटरनेट की है। कुछ दिन पहले अमरीकी पत्रिका एटलाँटिक में मेगन गार्बर का एक आलेख पढ़ा जिसमें वह लिखती हैं कि इतिहास में पहली बार तस्वीरें हर व्यक्ति को, हर जगह पर आसानी से मिलने लगी हैं। इतिहास में अभी पिछले दशक तक, अच्छी तस्वीर मिलना बहुत कठिन था और उसकी कीमत बहुत लगती थी। आज यह तस्वीरें मुफ्त की मिल सकती हैं और एक खोजो तो पचास मिलती हैं। बढ़िया कैमरे, मोबाईल कैमरे, जितने सस्ते आज है, पहले कभी इतने सस्ते नहीं थे। हर किसी के मोबाइल टेलीफ़ोन में कैमरा है, लोग जहाँ जाते हैं तस्वीरें खीचते हैं, वीडियो बनाते हैं, उन्हें परिवार, मित्रों में दिखाते हैं, फेसबुक, यूट्यूब आदि से इंटरनेट पर चढ़ा देते हैं जिन्हें आप दुनिया में कहीं भी देख सकते हैं।
इस तरह से इंटरनेट अब शब्दों के बजाय तस्वीरों तथा वीडियो का इंटरनेट बन रहा है। विकीपीडिया कहता है कि २०१० में हर दिन ६० अरब तस्वीरें दुनिया में इंटरनेट पर चढ़ायी जाती हैं। अकेले फेसबुक पर हर दिन २० करोड़ तस्वीरें अपलोड होती हैं, जबकि यूट्यूब पर हर मिनट में दुनिया के लोग ६० घँटे का वीडियो अपलोड करते हैं। आज, २०१२ में, अगर हम चाहें भी तो भी यूट्यूब में चढ़ाये गये केवल एक दिन के वीडियो को नहीं देख पायेंगे, उन्हें देखने के लिए हमारा जीवन छोटा पड़ने लगा है, अगले वर्षों में यह स्थिति और बढ़ेगी। मेगन पूछती हैं कि इसका मानव मस्तिष्क पर और मानव सभ्यता पर क्या असर पड़ेगा? क्या एक दिन हमारे जीवन में केवल तस्वीरें तथा वीडियो ही सब काम करेंगी, और लिखे हुए शब्दों की कोई आवश्यकता नहीं रहेगी?
दुनिया कैसे बदल रही है, यह समझने के लिए बीस साल पहले की और आज की अपनी अलमारियों के बारे में सोचिये। आज न आडियो-कैसेट की आवश्यकता है, न सीडी की, न डीवीडी की, न किताबों की। पहले जितनी फ़िल्मों को घर में सम्भालने के लिए आप अलमारियाँ रखते थे, उससे कई गुना फ़िल्में, संगीत और किताबें आप जेब में पैन ड्राइव में ले कर घूम सकते हैं। शायद भविष्य में सालिड-होलोग्राम जैसी किसी तकनीक से बटन दबाने से हवा में बिस्तर, सोफ़ा, कुर्सी, घर, बनेंगे, जिन पर आप बैठ कर आराम करेंगे और जब बाहर जाने का समय आयेगा तो उसे बटन से आफ़ करके गुम कर देंगे, और बटन को अपनी जेब में रख लेंगे। यह बात आप को खाली दिमाग की कल्पना लग सकती है, लेकिन दस साल पहले भी कोई आप से कहता कि वीडियो कैसेट फ़ैंको, कल से एक इंच के पैन के ढक्कन जितनी वस्तु में पचास फ़िल्में रख सकोगे, तो आप उसे भी खाली दिमाग की कल्पना कहते!
इन तकनीकों की बदलने की गति के सामने मानव ही मशीनों से पीछे रह गया लगता है। कुछ ब्लाग देखूँ तो हँसी आती है कि लोग अपनी तस्वीरों पर अपना नाम कोने में नहीं लिखते, बल्कि नाम को बड़ा बड़ा कर के तस्वीर के बीच में लिखते हैं, इस डर से कि कोई उन्हें चुरा न ले। देखो तो लगता है कि मानो किसी अनपढ़ माँ ने बुरी नज़र से बचाने के लिए बच्चे के चेहरे पर काला टीका लगाने के बदले सारा मुँह ही काला कर दिया हो। एक ब्लाग पर देखा कि महाश्य ने अपने वृद्ध माता पिता और बहन की तस्वीर पर भी ऊपर से इसी तरह अपना नाम चेप दिया था मानो कोई उनके माता पिता की तस्वीर को चुरा कर, उन्हें अपने माता पिता न बना ले। वैसे भी अक्सर इन तस्वीरों के स्तर विषेश बढ़िया नहीं होते, पर आप किसी भी विषय पर तस्वीर गूगल पर खोज कर देखिये, ऐसा कोई विषय नहीं जिससे आप को चुनने के लिए इंटरनेट से आप को बीस-पचास बढ़िया तस्वीरें न मिलें, तो चोरी की इतनी चिन्ता क्यों? आज जिस कृत्रिम बुद्धी का विकास हो रहा है उससे भविष्य में आप कोई भी तस्वीर, किसी का भी वीडियो बना पायेंगे, उन्हें लोग अपनी मनचाही भाषा में देखेंगे, इस तकनीकी विकास से कोइ नहीं बचेगा और पुलिस के पास समस्या होगी कि सच और झूठ में कैसे भेद समझा जाये?
अंत में
मुझे कई लोग कहते हें कि वाह कितनी बढ़िया तस्वीरें हैं आप की, हमें भी कुछ गुर सिखाईये। लेकिन मेरे मन में अपनी तस्वीरों के बढ़िया होने का कोई भ्रम नहीं। इंटरनेट पर खोजूँ तो अपने से बढ़ कर कई हज़ार बढ़िया फोटोग्राफर मिल जायेंगे। पर एक तस्वीर में मैं क्या देखता हूँ, क्या अनुभूति है मेरी, क्या सोच है, वह सिर्फ मेरी है, उसे कोई अन्य मेरी तरह से नहीं देख सकता, और न ही चुरा सकता है।
मैं सोचता हूँ कि आज के युग में होना हमारा सौभाग्य है, क्योंकि अपने भीतर के कलाकार को व्यक्त करना आज जितना आसान है, इतिहास में पहले कभी नहीं था। कौन मुझसे बढ़िया और कौन घटिया, किसको कितने लोग पढ़ते हैं, किसने मेरा क्या चुराया, इन सब बातों को सोचना भी मुझे समय व्यर्थ करना लगता है।
मैं सोचता हूँ कि अगर आने वाला युग तस्वीरों और वीडियो का युग होगा तो शायद इस नये युग में भारत जैसे विकासशील देशों में नये आविष्कार होगें। हमारे गरीब नागरिकों का लिखने-पढ़ने वाला दिमाग नहीं विकसित हुआ या कम विकसित हुआ, तो कोई बात नहीं, हममें जीवन को समझने की दृष्टि, विपरीत बातों को समन्वय करने की शक्ति और यादाश्त के गुण तो हैं जो इस नये युग, जिसमें तस्वीरें, वीडियो, कृत्रिम बुद्धि जैसी तकनीकें हैं, यही हमारी प्रगति का आधार बनेगें।
अगर आने वाला युग तस्वीरों, वीडियो और कृत्रिम बुद्धि का युग होगा तो समाज में अन्य कौन से बदलाव आयेंगे, यह मैं नहीं जानता, पर शायद भारत जैसे देश उस बदलाव में कम पिछड़ेंगे। आप का क्या विचार है इस बारे में?
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