किसी ने कहा था, "मैं तुम्हारी बात से बिल्कुल भी सहमत नहीं पर तुम्हें अपनी बात कहने का पूरा अधिकार हो, इसके लिए जी जान से लड़ूँगा". मैं इस बात में पूरा विश्वास करता हूँ कि हम सब को अपनी बात कहने का अधिकार है, शर्त केवल इतनी है कि आप अपनी बातों से हिंसा को न भड़काईये. भिन्न सोचने और बोलने का अधिकार मानव अधिकारों का अभिन्न अंग है. इसी अधिकार का हिस्सा है कि आप अपनी बात किसी भी भाषा या माध्यम से कहिये, चाहे वह गीत हो या कला.
इस अधिकार से कट्टरपंथियों को सहमती नहीं होती. तुमने यह कैसे लिखा या बनाया या सोचा, वे पूछते हैं, क्योंकि उनके हिसाब से उनका धर्म इसकी आज्ञा नहीं देता. मानव अधिकार उनकी नजर में धर्म से नीचे हैं. अपनी बात को तलवार और डँडे के साथ कहते हैं क्योंकि तुम्हें चुप कराने के लिए, तुम्हे साथ ही सजा देना भी जरुरी समझते हैं.
गुजरात में आमीर खान के नर्मदा आंदोलन और मेधा पाटेकर का समर्थन करने के बाद भी कुछ ऐसा ही हुआ है. मेधा, आमीर या उस आंदोलन के अन्य लोग क्या कहते हैं उस पर बहस कर सकते हैं, उससे असहमत हो सकते हैं, पर किसी का मुँह बंद करने की और उसे डराने, धमकाने की कोशिश करना, कारें और दुकाने जलाना, तोड़ फोड़ करना, मेरे विचार में केवल आत्मविश्वास की कमी से जन्मी गुँडागर्दी है.
धर्म के साथ जुड़ी बातों में अक्सर इस आत्मविश्वास की कमी से जन्मी हिंसा के दर्शन होते हैं. कितने कमजोर हैं वे भगवान जो किसी की छाया से या किसी के शब्दों से या कागज पर बने चित्रों से भ्रष्ट हो जाता है! शायद लोग अपनी कमजोरी को भगवान की कमजोरी समझ लेते हैं ?
महात्ना बुद्ध के विचारों के साथ, आज से दो हजार साल पहले, भारतीय संस्कृति चीन, मंगोलिया, जापान तक पहुँची थी उसके लिए कोई युद्ध नहीं हुआ था, वह प्रेम और विचारों के माध्यम से पहुँची थी. उसके अवशेष आज भी इंदोनेशिया में बाली, कम्बोदिया में अंगकोर वात और वियतनाम के चम्पा में जीवित हैं. संस्कृति और विचारों को तलवार की ताकत की आवश्यकता नहीं, मानव अधिकारों को दृढ़ करने की आवश्यकता है.
मेरे विचार में इसका अर्थ है कि जहाँ भी धर्म के नाम पर लोगों को स्वतंत्रता और आत्मसम्मान से जीने न दिया जाये, उसका हर बार विरोध करना चाहिये. यह कहने पर मुझसे कुछ लोग कहते हैं कि यह बात तो केवल भारत में कह सकते हैं पर जब पाकिस्तान या बँगलादेश में हिंदू होने से मानव अधिकार नहीं रहते तो कोई कुछ नहीं कहता? मुझे लगता है कि अगर दूसरे कट्टरपंथी हैं और दूसरों की देखादेखी हम अपनी नैतिकता, अपने आचरण, अपनी सोच को उन जैसा बना लेंगे, तो असली जीत होगी उनकी.
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सुनील जी, ये विषय पेचीदा है। अच्छा होगा अगर आप ये चर्चा परिचर्चा पर करें।
जवाब देंहटाएंआप ठीक कह रहे हैं, लेकिन विनम्रता और पूरे आत्मविश्वास के साथ वाद विवाद करना हरेक के बस की बात नहीं। इसलिए नियंत्रण बीच में आता है।
सचमुच, बहुत सही फरमाया आपने। आमिर तो बेचारा खामखा फस गया। उसने बिलकुल साफ शब्दो मे नर्मदा बांध का समर्थन किया फिर भी। गुजरात मे मेरे दोस्त भी यही मानते है। खेर मै मानता हूं सच्ची लोकशाही वही है जिसमे हर किसी को अपनी विचारधारा जताने का ओर उसे फोलो करने का हक हो। आपको अगर किसी धार्मिक मान्यता मानने का हक है तो मुझे उसका विरोध करने का हक भी है। उसके बाद मे किसकी मान्यता ज्यादा अछ्छी है उसका फैसला आप समाज , सरकार, या कोर्ट को करने दो। लेकिन आपको कोइ हक् नहि है की आप सामनेवाले की मान्यता का इस तरह हिंसक विरोध करे...बादमे मै अपने ब्लोग पे शायद इसपे लिखूंगा..
जवाब देंहटाएंकहते हैं कि कलियुग में कुछ भी सोचना पापपूर्ण नहीं है, पाप अथवा अपराध का दायरा वहाँ से शुरू होता है जहाँ से आपकी नकारात्मक सोच दुष्कर्म में रूपांतरित होती है। जबकि सतयुग में स्वप्न में भी बुरा सोचने का दंड भुगतना पड़ता था और सत्यवादी हरिश्चंद्र की कथा से पता चलता है कि लोग स्वप्न में भी दिए गए सत्य वचन की रक्षा के लिए अपना सबकुछ न्यौछावर करने को तैयार रहते थे। यदि शंबूक प्रसंग को याद करें, जिसे अधिकांश लोग प्रक्षेप मानते हैं, लेकिन जिसके बारे में भवभूति से लेकर भगवान सिंह तक ने मर्मस्पर्शी ढंग से लिखा है, तो उसमें शंबूक का अक्षम्य अपराध यह माना गया था कि वह एकांत वन में मौन ध्यान में लीन थे, जबकि वह शूद्र होने के कारण ब्रह्मोपासना एवं ध्यान करने के अधिकारी नहीं थे। इस तथाकथित अपराध के लिए उन्हें मृत्युदंड की सजा दी गई, वह भी मर्यादा पुरुषोत्तम राम के हाथों। उस प्रसंग में बुरा सोचने का मामला भी नहीं था, शंबूक तो सोच की ऊँचाई की पराकाष्ठा पर थे। इतिहास में मंसूर, ईसा मसीह आदि जैसे सैकड़ों उदाहरण मौजूद हैं जब लोगों को सिर्फ अच्छा सोचने और दूसरों को भी सही तरह से सोचने के लिए प्रेरित करने पर दंडित किया गया। कुछ ही वर्ष पहले पंजाब में आतंकवाद के दिनों में, मशहूर कवि पाश को सिर्फ उनकी कविताओं के लिए गोली मार दी गई। उनकी ये पंक्तियाँ मुझे हमेशा याद आती हैं, 'घर से निकलना काम पर और काम से लौटकर घर आना, सबसे खतरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना।'
जवाब देंहटाएंआधुनिक समय इसी अर्थ में बीते युगों से श्रेष्ठतर है कि सोचने और अपनी सोच को निर्भीकता से अभिव्यक्त करने को अपराध नहीं माना जाता। लेकिन कुछ लोग आज भी बीते युगों में रहते हैं जो लोगों की सोच और विचारों की आजादी पर पाबंदी लगा देना चाहते हैं। जो कोई उनकी सोच के विपरीत सोचे, जिनके विचार उनके हितों के प्रतिकूल दिशा में हों, उन्हें वे मिटा डालने को उद्यत हो जाते हैं। ऐसे ही लोगों के कारण हमारे लोकतंत्र, हमारी सभ्यता और मानवता के भविष्य को नुकसान पहुँच रहा है।
यह संसार, यह जीवन केवल इसी उद्देश्य के लिए है कि मानव को शिक्षा मिले, उसके दोष दूर हों और वह अपने को संपूर्ण बनाए। इसके लिए सोच-विचार की आजादी पहली शर्त है और इस आजादी के दायरे में कुछ भी सोच सकने की आजादी शामिल है, बुरा भी और अच्छा भी। क्योंकि मनुष्य में अपनी गलतियों से सीख सकने का विवेक है।
विषय और लेख की गँभीरता की जगह इस पर रजनीश मंगला जी की पहली टिप्पणी मुझे सोचने पर अधिक विवश कर रही है। मैं परिचचर्चा का विरोधी नही हूँ, पर ब्लाग लेखन और परिचर्चा के बीच क्या कोई विभाजक रेखा है रजनीश भाई? जहाँ ब्लाग खुद को लेखक और सँपादक होने की स्वतँत्रता देता है, टिप्पणियों के माध्यम से दुतरफा सँवाद की सहूलियत देता है और साथ ही हर ब्लाग लेखक की अलग पहचान बनाता है वहीं परिचर्चा में आरएसएस, ट्रैकबैक चाहे जो भी जोड़ दें, रहेगा तो वह मूलरुप से फोरम ही। जहाँ तक मेरा ख्याल है इसे चिठ्ठाकारो को अनावश्यक ईमेलकी बमबारी से बचाने को ईजाद किया गया है। यहाँ तकनीकि सवाल हर करने को चर्चायें शुरू की गई थी जो स्वागत योग्य कदम था, पर अगर हम सुनील जी के लेख जैसे हर खुली बहस को आमँत्रण देते लेख को परिचर्चा में घसीटने लगे तो ब्लागलेखन के अस्तित्व पर सँकट आ जायेगा। यह गँभीर और विचारणीय प्रश्न है, इस तरह का विषय अनुगूँज के लिये सर्वथा उपयुक्त था। माना कि परिचर्चा भी हमारा अपना , खुला फोरम है , पर फिर यह कौन निर्धारित करेगा कि किस मँच का उपयोग किसलिये किया जाये।
जवाब देंहटाएंब्लागजगत में बढ़ते हुये इन सँसाधनो के लिये क्या हमें एक आचारसँहिता, दिगदर्शक मँडल की जरूरत नही महसूस होती? सोचिये अगर मैं एक नया नवेला ब्लागर हूँ जिसने सिर्फ यूनिकोड और ब्लागर से नाता जोड़ा है। उसको आप एकसाथ परिचर्चा , अनुगूँज, अक्षरग्राम , चिठ्ठाकार वेबरिंग, गुगल ग्रुप वगैरह के गुलदस्ते पेश कर दें, जिनमें अधिकाँश एक दूसरे के पूरक हैं ब्लकि कई एकदूसरे की सीमाओं का अतिक्रमण भी करते हैं कार्यक्षेत्र और उपयोगिता के हिसाब से, तो वह बेचारा नया ब्लागर कनफ्युजिया नही जायेगा?
अरे! अतुल का सिर? लंबी सी नाक थी न?
जवाब देंहटाएंसुनील जी देश,काल और परिस्थति के अनुसार अभिव्यक्ति का महत्व होता है। कितनी भी अच्छी बात यदि विपरीत परिस्थिति में और किसी की भावना को चोट पहुनचाने के उद्देश्य की कही जाती है तो अच्छी नहीं रह जाती ।अभिव्यक्ति का उद्देश्य ज्यादा महत्व रखता है। आपके कुछ कहने से यदि किसी को दुख पहुंचता है तो वह अभिव्यक्ति आपको स्वतन्त्र नही रहने देगी।क्यों कि कहा गया है--
जवाब देंहटाएंसत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात् सत्यमप्रियम् । इसलिये अभिव्यक्ति की प्रतिक्रिया करने वालों को दोष न देकर स्वयं अभिवक्ता को सोचना चाहिये कि गलती कहां हुई ।