"यह क्या टें टें लगायी है, कुछ अच्छा संगीत नहीं है क्या ?", शास्त्रीय संगीत सुन कर अधिकतर लोग कुछ ऐसा ही कहते हैं. मैं भी बचपन में ऐसा ही सोचता था. फिर जब १५-१६ साल का था तब पहली बार कुमार गंधर्व के भजन सुने तो उनका प्रशंसक हो गया. "उड़ जायेगा, हँस अकेला, जग दर्शन का मेला" जैसे उनके भजन मुझे आज भी उतना ही आनंद देते हैं जितना ३५ साल पहले देते थे. धीरे धीरे उनके अन्य संगीत को जानने की इच्छा हुई. कुछ शास्त्रीय रचनाएँ सुनी उनकी पर उन्हें ठीक से नहीं समझ पाया. फिर कुछ अन्य शास्त्रीय गायकों को देखने और सुनने का मौका मिला, जैसे पंडित भीमसेन जोशी, पंडित जसराज. उनकी सरल रचनाएँ, गीत या भजन आदि तो अच्छे लगते पर पूरे शास्त्रीय राग सुन कर कोई विषेश आनंद नहीं आता था.
कुछ समय बाद मौका मिला प्रभा अत्रे जी का गाया राग कलावती में "तन मन धन तोपे वारुँ" सुनने का. पहली बार समझ में आया कि शास्त्रीय संगीत कितना अच्छा हो सकता है. आज भी उनका यह गायन सुन कर रौगंटे खड़े जाते हैं. एक बार उनके इस गायन को कमरा बंद करके, बिना शोर के या फिर इयरफोन के साथ सुनिये, कुछ कुछ समझ आ जायेगा कि शास्त्रीय संगीत में क्या आनंद हो सकता है.
मुझे गायको से गायिकाएँ अधिक पसंद हैं, जैसे किशोरी आमोनकर, श्रुती सादोलिकर, वीणा सहस्रबुद्धे, मालिनी राजुरकर, इत्यादि. अभी तक केवल उत्तर भारत के हिंदुस्तानी संगीत की बात की है, दक्षिण भारत के कर्नाटक संगीत की नहीं. शुरु शुरु में कुछ बार सुनने की कोशिश की, पर कुछ खास मजा नहीं आया. वही बात मन में आती, "क्या एक जैसी टें टें चलती रहती है". फिर एक बार एकांत में बिना शोर के, ध्यान से सुनने की कोशिश की, तब आनंद आया.
मेरे विचार में अगर आप समझना चाहते हैं कि लोगों को शास्त्रीय संगीत में क्या मिलता है, तो इसे अकेले में पूरे ध्यान से सुनिये. शुरु शुरु में अगर आप कुछ और काम करते हुए इसे साथ साथ सुनेगें तो इसमे छुपी हुई ध्यान, साधना और भक्त्ति को नहीं समझ पायेंगे. मुझे आज भी रागों के नाम या उन्हें पहचानना नहीं आता, पर उसके बिना भी शास्त्रीय संगीत को सुन कर आनंद लिया जा सकता है.
आज दो तस्वीरें उत्तरी इटली की एल्पस पहाड़ों में "त्रेसका और कोंका" वादी सेः
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i have the same experience with people calling western classical music ting tong, elevator music etc.. it is something we have to give to fora while and not just passivley take from, like art cinema.. then it becomes instinctive
जवाब देंहटाएंशास्त्रीय संगीत की समझ मुझे भी कुछ खास नहीं, लेकिन बिना इस ज्ञान के भी इनका खूब आनंद् उठाया जा सकता है
जवाब देंहटाएंआपने बिलकुल सही कहा... एकांत में सुनें तो किसी और लोक में पहुँच जाने का सा एह्सास होता है...
मैं ने एक कविता लिखी थी मल्लिकार्जुन मंसूर पर...समय मिला तो उसे अपने चिट्ठे पर डालूँगी...
प्रत्यक्षा
जो कह न सके .................................................................... शाम को इंटरनेट पर राग अनुराग के विषय में कुच्छ दूंड रहा था तो .....श्री सुनील दीपक जी[ A doctor based in Guwahati (Assam), working in the field of disability & rehab in the North-East of India.t.के विचार पढ़ने को मिले उनके विचार काफ़ी हद तक मेरे विचारों से मेल खा रहे थे...उनके विचार जोशनिवार, सितंबर 03, 2005 को लिखे थ...
जवाब देंहटाएंअपने इतने पुराने आलेख को आप की टिप्पणी पढ़ कर दोबारा पढ़ा. धन्यवाद :)
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