बुधवार, अगस्त 09, 2006

अंतरजाल पर वीडियो

हमारी हाऊसिंग कोलोनी में कई साल से बहस चल रही है कि छत पर तश्तरी वाला एंटेना लगाया जाये या नहीं. फैसला तो यही हुआ था कि हर घर अपनी तश्तरी अलग से न लगाये क्योंकि देखने में अच्छी नहीं लगती, बल्कि छत पर एक बड़ी तश्तरी सभी घरों के लिए लगे, पर चूँकि उसकी बहस ही पिछले दो सालों से खत्म नहीं हो रही, कुछ इक्का दुक्का लोगों ने अपनी बालकनी पर छोटी तश्तरियाँ लगवा ली हैं और कहते हैं कि जब बड़ी तश्तरी लगेगी, वे अपनी छोटी तश्तरियाँ उतरवा देंगे.

यहाँ केबल से टीवी चैनल दिखाने का प्रचलन नहीं है क्योंकि अधिकतर लोग केवल इतालवी भाषा बोलते हैं और घर के टेलीविज़न पर साधारण एंटेना से दस पंद्रह चैनल इतालवी में आती हैं जो अधिकतर लोगों के लिए बहुत हैं. तश्तरी का एंटेना सिर्फ वह लोग चाहते हैं जो फुटबाल के मैच देखना चाहते हैं क्योकि अच्छे वाले मैच साधारण टीवी चैनल पर नहीं प्रसारित होते, या फ़िर प्रवासी जो अन्य भाषाओं में प्रोग्राम देखना चाहते हैं.

क्योंकि इटली में भारतीय बहुत कम हैं इसलिए यहाँ भारतीय चैनल देखना उतना आसान नहीं. अगर आप के पास अपनी तश्तरी वाला एंटेना है तो सोनी या ज़ी में से एक चुन कर उसके लिए डिकोडर खरीद कर उनके कार्ड खरीद सकते हैं, और एक साल के कार्ड की कीमत है 200 यूरो. सुना है कि अगर आप के पास 1.80 मीटर वाला तश्तरी का एंटेना हो तो मध्य‍पूर्व में प्रसारित होने वाली सभी भारतीय चैनलों को एक कार्ड से देख सकते हैं जिसकी वार्षिक कीमत है 500 यूरो.

अपने यहाँ तश्तरी न होने की वजह से जो भी भारतीय टेलीविज़न हो वह फिलहाल तो केवल अंतरजाल से ही देखा जा सकता है. आजकल हमारा तीव्रगति वाला अंतरजाल का कनेक्शन 20 मेगाबाईट का है जिससे अंतरजाल पर आनेवाले टीवी बहुत अच्छे आते हैं, लगता है डीवीडी देख रहे हों. दिक्कत केवल यह थी कि अंतरजाल पर वीडियो प्रसारित करने में भारत कुछ पीछे है. दूरदर्शन का अंतरजाल पृष्ठ केवल समाचार देखने की सुविधा देता है, पर उसकी बैंडवेव इतनी संकरी है कि अधिकतर समय उससे जुड़ नहीं पाते, किस्मत से जुड़ भी जाईये तो छोटी सी ४५ केबीएस का प्रसारण है जिसकी छोटी सी तस्वीर, कभी आती है कभी नहीं.

सरकारी टेलीविज़न का तो बुरा हाल है पर कुछ दिनों से आबीएन-सीएनएन के समाचार प्रसारित होने लगे हैं जिन्हें देखना अपेक्षाकृत आसान है और प्रसारण भी बहुत बेहतर है. यह सच है कि अंतरजाल पर प्रसारित होने वाली चीन और ब्राज़ील की सत्तर अस्सी चेनल के सामने यह कुछ कम है पर कम से कम शुरुआत तो है.

वीडियो को तो छोड़िये, भारत आउडियो में भी बहुत पीछे है. इटली, ब्रिटेन जैसे देशों में आज करीब करीब हर रेडियो अंतरजाल पर भी आता है, चीन और ब्राज़ील जैसे देश भी इस बात में आज यूरोप या अमरीका से पीछे नहीं. पर भारतीय रेडियो सुनने हों तो केवल लंदन, दुबाई या अमरीका से प्रसारित होने वाले भारतीय रेडियो सुन सकते हैं. भारत का राष्ट्रीय रेडियो पिछले चार पाँच सालों से लाईव प्रसारण नहीं कर रहा, बटन दबाईये तो संदेश मिलता है कि अभी यह सुविधा उपलब्ध नहीं है.

ऐसे में मुम्बई का हिंदी सिनेमा जगत कुछ आशा दे रहा है. स्मेशहिट्स, वाहइंडिया, सिफ़ी मेक्स, बीडब्बलयू सिनेमा, इरोस इंटरनेशनल जैसे अंतरजाल पृष्ठ आप को मुफ्त में या फ़िर, केवल दो या तीन डालर में वीडियोक्लिप या पूरी फ़िल्म देखने की सुविधा देते हैं. शायद एक दिन ऐसा भी आयेगा जब भारत में मिलनेवाले सारे चैनल अंतरजाल से कोई कहीं भी ले पायेगा, तब न तश्तरी लगवाने की चिंता करनी होगी, न डिकोडर और कार्ड बनवाने की.

मंगलवार, अगस्त 08, 2006

एडस के चेहरे

अमरीका में जाह्न होपकिनस में एक कोर्स करने गया था, सन 1989 में. वह पहला मौका था कि एडस के रोगियों को करीब से देखने का मौका मिला था. तब तक पश्चिमी संसार में एडस के बारे में बहुत शोर हो रहा था. तब इस रोग का संक्रमण अधिकतर समलैंगिक यौन सम्बंधों के साथ जुड़ा था. उस समय यह तो समझता था कि समलैंगिक सम्बंध क्या होते हैं पर "समलैंगिक सभ्यता" क्या होती है यह पहली बार करीब से देखने का मौका मिला.

कोर्स के दौरान कुछ समलैंगिक युगलों से मिल कर बात करने का मौका मिला जिनमें से एक को एडस का रोग था. इन मुलाकातों ने मन में बने समलैंगिक रिश्तों के बारे में बैठे विश्वासों को हिला दिया था. सोचता था कि समलैंगिक सम्बंध रखने वाले युवक किसी के साथ प्रेम नहीं, बल्कि जितने अधिक शारीरिक सम्बंध हो सकते हैं सिर्फ वही खोजते हैं.

उस समय इस रोग के फ़ैलने के बारे में जानकारी बहुत अधिक नहीं थी, और बाहर से छुपाने की कोशिश करने के बावजूद, मन में किसी रोगी के करीब जाने या छूने में बहुत डर लगता था. रोगियों के प्रति कैसे अमानवीय व्यवहार हो रहे हैं, इसकी बात उठती तो मन में अपने डर के प्रति क्षोभ उठता पर फ़िर भी डर पर पूरा काबू नहीं कर पाता. ऐसे में जो रोगी नहीं थे उनका अपने रोगी साथियों के प्रति प्रेम देख कर विश्वास नहीं होता था कि उन्हें इस तरह रोगी के साथ रहने में डर नहीं लगता?

तब से विभिन्न देशों में एडस के रोगियों को करीब से देखने का मौका मिला है. आज एडस के बारे में सोचूँ तो मन में समलैंगिक शब्द नहीं आता, बल्कि अफ्रीका के गाँव आते हैं जहाँ नवजवान पीढ़ी की फसल को इस रोग ने काट दिया है और पूरे गाँव में केवल बूढ़े और बच्चे दिखते हैं जिनमें खेतों में काम करने की शक्ति नहीं है. कितने ही मित्र जो अफ्रीका में डाक्टर और नर्स थे, पिछले सालों इस रोग की वजह से खो चुके हैं. कुछ को आज यह बीमारी है और सबको एआरवी दवाईयाँ नहीं मिल पाती.

पर आज इस बीमारी का विश्व प्रतिमान भारत को मिल गया है, जहाँ दुनिया के सबसे अधिक रोगी हैं. निरंतर के माध्यम से मुझे इस स्थिति पर लिखने का मौका मिला है. नया निरंतर कल 7 अगस्त से अंतरजाल पर एक साल के अंतराल के बाद नया रुप ले कर फ़िर से आया है, उसे पढ़ना न भूलियेगा.
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आषीश, तुम्हारी टिप्पणी के लिए धन्यवाद. तुमने ठीक ही कहा है कि शब्द तो हैं, बात कहने का साहस चाहिए. पर मैंने सोचा कि जब यौन विषयों पर ऐसी बात लिखूँ जो केवल व्यस्कों के लिए हो, तो उसे चिट्ठे में लिखना ठीक नहीं होगा. इसलिए ब्राज़ील के यौन व्यवहार के सर्वेक्षण के बारे में जो लिखा है, उसे आप कल्पना पर पढ़ सकते हैं, वह "जो न कह सके" में नहीं कहा जायेगा.

सोमवार, अगस्त 07, 2006

हिंदी फिल्मों में मानसिक रोग (2)

अब बात करें 15 पार्क एवेन्यू की.

"15 पार्क एवेन्यू" देखने की बहुत दिनों से इच्छा थी. अपर्णा सेन ने "परोमा" और "36 चौरँगी लेन" जैसी फ़िल्में बनायी हैं इसलिए उनकी फिल्मों से भावपूर्ण कथानक और सुरुचि की आशा स्वस्त ही बन जाती है. फ़िर अगर फ़िल्म में वहीदा रहमान, शबाना आज़मी, कोंकणा सेन शर्मा, शेफाली शाह, सोमित्र चैटर्जी, ध्रृतिमान चैटर्जी, राहुल बोस जैसे सुप्रसिद्ध अभिनेता हों तो न भूल पाने वाली फ़िल्म देखने की आशा और भी बढ़ जाती है.

पर जब आशाएँ इतनी ऊँचीं उठी हों तो उनका पूरा होना भी उतना ही कठिन हो जाता है, और शायद इसीलिए फिल्म देख कर अच्छा तो लगा पर यह नहीं लगा कि "वाह क्या बढ़िया फिल्म थी".




कथा साराँशः 15 पार्क एवेन्यू कहानी है श्रीमति गुप्ता (वहीदा रहमान) की और उनकी दो बेटियों, अँजली (शबाना आज़मी) और मिताली यानि मिट्ठू (कोंकणा सेन) की. मिट्ठू मानसिक रोगी हैं, उन्हें स्कित्जोफ्रेनिया है और वह अपनी कल्पना के घर को खोजना चाहती हैं जो 15 पार्क एवेन्यू पर है जहाँ उनके अनुसार उनके पति और बच्चे उनकी राह देख रहे हैं. अँजली तलाकशुदा हैं और विश्वविद्यालय में पढ़ाती हैं और उनके सम्बंध अपने साथ पढ़ाने वाले एक अन्य शिक्षक (कँवलजीत) से हैं. अँजली के मन में एक तरफ घर में प्रतिदिन का मानसिक रोगी के साथ रहने का तनाव है, दूसरी तरफ अपनी छोटी बहन के लिए प्यार भी है, और किसी की देखभाल में अपना जीवन पूरा न पाने का क्रोध भी है.

इस रोजमर्रा के एक तरह चलते जीवन में नयी घटना घटती है जब एक दिन अँजली के कालेज जाने के बाद घर में एक झाड़फूँक करने वाले बाबा जी को बुलाया जाता है. बाबा जी मिट्ठू में घुसी "चुड़ेल" को भगाने के लिए उसे झाड़ू से खूब मारते हैं और कहते हैं अब वह ठीक हो जायेगी. शाम को जब अँजली घर वापस लौटती है तो मिट्ठू अन्य बातों के साथ उसे बताना चाहती है कि दिन में उसे खूब मारा गया पर अँजली अपने जीवन की बातों और काम में व्यस्त है और मिट्ठू की बातें सुन कर भी नहीं सुनती, उसे लगता है कि हर बार की तरह मिट्ठू बिना सिर पैर की काल्पनिक बाते कर रही है.

उसी दिन रात को मिट्ठू कलाई काट लेती है. अँजली अपराध बोध से घिर जाती है, उसने अपनी बातों में खो कर, अपनी छोटी बहन की सही बात को झूठ माना. कुछ ठीक होने पर मनोचिकित्सक (ध्रृतिमान चैटर्जी) की सलाह पर अँजली माँ और मिट्ठू के साथ कुछ दिन आराम करने भूटान चली जाती है.

भूटान में एक नदी के किनारे घूमती मिट्ठू को जयदीप (राहुल बोस) देख लेता है जो अपनी पत्नी (शेफाली शाह) और बच्चों के साथ वहाँ छुट्टियों में आया है. दस साल पहले जयदीप और मिट्ठू का विवाह होने वाला था, जब बलात्कार के बाद मिट्ठू अपना मानसिक संतुलन खो बैठी थी और जयदीप मँगनी तोड़ कर चला गया था. जयदीप के मन में भी मिट्ठू को ले कर अपराध बोध है और वह उससे मिलने की कोशिश करता है.

पहले तो अँजली गुस्सा होती है, उसे डर है कि मिट्ठू की तबियत फ़िर से न बिगड़ जाये पर फ़िर देखती है कि मिट्ठू ने जयदीप को नहीं पहचाना और उससे एक अजनबी की तरह बात करती है. दूसरी तरफ, जयदीप की पत्नी परेशान है, उसे विश्वास है कि जयदीप अपनी पुरानी प्रेमिका के चक्कर में पड़ गया है, तब जयदीप उसे बताता है कि मिट्ठू मानसिक रोगी है और वह सिर्फ अपने पिछले बरताव के अपराध बोध से मुक्त होने की कोशिश कर रहा है.

टिप्पणीः फ़िल्म के सभी अभिनेता बहुत बढ़ियाँ हैं. कोंकणा सेन की तरीफ़ सबसे अधिक करनी चाहिये क्योंकि मानसिक रोग जो चेहरे से झलक कर चेहरे को बदल देता है, इसको वे बहुत प्रभावशाली ढ़ँग से दिखातीं हैं. फ्लैशबेक में दिखाये कुछ भागों को छोड़ कर बाकी सारी फिल्म में कोंकणा का नीचे झुकते होंठ और आँखों में झलकता खोयापन उनके रोग को विश्वासनीय बना देता हैं हाँलाकि उसकी वजह से वे "हीरोइन" नहीं लगतीं. उनका मिर्गी का दौरा पड़ने का दृश्य बिल्कुल विश्वासनीय है.




बाकी सभी अभिनेता भी बढ़ियाँ हैं. छोटे से भाग में मिट्ठू के पिता के भाग में सोमित्र चैटर्जी को देख कर बहुत अच्छा लगा. ध्रृतिमान चैटर्जी जिन्हें देखे पँद्रह बीस साल हो गये थे और जो "गोपी गायन बाघे बायन" के दिनों से मुझे बहुत अच्छे लगते थे, उन्हें देख कर भी बहुत अच्छा लगा.

इन सब अच्छे अभिनेताओं के होते हुए भी, फ़िल्म में क्या कमियाँ थीं जिनकी वजह से मेरे विचार में यह फ़िल्म उतनी प्रभावशाली नहीं बनी?

मेरे विचार में फ़िल्म का कथानक ही इसकी सबसे बड़ी कमज़ोरी है. कथानक में वह नाटकीय घटनाएँ, मिट्ठू का जयदीप से प्यार, उसका बलात्कार, जयदीप का रिश्ता तोड़ कर उसे छोड़ कर चले जाना, यह सब बातें जो फिल्म में उतार चढ़ाव और दिलचस्पी ला सकती थीं, सभी छोटे छोटे फ्लैशबैक में ही सीमित रह जाती हैं. फिल्म का मुख्य केंद्र है दस साल बाद जयदीप का मिट्ठू से मिलना पर इसमें कोई अंतर्निहित नाटकीयता या तनाव नहीं बनता क्योकि मिट्ठू उसे पहचान भी नहीं पाती.

इस सारे हिस्से में तनाव बनाया गया है जयदीप की पत्नी के शक का और समझ नहीं आता कि जयदीप पत्नी को ठीक से सब कुछ क्यों नहीं बताता? इसकी वजह से फिल्म का कथानक कुछ नकली सा हो जाता है.

फ़िल्म अँग्रेज़ी में है. फ़िल्म के सभी मुख्य कलाकार आपस में अँग्रेजी में ही बात करते हैं पर कभी सड़क पर या काम करने वाली से हिंदी और बँगाली में भी बात कर सकते हैं. यह सच है कि आज का पढ़ा लिखा भारतीय उच्च मध्यम वर्ग अँग्रेजी में ही अपनी बात आसानी से कह पाता है और उसके सोच तथा व्यवहार में पश्चिमी उदारवादी विचार उसकी भारतीयता के साथ घुलमिल गये हैं. श्रीमति गुप्ता का पति के छोड़ जाने के बाद दूसरा विवाह करना या अँजलि का अपने मित्र के साथ अमरीका न चलने पर उसका पूछना "क्या तुम बिना विवाह के शारीरक सम्बंधों की नैतिकता की बात तो नहीं सोच रही हो?", जैसी बातें इसी बदलाव को दर्शाती हैं.

मानसिक रोग के साथ जीने में फ़िल्म के पात्रों के जीवन में कोई परिवर्तन नहीं आने वाला, जैसे पहले जीवन चल रहा था, वैसा ही चलता रहेगा, कोई चमत्कार नहीं होने वाला, यही फ़िल्म का अंतिम संदेश है. ऐसे आशाहीन जीवन में अचानक निर्देशक अपर्णा सेन अंत में नया प्रश्न उठा देती हैं, "सोचो कि अगर मिट्ठू की बातों को कल्पना कहने और सोचने वाले अगर गलत हों? अगर सचमुच कोई ऐसा जीवन स्तर हो जहाँ मिट्ठू के कल्पना का जीवन सच हो पर हम उस जीवन स्तर को नहीं देख सकते तो कैसा होगा?" फिल्म का अंत इसी फँतासी वाले प्रश्न से होता है जब मिट्ठू किसी अन्य स्तर पर बने अपने 15 पार्क एवेन्यू वाले अपने घर को खोज लेती हैं जहाँ उनका मिलन अपने पति और पाँच बच्चों से होता है.

कुछ यही अंत था ख्वाजा अहमद अब्बास की 1963 की फिल्म "शहर और सपना" का जिसमें सड़क पर पुरानी पाईप में जीवन बिताने को मजबूर युगल अंत में उसी पाईप में छुपा अपने सपने का घर पाता है. शायद यही एक रास्ता है आशाहीन जीवनों को परदे पर निराशा से बचाने का!

रविवार, अगस्त 06, 2006

हिंदी फिल्मों में मानसिक रोग (1)

कुछ दिन पहले अपर्णा सेन द्वारा निर्देशित फिल्म "१५ पार्क एवेन्यू" देखी, जिसका विषय है स्कित्जोफ्रेनिया, वह मानसिक रोग जिसमे रोगी सच और कल्पना का अंतर खो बैठता है. फिल्म देख कर हिंदी फिल्मों में मानसिक रोग के विषय को किन विभिन्न तरीकों से लिया गया है इसके बारे में सोच रहा था.

बढ़ते शहरीकरण, टूटते संयक्त परिवार, काम में तरक्की पाने और पैसे कमाने की होड़, इन सब बदलावों से जीवन स्तर अच्छे हुए हैं पर साथ ही साथ अकेलापन, उदासी और तनाव जैसे मानसिक रोग बहुत तेज़ी से बढ़े हैं. मानसिक रोगों को दो श्रेणियों में बाँटा जा सकता है. पहली श्रेणी में वह मानसिक रोग आते हैं जैसे गहरी उदासी, जिसमें व्यक्ति यथार्थ और कल्पना का अंतर समझता है. दूसरी श्रेणी में आते हैं स्कित्जोफ्रेनिया जैसे रोग, जिसमें व्यक्ति यथार्थ के जीवन और कल्पना के जीवन की सीमारेखा नहीं पहचान पाता. विश्व स्वास्थ्य संसथान का कहना है कि अगले दशकों में मानसिक रोग बहुत तेज़ी से बढ़ेंगे.

मानसिक रोग फ़िल्म को नाटकीय तनाव देने का काम अच्छा कर सकते हैं हालाँकि मानसिक रोग का प्रतिदिन का यथार्थ इतना निराशात्मक और बोझिल हो सकता है जिससे फिल्म देखने वालों को हताशा और तकलीफ़ हो जाये. शायद इसीलिए हिंदी फिल्मों ने मानसिक रोग के विषय को अक्सर असफल प्रेम का नतीजे के रुप में प्रस्तुत किया है और उसे कथा के दुखांत से जोड़ कर ट्रेजेडी फिल्म बनाई हैं. इस रुप में मानसिक रोग फिल्म का मुख्य विषय नहीं होता बल्कि प्रेम कथा को नया मोड़ देने का माध्यम बन कर रह जाता है.

स्कित्जोफ्रेनिया को कई बार व्यक्तित्व के दो हिस्सों में बँट जाने, यानि एक शरीर में दो विपरीत व्यक्तित्वों का रहना, स्टीवनसन के सुप्रसिद्ध उपन्यास डा जैकिल और मिस्टर हाईड से प्रभावित हुआ कथानक भी कुछ भारतीय फिल्मों ने चुना है जिनमें से उन्लेखनीय हैं "रात और दिन" (1967, निर्देशक सत्येन बोस) जो नरगिस की सशक्त अभिनय की वजह से प्रभावशाली बन गयी थी. इसी से कुछ मिलते जुलते कथानक वाली एक अन्य फ़िल्म जो कुछ समय पहले आई थी, "मदहोश" (2004) जिसमें बिपाशा बसु ने स्कित्जोफ्रेनिया के रोग को सतही और अप्रभावशाली तरीके से दिखाया था. इस तरह की फ़िल्में इस रोग की सही तस्वीर नहीं दिखातीं बल्कि उसे केवल कहानी में अप्रत्याशित मोड़ लाने का बहाना बना कर रह जाती हैं.



असफल प्रेम और मानसिक रोग के विषय पर केंद्रित फ़िल्मों के बारे में सोचा जाये तो सबसे पहले असित सेन की "खामोशी" (1967) को भूल पाना कठिन है. "खामोशी" में थी वहीदा रहमान, प्रेम में ठुकराए आहित प्रेमियों को मानसिक पीड़ा से निकालने के प्रेम का नाटक करने वाली नर्स के रुप में, जो हर बार खुद प्रेम करने लगती है और रोगी के जाने के बाद पागल हो जाती है. उनके साथ असफल प्रेमी के रुप में थे राजेश खन्ना और धर्मेंद्र. हालाँकि खामोशी की कहानी मानसिक रोगियों की पीड़ा दिखाने में सक्षम थी पर साथ साथ कुछ नकली भी, उसके पागलपन में किसी उपन्यास की नाटकीयता थी. प्रमुख पात्रों को छोड़ कर, फ़िल्म में दिखाये गये मानसिक रोग अस्पताल में अन्य सभी रोगी, रोगी कम और विदूषक अधिक थे जिनका काम फ़िल्म को कुछ हल्के फुल्के क्षण देना था.



खामोशी जैसी ही कहानी थी कुछ दिन पहले आई प्रियदर्शन द्वारा निर्देशित फ़िल्म "क्यों कि" (2005) की. "खामोशी" की अतिनाटकीयता, उसके मानसिक रोग के चिकित्सकों के केरिकेचर, उसके विदूषक जैसे मानसिक रोगी, सभी कमियाँ "क्यों कि" में और भी कई गुणा बढ़ा चढ़ा कर प्रस्तुत की गयीं थीं. कोशिश कर भी मैं यह फिल्म पूरी नहीं देख पाया, उसकी चीख चिल्लाहट से सिर दुखने लगा था, इसलिए इसके बारे में और कुछ कहना बेकार है.

एक और फ़िल्म थी कुछ साल पहले की, "तेरे नाम" (निर्देशक सतीश कौशिक, 2003) जिसका विषय भी मानिसक रोग ही था. हालाँकि "क्यों कि" की तरह इसमें भी व्यवसायिक फ़िल्म वाली अतिश्योकत्ताएँ थी, पर इसमें मानसिक रोगियों पर अकसर होने वाले अमानवीय व्यवहार, हिंसा और अँधविश्वास का चित्रण था जो वे सब लोग पहचान सकते हैं जिन्हें कभी किसी मानसिक अस्पताल में जाने का मौका मिला है. मानसिक अस्पताल अक्सर अस्पताल नहीं पागलखाने कहलाते हैं और वहाँ मानव अधिकारों को बात तो छोड़िये, मानसिक रोगियों से अमानवीय व्यवहार होता है.

नई फ़िल्मों में मुझे अधिक विश्वासनीय लगी थी "मैंने गाँधी को नहीं मारा" (2005, निर्देशक जाह्नू बरुआ) जिसमें मानसिक रोग का असफल प्रेम से कोई सम्बंध नहीं था, बल्कि जिसका मानसिक रोगी एक बूढ़ा प्रोफेसर था जिसकी अल्सहाईमर जैसे रोग से यादाश्त गुम रही थी. फिल्म में रोगी की बेटी, फिल्म की नायिका का प्रेमी उसे ठुकरा देता है. समाज में मानसिक रोगों के साथ बहुत से अंधविश्वास जुड़े हैं और रोगियों और उनके परिवारों को इसकी वजह से बहुत कठिनाईयाँ उठानी पड़ती हैं.

"सदमा" तथा "कोई मिल गया" जैसी फ़िल्मों ने मानसिक विकास की कमी की बात को लिया है पर यह बात मानसिक रोगों की बात से भिन्न है, हालाँ कि दोनो बातों में कुछ साम्यताएँ भी हैं और लोगों का दोनो ही तरह के रोगियों के प्रति व्यवहार अक्सर घृणा और भर्त्सना भरा होता है.

गुरुवार, अगस्त 03, 2006

सँकरा नर दिमाग

आज बात का विषय नर के सँकरे दिमाग का है. बात मानव जाति के पुरुष पर उतनी लागू नहीं होती, बल्कि अधिकतर यह बात कुत्ता जाति के नरों की है. मेरे बहुत से उच्च विचारों की तरह, यह उच्च विचार भी उस समय मन में आया जब अपने कुत्ते, श्री ब्राँदो को ले कर कल शाम को बाग में सैर को निकला.

अगर आप ने कभी नर कुत्ते को करीब से कुछ समय के लिए जाना पहचाना हो तो आप जानते ही होंगे कि सैर को बाहर निकलते समय, आप को अन्य नर कुत्तों से बच कर चलना पड़ता है. पिल्ले, बहुत बूढ़े कुत्ते और वह कुत्ते जिनका आपरेश्न से गोली हरण हो चका हो, उनको छोड़ कर बाकि के सभी नर कुत्ते हमारे ब्राँदो जी के जानी दुश्मन हैं. उन्हें यह दूर से ही पहचान लेता है, शायद उनकी नर सूँघ से, और देखते ही उनकी तरफ़ ऐसे झपटता है कह रहा हो, "छोड़ो मुझे, रोको मत, इसका खून पी जाऊँगा." और दोनो जोर शोर से एक दूसरे की ओर भौंकते हैं.

फ़िर जैसे ही हो सके उसे वहीं मूतना होता है जहाँ दूसरे कुत्ते ने मूता हो. यह उनके "क्षेत्र" पर झँडे गाड़ने वाली बात है. वह बात और है कि कई क्षत्रों पर इतनी तरह के झँडे गड़े होते हैं कि स्वयं वे खुद भी नहीं पहचान सकते कि उनका झँडा वहाँ गड़ा भी या नहीं.

कितने सालों से हर दिन वही कुत्ते एक दूसरे को देख कर ऐसे ही भौंकते रहते हैं, हालाँकि कई बार लगता है कि यह भौंकना केवल आदत की वजह से है और बेमन से किया जा रहा है.

पर किसी भी मादा कुत्ते को देखते ही पूँछ हिलनी शुरु हो जाती है. अगर आप थोड़ी सी ढील दें तो उसके आसपास जा कर सूँघाई शुरु हो जाती है. थोड़ी सी और ढील दें तो टाँगे उठा कर उसके ऊपर चढ़ने की कोशिश शुरु हो जाती है. आप कहते रह जाईये, "अरे यार, थोड़ा शाँत हो, तुम्हें हर समय क्या एक ही बात सूझती है? क्या नर और मादा में केवल यही रिश्ता होता है? किसी को केवल मित्र बना कर देखो, और भी तो रिश्ते हो सकते हैं पुरुष और नारी के बीच!", वह कुछ नहीं सुनता.

मानव किशोरावस्था भी शायद कुछ कुछ एसी ही होती है, जब अचानक जवान हुए शरीर में नर होरमोन टेस्टोस्टिरोन तूफ़ान मचा देता है. सड़कों पर रोमियो बन कर सीटियाँ बजाने वाले या बस में झीड़ में लड़कियों के शरीरों को छूने की कोशिश करने वाले शायद हमारे ब्राँदो जी जैसे ही होते हैं, जिनका जीवन होरमोन से संचालित होता है. उनके लिए रुक कर सोचना कि क्या कर रहा हूँ और क्यों, बहुत कठिन होता है.

आज की तस्वीरें हमारे ब्राँदो जी की हैं.








मंगलवार, अगस्त 01, 2006

भारतीय पत्रकारिता समाज

कल शाम को जनसत्ता के सम्पादक श्री ओम थानवी का नया आलेख "अपने पराए" पढ़ा तो बहुत देर तक मन क्षुब्ध रहा. आलेख का प्रारम्भ में है इफ्तिखार गीलानी की नई पुस्तक के लोकार्पण के अवसर पर, गीलानी जी के जेल में डाले जाने और उस स्थिति में भारतीय पत्रकारिता के आचरण के बारे में थानवी जी के विचार.

इफ्तिख़ार बड़े अफ़सोस भरे स्वर में कहते हैं कि जेल में उन्होंने जो अत्याचार झेला, वह "मीडिया ट्रायल" का नतीजा था. "पत्रकार के शब्द लोग इतना भरोसा करते हैं, इसका अहसास मुझे पहले न था. और न इसका कि हम अपने फर्ज को कितने हलके ढंग से लेते हैं.
आलेख के अंतिम भाग में थानवी जी ने भारतीय पत्रकारिता समाज के बढ़ते बेहाल की चर्चा की है.

कुछ अखबारों का सारा सम्पादकीय विवेक तो जैसे इस फिक्र में सिमट कर रह गया है कि दुनिया के किस कोने में शराब की कैसी महक पाई जाती है या किस सात तारा होटल का खानसामा झींगामछली किस हुनर से पकाता है... अँग्रेजी मानसिकता में, साहित्य हो चाहे पत्रकारिता, हिंदी वालों को किस तिरस्कार से देखा जाता है, हम सब जानते हैं....
शायद आप कहेंगे कि इसमें नया क्या है? विश्वीकरण के साथ जुड़े उपभोक्तावाद की संस्कृति की वजह से समाचार पत्रों का और नामनीय सम्पादकों का सभ्यता छोड़ कर पन्ने बेच कर विज्ञापन बनाने और उत्पादन बढ़ाने का लालच आसानी से समझा जा सकता है. हिंदी बोलने वाले उपभोक्ताओं से पैसे तो कमाये जा सकते हैं पर उच्च स्तर की फर्राटेदार अँग्रेजी न बोल पाने वालों को तो नीचा समझा ही जाता है. जात पात और वर्ग भेद की आकुण्ठाओं से जकड़े भारतीय समाज को इस सब की आदत है. हिंदी बोलने वालों के मन में अक्सर विश्वास है कि वे हीन हैं तो इसका फायदा अँग्रेज़ी का "सभ्य" समाज उठाये तो उसमे अचरज क्यों?

सोमवार, जुलाई 31, 2006

शब्दों की शक्ति

जेनेवा में अखबार में एक लेख पढ़ा जिसमे हँगरी के सुप्रसिद्ध लेखक पेटर ऐस्तरहाज़ी (Péter Esterhàzy) ने अपने लेखन के बारे में एक साक्षात्कार में कहा, "अचानक मुझे समझ में आया कि मेरे मन में सच और कल्पना के बीच की सीमा रेखा स्पष्ट नहीं थी, शब्दों में कहा गया या सचमुच कुछ बात हुई मेरे लिए एक बराबर ही था. यानि मेरे लिए शब्दों की महत्वता उतनी ही थी जितनी जीवन में होने वाली बातों की... अपनी कल्पना से लिखी वह पहली कहानी मुझे अभी भी याद है, वह अनूठी शक्ति का अनुभव कि मैं सब कुछ कर सकता हूँ, चाहूँ तो किसी को मोटा या पतला, गंदा या पसीने से लथपथ, उसका वक्ष छोटा हो या बड़ा, सब कुछ मेरी इच्छा पर निर्भर है. पहली बार सृजन का आनंद मिला, भगवान को भी कुछ कुछ ऐसा ही लगता होगा."

पेटर की बात कि वह कल्पना में सोची बात और जीवन में होने वाली बातों के बीच की सीमारेखा में अंतर नहीं समझ पाते, मुझ पर भी कुछ कुछ लागू होती है. शाम को बाग में घूमते समय, या रात को सोने से पहले किसी बात को सोचते हुए या सपने में हुई बात, कई बार मुझे लगता है कि वह सचमुच हुई थी. अक्सर पुरानी बातों के बारे में मैं यह नहीं बता पाता कि वह सचमुच हुआ था या फ़िर केवल मैंने सोचा था.

कई बार मन ही मन में किसी मित्र को पत्र लिखता हूँ, सोचता हूँ कि उसे यह बताऊँगा, वह समझाऊँगा, आदि. बाद में लगता है कि मैंने सचमुच वह बात मित्र को लिखी थी और कभी कभी गुस्सा हो जाता हूँ कि मित्र ने उसका जवाब क्यों नहीं दिया!

काम पर भी ऐसा कभी कभी होता है. फेलिचिता, मेरी सचिव अब मेरी इस प्रवृति को समझने लगी है. कभी कभी कुछ काम के बारे में पूछूँ तो कहती है, ठीक से सोचो कि तुमने मुझे सचमुच वह काम दिया था या फ़िर सिर्फ शाम को सोचा था कि मुझे वह काम करना चाहिए?

शायद इसका अर्थ यह हुआ कि मैं भी पेटर की तरह उच्च दर्जे का लेखक बन सकता हूँ?
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जेनेवा से वापस आते समय हवाई जहाज में इंटनेशनल हेराल्ड ट्रीब्यून (International Herald Tribune) अखबार में हर तरफ भारत को पाया. एक समाचार था किसी सरीन के बारे में जो कि यूरोप के सबसे बड़ी टेलोफ़ोन कम्पनी वोदाफ़ोन के डायरेक्टर हैं. दूसरा समाचार था रतन टाटा के बारे में जिन्होंने फियट कार वालों के साथ कोई समझोता किया है.

तीसरा समाचार एक लेख था श्रीमति अनुपमा चोपड़ा का मुम्बई के सिनेमा संसार में आते बदलाव के बारे में. अनुपमा जी बात प्रारम्भ करती हैं करण जौहर की नयी फ़िल्म "कभी अल्विदा न कहना से" जिसमें पति परमेश्वर मानने वाली स्त्री पात्र के बदले में एक विवाहित पुरुष के एक विवाहित स्त्री से प्रेम की कहानी है.

कल्पना जी लिखती हैं, "जौहर जैसे फ़िल्म निर्माता इसलिए उन प्रश्नों से जूझ रहे हैं जैसे आत्मीयता (intimacy) के बारे में (क्या दर्शक स्वीकार करेंगे कि इनके प्रिय सितारे साथ सोते हैं), नैतिकता के बारे में (जौहर जी बोले मैं अपनी फ़िल्म में विवाह के रिश्ते से विश्वासघात करने को स्वीकृति नहीं दे सकता), भाषा के बारे में (सेक्स के विषय में हिंदी में बात करना कठिन है क्योंकि इससे जुड़े शब्द यह तो पुराने और कठिन हैं या फ़िर भद्दे). इस आखिरी परेशानी का हल जौहर जी ने यह खोजा कि इस सब बातों के बारे में बातें अँग्रेज़ी में हों."
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जेनेवा में ग्रेगोर वोलब्रिंग से मुलाकात हुई. ग्रगोर केनेडावासी हैं और जन्म से विकलाँग. ग्रगोर ने सभा में कृत्रिम प्राणीविज्ञान (synthetic biology), और अतिसूक्षम तकनीकी (nanotechnology) इत्यादि विधाओं के मिलन से हो रहे नये प्रयासों के बारे में बोला जिससे अगले 20 या 30 वर्षों में विकलाँगता के बारे में हमारे सोचने का तरीका बदल सकता है. ग्रेगोर का कहना है कि इन तकनीकों से मानव शरीर और मस्तिष्क का ऐसा विकास हो सकता है जो मानव को नयी दिशाओं में ले जा सकता है, ऐसे समाज में विकलाँग वह लोग होंगे जिनके पास इन तकनीकों को खरीदने के लिए साधन नहीं होंगे. ग्रेगोर के बारे में पढ़ना चाहें तो उनके वेबपृष्ठ पर पढ़ सकते हैं.

आज की सभी तस्वीरें जेनेवा से हैं और पहली तस्वीर में मेरे साथ हैं ग्रेगोर वोलब्रिंग.







रविवार, जुलाई 30, 2006

जेनेवा की गर्मी

एक अंतर्राष्ट्रीय सभा के लिए स्विटज़रलैंड में जेनेवा आया हूँ. घर से चला था तो बोलोनिया में इतनी गरमी थी कि बुरा हाल था. पहले, जून तक, इस लिए रो रहे थे सब कि इस साल गरमियाँ ही नहीं आ रहीं थीं, अब इस लिए रो रहे हैं, बहुत गरमी पड़ रही है. खैर स्विटज़लैंड में पहली बार अपने कमरे में छोटा सा मेज़ वाला पँखा देखा. कमरे में गरमी और उमस से बुरा हाल था और उस छोटे से पँखे से कुछ विषेश राहत नहीं मिल रही थी पर दिल को थोड़ी तसल्ली अवश्य होती थी.

चाहे बुश जी माने या न माने और क्योटो के समझोते पर हस्ताक्षर करें या नहीं, यहाँ रह कर कहना कि पर्यावरण में तेज़ी से परिवर्तन नहीं आ रहा, असम्भव है. हमने यहाँ अपने घर में पहला पँखा करीब 1992 या 1993 के आसपास खरीदा था. फ़िर कई पँखे खरीदे, हर कमरे के लिए एक. इस साल घर को वातानाकूलित बनाना ही पड़ा. केवल दस पंद्रह सालों में इतना बदलाव आ गया है. इस साल पहली बार स्विटज़रलैंड में भी पँखे दिख रहे हैं, यानि गरमी और बढ़ती जा रही है.

एक जगह पढ़ा था कि अगले कुछ सालों में वातावरण परिवर्तन से पूरे यूरोप में बरफ़ छा जायेगी और उत्तरी देशों से लोग दक्षिणी देशों के ओर प्रवास करेंगे. यानि भारत, अफ्रीका, मेक्सिको आदि से यूरोप, अमरीका, कनाडा जाने के बदले, लोग भारत, अफ्रीका और मेक्सिको की ओर जायेंगे. वह बर्फ़ीली सर्दी कब आयेगी यह तो मालूम नहीं, अभी तो गरमी भुगतने का मौका है.

अब जब गरमी की लहर की वजह से रोम, लंदन इत्यादि में बिजली उड़ने के समाचार आते हैं तो मन ही मन खुशी होती है. ऐसी ही खुशी तब होती है जब मूसलाधार बारिश के बाद यहाँ के शहरों का जीवन अस्त वयस्त हो जाता है और नालियाँ पानी से भर कर, पानी सड़कों पर आ जाता है. पहले यहाँ के लोग भारत या अफ्रीका की ओर जाते तो नखरे दिखाते थे कि वहाँ बिजली चली जाती है, विकास अच्छी तरह से नहीं हुआ और बेचारे गरीब देश हैं! ये तो मौसम की कृपा थी, न कभी तेज़ गरमी न कभी तेज़ बारिश, जिसकी वजह से सब कुछ अच्छा चलता था और अब मौसम बदलने से यहाँ भी वही हाल होने वाला है ?


जेनेवा झील के किनारे, गरमियों का आनंद लेते हुए




जेनेवा में पर्यावरण पर लगी दो प्रशनियाँ - पहली प्रदर्शनी में दुनियाँ के बच्चों ने अपने देश के बदलते जीवन के चित्र बनाये हैं, उसी में से अफगानिस्तान के बच्चे द्वारा बनाये गये बोनियान के बुद्ध की मूर्ती जो कट्टरवादी तालीबानों ने धवंस कर दी थी.



दूसरी प्रदर्शनी में विभिन्न देशों में आते पर्यवरण परिवर्तन जिसमें चीन में पीली नदी पर बन रहे दुनिया के सबसे बड़े बाँध के बनने से आये परिवर्तनों की तस्वीर


मंगलवार, जुलाई 25, 2006

जिया लागे न

हर साल की तरह गर्मियाँ फ़िर आ गयीं. कुछ दिन तो परिवार के साथ छुट्टियाँ बिताने का मौका मिला पर फ़िर काम पर वापस आना पड़ा जबकि बाकी का सारा परिवार अभी भी छुट्टियाँ मना रहा है. पँद्रह दिनों से घर पर अकेला हूँ.

सुबह उठते ही सोचना पड़ता है, "आज खाने में क्या ले जाये? सलाद, टमाटर और पनीर या खीरा, टमाटर और पनीर?" कुछ ऐसा होना चाहिये जिसे बनाना न पड़े और बर्तन न गन्दे हो तो अच्छा है. सलाद, टमाटर, खीरे और पनीर देख कर ही भूख कम हो जाती है, पर क्या किया जाये? आज फ़िर वही खाना, यह शिकायत किससे कहें?

शाम को घर वापस आओ तो फ़िर एक बार वही दुविधा, क्या बनाया जाये? सुपरमार्किट में जाओ तो मेरे जैसे गम्भीर चेहरों वाले पुरुष दिखते हैं जो अँडे, डिब्बे में बंद खाने, गर्म करने वाले पिज्जे, ले कर घूम रहे होते हैं. शाम को उनके भी घरों में यही दुविधा उठती होगी! आधी दुकाने तो छुट्टियों के लिए बंद हैं. समाचारों में कह रहे थे कि शहर के 60 फीसदी लोग छुट्टियों में शहर से बाहर गये हैं. कार पार्क करने के लिए जगह नहीं खोजनी पड़ती, सड़कों पर यातायात बहुत कम है.

रात को पत्नी से टेलीफ़ोन से बात होती है. आज दिन में क्या किया? जैसे प्रश्न का उत्तर क्या दूँ समझ नहीं आता. आसपास घर गन्दा सा लगता है, रोज़ होने वाली सफाई, सप्ताह में एक दो बार हो जाये तो बहुत है. उठो नाश्ता बनाओ, पौधों को पानी दो, साथ ले जाने के लिए खाना तैयार करो, काम पर जाओ, घर वापस आ कर, फ़िर खाना बनाओ, बर्तन धोओ और रात हो जाती है. मेरे बिना घर में कैसा लगता है, पत्नी पूछती है, जाने अकेले क्या गुलछर्रे उड़ा रहे होगे?

हाँ, गुलछर्रे ही उड़ रहे हैं, पर उनसे मन नहीं भरता. अकेले लोग सारा जीवन कैसे रहते हैं, कुछ कुछ समझ में आता है और थोड़ा सा डर लगता है. अगर घर से अलग लम्बे समय के लिए रहना पड़े तो कैसे होगा? नहीं, कुछ और दिनों की तो बात है, मन को समझाता हूँ.

आज कुछ तस्वीरें में है अकेली शामें.






गुरुवार, जुलाई 20, 2006

आतंकवाद का जवाब

कई चिट्ठों पर इन दिनों इजराईल और लेबनान तथा पालिस्ताईन पर हमलों के बारे में पढ़ा कि ऐसी हिम्मत होनी चाहिए, कट्टरवादी दो मारें तो पचास को मार दो, कुछ सोचो नहीं, अगर आम जनता मरती है, अगर बच्चे मरते हैं, कोई चिता नहीं, आतंकवाद का जवाब हो जैसे ईंट के जवाब में बम. यह चिट्ठे लिखने वाले सोचते हैं कि भारत का उत्तर भी मुम्बई के बमों के बाद भी ऐसा ही होना चाहिए था, पाकिस्तान पर बम बरसाने चाहिये थे. पढ़ कर हँसी आई, उस इज़राईल का उदाहरण देते हैं जहाँ पिछले बीस सालों में बम फटने बंद नहीं हुए और जो देश अपने आस पास ऊँची दीवार बना कर जीने के लिए मजबूर है.
मैं सोचता हूँ कि जिस तरह के उत्तर इज़राईल देता है, उससे आतंकवाद बढ़ता है और जेनेवा कन्वेंशन के अनुसार यह युद्ध अपराध हैं. एक सैनिक के बदले में दस औरतों या बच्चों को मार दो, इसकी नैतिकता नाजी जर्मनी की नैतिकता से मिलती है और अगर इज़राईल को ज़िन्दा रहने के लिए नाज़ियों जैसा बनना पड़ता है तो इज़राईलियों को सोचना चाहिए कि क्या इस लिए उन्होंने अपना देश माँगा था?

आज के भारत के लिए युद्ध की कीमत क्या होगी? थोमस फ्रीडमेन अपनी पुस्तक द फ्लेट अर्थ (The flat earth) में सन 2002 में पाकिस्तान और भारत के बीच तनाव होने और युद्ध की सम्भावना होने के बारे में कहते हैं -

"विवेक कुकलर्णी जो उस समय कर्नाटक राज्य के इंफोर्मेशन तकनीकी के सचिव थे,
उन्होंने मुझे बताया कि हम राजनीति में दखल नहीं देना चाहते पर हमने सरकार को बताया
कि अगर भारत युद्ध में जाता है तो हमारे उद्योग को क्या दिक्कतें हो सकती हैं...
भारत सरकार को संदेश मिल गया. क्या केवल भारत का दुनिया के उद्योग में बढ़ता हुआ
स्थान ही अकेला कारण था जिसकी बजह से वाजपेयी सरकार ने झगड़े की बात कम कर दी और
युद्ध की कागार से देश पीचे हट गया, यह तो नहीं था. और भी कारण थे ..."
सन 2002 के मुकाबले में आज भारत का स्थान विश्व व्यापार में और बढ़ गया है, और आज युद्ध की कीमत और भी अधिक होगी, तो क्या बेहतर नहीं होगा कि और बातों को भूल कर भी, सिर्फ भारत की आर्थिक प्रगति का सोच कर, आतंकवाद के विरुद्ध अन्य तरीके खोजे जायें?

पाकिस्तान में कट्टरवादियों की कमी नहीं है और निकट भविष्य में उन्हें रोकने की क्षमता और इच्छा शायद वहाँ की सरकार में नहीं है. इसलिए भारत में आतंकवादियों को पकड़ने, थामने के लिए जो भी जरुरी हो वह करना चाहिए, पर यह सोच कर जिससे वह कमज़ोर हों, न कि आतंकवाद को बढ़ावा मिले.

एक और पाकिस्तान है जो आम लोगों का है. किसी मैच के सिलसिले में जब पाकिस्तानी लोग भारत आये थे और परिवारों के साथ ठहरे थे तब बात करते थे भारत और पाकिस्तान की साझा संस्कृति के बारे में. कल सिफी पर सामुएल बैड का लेख निकला है जिसमें वह "पाकिस्तान में भारत का सांस्कृतिक धावे" (Indian "cultural invasion" welcome in Pakistan) की बात करते हैं. उनके अनुसार दूरदर्शन में प्रसारित होने वाले रामायण और महाभारत पाकिस्तान में बहुत लोग देखते थे. उनके लेख में पीपलसं पार्टी के एक युवक कहता है कि उसे इन कहानियों से उसे बहुत प्रेरणा मिलती है. फैज़ अहमद फैज़ ने कहा कि पाकिस्तानी संस्कृति की जड़ें आगरा और दिल्ली में हैं. इस पाकिस्तान को मज़बूत करना भारत के अपने हित में है.

मैं नहीं मानता कि भारत को इज़राईल से सीख लेनी चाहिए कि कट्टरवाद से कैसे लड़ा जाये. भारत को कट्टरवाद और आतंकवाद का कड़ा जवाब देते हुए साथ ही इस दूसरे मुसलमान समाज को प्रोत्साहन देना चाहिए जो भारत और पाकिस्तान में है जो अपने साझे इतिहास को मानता है. ऐसी लड़ाई जिससे आतंकवादी कमज़ोर हों और अज़ीम प्रेम जी, सानिया मिर्जा, शबाना आज़मी, शाहरुख खान, जैसे लोगों की बात मज़बूत हो.

धर्म के बूते से बने देश, पाकिस्तान और बँगलादेश, इसको आसानी से नहीं होने देंगे. जहाँ विभिन्न धर्मों वाले, प्रगतिशील भारत में मुसलमान उन दोनो से अधिक हैं, और वह देश सब नागरिकों को जीवन स्तर सुधारने का अवसर देता है, जहाँ सभी धर्मों के मानने वालों के मानव अधिकारों का सम्मान है, इससे अच्छा क्या सबूत चाहिऐ कि धर्म की बिनाह पर अलग देश माँगना बेवकूफी है?

बुधवार, जुलाई 19, 2006

किसकी सम्पत्ती?

रवि की टप्पणी पढ़ी कि किसी ने चिट्टा "चुरा" लिया है तो बहुत कौतुहल से देखने गया. सोच रहा था कि रवि तुमने कैसे जाना? क्या प्रतिदिन तुम हर तरह के चिट्ठे देखते हो जो कोई भी इस तरह की बात हो तुरंत पकड़ी जाये या फ़िर इस बार किस्मत से तुम्हे दिख गया?

मैं ईशेडो की बात से सहमत हूँ कि यह भी प्रशँसा का एक तरीका हो सकता है, हालाँकि इस बार मेरा विचार है कि बेचारे ने मेरे विज्ञापन जैसे चिट्ठे को इस लिए छाप दिया ताकि और लोग उसे पढ़ सके और मुझे अधिक सुझाव मिलें! अच्छा होता कि वह साथ ही लिखता कि उसने यह कहाँ से लिया है पर हो सकता है कि उसने यह अधिक सोचे बिना किया.

मैं क्रियेटिव कोम्मन्स (Creative Commons) में विश्वास रखता हूँ. मेरे विचार में मैं जो भी लिखता हूँ वह बिल्कुल निजी या नया और अपूर्व हो, यह कहना गलत होगा. अक्सर लिखने का विचार किसी और का लिखा कुछ पढ़ कर ही आता है, और अतर्मन में जाने अब तक पढ़ी कितनी किताबें, लेख, आदि होंगे जिनका मेरे लिखने पर प्रभाव होगा. इसलिए यह सोंचू कि मेरे लिखने पर मेरा कोपीराईट हो, मुझे लगता है कि गलत होगा.

यह बात भी है मैं अपने लिखने से नहीं जीता, यह तो समय बिताने का तरीका और अपनी सृजनात्मक इच्छाओं को व्यक्त करने का साधन है, इसलिए कोपीराईट को भूल जाना, उसकी परवाह न करना, इससे मुझे कुछ फर्क नहीं पड़ता. पर जो जीवनयापन के लिए अपने लेखन पर निर्भर हैं, अवश्य उनके लिए ऐसा सोचना कठिन होगा.

यह बात वैज्ञानिक खोज पर लागू हो सकती है. कोपीराईट की बात सुन कर, और यह कि लोग या कम्पनियाँ अपनी नयी कोज से करोड़ या अरबपति बन जायें, मुझे कुछ ठीक नहीं लगता. जिस खोज में पैसा, समय, मेहनत लगी हो, उसका सही मेहनताना उन्हें मिलना चाहिए, पर दस बीस साल तक कोई उनकी "खोज" को छू नहीं सकता, यह गलत लगता है. कोई भी "नयी" वैज्ञानिक खोज, हज़ारों लोगों की पुरानी खोजों के बिना नहीं हो पाती. जीवित प्राणियों से जुड़े कोपीराईट पर तो मुझे और भी गलत लगता है. पर शायद इस सब पर विचार करने के लिए समय चाहिए, एक छोटे से चिट्ठे में यह सब बातें कहना और उनका विवेचन करना कठिन है.
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आप सबको जिन्होंने मेरे पर्श्नों को बारे में सुझाव दिये, धन्यवाद.

मंगलवार, जुलाई 18, 2006

तलाश

पिछले दिनों में जाने कैसे बहुत से इतालवी लोग भारत सम्बंधी बातों के लिए मुझसे सम्पर्क करने लग गये हैं. बातें भी ऐसी पूछते हैं, जैसे "मुझे जयपुर जाना है, वहाँ कोन सी जगह देखने की हैं?" "मुझे नोयडा में काम से जाना है, यह दिल्ली से कितना दूर होगा और वहाँ दिल्ली से कैसे जा सकते हैं?" कुछ दिन पहले टीवी के लिए भारतीय अभिनेता खोजने के लिए भी कहा गया था.

लगता है कि किसी ने खबर फ़ैला दी है कि हमारे यहाँ "भारत सूचना दफ्तर" की एजैंसी है, और सब काम छोड़ कर अब इसी में लगना चाहिए!

अब दो नये प्रश्न पूछे गये हैं, जिनके उत्तर देने के लिए शायद आप में से कोई मेरी सहायता कर सकेः

1. हिंदी सीखने वाले विदेशियों के लिए क्या डिपलोमा या उच्च शिक्षा के कोई कोर्स हैं भारत में? कहाँ पर हैं?

2. एक इतालवी कम्पनी जो डोमोटिक्स (घर में विभिन्न टेकनोलोजियों और वायरलेस को मिला कर आटोमेटशन करने की तकनीकें) के क्षेत्र में काम करती है और किसी इंजीनियरिंग कोलिज से सम्पर्क चाहती है जहाँ से नये स्नातकों और अंतिम वर्ष के छात्रों को स्कालर्शिप पर अपने दफ्तर में कुछ दिन के लिए बुला सकें.

दोनों प्रश्नों के लिए अगर आप में से कोई कुछ सुझाव दे सकें तो आप का अभी से धन्यवाद.

जब कोई सम्पर्क करता है तो उसे सीधा न कहना या कहना कि मुझे नहीं मालूम आप किसी और जगह से कोशिश कीजिये, मुझे अच्छा नहीं लगता पर अगर यही हाल रहा तो करना ही पड़ेगा. अभी तो लगता है कि यह प्रश्न भारत की बढ़ती हुई प्रगति और नाम की वजह से आ रहे हैं, तो मन में गर्व होता है.

शनिवार, जुलाई 15, 2006

गिनती

गिनती में तो शुरु से ही कमज़ोर था. एलजेबरा और ट्रिगनोमेट्री का पूछिये ही नहीं, इम्तहान देते समय मालूम नहीं होता था कि पास भी हो पाऊँगा या नहीं. आठवीं कक्षा में आते आते मैं इस बारे में लोगों के ताने सुन सुन कर परेशान हो गया था, शायद इसीलिए फैसला किया था कि डाक्टरी ही पढ़ूँगा, कम से कम गणित से तो छुट्टी मिलेगी.

पर मानव बुद्धि भी अजीब है, एक तरफ़ से गणित से इतना डर और दूसरी तरफ़ से, कुछ भी गिनना हो बहुत आत्मविश्वास से बिना कागज़ या कलम के, बिना केलकूलेटर के, मन में ही मन में जोड़ घटा कर बताने का शौक भी है. जहाँ काम करता हूँ, वहाँ किसी भी यात्रा से वापस लौट कर जब हिसाब देता हूँ तो वित्त विभाग में काम करने वाले माथा पीट लेते हैं. बहुत बारी तो अपनी जेब से ही भरना पड़ता है. कुछ खरीदने जाऊँ तो पैसे ध्यान से गिन कर देता लेता हूँ पर अक्सर कुछ न कुछ गलती हो ही जाती है.

एक तो पहले से ही यह हाल था, उस पर रही सही कसर इस पश्चिमी गिनती के तरीके ने निकाल दी. पश्चिमी देशों में मिलियन, बिलियन (million, billion) होते हैं और भारत में लाख और करोड़, पर आपस में इनके शून्यों की मात्रा नहीं मिलती.
1 लाखः 1,00,000
1 करोड़ः 1,00,00,000
1 मिलियनः 1,000,000
1 बिलियनः 1,000,000,000

अगर भारत की जनसँख्या करीब 1 बिलियन है तो कितने करोड़ हुई?

इतने सारे शून्य देख कर पहले से ही मुझे घबराहट होने लगती है, और गलती होते देर नहीं लगती. मैंने हिसाब कैसे लगाया सुनिये. मैंने सोचा कि सात आठ करोड़ तो सुना है कि शाह रुख खान और आमिर खान एक फ़िल्म में काम करने का लेते हैं, तो करोड़ इतना अधिक भी नहीं हो सकता. यानि 1 बिलियन कम से कम 1000 करोड़ तो होगा.

एक बार कुछ महीनों के लिए चीन में काम पर रहा था, वहाँ तो चार चार शून्यों को जोड़ कर गिनती गिनते हैं जैसे किः
श्रवानः 10,0000
यीबाइवानः 100,0000
यीछयानवानः 1000,0000

आप सोच ही सकते हैं कि मेरा क्या हाल हुआ वहाँ. पढ़ाते हुए जब भी कोई बड़ी सँख्या आती तो अनुवादक के साथ साथ, विद्यार्थी भी हँसी से लोट पोट हो जाते.

बचपन में गणित की मैडम कहती कि मैं बिल्कुल बुद्धू हूँ और जाने क्या होगा मेरा! वो तो किस्मत अच्छी थी कि भगवान ने दिमाग में गिनती का हिस्सा, बाकी हिस्सों से अलग बनाया. खैर जब मैं लाखों करोड़ों की बात करूँ तो आप समझ ही गये होगें की उसे ध्यान से पढ़िये. फ़िर नहीं कहियेगा कि पहले क्यों नहीं बताया.

गुरुवार, जुलाई 13, 2006

डर

मुम्बई के बम विस्भोट में मेरी भाँजी भी माहिम की रेलगाड़ी में थी. केवल मानसिक धक्का लगा उसे, चोट नहीं आई. पिछले साल जुलाई में जब लंदन में बम विस्फोट हुआ था तब भी एक गाड़ी में मेरा भतीजा इसी तरह बचा था. जिस तरह इतना कुछ तहस नहस हुआ, इतनी जाने गयीं, मन विचलित हो गया, कुछ लिखा नहीं गया.

सागर जी का चिट्ठा पढ़ा तो ऐसी बहुत सी बातें याद आ गयीं. बहुत छोटा था तो सुना था कि भारत विभाजन के समय माँ ने दिल्ली में एक मुसलमान लड़की की जान बचाई थी जिस पर उन्हें प्रधानमंत्री जवाहरलाल नहरु ने सर्टिफिकेट दिया था.

माँ और पापा दोनो पहले गाँधी जी के, फ़िर समाजवादी नेता डा. राम मनोहर लोहिया के साथ जुड़े थे, एक बार बचपन में ही डा. लोहिया के निवास पर पेशावर से आये खान अब्दुल गफ्फार ख़ान को देखा था और उनसे बहुत प्रभावित हुआ था. माँ ने मौलाना आजाद की स्टेनो के रुप में काम किया था. उन सब के बारे में यह सोचना कि वह हिंदू हैं या मुसलमान हैं, इसका कभी प्रश्न ही नहीं उठा.

कुछ बड़े हुए तो साथ वाले घर में मुसलमान परिवार था, पटौदी की रियासत के मैनेजर साजिद भाई, उनकी पत्नी आइरिन और उनके बच्चे, बबला यानि अहमद और निधा. उन्हीं दिनो पापा के एक मित्र अख्तर भाई पटना से जब भी दिल्ली आते तो उनसे खूब गप्प लगती. साजिद भाई के यहाँ आल इंडिया रेडियो में उर्दू के समाचार पढ़ने वाले जावेद भाई आते, उनसे भी बहुत पटती. उदयपुर में काम से गया तो पापा की ही एक पुरानी साथी के घर पर रुका. तब यह नहीं सोचना पड़ा था कि वह मुसलमान परिवार है.

आज भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बहुत से मुस्लिम मित्र हैं. कहने का अर्थ यह है कि सामान्य, प्रगतीवादी मुसलमान समाज से अनजान नहीं हूँ मैं, पर अगर यह कहूँ कि मुस्लिम कट्टरवाद से डर नहीं लगता, तो झूठ होगा. शायद यह कहना ठीक होगा कि हर कट्टरवाद से डर लगता है और पिछले सालों में मुस्लिम कट्टरवाद सबसे अधिक समाचारों मे आया है, इसलिए उससे कुछ अधिक डर लगता है.

बचपन में ही नानी से विभाजन के समय की पाकिस्तान का घर छोड़ने और उस समय के खून खराबे की बातें भी सुनीं थीं और उनके अंदर बसे मुसलमानों के विरुद्ध जमे रोष को भी महसूस किया था, पर तब इस तरह का डर नहीं लगता था. यह डर पिछले दस पंद्रह सालों में ही आया है.

सामने कभी किसी कट्टरवादी से बातचीत नहीं हुई, तो यह डर कहाँ से आया? शायद समाचारों, पत्रिकाओं में जो छपता है और टेलीविजन पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रम यह डर बनाते और बढ़वाते हैं? सामान्य मुस्लिम जैसे बचपन के लोग जिन्हें मैं जानता था या आज के मु्स्लिम मित्र, वे याद क्यों नहीं आते जब मुसलमानों और कट्टरवादियों की बात होती है?

मेरे विचार में इसका एक कारण यह भी है कि आजकल कुछ भी बात हो, कोई भी विषय हो जिसका सम्बंध मुसलमान समाज से है, हर बार रुढ़िवादी मुल्ला टाईप के लोगों के ही आवाज़ ऊँची सुनाई देती है, सामान्य लोग जो अपने भविष्य, काम, पढ़ाई कि बात करते हों, जो आधुनिक हों, पढ़े लिखे हों, उनकी आवाज़ कहीं सुनने को नहीं मिलती.

यह बात नहीं कि अन्य धर्मों में कट्टरवादी नहीं, हिंदू, सिख और इसाई कट्टरवादी भी हैं,पर शायद अन्य धर्मों में बहुत से लोग विभिन्न विचार रखने वाले भी हैं, जिनकी आवाज़ दबती नहीं है. तो भारत के पंद्रह करोड़ से अधिक मुसलमानों में विकासवादी, साहिष्णुक लोगों की आवाज़ ही क्यों दब जाती है? शायद उन्हे डर है कि उनके बोलने से उन्हें खतरा होगा या फ़िर मीडिया वाले बिक्री बढ़ाने के लिए पुराने रुढ़ीवादी विचारों वालों को ही मुस्लिम समाज के सही प्रतिनिधि मानते हैं और केवल उनकी ही बात सुनते और छापते हैं? राजनीतिक नेताओं की "वोट के लिए कुछ भी करो, कुछ भी मान लो, बाँट दो लोगों को धर्म की, जाति की, भाषा की सीमाओं में" की नीति ने भी इसमें अपना योगदान दिया है.

कुछ महीने पहले विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक मीटिंग में मिस्र गया था. बात का विषय था विकलाँगता. देख कर बहुत हैरत हुई कि अधिकतर बोलने वालों ने कुरान का या खुदा का नाम ले कर बोलना प्रारम्भ किया. एक दो लोगों ने तो पहली स्लाईड में एक मस्जिद दिखाई. पिछले पाँच सालों में मैं इस तरह की मीटिंग में विश्व के विभिन्न कोनों में जा चुका हूँ पर यह पहली बार हुआ और सभा के विषय में धर्म के इस तरह घुसने से मन में थोड़ा डर सा लगा. सोचा कि दिल्ली के क्षेत्रीय विश्व स्वास्थ्य संगठन की किसी मीटिंग में इस तरह की बात होती तो हल्ला हो जाता.

कुछ महीने पहले दिल्ली में अपनी बड़ी दीदी से बात कर रहा था, बोलीं, "मुसलमान तो सभी कट्टर होते हैं, चाहे जितने भी पढ़े लिखे हों, बाकी सब धर्मों को नीचा ही मानते हैं." दीदी की बात सुन कर दंग रह गया. थोड़ी बहस की कोशिश की पर वह सुनने के लिए तैयार नहीं थीं. मेरी दीदी संकीर्ण विचारों वाली तो नहीं थीं, न ही हिंदू कट्टरपंथीं. उनकी बात सुन कर भी डर लगा. मैं नहीं मान सकता कि भारत के सभी पंद्रह करोड़ मुसलमान कट्टर हैं या पुराने रुढ़िवादी विचारों के हैं, पर अगर मेरी दीदी जैसे लोग इस तरह की बात सोच सकते हैं या सोचने लगे हैं, तो सचमुच चिंता की बात है.

बात केवल हिंदुओं या अन्य धर्मों की गलतफ़हमी दूर करने की नहीं बल्कि स्वयं पूरे मुस्लिम समाज के भविष्य की है. प्रगितिवादी, उदारवान, भविष्यमुखी मुसलमान विचारक ही यह काम कर सकते हैं कि उनकी आवाज़ ऊँचीं हो कर उनके समाज के विभिन्न विचारों को सबके सामने रख सके.

पिछले साल लंदन गया था तो बोलोनिया की भारतीय एसोसिशन वालों ने वहाँ से अलग अलग रंगों के गुलाल खरीद कर लाने की जिम्मेदारी सौंपी थी. गुलाल खोजते हुए साउथहाल पहुँच गया. कई दुकानों में गया पर नहीं मिला. एक दुकान में घुसा तो कुछ पूछने से पहले देखा कि एक वृद्ध सफ़ेद दाढ़ी वाले मुसलमान पुरुष थे. उन्हे देख कर बाहर निकल रहा था तो उन्होंने पीछे से आवाज़ दे कर पूछा, "क्या चाहिए?". हिचकिचा कर कहा कि गुलाल खोज रहा था. वह मुस्कुराए और मुझे बाहर ले आये, उँगली उठा कर इशारा कर के कहा, "वहाँ कोने वाली दुकान दिख रही है न, लिटिल इँडिया, वहाँ सब भगवान की मूर्तियाँ, गुलाल वगैरा मिल जायेगा." उन्हे धन्यवाद दे कर निकला तो मन में थोड़ा पश्चाताप हुआ. यह सोच कर ही कि वह मुसलमान हैं मैं उनसे गुलाल की बात करने को घबरा रहा था, यह भूल गया था कि बचपन में साजिद भाई के बच्चों ने भी मेरे साथ होली खेली थी.

इस तरह की सोच से जो किसी को जाने बिना, उसके धर्म के आधार पर ही उसके बारे में विचार बना लेती है, उससे भी डर लगता है.

शुक्रवार, जून 30, 2006

हिंदी के उपन्यासकार

रत्ना जी ने लिखा है कि मेरे लिखने के अन्दाज़ में उसे मेरी प्रिय लेखिका शिवानी की झलक दिखती है. शिवानी की कोई किताब पढ़े तो वर्षों बीत गये, पर उनके लिखने के तरीके की झलक मेरे लिखने में मिलती है, सोच कर बहुत खुशी हुई.

अपने मनपसंद हिंदी लेखकों के उपन्यास पढ़े तो अब यूँ ही साल गुजर जाते हैं क्योकि मेरे बहुत से प्रिय लेखक अब नहीं रहे या कम लिखते हैं. और नये लेखकों से मेरी जान पहचान कुछ कम है.

कुछ महीने पहले दिल्ली से गुज़रते समय मुझे डा. राँगेय राघव की एक अनपढ़ी किताब मिल गयी थी, "राह न रुकी" (भारतीय ज्ञानपीठ, पहला संस्करण, 2005).

आजकल उपन्यास पढ़ना कम हो गया है और कभी पढ़ने बैठूँ भी तो रुक रुक कर ही पढ़ पाता हूँ, एक बार में नहीं पढ़ा जाता. पर मई में जेनेवा जा रहा था, "राह न रुकी" सुबह पढ़ना शुरु किया और पूरा पढ़ कर ही रुका. इस उपन्यास में उन्होने जैन धर्म के सिद्धातों का विवेचन किया है चंदनबाला नाम की जैन संत के जीवन के माध्यम से. भगवान बुद्ध का जीवन और उनका संदेश के बारे में तो पहले से काफी कुछ जानता था पर कई जैन मित्र होने के बावजूद भगवान महावीर के बारे में बहुत कम जानता था, शायद इसीलिए यह उपन्यास मुझे बहुत रोचक लगा और जब पढ़ कर रुका तो सोचा था कि भगवान महावीर के बारे में और भी पढ़ना चाहिए.

मुझे ऐसे ही उपन्यास आजकल भाते हैं जिनमें रोचक कथा के साथ सोचने को नया कुछ भी मिले. इसी से सोचने लगा कौन थे मेरे प्रिय हिंदी के उपन्यासकार?

सबसे पहले, बहुत बचपन में जब पराग, चंदामामा और नंनद पढ़ने के दिन थे, तभी से उपन्यास पढ़ने का चस्का लग गया था मुझे. घर में पैसे कि चाहे जितनी तंगी हो, उपन्यासों की तंगी कभी नहीं लगी. पापा के पास आलोचना के लिए नये उपन्यास आते रहते थे और जब घर में नई किताब न मिले तो दिल्ली पब्लिक लायब्रेरी से मिल ही जाती थी.

जो पहला नाम मन में आता है वह है सोमा वीरा का, जिनकी एक कहानियों की किताब "धरती की बेटी" (आत्माराम एंड सन्स, दिल्ली, 1962) आज भी मेरे पास है. यह पहली किताब थी जो आठ का साल का था, तब पढ़ी थी. उन्होंने अन्य कुछ लिखा या नहीं मालूम नहीं.



उन्हीं दिनो के अन्य नाम जो आज भी याद हैं उनमे थे राँगेय राघव, किशन चंदर, नानक सिंह, और जाने कितने नाम जो आज भूल गये हैं. किशन चंदर की "सितारों से आगे" और आचार्य चतुरसेन की "वैशाली की नगरवधु" बचपन की सबसे प्रिय पुस्तकों मे से थी. धर्मयुग और साप्ताहिक हिंदुस्तान से जान पहचान हुई शिवानी, महरुन्निसा परवेज़, बिमल मित्र, मन्नु भँडारी, धर्मवीर भारती जैसे लेखकों से. बँगला लेखकों से मुझे विषेश प्यार था, लायब्रेरी से किताबें ले कर बिमल मित्र, आशा पूर्णा देवी, शरतचंद्र, बँकिमचंद्र चैटर्जी, सुनील गंगोपाध्याय और असिमया के बीरेंद्र कुमार भट्टाचार्य जैसे लेखको को बहुत पढ़ा.

किशोरावस्था तक आते आते, अँग्रेजी की किताबें पढ़ना शुरु कर दिया था और धीरे धीरे हिदी में उपन्यास पढ़ना बहुत कम हो गया. आजकल कभी कोई इक्का दुक्का किताब पढ़ लेता हूँ पर श्रीलाल शुक्ल, पंकज विष्ट, दिनकर जोशी, अजीत कौर, मैत्रयी पुष्प, अलका सराओगी जैसे कुछ नाम छोड़ कर आज कल के नये लेखकों के बारे में बहुत कम मालूम है.

हिंदी छूटी तो उसके बदले में जर्मन को छोड़ कर बाकी सभी यूरोपीय भाषाओं मे पढ़ना शुरु हो गया था. ब्राजील के कई लेखक मुझे बहुत प्रिय हैं.

इसलिए पिछले साल हिंदी का चिट्ठा शुरु करने से पहले, हँस पत्रिका को छोड़ कर हिंदी में नया कुछ पढ़ना तो लगभग समाप्त ही हो गया था. अब चिट्ठे के माध्यम से ही दोबारा हिंदी पढ़ने की इच्छा जागी है इसलिए जब भी भारत जाने का मौका मिलता है, हिंदी की किताबें ढूँढना शुरु कर दिया है. पर नयी किताबें ढूँढने के बजाय, मन वही पुरानी किताबें खोजना चाहता है जिनकी यादें अपने अंदर अभी भी बसीं हैं.

मंगलवार, जून 27, 2006

कुछ इधर उधर की

पुरस्कार के साथ साथ "सबसे सक्रिय हिंदी चिट्ठाकार" की पदवी पाने का पढ़ कर अचरज भी हुआ, खुशी भी. जिसने भी मेरे चिट्ठे को इस योग्य समझा, उन सब को धन्यवाद.
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लिखनेवाले के लिए सबसे बड़ी सुख होता है उसे पढ़नेवालों की राय जानना. इस दृष्टि से चिट्ठा लिखना, लेखन की अन्य सभी विधाओं से बेहतर है क्योंकि पढ़ने वाले चाहें तो सीधा ही उसपर अपनी राय दे सकते हैं.

बचपन में हिंदी लेखिका शिवानी मुझे बहुत पसंद थीं, पर उनसे कभी सीधा कोई सम्पर्क नहीं हुआ. फ़िर कुछ वर्ष पहले छोटी बहन से सुना कि अमरीका में शिवानी जी उसके ही क्लिनिक में साथ काम करने वाले एक डाक्टर की सम्बंधीं हैं और उनके घर पर ठहरीं हैं. लगा कि हाँ, अपने प्रिय लेखक से सम्पर्क हो सकता है पर इससे कुछ समय बाद ही मालूम चला कि शिवानी जी नहीं रहीं.

फ़िर अचानक पिछले वर्ष अमरीका से शिवानी जी के पुत्र का संदेश मिला. उन्होंने कल्पना पर शिवानी जी के बारे में मेरा लिखा पढ़ा था जो उन्हे अच्छा लगा था. लगा जैसे कोई पूजा थी, जिसके लिए मुझे वरदान मिल गया हो.
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मैंने अपनी एक इतालवी मित्र को अपनी नई लाल मेज़ और अलमारी के बनाने की कठिनाईओं के बारे में बताया और लिखा कि यह अलमारी मेरे लिए ताजमहल जैसी है.

मेरी मित्र ने मुझे उत्तर में लिखा है, "मैंने शब्दकोश में ढूँढा, वहाँ लिखा है कि ताजमहल मुगल भवन निर्माण कला का उच्च उदाहरण है जिसे एक राजा ने अपनी रानी की कब्र के लिए बनवाया था, समझ नहीं आया कि इसका तुम्हारी मेज से क्या सम्बंध हो सकता है, ज़रा ठीक से समझाओ ?"
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आज कल वर्ल्डकप के दिन हैं. जिस दिन इटली का कोई खेल होता है, उस समय सड़कें ऐसे खाली हो जाती हैं जैसे भारत में क्रिकेट के मैच के दौरान होता है, जब भारत खेल रहा हो. हर तरफ सड़कों और घरों पर इटली के झँडे दिखाई देते हैं. जब लगे कि कोई गोल होने वाला है तो हर ओर से ऐसी ध्वनि उठती है जो दूर से सुनाई देती है, और फ़िर अगर गोल हो जाये तो बादलों की गरज जैसी बन जाती है.

कल दोपहर को इटली और आस्ट्रेलिया का मैच था. हर तरफ सन्नाटा था. पर वह गूँजने वाली ध्वनि नहीं थी हर तरफं. जो दिखता, कुछ परेशान सा दिखता. अंतिम मिनट तक वह सन्नाटा रहा फ़िर आखिर जब गोल हुआ तो वह सन्नाटा टूटा. यानि कि अब अगले मैच का इंतज़ार है.

मैंने स्वयं कभी कोई फुटबाल का मैच टेलीविजन पर पूरा नहीं देखा, सिवाय एक बार, 1982 में जब इटली ने वर्ल्डकप जीता था. उस रात का पागलपन अभी तक याद है. उत्तरी इटली के एक छोटे से शहर में रहते थे और लगता था कि सारा शहर सड़कों पर निकल आया था, नाचने गाने के लिए.

अगर बार बार जीत होती रहे तो शायद उत्साह कम हो जाये पर जब कभी कभार हो तो आनंद दुगना हो जाता है.

मुझसे मेरे कुछ इतालवी मित्रों ने पूछा कि अगर फाइनल का मुकाबला इटली और भारत के बीच हो तो मैं किसकी जीत चाहूँगा ? मैंने कहा कि इटली में किसी को क्रिकेट का नाम भी ठीक से नहीं आता, भला फाईनल में साथ कैसे मुकाबला हो सकता है ? वह बोले, नहीं कल्पना करो कि फुटबाल में अगर ऐसा हो तो ?

तब सोच कर मैंने कहा, सच में चाहूँगा कि भारत जीते, क्योंकि कुछ भी हो मन से सबसे पहले भारतीय ही हूँ. पर इससे एक और फायदा यह होगा कि हम लोग क्रिकेट के अलावा अन्य खेलों के बारे में भी सोचेंगे, पर अगर भारत न भी जीता तो उतना दुख नहीं होगा क्योंकि यह मुकाबला तो माँ पिता का मुकाबले की तरह हुआ, एक तरफ वह देश है जिसने जन्म दिया, दूसरी ओर ससुराल का देश है.



सोमवार, जून 26, 2006

शक्तिवान का भय

कल टेलीविजन में फ़िर से गाज़ा में घुसते इज़राईली टैंकों को देख कर झुरझुरी सी आ गयी. भारत में समाचारों में कभी पालिस्तानियों का नाम नहीं आता था पर यहाँ तो शायद ही कोई दिन होता है जब वहाँ कि किसी बमबारी या बम विस्फोट का समाचार न हो. अभी कुछ दिन पहले गाज़ा के समुद्र तट पर इज़राईली मिसाइल से मरे लोगों की तस्वीरों में पिता की लाश के पास खड़ी ग्यारह वर्ष की रोती हुई लड़की मन को छू गयी थी, पर अधिकतर तो ऐसी तस्वीरों को देखने की आदत सी हो गयी है.

ईंट का जवाब पत्थर से दो, यह है इज़राईल की आतंकवाद से लड़ने की नीति. पालिस्तीनी हमास के या अन्य दलों के लोग बम फैंकें या फ़िर नवजवान लड़के स्वयं को इज़राईलियों की भीड़ में बम से उड़ा दें, तो इज़राईली बम और मिसाईल उसी दिन या अगले दिन अपना काम करते हैं. मरने वालों के आँकणे देखें तो हर मरने वाले इज़राईली के बदले में कम से कम तीन पालिस्तीनी मरना चाहिये, ऐसा लगता है.

ताकतवर अपनी ताकत से जितना कुछ कर सकता है, चाहे वह जायज हो या नाजायज, सब कुछ कर रहा है. जहाँ पालिस्तीनी रहते हें, इनके घरों के बीच ऊँची जेल जैसी दीवार खड़ी गयी है ताकि पालिस्तीनी बाहर न निकल सकें. कुछ वर्ष पहले पालिस्तान में संयुक्त राष्ट्र की तरफ से काम करने गये मेरे इतालवी मित्र आँजेलो ने जेनिन के शरणार्थी कैम्प में हुए इज़राईली हमलों के बारे में वह बातें बतायीं थीं, जिनको सोच कर ही काँप उठता हूँ.

स्वयं को स्वतंत्र कहने वाले समाचार पत्र और टेलीविज़न अपने शरीर पर बम बाँध कर स्वयं को उड़ा देने वालों को तो आतंकवादी कहते हैं पर निहत्थी जनता पर मिसाइल और टैंक चलाने वालों को आत्मरक्षा कहते हैं.

जब सुनता हूँ कि भारत को इज़राईल से सीखना चाहिये कि कैसे मुस्लिम आतंकवाद से लड़ें तो लगता है कि शायद यह कहने वाले किसी और दुनिया में रहते हैं. यह आतंकवाद से लड़ाई है या आतंकवाद को बढ़ावा देने का तरीका ? अन्याय से आतंकवाद समाप्त होगा या उससे नये आतंकवाद के बीज बोये जायेंगे ?

पर आज कुछ भी बात खुल कर पाना कठिन है. अगर आप पालिस्तीन में होने वाले के बारे में कुछ भी कहते हैं तो इसका अर्थ है कि आप यहूदियों के विरुद्ध हैं, पालिस्तानी आतंकवादियों के विरुद्ध बोलें तो इसका अर्थ बन जाता है कि आप मुस्लिम विरोधी हैं.
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मेरे मन में बचपन से ही इज़राईल के लिए बहुत आकर्षण था. द्वितीय विश्व महायुद्ध में हुए यहुदियों के नरसंहार की कहानियों में और उनके अन्याय और शोषण से लड़ने की कहानियों में मेरी बहुत दिलचस्पी थी. उस विषय पर कोई भी किताब देखता तो उसे अवश्य पढ़ता. मन में सोचता था कि शायद पिछले जन्म में मैं भी किसी कंसनट्रेशन कैम्प में मरने वाला यहूदी रहा हूँगा. इज़राईल की रेगिस्तान में प्रकृति से लड़ कर खेती बनाने के बारे में भी पढ़ना बहुत अच्छा लगता था. सोचता था कि यूरोप में 40 लाख यहूदियों के बलिदान से मानव जाति के खून की प्यास मिट गयी होगी और दोबारा ऐसे पाप कभी नहीं होंगे.

उन्हीं कंसनट्रेशन कैम्पों के कुछ वशंज डर से एक दिन अत्याचार करने वालों जैसे बन जायेंगे यह नहीं सोचा था. मेरे कुछ यहूदी मित्र हैं जो इस बात को मानते हैं. सारे इज़राईली ऐसा सोचते हों कि दमन ही बुराई से लड़ने का एकमात्र तरीका है यह बात नहीं पर इतने भयभीत इज़राईली तो हैं जो बार बार कट्टरपंथी सरकार को चुनते हैं, जोकि यह सोचते हैं.

हिटलर की सरकार के पास कितनी शक्ति थी, जो चाहते थे वह किया उन्होनें, भट्टियाँ बनाईं जिनमें हजारों निरीह बच्चों, बड़ों को झौंक दिया, पर कितनों को मार पाये, 30 या 40 लाख को, पर क्या अन्याय से लड़ने वाले यहूदी समाज को समाप्त कर पाये ? उस नरसंहार के घाव लिये, यहूदी समाज ने कितनी तरक्की की है, पर मन से भय को नहीं निकाल पाया. यही भय है जो उसे अन्याय के रास्ते पर चलने से नहीं रोक पाता.

मैं मानता हूँ कि केवल बातचीत से, समझोते से ही समस्याएँ हल हो सकती हैं, युद्ध से, बमो से नहीं. अगर एक आँख के बदले दो आँखें लेने की नीति चलेगी तो एक दिन सारा संसार अँधा हो जायेगा.

रविवार, जून 25, 2006

हमारा इतिहास

एक दोहा खोजने के लिए रामायण निकाली तो नजर उसके प्रारम्भ में दी गयी तुलसीदास जी की जीवनी पर पड़ी. इसमें लिखा था, "तुलसीदास जी का जन्म संवत 1554 ई. में बाँदा जिले में राजापुर ग्राम में हुआ था ... चल कर वे प्रयाग होते हुए काशी आये और वहाँ रामकथा कहने लगे. उन्हें एक प्रेत मिला, उसने उन्हें हनुमान जी का पता बताया. हनुमान जी से मिल कर तुलसीदास जी ने अपनी श्रीराम दर्शन की अभिलाषा पूरी करने पूर्ण करने का प्रयत्न किया ..."

रामायण प्रेस द्वारा मुम्बई में 1999 में छपी इस रामायण को पढ़ कर सोच रहा था कि संवत 1554 का अर्थ हुआ कि तुलसीदास जी आधुनिक कैलेण्डर के हिसाब से सन 1497 में हुआ, यानि आज से करीब 500 वर्ष पहले.

स्वामी शिवानंद जी ने भी तुलसीदास जी की जीवनी लिखी है, उनके अनुसार तुलसीदास जी का जन्म संवत 1589 यानि सन 1532 में हुआ था. शिवानंद जी अधिक विस्तार से बताते हैं कि उन्हें एक पेड़ पर से एक प्रेत मिला था जिसने उन्हें हनुमान जी से मिलने का रास्ता बताया. उसने कहा कि एक हनुमान मंदिर में हनुमान जी एक कुष्ठ रोगी का रुप धारण करके रामायण का पाठ सुनने आते हैं.

अंतरजाल पर तुलसीदास जी के बारे में खोजने से पाया एक जगह लिखा है कि उनकी पत्नी का नाम बुद्धिमति था, दूसरी जगह लिखा है कि पत्नि का नाम रत्नावलि था.

सन 1497 में इटली के फ्लोरेंस शहर में सावानारोला नामक पादरी ने "पाप पूर्ण और धर्मविरुद्ध" कह कर हजारों पुस्तकों को जला दिया था. इसी सन में पोर्तगाल के वास्को देगामा भारत की यात्रा की ओर रवाना हुए थे. सन 1532 में माकि्यावैली की प्रसिद्ध पुस्तक "राजकुमार" उनकी मृत्यु के पाँच वर्ष बाद प्रकाशित हुई थी.

इनके अलावा उन सालों मे हुई हजारों घटनाओं का पश्चिमी देशों में तस्वीरें, चित्र, दस्तावेज इत्यादि आसानी से मिल जाते हैं. मेरे घर के पास एक छोटा सा नाला बहता है, और हमारे इलाके के गिरजाघर में दस्तावेज हैं जिनमें इस नाले के 1463 में बनवाये जाने की पूरी जानकारी है. एक बार फ्लोरेंस में एक पुराने अनाथआश्रम में 800 साल पुराने रजिस्टर देखे थे जिनमें बताया गया था कि किस साल उन्होने चद्दर कपड़े आदि खरीदने और धुलवाने में कितना खर्चा किया, किस दिन धोबी कपड़े ले कर गया, किस दिन वापस लाया, इत्यादि.


तो इस अंतर के बारे में सोच रहा था. तुलसीदास जी जैसे प्रसिद्ध और हिंदूँओं के लिए पूजनीय व्यक्तित्व के बारे में ठीक से कुछ इतिहासिक जानकारी उपलब्ध नहीं है जबकि यहाँ अनाथाआश्रम के कपड़ों तक की जानकारी है. क्या कारण हैं इस अंतर के ? क्या हमारी भारतीय दृष्टी इतिहास को "वैज्ञानिक" तरीके से नहीं देख पाती ? क्या तुलसीदास जैसे व्यक्ति के पूरे दस्तावेज नहीं सँभाल कर रखे गये ? क्या भारतीय सोच का तरीका माया के दर्शन से प्रभावित हो कर सच और कल्पना में अंतर नहीं कर पाता और इसलिए "प्रमाणित इतिहास" को बनाये रखने में असफल रहता है ?

यह बात तो मन में थी ही, आज आऊटलुक पत्रिका पर 1857 की क्राँती के बारे में अँग्रेजी लेखक और इतिहासकार विलियम डारलिम्पल का लम्बा लेख पढ़ा. वे कहते हें कि 1960-70 में मार्क्सवादी इतिहासकारों ने इस क्राँती को अँग्रेजों के आर्थिक शोषण के विरुद्ध उठे रोष की दृष्टि से समझाया है जोकि अँग्रेजी इतिहासकारों के छोड़े दस्तावेजों के आधार पर कहा गया था. डारलिम्पल ने अपने साथियों के द्वारा इस समय के बहुत से उर्दू और फारसी में लिखे दस्तावेजों के अनुवाद के आधार पर इस क्राँती के कारणों में धर्म और अन्य विषयों पर नया प्रकाश डालते हैं.

इसी लेख में डारलिम्पल लिखते हैं, "मेरा दिल टूट जाता है जब मैं कभी अपने मनपसंद प्राचीन भवन को देखने दोबारा जाता हूँ और पाता हूँ कि वह किसी झोपड़पट्टी के नीचे दब गया है या फिर भारतीय पुरातत्व विभाग द्वारा भद्दे तरीके से ठीक किया गया है या फिर उसे तोड़ दिया गया है. पुरानी दिल्ली की 99 प्रतिशत भव्य मुगल हवेलियाँ नष्ट कर दी गयीं हैं और शहर की प्राचीन दीवारों की तरह, लोगों की यादाश्त से गुम हो गयीं हैं. इतिहासकार पवन वर्मा के अनुसार, उनकी केवल दस वर्ष पहले लिखी पुस्तक संध्यावेला में भवन (Mansions at Dusk) में जिन हवेलियों की बात की गयी थी उनमें से अधिकाँश आज नहीं हैं... जो भी हो, दिल्ली जो खो रही है वह दोबारा नहीं बन पायेगा और हमारे आने वाले युग अपनी धरोहरों को ठीक से न बचा पाने को गहरे दुख से देखेंगे."

शायद इसकी भी एक वजह यही है कि हमारा इतिहास के बारे में सोचना, पश्चिमी सोच से भिन्न है ? भारत में ही यह हो रहा है ऐसा नहीं है. कुछ दिन पहले काठमाँडू में भी, पुराने नक्काशीदार जाली वाले घरों की जगह पर नये सीमेंट के घर देख कर मुझे भी ऐसा ही दुख हुआ था.




शनिवार, जून 24, 2006

अभिनय का शौक?

अगर आप को अभिनय का शौक है, आप इटली में रहते हैं और अच्छी इतालवी भाषा बोलते हैं तो मुझसे तुरंत सम्पर्क कीजिये. इतालवी राष्ट्रीय टेलीविज़न के लिए एक सिरीयल में कुछ भारतीय अभिनेताओं की आवश्यकता है और उन्होने मुझसे सहायता माँगी है. अगर आप किसी ऐसे व्यक्ति को जानते हैं जिसको इसमें दिलचस्पी हो सकती है तो उसे मुझसे इस ब्लाग के माध्यम से या कल्पना पर दिये गये मेरे ईमेल के पते से संपर्क करने के लिए कहिये. अंतिम तारीख 30 जून 2006.

गुरुवार, जून 22, 2006

एक अधूरा ताजमहल

मेरे हाथ डबलरोटी की तरह फूल गये हैं. क्मप्यूटर के कीबोर्ड पर उँगलियाँ चलाते हुए लगता है मानो जोड़ों के दर्द की बीमारी का पुराना रोगी हूँ. यह सब हाथों की मेहनत का कमाल है.

कई सालों से मन में अपनी छवि सी थी ऐसे मानव की जिससे दिमागी चाहे जितने काम करवा लीजिये पर हाथों से कुछ करने के लिए न कहिए. "अरे भाई तुमसे तो एक कील भी सीधा नहीं लगता", "यह कैसी टेढ़ी लकीर लगाई है श्रीमान जी, बँगाल की खाड़ी का नक्शा लगता है" जैसी बातें सुन सुन कर, मन में पक्का हो गया था कि जो काम ठीक से न करना आये, उसे न करने में ही भला है. सोचता कि दुनिया में कुछ लोग हाथ से मेहनत मजदूरी करते हैं और दूसरे कुछ लोग दिमाग से वह मेहनत करते है, और मैं उन दूसरों मे से हूँ.

इसलिए जब भी कभी कुछ "सचमुच" का काम करने की बात आती है, मैं अक्सर चुप ही रहता हूँ या फ़िर करीब खड़े हो कर सलाह देने की जिम्मेदारी निभाता हूँ.

जब अचानक क्मप्यूटर वाली मेज की एक टाँग को हिलते हुए महसूस किया तो तुरंत श्रीमति जी को आवाज लगाई. उन्होंने सलाह दी कि मेज खतरनाक हालत में था और उसे जल्दी से जल्दी बदलना ही बेहतर होगा. किसी लकड़ी के काम वाले को बुला कर मेज की टाँग करवाने का तो यहाँ सवाल ही नहीं उठता, उतने में तो दो मेज नये खरीद ले सकते हैं. तो श्रीमति के साथ हम मशहूर सुपरमार्किट इकेआ (IKEA) गये जहाँ स्वीडन में बना फर्नीचर बिकता है. "यह लाल रंग की मेज अच्छी रहेगी, उपर अलमारी भी है, उसमें कुछ किताबें भी आ जायेंगी", हमने कहा.

सुपरमार्किट वाली ने बताया कि वह मेज खुले टुकड़ों में मिलती है, जिन्हे जोड़ कर, नट, बोल्ट, कील लगा कर तैयार करना पड़ेगा. साथ में यह भी कहा कि अगर हम यह मेज स्वयं ही तैयार करना चाहें तो तुरंत मिल सकती है पर अगर यह चाहे कि सुपरमार्किट वाला आदमी घर आ कर उसे बनाये तो करीब दस दिन प्रतीक्षा करनी पड़ेगी. उसके लिए 20 प्रतिशत अलग देना पड़ेगा, यानि 340 यूरो की मेज पर 80 यूरो बनवाई और पूरा खर्च हुआ 420 यूरो का.

श्रीमति जी बोलीं कि दस दिन इंतज़ार करने में ही भलाई थी, क्योंकि उनके पास तो और बहुत से काम थे, और मेज देखने में सरल नहीं लगता था. ताव आ गया हमें. अरे एक मेज ही तो जोड़ कर बनाना है, सब टुकड़े तो बने ही हैं, उनमें सब छेद बने हैं, छोटी सी किताब में सब समझाया हुआ है कि कौन सा नट, बोल्ट और कील कहाँ लगेगा, इतना कठिन नहीं होगा, मैं स्वयं ही कर लूँगा.

परसों सुबह से जो लगे मेज बनाने, रात के साढ़े दस बज गये. भरतनाट्यम देखने जाना था, वह भी रह गया. हाथों का बुरा हाल था और मेज थी कि ठीक से जम कर ही नहीं देती. उसकी टाँगे टेढ़ी सी लगती थीं. कल रात को काम से लौट कर मेज पूरी कर रहा था कि आखिरकार श्रीमति जो मुझ पर तरस आ गया, बोलीं, "अभी रहने दो ऐसे ही, कल शाम को घर लौटोगे तो तुम्हारे साथ मिल कर इसे पूरा करने की कोशिश करेंगे."

एक बात तो है कि मेहनत के बाद नींद बहुत अच्छी आती है. साथ ही यह समझ भी आ गया कि शारीरिक मेहनत करने वाले के लिए लिखना पढ़ना आसान नहीं, जब सारा शरीर थकान और दर्द से भरा हो तो किताब हाथ में लेते ही, आँखें बंद सी होने लगती हैं.

खैर मेरी स्टडी में खड़ा यह अधूरा मेज लगता है कि यह मेज न हो, एक ताजमहल हो. पसीने के साथ साथ, रक्त की कुछ बूँदें भी इसके लाल रंग में मिली हैं. जब तक यह मेज रहेगी, दोबारा मेहनत का काम ढूढने से पहले, सौ बार सोचूँगा.

मंगलवार, जून 20, 2006

लाल सलाम

कलकत्ता, सन १९७०. रात को टेलीफोन की घँटी बजती है. सुजाता चैटर्जी उठ कर टेलीफोन उठाती है तो कोई उससे काँतीपोखर आ कर अपने बेटे ब्रती चैट्रजी की पहचान करने के लिए कहता है. सुजाता समझ नहीं पाती कि क्यों उसके पति, उसका बड़ा बेटा, इस समाचार से चिंतित हो जाते हैं और पुलीस में जान पहचान ढूँढते हैं कि मामला दबा दिया जाये. दिव्यानाथ चैटर्जी, ब्रती के पिता काँतीपोखर अपनी कार में नहीं जाना चाहते, क्योंकि कोई उनकी कार को न पहचान ले. अंत में सुजाता ही जाती है बेटे की पहचान करने. एक कमरे में फर्श पर कपड़े से ढकी पाँच लाशे पड़ीं हैं, कोने में दो तीन लोग स्तब्ध से बैठे हैं. उनमें से एक लाश है उसके बेटे की, पाँव के अँगूठे पर लाश का नम्बर बँधा है, १०८४. पुलीस उसे लाश देने से इंकार कर देती है और सुजाता बेटे के साथ अन्य चार लाशों का दहन देखती है.

इस तरह शुरु होती है गोविंद निहलानी की फिल्म "हजार चौरासी की माँ".

कहानी है मध्यवर्गी, प्रौढ़ सुजाता चैटर्जी की. उसके अपराध बोध की कि अपने पेट के जने बेटे की चीत्कार नहीं सुन पायी, घर में साथ रहने वाले बेटे की केवल हँसी देख सकी, वह क्या कर रहा है, कहाँ जाता है, किसके साथ रहता है, क्या सोचता है, कुछ नहीं देख पायी. अपने आसपास देखती है तो पाती है कि उसके समाज में ब्रती खूँखार अपराधी की तरह देखा जाता है, जिसको जल्दी से जल्दी भूल जाना ही बेहतर है, मानो वह कभी उस घर में रहा ही नहीं. पर सुजाता स्वयं को रोक नहीं पाती, एक एक करके वह ब्रती के साथियों को खोजती है, उनके परिवारों से मिलती है, यह जाने की कोशिश करती है कि क्यों उसका बेटा नक्सलबाड़ी के आंदोलन का सपना देखता था. इस खोज में वह समाज में व्याप्त सामाजिक विषमताओं को भी समझती है और स्वयं अपने मध्यमवर्गीय जीवन के अंतरनिहित झूठ को जो बाह्य समाज के सामने ढकोसला है, जिसमें वह केवल अपने पति की पायदान है, उसका अपना कोई व्यक्तित्व नहीं है.

महाश्वेता देवी द्वारा लिखित इसी नाम के उपन्यास पर लिखी फिल्म का कथानक राजनीतिक है, सुजाता की कहानी के द्वारा लेखिका ने नक्सलबाड़ी और नक्सल आंदोलन की जड़ों के कारणों का विवेचन किया है. फिल्म के निर्माता, निर्देशक और फोटोग्राफर हें गोविंद निहलानी.



फिल्म में जया भादुड़ी, सीमा विश्वास, नंदिता दास जैसी जानी मानी अभिनेत्रियाँ हैं. ब्रती का भाग निभाया है नये अभिनेता जोय सेनगुप्ता ने और नंदिता दास बनी हैं बर्ती की सखी और आंदोलन में सहयोगी, नंदनी मित्रा. सीमा विश्वास हैं ब्रटी के साथ मरने वाले बिहारी सोमू की माँ. मिलिंद गुणाजी हें पुलीस अफसर.

फिल्म का वह हिस्सा जिसमें सीमा विश्वास मरने वाले पाँचों युवकों की कहानी सुनाती हैं और उनकी आखिरी रात के बारे में बताती हैं, बहुत सशक्त है और इस भाग में सीमा विश्वास से दृष्टि हटाना कठिन है. निश्चय ही वह भारत की सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्रियों में से हैं.

नंदिता दास वाला हिस्सा मुझे कुछ कमज़ोर लगा. नक्सलवाद के कारण बताना और आंदोलन करने वालों का माओ, मार्क्स आदि से प्रेरणा पाना, पार्टी का संचलन, आदि समझाना, कुछ किताबी सा लगता है, शब्दों पर निर्भर और फिल्मी माध्यम की असली नींव, चित्रों की दृष्टि से कमज़ोर. नंदिता का अभिनय ठीक है और उनके व्यक्तित्व में वह लौह तत्व जो आंदोलन करने वाली लड़की में होना चाहिये, कुछ बनावटी सा लगा.



ब्रती के पिता के रुप में अनुपम खेर शुरु के हिस्सों मे तो ठीक लगे पर आखिरी हिस्से में जब उनका हृदयपरिवर्तन दिखाया गया है, कुछ कमजोर लगे.

पर यह फिल्म तो जया भादुड़ी की है. ब्रती की माँ के रुप में उनका अभिनय शायद इतना प्रभावशाली किसी फिल्म में नहीं रहा. मध्यमवर्गी प्रौढ़ा, जिसे कुछ समझ नहीं आ रहा, जिसकी आँखों में पीड़ा के साथ धीरे धीरे बेटे की समझ चमकती है, जिसमें आत्मसम्मान से जन्में विद्रोह का दीप जलता है, उनके अभिनय से जीवित हो जाती है.

सोमवार, जून 19, 2006

समयचक्र

कीर्ति-स्तम्भ नाम के लेख में हिंदी की लोकप्रिय लेखिका शिवानी ने लिखा थाः

"आजादी के बाद यदि हमने कुछ अंश में कुछ पाया भी है, तो खोया है उससे अधिक. हमारी संस्कृति धीरे धीरे हमारी मुट्ठियों से निकलती जा रही है और परायी संस्कृति के प्रति हमारी निष्ठा, हमारा मोह, हमारा ध्येय भावना को शिथिल करता जा रहा है. अतीत में हमारी सर्वोच्च निष्ठा धर्म के प्रति थी, इसे से हमारे पारंपरिक धर्मानुष्ठानों में हमारी संस्कृति भी अपने स्वाभाविक रुप में जीवंत थी... हमारी संस्कृति बनी रहे, अतीत के प्रति हमारी निष्ठा शिथिल न हो, इसके लिएआवश्यक है सदियों से प्रचलित हमारी ये प्रथा संस्थाएं बनी रहें. किंतु धीरे धीरे इन उत्सवों में भी अब न उत्साह रहा है न वह आकर्षण! हाथ में ट्राजिस्टर लिए ग्रामीणों की टोली अब न वह मीठे झोड़े गाती, न चांचरी! स्त्रियां अब सभ्य शिष्ट पर्दों की ओट से डोला देखती हैं, छतों पर उनके रुप की फुलझड़ी नायकों की टोली को नहीं गुदगुदा पाती. महिषों की भीड़ अब चमकीले तेल लगे सींग घुमाती झूलती झालती नहीं निकलती, कुमाऊं का ग्रामीण अब पूर्ण रुप से सभ्य हो चुका है, देवी यदि भैंसे की बलि न देने से अप्रसन्न होती है तो हुआ करें. यह मेले में धूम धाम, अब पहले की भांति तेल की जलेबियां नहीं खाता, वह अब खाता है छोले भटूरे. झोड़े, चांचड़ी, हुड़का में अब भला क्या रखा है! ट्रंजिस्टर खोलते ही तो लता कभी भी कानों में रसवृष्टि कर सकती है, फिर भला वह दुनाली पहाड़ी मुरली फूंकने में सांस क्यों फुलाए!"
आज अगर शायद शिवानी जी उस मेले में जा सकतीं तो पातीं कि ट्राजिस्टरों का जमाना जा रहा है. लता जी न जाने कहाँ खो गयीं. आजकल रिमिक्स का जमाना है, जिन्हें आप कान में नलकी लगा कर सुनिये, हर कोई अलग अलग, अपनी पसंद के एमपीथ्री सुन रहा है. छोले भटूरे तो पुराने हो गये, आज तो मोमो और हेमबर्गर का जमाना है. सदियों से एकांत में बढ़े, पनपे, हमारी धरती में अपनी जड़ें भीतर गहरे तक खोदने वाले हमारे रीति रिवाज आधुनिकता और विकास के रास्ते में अन्य रीति रिवाजों से घुल मिल गये हैं, इसमें मेरा तेरा सोचना केवल बूढों की नियती है जो बीते दिनों की यादों के पल्लू छोड़ नहीं पाते. आज बड़ी होने वाली पीढ़ी, कल जाने कौन सा संगीत सुनेगी और जाने क्या खायेगी, और मोमो तथा हेमबर्गरों को याद करके ठँडी सांसे भरेगी.

यही समयचक्र है, यही जीवनचक्र है.

सब बुरा ही हो, यह बात नहीं. पुराने, गुजरे कितने गीत, संगीत, लेखक, विचारक, जाने कहाँ गुम हो गये, कुछ निशान नहीं बचा उनका. आज सब कुछ संभाल कर चक्रडिस्क पर चढ़ाना अधिक आसान है, ताकि भविष्य के लिए यह धरोहर गुम न हो. पर भविष्य में किसके पास समय होगा कि धूल लगी अलमारियों में बंद इन चक्रडिस्कों को देखने या सुनने का ?

शनिवार, जून 17, 2006

मैं शिव हूँ

अक्सर मैं अपने चिट्ठे पर लिखी टिप्पणियाँ पढ़ने में देर कर देता हूँ. समय कम होता है और लिखने की, और दूसरे लोग क्या लिख रहे हैं, इसकी चिंता अधिक होती है, मेरे लिखे पर किसने क्या कहा, इसकी कम. पर कई बार टिप्पड़ियाँ पढ़ कर सोचता रह जाता हूँ. कई बार मालूम चलता है कि टिप्पणियों के माध्यम से थोड़ी बहस भी हो गयी और मैंने उस बहस में हिस्सा ही नहीं लिया. थोड़ी सी शर्म आती है कि इतनी दिलचिस्प बात हो रही थी जो मेरी बजह से शुरु हुई, जिसमें भाग नहीं लिया.

ऐसी ही टिप्पणी थी सृजनशिल्पी की जो उन्होंने मेरे कुछ दिन पहले के अंतरलैगिक (Transgender) चिट्ठे पर लिखी थी जिसे पढ़ कर सोचता रहा. उन्होंने लिखा था:
"हजारी प्रसाद द्विवेदी के उपन्यास वाणभट्ट की आत्मकथा में किसी व्यक्ति में पुरुष और स्त्री के द्वंद्व के संबंध में भारतीय दर्शन के दृष्टिकोण से प्रकाश डाला गया है, जिससे इस विषय के मनोविज्ञान को बेहतर ढंग से समझने में मदद मिलती है।"
मैं भी यह सोचता हूँ कि आजकल के भूमँडलीकरण के ज़माने में हम अक्सर बहुत से विषयों पर पश्चिमी विचारों को देवकथित सत्य वचन सा मान लेते हैं, जबकि हमारी अपनी सभ्यता में उस विषय पर, उससे भिन्न सोच थी, उसे भूल सा जाते हैं. मैं यह नहीं कहता कि हर विषय पर हमारी सोच या पश्चिमी सोच बेहतर या घटिया है, पर यह मानता हूँ कि भिन्न विचारों का होना मानव सभ्यता की धरोहर है और इस विभिन्नता को सम्भाल कर रखना चाहिये, खोने नहीं देना चाहिये.

जैसे कि नारीत्व (femminism) पर मानुषी पत्रिका की सम्पादक मधु किश्वर के विचार मुझे इसी लिए महत्वपूर्ण लगते हैं क्योंकि प्रचलित पश्चिमी विचारधारा से भिन्न अर्थ देते हैं.

अंतरलैंगिकी (Transgender) और यौन रुझान (sexual orientation) भी ऐसे ही विषय हैं जिनमें भारतीय दर्शन क्या कहता या सोचता है इस पर बहुत कुछ है जो खो सकता है और जिससे इन विषयों को समझने के नये अर्थ मिल सकते हैं. सृजनशिल्पी जी अगर हजारीप्रसाद द्विवेदी के उपन्यास में वर्णित दर्शन को समझा सकें तो अच्छा होगा.

उदाहरण के लिए, मेरे विचार में पश्चिमी प्रचलित सोच यौन रुझान को विषमलैंगिक (heterosexual) और समलैंगिक (homosexual) की श्रेणियाँ बना कर कैद कर देती है. यह श्रेणियाँ स्वयं पश्चिमी देशों में रहने वालों को अधूरी लगी, तो पिछले दो दशकों में इनमें एक नयी श्रेणी जुड़ गयी, द्विलैंगिक (Bisexual).

जबरदस्ती मानव यौन व्यवहार को श्रेणियों में बाँधना, शोध या चिंतन के लिए तो समझ आता है पर उसे सचमुच की बंद कैदघर की तरह सोचना मुझे लगता है कि बात को छोटा कर रहे हैं. अगर विषमलैंगिक, समलैंगिक और द्विलैंगिक को विभिन्न दिशाओं में बने कमरों की तरह सोचें तो मेरे विचार में विभिन्न मानव उन कमरों के बीच में, आगे पीछे, हर तरफ़ खड़े नज़र आयेंगे.

जब यौन रुझान की बात होती है तो इसे मानव को मापने वाला प्रथम या सबसे अधिक महत्वपूर्ण मापदँड मानना भी मुझे कुछ अजीब सा लगता है. इस विषय पर अपने कुछ इतालवी समलैगिक मित्रों से लम्बी बहस के बाद भी हम किसी निर्णय पर नहीं पहुँच सके. पर मुझे लगता है, भारत में समलैगिक लोग इसके बारे में क्या भिन्न सोचते होंगे ?

भारतीय दर्शन में शिव का अर्धनारीश्वर रुप मुझे इस विषय में हर मानव मन में साथ बसे पुरुष और स्त्री रुपों की बात करने का बेहतर तरीका लगता है.

किस संस्कृति में कौन सा रुप कितना बाहर आ सकता है यह उस संस्कृति की सामाजिक मान्यताओं पर निर्भर करता है. आज यहाँ इटली में पुरुष अक्सर छोटे बच्चों के साथ सुपरमार्किट में सामान खरीदते दिखाई देते हें, और यहाँ के लोग कहते हैं कि बीस साल पहले तक अधिकतर पुरुष ऐसा नहीं करते थे, क्योंकि छोटे बच्चे को उठा कर चलना पुरुष व्यक्तित्व के विरुद्ध माना जाता था.

जब पुरुषोचित व्यवहार के सामाजिक मापदँड बदल गये तो बाह्य व्यवहार भी बदल जाते हैं. कुछ दिन पहले फिल्म देखी थी जिसमें अभिनेता सैफ़ अपने मित्रों के साथ फिल्म देखने जाते हैं और कोई दृष्य देख कर रोते हैं, यह भी दस या बीस साल पहले पुरुषोचित व्यवहार नहीं माना जाता था. आज मेट्रोसेक्सूअल (metrosexual) पुरुष और स्त्री के लिए अपने भीतर छुपी स्त्री या पुरुष को स्वीकार करना अधिक आसान है!

शुक्रवार, जून 16, 2006

क्यों नहीं ?

"अंतर्राष्ट्रीय विकलाँग मानव" (Disabled Peoples International) के इतालवी प्रतिनिधि जाँपिएरो से बात कर रहा था. जाँपिएरो ने कहा, "विकलाँग लोगों के सामान्य जीवन अधिकारों का तो सदियों से उल्लँघन होता आया था पर तब उनमें इस अन्याय की चेतना नहीं थी. विकलाँग लोगों का घर से बाहर निकलना, अन्य विकलाँग लोगों से बात करना, कहीं आना जाना, आर्थिक दृष्टि से स्वतंत्र होना, आदि बहुत कठिन था. केवल द्वितीय विश्व महायुद्ध के आसपास जब उद्योगिक विकास से उत्तरी देशों की आर्थिक स्थिति मज़बूत हुई तो ऐसी संस्थाँए बनाई जाने लगीं जहाँ विकलाँग लोगों को अलग रखा जा सके और वह लोग आपस में मिलने जुलने लगे, एक दूसरे के जीवन अनुभव की बातें करने लगे. तब उन्हें पहली बार समझ में आया कि जिसे वह अपनी विकलाँगता की वजह से हुई कठिनाईयाँ समझते थे, वह उनकी विकलाँगता से नहीं, समाज की मानसिकता से जन्मी कठिनाईयाँ थीं और अगर वह सब मिल कर इस सामाजिक अन्याय और शोषण से लड़ें तो समाज बदल सकता है. अकेले मानव के शरीर के "नुक्स" देखने वाले मेडिकल कारणों की जगह उन्होंने विकलाँगता से सामाजिक कारणों की बात की."

इसी सोच की वजह से विकसित देशों में पटरी ऐसी बनाईये कि व्हील चेयर वाला व्यक्ति उसका इस्तमाल कर सके, सीढ़ियों के साथ लिफ्ट या रेम्प बनवाईये, मार्गदरशक बोर्ड ब्रेल में भी लिखिये, दूरदर्शन समाचार इशारों की भाषा में भी दिखाईये, जैसी बातें होनी लगीं.

जाँपिएरो की बात से मैं एक अन्य वर्ग की बात सोच रहा था जो शोषित है और जिसके मानव अधिकारों को सदियों से कुचला जाता है, दलित वर्ग. क्या हिंदी चिट्ठा जगत में दलित लेखक हैं और वह इस बारे में क्या सोचते हैं ?

ब्राज़ील और कीनिया जैसे देशों में गरीब इलाकों और झोपड़पट्टी में जाना बहुत कठिन है, वहाँ अगर आप अच्छे वस्त्र पहने हों तो आप को लूट लेने वाले बहुत मिल जायेंगे. कहते हैं कि वहाँ के गरीब वर्ग में सामाजिक विषमताओं के प्रति बहुत क्रोध है. जब गरीब, शोषित लोगों की हिंसा की बात होती है तो अक्सर मेरे मित्र मुझसे पूछते हैं कि तुम्हारे भारत में ऐसा क्यों नहीं होता ? क्यों वहाँ किसी गरीब कालोनी में तुम पर हमला नहीं करते, क्यों उनमें गुस्सा नहीं है? क्या कारण हैं इसके ?

मेरे कुछ विदेशी मित्रों का कहना है कि यह हिंदू धर्म की सोच की वजह से है, कि लोग कहते हैं, "किस्मत की बात है, पिछले जीवन में कोई पाप किया था उसकी सजा है". कुछ का कहना है कि अत्याचार से लड़ना चाहिये और अगर कोई धर्म तुम्हें अत्याचार से लड़ने के बजाय उसे स्वीकार करना सिखाता है और उसे तुम्हारी अपनी ही गलती बताता है तो वह धर्म गलत है.

मैं यह बात नहीं मानता. गरीब कालोनी में गुजरने वाले लोगों पर हमला कर या उन्हें लूटने से समाजिक विषमताँए नहीं बदलतीं. शायद हमें धर्म और प्रजातंत्र गरीब मन में यह आशा देता है कि मेहनत करके, कोशिश करके हम भी अपना जीवन बदल सकते हैं, जबकि हिंसा कुछ नहीं बदलती.
*****

कल की अतुल की टिप्पणी:

"पर मुद्दा यह है कि यह प्रसार होगा कैसे? गर इंटरनेट पर तीन सौ से बढ़कर तीन लाख
ब्लाग हो जायें उससे? कल कुछ हिंदी समाचार चैनल देख रहा था। एक छोटी सी घटना की
रिपोर्ट देने में कुल चार वाक्य बारह बार घुमाये गये, हर वाक्य के अस्सी प्रतिशत
शब्द अँग्रेजी के थे। यही हाल अभिनेताओं का है। बात सिर्फ इतनी नही कि ये लोग हिंदी
बोलने में शर्माते हैं, इन्हें ढँग से आती ही नही। "

पर सोच कर बताईये, क्या किया जा सकता है जिससे देश में अधिक चेतना आये कि अँग्रेज़ी जानने के साथ साथ हम अपनी भाषा पर गर्व कर सकें, उसे अच्छा समझना, बोलना बढ़ सके ?

गुरुवार, जून 15, 2006

अपनी भाषा

मैं इन दिनों अमरीकी पुलित्ज़र पुरस्कार से तीन बार सम्मानित पत्रकार थोमस फ्रीडमैन की पुस्तक The World is Flat (Thomas Friedman, दुनिया समतल है, Allen Lane publications, 2005) पढ़ रहा था. इस पुस्तक के अंत के करीब वह अब्राहम जोर्ज की बात बताते हैं. केरल में जन्मे, भारतीय सेना के अफसर रहे, फिर अमरीका जा कर वहाँ एक सोफ्टवेयर की कम्पनी खोली.

1998 में अब्राहम अमरीका में नौकरी छोड़ कर वापस भारत आये जहाँ उन्होंने बँगलौर के पास पत्रकारों को तैयार करने की संस्था बनायी क्योंकि उनका सोचना था कि भारत की उन्नति के लिए ज़िम्मेदार और स्वतंत्र पत्रकारों का होना बहुत आवश्यक है. साथ ही साथ, उन्होंने दलित बच्चों को पढ़ाने के लिए एक गाँव में एक विद्यालय भी खोला, शांति भवन.

फ्रीडमैन शांति भवन विद्यालय को देखने गये और उसके बारे में लिखते हैं कि कैसे सुंदर, स्वच्छ वातावरण में गरीब परिवारों के बच्चों को आम शिक्षा के साथ साथ, क्मप्यूटर आदि भी शुरु से ही सिखाया जाता है. फ़िर बताते हैं कि जिस दिन वह वहाँ गये, बच्चे केलिफोर्निया आचीवमैंट का इम्तहान दे रहे थे और विद्यालय की प्रिंसिपल श्रीमति लाव ने फ्रीडमैन से कहा, "हम इन्हें अँग्रेज़ी में शिक्षा देते हैं ताकि ये भारत में या विश्व में उच्च शिक्षा के लिए कहीं भी जा सकते हैं. हमारा उद्देश्य है कि बच्चों को उच्च स्तर की शिक्षा दें ताकि ये वैसे काम करने के सपने देख सकें जैसे इनके परिवारों में कभी नहीं देखे... यहाँ आसपास तो ये हमेशा दलित ही रहेंगे, अछूत माने जायेंगे. पर अगर ये यहाँ से दूर जा सकें, अच्छा बोलना सीखें, अभिजात्य तरीके से बात कर सकें, तो इस बंधन से मुक्त हो सकते हैं."

पढ़ कर सोच रहा कि यह बिल्कुल सच है. आप दूसरों से अच्छी अँग्रेज़ी में बात करेंगे तो भारतीय समाज में आप की इज़्ज़त करने वालों की कमी नहीं होगी. आप बहुत अच्छी हिंदी बोलते हों, या कन्नड़ या मलयालम पर अँग्रेज़ी न आती हो तो न तो कोई उच्च स्तर का काम मिलेगा, न ही इज़्ज़त. यह बात सब निम्न मध्य वर्गियों और गरीब लोगों को मालूम है और अँग्रेज़ी माध्यम के शिक्षा संस्थानों के कुकरमुत्तों की तरह फैलना का यही कारण है.

यह सोचना कि एक दिन मराठी, बँगाली या हिंदी जैसी भाषाएँ अपनी प्रतिष्ठा पायेंगी और अँग्रेज़ी की शान कुछ कम होगी, शायद ठीक सोचना नहीं है ? जैसा वातावरण है उसमें अँग्रेज़ी घटेगी नहीं, और भी तेज़ी से बढ़ेगी.

बात शायद "अँग्रेज़ी या भारतीय भाषाएँ" की नहीं "अँग्रेज़ी तथा भारतीय भाषाएँ" की होनी चाहिए ? बात यह नहीं हो कि हम कैसे अँग्रेज़ी हटा कर अपनी घर की भाषा को प्रमुखता दे, बल्कि यह हो कि, कैसे काम में और विश्व से जोड़ने में अँग्रेज़ी का इस्तमाल करने के साथ साथ, अपनी भाषा में, अपने साहित्य में, अपने इतिहास में, अपनी सभ्यता में, गर्व बढ़ा सकें ?

सोमवार, जून 12, 2006

पुराने कपड़े

गेंद छज्जे से उछल कर बाहर गिर गयी थी. झाँक कर नीचे देखा, तो उसे घर के सामने वाले गिरजाघर की दीवार पर लगी काँटों वाली तार के बीच में फँसा पाया. पहले गिरजाघर की दीवार पर वह तार नहीं थी पर कुछ महीने पहले कोई लोग रात को दीवार से चढ़ कर अंदर घुस गये थे और खिड़कियाँ तोड़ दी थी, तो उसके बाद वह तार लगा दी गयी थी.

गिरजाघर के पादरी का बेटा मेरे साथ खेलता था, और पादरी को मैं दोस्त के पिता की हैसियत से "अंकल जी" बुलाता था इसलिए बिना सोचे बोला, "अभी मैं ले कर आता हूँ गेंद को". गिरजाघर का गेट खुलवाने में कोई दिक्कत नहीं हुई. माली ने दीवार के पास सीड़ी लगा दी और मैं दीवार पर चढ़ गया. नुकीले काँटों से बचता हुआ तारों के बीच धीरे धीरे कदम रख कर मैं गेंद तक पहुँचा. नीचे झुक कर गेंद उठायी और जब उठ लगा तो चर्र सी आवाज़ सुनी. झुकते समय तार का एक नुकीला काँटा निक्कर में फँस गया था, जब सीधा हुआ तो उस तार ने निक्कर को चीर दिया था.

सुन्न सा रह गया मैं. माँ क्या कहेगी ? काँटे से जाँघ पर भी खरोंच आयी थी और खून बहने लगा था पर उसकी कुछ चिंता नहीं थी. चिंता थी तो निक्कर की. क्या होगा, सोचा. माँ परेशान हो जायेगी. दो ही तो निक्कर थी मेरे पास. उनमें से एक न पहनने वाली हो गयी तो काम कैसे चलेगा ? मालूम था कि उन दिनों पैसे की तंगी चल रही थी. पापा की तबियत ठीक नहीं थी.

कुछ दिन पहले ही दिल्ली पब्लिक लायब्रेरी में काम करने वाली एक औरत ने मुझे डाँट दिया था, बोली थी कि मेरी निक्कर बहुत छोटी और तंग थी, उसे पहन कर दोबारा लायब्रेरी गया तो वह मुझे घुसने नहीं देगी. बोली कि मैं बड़ा हो गया हूँ और अब मुझे आधी निक्कर नहीं पूरी पैंट पहननी चाहिये. फ़िर भी मैंने माँ को नहीं कहा था कि नयी निक्कर चाहिए. इसलिए फटी निक्कर ले कर डरता डरता घर वापस आया.
*****

अलमारी कपड़ों से भरी है और उसमें कपड़े रखने की जगह नहीं है. जब भी कोई नया कपड़ा खरीदता हूँ तो पत्नी कहती है, "अपने कपड़ों को ठीक से देखो, जो पुराने हैं, या फट गये हैं या ठीक से नहीं आते, उन्हें बाहर फैंको, तभी नये कपड़े लो, वरना अलमारी में कपड़ों की और जगह नहीं है."

पर मुझसे पुराने कपड़े नहीं फैंके जाते. "नहीं, यह कमीज़ नहीं, यह तो मुझे बहुत पसंद है. नहीं यह टीशर्ट नहीं, यह तो में रियो से खरीद कर लाया था, यह तो अभी बहुत अच्छी है", मैं कहता हूँ और पुराने कपड़े और चीज़ें फैंकना मेरे बस की बात नहीं. पत्नी ने भी अब सीख लिया कि अलमारी में जगह कैसे बनायी जाये. जब मैं घर में नहीं होता तो जो मन में आये वह दान में दे देती है.

कल बोली, "हमारा औरतों का समूह "मेरकातीनो" (छोटा बाज़ार) लगा रहा है, जो पैसा कमाएँगे उससे सूडान में डारफूर में शरणार्थियों के लिए भेजना है, कोई अपनी कमीज़ बगैरा दो न बेचने के लिए".

आजकल टीवी पर समाचारों में डारफूर के शरणार्थियों के बारे कई बार बता चुके हैं. मैंने अपनी अलमारी से दो कमीज़े निकाल दीं.

"अरे, यह नहीं कोई अच्छी सी दो न!" पत्नी बोली, "खुद तो पुराने, घिसे पिटे कपड़े पहने रखते हो, कम से कम दूसरों को तो अच्छे से कपड़े दो न, पुराने कपड़ों का ही दान किया तो क्या दान हुआ ?"

शनिवार, जून 10, 2006

पुरुष या स्त्री ?

तुर्की (Turkey) की एक टेलीविज़न चैनल ने एक नया रियेल्टी शौ करना का फैसला किया था. आजकल इन्हीं रियेल्टी शो यानि वह कार्यक्रम जिनमें जीवन की सच्चाई दिखाई जायी, कहानी नहीं, का ज़माना है. इस कार्यक्रम में आठ तुर्की युवक जिनकी आयु १९ से ३९ वर्ष के बीच में थी, को तीन सप्ताह तक एक टेलीविजन कैमरे के सामने एक घर में स्त्री बनके रहना था. कुछ नयी बात नहीं थी, यह एक अमरीकी कार्यक्ररम "ही इज़ ए लेडी" (He is a lady) यानि "वह पुरुष स्त्री है" पर आधारित था. पर यह प्रोग्राम उन्हें रद्द करना पड़ा क्योंकि बहुत सारे लोगों ने कहना शुरु कर दिया कि यह कार्यक्रम पुरुषों का अपमान था.

इधर इटली में श्रीमति ल्कसूरिया जी इतालवी संसद में चुनी गयी हैं. उनकी खासयित है कि वह इतालवी संसद की पहली ट्राँस हैं, ट्राँस यानि वह लोग जिन्हें अपना जन्मजात लिंग ठीक नहीं लगता और वे स्त्री से पुरुष या पुरुष से स्त्री बन जाते हैं.

इसी विषय पर एक नयी अमरीकी फिल्म भी आयी है, "ट्राँसअमेरिका" (Transamerica) जिसमें शल्यक्रिया (surgery) से पुरुष यौन अंग निकलवा कर स्त्री बन जाने का सपना देखने वाला पुरुष मुश्किल में पड़ जाता है जब उसे अपने किशोर पुत्र के साथ कुछ दिन रहना पड़ता है.

इस बारे में बात करना और लिखना भाषा की दृष्टि से आसान नहीं क्योंकि बहुत बार समझ नहीं आता कि जिस व्यक्ति की बात कर रहे हैं उसे पुरुष बुलायें क्योंकि समाज उसे पुरुष मानता है और उनके बाह्य शरीर पुरुष सा है या फ़िर स्त्री बुलायें क्योंकि उनके विचार में उनकी आत्मा स्त्री की है जो गलत शरीर में कैद है ?

मुझे इस विषय में जानकारी तब हुई जब कुछ साल पहले "विगलाँगता और यौनता" के विषय पर शोध कर रहा था. शरीर के बाह्य और भीतरी लिंग में साम्यता न होना भी एक तरह की विकलाँगता है, ऐसा सोचने से इस परिस्थिति में फँसे लोगों के जीवन को घेरने वाली बहुत सी कठिनाईयों को समझने और उनके निधान ढ़ूँढ़ने का अवसर मिलता है.

शोध के सिलसिले में मेरी मुलाकात ईमेल के द्वारा आस्ट्रेलिया की एक युवती से हुई जो युवक बन कर पैदा हुई थी और जो विश्वविद्यालय में ट्राँस विषयों पर शोध कर रही थी. उसने बहुत सी जानकारी दी मुझे. पहले सोचता था कि यह सिर्फ कुछ पुरुषों की समस्या होती है, उसने बताया कि कुछ स्त्रियाँ भी होती हैं जो स्वयं को स्त्री शरीर में पुरुष महसूस करती हैं पर पुरुष के लिए बाह्य यौन अंग शल्यक्रिया से ठीक करवा कर स्त्री बन पाना अधिक आसान है, स्त्री के लिए पुरुष यौन अंग बनवाना बहुत अधिक कठिन.

यह भी सोचता था कि जो पुरुष इस तरह महसूस करते हैं वे सब समलैंगिक होते हैं यानि स्त्री बन कर अन्य पुरुषों के साथ रहना चाहते हैं. मेरी आस्ट्रेलियाई मित्र ने समझाया कि शरीर का लिंग और यौन रुझाव अलग चीज़े हैं. जैसे कि कुछ भीतर से स्वयं को स्त्री सोचने वाला पुरुष, किसी स्त्री की तरफ आकर्षित हो सकता हैं और दूसरी तरफ, अधिकतर समलैंगिक पुरुष अपने पुरुष शरीर से संतुष्ट हैं और स्त्री शरीर नहीं चाहते.

शरीर और भावनाओं का मेल न खाना और स्वयं को गलत शरीर में कैदी सोचना, हारमोन ले कर या शल्यक्रिया से अपने बाह्य शरीर को बदलना, इन सब का अर्थ है कि उस व्यक्ति का सारा जीवन संघर्ष और पीड़ा से गुज़रेगा. अक्सर अपने परिवार से ठुकराये जाते हैं वह. भारत में भी तो जाति से, समाज से बाहर कर उनकी अलग बंद दुनिया ही बन जाती है.


बुधवार, जून 07, 2006

धोखा नम्बर 419

ईमेल में आने वाले संदेश जिनमें कोई लिखे कि उसे करोड़ों रुपये एक जगह से दूसरी जगह भेजने हैं और अगर आप इस काम में उसकी मदद करें तो आप को भी कुछ करोड़ का कमीशन मिल जायेगा. जितने भी इस तरह के संदेश आते हैं मैं उन्हें तुरंत कूड़े के डिब्बे में डाल देता हूँ, शायद इस लिए कि इनकी आदत सी पड़ गयी है और हर दूसरे दिन ऐसे संदेश आते रहते हैं. पर जब पहली बार ऐसा संदेश देखा था तो सचमुच थोड़ी देर के लिए संदेह में पड़ गया था.

बिना कुछ किये करोड़ रुपये बन जायें तो इसमें क्या बुरा है ? इसी चक्कर में बहुत से लोग अपना बहुत कुछ खो बैठे हैं, यह जान कर मुझे बहुत आश्चर्य हुआ. जर्मनी की फ्रीडा स्परिंगर बैक नाम की स्त्री पिछले 12 साल से नाईजीरिया की राजधानी लागोस में इसी चक्कर में हैं. उनका कहना है कि इस काम का विश्वकेन्द्र नाईजीरिया में ही है जहाँ हज़ारों लोग इस धँधे में लगे हैं. धोखाधड़ी की कानूनी धारा जिसे भारत में 420 कहते हैं, नाईजीरिया में 419 के नाम से जानी जाती है और फ्रीडा के अनुसार यह वहाँ का गृह उद्योग है जिससे नाईजीरिया बहुत विदेशी मुद्रा कमाता है.

यह धोखा बहुत पुराना है और पहले चिट्ठियों के द्वारा होता था, अंतरजाल के आविष्कार के बाद, ईमेल से इसे और भी तरक्की मिली है. फ्रीडा ने मुकदमा किया है फ्रेड आउडूआ पर जो इस धँधे का बादशाह कहलाते हैं और 12 साल से कोशिश कर रहीं हैं कि अपना पैसा वापस पा सकें और आउडूआ को जेल भिजवा सकें. जब बात चिट्ठियों से होती थी, इस धोखे के शिकार बनते थे केवल विकसित देशों के लोग, पर अब यह धोखा ईमेल से सारे विश्व में हो सकता है.

धोखे का तरीका बहुत आसान है. फ्रीडा को नाईजीरिया जाने का हवाई टिकट भेजा गया, वहाँ रहने के लिए पाँच सितारा होटल में मुफ्त ठहराया गया. उन्होने कहा कि मरने से पहले फ्रीडा के पति ने कुछ पैसा वहाँ एक प्राइवेट बिजलीघर में लगाया था जिसमें करोड़ों का फायदा हुआ. पर पैसे मिलने से पहले, फ्रीडा को टेक्स देना था और वकील की फीस, कुल रकम का १ प्रतिशत. फ्रीडा को विभिन्न तथाकथित बैंक आफिसरों से मिलाया गया, और सरकारी दफ्तरों में घुमाया गया, सब कुछ असली लगता था. सब खर्चों में फ्रीडा ने करीब 3,60,000 यूरो खर्च किये और तब समझीं कि धोखा था.

तब से फ्रीडा ने उन धोखेबाजों से लड़ने का फैसला किया है, वहीं लागोस में ठहर गयीं हैं. उनके जैसे धोखा खाये बहुत से लोगों ने उनके साथ जुड़ने का फैसला किया है. पहले तो श्री आउडुआ ने उन्हें गम्भीरता से नहीं लिया था, सोचा था थक कर यह औरत वापस अपने देश चली जायेगी पर वह इतनी जिद्दी निकलेंगी इसकी अब उन्हें भी चिंता होने लगी है और उन्होंने फ्रीडा को उसके पैसे वापस देना का वायदा किया है.

*****
आज दो तस्वीरें पिछले साल की, घर के पास एक खेत से जहाँ गर्मियों में पोपी के फ़ूल खिलते हैं. इस साल गर्मियाँ आने का नाम ही नहीं ले रहीं. कल रात का न्यूनतम तापमान था 5 डिग्री. अभी तक रात को रजाई ले कर सोना पड़ रहा है.




मंगलवार, जून 06, 2006

कैसे कहें ?

पहले सोचा कि लोरेना बेरदुन (Lorena Berdùn) के बारे में लिखूँ. रात को देर हो गयी थी, जब डीवीडी देख कर उसे बंद किया तो टेलीविज़न का एक प्रोग्राम आ रहा था. सुंदर लड़की, थोड़े से कपड़े पहने, बात कर रही थी यौन सम्बंधों की. बात करने का बिल्कुल सीधा अंदाज़, यानि दूध का दूध और पानी का पानी, कुछ भी कहने में उसे कुछ झिझक नहीं थी, हाथ के इशारों से हर बात अच्छी तरह समझाती थी ताकि जिनको सुनाई कम देता हो, वे भी बात को ठीक से समझ सकें.

अंतरजाल पर खोजा तो पाया कि कुमारी लोरेना तो बहुत प्रसिद्ध हैं. स्पेनवासी लोरेना ने मनोविज्ञान की उच्च शिक्षा के बाद यौनज्ञान विषेशज्ञ का काम अपनाया और कुछ पत्रिकाओं में पढ़ने वालों के पत्रों के उत्तर देने का काम शुरु किया. जल्दी ही उनकी प्रसिद्धी फैलने लगी क्योंकि वे सभी प्रश्नों के उत्तर बड़े खुले तरीके से देतीं थीं. कुछ ही समय में उन्हे टेलीविजन पर अपनी बात कहने का मौका मिलने लगा. वहाँ उन्होंने बिना झिझक किसी भी प्रश्न का उत्तर देने के साथ साथ कम कपड़े पहनने का काम प्ररम्भ किया. कुछ नग्न तस्वीरें भी खिंचवाईं. चूँकि स्पेन में कोई यह कह कर कि "हमारी संस्कृति में ऐसा करना पाप है, हम इसे न होने देंगे", दँगा फसाद करने वाले नहीं थे, तो लोरेना जी का नाम दिन दूना रात चौगुना बढ़ा और स्पेन से बाहर भी फ़ैलने लगा.

आजकल वह इतालवी टेलीविजन की ला7 (La7) चैनल पर रात को 11 बजे के बाद आने वाले एक कार्यक्रम में नाम कमा रहीं हैं. सोचा कि आप को उनके कुछ प्रश्न और उत्तर नमूने की तरह दिखाये जायें. उनके अंतरजाल पर प्रस्तुत कुछ स्पेनिश भाषा के साक्षात्कारों को खोजा पर उनका हिंदी में अनुवाद नहीं कर पाया. ऐसी बातें करने के लिए तो एक "केवल व्यस्कों के लिए" चिट्ठे की आवश्यकता है!
*****

आज की तस्वीर है मिस्र से, गीज़ा के पिरामिडों के पास. तस्वीर वाली औरत कुँगफू स्टाईल में हाथ ऊपर नीचे उठा रही थी तो मैंने तुरंत तस्वीर खींच ली. बाद में समझ में आया कि वह ऐसा क्यों कर रही थी. आप बताईये, क्या कर रही थी वह ?

रविवार, जून 04, 2006

ससुराल में भूमँडलीकरण

मेरी ससुराल उत्तरी इटली में वेनिस के पास छोटा से शहर स्कियो (Schio) में है. जब तक पत्नी की माँ ज़िन्दा थीं तब तक उन्हें मिलने साल में कई बार जाते थे, पर पिछले कुछ सालों से स्कियो जाने के मौके कम ही मिलते हैं. इस सप्ताह छुट्टियाँ थीं तो श्रीमति ने दो दिन के लिए स्कियो जाने का प्रोग्राम बनाया.

शहर छोटा अवश्य है पर बहुत सुंदर है. चारों ओर एल्पस के पहाड़ों से घिरा हुआ, हरियाली से भरा. वहाँ बसने वाले प्रवासी लोग कहते हैं कि वहाँ के लोग कुछ ठँडी तरह के हैं, प्रवासियों से ठीक से बात नहीं करते, पर निजी अनुभव ऐसा नहीं है. शायद इस लिए कि श्रीमति जी का परिवार कई सदियों से वहाँ रह रहा है और उसकी वजह से वहाँ के लोग मेरे साथ आम प्रवासियों वाला व्यावहार नहीं करते ?

स्कियो छोटा सा है पर बहुत पैसे वाला शहर है. वहाँ बने लक्सओटिका चश्मे सारी दुनिया में निर्यात होते हैं. साथ ही बहुत पुराने विचारों वाला शहर है. "असभ्य प्रवासियों को बाहर निकालो ... मुसलमान नहीं चाहिये यहाँ... हम इटली से अलग हो कर अपना देश पादानिया बनायेंगे..." जैसी बातें करने वाली नेशनलिस्टिक पार्टी "लेगा नोर्द" का यहाँ बहुत ज़ोर है.
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शाम को कुत्ते को ले कर सैर को निकला तो रास्ते में पुराना मित्र ज्योर्जो मिल गया. बहुत जोश से गले मिला और साथ ही चलने लगा. उसके परिवार की कई दुकाने हैं स्कियो में और बहुत पैसा है उनके पास. भारत और नेपाल कई बार घूम कर आ चुका है और दोनो ही देश उसको बहुत प्रिय हैं.

बातें करते करते, बात आई "लेगा नोर्द" पार्टी की. वह बोला, "मैं यहाँ की पार्टी के दफ्तर में सचिव हूँ." सुन कर मैं सन्न सा रह गया. उसके जैसा देश विदेश घूमा, भारत प्रेमी कैसे इस तरह का सोच सकता था. मैंने पूछा, "अगर तुम सभी प्रवासियों के विरुद्ध हो तो फ़िर तो मुझे भी तुमसे डरना चाहिये ?"

वह गम्भीर हो कर बोला, "पढ़े लिखे सभ्य लोग आयें तो बुरा नहीं लगता पर यहाँ तो अनपढ़, पिछड़े विचारों वाले लोग आ रहे हैं, जिनमें न हमारी सभ्यता की कोई जानकारी है और न ही वह कोई जानकारी चाहते हैं. वह तो आपस में मिल कर चूहों की तरह रहना चाहते हैं और हमारे जीवन को नष्ट कर रहे हैं. उनकी औरतें तो काले पर्दे में सिर से पाँव तक ढ़कीं रहतीं हैं, कहते हैं कि हमारी औरतों को भी इस तरह खुले नहीं घूमना चाहिए ..."

घूमते घूमते स्कियो के पुराने भाग में आ गये जहाँ तंग, छोटी छोटी गलियाँ हैं. इस तरफ आये तो मुझे कई साल हो गये थे. बिल्कुल बदल गयी थी यह जगह. पुरानी दुकानें, कैफ़े, बार आदि होते थे यहाँ. उनकी जगह, टेलीफोन सेंटर, हलाल मीट की दुकान, एशियन स्टोर जैसी दुकानें खुल गयीं थीं. सारी सड़क विदेशियों से भरी थी, कहीं बगँलादेश वाले, कहीं पाकिस्तान वाले, कहीं टुनिसी और मोरोक्को वाले, कहीं नाईजीरिया वाले, कहीं पूर्वी यूरोप वाले.

ज्योर्जो गुस्से से बोला, "देखो, क्या कर रहे हैं यह असभ्य लोग! कितनी ज़ोर ज़ोर से बात करते हैं, आपस में चिल्लाते हैं. सड़क पर कागज, गन्दगी फ़ैंक देते हैं! बताओ, कोई है यहाँ इतालवी बोलने वाला ? तुम्हारे भारत में किसी सड़क पर इस तरह सारे विदेशी आ जायें तो क्या तुम सह पाओगे ?"
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लिवियो मिला. उसकी पत्नी सांद्रा हमारी श्रीमति की बचपन की मित्र है. लिवियो की फेक्टरी है, जहाँ चमड़े के कपड़े बनाते हैं. मैंने ही ज्योर्जो से हुई बात कही तो लिवियो बोला, "मुझे अपनी फेक्टरी में काम करने के लिए कोई इतालवी नहीं मिलता. लोग कहते हैं कि बदबू वाला काम है. इतने नखरे हैं इनके, यह करेंगे, वह नहीं करेंगे, आज छुट्टी चाहिये, कल वह चाहिये. अगर प्रवासी न हों तो हमारी सारी फेक्टरियाँ बंद हो जाये. यहाँ लोग बच्चे तो पैदा नहीं करते, लड़के लड़कियाँ चालिस साल के हो जाते हैं पर शादी नहीं करते, तो हम काम कैसे करें ? मुझे भी अच्छा नहीं लगता कि हमारे शहर इस तरह विदेशियों से भर जायें पर क्या करें ? अपनी फेक्टरी को पूर्वी यूरोप के किसी देश में या चीन ले जायें ?"

भूमँडलीकरण में दुनिया बदल रही है. शायद इण्लैंड, अमरीका में ऐसे परिवर्तन बहुत पहले आ चुके हैं और उनसे सीखना चाहिये कि कैसे स्कियो जैसे छोटे शहर इस परिवर्तन का सामना करें!

आज की तस्वीरों में स्कियो में हमारी छुट्टियाँ.








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तरुण ने लिखा है कि मुझ जैसे "वरिष्ठ" चिट्ठाकारों को अनुगूँज के विषय पर लिखना चाहिये. तरुण, वरिष्ठता की पदवी के लिए धन्यवाद. हालाँकि नेतागिरी और राजनीति के विषय पर लिखने की कोई इच्छा नहीं थी, पर तुमने कहा तो अवश्य कोशिश करुँगा.

शुक्रवार, जून 02, 2006

कहाँ से चले

विचार थाली के बेंगन होते है, कभी इधर लुड़कते हैं कभी उधर, कहीं से शुरु होते हैं और कहीं और जा कर रुकते हैं. कुछ ऐसा ही है अतंरजाल पर घूमना. छुट्टियाँ हैं इन दिनों, इस लिए कभी कभी यहाँ वहाँ घूमने और पढ़ने में बहुत समय निकल जाता है.

एक जगह पढ़ा कि स्पेन की सबसे प्रसिद्ध अभिनेत्री, पेनेलोपे क्रूज़ (Penelope Cruz) ने स्पेनिश लेखक जाविएर मोरो (Javier Moro) की पुस्तक भारतीय प्रेम ज्वर (Indian Passion) पर फिल्म बनाने का निर्णय किया है जिसमें उनके साथ मुम्बई फिल्मी दुनिया के कई कलाकार भी होंगे. यह फिल्म एक स्पेनिश स्त्री अनीता देलगादो के एक भारतीय महाराजा से विवाह की कहानी है.

मन में कुछ उत्सुकता जागी कि कौन थी और किस भारतीय महाराजा से शादी की थी उन्होने ? हिंदी और अंग्रेजी पर खोज करने से अनीता देलगादो के बारे में कुछ विषेश नहीं खोज पाया सिवाय इसके कि कपूरथला के महाराजा जगतजीत सिंह से उनका विवाह हुआ था सन 1910 में.




पर स्पेनिश भाषा में खोज करने पर अनीता देलगादो के बारे में बहुत कुछ पढ़ने को मिला. आंजेल देलगादो और कंदेलारिया ब्रिओनेस की पुत्री अनीता का जन्म हुआ मलागा में 8 फरवरी 1890 को हुआ था. गरीब घर में जन्मी अनीता गायिका नर्तकी बन कर मेडरिड पहुँच गयीं जहाँ "सेंत्राल कुरसाल" नाम के रेस्तोरेंत में 1908 में उन्हें गाता देख कर जगतजीत सिंह जी उन पर मुग्ध हो गये और उनसे शादी का प्रस्ताव रखा. अनीता पहले तो नहीं मानी फिर महाराजा के साथ पेरिस पहुँची और उसके बाद विवाह करके मुम्बई और कपूरथला. 1925 में वे जगतजीत सिंह से अलग हो कर पहले फ्राँस में आयीं और फिर मेडरिड, जहाँ 7 जुलाई 1962 को उनकी मृत्यु हुई. उनका एक बेटा था राजकुमार अजीत सिंह जो 1910 में पैदा हुए और 1967 में लंदन में मरे.


अनीता की कहानी पढ़ने के बाद दोबारा जगतजीत सिंह के बारे में पढ़ा. सिख साँस्कृतिक धरौहर (Sikh Heritage) नाम के अंतरजाल स्थल पर उनके बारे में बहुत लम्बा लिखा है. इस लेख और उसी विषय पर स्पेनिश में जो पढ़ा, उनमें बहुत अंतर है. यह लेख महाराजाधिराज के किसी अपने द्वारा लिखा लगता है जिसमें जगतजीत सिंह और उनके खानदान को बहुत बढ़ा चढ़ा कर बताया गया है, कितने अमीर थे वह, कितने विद्वान थे, कितनी भाषाएँ जानते थे, कैसे यूरोप के विभिन्न राजा महाराजों से उनके निकट के सम्बंध और दोस्ती थी, कैसे यह ड्यूक या वह बेरोन उनके यहाँ रहने आये, कैसे अंग्रेजी सरकार ने उन्हे यह या वह खिताब दिया. लेख गर्व से यह भी बताता है कैसे उन्होने अंग्रेजों के साथ वफादारी दिखाई और दुश्मनों (भारत की स्वत्रंता के लिए लड़ने वालों) के छक्के छुड़ा दिए और इसके बदले में उन्हें क्या खिताब और ज़मीनें मिलीं.

स्वत्रंता के बाद उनको पुत्रों ने भारतीय सेना में शामिल हो कर पाकिस्तान से युद्धों में वीरता के पुरस्कार भी पायें हैं. आज कपूरथला के महाराजा है जगतजीत सिंह के पोते ब्रिगेडियर सुखजीत सिंह जिन्हें महावीर चक्र मिला था.

स्पेनिश में अनीता देलगादो के बारे में जगतजीत सिंह की शान में कुछ नहीं लिखा है, लिखा है कि स्पेन में स्कैंडल हो गया कि उनकी लड़की एक भारतीय से विवाह करके भारत जा रही थी. लिखने का तरीका ऐसा है कि लगता है उनकी दृष्टि में स्पेन में रहने वाली गरीब नाचने वाला उनका जीवन भारत जैसे देश में रहने से कई गुना अच्छा था और जगतजीत के साथ भारत जा कर उन्होंने बड़ा त्याग किया हुआ हो.

जगतजीत सिंह के बारे में पढ़ते पढ़ते, एक और बात निकल आई. 1877 में पैदा हुए जगतजीत सिंह ने 1886 में 9 वर्ष की आयू में महारानी हरबँस कौर से पहला विवाह किया. दूसरा विवाह किया 1910 में अनीता देलगादो से और तीसरा विवाह किया चेकोस्लोवाकिया की एउजेनिया ग्रोसूपोवा से जिन्होंने दिल्ली की कुतुब मीनार से कूद कर आत्महत्या की थी.

यह पढ़ कर बहुत अचरज हुआ और अब एउजेनिया ग्रोसूपोवा के बारे में जानने की उत्सुक्ता जागी है. अभी तक अंतरजाल में उनके बारे में कुछ अधिक नहीं खोज पाया हूँ पर शायद चेक भाषा में खोजूँ तो अवश्य मिल जायेगा!

गुरुवार, जून 01, 2006

मोटे, छोटे देश

मेले में कभी कभी जादू के शीशे वाला कमरा भी होता है, किसी शीशे में आप बिल्कुल पतले लगते हैं और किसी में आप के गाल फ़ूल जाते हैं. वर्ल्ड मेप्पर के नक्शे देख कर भी लगता है मानो जादू के शीशों के कमरे में घुस आये हों. यह नक्शे बनाने वाले डेन्नी डोरलिंग और अन्ना बारफोर्ड के बारे में न्यू साईंटिस्ट (New Scientist) में पढ़ा. इन नक्शों को बनाने के लिए उन्होंने मिशिगेन तथा एन आर्बर में शोध करने वाले माईकल गेस्टनर तथा मार्क न्यूमेन के बनायी आलगोरिदम का प्रयोग किया है.



आम नक्शे तो हर देश के धरातल को दिखाते हैं जैसे ऊपर वाले नक्शे में दिखता है, वर्ल्ड मेप्पर के नक्शे देशों को विभिन्न मापदँडों से तोलते हैं, जैसे कि देश की आबादी. देश के धरातल के मुकाबले में जितनी आबादी अधिक होगी, उतना ही वह देश फूल जायेगा, जितनी आबादी कम होगी, उतना ही वह देश पतला दिखेगा. नीचे वाले नक्शे में देखिये, अमरीका, दक्षिण अमरीका के देश कितने पतले हैं और एशिया के देश कितने मोटे.



प्रस्तुत है वर्ल्ड मेप्पर से कुछ अन्य नक्शे. सबसे पहले देशों की पर्यटन से होने वाली आमदनी का नक्शा.



अगले नक्शे में है कोपीराईटिंग और रायल्टीस से होने वाली आमदनी.



इस नक्शे में विभिन्न देशों में दो पहिये से चलने वाले वाहनों की संख्या को देखिये, भारत कितना आगे है यहाँ.



इस नक्शे में देखिये कपड़ों के निर्यात से होने वाली आमदनी को



और यह अंतिम नक्शा है रेलगाड़ी से यात्रा करने वाले लोगों की संख्या पर बना.



और भी बहुत सारे रोचक नक्शे हैं वर्ल्ड मेप्पर पर. सोचने पर मजबूर कर देते हैं न यह नक्शे ?

बुधवार, मई 31, 2006

सोचने का अधिकार

किसी ने कहा था, "मैं तुम्हारी बात से बिल्कुल भी सहमत नहीं पर तुम्हें अपनी बात कहने का पूरा अधिकार हो, इसके लिए जी जान से लड़ूँगा". मैं इस बात में पूरा विश्वास करता हूँ कि हम सब को अपनी बात कहने का अधिकार है, शर्त केवल इतनी है कि आप अपनी बातों से हिंसा को न भड़काईये. भिन्न सोचने और बोलने का अधिकार मानव अधिकारों का अभिन्न अंग है. इसी अधिकार का हिस्सा है कि आप अपनी बात किसी भी भाषा या माध्यम से कहिये, चाहे वह गीत हो या कला.

इस अधिकार से कट्टरपंथियों को सहमती नहीं होती. तुमने यह कैसे लिखा या बनाया या सोचा, वे पूछते हैं, क्योंकि उनके हिसाब से उनका धर्म इसकी आज्ञा नहीं देता. मानव अधिकार उनकी नजर में धर्म से नीचे हैं. अपनी बात को तलवार और डँडे के साथ कहते हैं क्योंकि तुम्हें चुप कराने के लिए, तुम्हे साथ ही सजा देना भी जरुरी समझते हैं.

गुजरात में आमीर खान के नर्मदा आंदोलन और मेधा पाटेकर का समर्थन करने के बाद भी कुछ ऐसा ही हुआ है. मेधा, आमीर या उस आंदोलन के अन्य लोग क्या कहते हैं उस पर बहस कर सकते हैं, उससे असहमत हो सकते हैं, पर किसी का मुँह बंद करने की और उसे डराने, धमकाने की कोशिश करना, कारें और दुकाने जलाना, तोड़ फोड़ करना, मेरे विचार में केवल आत्मविश्वास की कमी से जन्मी गुँडागर्दी है.

धर्म के साथ जुड़ी बातों में अक्सर इस आत्मविश्वास की कमी से जन्मी हिंसा के दर्शन होते हैं. कितने कमजोर हैं वे भगवान जो किसी की छाया से या किसी के शब्दों से या कागज पर बने चित्रों से भ्रष्ट हो जाता है! शायद लोग अपनी कमजोरी को भगवान की कमजोरी समझ लेते हैं ?

महात्ना बुद्ध के विचारों के साथ, आज से दो हजार साल पहले, भारतीय संस्कृति चीन, मंगोलिया, जापान तक पहुँची थी उसके लिए कोई युद्ध नहीं हुआ था, वह प्रेम और विचारों के माध्यम से पहुँची थी. उसके अवशेष आज भी इंदोनेशिया में बाली, कम्बोदिया में अंगकोर वात और वियतनाम के चम्पा में जीवित हैं. संस्कृति और विचारों को तलवार की ताकत की आवश्यकता नहीं, मानव अधिकारों को दृढ़ करने की आवश्यकता है.

मेरे विचार में इसका अर्थ है कि जहाँ भी धर्म के नाम पर लोगों को स्वतंत्रता और आत्मसम्मान से जीने न दिया जाये, उसका हर बार विरोध करना चाहिये. यह कहने पर मुझसे कुछ लोग कहते हैं कि यह बात तो केवल भारत में कह सकते हैं पर जब पाकिस्तान या बँगलादेश में हिंदू होने से मानव अधिकार नहीं रहते तो कोई कुछ नहीं कहता? मुझे लगता है कि अगर दूसरे कट्टरपंथी हैं और दूसरों की देखादेखी हम अपनी नैतिकता, अपने आचरण, अपनी सोच को उन जैसा बना लेंगे, तो असली जीत होगी उनकी.

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